शेष नारायण सिंह
२ अक्टूबर महात्मा गाँधी का जन्मदिन तो है ही, लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन भी है . इसी दिन १९५२ में भारत में कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम भी शुरू किया गया था. आज़ादी के बाद देश में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए शुरू किये गए कार्यक्रमों में यह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्यक्रम था . लेकिन यह असफल रहा ,अपने लक्ष्य हासिल नहीं कर सका.इस कार्यक्रम के असफल होने के कारणों की पडताल शायद महात्मा जी के प्रति सच्ची श्रध्हांजलि होगी क्योंकि इस कार्यक्रम को शुरू करते वक़्त लगभग हर मंच से सरकार ने यह दावा किया था कि कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम के ज़रिये महात्मा गान्धी के सपनों के भारत को एक वाताविकता में बदला जा सकता है.
सामुदायिक विकास वास्तव में एक ऐसी प्रक्रिया है जिस से एक समुदाय के विकास के लिए लोग अपने आपको औपचारिक या अनौपचारिक रूप से संगठित करते हैं.यह विकास की एक सतत प्रक्रिया है.इसकी पहली शर्त ही यही थी कि अपने यहाँ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल करके समुदाय का विकास किया जाना था जहां ज़रूरी होता वहां बाहरी संसाधनों के प्रबंध का प्रावधान भी था. कम्युनिटी डेवलपमेंट की परिभाषा में ही यह लिखा है कि सामुदायिक विकास वह तरीका है जिसके ज़रिये गांव के लोग अपनी आर्थिक और सामाजिक दशा में सुधार लाने के लिए संगठित होते हैं . बाद में यही संगठन राष्ट्र के विकास में भी प्रभावी योगदान करते हैं . सामुदायिक विकास की बुनियादी धारणा ही यह है कि अगर लोगों को अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेने के अवसर मुहैया कराये जाएँ तो वे किसी भी कार्यक्रम को सफलतापूर्वक चला सकते हैं .
भारत में २ अक्टूबर १९५२ के दिन जब कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम की शुरुआत की गयी तो सोचा गया था कि इसके रास्ते ही ग्रामीण भारत का समग्र विकास किया जाएगा.इस योजना में खेती,पशुपालन,लघु सिंचाई,सहकारिता,शिक्षा,ग्रामीण उद्योग अदि शामिल था जिसमें सुधार के बाद भारत में ग्रामीण जीवन की हालात में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकता था.कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम को लागू करने के लिए बाकायदा एक अमलातंत्र बनाया गया . जिला और ब्लाक स्तर पर सरकारी अधिकारी तैनात किये गए लेकिन कार्यक्रम से वह नहीं हासिल हो सका जो तय किया गया था. इस तरह महात्मा गांधी के सपनों के भारत के निर्माण के लिए सरकारी तौर पर जो पहली कोशिश की गयी थी वह भी बेकार साबित हुई . ठीक उसी तरह जिस तरह गांधीवादी दर्शन की हर कड़ी को अन्धाधुन्ध औद्योगीकरण और पूंजी के केंद्रीकरण के सहारे तबाह किया गया . कांग्रेस ने कभी भी गांधीवाद को इस देश में राजकाज का दर्शनशास्त्र नहीं बनने दिया . ग्रामीण भारत में नगरीकरण के तरह तरह के प्रयोग हुए और आज भारत तबाह गाँवों का एक देश है .
यह देखना दिलचस्प होगा कि इतनी बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजना को इस देश के हर दौर के हुक्मरानों ने कैसे बर्बाद किया .यहाँ यह ध्यान में रखना होगा कि उस योजना को तबाह करने वालों में जवाहरलाल नेहरू भी एक थे. उनके दिमाग में भी यह बात समा गयी थी कि भारत का ऐसा विकास होना चाहिये जिसके बाद भारत के गाँव भी शहर जैसे दिखने लगें . वे गाँवों में शहरों जैसी सुविधाओं को उपलब्ध कराने के चक्कर में थे .उन्होंने उसके लिए सोवियत रूस में चुने गए माडल को विकास का पैमाना बनाया और हम एक राष्ट्र के रूप में बड़े शहरों , मलिन बस्तियों और उजड़े गाँवों का देश बन गए . कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम को शुरू करने वालों ने सोचा था कि इस कार्यक्रम के लागू होने के बाद खेतों, घरों और सामूहिक रूप से गाँव में बदलाव आयेगा . कृषि उत्पादन और रहन सहन के सत्र में बदलाव् आयेगा . गाँव में रहने वाले पुरुष ,स्त्री और नौजवानों की सोच में बदलाव लाना भी कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम का एक उद्देश्य था लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. सरकारी स्तर पर ग्रामीण विकास के लिए जो लोग तैनात किये गए उनके मन में सरकारी नौकरी का भाव ज्यादा था , इलाके या गांव के विकास को उन्होंने कभी प्राथमिकता नहीं दिया . ब्रिटिश ज़माने की नज़राने और रिश्वत की परम्परा को इन सरकारी कर्मचारियों ने खूब विकसित किया. पंचायत स्तर पर कोई भी ग्रामीण लीडरशिप डेवलप नहीं हो पायी. अगर विकास हुआ तो सिर्फ ऐसे लोगों का जो इन सरकारी कर्मचारियों के दलाल के रूप में काम करते रहे. इसी बुनियादी गलती के कारण ही आज जो भी स्कीमें ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत गाँवों में भेजी जाती हैं उनका लगभग सारा पैसा इन्हीं दलालों के रास्ते सरकारी अफसरों और नेताओं के पास पंहुच जाता है .
२ अक्टूबर १९५२ को शुरू किया गया यह कार्यक्रम आज पूरी तरह से नाकाम साबित हो चुका है . इसके कारण बहुत से हैं . सामुदायिक विकास कार्यक्रम के नाम पर पूरे देश में नौकरशाही का एक बहुत बड़ा वर्ग तैयार हो गया है लेकिन उस नौकरशाही ने सरकारी नौकरी को ही विकास का सबसे बड़ा साधन मान लिया .शायद ऐसा इसलिए हुआ कि विकास के काम में लगे हुए लोग रिज़ल्ट दिखाने के चक्कर में ज्यादा रहने लगे. सच्चाई यह है कि ग्रामीण विकास का काम ऐसा है जिसमें नतीजे हासिल करने के लिए किया जाने वाला प्रयास ही सबसे अहम प्रक्रिया है . सरकारी बाबुओं ने उस प्रक्रिया को मार दिया .उसी प्रक्रिया के दौरान तो गाँव के स्तर पर सही अर्थों में लीडरशिप का विकास होता लेकिन सरकारी कर्मचारियों ने ग्रामीण लीडरशिप को मुखबिर या दलाल से ज्यादा रुतबा कभी नहीं हासिल करने दिया .सामुदायिक विकास के बुनियादी सिद्धांत में ही लिखा है कि समुदाय के लोग अपने विकास के लिए खुद ही प्रयास करेगें .उस काम में लगे हुए सरकारी कर्मचारियों का रोल केवल ग्रामीण विकास के लिए माहौल बनाना भर था लेकिन वास्तव में ऐसा कहीं नहीं हुआ . कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम के बुनियादी कार्यक्रम के लिए बनायी गयी सुविधाओं और नौकरशाही के जिम्मे अब लगभग सभी विकास कार्यक्रम लाद दिए गए गए हैं लेकिन विकास नज़र नहीं आता.सबसे ताज़ा उदाहरण महात्मा गाँधी के नाम पर शुरू किये गए मनरेगा कार्यक्रम की कहानी है . बड़े ऊंचे उद्देश्य के साथ शुरू किया गया यह कार्यक्र आज ग्राम प्रधान से लेकर कलेक्टर तक को रिश्वत की एक गिज़ा उपलब्ध कराने से ज्यादा कुछ नहीं बन पाया है . इसलिए आज महात्मा गाँधी के जन्म दिवस के अवसर पर उनके सपनों का भारत बनाने के लिए शुरू किये गए जवाहर लाल नेहरू के प्रिय कार्यक्रम की दुर्दशा का ज़िक्र कर लेना उचित जान पड़ता है
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Sunday, October 2, 2011
Sunday, January 30, 2011
अंत में उनका शरीर मंदिर बन गया था .
शेष नारायण सिंह
आज से ठीक तिरसठ साल पहले एक धार्मिक आतंकवादी की गोलियों से महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी थी. कुछ लोगों को उनकी हत्या के आरोप में सज़ा भी हुई लेकिन साज़िश की परतों से पर्दा कभी नहीं उठ सका . खुद महात्मा जी अपनी हत्या से लापरवाह थे. जब २० जनवरी को उसी गिरोह ने उन्हें मारने की कोशिश की जिसने ३० जनवरी को असल में मारा तो सरकार चौकन्नी हो गयी थी लेकिन महत्मा गाँधी ने सुरक्षा का कोई भारी बंदोबस्त नहीं होने दिया . ऐसा लगता था कि महात्मा गाँधी इसी तरह की मृत्यु का इंतज़ार कर रहे थे.इंसानी मुहब्बत के लिए आख़िरी साँसे लेना उनका सपना भी था. जब १९२६ में एक धार्मिक उन्मादी ने स्वामी श्रद्धानंद जी महराज को मार डाला तो गाँधी जी को तकलीफ तो बहुत हुई लेकिन उन्होंने उनके मृत्यु के दूसरे पक्ष को देखा. २४ दिसंबर १९२६ को आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी की बैठक में गाँधी जी ने कहा कि " स्वामी श्रद्धानंद जी की मृत्यु मेरे लिए असहनीय है .लेकिन मेरा दिल शोक माने से साफ़ इनकार कर रहा है. उलटे यह प्रार्थना कर रहा है कि हम सबको इसी तरह की मौत मिले.( कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी अंक ३२ ) .अपनी खुद की मृत्यु के कुछ दिन पहले पाकिस्तान से आये कुछ शरणार्थियों के सामने उन्होंने सवाल किया था " क्या बेहतर है ? अपने होंठों पर ईश्वर का नाम लेते हुए अपने विश्वास के लिए मर जाना या बीमारी , फालिज या वृद्धावस्था का शिकार होकर मरना . जहां तक मेरा सवाल है मैं तो पहली वाली मौत का ही वरण करूंगा " ( प्यारेलाल के संस्मरण )
महात्मा जी की मृत्यु के बाद जवाहरलाल नेहरू का वह भाषण तो दुनिया जानती है जो उन्होंने रेडियो पर देश वासियों को संबोधित करते हुए दिया था . उसी भाषण में उन्होंने कहा था कि हमारी ज़िंदगी से प्रकाश चला गया है . लेकिन उन्होंने हरिजन ( १५ फरवरी १९४८ ) में जो लिखा ,वह महात्मा जी को सही श्रद्धांजलि है . लिखते हैं कि ' उम्र बढ़ने के साथ साथ ऐसा लगता था कि उनका शरीर उनकी शक्तिशाली आत्मा का वाहन हो गया था,. उनको देखने या सुनने के वक़्त उनके शरीर का ध्यान ही नहीं रहता था , लगता था कि जहां वे बैठे होते थे ,वह जगह एक मंदिर बन गयी है '
अपनी मृत्यु के दिन भी महात्मा गाँधी ने भारत के लोगों के लिए दिन भर काम किया था . लेकिन एक धर्माध आतंकी ने उन्हें मार डाला .
आज से ठीक तिरसठ साल पहले एक धार्मिक आतंकवादी की गोलियों से महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी थी. कुछ लोगों को उनकी हत्या के आरोप में सज़ा भी हुई लेकिन साज़िश की परतों से पर्दा कभी नहीं उठ सका . खुद महात्मा जी अपनी हत्या से लापरवाह थे. जब २० जनवरी को उसी गिरोह ने उन्हें मारने की कोशिश की जिसने ३० जनवरी को असल में मारा तो सरकार चौकन्नी हो गयी थी लेकिन महत्मा गाँधी ने सुरक्षा का कोई भारी बंदोबस्त नहीं होने दिया . ऐसा लगता था कि महात्मा गाँधी इसी तरह की मृत्यु का इंतज़ार कर रहे थे.इंसानी मुहब्बत के लिए आख़िरी साँसे लेना उनका सपना भी था. जब १९२६ में एक धार्मिक उन्मादी ने स्वामी श्रद्धानंद जी महराज को मार डाला तो गाँधी जी को तकलीफ तो बहुत हुई लेकिन उन्होंने उनके मृत्यु के दूसरे पक्ष को देखा. २४ दिसंबर १९२६ को आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी की बैठक में गाँधी जी ने कहा कि " स्वामी श्रद्धानंद जी की मृत्यु मेरे लिए असहनीय है .लेकिन मेरा दिल शोक माने से साफ़ इनकार कर रहा है. उलटे यह प्रार्थना कर रहा है कि हम सबको इसी तरह की मौत मिले.( कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी अंक ३२ ) .अपनी खुद की मृत्यु के कुछ दिन पहले पाकिस्तान से आये कुछ शरणार्थियों के सामने उन्होंने सवाल किया था " क्या बेहतर है ? अपने होंठों पर ईश्वर का नाम लेते हुए अपने विश्वास के लिए मर जाना या बीमारी , फालिज या वृद्धावस्था का शिकार होकर मरना . जहां तक मेरा सवाल है मैं तो पहली वाली मौत का ही वरण करूंगा " ( प्यारेलाल के संस्मरण )
महात्मा जी की मृत्यु के बाद जवाहरलाल नेहरू का वह भाषण तो दुनिया जानती है जो उन्होंने रेडियो पर देश वासियों को संबोधित करते हुए दिया था . उसी भाषण में उन्होंने कहा था कि हमारी ज़िंदगी से प्रकाश चला गया है . लेकिन उन्होंने हरिजन ( १५ फरवरी १९४८ ) में जो लिखा ,वह महात्मा जी को सही श्रद्धांजलि है . लिखते हैं कि ' उम्र बढ़ने के साथ साथ ऐसा लगता था कि उनका शरीर उनकी शक्तिशाली आत्मा का वाहन हो गया था,. उनको देखने या सुनने के वक़्त उनके शरीर का ध्यान ही नहीं रहता था , लगता था कि जहां वे बैठे होते थे ,वह जगह एक मंदिर बन गयी है '
अपनी मृत्यु के दिन भी महात्मा गाँधी ने भारत के लोगों के लिए दिन भर काम किया था . लेकिन एक धर्माध आतंकी ने उन्हें मार डाला .
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शेष नारायण सिंह
Friday, December 18, 2009
आर्थिक उदारीकरण और गावों को शहर बनाने के सपने की वजह से है महंगाई
शेष नारायण सिंह
बुधवार को संसद में विपक्ष ने महंगाई को राजनीतिक मुद्दा बनाने की कोशिश की . इसके पहले इस मुद्दे पर बहस हो चुकी थी लेकिन बहस का कोई नतीजा नहीं निकला . सरकार ने बहस में हिस्सा लिया और सब अपने अपने घर चले गए . जो बातें चर्चा में उठायी गयी थीं सब नोट कर ली गयीं और कहीं कोई कार्यवाही नहीं हुई. लेकिन जब चारों तरफ से त्राहि त्राहि के स्वर दिल्ली के सत्ता के गलियारों में पहुचने लगे तो विपक्ष को भी लगा कि महंगाई को मुद्दा बनाया जा सकता है .. शायद इसी भावना के वशीभूत होकर वामपंथी पार्टियों और समाजवादी पार्टी ने बढ़ती कीमतों के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चानुमा कुछ पेश करने की कोशिश की .. संसद के अन्दर और बाहर फोटो खिंचवाई और बात को नक्की कर दिया. लेकिन कहीं भी किसी तरफ से नहीं लगा कि विपक्ष महंगाई को कम करने के लिए गंभीर है. जहां तक कांग्रेस और बी जे पी का सवाल है उनकी गलत और पूंजीपति परस्त नीतियों की वजह से ही महंगाई उस हद को पार कर गयी हैं जहां से उसे वापस ला पाना बहुत ही मुश्किल होगा..इस लिए उनसे जनता की पक्षधरता की उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं
भारत इकलौता ऐसा निकास शील देश है जहां कीमतें बढ़ रही हैं ..पूरी दुनिया मंदी के दौर से गुज़र रही है और इस चक्कर में हर जगह खाने पीने की चीज़ों और ईंधन की कीमत घट रही है .लेकिन अपने यहाँ बढ़ रही है . यह सत्ताधारी पार्टियों की असफलता का सबूत है...खाने के सामान की जो कीमतें बढ़ रहीहैं उसके लिए बड़ी कंपनियां ज़िम्मेदार हैं . राजनीतिक पार्टियों को मोटा चंदा देने वाली लगभग सभी पूंजीपति घराने उपभोक्ता चीज़ों के बाज़ार में हैं .. खराब फसलकी वजह से होने वाली कमी को यह घराने और भी विकराल कर दे रहे हैं क्योंकि उनके पास जमाखोरी करने की आर्थिक ताक़त है . उनके पैसे से चुनाव लड़ने वाली पार्टियों के नेताओं की हैसियत नहीं है कि उनकी जमाखोरी और मुनाफाखोरी पर कुछ बोल सकें..जब केंद्र सरकार ने मुक्त बाज़ार की अर्थव्यवस्था की बात शुरू की थी तो सही आर्थिक सोच वाले लोगों ने चेतावनी दी थी कि ऐसा करने से देश पैसे वालों के रहमो करम पर रह जाएगा और मध्य वर्ग को हर तरफ से पिसना पडेगा.आज भी महंगाई घटाने का एक ही तरीका है कि केंद्र और राज्य सरकारें राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाएँ और कला बाजारियों और जमाखोरों के खिलाफ ज़बरदस्त अभियान चलायें. खाद्यान में फ्यूचर ट्रेड को फ़ौरन रोकें. सार्वजनिक वितरण पर्नाली को मज़बूत करें और राशन की दुकानों के ज़रिये सकारात्मक हस्तक्षेप करके कीमतों को फ़ौरन कण्ट्रोल करें.. राशन की दुकानों के ज़रिये ही खाद्य तेल, चीनी और दालों की बिक्री का मुकम्मल बंदोबस्त किया जाना चाहिए.. . सच्ची बात यह है कि जब बाज़ार पर आधारित अर्थव्यवस्था के विकास की योजना बना कर देश का आर्थिक विकास किया जा रहा हो तो कीमतों के बढ़ने पर सरकारी दखल की बात असंभव होती है.. एक तरह से पूंजीपति वर्ग की कृपा पर देश की जनता को छोड़ दिया गया है . अब उनकी जो भी इच्छा होगी उसे करने के लिए वे स्वतंत्र हैं .. करोड़ों रूपये चुनाव में खर्च करने वाले नेताओं के लिये यह बहुत ही कठिन फैसला होगा कि जमाखोरों के खिलाफ कोई एक्शन ले सकें.
इसे देश का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि शहरी मध्यवर्ग के लिए हर चीज़ महंगी है लेकिन इसे पैदा करने वाले किसान को उसकी वाजिब कीमत नहीं मिल रही है . किसान से जो कुछ भी सरकार खरीद रही है उसका लागत मूल्य भी नहीं दे रही है ..अभी पिछले दिनों दिल्ली में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का जमावड़ा हुआ था तो दिल्ली के मीडिया और अन्य लोगों को पता चला था कि किसान को उतनी रक़म भी गन्ने की कीमत के रूप में नहीं मिलती जितनी उसकी लागत आती है... यही हाल बाकी फसलों का भी है . यानी किसान को उसकी लागत नहीं मिल रही है और शहर का उपभोक्ता कई गुना ज्यादा कीमत दे रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि बिचौलिया मज़े ले रहा है . किसान और शहरी मध्यवर्ग की मेहनत का एक बाद हिस्सा वह हड़प रहा है.और यह बिचौलिया गल्लामंडी में बैठा कोई आढ़ती नहीं है . वह देश का सबसे बड़ा पूंजीपति भी हो सकता है और किसी भी बड़े नेता का व्यापारिक पार्टनर भी .इस हालत को संभालने का एक ही तरीका है कि जनता अपनी लड़ाई खुद ही लड़े. उसके लिए उसे मैदान लेना
पड़ेगा और सरकार की पूजीपति परस्त नीतियों का हर मोड़ पर विरोध करना पड़ेगा..
महंगाई एक ऐसी मुसीबत है जिसकी इबारत हमारे राजनेताओं ने उसी वक़्त दी थी जब उन्होंने आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी की सलाह को नज़र अंदाज़ कर दिया था. गाँधी जी ने बताया था कि स्वतंत्र भारत में विकास की यूनिट गावों को रखा जाएगा. उसके लिए सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा परंपरागत ढांचा उपलब्ध था . आज की तरह ही गावों में उन दिनों भी गरीबी थी .गाँधी जी ने कहा कि आर्थिक विकास की ऐसी तरकीबें ईजाद की जाएँ जिस से ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों की आर्थिक दशा सुधारी जा सके और उनकी गरीबी को ख़त्म करके उन्हें संपन्न बनाया सके.. अगर ऐसा हो गया तो गाँव आत्म निर्भर भी हो जायेंगें और राष्ट्र की संपत्ति और उसके विकास में बड़े पैमाने पर योगदान भी करेंगें . उनका यह दृढ विश्वास था कि जब तक भारत के लाखों गाँव स्वतंत्र ,शक्तिशाली और स्वावलंबी बनकर राष्ट्र के सम्पूर्ण जीवन में पूरा भाग नहीं लेते ,तब तक भारत का भावी उज्जवल हो ही नहीं सकता ( ग्राम स्वराज्य)...
लेकिन ऐसा हुआ नहीं. महात्मा गाँधी की सोच को राजकाज की शैली बनाने की सबसे ज्यादा योग्यता सरदार पटेल में थी . देश की बदकिस्मती ही कही जायेगी कि आज़ादी के कुछ महीने बाद ही महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी और करीब २ साल बाद सरदार पटेल चले गए.. उस वक़्त के देश के नेता और प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु ने देश के आर्थिक विकास की नीति ऐसी बनायी जिसमें गावों को भी शहर बना देने का सपना था. उन्होंने ब्लाक को विकास की यूनिट बना दी और महात्मा गाँधी के बुनियादी सिद्धांत को ही दफ़न कर दिया..यहीं से गलती का सिलसिला शुरू हो गया..ब्लाक को विकास की यूनिट मानने का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि गाँव का विकास गाँव वालों की सोच और मर्जी की सीमा से बाहर चला गया और सरकारी अफसर ग्रामीणों का भाग्यविधाता बन गया. फिर शुरू हुआ रिश्वत का खेल और आज ग्रामीण विकास के नाम पर खर्च होने वाली सरकारी रक़म ही राज्यों के अफसरों की रिश्वत का सबसे बड़ा साधन है .. उसके बाद जब १९९१ में पी वी नरसिंह राव की सरकार आई तो आर्थिक और औद्योगिक विकास पूरी तरह से पूंजीवादी अर्थशास्त्र की समझ पर आधारित हो गया . बाद की सरकारें उसी सोच कोआगे बढाती रहीं और आज तो हालात यह हैं कि अगर दुनिया के संपन्न देशों में बैंक फेल होते हैं तो अपने देश में भी लोग तबाह होते हैं . तथाकथित खुली अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण के चक्कर में हमने अपने मुल्क को ऐसे मुकाम पर ला कर खड़ा कर दिया है जब हमारी राजनीतिक स्थिरता भी दुनिया के ताक़तवर पूंजीवादी देशों की मर्जी पर हो गयी है ..
इस लिए ज़रुरत इस बात की है कि हमारी राजनीतिक बिरादरी एक दिन के लिए संसद में हल्ला गुला करके और संसद भवन के बाहर फोटो खिंचवा कर ही संतुष्ट न हो जाए बल्कि ऐसी राजनीतिक सोच को विकसित करने की कोशिश करे जिस से पराये मुल्कों का मुंह ताक़ने की हालत ख़त्म हों और देश गाँधी जी वाली आत्मनिर्भर सोच के सहारे अपने लोगों और अपने देश का विकास कर सके..( दैनिक जागरण से साभार )
बुधवार को संसद में विपक्ष ने महंगाई को राजनीतिक मुद्दा बनाने की कोशिश की . इसके पहले इस मुद्दे पर बहस हो चुकी थी लेकिन बहस का कोई नतीजा नहीं निकला . सरकार ने बहस में हिस्सा लिया और सब अपने अपने घर चले गए . जो बातें चर्चा में उठायी गयी थीं सब नोट कर ली गयीं और कहीं कोई कार्यवाही नहीं हुई. लेकिन जब चारों तरफ से त्राहि त्राहि के स्वर दिल्ली के सत्ता के गलियारों में पहुचने लगे तो विपक्ष को भी लगा कि महंगाई को मुद्दा बनाया जा सकता है .. शायद इसी भावना के वशीभूत होकर वामपंथी पार्टियों और समाजवादी पार्टी ने बढ़ती कीमतों के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चानुमा कुछ पेश करने की कोशिश की .. संसद के अन्दर और बाहर फोटो खिंचवाई और बात को नक्की कर दिया. लेकिन कहीं भी किसी तरफ से नहीं लगा कि विपक्ष महंगाई को कम करने के लिए गंभीर है. जहां तक कांग्रेस और बी जे पी का सवाल है उनकी गलत और पूंजीपति परस्त नीतियों की वजह से ही महंगाई उस हद को पार कर गयी हैं जहां से उसे वापस ला पाना बहुत ही मुश्किल होगा..इस लिए उनसे जनता की पक्षधरता की उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं
भारत इकलौता ऐसा निकास शील देश है जहां कीमतें बढ़ रही हैं ..पूरी दुनिया मंदी के दौर से गुज़र रही है और इस चक्कर में हर जगह खाने पीने की चीज़ों और ईंधन की कीमत घट रही है .लेकिन अपने यहाँ बढ़ रही है . यह सत्ताधारी पार्टियों की असफलता का सबूत है...खाने के सामान की जो कीमतें बढ़ रहीहैं उसके लिए बड़ी कंपनियां ज़िम्मेदार हैं . राजनीतिक पार्टियों को मोटा चंदा देने वाली लगभग सभी पूंजीपति घराने उपभोक्ता चीज़ों के बाज़ार में हैं .. खराब फसलकी वजह से होने वाली कमी को यह घराने और भी विकराल कर दे रहे हैं क्योंकि उनके पास जमाखोरी करने की आर्थिक ताक़त है . उनके पैसे से चुनाव लड़ने वाली पार्टियों के नेताओं की हैसियत नहीं है कि उनकी जमाखोरी और मुनाफाखोरी पर कुछ बोल सकें..जब केंद्र सरकार ने मुक्त बाज़ार की अर्थव्यवस्था की बात शुरू की थी तो सही आर्थिक सोच वाले लोगों ने चेतावनी दी थी कि ऐसा करने से देश पैसे वालों के रहमो करम पर रह जाएगा और मध्य वर्ग को हर तरफ से पिसना पडेगा.आज भी महंगाई घटाने का एक ही तरीका है कि केंद्र और राज्य सरकारें राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाएँ और कला बाजारियों और जमाखोरों के खिलाफ ज़बरदस्त अभियान चलायें. खाद्यान में फ्यूचर ट्रेड को फ़ौरन रोकें. सार्वजनिक वितरण पर्नाली को मज़बूत करें और राशन की दुकानों के ज़रिये सकारात्मक हस्तक्षेप करके कीमतों को फ़ौरन कण्ट्रोल करें.. राशन की दुकानों के ज़रिये ही खाद्य तेल, चीनी और दालों की बिक्री का मुकम्मल बंदोबस्त किया जाना चाहिए.. . सच्ची बात यह है कि जब बाज़ार पर आधारित अर्थव्यवस्था के विकास की योजना बना कर देश का आर्थिक विकास किया जा रहा हो तो कीमतों के बढ़ने पर सरकारी दखल की बात असंभव होती है.. एक तरह से पूंजीपति वर्ग की कृपा पर देश की जनता को छोड़ दिया गया है . अब उनकी जो भी इच्छा होगी उसे करने के लिए वे स्वतंत्र हैं .. करोड़ों रूपये चुनाव में खर्च करने वाले नेताओं के लिये यह बहुत ही कठिन फैसला होगा कि जमाखोरों के खिलाफ कोई एक्शन ले सकें.
इसे देश का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि शहरी मध्यवर्ग के लिए हर चीज़ महंगी है लेकिन इसे पैदा करने वाले किसान को उसकी वाजिब कीमत नहीं मिल रही है . किसान से जो कुछ भी सरकार खरीद रही है उसका लागत मूल्य भी नहीं दे रही है ..अभी पिछले दिनों दिल्ली में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का जमावड़ा हुआ था तो दिल्ली के मीडिया और अन्य लोगों को पता चला था कि किसान को उतनी रक़म भी गन्ने की कीमत के रूप में नहीं मिलती जितनी उसकी लागत आती है... यही हाल बाकी फसलों का भी है . यानी किसान को उसकी लागत नहीं मिल रही है और शहर का उपभोक्ता कई गुना ज्यादा कीमत दे रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि बिचौलिया मज़े ले रहा है . किसान और शहरी मध्यवर्ग की मेहनत का एक बाद हिस्सा वह हड़प रहा है.और यह बिचौलिया गल्लामंडी में बैठा कोई आढ़ती नहीं है . वह देश का सबसे बड़ा पूंजीपति भी हो सकता है और किसी भी बड़े नेता का व्यापारिक पार्टनर भी .इस हालत को संभालने का एक ही तरीका है कि जनता अपनी लड़ाई खुद ही लड़े. उसके लिए उसे मैदान लेना
पड़ेगा और सरकार की पूजीपति परस्त नीतियों का हर मोड़ पर विरोध करना पड़ेगा..
महंगाई एक ऐसी मुसीबत है जिसकी इबारत हमारे राजनेताओं ने उसी वक़्त दी थी जब उन्होंने आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी की सलाह को नज़र अंदाज़ कर दिया था. गाँधी जी ने बताया था कि स्वतंत्र भारत में विकास की यूनिट गावों को रखा जाएगा. उसके लिए सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा परंपरागत ढांचा उपलब्ध था . आज की तरह ही गावों में उन दिनों भी गरीबी थी .गाँधी जी ने कहा कि आर्थिक विकास की ऐसी तरकीबें ईजाद की जाएँ जिस से ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों की आर्थिक दशा सुधारी जा सके और उनकी गरीबी को ख़त्म करके उन्हें संपन्न बनाया सके.. अगर ऐसा हो गया तो गाँव आत्म निर्भर भी हो जायेंगें और राष्ट्र की संपत्ति और उसके विकास में बड़े पैमाने पर योगदान भी करेंगें . उनका यह दृढ विश्वास था कि जब तक भारत के लाखों गाँव स्वतंत्र ,शक्तिशाली और स्वावलंबी बनकर राष्ट्र के सम्पूर्ण जीवन में पूरा भाग नहीं लेते ,तब तक भारत का भावी उज्जवल हो ही नहीं सकता ( ग्राम स्वराज्य)...
लेकिन ऐसा हुआ नहीं. महात्मा गाँधी की सोच को राजकाज की शैली बनाने की सबसे ज्यादा योग्यता सरदार पटेल में थी . देश की बदकिस्मती ही कही जायेगी कि आज़ादी के कुछ महीने बाद ही महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी और करीब २ साल बाद सरदार पटेल चले गए.. उस वक़्त के देश के नेता और प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु ने देश के आर्थिक विकास की नीति ऐसी बनायी जिसमें गावों को भी शहर बना देने का सपना था. उन्होंने ब्लाक को विकास की यूनिट बना दी और महात्मा गाँधी के बुनियादी सिद्धांत को ही दफ़न कर दिया..यहीं से गलती का सिलसिला शुरू हो गया..ब्लाक को विकास की यूनिट मानने का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि गाँव का विकास गाँव वालों की सोच और मर्जी की सीमा से बाहर चला गया और सरकारी अफसर ग्रामीणों का भाग्यविधाता बन गया. फिर शुरू हुआ रिश्वत का खेल और आज ग्रामीण विकास के नाम पर खर्च होने वाली सरकारी रक़म ही राज्यों के अफसरों की रिश्वत का सबसे बड़ा साधन है .. उसके बाद जब १९९१ में पी वी नरसिंह राव की सरकार आई तो आर्थिक और औद्योगिक विकास पूरी तरह से पूंजीवादी अर्थशास्त्र की समझ पर आधारित हो गया . बाद की सरकारें उसी सोच कोआगे बढाती रहीं और आज तो हालात यह हैं कि अगर दुनिया के संपन्न देशों में बैंक फेल होते हैं तो अपने देश में भी लोग तबाह होते हैं . तथाकथित खुली अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण के चक्कर में हमने अपने मुल्क को ऐसे मुकाम पर ला कर खड़ा कर दिया है जब हमारी राजनीतिक स्थिरता भी दुनिया के ताक़तवर पूंजीवादी देशों की मर्जी पर हो गयी है ..
इस लिए ज़रुरत इस बात की है कि हमारी राजनीतिक बिरादरी एक दिन के लिए संसद में हल्ला गुला करके और संसद भवन के बाहर फोटो खिंचवा कर ही संतुष्ट न हो जाए बल्कि ऐसी राजनीतिक सोच को विकसित करने की कोशिश करे जिस से पराये मुल्कों का मुंह ताक़ने की हालत ख़त्म हों और देश गाँधी जी वाली आत्मनिर्भर सोच के सहारे अपने लोगों और अपने देश का विकास कर सके..( दैनिक जागरण से साभार )
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शेष नारायण सिंह
Thursday, December 10, 2009
लिब्रहान रिपोर्ट जैसी ही रही उस पर लोकसभा में बहस
शेष नारायण सिंह
लोक सभा में लिब्रहान कमीशन की जांच के नतीजों पर नियम १९३ के तहत दो दिन की चर्चा हुई. . लोक सभा के इतिहास में यह चर्चा उन चर्चाओं में गिनी जायेगी जिनका स्तर बहुत ही निम्नकोटि का था. .. लोकसभा के सदस्यों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर वे चाहें तो बहस का स्तर रसातल तक ले जा सकते हैं .. इस बार उन्होंने अपनी इस योग्यता का विधिवत परिचय दिया. ज़्यादातर नेता इस तर्ज में भाषण देते रहे जैसे कोई चुनाव होने वाला हो . बहस के दौरान बहुत सारी बातें ऐसी हुईं जिन्हें प्रहसन और विद्रूप की श्रेणी में रखा जा सकता है. कुछ अभद्र टिप्पणियाँ भी की गयीं. . उत्तर प्रदेश के सांसद बेनी प्रसाद वर्मा ने जब अपनी असंसदीय भाषा वाली टिप्पणी की तो बहुत ही मगन दिख रहे थे.. बी जे पी को लगा कि नागपुर की ताज़ा फरमाइश के हिसाब से हिंदुत्व के आधार पर समाज के ध्रुवीकरण का यह अच्छा मौक़ा है . शायद इसीलिये उसके नेता कल्पनालोक के तर्क देते पाए गए. पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह होमवर्क करके क्लास में आये बच्चे की तरह उत्साहित थे तो सुषमा स्वराज ने बाबरी विध्वंस के लिए आये लोगों की भीड़ को जन आन्दोलन कह डाला और उसके नेता लाल कृष्ण अडवाणी को जननायक कह दिया. ताज़ा इतिहास में भारत ने दो जननायक देखे हैं. एक तो महात्मा गाँधी और दूसरे जयप्रकाश नारायण . दोनों ने ही सत्ता को हमेशा अपने से दूर रखा और जन मानस में आज भी उनकी चावी ऐसे व्यक्ति की है जो सत्ता कामी नहीं था. . अब उनकी श्रेणी में अडवाणी को रखने की कोशिश की जा रही है जिन्हें बी जे पी ने पिछले चुनाव में एक सत्तालोभी व्यक्ति के रूप में पेश करके पूरे देश में प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार का अभिनय करवाया और अब आर एस एस वाले उन्हें विपक्ष के नेता पद से भी हटा रहे हैं और वे छोड़ने को तैयार नहीं हैं ..उनकी छवि सत्ता के एक लोभी व्यक्ति की है .. अगर अडवाणी जननायक हैं तो मायावती , लालू यादव,जयललिता जैसे लोग भी उसी श्रेणी में आयेंगें . अब जनता को तय करना हो कि जिस बहस में इस तरह की काल्पनिक बातें कही गयी हों उसे क्या कहा जाएगा. . जहां तक कांग्रेस का सवाल है,लगता है उसने बहस को गंभीरता से नहीं लिया.जगदम्बिका पाल, बेनी प्रसाद वर्मा जैसे लोगों को उतार कर बहस की गंभीरता को कांग्रेस ने बहुत ही हल्का कर दिया..
लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पर ही तरह तरह सवाल पूछे जा रहे हैं और उसके सार्वजनिक होने के बाद एक अलग बहस शुरू हो गयी है. सवाल पूछे जा रहे हैं कि जनता का नौ करोड़ रूपया और करीब सत्रह साल का वक़्त बरबाद करने के बाद जो जानकारी न्यायमूर्ति लिब्रहान ने इकठ्ठा की है उसमें नया क्या है? जो कुछ भी वे इकठ्ठा कर के लाये हैं वह जागरूक लोगों को पहले से ही मालूम था. उन्होंने बहुत सारे लोगों को अयोध्या में मौजूद बाबरी मस्जिद, जिसे संघ वाले विवादित ढांचा कहते हैं, के विध्वंस में शामिल बताया है . लेकिन जो कुछ भी उन्होंने पता लगाया है ,उसका इस्तेमाल ज़िम्मेदार लोगों पर मुक़दमा चलाने में नहीं किया जा सकता. अगर उनकी जांच के आधार पर किसी के ऊपर मुक़दमा चलाना हो तो , नए सिरे से जांच करनी पड़ेगी . इसका मतलब यह हुआ कि फिर से एफ आई आर लिखी जायेगी, विवेचना होगी और अगर कोई अपराध पाया जाएगा तो आरोप पत्र दाखिल किये जायेंगें और अदालत में मुक़दमा चलेगा. सी बी आई के प्रवक्ता से जब पूछा गया कि न्यायमूर्ति लिब्रहान ने जो जानकारी इकठ्ठा की है , क्या उसका इस्तेमाल सबूत के रूप में किया जा सकता है. सी बी आई के प्रवक्ता ने साफ़ कहा कि उसका कोई इस्तेमाल नहीं है .अगर किसी गवाह ने जांच आयोग के सामने बयान दिया है तो उसकी उतनी भी मान्यता नहीं है जितनी कि एक मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए बयान की होती है. आयोग के सामने दिए गए बयान से कोई भी गवाह मुकर सकता है और उसका कुछ नहीं बनाया बिगाड़ा जा सकता.. सवाल उठता है कि अगर किसी जांच की इतनी कीमत भी नहीं कि उसका इस्तेमाल आरोपित व्यक्ति को दण्डित करने के लिए किया जा सके ,तो उसकी ज़रुरत क्या है.इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की ज्यादतियों की जांच के लिए बने शाह कमीशन ,मुंबई दंगों के लिए बनाए गए श्रीकृष्ण कमीशन, गुजरात के नानावती कमीशन, महात्मा गाँधी की याद में बनी संस्थाओं की जांच के लिए बने कुदाल कमीशन, सिखों पर हुए अत्याचार के लिए बने रंग नाथ मिश्र आयोग आदि कुछ ऐसे आयोग हैं जो १९५२ के एक्ट के आधार पर बने थे और उनसे कोई फायेदा नहीं हुआ.
.सभी जानकार मानते हैं कि कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ के आधार पर बने आयोग के नतीजों के पर कोई भी कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती.. यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि न्यायिक जांच आयोग का गठन इस एक्ट के अनुसार नहीं होता, वह अलग मामला है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ,आर सी लाहोटी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि इस तरह के कमीशन का कोई महत्व नहीं है . किसी भी जज को १९५२ के इस एक्ट के तहत बनाए जाने वाले कमीशन की अध्यक्षता का काम स्वीकार ही नहीं करना चाहिए. न्यायमूर्ति लाहोटी ने कहा है कि इस एक्ट के हिसाब से जांच आयोग बैठाकर सरकारें बहुत ही कूटनीतिक तरीके से मामले को टाल देती हैं . . उनका कहना है कि अगर इन् आयोगों की जांच को प्रभावकारी बनाना है तो संविधान में संशोधन करके उस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए.. किसी ज्वलंत मसले पर शुरू हुई बहस की गर्मी से बचने के लिए सरकारें इसका बार बार इस्तेमाल कर चुकी हैं .
कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ लागू होने के पहले कोई भी सार्वजनिक जांच पब्लिक सर्विस इन्क्वायारीज़ एक्ट , 1850 के तहत की जाती थी . इस लिए १९५२ में संसद में एक बिल लाकर यह कानून बनाया गया. लेकिन इस से कोई फायेदा नहीं हुआ. क्योंकि इस एक्ट में जो व्यवस्था है उसके हिसाब से अपनी धारा ८ बी की बिना पर यह कमीशन केवल गवाह या सरकारी दस्तावेज़ तलब कर सकता है . बाकी कुछ नहीं कर सकता .. इसलिए समाज के प्रबुद्ध वर्ग से यह मांग बार बार उठ रही है कि कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ को रद्द कर देना चाहिए .क्योंकि इसका इस्तेमाल सरकारें किसी बड़े मसले से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए ही करती हैं . लेकिन अगर इसे रद्द नहीं करना है तो इसे कुछ तो ताक़त दे दी जानी चाहिए. जैसा कि न्यायमूर्ति आर सी लाहोटी ने बताया है कि जब तक संविधान में संशोधन नहीं किया जाता इस एक्ट का कोई लाभ नहीं है. .
लोक सभा में लिब्रहान कमीशन की जांच के नतीजों पर नियम १९३ के तहत दो दिन की चर्चा हुई. . लोक सभा के इतिहास में यह चर्चा उन चर्चाओं में गिनी जायेगी जिनका स्तर बहुत ही निम्नकोटि का था. .. लोकसभा के सदस्यों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर वे चाहें तो बहस का स्तर रसातल तक ले जा सकते हैं .. इस बार उन्होंने अपनी इस योग्यता का विधिवत परिचय दिया. ज़्यादातर नेता इस तर्ज में भाषण देते रहे जैसे कोई चुनाव होने वाला हो . बहस के दौरान बहुत सारी बातें ऐसी हुईं जिन्हें प्रहसन और विद्रूप की श्रेणी में रखा जा सकता है. कुछ अभद्र टिप्पणियाँ भी की गयीं. . उत्तर प्रदेश के सांसद बेनी प्रसाद वर्मा ने जब अपनी असंसदीय भाषा वाली टिप्पणी की तो बहुत ही मगन दिख रहे थे.. बी जे पी को लगा कि नागपुर की ताज़ा फरमाइश के हिसाब से हिंदुत्व के आधार पर समाज के ध्रुवीकरण का यह अच्छा मौक़ा है . शायद इसीलिये उसके नेता कल्पनालोक के तर्क देते पाए गए. पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह होमवर्क करके क्लास में आये बच्चे की तरह उत्साहित थे तो सुषमा स्वराज ने बाबरी विध्वंस के लिए आये लोगों की भीड़ को जन आन्दोलन कह डाला और उसके नेता लाल कृष्ण अडवाणी को जननायक कह दिया. ताज़ा इतिहास में भारत ने दो जननायक देखे हैं. एक तो महात्मा गाँधी और दूसरे जयप्रकाश नारायण . दोनों ने ही सत्ता को हमेशा अपने से दूर रखा और जन मानस में आज भी उनकी चावी ऐसे व्यक्ति की है जो सत्ता कामी नहीं था. . अब उनकी श्रेणी में अडवाणी को रखने की कोशिश की जा रही है जिन्हें बी जे पी ने पिछले चुनाव में एक सत्तालोभी व्यक्ति के रूप में पेश करके पूरे देश में प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार का अभिनय करवाया और अब आर एस एस वाले उन्हें विपक्ष के नेता पद से भी हटा रहे हैं और वे छोड़ने को तैयार नहीं हैं ..उनकी छवि सत्ता के एक लोभी व्यक्ति की है .. अगर अडवाणी जननायक हैं तो मायावती , लालू यादव,जयललिता जैसे लोग भी उसी श्रेणी में आयेंगें . अब जनता को तय करना हो कि जिस बहस में इस तरह की काल्पनिक बातें कही गयी हों उसे क्या कहा जाएगा. . जहां तक कांग्रेस का सवाल है,लगता है उसने बहस को गंभीरता से नहीं लिया.जगदम्बिका पाल, बेनी प्रसाद वर्मा जैसे लोगों को उतार कर बहस की गंभीरता को कांग्रेस ने बहुत ही हल्का कर दिया..
लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पर ही तरह तरह सवाल पूछे जा रहे हैं और उसके सार्वजनिक होने के बाद एक अलग बहस शुरू हो गयी है. सवाल पूछे जा रहे हैं कि जनता का नौ करोड़ रूपया और करीब सत्रह साल का वक़्त बरबाद करने के बाद जो जानकारी न्यायमूर्ति लिब्रहान ने इकठ्ठा की है उसमें नया क्या है? जो कुछ भी वे इकठ्ठा कर के लाये हैं वह जागरूक लोगों को पहले से ही मालूम था. उन्होंने बहुत सारे लोगों को अयोध्या में मौजूद बाबरी मस्जिद, जिसे संघ वाले विवादित ढांचा कहते हैं, के विध्वंस में शामिल बताया है . लेकिन जो कुछ भी उन्होंने पता लगाया है ,उसका इस्तेमाल ज़िम्मेदार लोगों पर मुक़दमा चलाने में नहीं किया जा सकता. अगर उनकी जांच के आधार पर किसी के ऊपर मुक़दमा चलाना हो तो , नए सिरे से जांच करनी पड़ेगी . इसका मतलब यह हुआ कि फिर से एफ आई आर लिखी जायेगी, विवेचना होगी और अगर कोई अपराध पाया जाएगा तो आरोप पत्र दाखिल किये जायेंगें और अदालत में मुक़दमा चलेगा. सी बी आई के प्रवक्ता से जब पूछा गया कि न्यायमूर्ति लिब्रहान ने जो जानकारी इकठ्ठा की है , क्या उसका इस्तेमाल सबूत के रूप में किया जा सकता है. सी बी आई के प्रवक्ता ने साफ़ कहा कि उसका कोई इस्तेमाल नहीं है .अगर किसी गवाह ने जांच आयोग के सामने बयान दिया है तो उसकी उतनी भी मान्यता नहीं है जितनी कि एक मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए बयान की होती है. आयोग के सामने दिए गए बयान से कोई भी गवाह मुकर सकता है और उसका कुछ नहीं बनाया बिगाड़ा जा सकता.. सवाल उठता है कि अगर किसी जांच की इतनी कीमत भी नहीं कि उसका इस्तेमाल आरोपित व्यक्ति को दण्डित करने के लिए किया जा सके ,तो उसकी ज़रुरत क्या है.इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की ज्यादतियों की जांच के लिए बने शाह कमीशन ,मुंबई दंगों के लिए बनाए गए श्रीकृष्ण कमीशन, गुजरात के नानावती कमीशन, महात्मा गाँधी की याद में बनी संस्थाओं की जांच के लिए बने कुदाल कमीशन, सिखों पर हुए अत्याचार के लिए बने रंग नाथ मिश्र आयोग आदि कुछ ऐसे आयोग हैं जो १९५२ के एक्ट के आधार पर बने थे और उनसे कोई फायेदा नहीं हुआ.
.सभी जानकार मानते हैं कि कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ के आधार पर बने आयोग के नतीजों के पर कोई भी कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती.. यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि न्यायिक जांच आयोग का गठन इस एक्ट के अनुसार नहीं होता, वह अलग मामला है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ,आर सी लाहोटी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि इस तरह के कमीशन का कोई महत्व नहीं है . किसी भी जज को १९५२ के इस एक्ट के तहत बनाए जाने वाले कमीशन की अध्यक्षता का काम स्वीकार ही नहीं करना चाहिए. न्यायमूर्ति लाहोटी ने कहा है कि इस एक्ट के हिसाब से जांच आयोग बैठाकर सरकारें बहुत ही कूटनीतिक तरीके से मामले को टाल देती हैं . . उनका कहना है कि अगर इन् आयोगों की जांच को प्रभावकारी बनाना है तो संविधान में संशोधन करके उस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए.. किसी ज्वलंत मसले पर शुरू हुई बहस की गर्मी से बचने के लिए सरकारें इसका बार बार इस्तेमाल कर चुकी हैं .
कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ लागू होने के पहले कोई भी सार्वजनिक जांच पब्लिक सर्विस इन्क्वायारीज़ एक्ट , 1850 के तहत की जाती थी . इस लिए १९५२ में संसद में एक बिल लाकर यह कानून बनाया गया. लेकिन इस से कोई फायेदा नहीं हुआ. क्योंकि इस एक्ट में जो व्यवस्था है उसके हिसाब से अपनी धारा ८ बी की बिना पर यह कमीशन केवल गवाह या सरकारी दस्तावेज़ तलब कर सकता है . बाकी कुछ नहीं कर सकता .. इसलिए समाज के प्रबुद्ध वर्ग से यह मांग बार बार उठ रही है कि कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ को रद्द कर देना चाहिए .क्योंकि इसका इस्तेमाल सरकारें किसी बड़े मसले से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए ही करती हैं . लेकिन अगर इसे रद्द नहीं करना है तो इसे कुछ तो ताक़त दे दी जानी चाहिए. जैसा कि न्यायमूर्ति आर सी लाहोटी ने बताया है कि जब तक संविधान में संशोधन नहीं किया जाता इस एक्ट का कोई लाभ नहीं है. .
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