शेष नारायण सिंह
२ अक्टूबर महात्मा गाँधी का जन्मदिन तो है ही, लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन भी है . इसी दिन १९५२ में भारत में कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम भी शुरू किया गया था. आज़ादी के बाद देश में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए शुरू किये गए कार्यक्रमों में यह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्यक्रम था . लेकिन यह असफल रहा ,अपने लक्ष्य हासिल नहीं कर सका.इस कार्यक्रम के असफल होने के कारणों की पडताल शायद महात्मा जी के प्रति सच्ची श्रध्हांजलि होगी क्योंकि इस कार्यक्रम को शुरू करते वक़्त लगभग हर मंच से सरकार ने यह दावा किया था कि कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम के ज़रिये महात्मा गान्धी के सपनों के भारत को एक वाताविकता में बदला जा सकता है.
सामुदायिक विकास वास्तव में एक ऐसी प्रक्रिया है जिस से एक समुदाय के विकास के लिए लोग अपने आपको औपचारिक या अनौपचारिक रूप से संगठित करते हैं.यह विकास की एक सतत प्रक्रिया है.इसकी पहली शर्त ही यही थी कि अपने यहाँ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल करके समुदाय का विकास किया जाना था जहां ज़रूरी होता वहां बाहरी संसाधनों के प्रबंध का प्रावधान भी था. कम्युनिटी डेवलपमेंट की परिभाषा में ही यह लिखा है कि सामुदायिक विकास वह तरीका है जिसके ज़रिये गांव के लोग अपनी आर्थिक और सामाजिक दशा में सुधार लाने के लिए संगठित होते हैं . बाद में यही संगठन राष्ट्र के विकास में भी प्रभावी योगदान करते हैं . सामुदायिक विकास की बुनियादी धारणा ही यह है कि अगर लोगों को अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेने के अवसर मुहैया कराये जाएँ तो वे किसी भी कार्यक्रम को सफलतापूर्वक चला सकते हैं .
भारत में २ अक्टूबर १९५२ के दिन जब कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम की शुरुआत की गयी तो सोचा गया था कि इसके रास्ते ही ग्रामीण भारत का समग्र विकास किया जाएगा.इस योजना में खेती,पशुपालन,लघु सिंचाई,सहकारिता,शिक्षा,ग्रामीण उद्योग अदि शामिल था जिसमें सुधार के बाद भारत में ग्रामीण जीवन की हालात में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकता था.कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम को लागू करने के लिए बाकायदा एक अमलातंत्र बनाया गया . जिला और ब्लाक स्तर पर सरकारी अधिकारी तैनात किये गए लेकिन कार्यक्रम से वह नहीं हासिल हो सका जो तय किया गया था. इस तरह महात्मा गांधी के सपनों के भारत के निर्माण के लिए सरकारी तौर पर जो पहली कोशिश की गयी थी वह भी बेकार साबित हुई . ठीक उसी तरह जिस तरह गांधीवादी दर्शन की हर कड़ी को अन्धाधुन्ध औद्योगीकरण और पूंजी के केंद्रीकरण के सहारे तबाह किया गया . कांग्रेस ने कभी भी गांधीवाद को इस देश में राजकाज का दर्शनशास्त्र नहीं बनने दिया . ग्रामीण भारत में नगरीकरण के तरह तरह के प्रयोग हुए और आज भारत तबाह गाँवों का एक देश है .
यह देखना दिलचस्प होगा कि इतनी बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजना को इस देश के हर दौर के हुक्मरानों ने कैसे बर्बाद किया .यहाँ यह ध्यान में रखना होगा कि उस योजना को तबाह करने वालों में जवाहरलाल नेहरू भी एक थे. उनके दिमाग में भी यह बात समा गयी थी कि भारत का ऐसा विकास होना चाहिये जिसके बाद भारत के गाँव भी शहर जैसे दिखने लगें . वे गाँवों में शहरों जैसी सुविधाओं को उपलब्ध कराने के चक्कर में थे .उन्होंने उसके लिए सोवियत रूस में चुने गए माडल को विकास का पैमाना बनाया और हम एक राष्ट्र के रूप में बड़े शहरों , मलिन बस्तियों और उजड़े गाँवों का देश बन गए . कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम को शुरू करने वालों ने सोचा था कि इस कार्यक्रम के लागू होने के बाद खेतों, घरों और सामूहिक रूप से गाँव में बदलाव आयेगा . कृषि उत्पादन और रहन सहन के सत्र में बदलाव् आयेगा . गाँव में रहने वाले पुरुष ,स्त्री और नौजवानों की सोच में बदलाव लाना भी कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम का एक उद्देश्य था लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. सरकारी स्तर पर ग्रामीण विकास के लिए जो लोग तैनात किये गए उनके मन में सरकारी नौकरी का भाव ज्यादा था , इलाके या गांव के विकास को उन्होंने कभी प्राथमिकता नहीं दिया . ब्रिटिश ज़माने की नज़राने और रिश्वत की परम्परा को इन सरकारी कर्मचारियों ने खूब विकसित किया. पंचायत स्तर पर कोई भी ग्रामीण लीडरशिप डेवलप नहीं हो पायी. अगर विकास हुआ तो सिर्फ ऐसे लोगों का जो इन सरकारी कर्मचारियों के दलाल के रूप में काम करते रहे. इसी बुनियादी गलती के कारण ही आज जो भी स्कीमें ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत गाँवों में भेजी जाती हैं उनका लगभग सारा पैसा इन्हीं दलालों के रास्ते सरकारी अफसरों और नेताओं के पास पंहुच जाता है .
२ अक्टूबर १९५२ को शुरू किया गया यह कार्यक्रम आज पूरी तरह से नाकाम साबित हो चुका है . इसके कारण बहुत से हैं . सामुदायिक विकास कार्यक्रम के नाम पर पूरे देश में नौकरशाही का एक बहुत बड़ा वर्ग तैयार हो गया है लेकिन उस नौकरशाही ने सरकारी नौकरी को ही विकास का सबसे बड़ा साधन मान लिया .शायद ऐसा इसलिए हुआ कि विकास के काम में लगे हुए लोग रिज़ल्ट दिखाने के चक्कर में ज्यादा रहने लगे. सच्चाई यह है कि ग्रामीण विकास का काम ऐसा है जिसमें नतीजे हासिल करने के लिए किया जाने वाला प्रयास ही सबसे अहम प्रक्रिया है . सरकारी बाबुओं ने उस प्रक्रिया को मार दिया .उसी प्रक्रिया के दौरान तो गाँव के स्तर पर सही अर्थों में लीडरशिप का विकास होता लेकिन सरकारी कर्मचारियों ने ग्रामीण लीडरशिप को मुखबिर या दलाल से ज्यादा रुतबा कभी नहीं हासिल करने दिया .सामुदायिक विकास के बुनियादी सिद्धांत में ही लिखा है कि समुदाय के लोग अपने विकास के लिए खुद ही प्रयास करेगें .उस काम में लगे हुए सरकारी कर्मचारियों का रोल केवल ग्रामीण विकास के लिए माहौल बनाना भर था लेकिन वास्तव में ऐसा कहीं नहीं हुआ . कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम के बुनियादी कार्यक्रम के लिए बनायी गयी सुविधाओं और नौकरशाही के जिम्मे अब लगभग सभी विकास कार्यक्रम लाद दिए गए गए हैं लेकिन विकास नज़र नहीं आता.सबसे ताज़ा उदाहरण महात्मा गाँधी के नाम पर शुरू किये गए मनरेगा कार्यक्रम की कहानी है . बड़े ऊंचे उद्देश्य के साथ शुरू किया गया यह कार्यक्र आज ग्राम प्रधान से लेकर कलेक्टर तक को रिश्वत की एक गिज़ा उपलब्ध कराने से ज्यादा कुछ नहीं बन पाया है . इसलिए आज महात्मा गाँधी के जन्म दिवस के अवसर पर उनके सपनों का भारत बनाने के लिए शुरू किये गए जवाहर लाल नेहरू के प्रिय कार्यक्रम की दुर्दशा का ज़िक्र कर लेना उचित जान पड़ता है
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आपने जो निष्कर्ष दिये हैं वे हैं तो आँखें खोलने वाले लेकिन ध्यान कोई देगा इसकी उम्मीद नहीं हैं,क्योंकि सब अपनी निजी आपा-धापी मे व्यस्त हैं । सामुदायिक या समष्टिवादी सोच अब गोष्ठियों तक सीमित रह गई है।
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