Tuesday, October 20, 2009

अब क्या करेगी बी जे पी

आर एस एस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उसके मुखिया मोहनराव भागवत ने कह दिया कि संघ के कैडर अपने हिसाब से इस बात का चुनाव कर सकते हैं कि उन्हें किस पार्टी को वोट देना है . उन्होंने साफ किया कि ज़रूरी नहीं के संघ के सदस्य केवल बी जे पी को ही वोट दें .इस कथित बयान के बाद बी जे पी में हड़कंप मच गया . सच्ची बात यह है कि आर एस एस के कार्यकर्ताओं के अलावा , बी जे पी के पास और कोई जनाधार नहीं है . विश्वविद्यालयों में जो भी छात्र एबीवीपी के नाम पर इकठ्ठा होते हैं , उनमें लगभग सभी आर एस एस के ही सदस्य होते हैं.

मजदूरों में पार्टी की कहीं कोई हैसियत नहीं है. दत्तोपंत ठेंगडी की मौत के बाद ट्रेड यूनियन की राजनीति में संघ की कोई ख़ास उपस्थिति नहीं है. नौजवानों में भी वही आर एस एस वाले सक्रिय हैं . गरज कि बी जे पी के समर्थकों में से अगर आर एस एस वालों को हटा लिया जाए तो वहां कुछ नहीं बचेगा . ज़ाहिर है इस तरह की बात शुरू होने के बाद बी जे पी में चिंता का माहौल बन गया . वैसे भी २००९ में पार्टी की चुनाव में हुई हार के बाद उसकी दुर्दशा की खबरें रोज़ ही अखबारों में छपती ही रहती हैं .. लेकिन आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बी जे पी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने पटना में मीडिया को बताया कि मोहनराव भागवत ने ऐसा कुछ नहीं कहा है कि संघ के कार्यकर्ता चाहे तो भाजपा को वोट करें या न करें.

राजगीर में चल रही आर एस एस की कार्यकारिणी में शामिल किसी सूत्र के हवाले से आईएएनएस एजंसी ने एक खबर जारी कर दी थी जिसमें कहा गया था कि मोहनराव भागवत ने कहा है कि वे यह स्वयंसेवकों को तय करना है कि वे भाजपा को वोट करें या न करें. यह खबर जब अखबारों में छपी तो बी जे पी में खलबली मच गयी. इसके बाद रविशंकर ने कहा कि संघ हमेशा ही यह कहता रहता है कि संघ के स्वयंसेवक जिसे चाहें वोट कर सकते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा होता नहीं है.. आर एस एस की विश्वसनीयता के बारे में रवि शंकर प्रसाद की इस बात को शायाद उनकी पार्टी के लोग ही गंभीरता से न लें लेकिन इस बात में दो राय नईं है कि आर एस एस के नए प्रमुख मोहन भागवत बी जे पी के मौजूदा नेतृत्व से खुश नहीं हैं . यह बात उन्होंने बार बार कह भी दिया है .कम से कम सिद्धांत रूप से आर एस एस मानता है कि वह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए किसी भी राजनीतिक दल की मदद कर सकता है.

बी जे पी को अपने पूर्व अवतार में जनसंघ कहा जाता था. उसकी स्थापना के बाद से ही स्वर्गीय दीन दयाल उपाध्याय के ज़रिये आर एस एस ने पार्टी पर पूरा कंट्रोल रखा. और जब जनता पार्टी बनी तो जनसंघ घटक के लोगों को हुक्म नागपुर से ही लेना पड़ता था. बी जे पी बनने के बाद तो इस बात पर कभी चर्चा भी नहीं हुई कि पार्टी में आर एस एस की भूमिका क्या है. सब जानते हैं कि बी जे पी पूरी तरह से आर एस एस का सहयोगी संगठन है . लेकिन आजकल आर एस एस में बी जे पी की उपयोगिता के बारे में बेचैनी है. आर एस एस के कुछ ख़ास लोग कद्दावर आर एस एस नेता , गोविन्दाचार्य के नेतृत्व में बी जे पी के विकल्प की तालाश कर रहे हैं . उसी प्रोजेक्ट के तहत महात्मा गाँधी और सरदार पटेल जैसे कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपना बना लेने की कोशिश चल रही है है. गोविन्दाचार्य के दोस्त लोग राष्ट्र निर्माण जैसे लोक लुभावन नारों के ज़रिये जनता तक पंहुचने की कोशिश कर रहे हैं जिस से सही वक़्त पर संघ की नयी पार्टी की घोषणा कर दी जाए. बताया गया है कि गोविन्दाचार्य के व्यक्तित्व के आकर्षण की वजह से वर्तमान बी जे पी के भी कुछ बड़े नेता उनके संपर्क में हैं . इन लोगों ने महात्मा गाँधी के नाम पर चलने वाले कई संगठनों पर कब्जा भी कर लिया है . आज कल आर एस एस वालों का एक बड़ा तबका अपने आप को गांधीवादी भी कहता पाया जा रहा है . इस लिए मोहन राव भागवत की इस बात में दम लगता है कि आर एस एस जल्दी ही बी जे पी से पिंड छुडाने वाला है.

आर एस एस के लिए नयी राजनीतिक पार्टी की तलाश कोई नयी बात नहीं है. १९७५ में जब पूरी दुनिया संजय गाँधी की क्रूर तानाशाही प्रवृत्तियों से दहशत में थी, तो आर एस एस वाले उन्हें अपना बना लेने के चक्कर में थे. अकाल मृत्यु ने संजय गाँधी के जीवन में हस्तक्षेप कर दिया वरना हो सकता है कि बाद में जो उनकी पत्नी और बेटे ने किया वह काम संजय गाँधी के जीवन में ही हो गया होता.

आजकल भी आर एस एस के लोग पुराने कांग्रेसियों, महात्मा गाँधी और सरदार पटेल को अपना पूर्वज बताने की कोशिश तो कर ही रहे हैं , नए वालों पर भी उनकी नज़र है. आर एस एस के प्रमुख ने पिछले दिनों राहुल गाँधी की तारीफ़ की और पी चिदंबरम के काम पर बहुत ही संतोष ज़ाहिर किया. महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों के बीच में आर एस एस के कांग्रेस के नेताओं की तारीफ करना बीजेपी को ठीक बिलकुल नहीं लगा लेकिन बेचारे कर क्या सकते हैं. इस लिए आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बीजेपी में परेशानी शुरू होना स्वाभाविक है और इस बात को भी पूरा बल मिलता है कि आर एस एस ने नयी राजनीतिक पार्टी के विकल्प वाले प्रोजेक्ट पर गंभीरता से काम शुरू कर दिया है. इसके लिए खुद आरएसएस के अंदर ही कई धाराएं हैं जो नये राजनीतिक विकल्प का खाका तैयार करने में लगी हुई हैं. हालांकि आरएसएस 2007 में कह चुका है कि वह इसी भाजपा को ठीक करेगा लेकिन यह भाजपा ठीक होती दिखाई न दी तो नये विकल्पों को आजमाने से आरएसएस हिचकेगा भी नहीं

पाकिस्तान के बिना बी जे पी का क्या होगा

बी जे पी की राजनीति का एक और प्रमुख स्तम्भ ढहने वाला है...लगता है कि पाकिस्तान पर भी अब वोटों की खेती नहीं हो पायेगी. अयोध्या विवाद पर तो अब वोट की खेती नहीं हो सकती और बोफोर्स का मुद्दा भी अब दफ़न हो गया है . उसके सहारे बी जे पी जैसी भावनाओं पर राजनीति करने वाली पार्टियों को काफी खुराक मिलती थी. वह भी ख़त्म ही है .लोक सभा चुनावों के पहले से ही मुद्दों की तलाश जारी है . बी जे पी की राजनीति में पाकिस्तान का बहुत बड़ा महत्व है . पाकिस्तान के खिलाफ तलवारें भांज कर बी जे पी वाले अपने सीधे सादे कार्यकर्ताओं को अब तक चलाते रहे हैं . कभी पाकिस्तान का कच्छ में घुसना , कभी ताशकंद में गडबडी, कभी सीमा पर झंझट ,कभी कारगिल तो कभी सीमा पार से आने वाला आतंकवाद , यह सब बी जे पी की सियासत को जिंदा रखने में काम आते रहे हैं . लेकिन अब खबर आ रही है कि कांग्रेस पार्टी वाले पाकिस्तान को टालने की राजनीति शुरू कर चुके हैं . कांग्रेस के महासचिव राहुल गाँधी ने शिमला में बयान दे दिया है कि भारत की तुलना पाकिस्तान से नहीं की जानी चाहिए . उन्होंने कहा कि पाकिस्तान उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना हम समझते हैं . भारत और पाकिस्तान में बहुत फर्क है. हम अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक अहम् मुकाम रखते हैं जब कि पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क है जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है . उन्होंने कहा कि यह अलग बात है कि पाकिस्तान कुछ न कुछ गड़बड़ करता रहता है और उसका इलाज़ वही लोग कर देंगें जिन्हें उसका ज़िम्मा दिया गया है . पाकिस्तान हमारी विश्वदृष्टि में एक बहुत ही मामूली जगह घेरता है राहुल गाँधी के इस बयान के बाद बी जे पी में चिंता की स्थिति दिख रही है . राहुल गाँधी का बयान किसी मामूली कांग्रेसी का बयान नहीं है . वैसे भी, राहुल गाँधी के व्यक्तित्व की एक खासियत उभर कर सामने आ रही है कि वे बहुत गंभीर बात भी साधारण तरीके से कह देते हैं . बाद में उस पर बहस होती है और उनकी बात ही पार्टी की नीति के रूप में स्वीकार कर ली जाती है . इस लिए हो सकता है कि पाकिस्तान संबन्धी उनका बयान भी कांग्रेस की मौजूदा सोच की प्रतिध्वनि हो. बहरहाल, भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने बयान दे दिया कि राहुल गाँधी को अभी बहुत कुछ सीखना है . आपने फरमाया कि अगर पाकिस्तान इतना कम महत्वपूर्ण है तो प्रधान मंत्री को शर्म अल शैख़ में क्यों शर्म उठानी पडी. बी जे पी की चिंता का कारण यह है कि पाकिस्तान के इस्लामी गणराज्य और उसके एजेंटों की मुखालिफत की बुनियाद पर राजनीति करने वाली बी जे पी को कहाँ ठिकाना मिलेगा. वैसे भी पार्टी के पास आम आदमी से जुड़ा कोई मुद्दा नहीं है . अगर पाकिस्तान भी निकल गया तो क्या होगा . दरअसल बी जे पी की राजनीतिक सोच में पाकिस्तान का केंद्रीय मुकाम है . कश्मीर, संविधान की धारा ३७०. आतंकवाद, मुसलमान , राष्ट्रीय सुरक्षा मुस्लिम तुष्टिकरण , सीमा पार से सांस्कृतिक हमले उर्फ़ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद , बी जे पी की राजनीति के प्रमुख शब्दजाल हैं और अगर पाकिस्तान को कम महत्व देने की राहुल गाँधी की राजनीति ने जोर पकड़ लिया तो संघ की राजनीति को मीडिया में मिलने वाली जगह अपने आप कम हो जायेगी क्योंकि जब पाकिस्तान की ही कोई औकात नहीं रहेगी ,तो उसके विरोध की राजनीति को कौन पूछेगा. सवाल यह कि बी जे पी की राजनीति को जिंदा रखने के लिए पाकिस्तान के मह्त्व को कब तक जिंदा रखा जा सकता है . अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों की शुरू से कोशिश रही है कि भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौला जाए. अब तक वे सफल भी होते रहे हैं . लेकिन अब ऐसा करना अमरीका के लिए भी संभव नहीं है . पिछले ६० वर्षों में पाकिस्तान विकास के क्षेत्र में भारत से बहुत पीछे रह गया है और अब पाकिस्तान एक गरीब खस्ताहाल देश है . जो अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है . बलोचिस्तान और सूबा-ए- सरहद, पाकिस्तान से अलग होने की कोशिश कर रहे हैं .उसकी अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है . फौज ने पिछले ५५ वर्षों में पाकिस्तान की जो दुर्दशा की है कि उसके लिए अपनी रोटी के लिए भी विदेशी मदद की ज़रुरत पड़ती है . ऐसी हालात में पाकिस्तान को कब तक बी जे पी की राजनीतिक सुविधा के लिए जिंदा रखा जा सकता है .जहां तक पाकिस्तान से भारत में आतंकवाद आने का खतरा है वह अब राजनीतिक या कूटनीतिक सवाल नहीं है . क्योंकि वहां की ज़रदारी-गीलानी की सिविलियन सरकार की इतनी हैसियत नहीं है कि वह पाकिस्तानी फौज को लगाम लगा सके. इसका मतलब यह हुआ कि पाकिस्तानी शरारतों को राजनीतिक तरीके से नहीं रोका जा सकता . उसे रोकने के लिए तो पाकिस्तानी फौज और आई एस आई को ही काबू करना पड़ेगा . आजकल यह काम अमरीकी फौज के अफगानिस्तान में तैनात जनरलों के जिम्मे है और वे उठते बैठते पाकिस्तानी सेना के आला अफसरों को धमका रहे हैं .सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में सारी मुसीबतों की जड़ फौज ही है और अगर उनको दबा दिया गया तो पाकिस्तानी अवाम भी खुश हो जाएगा और भारत पर पाकिस्तान से आने वाली रोज़ रोज़ की परेशानियां अपने आप ख़त्म हो जायेगी . ज़ाहिर है कि यह भारत के लिए एक अच्छी स्थिति होगी.हाँ बी जे पी वालों को चाहिए कि वे राजनीति करने के लिए नए मुद्दे ढूंढ लें क्योंकि पाकिस्तान दीन, हीन खस्ताहाल और गरीब मुल्क है उसकी दुश्मनी की बुनियाद पर बहुत दिन तक राजनीति नहीं चलने वाली है .

प्राकृतिक सम्पदा पर अधिकार का सवाल और अर्थशास्त्र का नोबेल

इस साल का अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार अमरीका की अर्थ शास्त्री ,एलिनोर ओस्ट्रॉम को उन्हीं के देश के ओलिवर विलियम्सन के साथ साझा रूप में दिया गया है .अर्थ शास्त्र का नोबेल पहली बार एक महिला को दिया गया है .दोनों अर्थशास्त्रियों को आर्थिक प्रशासन के क्षेत्र में किए गए योगदान के लिए ये सम्मान दिया जा रहा है. आर्थिक प्रशासन ऐसे नियम-क़ानूनों का क्षेत्र होता है जिनसे व्यक्ति कंपनियों या किसी आर्थिक व्यवस्था को संचालित करते हैं.एलिनोर ओस्ट्रॉम इंडियाना यूनीवर्सिटी और ओलिवर विलियम्सन बर्कले विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं.\इस साल के नोबेल पुरस्कार विजेताओं में अमरीकी नागरिकों की संख्या बहुत ज्यादा है .इस वर्ष कुल 13 लोगों को नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई है जिनमें 11 अमरीकी नागरिक हैं. इस साल नोबेल पुरस्कार विजेताओं में महिलाओं की संख्या भी खासी है नोबेल पुरस्कार की समिति के अब तक के इतिहास पर नज़र डालें तो यह एक स्वागत योग्य आश्चर्य ही माना जाएगा. इस साल साहित्य का नोबेल जर्मन-रोमानियन लेखिका हरता म्युल्लर को दिया गया है , अमरीकी नागरिक एलिजाबेथ ब्लैकबर्न और कैरोल ग्रीडर को मेडीसिन का जब कि इस्राइली महिला वैज्ञानिक को रसायन शास्त्र का नोबेल दिया गया. एक साल की नोबेल पुरस्कारों की लिस्ट में इतनी महिलायें एक साथ कभी नहीं रही हैं .
नोबेल पुरस्कारों की स्थापना डायनामाइट के आविष्कारक, स्वीडन के वैज्ञानिक अल्फ़्रेड नोबेल के नाम पर हुई थी.1901 से दिए जा रहे नोबेल पुरस्कार पहले तो पाँच वर्गों में दिए जाते थे मगर 1968 से अर्थशास्त्र के क्षेत्र में भी नोबेल पुरस्कार दिए जाने लगे. इस साल के अर्थशास्त्र के पुरस्कार की घोषणा करते हुए नोबेल समिति ने प्रोफ़ेसर ओस्ट्रॉम की बहुत तारीफ़ की और कहा कि उन्होंने ये दिखाया कि वनों, और जलस्रोतों जैसी प्राकृतिक और सार्वजनिक संपदाओं की व्यवस्था सरकारों और निजी कंपनियों से बेहतर इनका इस्तेमाल करनेवाले लोग करते हैं.76 वर्षीया एलिनोर ओस्ट्रॉम ने कहा कि पुरस्कार मिलने की खबर सुनकर उन्हें बहुत खुशी हुई है .उन्होंने कहा,"जब उन्होंने मुझे फ़ोन कर बताया तो मैं बिल्कुल चौंक गई. ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्होंने बहुत-बहुत संघर्ष किया है और उनके बीच से पुरस्कार के लिए चुना जाना बहुत बड़े सम्मान की बात है."

हालांकि पश्चिमी देशों में महिलाओं का सम्मान किया जाता है लेकिन अभी पुरुष प्रधान समाज में उनकी स्थिति उतनी मज़बूत नहीं है जितनी कि पुरुषों की है .इसके लिए पूरी दुनिया की तरह ऐतिहासिक कारण ही जिम्मेदार हैं लेकिन जागरूकता की कमी भी महिलाओं की शक्ति को सीमित करने के लिए काफी हद तक जिम्मेवार हैं . प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम को पुरस्कार देने से महिला सशक्तिकरण की कोशिशों को ताक़त मिलेगी . इसके दो कारण हैं . एक तो किसी महिला को अर्थशास्त्र का सबसे बड़ा सम्मान मिलने के अपने ही प्रेरक रहेंगें और दूसरी तरफ उनको जिस विषय के लिए पुरस्कार दिया गया है वह कम क्रांतिकारी नहीं है .प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम ने बताया है कि जंगलों और पानी के ठिकानों का इन्तेजाम वही लोग सबसे अच्छा करते हैं जो वास्तव में उसका इस्तेमाल करते हैं . . यानी सरकार या वन सम्पदा का लाभ लेने वाली कंपनियाँ जंगलों का सही देखभाल नहीं कर सकतीं . इस विचार को अगर आगे बढाया जाए और भारत की सरकार इसे ईमानदारी से लागू कर दे तो भारत की बहुत सारी समस्यायें अपने आप ख़त्म हो जाएँगीं. देश के आदिवासी इलाकों में चल रहे माओवादी हमलों के बहुत सारे कारण हैं लेकिन एक यह भी है कि उन इलाकों में रहने वाले आदिवासियों से वन सम्पदा संबन्धी उनके अधिकारों को सरकारों ने छीन लिया है और राजधानियों में बैठकर बनाए गए कानूनों के ज़रिये जंगलों के मूल निवासियों को केवल मजदूर की औकात पर ला कर रख दिया है . आजकल तो खनिज सम्पदा के चक्कर में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी आदिवासी इलाकों पर काबू करने की जुगाड़ भिड़ा रही हैं . नतीजा यह हो रहा है कि वहां रहने वाले लोग राजनीतिक नेताओं और व्यापारी वर्ग को अपना दुश्मन नंबर एक मानने लगे हैं . ऐसे माहौल में कुछ दिग्भ्रमित वामपंथियों ने उन्हें माओ के नाम पर लामबंद किया और गलत राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उन्हें हथियार पकडा दिए. यह समझ लेना ज़रूरी है कि संशोधनवादी विचारधारा का शिकार कम्युनिस्ट भी पूंजीपति वर्ग के हित में ही काम करता है . देश के आदिवासी इलाकों में चल रहे खूनी संघर्ष के बाद उसके नेतागण तो सरकार से सुलह कर लेंगें लेकिन आदिवासी समाज का जो नुक्सान हो जाएगा उसकी भरपाई असंभव होगी. अगर प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम की वन सम्पदा के प्रबंधन के अर्थशास्त्रीय सिद्धांत को भारत के आदिवासी इलाकों में लागू कर दिया जाए तो देश और समाज का बहुत ही भला होगा.

आज ही खबर आई है कि पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखण्ड के इलाकों में माओवादियों ने हिंसा का तांडव शुरू करवा दिया है . इन माओवादियों की तरफ से हथियार उठाने वाले और कोई नहीं , भारत के जंगली इलाकों में रहने वाले गरीब लोग हैं अगर नोबेल पुरस्कार की इस साल की विजेता एलिनोर ओस्ट्रॉम के वन सम्पदा के प्रबंधन के सिद्धांत को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लागू करना शुरू कर दें तो समस्या की जड़ तक पंहुचना आसान हो जाएगा. इसका असर सामाजिक व्यवस्था पर भी पड़ेगा . आदिवासी इलाकों में परंपरागत रूप से स्त्री पुरुष में बहुत ज्यादा भेद नहीं होता. इसलिए अगर आदिवासी समाज को उसकी पुश्तैनी संपत्ति के प्रबंधन का अधिकार दिया गया तो जाहिरा तौर पर औरतों को भी अधिकार मिलेगा और जिस समाज में महिलाओं के पास आर्थिक अधिकार होते हैं वह समाज कभी भी पिछड़ नहीं सकता . इस लिहाज़ से कहा जा सकता है कि एलिनोर ओस्ट्रॉम को नोबेल ऐसे वक़्त पर दिया आ है जब कि उनके सिद्धांत को सामाजिक आर्थिक परिवर्तन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है .

इस बीच झारखण्ड सरकार ने बताया है कि राज्य में रहने वाले आदिवासियों पर लगाए गए १ लाख मुक़दमे वापस ले लिए गए हैं . यह संख्या हैरानी में डालने वाली है . एक छोटे से राज्य में १ लाख ऐसे मुक़दमे थे जिन्हें कि वापस लेने लायक माना गया . इसका सीधा मतलब यह है कि आदिवासियों के खिलाफ राज्य सरकार की ताकत का इस्तेमाल उन्हें परेशान करने के लिए किया जा रहा था . मुक़दमे वापस ले कर तो बीमारी के लक्षणों का इलाज़ ही संभव होगा . ज़रुरत इस बात की है कि बीमारी को जड़ से मिटा दिया जाए. और उसके लिए भूमिपुत्रों को उनके अधिकार देना पड़ेगा जिसके लिए दार्शनिक पृष्ठभूमि नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम के अर्थ शास्त्र के सिद्धांतों से ली जा सकती है.

पाकिस्तान पर अमेरिका का शिकंजा

अमेरिका में पिछले महीने एक ऐसा कानून पास हुआ है जिसके अनुसार पाकिस्तान को हर साल 150 करोड़ डालर की आर्थिक मदद मिला करेगी। सीनेट के सदस्यों-केरी और लूगर के नाम से जुड़ा यह बिल पाकिस्तान की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी राहत का काम करेगा, लेकिन अजीब बात है कि पाकिस्तानी फौज ने इस सहायता पैकेज का विरोध करने का फैसला किया है। उसे आर्थिक सहायता से जुड़ी कुछ शर्तो पर ऐतराज है।
अब तक जो भी अमेरिकी सहायता पाकिस्तान को मिलती थी उससे फौज के आला अफसर मजे करते थे। उनकी कोई जवाबदेही नहीं होती थी। इस रकम का इस्तेमाल भारत के खिलाफ हथियार जुटाने और आतंकवाद फैलाने के लिए भी किया जाता था। इस बार अमेरिका की कोशिश है कि पाकिस्तान में सत्तारूढ़ लोकतांत्रिक सरकार को मजबूत किया जाए। आपरेशन एक्ट (पीस एक्ट) नाम के इस कानून में वास्तव में कुछ शर्तें ऐसी हैं जिन्हें किसी भी स्वतंत्र और संप्रभु देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप माना जा सकता है। एक्ट में व्यवस्था है कि अमेरिकी विदेश मंत्री हर छह महीने बाद एक सर्टिफिकेट जारी करेंगी कि पाकिस्तान ने बीते छह महीने सही तरह काम लिया है, लिहाजा अगली किस्त जारी की जा सकती है। सही तरह काम करने वाले देश के रूप में अमेरिकी विदेश मंत्री की सनद हासिल करने के लिए पाकिस्तान को परमाणु प्रसार और अनधिकृत कारोबार के बारे में जानकारी अमेरिका को देनी पड़ेगी। पाकिस्तानी परमाणु वैज्ञानिक एक्यू खान का नाम लिए बिना उनकी हर गतिविधि पर अमेरिकी नियंत्रण की बात की गई है।
पड़ोसी देशों के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियां करने वालों पर पूरी तरह से रोक लगाने की बात भी की गई है। अल-कायदा, तालिबान, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद का साफ उल्लेख करके यह बता दिया गया है कि अगर भारत के खिलाफ आतंक फैलाया गया तो दाना-पानी बंद कर दिया जाएगा। दुनिया जानती है कि लाहौर के पास स्थित मुरीदके शहर में लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक हाफिज मुहम्मद सईद और जमात-उद्-दावा का मुख्यालय है। इस शहर को अमेरिकी पीस एक्ट में आतंकवाद के प्रमुख केंद्र के रूप में दिखाया गया है। जाहिर है कि अगर पाकिस्तान सरकार हाफिज मुहम्मद सईद को काबू में नहीं रखती तो अमेरिकी खैरात पर रोक लग सकती है। पाकिस्तानी फौज को जो बात सबसे नागवार गुजरी है वह यह कि अमेरिका पाकिस्तान की सरकार और वहां की फौज पर नियंत्रण रखे। सरकार को आगे से सेना के बजट, कमांड की प्रक्रिया, जनरलों का प्रमोशन, रणनीतिक नीति निर्धारण और नागरिक प्रशासन में सेना की भूमिका पर नजर रखनी पड़ेगी और अमेरिका को इसके बारे में जानकारी देनी पड़ेगी। सबसे मुश्किल बात यह है कि पाकिस्तानी सरकार के लिखकर देने मात्र से बात नहीं बनेगी। अमेरिकी विदेश मंत्री की ओर से अच्छे काम की सनद तब मिलेगी जब मौके पर तैनात अमेरिकी अधिकारी इस बात की पुष्टि कर देंगे। सही बात यह है कि अगर अमेरिका इस बात पर अड़ा रहता है तो यह माना जाएगा कि उसने पाकिस्तान की सरकार पर एक प्रकार से कब्जा कर लिया है, लेकिन अमेरिकी प्रशासन की परेशानी यह है कि पिछले तीस साल में पाकिस्तानी शासकों ने अमेरिकी मदद का दुरुपयोग ही किया है।
पिछले दिनों रावलपिंडी में सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज कियानी ने पाकिस्तानी सेना के शीर्ष कमांडरों की बैठक की अध्यक्षता की। इस बैठक के बाद एक बयान जारी किया गया, जिसमें पीस एक्ट के प्रावधानों पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया कि इन प्रावधानों के लागू होने पर पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा पर उलटा असर पड़ेगा। कमांडरों ने लगभग आदेश देने की भाषा में जरदारी सरकार को कहा कि राष्ट्रीय असेंबली (संसद) की बैठक बुलाएं और इस कानून के खिलाफ राष्ट्रीय प्रतिक्रिया व्यक्त करें। पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) ने भी अमेरिकी मदद के साथ जुड़ी हुई शर्तो का विरोध किया है, जबकि जरदारी सरकार इस कानून से खुश है। पाकिस्तानी राष्ट्रपति के प्रवक्ता फरहत उल्ला बाबर ने कहा कि जो लोग अमेरिकी सहायता का विरोध कर रहे हैं वे वैकल्पिक रास्ता सुझाएं। दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व विदेशी मामलों की उपसमिति के उपाध्यक्ष सीनेटर गैरी एकरमैन ने पाक अधिकारियों को हड़काया है कि अमेरिकी मदद किसी मकसद को हासिल करने के लिए दी जा रही है। यह कोई खैरात नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि अगर पाकिस्तान शर्तो का उल्लंघन करता है तो मदद को रद भी किया जा सकता ह

Monday, October 19, 2009

बिज़नस स्कूलों के सर्वे का खेल

आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के नारे के साथ साथ यह तय हो गया था कि शिक्षा के क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश होगा, निजी क्षेत्र के लोगों को प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान खोलने और चलाने के अवसर मिलेंगें , देश में उद्योग और व्यापार की दुनिया में काम आने वाले कुशल लोग जॉब मार्केट में आ जायेंगें. नए अवसर की बात आते उच्च, प्राविधिक और प्रोफेशनल शिक्षा के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निजी पूंजी का निवेश हुआ. जो अभी तक हो रहा है लेकिन इसके साथ ही बहुत बड़े पैमाने पर हेराफेरी करने वाले लोग भी शिक्षा के क्षेत्र में टूट पड़े.वर्तमान शिक्षा मंत्री के सामने पिछले दस पंद्रह साल में शिक्षा के नाम पर हुई हेराफेरी को साफ़ कर पाने की चुनौती मुंह बाए खडी है.. कभी नक़ली विश्वविद्यालयों का मामला ऊपर आ जाता है तो कभी तकनीकी शिक्षा के नाम पर हुई बेइमानी का . शिक्षा व्यवस्था की देख रेख करने वाले ज्यादातर शीर्ष अधिकारियों की जांच हो रही है . एकाध को तो सी बी आई ने पकड़ कर जेल में भी डाल दिया है . रोज़ ही कुछ न कुछ गड़बड़ सामने आ जाती है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी इस बार की जांच के घेरे से बच नहीं पाया है अगर गुप्त जानकारी सही पायी गयी तो जल्दी ही यू जी सी के कुछ सूरमा भी पकड़ लिए जायेंगें .
शिक्षा के क्षेत्र में निजी पूंजी की धमाकेदार एंट्री के साथ व्यापारी वर्ग का प्रिय विषय भी अब शिक्षा के क्षेत्र में शामिल हो गया है .कोई भी काम कुछ भी ले दे कर, करा लेने वाले लोग बड़े पैमाने पर सक्रिय हो गए हैं .. सरकार में शिक्षा विभाग के टॉप पर बैठे लोग अब शिक्षा के प्रबंधन और नियमन से जुड़े हर आदमी को शक की नज़र से देख रहे हैं .किसी तरह का शिक्षा केंद्र खोलना बहुत बड़ी कमाई का जरिया हो गया है .निजी पूंजी से चल बहुत सारे शिक्षा संस्थान तो अच्छा काम कर रहे हैं लेकिन उस से भी ज्यादा संस्थान मालिक ठेकेदार मानसिकता से काम कर रहे हैं . एम बी ए की पढाई करने के लिए निजी शिक्षा संस्थानों में जाने वाले बच्चे ७ से १० लाख रूपय्रे तक की फीस देते हैं . इन बच्चों को अपनी तरफ खींच लेने के लिए बिज़नस स्कूल वाले कुछ भी करने पर आमादा हैं .दुर्भाग्य की बात है कुछ नामी पत्रिकाएं भी निजी पूंजी के स्कूलों को टॉप बिज़नस स्कूल का सर्टिफिकेट देने लगी हैं जिसकी वजह से बड़े पैमाने पर दूर दराज़ से आने वाले छात्र छात्राएं धोख्रे का शिकार हो रहे हैं .
पिछले दिनों देश की एक नामी पत्रिका में भी बेस्ट बिज़नस स्कूलों का सर्वे आया है . जिसने आई आई एम अहमदाबाद , बंगलोर , कलकत्ता और लखनऊ को तो टॉप बिज़नस स्कूलों में नाम दिया है लेकिन बाकी के चोटी के दस बिज़नस स्कूलों में जिन संस्थाओं का नाम दिया है वे बहुत सारे सवाल उठा देती हैं . . इस लिस्ट में एफ एम एस दिल्ली, आई आई एम इंदौर, आई आई एम कोजीकोड, आई एस बी हैदराबाद , एम डी आई गुडगाँव , आई आई टी दिल्ली, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस , मुंबई को टॉप टेन के लायक नहीं समझा गया है जब कि सबसे जादा विज्ञापन देने वाले एमिटी बिज़नस स्कूल को टॉप टेन में जगह दी गयी है. सवाल पैदा होता है कि क्या यह सर्वे करने वाले लोगों के बच्चों को अगर एफ एम एस दिल्ली, आई आई एम इंदौर, आई आई एम कोजीकोड, आई एस बी हैदराबाद , एम डी आई गुडगाँव , आई आई टी दिल्ली, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस , मुंबई में दाखिला मिल जाए तो वे वहां से हटा कर अपनी लिस्ट के टॉप बिज़नस स्कूल एमिटी , सिम्बिओसिस ,लीबा जैसे संस्थान में दाखिला दिलवा देंगें . ज़ाहिर है ऐसा कोई नहीं करेगा . सच्ची बात यह है कि इस देश में जब सबसे अच्छे बिज़नस स्कूलों का ज़िक्र आता है तो सबसे पहले दिमाग में आई आई एम का नाम आता है और वे ही इस देश के टॉप प्रबंध संस्थान माने जाते हैं .इसके बाद आई एस बी हैदराबाद , एम डी आई गुडगाँव , आई आई टी दिल्ली, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस , मुंबई जैसे नामी संस्थानों का शुमार किया जाता है लेकिन बड़ी पत्रिकाओं और मीडिया समूहों की ओर से सबसे जादा विज्ञापन देने वाले बिज़नस स्कूलों का नाम टॉप पर डाल देने से मीडिया की अपनी विश्वसनीयता , सवालों के घेरे में गिड़गिडाती हुई खडी हो जाती है .मीडिया को अपनी लाज बचाने के लिए इस तरह के सर्वे से बाज़ आना चाहिए.. क्योंकि इन पत्रिकाओं की विश्वसनीयता बहुत ज्यादा होती है और सीधे सादे छात्र और उनके माता पिता इन् का भरोसा करके इन् स्कूलों के चक्कर में आ जाते हैं और २ साल का वक़्त बिताने और करीब १५ लाख रूपये खर्च करने के बाद जब जॉब मार्केट में जाते हैं या उसके पहले ही उन्हें पता लग जाता है कि एफ एम एस दिल्ली तो बहुत ही अच्छा संस्थान है और वहां फीस भी बहुत कम लगती है ,तो वे उस मैगजीन को शाप देते हैं जिसके सर्वे को पढ़ कर उन्होंने उस तथा कथित टॉप टेन बिज़नस स्कूल में दाखिला लिया था.
बिज़नस स्कूलों के सर्वे का यह खेल और उस से जुडी हेराफेरी कोई नई बात नहीं है .१९९८ में जब इस पत्रिका का सर्वे आया था तो एफ एम एस दिल्ली ने शिकायत की थी किउनक अनाम नीचे डाल दिया गया क्योंकि पत्रिका के प्रतिनधि ने विआपन माँगा था जो नहीं दिया गया था , इस तरह के सर्वे का काम पूरे अमरीका और यूरोप में होता है. वहां होने वाले सर्वे आम तौर पर भरोसे मंद भी होते हैं . अगर वे हेरा फेरी करते पाए जाते हैं तो उन पर मुक़दमा भी होता है और जुर्माना भा, शायद इसी लिए वहां की मीडिया कंपनियां गड़बड़ नहीं करतीं . लेकिन भारत में यह सारा काम नया है . शायद दस साल के करीब से यह धंधा चल रहा है.. लेकिन अगर मीडिया हाउस फ़ौरन से पेश्तर संभल न गए तो उन्हें सज़ा भी होगी और जुर्माना भी क्योंकि इन्टरनेट के चलते उनकी पोल पट्टी किसी भी वेबसाइट पर खुल जायेगी . मीडिया का जनवादीकरण हो चुका है . मीडिया पर धीरे धीरे धन्ना सेठों की गिरफ्त कमज़ोर पड़ रही है और कुछ न्यायप्रिय नौजवान पत्रकार मीडिया को पूंजी के शिकंजे से मुक्ति दिलाने की क्रान्ति के हरावल दस्ते की अगुवाई कर रहे हैं .

Thursday, October 8, 2009

सत्ता का खूंखार चेहरा और गरीब आदमी

झारखंड के पुलिस अधिकारी फ्रांसिस इदवार को उनके अपहर्ताओं ने निर्ममता पूर्वक मार डाला। फ्रांसिस एक मामूली आदमी थे और सरकारी नौकरी के सहारे अपने बच्चों का लालन पालन कर रहे थे। अपनी ड्यूटी करते हुए वे अपहरण का शिकार हो गए और अपनी जान गंवा बैठे। सरकारी तंत्र ने छूटते ही कह दिया कि माओवादियों ने उन्हें मार डाला है। टी.वी. चैनलों और अखबारों की खबरें भी यही बताती हैं।

हालांकि आज के जमाने में इस तरह के मामलों में सरकारों की विश्वसनीयता बहुत ही आदरणीय नहीं रह गयी है लेकिन सम्माननीय अखबारों ने भी इसे माओवादियों की करतूत बताया है इसलिए लगता है कि अति वामपंथी विचारधारा ने एक ऐसे आदमी की जान ले ली। एक टी.वी. चैनल में बहस करने आए वामपंथी लेखक और कार्यकर्ता गौतम नवलखा मानने को तैयार नहीं थे कि फ्रांसिस की बर्बर हत्या माओवादियों ने की होगी। उनको लगता था कि बिना तथ्यों की पूरी जानकारी हासिल किए इस विषय में कुछ भी कहना ठीक नहीं है।

यानी वे यह कहना चाह रहे थे कि हो सकता है कि माओवादियों को बदनाम करने के लिए किसी और ने फ्रांसिस को मार डाला हो। यह बात दूर की कौड़ी है हालांकि इस बात की संभावना से भी पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता। एक गौतम नवलखा की बात मानकर बाकी सारी दुनिया को झूठा ठहराना बहुत ही बेतुका राग है। सच्ची बात यह है कि मीडिया के पास इस तरह की वारदात के कारणों की जांच करने के तरीके होते है जिससे सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। यह जानकारी किसी भी अदालत में सबूत तो नहीं बनती लेकिन होती सही है।

इस आधार पर भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि फ्रांसिस की हत्या माओवादियों ने ही की। फ्रांसिस की हत्या एक बहुत ही खतरनाक संकेत है। माओवादी राजनीति, निश्चित रूप से हिंसा का सहारा ले रही है। धनाढ्य वर्गों के हित पोषक भारत की राजनीतिक पार्टियां अपने वर्गों को लाभ पहुंचाने में जुटी हुई हैं। यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि माओवादियों के लाल कॉरिडर में पडऩे वाले राज्यों में राज करने वाली सभी पार्टियों का वर्ग चरित्र वही है जो किसी भी सामंतवादी साम्राज्यवादी पार्टी की सोच का होता है।

इन सारे इलाकों में कही भी भूमि सुधार नहीं हुआ है, राजनीतिक नेता सामंतों की तरह का आचरण करते हैं और गरीब आदमियों के लिए आने वाली सभी स्कीमों का पैसा हड़प लेते है। निराश हताश गरीब आदमी दिग्भ्रमित वामपंथियों के चंगुल में फंस जाता है और वह हथियार उठा लेता है।

इस तरह सत्ता के दो दावेदारों के बीच में लड़ाई शुरू हो जाती है। सरकारी सत्ता पर काबिज भू-स्वामियों-पूंजीपतियों के सेवक राजनेता एक तरफ और माक्र्सवादी शब्दजाल इस्तेमाल करके अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश कर रहे, कम्युनिस्ट विचारधारा से दिशाभ्रम की स्थिति में पहुंच चुके शातिर सत्ताकामी वामपंथी सरगनाओं की मंडली दूसरी तरफ। अजीब बात है कि इस खेल में मरने वाला हर आदमी गरीब है। चाहे वह माओवादियों की तरफ से हो या सरकार की तरफ से। पुलिस का इंस्पेक्टर फ्रांसिस बहुत ही मामूली आदमी था, अगर उसे सरकारी नौकरी न मिली होती तो वह शायद कहीं मजदूरी कर रहा होता।

लेकिन ज्यों ही सत्ता के प्रतिष्ठानों के संचालक पकड़े जाते हैं तो तूफान मच जाता है। माओवादियों का यह नया खूंखार रूप उनके बड़े नेताओं कोबाद गांधी और छत्रधर महतो के पकड़े जाने के बाद ही समाने आया है। इसके बाद हुकूमतों को भी माओवादियों के बहाने आदिवासी इलाकों में आम आदमी को घेरकर मारने का मौका मिल जायेगा। यह बात सबको मालूम है कि इस खूनी खेल में कोई बड़ा आदमी नहीं मारा जायेगा।

आदिवासी इलाकों में चल रहे नए खून खराबे में एक नया आयाम भी जुड़ रहा है। बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों की खनिज संपदा अनमोल है और अब उस पर बहुराष्टï्रीय कंपनियों की नजर लगी हुई है। इस बात की पूरी संभावना है कि इन इलाकों में चल रहे ताजा खून खराबे में इस साम्राज्यवादी खेल का भी कुछ योगदान हो। जहां तक सरकारों का प्रश्न है, वे तो पूंजीपति वर्ग की भलाई के लिए ही सत्ता में हैं, उन्हें सत्ता पर स्थापित करने में थैलीशाहों की चमक के योगदान की भी चर्चाएं होती रहती हैं, इस बात की भी पूरी आशंका है कि माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व में भी कुछ ऐसे लोग हों जो पूंजीपति वर्ग का खेल जमाने में मदद कर रहे हों।

इस तरह की बात हर उस इलाके में हो चुकी है। जहां खनिज संपदा होती है पेट्रोल के इस्तेमाल के पहले अरब का इलाका एक ऐसा क्षेत्र था जहां कभी किसी की नजर नहीं जाती थी। समुद्र के रास्ते संपन्न इलाकों की खोज में निकलने वाले यूरोपीय यात्री पश्चिम एशिया के इस इलाके पर नजर ही नहीं डालते थे, सीधे भारत की तरफ बढ़ते थे, जहां की संपन्नता का तिलिस्म उनको खींचता रहता था।

लेकिन पेट्रोल और अन्य हाइड्रोकार्बन पदार्थों के ऊर्जा के मुख्य स्रोत के विकसित होने के बाद पश्चिम एशिया में साम्राज्यवादियों के हित साधन के रास्ते पैदा किए गए और आज पेट्रोलियम पदार्थों से संपन्न यह इलाका पूंजीपति साम्राज्यवादी शक्तियों की बर्बरता का केंद्र बना हुआ है। वहां रहने वाले लोगों को हर तरह के खूनी खेल का नतीजा झेलना पड़ रहा है।

भारत में नये विकसित हो रहे लाल कॉरिडर के क्षेत्र भी खनिज संपदा से लैस हैं। वहां पर राज करने वाली पार्टियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित साधन करने में कोई संकोच नहीं होगा। इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इन क्षेत्रों की तबाही में माओवादी भी किन्हीं निहित स्वार्थों के कारिंदे हों। इसलिए सिविल सोसाइटी को चौकन्ना रहना पड़ेगा कि साम्राज्यवादियों के हितों की साधना के चक्कर में कहीं भारत का एक बड़ा हिस्सा विवादों के घेरे में न आ जाय और अवाम की पहले से ही मुश्किल जिंदगी और मुश्किल न हो जाय।

Wednesday, October 7, 2009

राहुल न बच्चे हैं, न कच्चे

कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने जो राह निकाली उस पर अब पूरी कांग्रेस चल पड़ी है. लेकिन अपनी इस पथरीली राह के चलते राहुल गांधी अपने राजनीतिक विरोधियों के सामने मुसीबत भी बनते जा रहे हैं। जो लोग उन्हें बच्चा कहकर टालने के चक्कर में रहते थे, अब वे उन्हें गंभीरता से ले रहे हैं। हालांकि समाज के आखिरी आदमी से मुलाकात की उनकी योजना कई वर्षों से चल रही है लेकिन पिछले हफ्ते दस दिन के उनके कारनामे समकालीन भारतीय राजनीति में संदर्भ बनने की हैसियत रखते हैं।
पिछले दिनों उनकी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की यात्रा और उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले में एक दलित के घर जाकर रहना, उसके यहां भोजन करना और वहीं गांव में लगे इंडिया मार्क II हैंडपंप पर तौलिया पहन कर नहाना, भारतीय राजनीतिक नेताओं को उनका असली फर्ज याद दिलाने का काम करेगा।
उत्तर प्रदेश सरकार को एतराज हो सकता है कि राहुल गांधी ने अपनी सुरक्षा की परवाह नहीं की या उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हैसियत वाले दलों को बुरा लग सकता है कि राहुल गांधी उन लोगों का विश्वास जीतने की कोशिश कर रहे हैं जो परंपरागत रूप से उनकी पार्टी के वोटर हैं। जहां तक सुरक्षा का सवाल है तो वह सुरक्षा एजेंसियों का विषय है, उसपर उन्हें ही ध्यान देना चाहिए लेकिन राहुल की यात्राओं का जो राजनीतिक भावार्थ है, उसको समझना और उसे आम आदमी तक पहुंचाना हमारा कर्तव्य है और हमारे पेशे की बुनियादी जरूरत भी। राहुल गांधी गांव के सबसे गरीब आदमी के दुख दर्द को समझने की कोशिश कर रहे हैं। ज़ाहिर है जिस तरह से उनका लालन पालन हुआ है, उसमें उन्हें गरीब आदमी की तकलीफों को समझने के अवसर बहुत कम मिले हैं। आज जब गरीबों के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की ओर से नरेगा जैसी योजनाएं चलाई जा रही हैं जिसमें बहुत सारा सरकारी धन लग रहा है तो राजनेताओं का फर्ज है कि वे नजर रखें कि जो योजना बनी है, वह सही तरीके से लागू भी हो रही है। राहुल गांधी वही काम कर रहे हैं जो उन्हें एक राजनीतिक नेता के रूप में करना चाहिए लेकिन इस देश का दुर्भाग्य है कि राजनीतिक पार्टियों के नेता उस काम की खिल्ली उड़ा रहे हैं, जो उन्हें भी करना चाहिए।
जरूरत इस बात की है समाज के जागरूक लोग, मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ता नेताओं को यह बताएं कि आपका कर्तव्य क्या है। किसी भी राजनेता को पूरे देश में कहीं भी आम आदमी से मिलने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और उस पर सवालिया निशान लगाने वालों की मंशा की विवेचना की जानी चाहिए। कुछ भी करना पड़े ऐसा माहौल बनाने की जरूरत है कि राजनीति में सक्रिय लोगों को तब तक सामाजिक मान्यता न मिले जब तक कि वे आम आदमी के बीच में जाकर उसके दुख दर्द को समझने के लिए सक्रिय प्रयास न करें। सच्चाई यह है कि अगर राजनेता ग्रामीण भारत की तकलीफों को समझने के लिए उनके बीच में समय बिताएगा तो भ्रष्टाचार के दानव से कई मोर्चों पर लड़ाई लड़ी जा सकती है। अगर ईमानदार राजनेता के ग्रामीण स्तर पर किसी भी वक्त पहुंच जाने का माहौल बन गया तो बहुत छोटे स्तर के भ्रष्टाचार पर बहुत आसानी से लगाम लगाई जा सकेगी।

अगर इस बिरादरी को कमजोर करने में सफलता मिल गई तो टॉप पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार को बहुत बड़ी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि मीडिया से जुड़े लोग चौकन्ना रहें और ज्यों ही कोई बड़ा नेता किसी भी राजनीतिक कार्यकर्ता के ग्रामीण इलाकों में जाने या वहां काम करने का मखौल उड़ाए, उससे तुरंत सवाल पूछ लिया जाय कि आप क्यों नहीं जाते? अगर नेताओं के बीच गरीब आदमी की सेवा करने और उसका दुख दर्द बांटने की होड़ लग गई तो देश की आज़ादी को सम्मान दिया जा सकेगा। यहां राहुल गांधी की प्रशस्ति करने का कोई मकसद नहीं है। बस एक बात बता देना ज़रूरी है कि जो लोग भी अच्छा काम करें उनकी तारीफ की जानी चाहिए। एक और बात राहुल गांधी के बारे में की जाती है कि वे बच्चे हैं, अभी उनको राजनीति सीखने की ज़रूरत है। यह बात भी बहुत ही गैर जिम्मेदार बयानों की श्रेणी में आयेगी। राहुल गांधी लगभग 40 साल के होने वाले हैं। महात्मा गांधी चालीस के भी नहीं हुए थे जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह नाम के अजेय राजनीतिक हथियार का अविष्कार कर दिया था। 1909 में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के बीजक, क्वहिंद स्वराजं की जब रचना हुई तो महात्मा गांधी 40 साल के ही थे। दुनिया जानती है कि क्वहिंद स्वराजं का भारतीय स्वतंत्रता के आंदोलन में कितना योगदान है।
40 साल की उम्र में जवाहर लाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बन चुके थे। इसके पहले 32 साल की उम्र में ही नेहरू उत्तर प्रदेश के लोकप्रिय नेता बन चुके थे। 1921 में उत्तर प्रदेश के राजनीतिक सम्मेलन में उन्होंने स्वदेशी के पक्ष में जनमत तैयार कर लिया था और पूरे राज्य में उनका विश्वास किया जाता था। 1921 के असहयोग आंदोलन के सिलसिले में फैजाबाद जिले के भीटी गांव में उन्हें एक सभा को संबोधित करना था। कलेक्टर ने दफा 144 लगाकर मीटिंग में दखल देने की कोशिश की। पता चला कि साढ़े चार मील दूर सुल्तानपुर जिला शुरू हो जाता है। जवाहर लाल ने अपने श्रोताओं समेत सुल्तानपुर की सीमा में पैदल ही प्रवेश किया और वहां जाकर भाषण किया। इन्हीं श्रोतओं में 11 साल का एक बालक भी था जिसका नाम राम मनोहर लोहिया था। बाद में डा. लोहिया देश के बहुत बड़े नेता बने। 24 साल की उम्र में उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना कर दी थी और उसके पहले ही भारत का प्रतिनिधि बनाए गए बीकानेर के महाराजा को लंदन में फटकार लगाई थी। जब लोहिया चालीस साल के थे तो जवाहर लाल नेहरू को चुनौती दे रहे थे। राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के, बड़े नेता माधव सदाशिव गोलवलकर भी 34 साल की उम्र में संघ के सर्वोच्च पद पर असीन हो हो चुके थे। इसलिए राहुल गांधी को बच्चा कहने वालों को इतिहास से सबक लेना चाहिए और ग्रामीण भारत को मुख्यधारा में लाने की उनकी कोशिश की निंदा नहीं करनी चाहिए बल्कि उसे अपने राजनीतिक एजेंडे में शामिल करना चाहिए।

परवान चढ़ता सत्ता का खूनी संघर्ष

फ्रांसिस की हत्या बहुत ही खतरनाक संकेत है। माओवादी राजनीति, निश्चित रूप से हिंसा का सहारा ले रही है। धनाढ्य वर्गो की हित पोषक भारत की राजनीतिक पार्टियां अपने वर्गों को लाभ पहुंचाने में जुटी हुई हैं। यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि माओवादियों के लाल कॉरिडर में पड़ने वाले राज्यों में राज करने वाली सभी पार्टियों का वर्ग चरित्र वही है जो किसी भी सामंतवादी साम्राज्यवादी पार्टी की सोच का होता है।

झारखंड के पुलिस अधिकारी फ्रांसिस इदवार को उनके अपहर्ताओं ने निर्ममता पूर्वक मार डाला। फ्रांसिस एक मामूली आदमी थे और सरकारी नौकरी के सहारे अपने बच्चों का लालन पालन कर रहे थे। अपनी ड्यूटी करते हुए वे अपहरण का शिकार हो गए और अपनी जान गंवा बैठे। सरकारी तंत्र ने छूटते ही कह दिया कि माओवादियों ने उन्हें मार डाला है। टी.वी. चैनलों और अखबारों की खबरें भी यही बताती हैं। हालांकि आज के जमाने में इस तरह के मामलों में सरकारों की विश्वसनीयता बहुत ही आदरणीय नहीं रह गयी है लेकिन सम्माननीय अखबारों ने भी इसे माओवादियों की करतूत बताया है इसलिए लगता है कि अति वामपंथी विचारधारा ने एक ऐसे आदमी की जान ले ली।

एक टी.वी. चैनल में बहस करने आए वामपंथी लेखक और कार्यकर्ता गौतम नवलखा मानने को तैयार नहीं थे कि फ्रांसिस की बर्बर हत्या माओवादियों ने की होगी। उनको लगता था कि बिना तथ्यों की पूरी जानकारी हासिल किए इस विषय में कुछ भी कहना ठीक नहीं है। यानी वे यह कहना चाह रहे थे कि हो सकता है कि माओवादियों को बदनाम करने के लिए किसी और ने फ्रांसिस को मार डाला हो। यह बात दूर की कौड़ी है हालांकि इस बात की संभावना से भी पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता। एक गौतम नवलखा की बात मानकर बाकी सारी दुनिया को झूठा ठहराना बहुत ही बेतुका राग है।

सच्ची बात यह है कि मीडिया के पास इस तरह की वारदात के कारणों की जांच करने के तरीके होते है जिससे सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। यह जानकारी किसी भी अदालत में सबूत तो नहीं बनती लेकिन होती सही है। इस आधार पर भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि फ्रांसिस की हत्या माओवादियों ने ही की।


फ्रांसिस की हत्या की गुत्थी सुलझाने के लिए पसरते माओवाद की जड़ों तक जाना जरूरी है. उन कारणों को समझना होगा जिनके परिणामस्वरूप माओवाद का हिंसक स्वरूप भयावह होता जा रहा है. जहां जहां नक्सलवाद और माओवाद मुखर हो रहा है, उन सारे इलाकों में कही भी भूमि सुधार नहीं हुआ है, राजनीतिक नेता सामंतों की तरह का आचरण करते हैं और गरीब आदमियों के लिए आने वाली सभी स्कीमों का पैसा हड़प लेते है। निराश हताश गरीब आदमी दिग्भ्रमित वामपंथियों के चंगुल में फंस जाता है और वह हथियार उठा लेता है। इस तरह सत्ता के दो दावेदारों के बीच में लड़ाई शुरू हो जाती है। सरकारी सत्ता पर काबिज भू-स्वामियों-पूंजीपतियों के सेवक राजनेता एक तरफ और मार्क्सवादी शब्दजाल इस्तेमाल करके अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश कर रहे, कम्युनिस्ट विचारधारा से दिशाभ्रम की िस्थति में पहुंच चुके शातिर सत्ताकामी वामपंथी सरगनाओं की मंडली दूसरी तरफ।

अजीब बात है कि इस खेल में मरने वाला हर आदमी गरीब है। चाहे वह माओवादियों की तरफ से हो या सरकार की तरफ से। पुलिस का इंस्पेक्टर फ्रांसिस बहुत ही मामूली आदमी था, अगर उसे सरकारी नौकरी न मिली होती तो वह शायद कहीं मजदूरी कर रहा होता। लेकिन ज्यों ही सत्ता के प्रतिष्ठानों के संचालक पकडे़ जाते हैं तो तूफान मच जाता है। माओवादियों का यह नया खूंखार रूप उनके बड़े नेताओं कोबाद गांधी और छत्रधर महतो के पकड़े जाने के बाद ही समाने आया है। इसके बाद हुकूमतों को भी माओवादियों के बहाने आदिवासी इलाकों में आम आदमी को घेरकर मारने का मौका मिल जायेगा। यह बात सबको मालूम है कि इस खूनी खेल में कोई बड़ा आदमी नहीं मारा जायेगा।आदिवासी इलाकों में चल रहे नए खून खराबे में एक नया आयाम भी जुड़ रहा है।

बिहार, उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों की खनिज संपदा अनमोल है और अब उस पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नजर लगी हुई है। इस बात की पूरी संभावना है कि इन इलाकों में चल रहे ताजा खून खराबे में इस साम्राज्यवादी खेल का भी कुछ योगदान हो। जहां तक सरकारों का प्रश्न है, वे तो पूंजीपति वर्ग की भलाई के लिए ही सत्ता में हैं, उन्हें सत्ता पर स्थापित करने में थैलीशाहों की चमक के योगदान की भी चर्चाएं होती रहती हैं, इस बात की भी पूरी आशंका है कि माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व में भी कुछ ऐसे लोग हों जो पूंजीपति वर्ग का खेल जमाने में मदद कर रहे हों। इस तरह की बात हर उस इलाके में हो चुकी है। जहां खनिज संपदा होती है वहां पूंजीपतियों का नजरे इनायत हुए बिना नहीं रहती।

पेट्रोल के इस्तेमाल के पहले अरब का इलाका एक ऐसा क्षेत्र था जहां कभी किसी की नजर नहीं जाती थी। समुद्र के रास्ते संपन्न इलाकों की खोज में निकलने वाले यूरोपीय यात्री पश्चिम एशिया के इस इलाके पर नजर ही नहीं डालते थे, सीधे भारत की तरफ बढ़ते थे, जहां की संपन्नता का तिलिस्म उनको खींचता रहता था। लेकिन पेट्रोल और अन्य हाइड्रोकार्बन पदार्थों के ऊर्जा के मुख्य स्रोत के विकसित होने के बाद पश्चिम एशिया में साम्राज्यवादियों के हित साधन के रास्ते पैदा किए गए और आज पेट्रोलियम पदार्थों से संपन्न यह इलाका पूंजीपति साम्राज्यवादी शक्तियों की बर्बरता का केंद्र बना हुआ है। वहां रहने वाले लोगों को हर तरह के खूनी खेल का नतीजा झेलना पड़ रहा है।भारत में नये विकसित हो रहे लाल कॉरिडर के क्षेत्र भी खनिज संपदा से लैस हैं। वहां पर राज करनेवाली पार्टियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित साधन करने में कोई संकोच नहीं होगा। इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इन क्षेत्रों की तबाही में माओवादी भी किन्हीं निहित स्वार्थों के कारिंदे हों। इसलिए सिविल सोसाइटी को चौकन्ना रहना पड़ेगा कि साम्राज्यवादियों के हितों की साधना के चक्कर में कहीं भारत का एक बड़ा हिस्सा विवादों के घेरे में न आ जाय और अवाम की पहले से ही मुश्किल जिंदगी और मुश्किल न हो जाय।

Saturday, October 3, 2009

आतंकवादी रुखसाना को मार डालेंगे

जम्मू-कश्मीर के राजौरी जिले के कालसी गांव की किशोरी रुखसाना कौसर की बहादुरी के किस्से पूरे देश में सुने जा रहे हैं। उसके परिवार पर हमला करने वालों को अंदाज लग गया है कि जब एक बहादुर लड़की अपनी रक्षा खुद करने का फैसला कर लेती है तो खतरनाक हथियारों से लैस दरिंदे भी हार जाते हैं। रुखसाना से पूछा गया कि इतनी बहादुरी का काम कैसे किया तो विनम्र लड़की ने कहा कि अल्लाह ने मुझे इस मुसीबत की घड़ी में इतनी हिम्मत दी कि मैं उन दहशतगर्दों का मुकाबला कर पाई।
लेकिन उसे डर है कि इतनी बड़ी शिकस्त के बाद दहशतगर्द फिर वापस आएंगे और रुखसाना के परिवार को और खुद उसको जिंदा नहीं छोड़ेंगे। उसने बताया कि गांव के बाहर पुलिस की एक पिकेट लगा दी गई है लेकिन उसको आशंका है कि उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, उसको आतंकवादी मार डालेंगे। रुखसाना कौसर एक बहादुर लड़की है। उसने आत्मरक्षा में हथियार छीनकर दहशतगर्दों को बता दिया कि अगर औरत अपनी रक्षा का फैसला कर ले तो खतरनाक हथियारों से लैस आतंकवादी भी उसका कुछ बना बिगाड़ नहीं सकता। लेकिन रुखसाना के मन में जो डर है वह एक बहुत बड़ी समस्या की ओर इशारा करता है।
पिछले 20 साल से कश्मीर में चल रहे आतंकवाद के खेल में आम आदमी की कोई हैसियत नहीं है। सरकार ने कभी भी आम आदमी को शामिल करने की कोशिश नहीं की। जिस मुस्तैदी से वहां सैनिक ताकत का इस्तेमाल करके समस्या को सुलझाने की कोशिश की गई वह हमेशा से विवादों के घेरे में रही है। कश्मीरी अवाम को भरोसे में लेकर अगर कोशिश की गयी होती तो जम्मू-कश्मीर में हर इंसान अपने हित को सुरक्षित करने के लिए हुकूमत के साथ होता। यह प्रयोग वहां पर सफलतापूर्पक किया जा चुका है। 1947 में जब आजादी मिली तो पाकिस्तान ने कश्मीर पर दावा ठोका था। कश्मीर के राजा हरि सिंह भी दुविधा में थे, कभी स्वतंत्र कश्मीर की बात करते थे, कभी भारत के साथ आने की तो कभी पाकिस्तान के साथ जाने की सोचते थे। इस बीच पाकिस्तानी सेना के सहयोग से कबायलियों का हमला हो गया और हरिसिंह डर गये। उन्होंने भारत सरकार से मदद मांगी। सरदार पटेल ने मदद तो दी लेकिन शर्त लगा दी कि आप अपनी मर्जी से भारत के साथ कश्मीर के विलय के कागजों पर दस्तखत कर दें तभी भारतीय सेना वहां जायेगी।
शेख अब्दुल्ला उन दिनों कश्मीरी जनता के हीरो थे। वे भारत के साथ रहना चाहते थे इसलिए पूरा कश्मीरी अवाम भारत के साथ रहना चाहता था। बहरहाल जनता को साथ लेकर चलने से कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया। कश्मीर के राजा हरिसिंह की मरजी के खिलाफ भी शेख साहब ने जनता को अपने साथ रखा। 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद सब कुछ बिगड़ गया। उसके बाद तो दिल्ली की सरकारों ने गलतियों पर गलतियां कीं और कश्मीर में केंद्र सरकार के प्रति मुहब्बत खत्म होती गयी। उधर पाकिस्तान ने प्राक्सी वार के जरिए कश्मीर में खून खराबे को बढ़ावा दिया। रुखसाना कौसर का दूसरा डर यह है कि आतंकवादी फिर आएंगे और उसे मार डालेंगे। भारत सरकार के लिए यह मौका है कि वह साबित कर दे कि वह कश्मीरी अवाम की हिफाजत के लिए कुछ भी कर सकती है। रुखसाना की सुरक्षा के लिए वहीं पुलिस पिकेट बना देना कोई बहुत अच्छी योजना नहीं है। इस देश में हजारों लोग ऐसे हैं जिनको चौबीस घंटे की सरकारी सुरक्षा दी जाती है। बहुत सारे ऐसे लोग भी है जिन्हें राज्यों की राजधानियों में जगह दी जाती है जहां वे रह सकें। हजारों विधायकों को शहरों में सभी सुविधाओं से लैस मकान दिए जाते हैं। तर्क यह दिया जाता है कि वे जनहित और राष्ट्रहित में काम कर रहे हैं। इसलिए उनको सारी सरकारी सुविधाएं दी जा रही हैं। वे सारी सुविधाएं रुखसाना और उसके परिवार को भी दी जा सकती हैं क्योंकि जो काम उसने कर दिखाया है वह बड़े बड़े सूरमा नहीं कर सकते है। उसका काम भी जनहित और राष्ट्रहित का है दरअसल रुखसाना की बहादुरी ने जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की सफलता के सवाल पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है।
सच्चाई यह है कि आतंकवादी जमातों ने कश्मीर की जनता के दिमाग में यह दहशत पैदा कर दी थी कि उनको बचाने वाला कोई नहीं है और आम तौर पर लोग डर गए थे। वरना अगर आतंकवाद के शुरुआती दौर में ही लोगों ने मुकाबला किया होता तो दहशतगर्दी के सफल होने की सारी संभावना खत्म हो गई होती। दुनिया भर में आतंकवाद वहीं सफल होता है जहां हुकूमत आम आदमी से कट चुकी होती है और आम आदमी को भरोसा नहीं होता कि सरकार उनकी हिफाजत कर सकेगी। जम्मू कश्मीर में यही हालत थी और आतंकवाद लगभग सफल हो गया। लेकिन रुखसाना कौसर की बहादुरी ने सरकार को एक बेहतरीन मौका दिया है। रुखसाना ने वह कर दिखाया है जो सरकार के कई विभाग नहीं कर सके। सरकार को चाहिए कि वह रुखसाना के परिवार को इतनी सुविधा दे और इतनी इज्जत दे कि पूरे राज्य में यह माहौल बन जाय कि अगर आतंकवाद का सामना हिम्मत से किया जाय तो बाकी जिंदगी बहुत ही अच्छी हो सकती है। अगर इस तरह का माहौल बन गया तो इस बात की पूरी संभावना है कि हर गांव से बहादुर लड़के लड़कियां आगे आएंगे और आतंकवाद का मुकाबला हर मोड़ पर किया जायेगा। इसका फायदा यह होगा कि जनसमर्थन का मुगालता पालने वाले आतंकवादी संगठनों को औकातबोध हो जायेगा। वे आम आदमी को निशाना बनाने की हिम्मत नहीं करेंगे। जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों की तैनाती के नाम पर होने वाले खर्च में भी कटौती होगी और कश्मीर में फिर से अमन चैन कायम हो जाएगा।

हिंद स्वराज के सौ साल

महात्मा गांधी के जन्म को 140 साल हो गए। सौराष्ट्र के एक उच्चवर्गीय परिवार में उनका जन्म हुआ था और परिवार की महत्वाकांक्षाएं भी वही थीं जो तत्कालीन गुजरात के संपन्न परिवारों में होती थीं। वकालत की शिक्षा के लिए इंगलैंड गए और जब लौटकर आए तो अच्छे पैसे की उम्मीद में घर वालों ने दक्षिण अफ्रीका में बसे गुजराती व्यापारियों का मुकदमा लडऩे के लिए भेज दिया। अब तक उनकी जिंदगी में सब कुछ सामान्य था जैसा एक महत्वाकांक्षी परिवार के होनहार नौजवान के मामले में होता है। लेकिन दक्षिण अफ्रीका में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जिसकी वजह से सब कुछ बदल गया। एटार्नी एम.के. गांधी की अजेय यात्रा की शुरूआत हुई और उनका पाथेय था सत्याग्रह। सत्याग्रह के इस महान योद्घा ने निहत्थे ही अपनी यात्रा शुरू की। इस यात्रा में उनके जीवन में बहुत सारे मुकाम आए। गांधीजी का हर पड़ाव भावी इतिहास को दिशा देने की क्षमता रखता है।
चालीस साल की उम्र में मोहनदास करमचंद गांधी ने 'हिंद स्वराज' की रचना की। 1909 में लिखे गए इस बीजक में भारत के भविष्य को संवारने के सारे मंत्र निहित हैं। अपनी रचना के सौ साल बाद भी यह उतना ही उपयोगी है जितना कि आजादी की लड़ाई के दौरान था। इसी किताब में महात्मा गांधी ने अपनी बाकी जिंदगी की योजना को सूत्र रूप में लिख दिया था। उनका उद्देश्य सिर्फ देश की सेवा करने का और सत्य की खोज करने का था। उन्होंने भूमिका में ही लिख दिया था कि अगर उनके विचार गलत साबित हों, तो उन्हें पकड़ कर रखना जरूरी नहीं है। लेकिन अगर वे सच साबित हों तो दूसरे लोग भी उनके मुताबिक आचरण करें। उनकी भावना थी कि ऐसा करना देश के भले के लिए होगा।
अपने प्रकाशन के समय से ही हिंद स्वराज की देश निर्माण और सामाजिक उत्थान के कार्यकर्ताओं के लिए एक बीजक की तरह इस्तेमाल हो रही है। इसमें बताए गए सिद्घांतों को विकसित करके ही 1920 और 1930 के स्वतंत्रता के आंदोलनों का संचालन किया गया। 1921 में यह सिद्घांत सफल नहीं हुए थे लेकिन 1930 में पूरी तरह सफल रहे। हिंद स्वराज के आलोचक भी बहुत सारे थे। उनमें सबसे आदरणीय नाम गोपाल कृष्ण गोखले का है। गोखले जी 1912 में जब दक्षिण अफ्रीका गए तो उन्होंने मूल गुजराती किताब का अंग्रेजी अनुवाद देखा था। उन्हें उसका मजमून इतना अनगढ़ लगा कि उन्होंने भविष्यवाणी की कि गांधी जी एक साल भारत में रहने के बाद खुद ही उस पुस्तक का नाश कर देंगे। महादेव भाई देसाई ने लिखा है कि गोखले जी की वह भविष्यवाणी सही नहीं निकली। 1921 में किताब फिर छपी और महात्मागांधी ने पुस्तक के बारे में लिखा कि "वह द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है, पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। उसमें से मैंने सिर्फ एक शब्द रद्द किया है। उसे छोड़कर कुछ भी फेरबदल नहीं किया है। यह किताब 1909 में लिखी गई थी। इसमें जो मैंने मान्यता प्रकट की है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है।"
महादेव भाई देसाई ने किताब की 1938 की भूमिका में लिखा है कि '1938 में भी गांधी जी को कुछ जगहों पर भाषा बदलने के सिवा और कुछ फेरबदल करने जैसा नहीं लगाÓ। हिंद स्वराज एक ऐसे ईमानदार व्यक्ति की शुरुआती रचना है जिसे आगे चलकर भारत की आजादी को सुनिश्चित करना था और सत्य और अहिंसा जैसे दो औजार मानवता को देना था जो भविष्य की सभ्यताओं को संभाल सकेंगे। किताब की 1921 की प्रस्तावना में महात्मा गांधी ने साफ लिख दिया था कि 'ऐसा न मान लें कि इस किताब में जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज्य कायम करने के लिए मेरी कोशिशें चल रही हैं, मैं जानता हूं कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है।..... लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज की मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पालियामेंटरी ढंग का स्वराज्य पाना है।"
इसका मतलब यह हुआ कि 1921 तक महात्मागांधी इस बात के लिए मन बना चुके थे कि भारत को संसदीय ढंग का स्वराज्य हासिल करना है। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि आजकल देश में एक नई तरह की तानाशाही सोच के कुछ राजनेता यह साबित करने के चक्कर में हैं कि महात्मा गांधी तो संसदीय जनतंत्र की अवधारणा के खिलाफ थे। इसमें दो राय नहीं कि 1909 वाली किताब में महात्मा गांधी ने ब्रिटेन की पार्लियामेंट की बांझ और बेसवा कहा था (हिंद स्वराज पृष्ठ 13)। लेकिन यह संदर्भ ब्रिटेन की पार्लियामेंट के उस वक्त के नकारापन के हवाले से कहा गया था। बाद के पृष्ठों में पार्लियामेंट के असली कर्तव्य के बारे में बात करके महात्मा जी ने बात को सही परिप्रेक्ष्य में रख दिया था और 1921 में तो साफ कह दिया था कि उनका प्रयास संसदीय लोकतंत्र की तर्ज पर आजादी हासिल करने का है। यहां महात्मा गांधी के 30 अप्रैल 1933 के हरिजन बंधु के अंक में लिखे गए लेख का उल्लेख करना जरूरी है। लिखा है, ''सत्य की अपनी खोज में मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातें सीखा भी हूं। उमर में भले ही मैं बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा आतंरिक विकास होना बंद हो गया है।.... इसलिए जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी में विश्वास हो तो वह एक ही विषय पर लिखे हुए दो लेखों में से मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने।" इसका मतलब यह हुआ कि महात्मा जी ने अपने विचार में किसी सांचाबद्घ सोच को स्थान देने की सारी संभावनाओं को शुरू में ही समाप्त कर दिया था।
उन्होंने सुनिश्चित कर लिया था कि उनका दर्शन एक सतत विकासमान विचार है और उसे हमेशा मानवता के हित में संदर्भ के साथ विकसित किया जाता रहेगा।
महात्मा गांधी के पूरे दर्शन में दो बातें महत्वपूर्ण हैं। सत्य के प्रति आग्रह और अहिंसा में पूर्ण विश्वास। चौरी चौरा की हिंसक घटनाओं के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन को समाप्त कर दिया था। इस फैसले का विरोध हर स्तर पर हुआ लेकिन गांधी जी किसी भी कीमत पर अपने आंदोलन को हिंसक नहीं होने देना चाहते थें। उनका कहना था कि अनुचित साधन का इस्तेमाल करके जो कुछ भी हासिल होगा, वह सही नहीं है। महात्मा गांधी के दर्शन में साधन की पवित्रता को बहुत महत्व दिया गया है और यहां हिंद स्वराज का स्थाई भाव है। लिखते हैं कि अगर कोई यह कहता है कि साध्य और साधन के बीच में कोई संबंध नहीं है तो यह बहुत बड़ी भूल है। यह तो धतूरे का पौधा लगाकर मोगरे के फूल की इच्छा करने जैसा हुआ। हिंद स्वराज में लिखा है कि साधन बीज है और साध्य पेड़ है इसलिए जितना संबंध बीज और पेड़ के बीच में है, उतना ही साधन और साध्य के बीच में है। हिंद स्वराज में गांधी जी ने साधन की पवित्रता को बहुत ही विस्तार से समझाया है। उनका हर काम जीवन भर इसी बुनियादी सोच पर चलता रहा है और बिना खडूग, बिना ढाल भारत की आजादी को सुनिश्चित करने में सफल रहे।
हिंद स्वराज में महात्मा गांधी ने भारत की भावी राजनीति की बुनियाद के रूप में हिंदू और मुसलमान की एकता को स्थापित कर दिया था। उन्होंने साफ कह दिया कि, ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें तो उसे भी सपना ही समझिए।.... मुझे झगड़ा न करना हो, तो मुसलमान क्या करेगा? और मुसलमान को झगड़ा न करना हो, तो मैं क्या कर सकता हूं? हवा में हाथ उठाने वाले का हाथ उखड़ जाता है। सब अपने धर्म का स्वरूप समझकर उससे चिपके रहें और शास्त्रियों व मुल्लाओं को बीच में न आने दें, तो झगड़े का मुंह हमेशा के लिए काला रहेगा।ÓÓ (हिंद स्वराज, पृष्ठ 31 और 35) यानी अगर स्वार्थी तत्वों की बात न मानकर इस देश के हिंदू मुसलमान अपने धर्म की मूल भावनाओं को समझें और पालन करें तो आज भी देश में अमन चैन कायम रह सकता है और प्रगति का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
इस तरह हम देखते है कि आज से ठीक सौ वर्ष पहले राजनीतिक और सामाजिक आचरण का जो बीजक महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज के रूप में लिखा था, वह आने वाली सभ्यताओं को अमन चैन की जिंदगी जीने की प्रेरणा देता रहेगा।

Wednesday, September 30, 2009

भ्रष्ट अफ़सरों की बेनामी संपत्ति जब्त हो

केंद्र सरकार भ्रष्टाचार पर निर्णायक हमला करने की तैयारी में है। केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली का कहना है कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए बनाए गए कानून में संशोधन करके और धारदार बनाने की योजना पर काम चल रहा है। अगर मोइली अपने मिशन में सफल होते हैं तो सरकारी अफसरों को रिश्वत लेने के पहले बार-बार सोचना पड़ेगा हालांकि रिश्वत लेना और देना जुर्म है लेकिन इसके लिए सजा का प्रावधान बहुत मामूली हैँ अभी तो पांच साल तक की कारावास की सजा की व्यवस्था है। घूसखोर सरकारी अफसर सोचता है कि अगर 100-200 करोड़ रुपये इकट्ठा कर लिए जाएं तो कुछ साल जेल में रहकर फिर वापसे आने पर बेइमानी से इकट्ठा किए गए धन का उपयोग बाकी जिंदगी आराम से किया जा सकता है।

लेकिन अगर जेल की सजा के साथ-साथ चोरी बेईमानी से उगाहा गया धन भी ज़ब्त होने लगे तो घुसखोर अधिकारी में कानून की दहशत पैदा होगी और भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकेगा। मामला अभी बहस के दौर में है। मौजूदा भ्रष्टाचार निरोधक एक्ट में अपराध साबित होने पर 5 से 7 साल तक की सजा तो हो सकती है लेकिन सरकार के पास अपराधी अफसर की संपत्ति जब्त करने का अधिकार नहीं है। मंत्री के अनुसार सरकार भ्रष्टाचार निरोधी कानून में संशोधन करने पर गंभीरता से विचार कर रही है भ्रष्टï साधनों से अर्जित संपत्ति को भी ज़ब्त किया जा सके।

सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार के मामले में बिहार का नाम अब तक सर्वोपरि रहा है। बिहार सरकार में पिछले कई दशकों से व्याप्त भ्रष्टाचार से परेशान राज्य के मुख्य मंत्री नीतिश कुमार पिछले दिनों कानून मंत्री वीरप्पा मोइली से मिले थे। उन्होंने सुझाव दिया कि एक ऐसा कानून बनना चाहिए जिससे भ्रष्टाचार के मामले में जब जांच अधिकारी चार्जशीट दाखिल कर दे, उसी वक्त अभियुक्त सरकारी अधिकारी की भ्रष्टï साधनों से अर्जित की गई संपत्ति जब्त कर ली जाय। दरअसल राज्य सरकार इस तरह के एक कानून के बारे में विचार कर रही है। अफसर बिरादरी इस तरह के कानून की चर्चा मात्र से सकते में हैं।

अगर कहीं यह कानून बन गया तो सरकारी नौकरी के रास्ते अरबपति बनने के सपनों की तो अकाल मृत्यु हो जायेगी। नीतीश कुमार के इस सुझाव के बाद केंद्र सरकार में तैनात सरकारी अफसरों ने प्रस्तावित कानून में अड़ंगा लगाना शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि इस कानून के सहारे नेता लोग अफसरों से बदला लेंगे और ईमानदारी से काम करना मुश्किल हो जाएगा। सवाल यह है कि ईमानदारी से काम करते कितने लोग हैं। इस विषय पर सिविल सेवा के एक शीर्ष अधिकारी से बात करने पर तो तसवीर बिलकुल दूसरी नज़र आई। पिछले करीब 35 साल से सरकारी अधिकारियों के जीवन को बहुत करीब से देख रहे इस अधिकारी का जीवन बहुत ही पवित्र है।

राजनीतिक सत्ता के कई मठाधीशों ने इनको भ्रष्टाचार निरोधक कानून में फंसाने की कई बार कोशिश की लेकिन एक भी केस नहीं मिला। सरकारी तनख्वाह लेते हैं, सरकारी मान्यता प्राप्त सुविधाएं हैं और जीवन अपनी शर्तों पर जीते हैं। उनका कहना है कि वर्तमान भ्रष्टाचार निरोधी कानून में संपत्ति जब्ती की व्यवस्था करने से भ्रष्टाचार रोकने में कोई मदद नहीं मिलेगी लेकिन रिकार्ड के लिए तो इन अफसरों की संपत्ति उतनी ही होती है जितनी सिविल सर्विस रूल्स के तहत होनी चाहिए। इनकी घूसखोरी वाली सारी संपत्ति बेनामी होती है।

कानून ऐसा होना चाहिए कि उस बेनामी संपत्ति को सरकार जब्त कर सके। लेकिन बेनामी संपत्ति को जब्त करना आसान इसलिए नहीं होगा कि उसका पता कैसे चलेगा। इस ईमानदार अफसर का सुझाव है कि अभियुक्त अधिकारी का नार्को टेस्ट कराया जाय जिससे वह अपनी सारी बेनामी संपत्ति और जमीन का पता बता दे और उस संपत्ति के बारे में गहराई से जांच करवाकर उसको जब्त कर लिया जाय। बेनामी संपत्ति के मामलों में अकसर देखा गया है कि जिसके नाम पर संपत्ति खरीदी गई रहती है, वह व्यक्ति या संस्था कही होती ही नहीं और इस संपत्ति पर दावेदारी नहीं की जा सकती। ऐसी हालत में लावारिस संपत्ति को जब्त करना सरकार के अधिकार क्षेत्र में है।

कई बार यह बेईमान अफसर संपत्ति की रजिस्ट्री नौकरों या रिश्तेदारों के नाम करवाते हैं। उनकी भी विधिवत जांच की जा सकती है और संपत्ति जब्त की जा सकती है। बेनामी संपत्ति का पता लगाने का दूसरा तरीका यह है कि सरकारी अधिकारियों की संपत्ति की घोषणा को सार्वजनिक डॉमेन में डाल दिया जाय, किसी लोकप्रिय वेबसाइट पर डाल दिया जाय और जनता से सुझाव मांगे जायें कि जो सूचना अफसर ने दी है क्या वह सच है। जानकार बताते हैं कि देश के कोने कोने से ख़बर आ जायेगी कि अमुक अफसर की जमीन कहां है और उसका शापिंग मॉल कहां है, या उसका कारखाना कहां है। इस सूचना के आधार पर जांच को आगे बढ़ाया जा सकता है।

संपत्ति की जब्ती को राजनीतिक नेताओं की ओर से अफसरों पर नकेल कसने के औजार के रूप में इस्तेमाल होने की संभावना को ईमानदार अफसरों ने बिलकुल बोगस बताया। उनका कहना है कि राजनेताओं की घूसखोरी और बेईमानी की सारी व्यवस्था का जिम्मा भ्रष्ट अधिकारियों के मत्थे ही है। यही लोग नेताओं मंत्रियों के भ्रष्टाचार के कामिसार के रूप में काम करते हैं और राजनीतिक आकाओं के भ्रष्टाचार के जंगल मे अपनी बेईमानी की फुलवारी सजाते हैं।

अगर अफसरों में बेईमानी और घूसखोरी के प्रति खौफ पैदा हो गया तो राजनेताओं के भ्रष्टाचार पर अपने आप लगाम लग जाएगी क्योंकि भ्रष्टाचार में अफसर की रूचि कम हो जायेगी। सूचना की क्रांति और मीडिया के जनवादी करण के इस युग में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में इंटरनेट भी बड़ी भूमिका बना सकती है और उसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए।