शेष नारायण सिंह
मिस्र में जनता सडकों पर है. अमरीकी हुकूमत की समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करे . दुविधा की स्थिति है . होस्नी मुबारक का जाना तो तय है लेकिन उनकी जगह किसको दी जाए ,यह अमरीका की सबसे बड़ी परेशानी है . मुबारक ने जिस पुलिस वाले को अपना उपराष्ट्रपति तैनात किया है , उसको अगर गद्दी देने में अमरीका सफल हो जाता है तो उसके लिए आसानी होगी लेकिन उसके सत्ता संभालने के बाद अवाम को शांत कर पाना मुश्किल होगा . जिस तरह से भ्रष्ट सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए लोग सड़क पर उतरे हैं, उनके तेवर अलग हैं . लगता नहीं कि वे आसानी से बेवक़ूफ़ बनाए जा सकते हैं .अमरीका की सबसे बड़ी चिंता यह है कि इस्लामी बुनियादपरस्त लोग सत्ता पर काबिज़ न हो जाएँ . अगर ऐसा हुआ तो अमरीकी विदेश नीति का एक मज़बूत किला ज़मींदोज़ हो जाएगा. काहिरा के तहरीर चौक पर जो दस लाख से भी ज्यादा लोग मंगलवार को दिन भर जमे रहे वे सरकार बदलने आये थे, लालीपाप खरीदने नहीं . दिलचस्प बात यह है कि मिस्र की फौज भी अब जनता के जायज़ आन्दोलन को समर्थन दे रही है . उसने साफ़ कह दिया है कि निहत्थे लोगों पर हथियार नहीं चलाये जायेगें . नतीजा यह हुआ कि मुबारक के हुक्म से तहरीर चौक पर फौजी टैंक तो लगा दिए गए लेकिन उनसे आम तौर पर जो दहशत पैदा होती है वह गायब थी. लोग टैंकों को भी अपना मान कर घूम रहे थे. फौज और सुरक्षा बलों के इस रुख के कारण जनता में संघर्ष की कोई बात नज़र नहीं आ रही थी. लगता था कि मेला लगा हुआ है और लोग पूरे परिवार के साथ तहरीर चौक पर पिकनिक का आनंद ले रहे हैं .लेकिन बुधवार को हालात बिगड़ गए. मुबारक ने ऊंटों और घोड़ों पर सवार अपने गुंडों को तहरीर चौक पर मार पीट करने के लिए भेज दिया .आरोप तो यह भी है कि वे पुलिस वाले थे और सादे कपड़ों में आये थे. उनको हिदायत दी गयी थी कि तहरीर चौक पर जो अवाम इकठ्ठा है उसे मार पीट कर भगाओ . ज़ाहिर है कि पिछले दस दिनों से जो कुछ भी काहिरा में हो रहा है वह सत्ता से पंगा लेने की राजनीति का नया उदाहरण है . जिस लोक शाही की बात बड़े बड़े विचारकों ने की है, उसी का एक नया आयाम है . इस सारे प्रकरण में बीबीसी, अल जजीरा ,अल अरबिया और सी एन एन के टेलिविज़न कैमरों की रिपोर्टिंग देखने का मौक़ा मिला . सी एन एन ने पहले भी इराक युद्ध में अपनी काबिलियत के झंडे गाड़े थे जब अमरीकी राष्ट्रपति बुश सीनियर ने कहा था कि उन्होंने इराक पर हमले का आदेश तो दे दिया था लेकिन उस आदेश को लागू होने की सबसे पहले जानकारी उनको भी सी एन एन से मिली. भारत में उन दिनों डिश टी वी सबके घरों में नहीं लगे थे लिहाज़ा कई होटलों में लोगों ने सी एन एन की कवरेज देखी थी . इस बार भी विदेशी चैनलों ने जिस तरह से काहिरा में करवट ले रहे इतिहास को दिखाया है उसकी तारीफ की जानी चाहिए. काहिरा के तहरीर चौक पर चारों तरफ राजनीति बिखरी पड़ी है और दुनिया भर के समाचार माध्यम उसको अपने दर्शकों को बता रहे हैं , उसकी बारीकियों को समझा रहे हैं . दुनिया भर से अरब मामलों के जानकार बुलाये जा रहे हैं और उनसे उनकी बात टेलिविज़न के माध्यम से पूरी दुनिया को दिखाई जा रही है लेकिन हमारे भारतीय चैनल इस बार भी पिछड़ गए हैं . खैर पिछड़ तो अपनी सरकार भी गयी है लेकिन वह फिर कभी . हमारे जिन चैनलों के पास काहिरा से लाइव टेलीकास्ट की सुविधा भी है वह भी बिलकुल बचकाने तरीके से काहिरा की जानकारी दे रहे हैं . देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार और दुनिया की सबसे बड़ी वायर एजेंसी की मदद से चल रहे एक अंग्रेज़ी चैनल की काहिरा की कवरेज बहुत ही निराशाजनक है . सबसे ज्यादा निराशा तो तब होती है जब करीब चार घंटे पहले हुई किसी घटना को अपना यह सबसे अच्छा अंग्रेज़ी चैनल ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह पेश करता है . अफ़सोस की बात यह है कि चैनल के करता धर्ता यह मानकर चलते हैं कि सारा देश उनका चैनल ही देख रहा है . जबकि सच्चाई यह है कि बस तो दो बटन दूर बीबीसी पर वही घटनाएं घंटों पहले दिखाई जा चुकी होती हैं. और उसकी व्याख्या भी विशेषज्ञों के करवाई जा चुकी होती है . उसी रायटर्स के फुटेज को लाइव देखे घंटों हो चुके होते हैं जब अपना रायटर्स का पार्टनर यह चैनल उनको अभी अभी आई ताज़ा तस्वीरें कह कर दिखाता है .अंग्रेज़ी के बाकी चैनलों का ज़िक्र करना यहाँ ठीक नहीं होगा क्योंकि किसी की कमी को उदाहरण के तौर पर एकाध बार तो इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन उनकी कमजोरी का बार बार ज़िक्र करके उनके घाव पर नमक छिड़कना बदतमीजी होगी. हिन्दी के समाचार माध्यमों की तो बात ही और है . उनको तो दिल्ली में रहने वाले उनके मित्र नेताओं के ज्ञान को ही हर जगह दिखाना होता है . उनका ज़िक्र न किया जाए तो ही सही रहेगा . सवाल यह उठता है कि एक ही तरह की घटना ,एक ही तरह की सूचना और एक ही तरह की सच्चाई को हमारे चैनलों के सर्वज्ञानी भाई लोग पकड़ क्यों नहीं पाते . क्यों नहीं हमें अपने माध्यमों से सारी जानकारी मिल जाती जबकि विजुअल वही होते हैं जो विदेशी चैनलों की पास होते हैं.
ऐसा लगता है कि अपने खबरिया माध्यमों में बैठे लोग राजनीति की बारीक समझ का कौशल नहीं रखते . एक नामी टीवी न्यूज़ चैनल को कुछ वर्षों तक अन्दर से देखने पर यह समझ में आया था कि खबर को उसके सही संदर्भ में पेश करना कोई आसान काम नहीं है . अखबार में तो बड़ा सा लेख लिखकर अपनी बात को समझा देने की आज़ादी रहती है लेकिन टी वी में ऐसा नहीं होता . उसी चैनल के संस्थापक ने अंतर राष्ट्रीय ख़बरों को उनकी सही पृष्ठभूमि के साथ पेश करने की परंपरा कायम की थी लेकिन समझ में नहीं आता था कि उनके ही संगठन में लोग आन क तान खबरें क्यों पेश करते थे. .गहराई से गौर करने पर समझ में आया कि उन बेचारों को सारी बातें मालूम ही नईं होतीं थीं और दंभ इतना होता था कि वे किसी और से पूछते नहीं . नतीजा यह होता है कि घंटों तक चीन की राजधानी बीजिंग के बजाए शंघाई को बताया जाता था . देश की आतंरिक राजनीति में भी इसी तरह के लाल बुझक्कड़ शैली के ज्ञान से श्रोता को अभिभूत करने की होड़ लगी रहती है ..
ज़ाहिर है कि अगर देश के समाचार माध्यमों को सूचना क्रान्ति की रफ्तार के साथ आगे बढ़ना है तो राजनीति की बारीक समझ को टी वी न्यूज़ का स्थायी भाव बनाना पड़ेगा .टेलिविज़न के श्रोता को वही खबर चाहिए चाहिए जो राजनीति की बारीकियों को स्पष्ट करे . यह राजनीति सत्ता की भी हो सकती है , सिनेमा की भी,परिवार की भी या खेती किसानी की भी . खबरें स्तरीय तभी होंगी जब हर तरह की राजनीति के विश्लेषण को खबरों की आत्मा की तरह प्रस्तुत किया जाएगा . वरना हमारे समाचार माध्यमों के हाथ आया सूचना क्रान्ति का यह स्वर्णिम मौक़ा हाथ से निकल जाएगा
Thursday, February 3, 2011
Tuesday, February 1, 2011
मिस्र में अमरीकी विदेशनीति की अग्नि परीक्षा की घड़ी
शेष नारायण सिंह
काहिरा के तहरीर चौक पर आज लाखों लोग जमा हैं और हर हाल में सत्ता पर कुण्डली मारकर बैठे तानाशाह से पिंड छुडाना चाहते हैं . जहां तक मिस्र की जनता का सवाल है , वह तो अब होस्नी मुबारक को हटाने के पहले चैन से बैठने वाली नहीं है लेकिन अमरीका का रुख अब तक का सबसे बड़ा अडंगा माना जा रहा है. बहरहाल अब तस्वीर बदलती नज़र आ रही है . शुरुआती हीला हवाली के बाद अब अमरीका की समझ में आने लगा है कि मिस्र में जो जनता उठ खडी हुई है उसको आगे भी बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता . अब लगने लगा है कि अमरीकी विदेशनीति के प्रबन्धक वहां के तानाशाह , होस्नी मुबारक को कंडम करने के बारे में सोचने लगे हैं . यह अलग बात है अभी सोमवार तक विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन इसी चक्कर में थीं कि मिस्र में सत्ता परिवर्तन ही हो . यानी अमरीकी हितों का कोई नया चौकी दार तैनात हो जाए जो होस्नी मुबारक का ही कोई बंदा हो कहीं . मुबारक मिस्र से हटकर कहीं और बस जाएँ और मौज की ज़िंदगी बिताते रहें . अपने प्रिय तानाशाहों के साथ अमरीका ऐसा ही करता रहा है . लेकिन इस बार अवाम का दबाव इतना है कि तिकड़म के कूटनीति के लिए कोई स्पेस नहीं बचा है . होस्नी मुबारक की फौज का लगभग सारा खर्च अमरीकी सैन्य सहायता से पूरा होता है . अमरीका मिस्र के लिए हर साल क़रीब डेढ़ अरब डालर की फौजी मदद का इंतज़ाम करता है .इस साल भी यह मदद की जा रही है . पिछले हफ्ते राष्ट्रपति ओबामा ने ऐलान किया था कि यह मदद बंद कर दी जायेगी लेकिन ऐसा होने वाला नहीं है. मिस्र की मज़बूत फौज मिस्र से ज्यादा इजरायल के काम आती है . उसी फौज़ की वजह से पश्चिम एशिया में इज़रायल की सुरक्षा सुनिश्चित होती है . जहां तक अमरीका का सवाल है वह इजरायल की बदमाशी के कारण ही पश्चिमी एशिया और अरब देशों में अपनी राजनीति को चमकाता है . इसलिए इजरायल किसी भी हालत में मिस्र की सेना को कमज़ोर नहीं होने देगा . लेकिन आज इज़रायल और अमरीका की चिंताएं दूसरी हैं . जो लाखों लोग आज तहरीर चौक पर जमा हैं , उनकी राजनीति के बारे में किसी को पता नहीं हैं . उनका कोई नेता नहीं है . हालांकि अभी तक वह आन्दोलन पूरी तरह से महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक विषमता को केंद्र में रख कर चलाया जा रहा है लेकिन खबर है कि इस्लामी ब्रदरहुड नाम की संस्था ने अगुवाई करने की कोशिश शुरू कर दी है . इस संगठन के प्रभाव वाली सरकार न तो अमरीका को सूट करेगी और न ही उसे इज़रायल स्वीकार करेगा . ज़ाहिर है कि अमरीका की कोशिश है कि होस्नी मुबारक को अगर हटाना ही पड़ता है तो वह उसे हटा तो देगा लेकिन उनकी गह पर वह किसी इस्लामी प्रभाव वाली सरकार को बर्दाश्त नहीं करेगा . इरान में शाह रजा पहलवी की सरकार घोषित रूप से अमरीका परस्त सरकार थी . शाह के खिलाफ जब आन्दोलन ने जोर पकड़ा तो अमरीका गाफिल पड़ गया और वहां इस्लामी सरकार बन गयी . आज तक अमरीकी विदेश नीति के प्रबंधक अमरीका के उस वक़्त के विदेश नीति के प्रबंधकों को कोसते पाए जाते हैं . इसलिए अमरीका किसी कीमत पर मिस्र में इरान वाली गलती नहीं दोहराना चाहता . शायद इसीलिये जांचे परखे अमरीका के दोस्त , अल बरदेई को आगे किया गया है . संयुक्त राष्ट्र के परमाणु इन्स्पेक्टर के रूप में वे अमरीकी हुक्म को पालन करने का तजुर्बा रखते हैं . दुनिया भर में जाने जाते है और उनका अंतर राष्ट्रीय प्रोफाइल भी ठीक है . अब तक की स्थिति से लगता है कि अमरीका उन पर ही अपनी बाज़ी लगा रहा है . जो भी हो आज की तहरीर चौक की स्थिति ऐसी है कि अब अमीका को फ़ौरन से पेशतर मिस्र में सत्ता परिवर्तन के लिए तैयार हो जाना पड़ेगा .
काहिरा की सडकों पर जमे हुए लोगों को इरान की सरकार ने आज पूरा समर्थन कर दिया है . यह एक ऐसा समर्थन है जिसे मिस्र की अगली सरकार से अमरीका हर हाल में दूर रखना चाहेगा . शायद इसी हालत से बचने के लिए अमरीकी विदेश विभाग ने मिस्र में हो रहे बद्लाव पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए मिस्र में रह चुके अमरीकी राजदूत फ्रैंक विजनर को काहिरा के लिए रवाना कर दिया है . पश्चिमी एशिया में अमरीका के बहुत सारी दोस्त सरकारें हैं . सभी तानाशाही की सरकारें हैं और सभी उन गुनाहों में लिप्त हैं जिसकी वजह से होस्नी मुबारक को आज जाना पड़ रहा है . सभी सरकारों की नज़र अमरीका पर है . वे देख रहे हैं कि अपने हुक्म के एक गुलाम राष्ट्रपति को अमरीका कितना समर्थन दे पाता है . अमरीका के प्रति उनका रुख भी मिस्र की घटनाओं को ध्यान में रख कर ही तय होगा . लेकिन अमरीका की मजबूरी यह है कि वह अगर आज के बाद भी मुबारक को समर्थन देता है तो मिस्र की नयी सरकार के साथ उसको बहुत मुश्किल पेश आयेगी. ज़ाहिर है अमरीका का रास्ता बहुत मुश्किल हो गया है. उसकी हालत यह है कि उसके सामने आग का दरिया है और तैरना भी ज़रूरी है . मिस्र में सत्ता के बदलाव का असर पश्चिम एशिया की कूटनीति पर तो पडेगा ही बाकी दुनिया में भी अमरीकी विदेश नीति की अग्निपरीक्षा होने वाली है .
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काहिरा के तहरीर चौक पर आज लाखों लोग जमा हैं और हर हाल में सत्ता पर कुण्डली मारकर बैठे तानाशाह से पिंड छुडाना चाहते हैं . जहां तक मिस्र की जनता का सवाल है , वह तो अब होस्नी मुबारक को हटाने के पहले चैन से बैठने वाली नहीं है लेकिन अमरीका का रुख अब तक का सबसे बड़ा अडंगा माना जा रहा है. बहरहाल अब तस्वीर बदलती नज़र आ रही है . शुरुआती हीला हवाली के बाद अब अमरीका की समझ में आने लगा है कि मिस्र में जो जनता उठ खडी हुई है उसको आगे भी बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता . अब लगने लगा है कि अमरीकी विदेशनीति के प्रबन्धक वहां के तानाशाह , होस्नी मुबारक को कंडम करने के बारे में सोचने लगे हैं . यह अलग बात है अभी सोमवार तक विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन इसी चक्कर में थीं कि मिस्र में सत्ता परिवर्तन ही हो . यानी अमरीकी हितों का कोई नया चौकी दार तैनात हो जाए जो होस्नी मुबारक का ही कोई बंदा हो कहीं . मुबारक मिस्र से हटकर कहीं और बस जाएँ और मौज की ज़िंदगी बिताते रहें . अपने प्रिय तानाशाहों के साथ अमरीका ऐसा ही करता रहा है . लेकिन इस बार अवाम का दबाव इतना है कि तिकड़म के कूटनीति के लिए कोई स्पेस नहीं बचा है . होस्नी मुबारक की फौज का लगभग सारा खर्च अमरीकी सैन्य सहायता से पूरा होता है . अमरीका मिस्र के लिए हर साल क़रीब डेढ़ अरब डालर की फौजी मदद का इंतज़ाम करता है .इस साल भी यह मदद की जा रही है . पिछले हफ्ते राष्ट्रपति ओबामा ने ऐलान किया था कि यह मदद बंद कर दी जायेगी लेकिन ऐसा होने वाला नहीं है. मिस्र की मज़बूत फौज मिस्र से ज्यादा इजरायल के काम आती है . उसी फौज़ की वजह से पश्चिम एशिया में इज़रायल की सुरक्षा सुनिश्चित होती है . जहां तक अमरीका का सवाल है वह इजरायल की बदमाशी के कारण ही पश्चिमी एशिया और अरब देशों में अपनी राजनीति को चमकाता है . इसलिए इजरायल किसी भी हालत में मिस्र की सेना को कमज़ोर नहीं होने देगा . लेकिन आज इज़रायल और अमरीका की चिंताएं दूसरी हैं . जो लाखों लोग आज तहरीर चौक पर जमा हैं , उनकी राजनीति के बारे में किसी को पता नहीं हैं . उनका कोई नेता नहीं है . हालांकि अभी तक वह आन्दोलन पूरी तरह से महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक विषमता को केंद्र में रख कर चलाया जा रहा है लेकिन खबर है कि इस्लामी ब्रदरहुड नाम की संस्था ने अगुवाई करने की कोशिश शुरू कर दी है . इस संगठन के प्रभाव वाली सरकार न तो अमरीका को सूट करेगी और न ही उसे इज़रायल स्वीकार करेगा . ज़ाहिर है कि अमरीका की कोशिश है कि होस्नी मुबारक को अगर हटाना ही पड़ता है तो वह उसे हटा तो देगा लेकिन उनकी गह पर वह किसी इस्लामी प्रभाव वाली सरकार को बर्दाश्त नहीं करेगा . इरान में शाह रजा पहलवी की सरकार घोषित रूप से अमरीका परस्त सरकार थी . शाह के खिलाफ जब आन्दोलन ने जोर पकड़ा तो अमरीका गाफिल पड़ गया और वहां इस्लामी सरकार बन गयी . आज तक अमरीकी विदेश नीति के प्रबंधक अमरीका के उस वक़्त के विदेश नीति के प्रबंधकों को कोसते पाए जाते हैं . इसलिए अमरीका किसी कीमत पर मिस्र में इरान वाली गलती नहीं दोहराना चाहता . शायद इसीलिये जांचे परखे अमरीका के दोस्त , अल बरदेई को आगे किया गया है . संयुक्त राष्ट्र के परमाणु इन्स्पेक्टर के रूप में वे अमरीकी हुक्म को पालन करने का तजुर्बा रखते हैं . दुनिया भर में जाने जाते है और उनका अंतर राष्ट्रीय प्रोफाइल भी ठीक है . अब तक की स्थिति से लगता है कि अमरीका उन पर ही अपनी बाज़ी लगा रहा है . जो भी हो आज की तहरीर चौक की स्थिति ऐसी है कि अब अमीका को फ़ौरन से पेशतर मिस्र में सत्ता परिवर्तन के लिए तैयार हो जाना पड़ेगा .
काहिरा की सडकों पर जमे हुए लोगों को इरान की सरकार ने आज पूरा समर्थन कर दिया है . यह एक ऐसा समर्थन है जिसे मिस्र की अगली सरकार से अमरीका हर हाल में दूर रखना चाहेगा . शायद इसी हालत से बचने के लिए अमरीकी विदेश विभाग ने मिस्र में हो रहे बद्लाव पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए मिस्र में रह चुके अमरीकी राजदूत फ्रैंक विजनर को काहिरा के लिए रवाना कर दिया है . पश्चिमी एशिया में अमरीका के बहुत सारी दोस्त सरकारें हैं . सभी तानाशाही की सरकारें हैं और सभी उन गुनाहों में लिप्त हैं जिसकी वजह से होस्नी मुबारक को आज जाना पड़ रहा है . सभी सरकारों की नज़र अमरीका पर है . वे देख रहे हैं कि अपने हुक्म के एक गुलाम राष्ट्रपति को अमरीका कितना समर्थन दे पाता है . अमरीका के प्रति उनका रुख भी मिस्र की घटनाओं को ध्यान में रख कर ही तय होगा . लेकिन अमरीका की मजबूरी यह है कि वह अगर आज के बाद भी मुबारक को समर्थन देता है तो मिस्र की नयी सरकार के साथ उसको बहुत मुश्किल पेश आयेगी. ज़ाहिर है अमरीका का रास्ता बहुत मुश्किल हो गया है. उसकी हालत यह है कि उसके सामने आग का दरिया है और तैरना भी ज़रूरी है . मिस्र में सत्ता के बदलाव का असर पश्चिम एशिया की कूटनीति पर तो पडेगा ही बाकी दुनिया में भी अमरीकी विदेश नीति की अग्निपरीक्षा होने वाली है .
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शेष नारायण सिंह
Monday, January 31, 2011
मिस्र में अब ताज उछाले जायेगें ,तख़्त गिराए जायेगें .
शेष नारायण सिंह
मिस्र के राष्ट्रपति ,होस्नी मुबारक की विदाई का वक़्त करीब आ पंहुचा है . लगता है अब वहां ज़ुल्मो-सितम के कोहे गिरां रूई की तरह उड़ जायेगें . विपक्ष की आवाज़ बन चुके , संयुक्त राष्ट्र के पूर्व उच्च अधिकारी मुहम्मद अल बरदेई ने साफ़ कह दिया है कि होस्नी मुबारक को फ़ौरन गद्दी छोडनी होगी और चुनाव के पहले एक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना भी करनी होगी. पिछले तीस साल से अमरीका की कृपा से इस अरब देश में राज कर रहे मुबारक को मुगालता हो गया था कि वह हमेशा के लिए हुकूमत में आ चुके हैं . लेकिन अब अमरीका को भी अंदाज़ लग गया है कि कि होस्नी मुबारक को मिस्र की जनता अब बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है . तहरीर चौक पर जुट रहे लोगों को अब किसी का डर नहीं है . राष्ट्रपति मुबारक, फौज के सहारे राज करते आ रहे हैं लेकिन लगता है कि अब फौज भी उनके साथ नहीं है . तहरीर चौक में कई बार ऐसा देखा गया कि अवाम फौजी अफसरों को हाथों हाथ ले रही है .यह इस बात का संकेत है कि अब फौज समेत पूरा देश बदलाव चाहता है .इस बीच अमरीका हीला हवाली का अपना राग अलाप रहा है .अमरीकी विदेश मंत्री , हिलेरी क्लिंटन ने कहा है कि सत्ता परिवर्तन तो होना चाहिए लेकिन मौजूदा सत्ता को उखाड़ फेंकना ठीक नहीं है . अमरीका के इस रुख से चारों तरफ बहुत सख्त नाराज़गी है . मिस्र में तो लोग नाराज़ हैं ही , अमरीकी जनमत भी ओबामा सरकार से निराश हो रहा है . अमरीका के चोटी के विद्वानों ने राष्ट्रपति ओबामा को एक पत्र लिखकर मांग की है कि मिस्र में लोकशाही की स्थापना में मदद करें, उसमें अडंगा न लगाएं . इन विद्वानों में अमरीकी विश्वविद्यालयों में काम कर रहे राजनीतिशास्त्र और इतिहास के वे प्रोफ़ेसर हैं जिन्होंने अरब देशों की राजनीति का गंभीर अध्ययन किया है . इन लोगों ने राष्ट्रपति ओबामा से अपील की है मिस्र में चल रहे लोकतांत्रिक आन्दोलन ने उन्हें एक अवसर दिया है जिसका उन्हें तुरंत इस्तेमाल करना चाहिए . उन विद्वानों ने कहा है कि अमरीकी नागरिक के रूप में वे उम्मीद करते हैं कि उनका राष्ट्रपति लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए आगे आयेगा. पिछले तीस वर्षों से अमरीकी सरकार ने मिस्र में अरबों डालर कर खर्च करके वह व्यवस्था लागू करने की कोशिश की जिसे अब वहां की जनता ख़त्म करना चाहती है . मिस्र के लाखों नागरिक सडकों पर हैं और मांग कार रहे हैं कि राष्ट्रपति मुबारक फ़ौरन इस्तीफ़ा दें और एक ऐसी सरकार बने जो उनके और उनके पारिवार के प्रभाव से मुक्त हो . अमरीकी राष्ट्रपति ने कहा था कि मिस्र की जनता की महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रख कर राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक सुधार किये जाने चाहिए . राष्ट्रपति ओबामा से मांग की गयी है कि वे अपनी सरकार को हिदायत दें कि वह इस बात का ऐलान करे कि इस तरह के सुधार होस्नी मुबारक के बूते की बात नहीं हैं.अमरीकी जनमत को प्रभावित कर सकने वाले इन लोगों ने कहा है कि मिस्र के मौजूदा संकट से अमरीका को भी सबक लेने की ज़रुरत है . अमरीकी सरकार को चाहिए कि वह मिस्र की जनता का साथ आशा और लोकशाही के मूल्यों के आधार पर दे . जैसा कि आम तौर पर होता है वहां अब भौगोलिक रणनीति को आधार बनाकर काम करने की ज़रूरत नहीं है.ओबामा को उन्हीं की बात याद दिलाई गयी है जब उन्होंने पिछले शुक्रवार को कहा था कि विचारों को दबा देने से उन्हें ख़त्म नहीं किया जा सकता. ओबामा से अपील की गयी है कि मिस्र में उन नीतियों को अब त्याग दें जिनकी वजह से यह हाल हुआ है . और एक नयी राह पर चलें . अमरीकी विदेश नीति में बहुत कमियाँ हैं . मिस्र ने एक अवसर दिया है कि उन कमियों को दूर किया जाए,
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित ,मुहम्मद अल बरदेई की मिस्र में बहुत इज्ज़त है . उन्होंने जनता से कहा है कि आप ही इस क्रान्ति के मालिक हैं आप ही इस क्रान्ति का भविष्य हैं . हमारी मांग है कि मौजूदा हुकूमत फ़ौरन ख़त्म हो और एक नयी सरकार कायम की जाए जहां मिस्र का हर नागरिक सम्मान और स्वतंत्रता के साथ जीवन बिता सके. लेकिन मुहम्मद अल बरदेई के आ जाने के बाद मिस्र के ही कुछ हलकों में परेशानी नज़र आने लगी है . इस तरह के लोगों का कहना है कि वे मिस्र के बारे में कुछ नहीं जानते क्योंकि वे बहुत दिनों से संयुक्त राष्ट्र की अपनी नौकरी के चक्कर में विदेशों में ही रह रहे हैं . अन्य किसी राजनीतिक संगठन के न होने के कारण शायद मुस्लिम ब्रदरहुड नाम का एक संगठन आन्दोलन का नेतृत्व करता नज़र आ रहा था .इस संगठन की कोशिश है कि मिस्र में इस्लामी राज्य स्थापित किया जाए. लेकिन अब लगता है कि उनकी भी कुछ ख़ास नहीं चलने वाली है क्योंकि मिस्र में अपेक्षाकृत लोकतांत्रिक मूल्यों को ज्यादा महत्व दिया जाता रहा है . यह मुबारक भी उन्हीं लोकतांत्रिक मूल्यों के नाम पर ही सत्ता में आये थे लेकिन धीरे धीरे तानाशाही प्रवृत्तियों के शिकार हो गए. इसके लिए अमरीकी नीतियाँ ही ज्यादा ज़िम्मेदार हैं क्योंकि देखा गया है कि अमरीका को अगर उस इलाके की चौकी दारी करने वाला कोई तानाशाह मिल जाए तो उसे इस बात की कोई परवाह नहीं रहती कि उस देश में लोकतंत्र की स्थापना की कोशिश की जाये. पाकिस्तान में पिछले तीस वर्षों में अमरीका ने दो तानाशाहों को समर्थन दिया है . इसी तरह से बाकी देशों का भी हाल है . बहर हाल अब लगता है कि अमरीका के लिए भी मिस्र में होस्नी मुबारक की बेकार हो चुकी सरकार को संभाल पाना संभव नहीं होगा . इस बात के संकेत साफ़ नज़र आने लगे हैं कि अब अमरीका मुबारक को डंप करके किसी नए इंतज़ाम को अपनाने के चक्कर में है . दुनिया को मालूम है कि मिस्र की सरकार अमरीका की कठपुतली सरकार है .इसलिए वहां किसी भी बद्लाव की उम्मीद अमरीका के सक्रिय हस्तक्षेप के बिना नहीं की जानी चाहिए
मिस्र के राष्ट्रपति ,होस्नी मुबारक की विदाई का वक़्त करीब आ पंहुचा है . लगता है अब वहां ज़ुल्मो-सितम के कोहे गिरां रूई की तरह उड़ जायेगें . विपक्ष की आवाज़ बन चुके , संयुक्त राष्ट्र के पूर्व उच्च अधिकारी मुहम्मद अल बरदेई ने साफ़ कह दिया है कि होस्नी मुबारक को फ़ौरन गद्दी छोडनी होगी और चुनाव के पहले एक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना भी करनी होगी. पिछले तीस साल से अमरीका की कृपा से इस अरब देश में राज कर रहे मुबारक को मुगालता हो गया था कि वह हमेशा के लिए हुकूमत में आ चुके हैं . लेकिन अब अमरीका को भी अंदाज़ लग गया है कि कि होस्नी मुबारक को मिस्र की जनता अब बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है . तहरीर चौक पर जुट रहे लोगों को अब किसी का डर नहीं है . राष्ट्रपति मुबारक, फौज के सहारे राज करते आ रहे हैं लेकिन लगता है कि अब फौज भी उनके साथ नहीं है . तहरीर चौक में कई बार ऐसा देखा गया कि अवाम फौजी अफसरों को हाथों हाथ ले रही है .यह इस बात का संकेत है कि अब फौज समेत पूरा देश बदलाव चाहता है .इस बीच अमरीका हीला हवाली का अपना राग अलाप रहा है .अमरीकी विदेश मंत्री , हिलेरी क्लिंटन ने कहा है कि सत्ता परिवर्तन तो होना चाहिए लेकिन मौजूदा सत्ता को उखाड़ फेंकना ठीक नहीं है . अमरीका के इस रुख से चारों तरफ बहुत सख्त नाराज़गी है . मिस्र में तो लोग नाराज़ हैं ही , अमरीकी जनमत भी ओबामा सरकार से निराश हो रहा है . अमरीका के चोटी के विद्वानों ने राष्ट्रपति ओबामा को एक पत्र लिखकर मांग की है कि मिस्र में लोकशाही की स्थापना में मदद करें, उसमें अडंगा न लगाएं . इन विद्वानों में अमरीकी विश्वविद्यालयों में काम कर रहे राजनीतिशास्त्र और इतिहास के वे प्रोफ़ेसर हैं जिन्होंने अरब देशों की राजनीति का गंभीर अध्ययन किया है . इन लोगों ने राष्ट्रपति ओबामा से अपील की है मिस्र में चल रहे लोकतांत्रिक आन्दोलन ने उन्हें एक अवसर दिया है जिसका उन्हें तुरंत इस्तेमाल करना चाहिए . उन विद्वानों ने कहा है कि अमरीकी नागरिक के रूप में वे उम्मीद करते हैं कि उनका राष्ट्रपति लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए आगे आयेगा. पिछले तीस वर्षों से अमरीकी सरकार ने मिस्र में अरबों डालर कर खर्च करके वह व्यवस्था लागू करने की कोशिश की जिसे अब वहां की जनता ख़त्म करना चाहती है . मिस्र के लाखों नागरिक सडकों पर हैं और मांग कार रहे हैं कि राष्ट्रपति मुबारक फ़ौरन इस्तीफ़ा दें और एक ऐसी सरकार बने जो उनके और उनके पारिवार के प्रभाव से मुक्त हो . अमरीकी राष्ट्रपति ने कहा था कि मिस्र की जनता की महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रख कर राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक सुधार किये जाने चाहिए . राष्ट्रपति ओबामा से मांग की गयी है कि वे अपनी सरकार को हिदायत दें कि वह इस बात का ऐलान करे कि इस तरह के सुधार होस्नी मुबारक के बूते की बात नहीं हैं.अमरीकी जनमत को प्रभावित कर सकने वाले इन लोगों ने कहा है कि मिस्र के मौजूदा संकट से अमरीका को भी सबक लेने की ज़रुरत है . अमरीकी सरकार को चाहिए कि वह मिस्र की जनता का साथ आशा और लोकशाही के मूल्यों के आधार पर दे . जैसा कि आम तौर पर होता है वहां अब भौगोलिक रणनीति को आधार बनाकर काम करने की ज़रूरत नहीं है.ओबामा को उन्हीं की बात याद दिलाई गयी है जब उन्होंने पिछले शुक्रवार को कहा था कि विचारों को दबा देने से उन्हें ख़त्म नहीं किया जा सकता. ओबामा से अपील की गयी है कि मिस्र में उन नीतियों को अब त्याग दें जिनकी वजह से यह हाल हुआ है . और एक नयी राह पर चलें . अमरीकी विदेश नीति में बहुत कमियाँ हैं . मिस्र ने एक अवसर दिया है कि उन कमियों को दूर किया जाए,
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित ,मुहम्मद अल बरदेई की मिस्र में बहुत इज्ज़त है . उन्होंने जनता से कहा है कि आप ही इस क्रान्ति के मालिक हैं आप ही इस क्रान्ति का भविष्य हैं . हमारी मांग है कि मौजूदा हुकूमत फ़ौरन ख़त्म हो और एक नयी सरकार कायम की जाए जहां मिस्र का हर नागरिक सम्मान और स्वतंत्रता के साथ जीवन बिता सके. लेकिन मुहम्मद अल बरदेई के आ जाने के बाद मिस्र के ही कुछ हलकों में परेशानी नज़र आने लगी है . इस तरह के लोगों का कहना है कि वे मिस्र के बारे में कुछ नहीं जानते क्योंकि वे बहुत दिनों से संयुक्त राष्ट्र की अपनी नौकरी के चक्कर में विदेशों में ही रह रहे हैं . अन्य किसी राजनीतिक संगठन के न होने के कारण शायद मुस्लिम ब्रदरहुड नाम का एक संगठन आन्दोलन का नेतृत्व करता नज़र आ रहा था .इस संगठन की कोशिश है कि मिस्र में इस्लामी राज्य स्थापित किया जाए. लेकिन अब लगता है कि उनकी भी कुछ ख़ास नहीं चलने वाली है क्योंकि मिस्र में अपेक्षाकृत लोकतांत्रिक मूल्यों को ज्यादा महत्व दिया जाता रहा है . यह मुबारक भी उन्हीं लोकतांत्रिक मूल्यों के नाम पर ही सत्ता में आये थे लेकिन धीरे धीरे तानाशाही प्रवृत्तियों के शिकार हो गए. इसके लिए अमरीकी नीतियाँ ही ज्यादा ज़िम्मेदार हैं क्योंकि देखा गया है कि अमरीका को अगर उस इलाके की चौकी दारी करने वाला कोई तानाशाह मिल जाए तो उसे इस बात की कोई परवाह नहीं रहती कि उस देश में लोकतंत्र की स्थापना की कोशिश की जाये. पाकिस्तान में पिछले तीस वर्षों में अमरीका ने दो तानाशाहों को समर्थन दिया है . इसी तरह से बाकी देशों का भी हाल है . बहर हाल अब लगता है कि अमरीका के लिए भी मिस्र में होस्नी मुबारक की बेकार हो चुकी सरकार को संभाल पाना संभव नहीं होगा . इस बात के संकेत साफ़ नज़र आने लगे हैं कि अब अमरीका मुबारक को डंप करके किसी नए इंतज़ाम को अपनाने के चक्कर में है . दुनिया को मालूम है कि मिस्र की सरकार अमरीका की कठपुतली सरकार है .इसलिए वहां किसी भी बद्लाव की उम्मीद अमरीका के सक्रिय हस्तक्षेप के बिना नहीं की जानी चाहिए
Sunday, January 30, 2011
अंत में उनका शरीर मंदिर बन गया था .
शेष नारायण सिंह
आज से ठीक तिरसठ साल पहले एक धार्मिक आतंकवादी की गोलियों से महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी थी. कुछ लोगों को उनकी हत्या के आरोप में सज़ा भी हुई लेकिन साज़िश की परतों से पर्दा कभी नहीं उठ सका . खुद महात्मा जी अपनी हत्या से लापरवाह थे. जब २० जनवरी को उसी गिरोह ने उन्हें मारने की कोशिश की जिसने ३० जनवरी को असल में मारा तो सरकार चौकन्नी हो गयी थी लेकिन महत्मा गाँधी ने सुरक्षा का कोई भारी बंदोबस्त नहीं होने दिया . ऐसा लगता था कि महात्मा गाँधी इसी तरह की मृत्यु का इंतज़ार कर रहे थे.इंसानी मुहब्बत के लिए आख़िरी साँसे लेना उनका सपना भी था. जब १९२६ में एक धार्मिक उन्मादी ने स्वामी श्रद्धानंद जी महराज को मार डाला तो गाँधी जी को तकलीफ तो बहुत हुई लेकिन उन्होंने उनके मृत्यु के दूसरे पक्ष को देखा. २४ दिसंबर १९२६ को आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी की बैठक में गाँधी जी ने कहा कि " स्वामी श्रद्धानंद जी की मृत्यु मेरे लिए असहनीय है .लेकिन मेरा दिल शोक माने से साफ़ इनकार कर रहा है. उलटे यह प्रार्थना कर रहा है कि हम सबको इसी तरह की मौत मिले.( कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी अंक ३२ ) .अपनी खुद की मृत्यु के कुछ दिन पहले पाकिस्तान से आये कुछ शरणार्थियों के सामने उन्होंने सवाल किया था " क्या बेहतर है ? अपने होंठों पर ईश्वर का नाम लेते हुए अपने विश्वास के लिए मर जाना या बीमारी , फालिज या वृद्धावस्था का शिकार होकर मरना . जहां तक मेरा सवाल है मैं तो पहली वाली मौत का ही वरण करूंगा " ( प्यारेलाल के संस्मरण )
महात्मा जी की मृत्यु के बाद जवाहरलाल नेहरू का वह भाषण तो दुनिया जानती है जो उन्होंने रेडियो पर देश वासियों को संबोधित करते हुए दिया था . उसी भाषण में उन्होंने कहा था कि हमारी ज़िंदगी से प्रकाश चला गया है . लेकिन उन्होंने हरिजन ( १५ फरवरी १९४८ ) में जो लिखा ,वह महात्मा जी को सही श्रद्धांजलि है . लिखते हैं कि ' उम्र बढ़ने के साथ साथ ऐसा लगता था कि उनका शरीर उनकी शक्तिशाली आत्मा का वाहन हो गया था,. उनको देखने या सुनने के वक़्त उनके शरीर का ध्यान ही नहीं रहता था , लगता था कि जहां वे बैठे होते थे ,वह जगह एक मंदिर बन गयी है '
अपनी मृत्यु के दिन भी महात्मा गाँधी ने भारत के लोगों के लिए दिन भर काम किया था . लेकिन एक धर्माध आतंकी ने उन्हें मार डाला .
आज से ठीक तिरसठ साल पहले एक धार्मिक आतंकवादी की गोलियों से महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी थी. कुछ लोगों को उनकी हत्या के आरोप में सज़ा भी हुई लेकिन साज़िश की परतों से पर्दा कभी नहीं उठ सका . खुद महात्मा जी अपनी हत्या से लापरवाह थे. जब २० जनवरी को उसी गिरोह ने उन्हें मारने की कोशिश की जिसने ३० जनवरी को असल में मारा तो सरकार चौकन्नी हो गयी थी लेकिन महत्मा गाँधी ने सुरक्षा का कोई भारी बंदोबस्त नहीं होने दिया . ऐसा लगता था कि महात्मा गाँधी इसी तरह की मृत्यु का इंतज़ार कर रहे थे.इंसानी मुहब्बत के लिए आख़िरी साँसे लेना उनका सपना भी था. जब १९२६ में एक धार्मिक उन्मादी ने स्वामी श्रद्धानंद जी महराज को मार डाला तो गाँधी जी को तकलीफ तो बहुत हुई लेकिन उन्होंने उनके मृत्यु के दूसरे पक्ष को देखा. २४ दिसंबर १९२६ को आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी की बैठक में गाँधी जी ने कहा कि " स्वामी श्रद्धानंद जी की मृत्यु मेरे लिए असहनीय है .लेकिन मेरा दिल शोक माने से साफ़ इनकार कर रहा है. उलटे यह प्रार्थना कर रहा है कि हम सबको इसी तरह की मौत मिले.( कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी अंक ३२ ) .अपनी खुद की मृत्यु के कुछ दिन पहले पाकिस्तान से आये कुछ शरणार्थियों के सामने उन्होंने सवाल किया था " क्या बेहतर है ? अपने होंठों पर ईश्वर का नाम लेते हुए अपने विश्वास के लिए मर जाना या बीमारी , फालिज या वृद्धावस्था का शिकार होकर मरना . जहां तक मेरा सवाल है मैं तो पहली वाली मौत का ही वरण करूंगा " ( प्यारेलाल के संस्मरण )
महात्मा जी की मृत्यु के बाद जवाहरलाल नेहरू का वह भाषण तो दुनिया जानती है जो उन्होंने रेडियो पर देश वासियों को संबोधित करते हुए दिया था . उसी भाषण में उन्होंने कहा था कि हमारी ज़िंदगी से प्रकाश चला गया है . लेकिन उन्होंने हरिजन ( १५ फरवरी १९४८ ) में जो लिखा ,वह महात्मा जी को सही श्रद्धांजलि है . लिखते हैं कि ' उम्र बढ़ने के साथ साथ ऐसा लगता था कि उनका शरीर उनकी शक्तिशाली आत्मा का वाहन हो गया था,. उनको देखने या सुनने के वक़्त उनके शरीर का ध्यान ही नहीं रहता था , लगता था कि जहां वे बैठे होते थे ,वह जगह एक मंदिर बन गयी है '
अपनी मृत्यु के दिन भी महात्मा गाँधी ने भारत के लोगों के लिए दिन भर काम किया था . लेकिन एक धर्माध आतंकी ने उन्हें मार डाला .
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शेष नारायण सिंह
सावधान ! महंगाई डायन अब सरकारें खा रही है
शेष नारायण सिंह
अपने देश में चारों तरफ मंहगाई का हाहाकार है . खाने के सामान की मंहगाई को केंद्र सरकार वाले नेता गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. यह उनका मुगालता है . जो प्याज कभी ९० रूपये की एक किलो बिक चुकी थी, पंद्रह दिन के अन्दर वही प्याज नाशिक मंडी में घटकर चार रूपये किलो तक पंहुच गयी.मंडी में नीलामी रोकनी पड़ी जिस से कि किसानों को बहुत ज्यादा नुकसान न हो .हालांकि जानकार बताते हैं कि इस सरकार को किसानों के हित से कोई लेना देना नहीं है , मंडी में कारोबार इसलिए रोका गया था कि जमाखोरों को बहुत बड़ा घाटा न हो जाए . आखिर जमाखोर ही तो राजनीतिक दलों की झोली में धन डालता है जिसकी वजह से चुनावों में बेहिसाब खर्च होता है. प्याज के अलावा भी खाने की हर चीज़ की कीमत बेतहाशा बढ़ गयी है और सरकार अलगर्ज़ है . दिल्ली दरबार में सबसे ऊपर बैठे लोगों को अफ्रीकी देश ,मिस्र में चल रहे जन आन्दोलन पर नज़र डाल लेनी चाहिए . वहां की जनता सडकों पर है और तीस साल से अमरीका की मदद से तानाशाही हुकूमत चला रहे राष्ट्रपति, होस्नी मुबारक की हालात खस्ता है . फौज के सहारे राज करने की कोशिश कर रहे मुबारक को अब कोई नहीं बचा सकता . यह जान लेना ज़रूरी है कि उनका पतन किन कारणों से हुआ है . ब्रिटिश अखबार फाइनेशियल टाइम्स लिखता है कि खाने की चीज़ों की आसमान छूती कीमतें ,बेरोजगारी और गरीब-अमीर के बीच बहुत तेज़ी से बढ़ रही खाईं के कारण मिस्र में जनता ने सरकार के खिलाफ मैदान लिया है.. अगर इन कारणों से जनता सड़क पर आ सकती है तो हमारे हुक्मरान को क्या कान में तेल डाल कर सोते रहने का मौका है ? क्या यही हालात भारत के हर गली कूचे में नहीं हैं . सच्ची बात यह है कि यह चेतावनी है कि दुनिया में जहां भी मंहगाई हो, बेरोजगारी हो और अमीर गरीब के बीच खाईं बहुत ज़्यादा हो ,वहां की सरकारों को संभल जाना चाहिए क्योंकि भूख से तड़प रहे आदमी की बर्दाश्त की कोई हद नहीं होती है .जब वह झूम के उठता है तो फौज - फाटे के तिनकों की औकात नहीं कि वह उस तूफान को रोक सके. मिस्र में आजकल वही तूफ़ान है . राजधानी काहिरा में फौज की एक नहीं चल रही हाई . पिरामिडों के शहर गिज़ा में थाने जलाए गए हैं . देश के दूसरे सबसे बड़े शहर अलेक्सांद्रिया में चारों तरफ जनता ही जनता है .होस्नी मुबारक की सत्ताधारी पार्टी ,नैशनल डेमोक्रेटिक पार्टी के काहिरा के मुख्यालय को लोगों ने आग के हवाले कर दिया है . यहाँ यह भी समझ लेने की ज़रुरत है कि इस आन्दोलन की अगली कतार में मुस्लिम ब्रदरहुड है जिसको आम तौर पर दक्षिण पंथी ताक़त के रूप में जाना जाता है . उस की कोई साख नहीं है लेकिन देश का हर आमो-ख़ास उसके साथ है . होस्नी मुबारक की सरकार को उखाड़ फेंकना चाहता है . आम आदमी को इस बात से कोई लेना देना नहीं है कि आन्दोलन की अगुवाई कौन कर रहा है , वह तो महगाई की सरकार के खिलाफ लामबंद है . हमारे हुक्मरान को भी इस बात पर गौर करना चाहिए कि अगर जनता की पक्षधर पार्टियां सरकार के खिलाफ आन्दोलन में कमज़ोर पायी गयीं तो यहाँ की जनता भी दक्षिणपंथी पार्टियों के साथ उसके खिलाफ सडकों पर आने में संकोच नहीं करेगी. .
पूरी अरब दुनिया में मंहगाई के खिलाफ जनता मैदान ले रही है . अभी कुछ दिन पहले ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति, ज़ैनुल आबिदीन बेन अली की सरकार को जनता ने ज़मींदोज़ किया है . और अब अरब देश मिस्र का वही हाल होने वाला है . ट्यूनीशिया में भी जनता की बगावत का कारण वही था जो मिस्र सहित बाकी अरब देशों में है . ट्यूनीशिया में जनता सडकों पर महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ अपनी नाराजगी व्यक्त करने आई थी . आन्दोलन पूरी तरह से खाद्य सामग्री की बढ़ी हुई कीमतों और बेरोजगारी के खिलाफ था लेकिन सरकार की शह पर देश के साहूकार वर्ग ने फलों और सब्जियों की कीमत भी बढ़ा दी . समझ लेने की ज़रुरत है कि वहां खेती लगभग पूरी तरह से कारपोरेट सेक्टर के कब्जे में है . जैसे आजकल अपने यहाँ केंद्र सरकार ऐसी नीतियाँ बना रही है जिस से बड़े पूंजीपति घराने खेती पर क़ब्ज़ा कर लें . उसी तरह ट्यूनीशिया में भी आज से करीब १५ साल पहले हुआ था . यानी खाने पीने की चीजोंकी कीमत पर काबू करने के आम आदमी के आन्दोलन ने वह शक्ल अख्तियार कर लिया जिसकी वजह से सरकार को ही जाना पड़ा . मिस्र में भी ट्यूनीशिया की कार्बन कापी जैसा ही आन्दोलन चल रहा है . जानकार बताते हैं कि होस्नी मुबारक की सरकार का बच पाना भी लगभग नामुमकिन है . ट्यूनीशिया और मिस्र की तरह ही अल्जीरिया में भी महंगाई के खिलाफ आन्दोलन शुरू हो रहा है . हालांकि खबर है कि अल्जीयर्स की सरकार ने ब्रेड की कीमतों में भारी कटौती की है . ध्यान रहे कि यह कटौती किसी सूझबूझ की वजह से नहीं ,अपनी सरकार बचाने के लिए की गयी है . इस बीच अरब देश मारीतानिया में भी महंगाई के खिलाफ ज्वालामुखी धधकना शुरू हो गया है . वहां भी कुछ लोगों ने मिस्र,ट्यूनीशिया और अल्जीरिया की तरह आत्मदाह कर लिया है . वहां भी आन्दोलन कभी भी भड़क सकता है . इस बीच खबर है कि मोरक्को, लीबिया और जार्डन के शासकों ने तूफ़ान की आहट को भांप लिया है .और खाने के सामान पर सब्सिडी का भारी प्रावधान किया है . गरीब देशों के अलावा खाने की चीज़ों की महंगाई यूरोप के देशों में भी खतरे की घंटी बज रही है . फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी ने विश्व बैंक से आग्रह किया है कि इस बात की जांच की जाए कि खाने की चीजों में महंगाई का जो मामला है वह क्यों इतना खतरनाक होता जा रहा है .
खाने के सामान की मंहगाई हमेशा से ही सत्ताधारी जमातों के लिए खतरे की घंटी हुआ करती थी लेकिन अब यह तेज़ रफ़्तार से चलती है और सरकारें बदल देती है . ट्यूनीशिया और मिस्र की घटनाएं इसका ताज़ा उदाहरण हैं . साठ के दशक में भी अफ्रीकी देशों में खाद्य दंगे हो चुके हैं लेकिन इस बार की तरह इतनी तेज़ी से फैले नहीं थे . उन दिनों सूचना की आवाजाही की व्यवस्था इतनी ज्यादा नहीं थी . अब जो कुछ भी एक जगह होता है उसे पूरी दुनिया देखती है . जिसकी वजह से जागरूकता बढ़ती है और सरकारें गिरती हैं . ज़ाहिर है कि हमारी सरकार को भी पूंजीपतियों के हित से थोडा सा ध्यान हटाकर जनता की परेशानियों की तरफ नज़र डालनी चाहिए वरना जब जनता झूम के उठेगी तो हुकूमत के तिनके कुछ नहीं कर पायेगें.
अपने देश में चारों तरफ मंहगाई का हाहाकार है . खाने के सामान की मंहगाई को केंद्र सरकार वाले नेता गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. यह उनका मुगालता है . जो प्याज कभी ९० रूपये की एक किलो बिक चुकी थी, पंद्रह दिन के अन्दर वही प्याज नाशिक मंडी में घटकर चार रूपये किलो तक पंहुच गयी.मंडी में नीलामी रोकनी पड़ी जिस से कि किसानों को बहुत ज्यादा नुकसान न हो .हालांकि जानकार बताते हैं कि इस सरकार को किसानों के हित से कोई लेना देना नहीं है , मंडी में कारोबार इसलिए रोका गया था कि जमाखोरों को बहुत बड़ा घाटा न हो जाए . आखिर जमाखोर ही तो राजनीतिक दलों की झोली में धन डालता है जिसकी वजह से चुनावों में बेहिसाब खर्च होता है. प्याज के अलावा भी खाने की हर चीज़ की कीमत बेतहाशा बढ़ गयी है और सरकार अलगर्ज़ है . दिल्ली दरबार में सबसे ऊपर बैठे लोगों को अफ्रीकी देश ,मिस्र में चल रहे जन आन्दोलन पर नज़र डाल लेनी चाहिए . वहां की जनता सडकों पर है और तीस साल से अमरीका की मदद से तानाशाही हुकूमत चला रहे राष्ट्रपति, होस्नी मुबारक की हालात खस्ता है . फौज के सहारे राज करने की कोशिश कर रहे मुबारक को अब कोई नहीं बचा सकता . यह जान लेना ज़रूरी है कि उनका पतन किन कारणों से हुआ है . ब्रिटिश अखबार फाइनेशियल टाइम्स लिखता है कि खाने की चीज़ों की आसमान छूती कीमतें ,बेरोजगारी और गरीब-अमीर के बीच बहुत तेज़ी से बढ़ रही खाईं के कारण मिस्र में जनता ने सरकार के खिलाफ मैदान लिया है.. अगर इन कारणों से जनता सड़क पर आ सकती है तो हमारे हुक्मरान को क्या कान में तेल डाल कर सोते रहने का मौका है ? क्या यही हालात भारत के हर गली कूचे में नहीं हैं . सच्ची बात यह है कि यह चेतावनी है कि दुनिया में जहां भी मंहगाई हो, बेरोजगारी हो और अमीर गरीब के बीच खाईं बहुत ज़्यादा हो ,वहां की सरकारों को संभल जाना चाहिए क्योंकि भूख से तड़प रहे आदमी की बर्दाश्त की कोई हद नहीं होती है .जब वह झूम के उठता है तो फौज - फाटे के तिनकों की औकात नहीं कि वह उस तूफान को रोक सके. मिस्र में आजकल वही तूफ़ान है . राजधानी काहिरा में फौज की एक नहीं चल रही हाई . पिरामिडों के शहर गिज़ा में थाने जलाए गए हैं . देश के दूसरे सबसे बड़े शहर अलेक्सांद्रिया में चारों तरफ जनता ही जनता है .होस्नी मुबारक की सत्ताधारी पार्टी ,नैशनल डेमोक्रेटिक पार्टी के काहिरा के मुख्यालय को लोगों ने आग के हवाले कर दिया है . यहाँ यह भी समझ लेने की ज़रुरत है कि इस आन्दोलन की अगली कतार में मुस्लिम ब्रदरहुड है जिसको आम तौर पर दक्षिण पंथी ताक़त के रूप में जाना जाता है . उस की कोई साख नहीं है लेकिन देश का हर आमो-ख़ास उसके साथ है . होस्नी मुबारक की सरकार को उखाड़ फेंकना चाहता है . आम आदमी को इस बात से कोई लेना देना नहीं है कि आन्दोलन की अगुवाई कौन कर रहा है , वह तो महगाई की सरकार के खिलाफ लामबंद है . हमारे हुक्मरान को भी इस बात पर गौर करना चाहिए कि अगर जनता की पक्षधर पार्टियां सरकार के खिलाफ आन्दोलन में कमज़ोर पायी गयीं तो यहाँ की जनता भी दक्षिणपंथी पार्टियों के साथ उसके खिलाफ सडकों पर आने में संकोच नहीं करेगी. .
पूरी अरब दुनिया में मंहगाई के खिलाफ जनता मैदान ले रही है . अभी कुछ दिन पहले ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति, ज़ैनुल आबिदीन बेन अली की सरकार को जनता ने ज़मींदोज़ किया है . और अब अरब देश मिस्र का वही हाल होने वाला है . ट्यूनीशिया में भी जनता की बगावत का कारण वही था जो मिस्र सहित बाकी अरब देशों में है . ट्यूनीशिया में जनता सडकों पर महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ अपनी नाराजगी व्यक्त करने आई थी . आन्दोलन पूरी तरह से खाद्य सामग्री की बढ़ी हुई कीमतों और बेरोजगारी के खिलाफ था लेकिन सरकार की शह पर देश के साहूकार वर्ग ने फलों और सब्जियों की कीमत भी बढ़ा दी . समझ लेने की ज़रुरत है कि वहां खेती लगभग पूरी तरह से कारपोरेट सेक्टर के कब्जे में है . जैसे आजकल अपने यहाँ केंद्र सरकार ऐसी नीतियाँ बना रही है जिस से बड़े पूंजीपति घराने खेती पर क़ब्ज़ा कर लें . उसी तरह ट्यूनीशिया में भी आज से करीब १५ साल पहले हुआ था . यानी खाने पीने की चीजोंकी कीमत पर काबू करने के आम आदमी के आन्दोलन ने वह शक्ल अख्तियार कर लिया जिसकी वजह से सरकार को ही जाना पड़ा . मिस्र में भी ट्यूनीशिया की कार्बन कापी जैसा ही आन्दोलन चल रहा है . जानकार बताते हैं कि होस्नी मुबारक की सरकार का बच पाना भी लगभग नामुमकिन है . ट्यूनीशिया और मिस्र की तरह ही अल्जीरिया में भी महंगाई के खिलाफ आन्दोलन शुरू हो रहा है . हालांकि खबर है कि अल्जीयर्स की सरकार ने ब्रेड की कीमतों में भारी कटौती की है . ध्यान रहे कि यह कटौती किसी सूझबूझ की वजह से नहीं ,अपनी सरकार बचाने के लिए की गयी है . इस बीच अरब देश मारीतानिया में भी महंगाई के खिलाफ ज्वालामुखी धधकना शुरू हो गया है . वहां भी कुछ लोगों ने मिस्र,ट्यूनीशिया और अल्जीरिया की तरह आत्मदाह कर लिया है . वहां भी आन्दोलन कभी भी भड़क सकता है . इस बीच खबर है कि मोरक्को, लीबिया और जार्डन के शासकों ने तूफ़ान की आहट को भांप लिया है .और खाने के सामान पर सब्सिडी का भारी प्रावधान किया है . गरीब देशों के अलावा खाने की चीज़ों की महंगाई यूरोप के देशों में भी खतरे की घंटी बज रही है . फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी ने विश्व बैंक से आग्रह किया है कि इस बात की जांच की जाए कि खाने की चीजों में महंगाई का जो मामला है वह क्यों इतना खतरनाक होता जा रहा है .
खाने के सामान की मंहगाई हमेशा से ही सत्ताधारी जमातों के लिए खतरे की घंटी हुआ करती थी लेकिन अब यह तेज़ रफ़्तार से चलती है और सरकारें बदल देती है . ट्यूनीशिया और मिस्र की घटनाएं इसका ताज़ा उदाहरण हैं . साठ के दशक में भी अफ्रीकी देशों में खाद्य दंगे हो चुके हैं लेकिन इस बार की तरह इतनी तेज़ी से फैले नहीं थे . उन दिनों सूचना की आवाजाही की व्यवस्था इतनी ज्यादा नहीं थी . अब जो कुछ भी एक जगह होता है उसे पूरी दुनिया देखती है . जिसकी वजह से जागरूकता बढ़ती है और सरकारें गिरती हैं . ज़ाहिर है कि हमारी सरकार को भी पूंजीपतियों के हित से थोडा सा ध्यान हटाकर जनता की परेशानियों की तरफ नज़र डालनी चाहिए वरना जब जनता झूम के उठेगी तो हुकूमत के तिनके कुछ नहीं कर पायेगें.
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शेष नारायण सिंह,
होस्नी मुबारक
Saturday, January 29, 2011
हिंदी आजकल फल फूल रही है
सुमेधा वर्मा ओझा
सुमेधा वर्मा ओझा की यह टिप्पणी मेरे फेसबुक पर बीबीसी वाले लेख के बारे में थी. इसे यहाँ भी डाल दे रहा हूँ.
शेष नारायण सिंह जी मैं आपका दुःख समझ नहीं पा रही हूँ और ना ही आपका बीबीसी का गुण गान . यह इस देश के लिए बड़े ही दुर्भाग्य की बात थी और केवल अपनी ग़ुलाम मानसिकता का प्रदर्शन कि आपको एक दुसरे देश की किसी रेडियो सेवा पर इतना भरोसा था . आज बीबीसी की हिंदी या अंग्रेजी या किसी भी भाषा की सेवा की ऐसी कोई मान्यता नहीं है जिसे आप इतने प्यार से याद कर रहे हैं . इन्ही सेवाओं के द्वारा बड़े देश अपने उपनिवेशों में अपनी विचार धारा को फैला कर लोगों पर एक मानसिक पकड़ बनाये रहते थे. हमारे देश के रेडियो अखबार वगैरह उतने ही अच्छे या बुरे हैं जितने की किसी और देश के फिर हमें विदेशी सेवा की मृत्यु पर दुखी होने की क्या ज़रुरत है? हिंदी आपकी दुआ से आजकल फल फूल रही है , उसे बीबीसी की कोई ज़रुरत नहीं है
सुमेधा वर्मा ओझा की यह टिप्पणी मेरे फेसबुक पर बीबीसी वाले लेख के बारे में थी. इसे यहाँ भी डाल दे रहा हूँ.
शेष नारायण सिंह जी मैं आपका दुःख समझ नहीं पा रही हूँ और ना ही आपका बीबीसी का गुण गान . यह इस देश के लिए बड़े ही दुर्भाग्य की बात थी और केवल अपनी ग़ुलाम मानसिकता का प्रदर्शन कि आपको एक दुसरे देश की किसी रेडियो सेवा पर इतना भरोसा था . आज बीबीसी की हिंदी या अंग्रेजी या किसी भी भाषा की सेवा की ऐसी कोई मान्यता नहीं है जिसे आप इतने प्यार से याद कर रहे हैं . इन्ही सेवाओं के द्वारा बड़े देश अपने उपनिवेशों में अपनी विचार धारा को फैला कर लोगों पर एक मानसिक पकड़ बनाये रहते थे. हमारे देश के रेडियो अखबार वगैरह उतने ही अच्छे या बुरे हैं जितने की किसी और देश के फिर हमें विदेशी सेवा की मृत्यु पर दुखी होने की क्या ज़रुरत है? हिंदी आपकी दुआ से आजकल फल फूल रही है , उसे बीबीसी की कोई ज़रुरत नहीं है
रोमांस को हर मोड़ पर आवाज़ दी नक्श लायलपुरी के गीतों ने .
शेष नारायण सिंह
गीतकार नक्श लायलपुरी की नज्मों का एक संकलन आया है .'आँगन आँगन बरसे गीत' नाम की यह किताब उर्दू में है.पिछले ५० से भी ज्यादा बरसों से हिन्दी फिल्मों में उर्दू के गीत लिख रहे नक्श लायलपुरी एक अच्छे शायर हैं. कविता को पूरी तरह से समझते हैं लेकन जीवनयापन के लिए फ़िल्मी गीत लिखने का का काम शुरू कर देने के बाद उसी दुनिया के होकर रह गए.रस्मे उल्फत निभाते रहे और हर मोड़ पर सदा देते रहे. उनकी कुछ नज्मों के टुकड़े तो आम बोलचाल में मुहावरों की शक्ल अख्तियार कर चुके हैं .नक्श लायलपुरी ने भारत के बँटवारे के दर्द को बहुत ही करीब से महसूस किया था .१९४७ में वे शरणार्थियों के एक काफिले के साथ उस पार के पंजाब से भारत में पैदल दाखिल हुए थे. कुछ दिन रिश्तेदारों के यहाँ जालंधर में रहे लेकिन वहां दाना पानी नहीं लिखा था . उनके पिता जी इंजीनियर थे . लखनऊ में किसी इंजीनियर दोस्त से संपर्क किया तो उसने कहा कि लखनऊ आ जाओ .वहीं ऐशबाग़ में एक सरकारी प्लाट मिल गया . सड़क की तरफ तो कारखाना बना लिया गया और पीछे की तरफ रहने का इंतज़ाम कर लिया गया . इसी लखनऊ शहर से भाग कर नक्श लायलपुरी मुंबई में अपनी किस्मत आजमाने आये थे . हालांकि उन्होंने अपना पहला फ़िल्मी गाना निर्माता जगदीश सेठी की फिल्म के लिए १९५१ में लिखा था लेकिन वह फिल्म रिलीज़ नहीं हुई .१९५२ में दूसरी फिल जग्गू के लिए गाने लिखे जो पसंद किये गए. उन्हें गीतकार के रूप में पहचान फिल्म 'तेरी तलाश में ' नाम की फिल्म से मिली. इस फिल्म में आशा भोंसले ने उनके गीत गाये थे. एक बार नाम हो गया तो काम मिलने लगा और गाडी चल पड़ी. उर्दू के जानकार नक्श लायलपुरी को खुशी है कि उनको ऐसे संगीत निर्देशकों के साथ काम करने का मौक़ा मिला जो उर्दू ज़बान को जानते थे .ऐसे संगीतकारों में वे नौशाद का नाम बहुत इज्ज़त से लेते हैं . नक्श लायलपुरी कहते हैं कि गीतकार के रूप में उन्हें बुलंदी बी आर इशारा की फिल्म 'चेतना ' से मिली और उसमें उनकी नज़्म 'मैं तो हर मोड़ पर तुमको दूंगा सदा ' बहुत ही सराही गयी . जिन लोगों ने रेहाना सुलतान की चेतना और दस्तक देखी है उन्हें मालूम है कि बेहतरीन अदाकारी किसी कहते हैं . रेहाना सुलतान की परंपरा को ही स्मिता पाटिल ने आगे बढ़ाया था . नक्श लायलपुरी के फ़िल्मी गानों की बहुत दिनों तक धूम रही लेकिन आजकल वह बात नहीं है . फिल्म संगीत की दिशा में बहुत सारे प्रयोग हो रहे हैं और नए नए लोग सामने आ रहे हैं . लेकिन वे आज भी टेलीविज़न सीरियलों के माध्यम से अपनी बात कह रहे हैं.
हिन्दी फिल्मों के इस शायर की यात्रा बहुत ही मुश्किल थी. सबसे बड़ी मुसीबत तो तब आई जब उन्होंने अपने बचपन में सआदत हसन मंटो की किसी कहानी में पढ़ा कि जब पंजाबी इंसान उर्दू बोलता है तो लगता है कि कोई झूठ बोल रहा है . शायद मंटो साहेब ने उच्चारण के तरीके अलग होने की वजह से यह बात कही हो .नक्श लायलपुरी पंजाबी हैं और उसी दिन उन्होंने तय कर लिया कि वे उर्दू ही बोलेगें ,झूठ कभी नहीं बोलेगें. .उर्दू पढने और बोलने में उन्होंने मेहनत की और उर्दू के नामवर शायर बन गए. मुंबई में उनके संघर्ष का शुरुआती दौर भी मामूली नहीं है . घर से भाग कर मुंबई आये थे और जब कल्याण स्टेशन पर उतरे तो जेब में एक चवन्नी बची थी . उन दिनों कोयले के इंजन से चलने वाली गाड़ियां होती थीं .लखनऊ से दिल्ली तक की तीन दिन की यात्रा में कपडे एकदम काले हो गए थे . दिमाग में कहीं से यह बैठा था कि जब किसी शहर में रोज़गार की तलाश में जाओ तो खाली पेट नहीं जाना चाहिए, भूख भी लगी थी ,दिन के १२ बजे थे, उन दिनों कल्याण स्टेशन के प्लेटफार्म पर छत नहीं थी . चार आने की पूरियां खरीद लीं और ज्यों ही पहला निवाला मुंह में डालने के लिए उठाया कि हाथ का दोना चील झपट कर ले गयी. भूखे ही शहर में दाखिल हुए . दादर स्टेशन के पास खस्ता हाल टहल रहे थे कि सामने से एक बुज़ुर्ग सरदार जी आते नज़र आये . उनसे पूछ लिया कि यहाँ को धर्मशाला है क्या ? उन्हीं कोयले से सने कपड़ों और भूखे नौजवान को देख कर शायद उन्हें तरस आ गयी और उन्होंने माटुंगा के गुरुद्वारे का पता बता दिया . लेकिन वहां सिर्फ आठ दिन रह सकते थे . वहीं एक सिख नौजवान था जब उस को पता लगा कि यह खस्ता हाल इंसान शायर है तो वह प्रभावित हुआ और उसने साबुन और लुंगी दी और कहा कि अपने कपडे तो धो लो . जाते वक्त उसने बीस रूपये भी दिए . मना करने पर उसने कहा कि जब हो जाएँ तो वापस दे देना. वह क़र्ज़ आज तक बाकी है . किस्मत ने पल्टा खाया और सडक पर लाहौर के पुराने परिचत दीपक आशा मिल गए. वे एक्टर थे और अब मुंबई में ही रह रहे थे. अपने घर ले गए और फिर किसी शरणार्थी कैम्प में रहने का इंतज़ाम करवा दिया . उसके बाद अपना यह शायर मानवीय संवेदनाओं को गीतों एक माध्यम से सिनेमा के दर्शकों तक पंहुचाता रहा . आज बुज़ुर्ग हैं लेकिन शान से अपना बुढापा बिता रहे हैं . आज भी उनके छाने वालों का एक वर्ग उन्हें मिलता जुलता रहता है
गीतकार नक्श लायलपुरी की नज्मों का एक संकलन आया है .'आँगन आँगन बरसे गीत' नाम की यह किताब उर्दू में है.पिछले ५० से भी ज्यादा बरसों से हिन्दी फिल्मों में उर्दू के गीत लिख रहे नक्श लायलपुरी एक अच्छे शायर हैं. कविता को पूरी तरह से समझते हैं लेकन जीवनयापन के लिए फ़िल्मी गीत लिखने का का काम शुरू कर देने के बाद उसी दुनिया के होकर रह गए.रस्मे उल्फत निभाते रहे और हर मोड़ पर सदा देते रहे. उनकी कुछ नज्मों के टुकड़े तो आम बोलचाल में मुहावरों की शक्ल अख्तियार कर चुके हैं .नक्श लायलपुरी ने भारत के बँटवारे के दर्द को बहुत ही करीब से महसूस किया था .१९४७ में वे शरणार्थियों के एक काफिले के साथ उस पार के पंजाब से भारत में पैदल दाखिल हुए थे. कुछ दिन रिश्तेदारों के यहाँ जालंधर में रहे लेकिन वहां दाना पानी नहीं लिखा था . उनके पिता जी इंजीनियर थे . लखनऊ में किसी इंजीनियर दोस्त से संपर्क किया तो उसने कहा कि लखनऊ आ जाओ .वहीं ऐशबाग़ में एक सरकारी प्लाट मिल गया . सड़क की तरफ तो कारखाना बना लिया गया और पीछे की तरफ रहने का इंतज़ाम कर लिया गया . इसी लखनऊ शहर से भाग कर नक्श लायलपुरी मुंबई में अपनी किस्मत आजमाने आये थे . हालांकि उन्होंने अपना पहला फ़िल्मी गाना निर्माता जगदीश सेठी की फिल्म के लिए १९५१ में लिखा था लेकिन वह फिल्म रिलीज़ नहीं हुई .१९५२ में दूसरी फिल जग्गू के लिए गाने लिखे जो पसंद किये गए. उन्हें गीतकार के रूप में पहचान फिल्म 'तेरी तलाश में ' नाम की फिल्म से मिली. इस फिल्म में आशा भोंसले ने उनके गीत गाये थे. एक बार नाम हो गया तो काम मिलने लगा और गाडी चल पड़ी. उर्दू के जानकार नक्श लायलपुरी को खुशी है कि उनको ऐसे संगीत निर्देशकों के साथ काम करने का मौक़ा मिला जो उर्दू ज़बान को जानते थे .ऐसे संगीतकारों में वे नौशाद का नाम बहुत इज्ज़त से लेते हैं . नक्श लायलपुरी कहते हैं कि गीतकार के रूप में उन्हें बुलंदी बी आर इशारा की फिल्म 'चेतना ' से मिली और उसमें उनकी नज़्म 'मैं तो हर मोड़ पर तुमको दूंगा सदा ' बहुत ही सराही गयी . जिन लोगों ने रेहाना सुलतान की चेतना और दस्तक देखी है उन्हें मालूम है कि बेहतरीन अदाकारी किसी कहते हैं . रेहाना सुलतान की परंपरा को ही स्मिता पाटिल ने आगे बढ़ाया था . नक्श लायलपुरी के फ़िल्मी गानों की बहुत दिनों तक धूम रही लेकिन आजकल वह बात नहीं है . फिल्म संगीत की दिशा में बहुत सारे प्रयोग हो रहे हैं और नए नए लोग सामने आ रहे हैं . लेकिन वे आज भी टेलीविज़न सीरियलों के माध्यम से अपनी बात कह रहे हैं.
हिन्दी फिल्मों के इस शायर की यात्रा बहुत ही मुश्किल थी. सबसे बड़ी मुसीबत तो तब आई जब उन्होंने अपने बचपन में सआदत हसन मंटो की किसी कहानी में पढ़ा कि जब पंजाबी इंसान उर्दू बोलता है तो लगता है कि कोई झूठ बोल रहा है . शायद मंटो साहेब ने उच्चारण के तरीके अलग होने की वजह से यह बात कही हो .नक्श लायलपुरी पंजाबी हैं और उसी दिन उन्होंने तय कर लिया कि वे उर्दू ही बोलेगें ,झूठ कभी नहीं बोलेगें. .उर्दू पढने और बोलने में उन्होंने मेहनत की और उर्दू के नामवर शायर बन गए. मुंबई में उनके संघर्ष का शुरुआती दौर भी मामूली नहीं है . घर से भाग कर मुंबई आये थे और जब कल्याण स्टेशन पर उतरे तो जेब में एक चवन्नी बची थी . उन दिनों कोयले के इंजन से चलने वाली गाड़ियां होती थीं .लखनऊ से दिल्ली तक की तीन दिन की यात्रा में कपडे एकदम काले हो गए थे . दिमाग में कहीं से यह बैठा था कि जब किसी शहर में रोज़गार की तलाश में जाओ तो खाली पेट नहीं जाना चाहिए, भूख भी लगी थी ,दिन के १२ बजे थे, उन दिनों कल्याण स्टेशन के प्लेटफार्म पर छत नहीं थी . चार आने की पूरियां खरीद लीं और ज्यों ही पहला निवाला मुंह में डालने के लिए उठाया कि हाथ का दोना चील झपट कर ले गयी. भूखे ही शहर में दाखिल हुए . दादर स्टेशन के पास खस्ता हाल टहल रहे थे कि सामने से एक बुज़ुर्ग सरदार जी आते नज़र आये . उनसे पूछ लिया कि यहाँ को धर्मशाला है क्या ? उन्हीं कोयले से सने कपड़ों और भूखे नौजवान को देख कर शायद उन्हें तरस आ गयी और उन्होंने माटुंगा के गुरुद्वारे का पता बता दिया . लेकिन वहां सिर्फ आठ दिन रह सकते थे . वहीं एक सिख नौजवान था जब उस को पता लगा कि यह खस्ता हाल इंसान शायर है तो वह प्रभावित हुआ और उसने साबुन और लुंगी दी और कहा कि अपने कपडे तो धो लो . जाते वक्त उसने बीस रूपये भी दिए . मना करने पर उसने कहा कि जब हो जाएँ तो वापस दे देना. वह क़र्ज़ आज तक बाकी है . किस्मत ने पल्टा खाया और सडक पर लाहौर के पुराने परिचत दीपक आशा मिल गए. वे एक्टर थे और अब मुंबई में ही रह रहे थे. अपने घर ले गए और फिर किसी शरणार्थी कैम्प में रहने का इंतज़ाम करवा दिया . उसके बाद अपना यह शायर मानवीय संवेदनाओं को गीतों एक माध्यम से सिनेमा के दर्शकों तक पंहुचाता रहा . आज बुज़ुर्ग हैं लेकिन शान से अपना बुढापा बिता रहे हैं . आज भी उनके छाने वालों का एक वर्ग उन्हें मिलता जुलता रहता है
Thursday, January 27, 2011
अब कोई नहीं कहेगा कि यह बीबीसी लन्दन है
शेष नारायण सिंह
ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन के कई सेक्शन बंद किये जा रहे हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि हिन्दी सर्विस में भी बंदी का ऐलान कर दिया गया है.इसका मतलब यह हुआ कि बीबीसी रेडियो की हिंदी सर्विस को मार्च के अंत में बंद कर दिया जाएगा. बीबीसी की हिन्दी सेवा का बंद होना केवल एक व्यापारिक फैसला नहीं है . यह संस्कृति को प्रभावित करने वाला इतिहास का ऐसा मुकाम है जिसकी धमक बहुत दिनों तक महसूस की जायेगी. हालांकि इस बात में भी दो राय नहीं है कि बीबीसी की हिंदी सर्विस ने अपना वह मुकाम खो दिया है जो उसको पहले हासिल था.. पहले के दौर में बीबीसी की ख़बरों का भारत में बहुत सम्मान किया जाता था .१९७५ में जब इमरजेंसी लगी और भारत की आकाशवाणी और दूरदर्शन इंदिरा सरकार की ढपली बजाने लगे तो जो कुछ भी सही खबरें इस देश के आम आदमी के पास पंहुचीं वे सब बीबीसी की कृपा से ही पंहुचती थीं . इसके अलावा भी देश के हिन्दी भाषी इलाकों में रेडियों के श्रोताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग है जिसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बीबीसी रेडियो पर हिन्दी खबरें सुनना एक ज़रूरी काम की तरह है . उत्तर प्रदेश और बिहार में पढ़े लिखे लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग है जिसके लिए कोई भी सूचना खबर नहीं बनती जब तक कि उसे बीबीसी पर न सुन लिया जाए. इस तरह की संस्था का बंद होना निश्चित रूप से इस देश के लिए दुःख की बात है . पता चला है कि बीबीसी हिन्दी की वेब खबरों का सिलसिला जारी रहेगा . लेकिन अभी वेब का नाम उतना नहीं है कि वह लोगों की आदात में शुमार हो सके.अपने देश में बीबीसी की विश्वसनीयता बहुत ज्यादा थी. . हालांकि बाद के दिनों में यह थोड़ी कम हो गयी थी लेकिन पत्रकारिता के सर्वोच्च मानदंडों का वहां हमेशा ख्याल रखा जाता था .मैंने अपने बचपन में देखा था कि जब दो लोग बहस कर रहे हों और बात सहमति पर न पंहुच रही हो तो कोई एक पक्ष बीबीसी का नाम लेकर बहस को समाप्त कर देता था . अगर आप मेरी बात नहीं मान रहे हैं और मैं कह दूं कि मैंने यह बात बीबीसी पर सुनी है तो अगले की हिम्मत नहीं पड़ती थी को बहस को आगे बढाए. पहले के ज़माने में चुनाव पूर्व सर्वे या एक्सिट पोल नहीं होते थे . ज़्यादातर अखबार अपने आकलन देते थे और बीबीसी ने अगर कभी कोई आकलन दे दिया तो उस पर सबको विश्वास हो जाता था. बीबीसी का इस्तेमाल आर एस एस ने भी खूब किया . १९९१ में जब मुलायम सिंह यादव ने बाबरी मस्जिद ढहाने के लिए जुटी भीड़ पर गोलियां चलवा दी थीं तो आर एस एस के प्रिय अखबारों ने खबर दी कि अयोध्या में सरजू नदी में इतना खून बह गया था कि वह लाल हो गयी थी तो उन खबरों का तब तक विश्वास नहीं किया गया जब तक कि उन खबरों एक साथ साथ यह अफवाह फैलाने वालों क नहीं लगाया गया .भाइयों ने अफवाह फैला दी कि यह खबर बीबीसी पर सुनी गयी थी. पूरा देश तो बीबीसी सुनता नहीं लेकिन बीबीसी के नाम पर इस देश का आम आदमी झूठ पर भी विश्वास कर लेता था. नेताओंने कई बार देश में दंगे फैलाने के लिए बीबीसी का इस्तेमाल किया है . अफवाह फैला दी जाती थी कि फलां खबर बीबीसी पर सुनी है बस फिर क्या था. उस खबर को सच मान कर प्रतिक्रिया होती थी और कई बार तो दंगे भी शुरू हो जाते थे. इंदिरा गाँधी की मौत की खबर सबसे पहेल बीबीसी ने ही दी थी और उसके बाद जो सिखों का क़त्ले आम कांग्रेस के दिल्ली वाले नेताओं ने करवाया उसमें भी बीबीसी का इस्तेमाल किया गया . हुआ यह कि दुष्टों ने प्रचार करवा दिया कि बीबीसी में खबर आई है कि कुछ इलाकों में सिखों ने इंदिरा गाँधी के क़त्ल के बाद मिठाई बांटी . ऐसा बीबीसी ने कभी नहीं कहा था लेकिन उस पर लोगों का भरोसा इतना था कि बात फैल गयी. यहाँ इन बातों को बताने का उद्देश्य केवल इतना है कि कि बीबीसी इस देश में हमेशा ही एक भरोसेमंद संवाद का सोर्स रहा है और अब उसके बंद हो जाने पर ग्रामीण भारत में खबरें सुनने और विश्वास करने का फैशन बदल जाएगा. एक व्यक्तिगत अनुभव भी है.. मेरी आवाज़ बीबीसी के सुबह के प्रोग्राम में कई साल तक सुनी जाती रही थी . कई बार ऐसा हुआ कि जब भी मैंने किसी ट्रेन में या किसी पूछताछ दफ्तर में बात की तो लोगों ने आवाज़ पहचान ली और सम्मान दिया . यह मेरा निजी सम्मान नहीं होता था . यह बीबीसी की विश्वसनीयता पर आम आदमी के भरोसे की मुहर लगती थी. अब वह सब नहीं होगा . अप्रैल के बाद से बीबीसी की हिन्दी सर्विस इतिहास के कोख में जा छुपेगी . हालांकि बीबीसी के एफ एम रेडियो पर हिन्दी बोली तो जायेगी लेकिन बीबीसी हिन्दी के खबरें अब इस देश के हिन्दी जानने वाले के लिए सपना हो जायेगीं. ,इतिहास हो जायेगीं
ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन के कई सेक्शन बंद किये जा रहे हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि हिन्दी सर्विस में भी बंदी का ऐलान कर दिया गया है.इसका मतलब यह हुआ कि बीबीसी रेडियो की हिंदी सर्विस को मार्च के अंत में बंद कर दिया जाएगा. बीबीसी की हिन्दी सेवा का बंद होना केवल एक व्यापारिक फैसला नहीं है . यह संस्कृति को प्रभावित करने वाला इतिहास का ऐसा मुकाम है जिसकी धमक बहुत दिनों तक महसूस की जायेगी. हालांकि इस बात में भी दो राय नहीं है कि बीबीसी की हिंदी सर्विस ने अपना वह मुकाम खो दिया है जो उसको पहले हासिल था.. पहले के दौर में बीबीसी की ख़बरों का भारत में बहुत सम्मान किया जाता था .१९७५ में जब इमरजेंसी लगी और भारत की आकाशवाणी और दूरदर्शन इंदिरा सरकार की ढपली बजाने लगे तो जो कुछ भी सही खबरें इस देश के आम आदमी के पास पंहुचीं वे सब बीबीसी की कृपा से ही पंहुचती थीं . इसके अलावा भी देश के हिन्दी भाषी इलाकों में रेडियों के श्रोताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग है जिसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बीबीसी रेडियो पर हिन्दी खबरें सुनना एक ज़रूरी काम की तरह है . उत्तर प्रदेश और बिहार में पढ़े लिखे लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग है जिसके लिए कोई भी सूचना खबर नहीं बनती जब तक कि उसे बीबीसी पर न सुन लिया जाए. इस तरह की संस्था का बंद होना निश्चित रूप से इस देश के लिए दुःख की बात है . पता चला है कि बीबीसी हिन्दी की वेब खबरों का सिलसिला जारी रहेगा . लेकिन अभी वेब का नाम उतना नहीं है कि वह लोगों की आदात में शुमार हो सके.अपने देश में बीबीसी की विश्वसनीयता बहुत ज्यादा थी. . हालांकि बाद के दिनों में यह थोड़ी कम हो गयी थी लेकिन पत्रकारिता के सर्वोच्च मानदंडों का वहां हमेशा ख्याल रखा जाता था .मैंने अपने बचपन में देखा था कि जब दो लोग बहस कर रहे हों और बात सहमति पर न पंहुच रही हो तो कोई एक पक्ष बीबीसी का नाम लेकर बहस को समाप्त कर देता था . अगर आप मेरी बात नहीं मान रहे हैं और मैं कह दूं कि मैंने यह बात बीबीसी पर सुनी है तो अगले की हिम्मत नहीं पड़ती थी को बहस को आगे बढाए. पहले के ज़माने में चुनाव पूर्व सर्वे या एक्सिट पोल नहीं होते थे . ज़्यादातर अखबार अपने आकलन देते थे और बीबीसी ने अगर कभी कोई आकलन दे दिया तो उस पर सबको विश्वास हो जाता था. बीबीसी का इस्तेमाल आर एस एस ने भी खूब किया . १९९१ में जब मुलायम सिंह यादव ने बाबरी मस्जिद ढहाने के लिए जुटी भीड़ पर गोलियां चलवा दी थीं तो आर एस एस के प्रिय अखबारों ने खबर दी कि अयोध्या में सरजू नदी में इतना खून बह गया था कि वह लाल हो गयी थी तो उन खबरों का तब तक विश्वास नहीं किया गया जब तक कि उन खबरों एक साथ साथ यह अफवाह फैलाने वालों क नहीं लगाया गया .भाइयों ने अफवाह फैला दी कि यह खबर बीबीसी पर सुनी गयी थी. पूरा देश तो बीबीसी सुनता नहीं लेकिन बीबीसी के नाम पर इस देश का आम आदमी झूठ पर भी विश्वास कर लेता था. नेताओंने कई बार देश में दंगे फैलाने के लिए बीबीसी का इस्तेमाल किया है . अफवाह फैला दी जाती थी कि फलां खबर बीबीसी पर सुनी है बस फिर क्या था. उस खबर को सच मान कर प्रतिक्रिया होती थी और कई बार तो दंगे भी शुरू हो जाते थे. इंदिरा गाँधी की मौत की खबर सबसे पहेल बीबीसी ने ही दी थी और उसके बाद जो सिखों का क़त्ले आम कांग्रेस के दिल्ली वाले नेताओं ने करवाया उसमें भी बीबीसी का इस्तेमाल किया गया . हुआ यह कि दुष्टों ने प्रचार करवा दिया कि बीबीसी में खबर आई है कि कुछ इलाकों में सिखों ने इंदिरा गाँधी के क़त्ल के बाद मिठाई बांटी . ऐसा बीबीसी ने कभी नहीं कहा था लेकिन उस पर लोगों का भरोसा इतना था कि बात फैल गयी. यहाँ इन बातों को बताने का उद्देश्य केवल इतना है कि कि बीबीसी इस देश में हमेशा ही एक भरोसेमंद संवाद का सोर्स रहा है और अब उसके बंद हो जाने पर ग्रामीण भारत में खबरें सुनने और विश्वास करने का फैशन बदल जाएगा. एक व्यक्तिगत अनुभव भी है.. मेरी आवाज़ बीबीसी के सुबह के प्रोग्राम में कई साल तक सुनी जाती रही थी . कई बार ऐसा हुआ कि जब भी मैंने किसी ट्रेन में या किसी पूछताछ दफ्तर में बात की तो लोगों ने आवाज़ पहचान ली और सम्मान दिया . यह मेरा निजी सम्मान नहीं होता था . यह बीबीसी की विश्वसनीयता पर आम आदमी के भरोसे की मुहर लगती थी. अब वह सब नहीं होगा . अप्रैल के बाद से बीबीसी की हिन्दी सर्विस इतिहास के कोख में जा छुपेगी . हालांकि बीबीसी के एफ एम रेडियो पर हिन्दी बोली तो जायेगी लेकिन बीबीसी हिन्दी के खबरें अब इस देश के हिन्दी जानने वाले के लिए सपना हो जायेगीं. ,इतिहास हो जायेगीं
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Tuesday, January 25, 2011
आर एस एस ने १९४८ में तिरंगे को पैरों तले रौंदा था.
शेष नारायण सिंह
श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने की बीजेपी की राजनीति पूरी तरह से उल्टी पड़ चुकी है . बीजेपी की अगुवाई वाले एन डी ए के संयोजक शरद यादव तो पहले ही इस झंडा यात्रा को गलत बता चुके हैं ,अब बिहार के मुख्य मंत्री और बीजेपी के महत्वपूर्ण सहयोगी नीतीश कुमार ने श्रीनगर में जाकर झंडा फहराने की जिद का विरोध किया है . शरद यादव ने तो साफ़ कहा है कि जम्मू कश्मीर में जो शान्ति स्थापित हो रही है उसको कमज़ोर करने के लिए की जा रही बीजेपी की झंडा यात्रा का फायदा उन लोगों को होगा जो भारत की एकता का विरोध करते हैं . नीतीश कुमार ने बीजेपी से अपील की है कि इस फालतू यात्रा को फ़ौरन रोक दे .सूचना क्रान्ति के चलते अब देश के बहुत बड़े मध्यवर्ग को मालूम चल चुका है कि झंडा फहराना बीजेपी की राजनीति का स्थायी भाव नहीं है , वह तो सुविधा के हिसाब से झंडा फहराती रहती है . . बीजेपी की मालिक आर एस एस के मुख्यालय पर २००३ तक कभी भी तिरंगा झंडा नहीं फहराया गया था. वो तो जब २००४ में तत्कालीन बीजेपी की नेता उमा भारती तिरंगा फहराने कर्नाटक के हुबली की ओर कूच कर चुकी थीं तो लोगों ने अखबारों में लिखा कि हुबली में झंडा फहराने के साथ साथ उमा भारती को नागपुर के आर एस एस के मुख्यालय में भी झंडा फहरा लेना चाहिए .,तब जाकर आर एस एस ने अपने दफ्तर पर झंडा फहराया . २००४ के विवाद के दौरान भी उतनी ही हडकंप मची थी जितनी आज मची हुई है लेकिन तब टेलीविज़न की खबरें इतनी विकसित नहीं थी इसलिए बीजेपी की धुलाई उतनी नहीं हुई थी जितनी कि आजकल हो रही है . तिरंगा फहराने के बहाने बहुत सारे सवाल भी बीजेपी वालों से पूछे जा रहे हैं. अभी कुछ साल पहले कुछ कांग्रेसी तिरंगा लेकर चल पड़े थे और उन्होंने ऐलान किया था कि वे आर एस एस के नागपुर मुख्यालय पर भी तिरंगा झंडा फहरा देगें . रास्ते में उन पर लाठियां बरसाई गयी थी. लोग सवाल पूछ रहे हैं कि उस वक़्त के तिरंगे से क्यों चिढी हुई थी बीजेपी जो महाराष्ट्र में अपनी सरकार का इस्तेमाल करके तिरंगा फहराने जा रहे कांग्रेसियों को पिटवाया था. जब उमा भारती ने २००४ हुबली में झंडा फहराने के लिए यात्रा की थी तो विद्वान् इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने प्रतिष्ठित अखबार ,हिन्दू में एक बहुत ही दिलचस्प लेख लिखा था .उन्होंने सवाल किया था कि बीजेपी आज क्यों इतनी ज्यादा राष्ट्रप्रेम की बात करती है . खुद ही उन्होंने जवाब का भी अंदाज़ लगाया था कि शायद इसलिए कि बीजेपी की मातृ पार्टी , आर एस एस ने आज़ादी की लड़ाई में कभी हिस्सा नहीं लिया था .१९३० और १९४० के दशक में जब आज़ादी की लड़ाई पूरे उफान पर थी तो आर एस एस का कोई भी आदमी या सदस्य उसमें शामिल नहीं हुआ था. यहाँ तक कि जहां भी तिरंगा फहराया गया , आर एस एस वालों ने कभी उसे सल्यूट तक नहीं किया .आर एस एस ने हमेशा ही भगवा झंडे को तिरंगे से ज्यादा महत्व दिया .३० जनवरी १९४८ को जब महात्मा गाँधी की ह्त्या कर दी गयी तो इस तरह की खबरें आई थीं कि आर एस एस के लोग तिरंगे झंडे को पैरों से रौंद रहे थे . यह खबर उन दिनों के अखबारों में खूब छपी थीं .आज़ादी के संग्राम में शामिल लोगों को आर एस एस की इस हरकत से बहुत तकलीफ हुई थी . उनमें जवाहरलाल नेहरू भी एक थे . २४ फरवरी को उन्होंने अपने एक भाषण में अपनी पीडा को व्यक्त किया था . उन्होंने कहा कि खबरें आ रही हैं कि आर एस एस के सदस्य तिरंगे का अपमान कर रहे हैं .. उन्हें मालूम होना चाहिए कि राष्ट्रीय झंडे का अपमान करके वे अपने आपको देशद्रोही साबित कर रहे हैं
यह तिरंगा हमारी आज़ादी के लड़ाई का स्थायी साथी रहा है जबकि आर एस एस वालों ने आज़ादी की लड़ाई में देश की जनता की भावनाओं का साथ नहीं दिया था. तिरंगे की अवधारना पूरी तरह से कांग्रेस की देन है . तिरंगे झंडे की बात सबसे पहले आन्ध्र प्रदेश के मसुलीपट्टम के कांग्रेसी कार्यकर्ता पी वेंकय्या के दिमाग में उपजी थी १९१८ और १९२१ के बीच हर कांग्रेस अधिवेशन में वे राष्ट्रीय झंडे को फहराने की बात करते थे . महात्मा गाँधी को यह विचार तो ठीक लगता था लेकिन उन्होंने वेंकय्या जी की डिजाइन में कुछ परिवर्तन सुझाए . गाँधी जी की बात को ध्यान में रहकर दिल्ली के देशभक्त लाला हंसराज ने सुझाव दिया कि बीच में चरखा लगा दिया जाए तो ज्यादा सही रहेगा . महात्मा गाँधी को लालाजी की बात अच्छी लगी और थोड़े बहुत परिवर्तन के बाद तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार कर लिया गया .उसके बाद कांग्रेस के सभी कार्यक्रमों में तिरंगा फहराया जाने लगा. अगस्त १९३१ में कांग्रेस की एक कमेटी बनायी गयी जिसने झंडे में कुछ परिवर्तन का सुझाव दिया . वेंकय्या के झंडे में लाल रंग था . उसकी जगह पर भगवा पट्टी कर दी गयी . उसके बाद सफ़ेद पट्टी और सबसे नीचे हरा रंग किया गया . चरखा बीच में सफ़ेद पट्टी पर सुपर इम्पोज कर दिया गया . महात्मा गाँधी ने इस परिवर्तन को सही बताया और कहा कि राष्ट्रीय ध्वज अहिंसा और राष्ट्रीय एकता की निशानी है .
आज़ादी मिलने के बाद तिरंगे में कुछ परिवर्तन किया गया . संविधान सभा की एक कमेटी ने तय किया कि उस वक़्त तक तिरंगा कांग्रेस के हर कार्यक्रम में फहराया जाता रहा है लेकिन अब देश सब का है . उन लोगों का भी जो आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों के मित्र के रूप में जाने जाते थे . इसलिए चरखे की जगह पर अशोक चक्र को लगाने का फैसला किया गया . जब महात्मा गाँधी को इसकी जानकारी दी गयी तो उन्हें ताज्जुब हुआ . बोले कि कांग्रेस तो हमेशा से ही राष्ट्रीय रही है . इसलिए इस तरह के बदलाव की कोई ज़रुरत नहीं है . लेकिन उन्हें नयी डिजाइन के बारे में राजी कर लिया गया . इस तिरंगे की यात्रा में बीजेपी या उसकी मालिक आर एस एस का कोई योगदान नहीं है लेकिन वह उसी के बल पर कांग्रेस को राजनीतिक रूप से घेरने में सफल होती नज़र आ रही है . अजीब बात यह है कि कांग्रेसी अपने इतिहास की बातें तक नहीं कर रहे हैं . अगर वे अपने इतिहास का हवाला देकर काम करें तो बीजेपी और आर एस एस को बहुत आसानी से घेरा जा सकता है और तिरंगे के नाम पर राजनीति करने से रोका जा सकता है .
श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने की बीजेपी की राजनीति पूरी तरह से उल्टी पड़ चुकी है . बीजेपी की अगुवाई वाले एन डी ए के संयोजक शरद यादव तो पहले ही इस झंडा यात्रा को गलत बता चुके हैं ,अब बिहार के मुख्य मंत्री और बीजेपी के महत्वपूर्ण सहयोगी नीतीश कुमार ने श्रीनगर में जाकर झंडा फहराने की जिद का विरोध किया है . शरद यादव ने तो साफ़ कहा है कि जम्मू कश्मीर में जो शान्ति स्थापित हो रही है उसको कमज़ोर करने के लिए की जा रही बीजेपी की झंडा यात्रा का फायदा उन लोगों को होगा जो भारत की एकता का विरोध करते हैं . नीतीश कुमार ने बीजेपी से अपील की है कि इस फालतू यात्रा को फ़ौरन रोक दे .सूचना क्रान्ति के चलते अब देश के बहुत बड़े मध्यवर्ग को मालूम चल चुका है कि झंडा फहराना बीजेपी की राजनीति का स्थायी भाव नहीं है , वह तो सुविधा के हिसाब से झंडा फहराती रहती है . . बीजेपी की मालिक आर एस एस के मुख्यालय पर २००३ तक कभी भी तिरंगा झंडा नहीं फहराया गया था. वो तो जब २००४ में तत्कालीन बीजेपी की नेता उमा भारती तिरंगा फहराने कर्नाटक के हुबली की ओर कूच कर चुकी थीं तो लोगों ने अखबारों में लिखा कि हुबली में झंडा फहराने के साथ साथ उमा भारती को नागपुर के आर एस एस के मुख्यालय में भी झंडा फहरा लेना चाहिए .,तब जाकर आर एस एस ने अपने दफ्तर पर झंडा फहराया . २००४ के विवाद के दौरान भी उतनी ही हडकंप मची थी जितनी आज मची हुई है लेकिन तब टेलीविज़न की खबरें इतनी विकसित नहीं थी इसलिए बीजेपी की धुलाई उतनी नहीं हुई थी जितनी कि आजकल हो रही है . तिरंगा फहराने के बहाने बहुत सारे सवाल भी बीजेपी वालों से पूछे जा रहे हैं. अभी कुछ साल पहले कुछ कांग्रेसी तिरंगा लेकर चल पड़े थे और उन्होंने ऐलान किया था कि वे आर एस एस के नागपुर मुख्यालय पर भी तिरंगा झंडा फहरा देगें . रास्ते में उन पर लाठियां बरसाई गयी थी. लोग सवाल पूछ रहे हैं कि उस वक़्त के तिरंगे से क्यों चिढी हुई थी बीजेपी जो महाराष्ट्र में अपनी सरकार का इस्तेमाल करके तिरंगा फहराने जा रहे कांग्रेसियों को पिटवाया था. जब उमा भारती ने २००४ हुबली में झंडा फहराने के लिए यात्रा की थी तो विद्वान् इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने प्रतिष्ठित अखबार ,हिन्दू में एक बहुत ही दिलचस्प लेख लिखा था .उन्होंने सवाल किया था कि बीजेपी आज क्यों इतनी ज्यादा राष्ट्रप्रेम की बात करती है . खुद ही उन्होंने जवाब का भी अंदाज़ लगाया था कि शायद इसलिए कि बीजेपी की मातृ पार्टी , आर एस एस ने आज़ादी की लड़ाई में कभी हिस्सा नहीं लिया था .१९३० और १९४० के दशक में जब आज़ादी की लड़ाई पूरे उफान पर थी तो आर एस एस का कोई भी आदमी या सदस्य उसमें शामिल नहीं हुआ था. यहाँ तक कि जहां भी तिरंगा फहराया गया , आर एस एस वालों ने कभी उसे सल्यूट तक नहीं किया .आर एस एस ने हमेशा ही भगवा झंडे को तिरंगे से ज्यादा महत्व दिया .३० जनवरी १९४८ को जब महात्मा गाँधी की ह्त्या कर दी गयी तो इस तरह की खबरें आई थीं कि आर एस एस के लोग तिरंगे झंडे को पैरों से रौंद रहे थे . यह खबर उन दिनों के अखबारों में खूब छपी थीं .आज़ादी के संग्राम में शामिल लोगों को आर एस एस की इस हरकत से बहुत तकलीफ हुई थी . उनमें जवाहरलाल नेहरू भी एक थे . २४ फरवरी को उन्होंने अपने एक भाषण में अपनी पीडा को व्यक्त किया था . उन्होंने कहा कि खबरें आ रही हैं कि आर एस एस के सदस्य तिरंगे का अपमान कर रहे हैं .. उन्हें मालूम होना चाहिए कि राष्ट्रीय झंडे का अपमान करके वे अपने आपको देशद्रोही साबित कर रहे हैं
यह तिरंगा हमारी आज़ादी के लड़ाई का स्थायी साथी रहा है जबकि आर एस एस वालों ने आज़ादी की लड़ाई में देश की जनता की भावनाओं का साथ नहीं दिया था. तिरंगे की अवधारना पूरी तरह से कांग्रेस की देन है . तिरंगे झंडे की बात सबसे पहले आन्ध्र प्रदेश के मसुलीपट्टम के कांग्रेसी कार्यकर्ता पी वेंकय्या के दिमाग में उपजी थी १९१८ और १९२१ के बीच हर कांग्रेस अधिवेशन में वे राष्ट्रीय झंडे को फहराने की बात करते थे . महात्मा गाँधी को यह विचार तो ठीक लगता था लेकिन उन्होंने वेंकय्या जी की डिजाइन में कुछ परिवर्तन सुझाए . गाँधी जी की बात को ध्यान में रहकर दिल्ली के देशभक्त लाला हंसराज ने सुझाव दिया कि बीच में चरखा लगा दिया जाए तो ज्यादा सही रहेगा . महात्मा गाँधी को लालाजी की बात अच्छी लगी और थोड़े बहुत परिवर्तन के बाद तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार कर लिया गया .उसके बाद कांग्रेस के सभी कार्यक्रमों में तिरंगा फहराया जाने लगा. अगस्त १९३१ में कांग्रेस की एक कमेटी बनायी गयी जिसने झंडे में कुछ परिवर्तन का सुझाव दिया . वेंकय्या के झंडे में लाल रंग था . उसकी जगह पर भगवा पट्टी कर दी गयी . उसके बाद सफ़ेद पट्टी और सबसे नीचे हरा रंग किया गया . चरखा बीच में सफ़ेद पट्टी पर सुपर इम्पोज कर दिया गया . महात्मा गाँधी ने इस परिवर्तन को सही बताया और कहा कि राष्ट्रीय ध्वज अहिंसा और राष्ट्रीय एकता की निशानी है .
आज़ादी मिलने के बाद तिरंगे में कुछ परिवर्तन किया गया . संविधान सभा की एक कमेटी ने तय किया कि उस वक़्त तक तिरंगा कांग्रेस के हर कार्यक्रम में फहराया जाता रहा है लेकिन अब देश सब का है . उन लोगों का भी जो आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों के मित्र के रूप में जाने जाते थे . इसलिए चरखे की जगह पर अशोक चक्र को लगाने का फैसला किया गया . जब महात्मा गाँधी को इसकी जानकारी दी गयी तो उन्हें ताज्जुब हुआ . बोले कि कांग्रेस तो हमेशा से ही राष्ट्रीय रही है . इसलिए इस तरह के बदलाव की कोई ज़रुरत नहीं है . लेकिन उन्हें नयी डिजाइन के बारे में राजी कर लिया गया . इस तिरंगे की यात्रा में बीजेपी या उसकी मालिक आर एस एस का कोई योगदान नहीं है लेकिन वह उसी के बल पर कांग्रेस को राजनीतिक रूप से घेरने में सफल होती नज़र आ रही है . अजीब बात यह है कि कांग्रेसी अपने इतिहास की बातें तक नहीं कर रहे हैं . अगर वे अपने इतिहास का हवाला देकर काम करें तो बीजेपी और आर एस एस को बहुत आसानी से घेरा जा सकता है और तिरंगे के नाम पर राजनीति करने से रोका जा सकता है .
Monday, January 24, 2011
भावनात्मक मुद्दों पर राजनीतिक पैंतरेबाजी नहीं करनी चाहिए
शेष नारायण सिंह
राजनीति एक गंभीर विषय है . जब भी राजनीति को भावनात्मक मुद्दों के सहारे चलाने की कोशिश की जाती है, नतीजे बहुत ही भयानक होते हैं . राजनीति की गलती क्रिकेट की गलती नहीं है . जब राजनेता गलती करता है तो इतिहास बदलता है . आने वाली पीढ़ियों का भविष्य या तो सुधरता या तबाह होता है .इसलिए राजनीति को भावनात्मक धरातल पर कभी नहीं ले जाया जाना चाहिए. इस बात को समझने के लिए सबसे अच्छा उदाहरण पड़ोसी देश पाकिस्तान का है जहां आजादी के बाद से ही भावनात्मक मुद्दों को राजनीति का विषय बनाया गया और आज पाकिस्तानी राष्ट्र तबाही के कगार पर खड़ा है .आज़ादी के वक़्त हम भाग्यशाली थे कि हमारे नेता वास्तविकता के धरातल पर ही काम करते थे और देश में विकास की बुनियाद रख दी गयी. शिक्षा समेत हर क्षेत्र में जो काम हुआ उस से फौरी लाभ की उम्मीद तो नहीं थी लेकिन भविष्य के सुधरने की मज़बूत संभावना थी. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद हमारे यहाँ भी भावनात्मक मुद्दों को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश शुरू हो गयी. सबसे शुरुआती उदाहरण बंगलादेश के जन्म का है . पाकिस्तान के दो टुकड़े करके जब बंगलादेश की जनता ने अपनी आज़ादी जीती तो इंदिरा गाँधी ने उस जीत का सेहरा अपने सर लेकर बाद के जितने चुनाव हुए सबको भावनातमक धरातल पर जीतने की कोशिश की और काफी हद तक सफल भी रहीं लेकिन उसका नुकसान यह हुआ कि इंदिरा गाँधी यह समझ बैठीं कि चुनाव जीतने के लिए गंभीर राजनीति की नहीं भावनात्मक विषयों की ज़रुरत होती है . नतीजा यह हुआ कि १९७५ में सत्ता में बने रहने के लिए उन्हें इमरजेंसी लगानी पड़ी और १९७७ में सत्ता से बाहर कर दी गयीं .
लोगों की भावनाओं से खेलकर राजनीति का सबसे ताज़ा उदाहरण , बीजेपी की ओर से २६ जनवरी के दिन लाल चौक पर झंडा फहराने का है .अन्य पार्टियों के नेताओं के साथ साथ बीजेपी के नेताओं को मालूम है कि जम्मू-कश्मीर का मसला बहुत की नाजुक है . पिछली सरकारों की गलतियों की वजह से बात इतनी बिगड़ चुकी है कि देश की अखंडता को ख़तरा पैदा हो गया है . उन गलतियों के लिए कांग्रेस तो ज़िम्मेदार है ही, बीजेपी वाले भी कम ज़िम्मेदार नहीं है .पाकिस्तान के पिछले ६० साल से चल रहे अभियान की वजह से वहां की जनता में भारी असमंजस की स्थिति है. ऐसी हालत में बात को और बिगाड़ने की कोशिश करना निहायत ही गैर ज़िम्मेदार काम है . लेकिन लगता है कि प्रकृति ने ही बीजेपी को सज़ा दे दी है . पता चला है कि बीजेपी के झंडा फहराने वालों की भीड़ में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कश्मीर में पत्थर फेंकने वालों की जमात में शामिल थे. पुलिस को उनकी तलाश थी . जब वे पकड़ लिए गए तो बीजेपी के जम्मू-कश्मीर उपाध्यक्ष ने बयान दिया कि कश्मीर पंहुच रहे बीजेपी कार्यकर्ताओं का स्वागत करने के लिए जो टीम बनायी गयी थी उसके लोगों को पुलिस गिरफ्तार करके झंडा फहराने वाले कार्यक्रम को खराब करने की कोशिश की है . जब पुलिस ने कहा कि भाई, जिन लोगों को पकड़ा गया है वे तो पत्थर फेंकने वालों के सरगना रह चुके हैं तो बीजेपी के राज्य नेतृत्व के हाथों से तोते उड़ गए. उनकी वे सारी कोशिशें धरी रह गयीं जिसके तहत वे सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे थे .दरअसल इसमें बीजेपी की कोई गलती नहीं है. अब किसी भी पार्टी की रैली के लिए भीड़ जुटाने का काम भीड़ के ठेकेदारों को दे दिया जाता है . भीड़ में शामिल लोगों को पता नहीं रहता कि किस की तरफ से जा रहे हैं . जब वे टेम्पो में बैठ जाते हैं तो उन्हें बताया जाता है कि किस पार्टी के नेता की जय बोलनी है . भीड़ में आये लोगों को इस काम के लिए बाकायदा पैसा मिलता है . दिल्ली में यह काम बहुत अच्छी तरह से विकसित हो चुका है . राजनीतिक रैलियों को कवर करने वाले दिल्ली के सारे पत्रकार इस तरह के भीड़ के कांट्रेक्टरों को जानते हैं . कई बार तो किसी नेता के मरने पर रोने के लिए भी किराए की जनता आती है. यह कला कांग्रेसी राज में शुरू हुई जब इमरजेंसी के समर्थन में भीड़ जुटाने का काम दिल्ली में अर्जुन दास और सज्जन कुमार को १९७५ में दिया गया था .उस दौर में कांग्रेस से आम जनता बहुत नाराज़ थी . कोई आने को तैयार नहीं था .तो इन लोगों ने झुग्गी झोपडी कालोनियों से किराए की भीड़ जुटाया था . उसके बाद से तो इस तरह की भीड़ जुटाने का धंधा दिल्ली में पूरी तरह से चल रहा है . धीरे धीरे यह काम राज्यों में भी पंहुच गया . जम्मू कश्मीर में जिन पत्थर फेंकने वालों ने बीजेपी की भीड़ का हिस्सा बनने का धंधा किया था वे पकड़ लिए गए . यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है लेकिन बीजेपी के नेतृत्व के सामने खिसियाने के सिवा अब कोई और रास्ता नहीं बचा है . लेकिन जब अवाम की हिस्सेदारी के बिना किराए की भीड़ के साथ इस तरह का काम किया जाएगा तो उसके नतीजे भी राजनीतिक नहीं होंगें ,खिसियाने की नौबत बार बार आयेगी.
श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने के बारे में बीजेपी को इसके पहले भी एक बार खिसियाना पड़ा था जब प्रो मुरली मनोहर जोशी बीजेपी के अध्यक्ष थे और पीवी नरसिम्हा राव प्रधान मंत्री पद पर विराजमान थे. प्रो. जोशी के नेतृत्व में झंडा फहराने वालों की टोली दिल्ली से चल पड़ी. उम्मीद थी कि जनवरी की भारी ठण्ड में जम्मू-श्रीनगर हाइवे बंद रहेगा और श्रीनगर की अशांत स्थिति के मद्दे नज़र लोगों को जम्मू में ही रोक दिया जाएगा . पत्रकारों का एक दल भी साथ था . लेकिन जब डॉ जोशी जम्मू पंहुचे तो पी वी नरसिम्हा राव का बयान आ गया कि भारत में २६ जनवरी को झंडा फहराया जाता है . इस देश का कोई भी नागरिक देश के किसी भी कोने में झंडा फहरा सकता है . इसका मतलब यह हुआ कि डॉ जोशी को श्रीनगर जाकर झंडा फहराना पड़ेगा . गिरफ्तार होने की संभावना ख़त्म हो चुकी थी .पी वी नरसिम्हा राव ने सरकारी जहाज का इंतज़ाम करके जोशी जी की टीम को श्रीनगर पंहुचा दिया . २५ जनवरी के दिन लाल चौक पर एक बम धमाका भी हो गया जहां झंडा फहराया जाना था . ज़बरदस्त सुरक्षा के घेरे में जोशी जी की टीम लाल चौक ले जाई गयी और झंडा फहराने का काम शुरू हुआ. उनके साथ बीजेपी के कई और नेता भी थे. श्रीनगर की २६ जनवरी की ठण्ड में भी सब के माथे पर पसीना चमक रहा था . किस्मत की बात ऐसी कि जोशी जे ने झंडा उल्टा फहरा दिया . सुरक्षा का ज़बरदस्त बंदोबस्त था लिहाजा किसी को कोई चोट चपेट नहीं लगी. दिल्ली में बैठे बीजेपी में मौजूद जोशी जी के विरोधियों ने उस घटना का वर्णन खूब चटखारे लेकर किया. २४ घंटे की टी वी न्यूज़ का ज़माना नहीं था वरना पूरे देश ने इस दुर्दशा को देखा होता .
इस बार भी झंडा फहराने के मुद्दे पर अपशकुन शुरू हो गया है . देखना है कि अगले दो दिनों में भावनात्मक राजनीति किस तरह के मोड़ से होकर गुज़रती है . वैसे बीजेपी या उसकी पूर्वज जनसंघ की किस्मत में कश्मीर की खराब हालात से राजनीतिक लाभ लेना लिखा नहीं है. शुरुआती दौर में जनसंघ के नेता डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ भी यह हो चुका है . जब वे श्रीनगर जाने के लिए जम्मू पंहुचे तो उनके साथ जनसंघ के कार्यकर्ता के नाम पर वही लोग थे जो प्रजा परिषद् में रह चुके थे . गौर करने की बात यह है कि प्रजा परिषद् वही संगठन है जिसके लोग १९४७ में राजा के साथ थे जब वे जिन्ना के साथ जाने के चक्कर में थे. ज़ाहिर है कि जम्मू-कश्मीर में प्रजा परिषद् वालों की कोई इज्ज़त नहीं थी जिसकी वजह से डॉ श्यामप्रसाद मुखर्जी की पोजीशन भी खराब हुई थी . कुल मिलाकर ज़रूरी यह है कि राजनीति को गंभीर आचरण का विषय समझा जाना चाहिए और देश की एकता के खिलाफ काम कभी नहीं करना चाहिए .
राजनीति एक गंभीर विषय है . जब भी राजनीति को भावनात्मक मुद्दों के सहारे चलाने की कोशिश की जाती है, नतीजे बहुत ही भयानक होते हैं . राजनीति की गलती क्रिकेट की गलती नहीं है . जब राजनेता गलती करता है तो इतिहास बदलता है . आने वाली पीढ़ियों का भविष्य या तो सुधरता या तबाह होता है .इसलिए राजनीति को भावनात्मक धरातल पर कभी नहीं ले जाया जाना चाहिए. इस बात को समझने के लिए सबसे अच्छा उदाहरण पड़ोसी देश पाकिस्तान का है जहां आजादी के बाद से ही भावनात्मक मुद्दों को राजनीति का विषय बनाया गया और आज पाकिस्तानी राष्ट्र तबाही के कगार पर खड़ा है .आज़ादी के वक़्त हम भाग्यशाली थे कि हमारे नेता वास्तविकता के धरातल पर ही काम करते थे और देश में विकास की बुनियाद रख दी गयी. शिक्षा समेत हर क्षेत्र में जो काम हुआ उस से फौरी लाभ की उम्मीद तो नहीं थी लेकिन भविष्य के सुधरने की मज़बूत संभावना थी. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद हमारे यहाँ भी भावनात्मक मुद्दों को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश शुरू हो गयी. सबसे शुरुआती उदाहरण बंगलादेश के जन्म का है . पाकिस्तान के दो टुकड़े करके जब बंगलादेश की जनता ने अपनी आज़ादी जीती तो इंदिरा गाँधी ने उस जीत का सेहरा अपने सर लेकर बाद के जितने चुनाव हुए सबको भावनातमक धरातल पर जीतने की कोशिश की और काफी हद तक सफल भी रहीं लेकिन उसका नुकसान यह हुआ कि इंदिरा गाँधी यह समझ बैठीं कि चुनाव जीतने के लिए गंभीर राजनीति की नहीं भावनात्मक विषयों की ज़रुरत होती है . नतीजा यह हुआ कि १९७५ में सत्ता में बने रहने के लिए उन्हें इमरजेंसी लगानी पड़ी और १९७७ में सत्ता से बाहर कर दी गयीं .
लोगों की भावनाओं से खेलकर राजनीति का सबसे ताज़ा उदाहरण , बीजेपी की ओर से २६ जनवरी के दिन लाल चौक पर झंडा फहराने का है .अन्य पार्टियों के नेताओं के साथ साथ बीजेपी के नेताओं को मालूम है कि जम्मू-कश्मीर का मसला बहुत की नाजुक है . पिछली सरकारों की गलतियों की वजह से बात इतनी बिगड़ चुकी है कि देश की अखंडता को ख़तरा पैदा हो गया है . उन गलतियों के लिए कांग्रेस तो ज़िम्मेदार है ही, बीजेपी वाले भी कम ज़िम्मेदार नहीं है .पाकिस्तान के पिछले ६० साल से चल रहे अभियान की वजह से वहां की जनता में भारी असमंजस की स्थिति है. ऐसी हालत में बात को और बिगाड़ने की कोशिश करना निहायत ही गैर ज़िम्मेदार काम है . लेकिन लगता है कि प्रकृति ने ही बीजेपी को सज़ा दे दी है . पता चला है कि बीजेपी के झंडा फहराने वालों की भीड़ में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कश्मीर में पत्थर फेंकने वालों की जमात में शामिल थे. पुलिस को उनकी तलाश थी . जब वे पकड़ लिए गए तो बीजेपी के जम्मू-कश्मीर उपाध्यक्ष ने बयान दिया कि कश्मीर पंहुच रहे बीजेपी कार्यकर्ताओं का स्वागत करने के लिए जो टीम बनायी गयी थी उसके लोगों को पुलिस गिरफ्तार करके झंडा फहराने वाले कार्यक्रम को खराब करने की कोशिश की है . जब पुलिस ने कहा कि भाई, जिन लोगों को पकड़ा गया है वे तो पत्थर फेंकने वालों के सरगना रह चुके हैं तो बीजेपी के राज्य नेतृत्व के हाथों से तोते उड़ गए. उनकी वे सारी कोशिशें धरी रह गयीं जिसके तहत वे सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे थे .दरअसल इसमें बीजेपी की कोई गलती नहीं है. अब किसी भी पार्टी की रैली के लिए भीड़ जुटाने का काम भीड़ के ठेकेदारों को दे दिया जाता है . भीड़ में शामिल लोगों को पता नहीं रहता कि किस की तरफ से जा रहे हैं . जब वे टेम्पो में बैठ जाते हैं तो उन्हें बताया जाता है कि किस पार्टी के नेता की जय बोलनी है . भीड़ में आये लोगों को इस काम के लिए बाकायदा पैसा मिलता है . दिल्ली में यह काम बहुत अच्छी तरह से विकसित हो चुका है . राजनीतिक रैलियों को कवर करने वाले दिल्ली के सारे पत्रकार इस तरह के भीड़ के कांट्रेक्टरों को जानते हैं . कई बार तो किसी नेता के मरने पर रोने के लिए भी किराए की जनता आती है. यह कला कांग्रेसी राज में शुरू हुई जब इमरजेंसी के समर्थन में भीड़ जुटाने का काम दिल्ली में अर्जुन दास और सज्जन कुमार को १९७५ में दिया गया था .उस दौर में कांग्रेस से आम जनता बहुत नाराज़ थी . कोई आने को तैयार नहीं था .तो इन लोगों ने झुग्गी झोपडी कालोनियों से किराए की भीड़ जुटाया था . उसके बाद से तो इस तरह की भीड़ जुटाने का धंधा दिल्ली में पूरी तरह से चल रहा है . धीरे धीरे यह काम राज्यों में भी पंहुच गया . जम्मू कश्मीर में जिन पत्थर फेंकने वालों ने बीजेपी की भीड़ का हिस्सा बनने का धंधा किया था वे पकड़ लिए गए . यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है लेकिन बीजेपी के नेतृत्व के सामने खिसियाने के सिवा अब कोई और रास्ता नहीं बचा है . लेकिन जब अवाम की हिस्सेदारी के बिना किराए की भीड़ के साथ इस तरह का काम किया जाएगा तो उसके नतीजे भी राजनीतिक नहीं होंगें ,खिसियाने की नौबत बार बार आयेगी.
श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने के बारे में बीजेपी को इसके पहले भी एक बार खिसियाना पड़ा था जब प्रो मुरली मनोहर जोशी बीजेपी के अध्यक्ष थे और पीवी नरसिम्हा राव प्रधान मंत्री पद पर विराजमान थे. प्रो. जोशी के नेतृत्व में झंडा फहराने वालों की टोली दिल्ली से चल पड़ी. उम्मीद थी कि जनवरी की भारी ठण्ड में जम्मू-श्रीनगर हाइवे बंद रहेगा और श्रीनगर की अशांत स्थिति के मद्दे नज़र लोगों को जम्मू में ही रोक दिया जाएगा . पत्रकारों का एक दल भी साथ था . लेकिन जब डॉ जोशी जम्मू पंहुचे तो पी वी नरसिम्हा राव का बयान आ गया कि भारत में २६ जनवरी को झंडा फहराया जाता है . इस देश का कोई भी नागरिक देश के किसी भी कोने में झंडा फहरा सकता है . इसका मतलब यह हुआ कि डॉ जोशी को श्रीनगर जाकर झंडा फहराना पड़ेगा . गिरफ्तार होने की संभावना ख़त्म हो चुकी थी .पी वी नरसिम्हा राव ने सरकारी जहाज का इंतज़ाम करके जोशी जी की टीम को श्रीनगर पंहुचा दिया . २५ जनवरी के दिन लाल चौक पर एक बम धमाका भी हो गया जहां झंडा फहराया जाना था . ज़बरदस्त सुरक्षा के घेरे में जोशी जी की टीम लाल चौक ले जाई गयी और झंडा फहराने का काम शुरू हुआ. उनके साथ बीजेपी के कई और नेता भी थे. श्रीनगर की २६ जनवरी की ठण्ड में भी सब के माथे पर पसीना चमक रहा था . किस्मत की बात ऐसी कि जोशी जे ने झंडा उल्टा फहरा दिया . सुरक्षा का ज़बरदस्त बंदोबस्त था लिहाजा किसी को कोई चोट चपेट नहीं लगी. दिल्ली में बैठे बीजेपी में मौजूद जोशी जी के विरोधियों ने उस घटना का वर्णन खूब चटखारे लेकर किया. २४ घंटे की टी वी न्यूज़ का ज़माना नहीं था वरना पूरे देश ने इस दुर्दशा को देखा होता .
इस बार भी झंडा फहराने के मुद्दे पर अपशकुन शुरू हो गया है . देखना है कि अगले दो दिनों में भावनात्मक राजनीति किस तरह के मोड़ से होकर गुज़रती है . वैसे बीजेपी या उसकी पूर्वज जनसंघ की किस्मत में कश्मीर की खराब हालात से राजनीतिक लाभ लेना लिखा नहीं है. शुरुआती दौर में जनसंघ के नेता डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ भी यह हो चुका है . जब वे श्रीनगर जाने के लिए जम्मू पंहुचे तो उनके साथ जनसंघ के कार्यकर्ता के नाम पर वही लोग थे जो प्रजा परिषद् में रह चुके थे . गौर करने की बात यह है कि प्रजा परिषद् वही संगठन है जिसके लोग १९४७ में राजा के साथ थे जब वे जिन्ना के साथ जाने के चक्कर में थे. ज़ाहिर है कि जम्मू-कश्मीर में प्रजा परिषद् वालों की कोई इज्ज़त नहीं थी जिसकी वजह से डॉ श्यामप्रसाद मुखर्जी की पोजीशन भी खराब हुई थी . कुल मिलाकर ज़रूरी यह है कि राजनीति को गंभीर आचरण का विषय समझा जाना चाहिए और देश की एकता के खिलाफ काम कभी नहीं करना चाहिए .
Saturday, January 22, 2011
मराठी थियेटर के औरंगजेब की मौत
शेष नारायण सिंह
मराठी थियेटर के बड़े अभिनेता,प्रभाकर पणशीकर नहीं रहे. १३ जनवरी को पुणे में उन्होंने अंतिम सांस ली .साठ से भी ज्यादा वर्षों तक मराठी थियटर में जीवन बिताने के बाद उन्होंने अलविदा कहा लेकिन इस बीच उनकी ज़िंदगी बहुत ही नाटकीय रही. बचपन में घर से भागकर फुटपाथ पर ज़िंदगी बिताने के लिए वे मजबूर इसलिए हुए कि उनके पिता जी संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान् थे और वे अपने बेटे को नाटक में नहीं जाने देना चाहते थे.. बाद में यही घर से भागा हुआ बालक , नटसम्राट के रूप में पहचाना गया .
घर से भागे तो १५ साल के थे और जब दुनिया से भागे तो उनकी उम्र अस्सी वर्ष की होने वाली थी . ६५ साल का यह सफ़र बहुत ही दिलचस्प है और मराठी समाज और नाटक में एक अहम मुकाम रखता है . इस महान अभिनेता की अंतिम यात्रा में भी नाटकीयता है . कुछ नाटकों में उनके औरंगजेब के रोल की वजह से ही ग्रामीण महाराष्ट्र के बहुत सारे इलाकों में लोग मुग़ल सम्राट औरंगजेब को जानते हैं. १९६८ में प्रो वसंत कानेटकर ने एक बहुत बड़ा नाटक , 'इथे ओशालाला मृत्यु ' प्रस्तुत किया था जिसमें उस वक़्त के मराठी रंगमंच के बड़े अभिनेताओं ने काम किया था .संभाजी का रोल डॉ काशीनाथ घंनेकर ने किया था जबकि चितरंजन कोल्हात्कर और सुधा करमाकर अन्य भूमिकाओं में थे . औरंगजेब की भूमिका प्रभाकर पणशीकर ने की थी. अब तक इस नाटक के आठ सौ से ज्यादा प्रदर्शन हो चुके हैं और पणशीकर का औरंगजेब ही ग्रामीण मराठी समाज की नज़र में औरंगजेब है . इस नाटक में वे सात बार नमाज़ पढ़ते हैं . एक बार किसी गाँव में जहां नाटक चल रहा था , उनके नमाज़ पढने के सलीके को देख कर लोगों को लगा कि उन्हें मुसलमान बन जाना चाहिए . लोगों ने उनसे आग्रह भी किया . इस नाटक की सबसे दिलचस्प बात यह है कि इसे संभाजी को मुख्य हीरो के रूप में पेश करने के लिए लिखा गया था लेकिन प्रभाकर पणशीकर का काम इतना प्रभावशाली था कि लोग नाटक देखने के बाद औरंगजेब के चरित्र को ही याद रख सके. इसी नाटक में डॉ श्रीराम लागू को अपनी अभिनय क्षमता दुनिया को दिखाने का मौक़ा मिला. औरंगजेब की भूमिका प्रभाकर पणशीकर ने १९८७ में प्रो वसंत कानेटकर के नाटक ' जिथे गवतास भले फुटतात ' में भी निभाई . पहली बार तो उन्होंने विजय के अभियान पर निकले औरंगजेब का रोल किया था लेकिन इस बार ९० साल के उस औरंगजेब की भूमिका थी जिसमें वह हार मान चुका है , निराश है . जो भी हो उन्होंने मराठा इतिहास से सम्बंधित जिन नाटकों में काम किया है वह हमेशा याद रखे जायेगें . बाद में जब वे नाट्य निकेतन के प्रबंधक बने तो जो भी कलाकार गैरहाज़िर रहता ,उसकी जगह पर अभिनय करते करते वे हर तरह के अभिनय के माहिर हो गए. उनका औरंगजेब इसीलिये सराहा गया कि उन्होंने नेगेटिव रोल में भी जान डाल देने की कला के वे माहिर हो गए थे...१९६२ में उन्होंने "तो मी नवेच " नाम के नाटक में काम करके मराठी जनमानस में जो मुकाम बनाया वह उनके जीवन का स्थायी भाव बन गया. 'तो मी नवेच' अकेला ऐसा नाटक है जिसे उन्होंने ३१ साल की उम्र में करना शुरू किया. जब तक हाथ पाँव चला उसमें काम किया . आख़िरी वक़्त में एक बार दिल्ली में जब वे पाँवकी तकलीफ से पीड़ित थे , उन्होंने उस नाटक के सभी पात्रों को व्हील चेयर पर बैठ कर निभाया और सराहे गए.
जीवन भर वे कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे. दो बार अखिल भारतीय मराठी नाट्य सम्मलेन के अध्यक्ष रहे. महाराष्ट्र सरकार के थियेटर सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के पद पर रहने के अलावा नटसम्राट नानासाहेब फाटक प्रतिष्ठान और डॉ काशीनाथ घाणेकर प्रतिष्टान के भी अध्यक्ष रहे. मराठी नाटक में जितने भी पुरस्कार होते हैं , उन्हें वे सब मिल चुके थे. उनकी संस्था को चलाने का ज़िम्मा अब उनके प्रशंसकों पर है , उनके अपने भतीजे अनंत पणशीकर उनके बहुत बड़े प्रशंसकों में से हैं .
प्रभाकर पणशीकर का जाना मराठी थियेटर का एक बड़ा नुकसान है .
मराठी थियेटर के बड़े अभिनेता,प्रभाकर पणशीकर नहीं रहे. १३ जनवरी को पुणे में उन्होंने अंतिम सांस ली .साठ से भी ज्यादा वर्षों तक मराठी थियटर में जीवन बिताने के बाद उन्होंने अलविदा कहा लेकिन इस बीच उनकी ज़िंदगी बहुत ही नाटकीय रही. बचपन में घर से भागकर फुटपाथ पर ज़िंदगी बिताने के लिए वे मजबूर इसलिए हुए कि उनके पिता जी संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान् थे और वे अपने बेटे को नाटक में नहीं जाने देना चाहते थे.. बाद में यही घर से भागा हुआ बालक , नटसम्राट के रूप में पहचाना गया .
घर से भागे तो १५ साल के थे और जब दुनिया से भागे तो उनकी उम्र अस्सी वर्ष की होने वाली थी . ६५ साल का यह सफ़र बहुत ही दिलचस्प है और मराठी समाज और नाटक में एक अहम मुकाम रखता है . इस महान अभिनेता की अंतिम यात्रा में भी नाटकीयता है . कुछ नाटकों में उनके औरंगजेब के रोल की वजह से ही ग्रामीण महाराष्ट्र के बहुत सारे इलाकों में लोग मुग़ल सम्राट औरंगजेब को जानते हैं. १९६८ में प्रो वसंत कानेटकर ने एक बहुत बड़ा नाटक , 'इथे ओशालाला मृत्यु ' प्रस्तुत किया था जिसमें उस वक़्त के मराठी रंगमंच के बड़े अभिनेताओं ने काम किया था .संभाजी का रोल डॉ काशीनाथ घंनेकर ने किया था जबकि चितरंजन कोल्हात्कर और सुधा करमाकर अन्य भूमिकाओं में थे . औरंगजेब की भूमिका प्रभाकर पणशीकर ने की थी. अब तक इस नाटक के आठ सौ से ज्यादा प्रदर्शन हो चुके हैं और पणशीकर का औरंगजेब ही ग्रामीण मराठी समाज की नज़र में औरंगजेब है . इस नाटक में वे सात बार नमाज़ पढ़ते हैं . एक बार किसी गाँव में जहां नाटक चल रहा था , उनके नमाज़ पढने के सलीके को देख कर लोगों को लगा कि उन्हें मुसलमान बन जाना चाहिए . लोगों ने उनसे आग्रह भी किया . इस नाटक की सबसे दिलचस्प बात यह है कि इसे संभाजी को मुख्य हीरो के रूप में पेश करने के लिए लिखा गया था लेकिन प्रभाकर पणशीकर का काम इतना प्रभावशाली था कि लोग नाटक देखने के बाद औरंगजेब के चरित्र को ही याद रख सके. इसी नाटक में डॉ श्रीराम लागू को अपनी अभिनय क्षमता दुनिया को दिखाने का मौक़ा मिला. औरंगजेब की भूमिका प्रभाकर पणशीकर ने १९८७ में प्रो वसंत कानेटकर के नाटक ' जिथे गवतास भले फुटतात ' में भी निभाई . पहली बार तो उन्होंने विजय के अभियान पर निकले औरंगजेब का रोल किया था लेकिन इस बार ९० साल के उस औरंगजेब की भूमिका थी जिसमें वह हार मान चुका है , निराश है . जो भी हो उन्होंने मराठा इतिहास से सम्बंधित जिन नाटकों में काम किया है वह हमेशा याद रखे जायेगें . बाद में जब वे नाट्य निकेतन के प्रबंधक बने तो जो भी कलाकार गैरहाज़िर रहता ,उसकी जगह पर अभिनय करते करते वे हर तरह के अभिनय के माहिर हो गए. उनका औरंगजेब इसीलिये सराहा गया कि उन्होंने नेगेटिव रोल में भी जान डाल देने की कला के वे माहिर हो गए थे...१९६२ में उन्होंने "तो मी नवेच " नाम के नाटक में काम करके मराठी जनमानस में जो मुकाम बनाया वह उनके जीवन का स्थायी भाव बन गया. 'तो मी नवेच' अकेला ऐसा नाटक है जिसे उन्होंने ३१ साल की उम्र में करना शुरू किया. जब तक हाथ पाँव चला उसमें काम किया . आख़िरी वक़्त में एक बार दिल्ली में जब वे पाँवकी तकलीफ से पीड़ित थे , उन्होंने उस नाटक के सभी पात्रों को व्हील चेयर पर बैठ कर निभाया और सराहे गए.
जीवन भर वे कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे. दो बार अखिल भारतीय मराठी नाट्य सम्मलेन के अध्यक्ष रहे. महाराष्ट्र सरकार के थियेटर सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के पद पर रहने के अलावा नटसम्राट नानासाहेब फाटक प्रतिष्ठान और डॉ काशीनाथ घाणेकर प्रतिष्टान के भी अध्यक्ष रहे. मराठी नाटक में जितने भी पुरस्कार होते हैं , उन्हें वे सब मिल चुके थे. उनकी संस्था को चलाने का ज़िम्मा अब उनके प्रशंसकों पर है , उनके अपने भतीजे अनंत पणशीकर उनके बहुत बड़े प्रशंसकों में से हैं .
प्रभाकर पणशीकर का जाना मराठी थियेटर का एक बड़ा नुकसान है .
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शेष नारायण सिंह
Friday, January 21, 2011
दिग्विजय का हमला और आर एस एस का बचाव,दोनों ही लोकतंत्र को मजबूती देगें
शेष नारायण सिंह
आर एस एस के खिलाफ दिग्विजय सिंह की मुहिम एक ऊंचे दर्जे की राजनीति है . आर एस एस की हमेशा कोशिश रही है कि वह अपने आपको गैर राजनीतिक मंच के रूप में पेश करे . लेकिन सच यह है कि वह एक राजनीतिक संगठन है . पहली बार आर एस एस की राजनीतिक स्वरुप को स्व मधु लिमये ने उजागर किया था और इसी मुद्दे पर इंदिरा गाँधी के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई कमज़ोर पड़ गयी थी क्योंकि उनके बेटे संजय गाँधी को आर एस एस ने अपनाने की मुहिम शुरू कर दी थी. अब तीस साल बाद दिग्विजय सिंह ने आर एस एस को मजबूर कर दिया है कि वह राजनीतिक पार्टी के रूप में अपना बचाव करे. राजनीतिक पार्टियों का एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाना मज़बूत लोकतंत्र की निशानी है. इसलिए दिग्विजय का हमला और आर एस एस का बचाव दोनों का स्वागत किया जाना चाहिए .इस बीच आर एस एस वाले बचाव की मुद्रा में हैं . उनके टाप नेता और बम धमाकों के अभियुक्त इन्द्रेश कुमार के कुछ चेलों ने हज़रत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, गरीब नवाज़ की अजमेर शरीफ़ स्थित दरगाह में दुआ माँगी है कि इन्द्रेश कुमार सलामत रहें. इस मुक़द्दस दरगाह पर तीन साल पहले हुए धमाकों की घटना की साज़िश में इन्द्रेश कुमार के शामिल होने का आरोप है . इन्द्रेश के जेबी संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संयोजक मोहम्मद अफ़जाल कहते हैं कि उन्होंने डॉ सलीम के साथ एक समूह ने दरगाह में दुआ की और इन्द्रेश की सलामती के लिए चादर चढ़ाई...यानी जिस दरगाह को तबाह करने की कोशिश में इन्द्रेश के शामिल होने का आरोप है , उन्हीं ख्वाजा गरीब नवाज़ की शरण में जाकर दुआ मांगने का क्या मतलब है . जब से कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने आर एस एस पर सीधा हमला बोला है संघी आतंक के इस आयोजक की सिट्टी पिट्टी गुम है . नामी अखबार इन्डियन एक्सप्रेस में छपे उनके आज के इंटर व्यू को देखें तो समझ में आ जाएगा कि वे हर उस काम के लिए अपने अलावा बाकी पूरी दुनिया को ज़िम्मेदार मानने का आग्रह कर रहे हैं जिसमें वे गुनाहगार हैं , मसलन , समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों के लिए वे अब चाहते हैं कि उसके लिए रक्षा , विदेश और गृह विभाग के मंत्रियों की जांच हो . साथ ही राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह की भी जांच हो . यानी जो भी माननीय इन्द्रेश जी के ऊपर आरोप लगाएगा उसे वे हडका लेगें और डांटने लगेंगें .ख्वाजा गरीब नवाज़ से उन्होंने पता नहीं क्यों दुआ मांगने का फैसला किया .मतलब साफ़ है कि कांग्रेस महासचिव , दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में संघी आतंकवाद पर चल रहा कांग्रेस का हमला रंग ला रहा है. शुरू में तो आर एस एस ने कोशिश की कि अपने वफादार पत्रकारों और कुछ संघी लाइन वाले अखबारों की मदद से दिग्विजय सिंह को हिन्दू विरोधी साबित कर दिया जाएगा और फिर उन्हें पीट लेगें. लेकिन ऐसा हो नहीं सका . दिग्विजय सिंह ने भी साफ़ कहा और बार बार कहा कि वे भगवा या हिन्दू आतंकवाद जैसी किसी बात को सच नहीं मानते .उन्होंने कहा कि इस देश में करीब सौ करोड़ हिन्दू रहते हैं जिनमें से ९९ प्रतिशत से भी ज्यादा आर एस एस के खिलाफ हैं . ऐसी हालात में संघी आतंकवाद का यह दावा कि वे सभी हिन्दुओं के अगुवा हैं , मुंह के बल गिर जाता है. अस्सी के दशक में भी एक बार ऐसी नौबत आई थी जब आर एस एस ने तय किया कि जो उसके विरोध में है उसे हिन्दू विरोधी घोषित कर दिया जाए . वह ज़माना दूसरा था, हिन्दी क्षेत्रों में जो तीन चार बड़े अखबार थे , सब का राग आर एस एस वाला ही था. और उनकी कृपा से आर एस एस ने यह साबित कर दिया था कि जो भी उसके खिलाफ है वह हिन्दू मात्र के खिलाफ है . इस बार भी वही कोशिश शुरू की गयी. जब स्वर्गीय करकरे ने संघी आतंकवाद के पैरोकारों को चुन चुन कर पकड़ना शुरू किया तो संघी खेमे में हडकंप मच गया .हेमंत करकरे का ट्रांसफर कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया गया . खूंखार हिंदुत्व के सबसे बड़े विचारक , नरेंद्र मोदी को आगे कर के करकरे के नगर मुंबई में भी उनके खिलाफ जुलूस निकाले गए. लेकिन संघी आतंकवाद को करकरे के हाथों दण्डित होना नहीं लिखा था . पाकिस्तानी आतंकवाद के सरगना हाफ़िज़ सईद ने जब मुंबई के ऊपर हमला करवाया तो पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हेमंत करकरे को ही मार डाला . हालांकि आज संघी बिरादरी ,शहीद हेमंत करकरे के लिए बहुत बड़ी बातें करती है लेकिन उनके जीवन काल में यह लोग उनके दुश्मन बन गए थे. ऐसा शायद इसलिए हुआ था कि संघ के सह्योगी संगठन , अभिनव भारत के बैनर तले काम करने वाले आतंकवादियों को पकड़ कर हेमंत करकरे ने आर एस एस का एक बहुत बड़ा हथियार छीन लिया था . हेमंत करकरे ने जब पुलिस सेवा के सर्वोच्च मानदंडों का परिचय देते हुए संघी आतंकवाद के कारनामों का पर्दाफाश किया उसके पहले ,आर एस एस और उसके मातहत संगठनों के लोग कहते पाए जाते थे कि ' हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता ,लेकिन हर आतंकवादी मुस्लिम होता है .' जब करकरे ने आर एस एस और उसके अधीन संगठनों से जुड़े हुए लोगों को पकड़ लिया तो आर एस एस का मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल होने वाला सबसे धारदार हथियार बेकार हो गया . शायद इसीलिए आर एस एस के दिमाग में करकरे के लिए भारी नफरत थी. बहुत कम लोगों को मालूम है कि जिस दिन करकरे की अंत्येष्टि हुई , उसी दिन आर एस एस ने उनके खिलाफ बहुत बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन का आयोजन कर रखा था. लेकिन जब वह बहादुर शहीद हो गया तो आनन् फानन में वह कार्यक्रम रद्द किया गया. दिल्ली में तो बहुत बड़ी संख्या में पोस्टर भी लगे थे . हो सकता है कि कभी कोई फोटोग्राफर उस सब को सार्वजनिक कर दे .
आर एस एस की कोशिश इस बार भी यही थी कि अर्ध सूचना और अर्ध सत्य के ज़रिये हर उस शख्स को घेर लिया जाएगा जो उनके खिलाफ बोलेगा . दिग्विजय सिंह पर हमला उसी रणनीति का हिस्सा है. इसे आर एस एस का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजकल नियंत्रित मीडिया का ज़माना नहीं रहा . अस्सी के दशक वाली बात तो रही नहीं . अब तो सैकड़ों की संख्या में टेलिविज़न न्यूज़ के चैनल हैं और वे हर तरह के सच को बयान करते रहते हैं शायद इसी वजह से अब आर एस एस और उसके साथ सहानुभूति रखने वाले अखबार दिग्विजय सिंह पर चौतरफा हमला बोल चुके हैं . खबर है कि आर एस एस दिग्विजय सिंह से बहुत नाराज़ है क्योकि उन्होंने संघी आतंकवाद को हिन्दू धर्म से बिलकुल अलग कर दिया है और अब आर एस एस के अखबार भी दिग्विजय को घेरने में जुटे हैं . . सच्चाई यह है कि दिग्विजय सिंह हमेशा से ही कहते रहे हैं भगवा रंग एक पवित्र रंग है और हिन्दू धर्म का आतंक से कोई लेना देना नहीं है . लेकिन यह भी सच है कि आर एस एस भी हिन्दुओं का प्रतिनिधि नहीं है .आर एस एस की मुसीबत यह है कि अब आर एस एस के हर झूठ को उनके अखबारों में तो खबर के रूप में प्रचार होता है लेकिन बाकी मीडिया में उनकी सच्चाई सामने आ जाती है . .दिग्विजय सिंह ने रविवार को इंदौर में संघी आतंकवाद को घेरा और कहा,मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट के वांछित आरोपियों संदीप डांगे और रामजी कलसांगरा को भी संघ प्रचारक सुनील जोशी की तरह कत्ल किया जा सकता है .उन्होंने कहा कि हैदराबाद की मक्का मस्जिद में धमाका, समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट और अजमेर की दरगाह में धमाके की साजिश हिंदू आतंकवाद नहीं बल्कि संघ आतंकवाद का एक रूप है। असीमानंद के कबूलनामे से साबित होता है कि संघ परिवार इन घटनाओं में शामिल है. दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया कि 2007 के समझौता एक्सप्रेस बम कांड के वांछितों संदीप डांगे, रामजी कलसांगरा तथा संघ के मृत प्रचारक सुनील जोशी का नाम लेते हुए कहा, फरारी के दौरान मध्य प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने न केवल उन्हें शरण दी, बल्कि आर्थिक मदद भी मुहैया कराई. सिंह ने आरोप लगाया कि संघ प्रचारक जोशी के हत्यारों को भी मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार संरक्षण देती रही है. दिग्विजय सिंह ने दावा किया कि जोशी अपनी हत्या से पहले सारे राज फाश करने की धमकी देकर कुछ नेताओं को ब्लैकमेल कर रहा था। इसी लिए उसे कत्ल करवा दिया गया . इस बीच खबर है कि मृतक सुनील जोशी के कस्बे , देवास में आर एस एस की एक रैली निकाली गयी और लोगों को बाकायदा धमकाया गया कि अगर आर एस एस आतंक का रास्ता पकड लेगा तो बहुत मुश्किल हो जायेगी
आर एस एस के खिलाफ दिग्विजय सिंह की मुहिम एक ऊंचे दर्जे की राजनीति है . आर एस एस की हमेशा कोशिश रही है कि वह अपने आपको गैर राजनीतिक मंच के रूप में पेश करे . लेकिन सच यह है कि वह एक राजनीतिक संगठन है . पहली बार आर एस एस की राजनीतिक स्वरुप को स्व मधु लिमये ने उजागर किया था और इसी मुद्दे पर इंदिरा गाँधी के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई कमज़ोर पड़ गयी थी क्योंकि उनके बेटे संजय गाँधी को आर एस एस ने अपनाने की मुहिम शुरू कर दी थी. अब तीस साल बाद दिग्विजय सिंह ने आर एस एस को मजबूर कर दिया है कि वह राजनीतिक पार्टी के रूप में अपना बचाव करे. राजनीतिक पार्टियों का एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाना मज़बूत लोकतंत्र की निशानी है. इसलिए दिग्विजय का हमला और आर एस एस का बचाव दोनों का स्वागत किया जाना चाहिए .इस बीच आर एस एस वाले बचाव की मुद्रा में हैं . उनके टाप नेता और बम धमाकों के अभियुक्त इन्द्रेश कुमार के कुछ चेलों ने हज़रत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, गरीब नवाज़ की अजमेर शरीफ़ स्थित दरगाह में दुआ माँगी है कि इन्द्रेश कुमार सलामत रहें. इस मुक़द्दस दरगाह पर तीन साल पहले हुए धमाकों की घटना की साज़िश में इन्द्रेश कुमार के शामिल होने का आरोप है . इन्द्रेश के जेबी संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संयोजक मोहम्मद अफ़जाल कहते हैं कि उन्होंने डॉ सलीम के साथ एक समूह ने दरगाह में दुआ की और इन्द्रेश की सलामती के लिए चादर चढ़ाई...यानी जिस दरगाह को तबाह करने की कोशिश में इन्द्रेश के शामिल होने का आरोप है , उन्हीं ख्वाजा गरीब नवाज़ की शरण में जाकर दुआ मांगने का क्या मतलब है . जब से कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने आर एस एस पर सीधा हमला बोला है संघी आतंक के इस आयोजक की सिट्टी पिट्टी गुम है . नामी अखबार इन्डियन एक्सप्रेस में छपे उनके आज के इंटर व्यू को देखें तो समझ में आ जाएगा कि वे हर उस काम के लिए अपने अलावा बाकी पूरी दुनिया को ज़िम्मेदार मानने का आग्रह कर रहे हैं जिसमें वे गुनाहगार हैं , मसलन , समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों के लिए वे अब चाहते हैं कि उसके लिए रक्षा , विदेश और गृह विभाग के मंत्रियों की जांच हो . साथ ही राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह की भी जांच हो . यानी जो भी माननीय इन्द्रेश जी के ऊपर आरोप लगाएगा उसे वे हडका लेगें और डांटने लगेंगें .ख्वाजा गरीब नवाज़ से उन्होंने पता नहीं क्यों दुआ मांगने का फैसला किया .मतलब साफ़ है कि कांग्रेस महासचिव , दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में संघी आतंकवाद पर चल रहा कांग्रेस का हमला रंग ला रहा है. शुरू में तो आर एस एस ने कोशिश की कि अपने वफादार पत्रकारों और कुछ संघी लाइन वाले अखबारों की मदद से दिग्विजय सिंह को हिन्दू विरोधी साबित कर दिया जाएगा और फिर उन्हें पीट लेगें. लेकिन ऐसा हो नहीं सका . दिग्विजय सिंह ने भी साफ़ कहा और बार बार कहा कि वे भगवा या हिन्दू आतंकवाद जैसी किसी बात को सच नहीं मानते .उन्होंने कहा कि इस देश में करीब सौ करोड़ हिन्दू रहते हैं जिनमें से ९९ प्रतिशत से भी ज्यादा आर एस एस के खिलाफ हैं . ऐसी हालात में संघी आतंकवाद का यह दावा कि वे सभी हिन्दुओं के अगुवा हैं , मुंह के बल गिर जाता है. अस्सी के दशक में भी एक बार ऐसी नौबत आई थी जब आर एस एस ने तय किया कि जो उसके विरोध में है उसे हिन्दू विरोधी घोषित कर दिया जाए . वह ज़माना दूसरा था, हिन्दी क्षेत्रों में जो तीन चार बड़े अखबार थे , सब का राग आर एस एस वाला ही था. और उनकी कृपा से आर एस एस ने यह साबित कर दिया था कि जो भी उसके खिलाफ है वह हिन्दू मात्र के खिलाफ है . इस बार भी वही कोशिश शुरू की गयी. जब स्वर्गीय करकरे ने संघी आतंकवाद के पैरोकारों को चुन चुन कर पकड़ना शुरू किया तो संघी खेमे में हडकंप मच गया .हेमंत करकरे का ट्रांसफर कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया गया . खूंखार हिंदुत्व के सबसे बड़े विचारक , नरेंद्र मोदी को आगे कर के करकरे के नगर मुंबई में भी उनके खिलाफ जुलूस निकाले गए. लेकिन संघी आतंकवाद को करकरे के हाथों दण्डित होना नहीं लिखा था . पाकिस्तानी आतंकवाद के सरगना हाफ़िज़ सईद ने जब मुंबई के ऊपर हमला करवाया तो पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हेमंत करकरे को ही मार डाला . हालांकि आज संघी बिरादरी ,शहीद हेमंत करकरे के लिए बहुत बड़ी बातें करती है लेकिन उनके जीवन काल में यह लोग उनके दुश्मन बन गए थे. ऐसा शायद इसलिए हुआ था कि संघ के सह्योगी संगठन , अभिनव भारत के बैनर तले काम करने वाले आतंकवादियों को पकड़ कर हेमंत करकरे ने आर एस एस का एक बहुत बड़ा हथियार छीन लिया था . हेमंत करकरे ने जब पुलिस सेवा के सर्वोच्च मानदंडों का परिचय देते हुए संघी आतंकवाद के कारनामों का पर्दाफाश किया उसके पहले ,आर एस एस और उसके मातहत संगठनों के लोग कहते पाए जाते थे कि ' हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता ,लेकिन हर आतंकवादी मुस्लिम होता है .' जब करकरे ने आर एस एस और उसके अधीन संगठनों से जुड़े हुए लोगों को पकड़ लिया तो आर एस एस का मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल होने वाला सबसे धारदार हथियार बेकार हो गया . शायद इसीलिए आर एस एस के दिमाग में करकरे के लिए भारी नफरत थी. बहुत कम लोगों को मालूम है कि जिस दिन करकरे की अंत्येष्टि हुई , उसी दिन आर एस एस ने उनके खिलाफ बहुत बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन का आयोजन कर रखा था. लेकिन जब वह बहादुर शहीद हो गया तो आनन् फानन में वह कार्यक्रम रद्द किया गया. दिल्ली में तो बहुत बड़ी संख्या में पोस्टर भी लगे थे . हो सकता है कि कभी कोई फोटोग्राफर उस सब को सार्वजनिक कर दे .
आर एस एस की कोशिश इस बार भी यही थी कि अर्ध सूचना और अर्ध सत्य के ज़रिये हर उस शख्स को घेर लिया जाएगा जो उनके खिलाफ बोलेगा . दिग्विजय सिंह पर हमला उसी रणनीति का हिस्सा है. इसे आर एस एस का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजकल नियंत्रित मीडिया का ज़माना नहीं रहा . अस्सी के दशक वाली बात तो रही नहीं . अब तो सैकड़ों की संख्या में टेलिविज़न न्यूज़ के चैनल हैं और वे हर तरह के सच को बयान करते रहते हैं शायद इसी वजह से अब आर एस एस और उसके साथ सहानुभूति रखने वाले अखबार दिग्विजय सिंह पर चौतरफा हमला बोल चुके हैं . खबर है कि आर एस एस दिग्विजय सिंह से बहुत नाराज़ है क्योकि उन्होंने संघी आतंकवाद को हिन्दू धर्म से बिलकुल अलग कर दिया है और अब आर एस एस के अखबार भी दिग्विजय को घेरने में जुटे हैं . . सच्चाई यह है कि दिग्विजय सिंह हमेशा से ही कहते रहे हैं भगवा रंग एक पवित्र रंग है और हिन्दू धर्म का आतंक से कोई लेना देना नहीं है . लेकिन यह भी सच है कि आर एस एस भी हिन्दुओं का प्रतिनिधि नहीं है .आर एस एस की मुसीबत यह है कि अब आर एस एस के हर झूठ को उनके अखबारों में तो खबर के रूप में प्रचार होता है लेकिन बाकी मीडिया में उनकी सच्चाई सामने आ जाती है . .दिग्विजय सिंह ने रविवार को इंदौर में संघी आतंकवाद को घेरा और कहा,मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट के वांछित आरोपियों संदीप डांगे और रामजी कलसांगरा को भी संघ प्रचारक सुनील जोशी की तरह कत्ल किया जा सकता है .उन्होंने कहा कि हैदराबाद की मक्का मस्जिद में धमाका, समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट और अजमेर की दरगाह में धमाके की साजिश हिंदू आतंकवाद नहीं बल्कि संघ आतंकवाद का एक रूप है। असीमानंद के कबूलनामे से साबित होता है कि संघ परिवार इन घटनाओं में शामिल है. दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया कि 2007 के समझौता एक्सप्रेस बम कांड के वांछितों संदीप डांगे, रामजी कलसांगरा तथा संघ के मृत प्रचारक सुनील जोशी का नाम लेते हुए कहा, फरारी के दौरान मध्य प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने न केवल उन्हें शरण दी, बल्कि आर्थिक मदद भी मुहैया कराई. सिंह ने आरोप लगाया कि संघ प्रचारक जोशी के हत्यारों को भी मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार संरक्षण देती रही है. दिग्विजय सिंह ने दावा किया कि जोशी अपनी हत्या से पहले सारे राज फाश करने की धमकी देकर कुछ नेताओं को ब्लैकमेल कर रहा था। इसी लिए उसे कत्ल करवा दिया गया . इस बीच खबर है कि मृतक सुनील जोशी के कस्बे , देवास में आर एस एस की एक रैली निकाली गयी और लोगों को बाकायदा धमकाया गया कि अगर आर एस एस आतंक का रास्ता पकड लेगा तो बहुत मुश्किल हो जायेगी
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