शेष नारायण सिंह
मिस्र में जनता सडकों पर है. अमरीकी हुकूमत की समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करे . दुविधा की स्थिति है . होस्नी मुबारक का जाना तो तय है लेकिन उनकी जगह किसको दी जाए ,यह अमरीका की सबसे बड़ी परेशानी है . मुबारक ने जिस पुलिस वाले को अपना उपराष्ट्रपति तैनात किया है , उसको अगर गद्दी देने में अमरीका सफल हो जाता है तो उसके लिए आसानी होगी लेकिन उसके सत्ता संभालने के बाद अवाम को शांत कर पाना मुश्किल होगा . जिस तरह से भ्रष्ट सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए लोग सड़क पर उतरे हैं, उनके तेवर अलग हैं . लगता नहीं कि वे आसानी से बेवक़ूफ़ बनाए जा सकते हैं .अमरीका की सबसे बड़ी चिंता यह है कि इस्लामी बुनियादपरस्त लोग सत्ता पर काबिज़ न हो जाएँ . अगर ऐसा हुआ तो अमरीकी विदेश नीति का एक मज़बूत किला ज़मींदोज़ हो जाएगा. काहिरा के तहरीर चौक पर जो दस लाख से भी ज्यादा लोग मंगलवार को दिन भर जमे रहे वे सरकार बदलने आये थे, लालीपाप खरीदने नहीं . दिलचस्प बात यह है कि मिस्र की फौज भी अब जनता के जायज़ आन्दोलन को समर्थन दे रही है . उसने साफ़ कह दिया है कि निहत्थे लोगों पर हथियार नहीं चलाये जायेगें . नतीजा यह हुआ कि मुबारक के हुक्म से तहरीर चौक पर फौजी टैंक तो लगा दिए गए लेकिन उनसे आम तौर पर जो दहशत पैदा होती है वह गायब थी. लोग टैंकों को भी अपना मान कर घूम रहे थे. फौज और सुरक्षा बलों के इस रुख के कारण जनता में संघर्ष की कोई बात नज़र नहीं आ रही थी. लगता था कि मेला लगा हुआ है और लोग पूरे परिवार के साथ तहरीर चौक पर पिकनिक का आनंद ले रहे हैं .लेकिन बुधवार को हालात बिगड़ गए. मुबारक ने ऊंटों और घोड़ों पर सवार अपने गुंडों को तहरीर चौक पर मार पीट करने के लिए भेज दिया .आरोप तो यह भी है कि वे पुलिस वाले थे और सादे कपड़ों में आये थे. उनको हिदायत दी गयी थी कि तहरीर चौक पर जो अवाम इकठ्ठा है उसे मार पीट कर भगाओ . ज़ाहिर है कि पिछले दस दिनों से जो कुछ भी काहिरा में हो रहा है वह सत्ता से पंगा लेने की राजनीति का नया उदाहरण है . जिस लोक शाही की बात बड़े बड़े विचारकों ने की है, उसी का एक नया आयाम है . इस सारे प्रकरण में बीबीसी, अल जजीरा ,अल अरबिया और सी एन एन के टेलिविज़न कैमरों की रिपोर्टिंग देखने का मौक़ा मिला . सी एन एन ने पहले भी इराक युद्ध में अपनी काबिलियत के झंडे गाड़े थे जब अमरीकी राष्ट्रपति बुश सीनियर ने कहा था कि उन्होंने इराक पर हमले का आदेश तो दे दिया था लेकिन उस आदेश को लागू होने की सबसे पहले जानकारी उनको भी सी एन एन से मिली. भारत में उन दिनों डिश टी वी सबके घरों में नहीं लगे थे लिहाज़ा कई होटलों में लोगों ने सी एन एन की कवरेज देखी थी . इस बार भी विदेशी चैनलों ने जिस तरह से काहिरा में करवट ले रहे इतिहास को दिखाया है उसकी तारीफ की जानी चाहिए. काहिरा के तहरीर चौक पर चारों तरफ राजनीति बिखरी पड़ी है और दुनिया भर के समाचार माध्यम उसको अपने दर्शकों को बता रहे हैं , उसकी बारीकियों को समझा रहे हैं . दुनिया भर से अरब मामलों के जानकार बुलाये जा रहे हैं और उनसे उनकी बात टेलिविज़न के माध्यम से पूरी दुनिया को दिखाई जा रही है लेकिन हमारे भारतीय चैनल इस बार भी पिछड़ गए हैं . खैर पिछड़ तो अपनी सरकार भी गयी है लेकिन वह फिर कभी . हमारे जिन चैनलों के पास काहिरा से लाइव टेलीकास्ट की सुविधा भी है वह भी बिलकुल बचकाने तरीके से काहिरा की जानकारी दे रहे हैं . देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार और दुनिया की सबसे बड़ी वायर एजेंसी की मदद से चल रहे एक अंग्रेज़ी चैनल की काहिरा की कवरेज बहुत ही निराशाजनक है . सबसे ज्यादा निराशा तो तब होती है जब करीब चार घंटे पहले हुई किसी घटना को अपना यह सबसे अच्छा अंग्रेज़ी चैनल ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह पेश करता है . अफ़सोस की बात यह है कि चैनल के करता धर्ता यह मानकर चलते हैं कि सारा देश उनका चैनल ही देख रहा है . जबकि सच्चाई यह है कि बस तो दो बटन दूर बीबीसी पर वही घटनाएं घंटों पहले दिखाई जा चुकी होती हैं. और उसकी व्याख्या भी विशेषज्ञों के करवाई जा चुकी होती है . उसी रायटर्स के फुटेज को लाइव देखे घंटों हो चुके होते हैं जब अपना रायटर्स का पार्टनर यह चैनल उनको अभी अभी आई ताज़ा तस्वीरें कह कर दिखाता है .अंग्रेज़ी के बाकी चैनलों का ज़िक्र करना यहाँ ठीक नहीं होगा क्योंकि किसी की कमी को उदाहरण के तौर पर एकाध बार तो इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन उनकी कमजोरी का बार बार ज़िक्र करके उनके घाव पर नमक छिड़कना बदतमीजी होगी. हिन्दी के समाचार माध्यमों की तो बात ही और है . उनको तो दिल्ली में रहने वाले उनके मित्र नेताओं के ज्ञान को ही हर जगह दिखाना होता है . उनका ज़िक्र न किया जाए तो ही सही रहेगा . सवाल यह उठता है कि एक ही तरह की घटना ,एक ही तरह की सूचना और एक ही तरह की सच्चाई को हमारे चैनलों के सर्वज्ञानी भाई लोग पकड़ क्यों नहीं पाते . क्यों नहीं हमें अपने माध्यमों से सारी जानकारी मिल जाती जबकि विजुअल वही होते हैं जो विदेशी चैनलों की पास होते हैं.
ऐसा लगता है कि अपने खबरिया माध्यमों में बैठे लोग राजनीति की बारीक समझ का कौशल नहीं रखते . एक नामी टीवी न्यूज़ चैनल को कुछ वर्षों तक अन्दर से देखने पर यह समझ में आया था कि खबर को उसके सही संदर्भ में पेश करना कोई आसान काम नहीं है . अखबार में तो बड़ा सा लेख लिखकर अपनी बात को समझा देने की आज़ादी रहती है लेकिन टी वी में ऐसा नहीं होता . उसी चैनल के संस्थापक ने अंतर राष्ट्रीय ख़बरों को उनकी सही पृष्ठभूमि के साथ पेश करने की परंपरा कायम की थी लेकिन समझ में नहीं आता था कि उनके ही संगठन में लोग आन क तान खबरें क्यों पेश करते थे. .गहराई से गौर करने पर समझ में आया कि उन बेचारों को सारी बातें मालूम ही नईं होतीं थीं और दंभ इतना होता था कि वे किसी और से पूछते नहीं . नतीजा यह होता है कि घंटों तक चीन की राजधानी बीजिंग के बजाए शंघाई को बताया जाता था . देश की आतंरिक राजनीति में भी इसी तरह के लाल बुझक्कड़ शैली के ज्ञान से श्रोता को अभिभूत करने की होड़ लगी रहती है ..
ज़ाहिर है कि अगर देश के समाचार माध्यमों को सूचना क्रान्ति की रफ्तार के साथ आगे बढ़ना है तो राजनीति की बारीक समझ को टी वी न्यूज़ का स्थायी भाव बनाना पड़ेगा .टेलिविज़न के श्रोता को वही खबर चाहिए चाहिए जो राजनीति की बारीकियों को स्पष्ट करे . यह राजनीति सत्ता की भी हो सकती है , सिनेमा की भी,परिवार की भी या खेती किसानी की भी . खबरें स्तरीय तभी होंगी जब हर तरह की राजनीति के विश्लेषण को खबरों की आत्मा की तरह प्रस्तुत किया जाएगा . वरना हमारे समाचार माध्यमों के हाथ आया सूचना क्रान्ति का यह स्वर्णिम मौक़ा हाथ से निकल जाएगा
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Thursday, February 3, 2011
Tuesday, February 1, 2011
मिस्र में अमरीकी विदेशनीति की अग्नि परीक्षा की घड़ी
शेष नारायण सिंह
काहिरा के तहरीर चौक पर आज लाखों लोग जमा हैं और हर हाल में सत्ता पर कुण्डली मारकर बैठे तानाशाह से पिंड छुडाना चाहते हैं . जहां तक मिस्र की जनता का सवाल है , वह तो अब होस्नी मुबारक को हटाने के पहले चैन से बैठने वाली नहीं है लेकिन अमरीका का रुख अब तक का सबसे बड़ा अडंगा माना जा रहा है. बहरहाल अब तस्वीर बदलती नज़र आ रही है . शुरुआती हीला हवाली के बाद अब अमरीका की समझ में आने लगा है कि मिस्र में जो जनता उठ खडी हुई है उसको आगे भी बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता . अब लगने लगा है कि अमरीकी विदेशनीति के प्रबन्धक वहां के तानाशाह , होस्नी मुबारक को कंडम करने के बारे में सोचने लगे हैं . यह अलग बात है अभी सोमवार तक विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन इसी चक्कर में थीं कि मिस्र में सत्ता परिवर्तन ही हो . यानी अमरीकी हितों का कोई नया चौकी दार तैनात हो जाए जो होस्नी मुबारक का ही कोई बंदा हो कहीं . मुबारक मिस्र से हटकर कहीं और बस जाएँ और मौज की ज़िंदगी बिताते रहें . अपने प्रिय तानाशाहों के साथ अमरीका ऐसा ही करता रहा है . लेकिन इस बार अवाम का दबाव इतना है कि तिकड़म के कूटनीति के लिए कोई स्पेस नहीं बचा है . होस्नी मुबारक की फौज का लगभग सारा खर्च अमरीकी सैन्य सहायता से पूरा होता है . अमरीका मिस्र के लिए हर साल क़रीब डेढ़ अरब डालर की फौजी मदद का इंतज़ाम करता है .इस साल भी यह मदद की जा रही है . पिछले हफ्ते राष्ट्रपति ओबामा ने ऐलान किया था कि यह मदद बंद कर दी जायेगी लेकिन ऐसा होने वाला नहीं है. मिस्र की मज़बूत फौज मिस्र से ज्यादा इजरायल के काम आती है . उसी फौज़ की वजह से पश्चिम एशिया में इज़रायल की सुरक्षा सुनिश्चित होती है . जहां तक अमरीका का सवाल है वह इजरायल की बदमाशी के कारण ही पश्चिमी एशिया और अरब देशों में अपनी राजनीति को चमकाता है . इसलिए इजरायल किसी भी हालत में मिस्र की सेना को कमज़ोर नहीं होने देगा . लेकिन आज इज़रायल और अमरीका की चिंताएं दूसरी हैं . जो लाखों लोग आज तहरीर चौक पर जमा हैं , उनकी राजनीति के बारे में किसी को पता नहीं हैं . उनका कोई नेता नहीं है . हालांकि अभी तक वह आन्दोलन पूरी तरह से महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक विषमता को केंद्र में रख कर चलाया जा रहा है लेकिन खबर है कि इस्लामी ब्रदरहुड नाम की संस्था ने अगुवाई करने की कोशिश शुरू कर दी है . इस संगठन के प्रभाव वाली सरकार न तो अमरीका को सूट करेगी और न ही उसे इज़रायल स्वीकार करेगा . ज़ाहिर है कि अमरीका की कोशिश है कि होस्नी मुबारक को अगर हटाना ही पड़ता है तो वह उसे हटा तो देगा लेकिन उनकी गह पर वह किसी इस्लामी प्रभाव वाली सरकार को बर्दाश्त नहीं करेगा . इरान में शाह रजा पहलवी की सरकार घोषित रूप से अमरीका परस्त सरकार थी . शाह के खिलाफ जब आन्दोलन ने जोर पकड़ा तो अमरीका गाफिल पड़ गया और वहां इस्लामी सरकार बन गयी . आज तक अमरीकी विदेश नीति के प्रबंधक अमरीका के उस वक़्त के विदेश नीति के प्रबंधकों को कोसते पाए जाते हैं . इसलिए अमरीका किसी कीमत पर मिस्र में इरान वाली गलती नहीं दोहराना चाहता . शायद इसीलिये जांचे परखे अमरीका के दोस्त , अल बरदेई को आगे किया गया है . संयुक्त राष्ट्र के परमाणु इन्स्पेक्टर के रूप में वे अमरीकी हुक्म को पालन करने का तजुर्बा रखते हैं . दुनिया भर में जाने जाते है और उनका अंतर राष्ट्रीय प्रोफाइल भी ठीक है . अब तक की स्थिति से लगता है कि अमरीका उन पर ही अपनी बाज़ी लगा रहा है . जो भी हो आज की तहरीर चौक की स्थिति ऐसी है कि अब अमीका को फ़ौरन से पेशतर मिस्र में सत्ता परिवर्तन के लिए तैयार हो जाना पड़ेगा .
काहिरा की सडकों पर जमे हुए लोगों को इरान की सरकार ने आज पूरा समर्थन कर दिया है . यह एक ऐसा समर्थन है जिसे मिस्र की अगली सरकार से अमरीका हर हाल में दूर रखना चाहेगा . शायद इसी हालत से बचने के लिए अमरीकी विदेश विभाग ने मिस्र में हो रहे बद्लाव पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए मिस्र में रह चुके अमरीकी राजदूत फ्रैंक विजनर को काहिरा के लिए रवाना कर दिया है . पश्चिमी एशिया में अमरीका के बहुत सारी दोस्त सरकारें हैं . सभी तानाशाही की सरकारें हैं और सभी उन गुनाहों में लिप्त हैं जिसकी वजह से होस्नी मुबारक को आज जाना पड़ रहा है . सभी सरकारों की नज़र अमरीका पर है . वे देख रहे हैं कि अपने हुक्म के एक गुलाम राष्ट्रपति को अमरीका कितना समर्थन दे पाता है . अमरीका के प्रति उनका रुख भी मिस्र की घटनाओं को ध्यान में रख कर ही तय होगा . लेकिन अमरीका की मजबूरी यह है कि वह अगर आज के बाद भी मुबारक को समर्थन देता है तो मिस्र की नयी सरकार के साथ उसको बहुत मुश्किल पेश आयेगी. ज़ाहिर है अमरीका का रास्ता बहुत मुश्किल हो गया है. उसकी हालत यह है कि उसके सामने आग का दरिया है और तैरना भी ज़रूरी है . मिस्र में सत्ता के बदलाव का असर पश्चिम एशिया की कूटनीति पर तो पडेगा ही बाकी दुनिया में भी अमरीकी विदेश नीति की अग्निपरीक्षा होने वाली है .
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काहिरा के तहरीर चौक पर आज लाखों लोग जमा हैं और हर हाल में सत्ता पर कुण्डली मारकर बैठे तानाशाह से पिंड छुडाना चाहते हैं . जहां तक मिस्र की जनता का सवाल है , वह तो अब होस्नी मुबारक को हटाने के पहले चैन से बैठने वाली नहीं है लेकिन अमरीका का रुख अब तक का सबसे बड़ा अडंगा माना जा रहा है. बहरहाल अब तस्वीर बदलती नज़र आ रही है . शुरुआती हीला हवाली के बाद अब अमरीका की समझ में आने लगा है कि मिस्र में जो जनता उठ खडी हुई है उसको आगे भी बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता . अब लगने लगा है कि अमरीकी विदेशनीति के प्रबन्धक वहां के तानाशाह , होस्नी मुबारक को कंडम करने के बारे में सोचने लगे हैं . यह अलग बात है अभी सोमवार तक विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन इसी चक्कर में थीं कि मिस्र में सत्ता परिवर्तन ही हो . यानी अमरीकी हितों का कोई नया चौकी दार तैनात हो जाए जो होस्नी मुबारक का ही कोई बंदा हो कहीं . मुबारक मिस्र से हटकर कहीं और बस जाएँ और मौज की ज़िंदगी बिताते रहें . अपने प्रिय तानाशाहों के साथ अमरीका ऐसा ही करता रहा है . लेकिन इस बार अवाम का दबाव इतना है कि तिकड़म के कूटनीति के लिए कोई स्पेस नहीं बचा है . होस्नी मुबारक की फौज का लगभग सारा खर्च अमरीकी सैन्य सहायता से पूरा होता है . अमरीका मिस्र के लिए हर साल क़रीब डेढ़ अरब डालर की फौजी मदद का इंतज़ाम करता है .इस साल भी यह मदद की जा रही है . पिछले हफ्ते राष्ट्रपति ओबामा ने ऐलान किया था कि यह मदद बंद कर दी जायेगी लेकिन ऐसा होने वाला नहीं है. मिस्र की मज़बूत फौज मिस्र से ज्यादा इजरायल के काम आती है . उसी फौज़ की वजह से पश्चिम एशिया में इज़रायल की सुरक्षा सुनिश्चित होती है . जहां तक अमरीका का सवाल है वह इजरायल की बदमाशी के कारण ही पश्चिमी एशिया और अरब देशों में अपनी राजनीति को चमकाता है . इसलिए इजरायल किसी भी हालत में मिस्र की सेना को कमज़ोर नहीं होने देगा . लेकिन आज इज़रायल और अमरीका की चिंताएं दूसरी हैं . जो लाखों लोग आज तहरीर चौक पर जमा हैं , उनकी राजनीति के बारे में किसी को पता नहीं हैं . उनका कोई नेता नहीं है . हालांकि अभी तक वह आन्दोलन पूरी तरह से महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक विषमता को केंद्र में रख कर चलाया जा रहा है लेकिन खबर है कि इस्लामी ब्रदरहुड नाम की संस्था ने अगुवाई करने की कोशिश शुरू कर दी है . इस संगठन के प्रभाव वाली सरकार न तो अमरीका को सूट करेगी और न ही उसे इज़रायल स्वीकार करेगा . ज़ाहिर है कि अमरीका की कोशिश है कि होस्नी मुबारक को अगर हटाना ही पड़ता है तो वह उसे हटा तो देगा लेकिन उनकी गह पर वह किसी इस्लामी प्रभाव वाली सरकार को बर्दाश्त नहीं करेगा . इरान में शाह रजा पहलवी की सरकार घोषित रूप से अमरीका परस्त सरकार थी . शाह के खिलाफ जब आन्दोलन ने जोर पकड़ा तो अमरीका गाफिल पड़ गया और वहां इस्लामी सरकार बन गयी . आज तक अमरीकी विदेश नीति के प्रबंधक अमरीका के उस वक़्त के विदेश नीति के प्रबंधकों को कोसते पाए जाते हैं . इसलिए अमरीका किसी कीमत पर मिस्र में इरान वाली गलती नहीं दोहराना चाहता . शायद इसीलिये जांचे परखे अमरीका के दोस्त , अल बरदेई को आगे किया गया है . संयुक्त राष्ट्र के परमाणु इन्स्पेक्टर के रूप में वे अमरीकी हुक्म को पालन करने का तजुर्बा रखते हैं . दुनिया भर में जाने जाते है और उनका अंतर राष्ट्रीय प्रोफाइल भी ठीक है . अब तक की स्थिति से लगता है कि अमरीका उन पर ही अपनी बाज़ी लगा रहा है . जो भी हो आज की तहरीर चौक की स्थिति ऐसी है कि अब अमीका को फ़ौरन से पेशतर मिस्र में सत्ता परिवर्तन के लिए तैयार हो जाना पड़ेगा .
काहिरा की सडकों पर जमे हुए लोगों को इरान की सरकार ने आज पूरा समर्थन कर दिया है . यह एक ऐसा समर्थन है जिसे मिस्र की अगली सरकार से अमरीका हर हाल में दूर रखना चाहेगा . शायद इसी हालत से बचने के लिए अमरीकी विदेश विभाग ने मिस्र में हो रहे बद्लाव पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए मिस्र में रह चुके अमरीकी राजदूत फ्रैंक विजनर को काहिरा के लिए रवाना कर दिया है . पश्चिमी एशिया में अमरीका के बहुत सारी दोस्त सरकारें हैं . सभी तानाशाही की सरकारें हैं और सभी उन गुनाहों में लिप्त हैं जिसकी वजह से होस्नी मुबारक को आज जाना पड़ रहा है . सभी सरकारों की नज़र अमरीका पर है . वे देख रहे हैं कि अपने हुक्म के एक गुलाम राष्ट्रपति को अमरीका कितना समर्थन दे पाता है . अमरीका के प्रति उनका रुख भी मिस्र की घटनाओं को ध्यान में रख कर ही तय होगा . लेकिन अमरीका की मजबूरी यह है कि वह अगर आज के बाद भी मुबारक को समर्थन देता है तो मिस्र की नयी सरकार के साथ उसको बहुत मुश्किल पेश आयेगी. ज़ाहिर है अमरीका का रास्ता बहुत मुश्किल हो गया है. उसकी हालत यह है कि उसके सामने आग का दरिया है और तैरना भी ज़रूरी है . मिस्र में सत्ता के बदलाव का असर पश्चिम एशिया की कूटनीति पर तो पडेगा ही बाकी दुनिया में भी अमरीकी विदेश नीति की अग्निपरीक्षा होने वाली है .
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