शेष नारायण सिंह
श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने की बीजेपी की राजनीति पूरी तरह से उल्टी पड़ चुकी है . बीजेपी की अगुवाई वाले एन डी ए के संयोजक शरद यादव तो पहले ही इस झंडा यात्रा को गलत बता चुके हैं ,अब बिहार के मुख्य मंत्री और बीजेपी के महत्वपूर्ण सहयोगी नीतीश कुमार ने श्रीनगर में जाकर झंडा फहराने की जिद का विरोध किया है . शरद यादव ने तो साफ़ कहा है कि जम्मू कश्मीर में जो शान्ति स्थापित हो रही है उसको कमज़ोर करने के लिए की जा रही बीजेपी की झंडा यात्रा का फायदा उन लोगों को होगा जो भारत की एकता का विरोध करते हैं . नीतीश कुमार ने बीजेपी से अपील की है कि इस फालतू यात्रा को फ़ौरन रोक दे .सूचना क्रान्ति के चलते अब देश के बहुत बड़े मध्यवर्ग को मालूम चल चुका है कि झंडा फहराना बीजेपी की राजनीति का स्थायी भाव नहीं है , वह तो सुविधा के हिसाब से झंडा फहराती रहती है . . बीजेपी की मालिक आर एस एस के मुख्यालय पर २००३ तक कभी भी तिरंगा झंडा नहीं फहराया गया था. वो तो जब २००४ में तत्कालीन बीजेपी की नेता उमा भारती तिरंगा फहराने कर्नाटक के हुबली की ओर कूच कर चुकी थीं तो लोगों ने अखबारों में लिखा कि हुबली में झंडा फहराने के साथ साथ उमा भारती को नागपुर के आर एस एस के मुख्यालय में भी झंडा फहरा लेना चाहिए .,तब जाकर आर एस एस ने अपने दफ्तर पर झंडा फहराया . २००४ के विवाद के दौरान भी उतनी ही हडकंप मची थी जितनी आज मची हुई है लेकिन तब टेलीविज़न की खबरें इतनी विकसित नहीं थी इसलिए बीजेपी की धुलाई उतनी नहीं हुई थी जितनी कि आजकल हो रही है . तिरंगा फहराने के बहाने बहुत सारे सवाल भी बीजेपी वालों से पूछे जा रहे हैं. अभी कुछ साल पहले कुछ कांग्रेसी तिरंगा लेकर चल पड़े थे और उन्होंने ऐलान किया था कि वे आर एस एस के नागपुर मुख्यालय पर भी तिरंगा झंडा फहरा देगें . रास्ते में उन पर लाठियां बरसाई गयी थी. लोग सवाल पूछ रहे हैं कि उस वक़्त के तिरंगे से क्यों चिढी हुई थी बीजेपी जो महाराष्ट्र में अपनी सरकार का इस्तेमाल करके तिरंगा फहराने जा रहे कांग्रेसियों को पिटवाया था. जब उमा भारती ने २००४ हुबली में झंडा फहराने के लिए यात्रा की थी तो विद्वान् इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने प्रतिष्ठित अखबार ,हिन्दू में एक बहुत ही दिलचस्प लेख लिखा था .उन्होंने सवाल किया था कि बीजेपी आज क्यों इतनी ज्यादा राष्ट्रप्रेम की बात करती है . खुद ही उन्होंने जवाब का भी अंदाज़ लगाया था कि शायद इसलिए कि बीजेपी की मातृ पार्टी , आर एस एस ने आज़ादी की लड़ाई में कभी हिस्सा नहीं लिया था .१९३० और १९४० के दशक में जब आज़ादी की लड़ाई पूरे उफान पर थी तो आर एस एस का कोई भी आदमी या सदस्य उसमें शामिल नहीं हुआ था. यहाँ तक कि जहां भी तिरंगा फहराया गया , आर एस एस वालों ने कभी उसे सल्यूट तक नहीं किया .आर एस एस ने हमेशा ही भगवा झंडे को तिरंगे से ज्यादा महत्व दिया .३० जनवरी १९४८ को जब महात्मा गाँधी की ह्त्या कर दी गयी तो इस तरह की खबरें आई थीं कि आर एस एस के लोग तिरंगे झंडे को पैरों से रौंद रहे थे . यह खबर उन दिनों के अखबारों में खूब छपी थीं .आज़ादी के संग्राम में शामिल लोगों को आर एस एस की इस हरकत से बहुत तकलीफ हुई थी . उनमें जवाहरलाल नेहरू भी एक थे . २४ फरवरी को उन्होंने अपने एक भाषण में अपनी पीडा को व्यक्त किया था . उन्होंने कहा कि खबरें आ रही हैं कि आर एस एस के सदस्य तिरंगे का अपमान कर रहे हैं .. उन्हें मालूम होना चाहिए कि राष्ट्रीय झंडे का अपमान करके वे अपने आपको देशद्रोही साबित कर रहे हैं
यह तिरंगा हमारी आज़ादी के लड़ाई का स्थायी साथी रहा है जबकि आर एस एस वालों ने आज़ादी की लड़ाई में देश की जनता की भावनाओं का साथ नहीं दिया था. तिरंगे की अवधारना पूरी तरह से कांग्रेस की देन है . तिरंगे झंडे की बात सबसे पहले आन्ध्र प्रदेश के मसुलीपट्टम के कांग्रेसी कार्यकर्ता पी वेंकय्या के दिमाग में उपजी थी १९१८ और १९२१ के बीच हर कांग्रेस अधिवेशन में वे राष्ट्रीय झंडे को फहराने की बात करते थे . महात्मा गाँधी को यह विचार तो ठीक लगता था लेकिन उन्होंने वेंकय्या जी की डिजाइन में कुछ परिवर्तन सुझाए . गाँधी जी की बात को ध्यान में रहकर दिल्ली के देशभक्त लाला हंसराज ने सुझाव दिया कि बीच में चरखा लगा दिया जाए तो ज्यादा सही रहेगा . महात्मा गाँधी को लालाजी की बात अच्छी लगी और थोड़े बहुत परिवर्तन के बाद तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार कर लिया गया .उसके बाद कांग्रेस के सभी कार्यक्रमों में तिरंगा फहराया जाने लगा. अगस्त १९३१ में कांग्रेस की एक कमेटी बनायी गयी जिसने झंडे में कुछ परिवर्तन का सुझाव दिया . वेंकय्या के झंडे में लाल रंग था . उसकी जगह पर भगवा पट्टी कर दी गयी . उसके बाद सफ़ेद पट्टी और सबसे नीचे हरा रंग किया गया . चरखा बीच में सफ़ेद पट्टी पर सुपर इम्पोज कर दिया गया . महात्मा गाँधी ने इस परिवर्तन को सही बताया और कहा कि राष्ट्रीय ध्वज अहिंसा और राष्ट्रीय एकता की निशानी है .
आज़ादी मिलने के बाद तिरंगे में कुछ परिवर्तन किया गया . संविधान सभा की एक कमेटी ने तय किया कि उस वक़्त तक तिरंगा कांग्रेस के हर कार्यक्रम में फहराया जाता रहा है लेकिन अब देश सब का है . उन लोगों का भी जो आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों के मित्र के रूप में जाने जाते थे . इसलिए चरखे की जगह पर अशोक चक्र को लगाने का फैसला किया गया . जब महात्मा गाँधी को इसकी जानकारी दी गयी तो उन्हें ताज्जुब हुआ . बोले कि कांग्रेस तो हमेशा से ही राष्ट्रीय रही है . इसलिए इस तरह के बदलाव की कोई ज़रुरत नहीं है . लेकिन उन्हें नयी डिजाइन के बारे में राजी कर लिया गया . इस तिरंगे की यात्रा में बीजेपी या उसकी मालिक आर एस एस का कोई योगदान नहीं है लेकिन वह उसी के बल पर कांग्रेस को राजनीतिक रूप से घेरने में सफल होती नज़र आ रही है . अजीब बात यह है कि कांग्रेसी अपने इतिहास की बातें तक नहीं कर रहे हैं . अगर वे अपने इतिहास का हवाला देकर काम करें तो बीजेपी और आर एस एस को बहुत आसानी से घेरा जा सकता है और तिरंगे के नाम पर राजनीति करने से रोका जा सकता है .
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Tuesday, January 25, 2011
Monday, January 24, 2011
भावनात्मक मुद्दों पर राजनीतिक पैंतरेबाजी नहीं करनी चाहिए
शेष नारायण सिंह
राजनीति एक गंभीर विषय है . जब भी राजनीति को भावनात्मक मुद्दों के सहारे चलाने की कोशिश की जाती है, नतीजे बहुत ही भयानक होते हैं . राजनीति की गलती क्रिकेट की गलती नहीं है . जब राजनेता गलती करता है तो इतिहास बदलता है . आने वाली पीढ़ियों का भविष्य या तो सुधरता या तबाह होता है .इसलिए राजनीति को भावनात्मक धरातल पर कभी नहीं ले जाया जाना चाहिए. इस बात को समझने के लिए सबसे अच्छा उदाहरण पड़ोसी देश पाकिस्तान का है जहां आजादी के बाद से ही भावनात्मक मुद्दों को राजनीति का विषय बनाया गया और आज पाकिस्तानी राष्ट्र तबाही के कगार पर खड़ा है .आज़ादी के वक़्त हम भाग्यशाली थे कि हमारे नेता वास्तविकता के धरातल पर ही काम करते थे और देश में विकास की बुनियाद रख दी गयी. शिक्षा समेत हर क्षेत्र में जो काम हुआ उस से फौरी लाभ की उम्मीद तो नहीं थी लेकिन भविष्य के सुधरने की मज़बूत संभावना थी. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद हमारे यहाँ भी भावनात्मक मुद्दों को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश शुरू हो गयी. सबसे शुरुआती उदाहरण बंगलादेश के जन्म का है . पाकिस्तान के दो टुकड़े करके जब बंगलादेश की जनता ने अपनी आज़ादी जीती तो इंदिरा गाँधी ने उस जीत का सेहरा अपने सर लेकर बाद के जितने चुनाव हुए सबको भावनातमक धरातल पर जीतने की कोशिश की और काफी हद तक सफल भी रहीं लेकिन उसका नुकसान यह हुआ कि इंदिरा गाँधी यह समझ बैठीं कि चुनाव जीतने के लिए गंभीर राजनीति की नहीं भावनात्मक विषयों की ज़रुरत होती है . नतीजा यह हुआ कि १९७५ में सत्ता में बने रहने के लिए उन्हें इमरजेंसी लगानी पड़ी और १९७७ में सत्ता से बाहर कर दी गयीं .
लोगों की भावनाओं से खेलकर राजनीति का सबसे ताज़ा उदाहरण , बीजेपी की ओर से २६ जनवरी के दिन लाल चौक पर झंडा फहराने का है .अन्य पार्टियों के नेताओं के साथ साथ बीजेपी के नेताओं को मालूम है कि जम्मू-कश्मीर का मसला बहुत की नाजुक है . पिछली सरकारों की गलतियों की वजह से बात इतनी बिगड़ चुकी है कि देश की अखंडता को ख़तरा पैदा हो गया है . उन गलतियों के लिए कांग्रेस तो ज़िम्मेदार है ही, बीजेपी वाले भी कम ज़िम्मेदार नहीं है .पाकिस्तान के पिछले ६० साल से चल रहे अभियान की वजह से वहां की जनता में भारी असमंजस की स्थिति है. ऐसी हालत में बात को और बिगाड़ने की कोशिश करना निहायत ही गैर ज़िम्मेदार काम है . लेकिन लगता है कि प्रकृति ने ही बीजेपी को सज़ा दे दी है . पता चला है कि बीजेपी के झंडा फहराने वालों की भीड़ में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कश्मीर में पत्थर फेंकने वालों की जमात में शामिल थे. पुलिस को उनकी तलाश थी . जब वे पकड़ लिए गए तो बीजेपी के जम्मू-कश्मीर उपाध्यक्ष ने बयान दिया कि कश्मीर पंहुच रहे बीजेपी कार्यकर्ताओं का स्वागत करने के लिए जो टीम बनायी गयी थी उसके लोगों को पुलिस गिरफ्तार करके झंडा फहराने वाले कार्यक्रम को खराब करने की कोशिश की है . जब पुलिस ने कहा कि भाई, जिन लोगों को पकड़ा गया है वे तो पत्थर फेंकने वालों के सरगना रह चुके हैं तो बीजेपी के राज्य नेतृत्व के हाथों से तोते उड़ गए. उनकी वे सारी कोशिशें धरी रह गयीं जिसके तहत वे सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे थे .दरअसल इसमें बीजेपी की कोई गलती नहीं है. अब किसी भी पार्टी की रैली के लिए भीड़ जुटाने का काम भीड़ के ठेकेदारों को दे दिया जाता है . भीड़ में शामिल लोगों को पता नहीं रहता कि किस की तरफ से जा रहे हैं . जब वे टेम्पो में बैठ जाते हैं तो उन्हें बताया जाता है कि किस पार्टी के नेता की जय बोलनी है . भीड़ में आये लोगों को इस काम के लिए बाकायदा पैसा मिलता है . दिल्ली में यह काम बहुत अच्छी तरह से विकसित हो चुका है . राजनीतिक रैलियों को कवर करने वाले दिल्ली के सारे पत्रकार इस तरह के भीड़ के कांट्रेक्टरों को जानते हैं . कई बार तो किसी नेता के मरने पर रोने के लिए भी किराए की जनता आती है. यह कला कांग्रेसी राज में शुरू हुई जब इमरजेंसी के समर्थन में भीड़ जुटाने का काम दिल्ली में अर्जुन दास और सज्जन कुमार को १९७५ में दिया गया था .उस दौर में कांग्रेस से आम जनता बहुत नाराज़ थी . कोई आने को तैयार नहीं था .तो इन लोगों ने झुग्गी झोपडी कालोनियों से किराए की भीड़ जुटाया था . उसके बाद से तो इस तरह की भीड़ जुटाने का धंधा दिल्ली में पूरी तरह से चल रहा है . धीरे धीरे यह काम राज्यों में भी पंहुच गया . जम्मू कश्मीर में जिन पत्थर फेंकने वालों ने बीजेपी की भीड़ का हिस्सा बनने का धंधा किया था वे पकड़ लिए गए . यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है लेकिन बीजेपी के नेतृत्व के सामने खिसियाने के सिवा अब कोई और रास्ता नहीं बचा है . लेकिन जब अवाम की हिस्सेदारी के बिना किराए की भीड़ के साथ इस तरह का काम किया जाएगा तो उसके नतीजे भी राजनीतिक नहीं होंगें ,खिसियाने की नौबत बार बार आयेगी.
श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने के बारे में बीजेपी को इसके पहले भी एक बार खिसियाना पड़ा था जब प्रो मुरली मनोहर जोशी बीजेपी के अध्यक्ष थे और पीवी नरसिम्हा राव प्रधान मंत्री पद पर विराजमान थे. प्रो. जोशी के नेतृत्व में झंडा फहराने वालों की टोली दिल्ली से चल पड़ी. उम्मीद थी कि जनवरी की भारी ठण्ड में जम्मू-श्रीनगर हाइवे बंद रहेगा और श्रीनगर की अशांत स्थिति के मद्दे नज़र लोगों को जम्मू में ही रोक दिया जाएगा . पत्रकारों का एक दल भी साथ था . लेकिन जब डॉ जोशी जम्मू पंहुचे तो पी वी नरसिम्हा राव का बयान आ गया कि भारत में २६ जनवरी को झंडा फहराया जाता है . इस देश का कोई भी नागरिक देश के किसी भी कोने में झंडा फहरा सकता है . इसका मतलब यह हुआ कि डॉ जोशी को श्रीनगर जाकर झंडा फहराना पड़ेगा . गिरफ्तार होने की संभावना ख़त्म हो चुकी थी .पी वी नरसिम्हा राव ने सरकारी जहाज का इंतज़ाम करके जोशी जी की टीम को श्रीनगर पंहुचा दिया . २५ जनवरी के दिन लाल चौक पर एक बम धमाका भी हो गया जहां झंडा फहराया जाना था . ज़बरदस्त सुरक्षा के घेरे में जोशी जी की टीम लाल चौक ले जाई गयी और झंडा फहराने का काम शुरू हुआ. उनके साथ बीजेपी के कई और नेता भी थे. श्रीनगर की २६ जनवरी की ठण्ड में भी सब के माथे पर पसीना चमक रहा था . किस्मत की बात ऐसी कि जोशी जे ने झंडा उल्टा फहरा दिया . सुरक्षा का ज़बरदस्त बंदोबस्त था लिहाजा किसी को कोई चोट चपेट नहीं लगी. दिल्ली में बैठे बीजेपी में मौजूद जोशी जी के विरोधियों ने उस घटना का वर्णन खूब चटखारे लेकर किया. २४ घंटे की टी वी न्यूज़ का ज़माना नहीं था वरना पूरे देश ने इस दुर्दशा को देखा होता .
इस बार भी झंडा फहराने के मुद्दे पर अपशकुन शुरू हो गया है . देखना है कि अगले दो दिनों में भावनात्मक राजनीति किस तरह के मोड़ से होकर गुज़रती है . वैसे बीजेपी या उसकी पूर्वज जनसंघ की किस्मत में कश्मीर की खराब हालात से राजनीतिक लाभ लेना लिखा नहीं है. शुरुआती दौर में जनसंघ के नेता डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ भी यह हो चुका है . जब वे श्रीनगर जाने के लिए जम्मू पंहुचे तो उनके साथ जनसंघ के कार्यकर्ता के नाम पर वही लोग थे जो प्रजा परिषद् में रह चुके थे . गौर करने की बात यह है कि प्रजा परिषद् वही संगठन है जिसके लोग १९४७ में राजा के साथ थे जब वे जिन्ना के साथ जाने के चक्कर में थे. ज़ाहिर है कि जम्मू-कश्मीर में प्रजा परिषद् वालों की कोई इज्ज़त नहीं थी जिसकी वजह से डॉ श्यामप्रसाद मुखर्जी की पोजीशन भी खराब हुई थी . कुल मिलाकर ज़रूरी यह है कि राजनीति को गंभीर आचरण का विषय समझा जाना चाहिए और देश की एकता के खिलाफ काम कभी नहीं करना चाहिए .
राजनीति एक गंभीर विषय है . जब भी राजनीति को भावनात्मक मुद्दों के सहारे चलाने की कोशिश की जाती है, नतीजे बहुत ही भयानक होते हैं . राजनीति की गलती क्रिकेट की गलती नहीं है . जब राजनेता गलती करता है तो इतिहास बदलता है . आने वाली पीढ़ियों का भविष्य या तो सुधरता या तबाह होता है .इसलिए राजनीति को भावनात्मक धरातल पर कभी नहीं ले जाया जाना चाहिए. इस बात को समझने के लिए सबसे अच्छा उदाहरण पड़ोसी देश पाकिस्तान का है जहां आजादी के बाद से ही भावनात्मक मुद्दों को राजनीति का विषय बनाया गया और आज पाकिस्तानी राष्ट्र तबाही के कगार पर खड़ा है .आज़ादी के वक़्त हम भाग्यशाली थे कि हमारे नेता वास्तविकता के धरातल पर ही काम करते थे और देश में विकास की बुनियाद रख दी गयी. शिक्षा समेत हर क्षेत्र में जो काम हुआ उस से फौरी लाभ की उम्मीद तो नहीं थी लेकिन भविष्य के सुधरने की मज़बूत संभावना थी. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद हमारे यहाँ भी भावनात्मक मुद्दों को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश शुरू हो गयी. सबसे शुरुआती उदाहरण बंगलादेश के जन्म का है . पाकिस्तान के दो टुकड़े करके जब बंगलादेश की जनता ने अपनी आज़ादी जीती तो इंदिरा गाँधी ने उस जीत का सेहरा अपने सर लेकर बाद के जितने चुनाव हुए सबको भावनातमक धरातल पर जीतने की कोशिश की और काफी हद तक सफल भी रहीं लेकिन उसका नुकसान यह हुआ कि इंदिरा गाँधी यह समझ बैठीं कि चुनाव जीतने के लिए गंभीर राजनीति की नहीं भावनात्मक विषयों की ज़रुरत होती है . नतीजा यह हुआ कि १९७५ में सत्ता में बने रहने के लिए उन्हें इमरजेंसी लगानी पड़ी और १९७७ में सत्ता से बाहर कर दी गयीं .
लोगों की भावनाओं से खेलकर राजनीति का सबसे ताज़ा उदाहरण , बीजेपी की ओर से २६ जनवरी के दिन लाल चौक पर झंडा फहराने का है .अन्य पार्टियों के नेताओं के साथ साथ बीजेपी के नेताओं को मालूम है कि जम्मू-कश्मीर का मसला बहुत की नाजुक है . पिछली सरकारों की गलतियों की वजह से बात इतनी बिगड़ चुकी है कि देश की अखंडता को ख़तरा पैदा हो गया है . उन गलतियों के लिए कांग्रेस तो ज़िम्मेदार है ही, बीजेपी वाले भी कम ज़िम्मेदार नहीं है .पाकिस्तान के पिछले ६० साल से चल रहे अभियान की वजह से वहां की जनता में भारी असमंजस की स्थिति है. ऐसी हालत में बात को और बिगाड़ने की कोशिश करना निहायत ही गैर ज़िम्मेदार काम है . लेकिन लगता है कि प्रकृति ने ही बीजेपी को सज़ा दे दी है . पता चला है कि बीजेपी के झंडा फहराने वालों की भीड़ में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कश्मीर में पत्थर फेंकने वालों की जमात में शामिल थे. पुलिस को उनकी तलाश थी . जब वे पकड़ लिए गए तो बीजेपी के जम्मू-कश्मीर उपाध्यक्ष ने बयान दिया कि कश्मीर पंहुच रहे बीजेपी कार्यकर्ताओं का स्वागत करने के लिए जो टीम बनायी गयी थी उसके लोगों को पुलिस गिरफ्तार करके झंडा फहराने वाले कार्यक्रम को खराब करने की कोशिश की है . जब पुलिस ने कहा कि भाई, जिन लोगों को पकड़ा गया है वे तो पत्थर फेंकने वालों के सरगना रह चुके हैं तो बीजेपी के राज्य नेतृत्व के हाथों से तोते उड़ गए. उनकी वे सारी कोशिशें धरी रह गयीं जिसके तहत वे सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे थे .दरअसल इसमें बीजेपी की कोई गलती नहीं है. अब किसी भी पार्टी की रैली के लिए भीड़ जुटाने का काम भीड़ के ठेकेदारों को दे दिया जाता है . भीड़ में शामिल लोगों को पता नहीं रहता कि किस की तरफ से जा रहे हैं . जब वे टेम्पो में बैठ जाते हैं तो उन्हें बताया जाता है कि किस पार्टी के नेता की जय बोलनी है . भीड़ में आये लोगों को इस काम के लिए बाकायदा पैसा मिलता है . दिल्ली में यह काम बहुत अच्छी तरह से विकसित हो चुका है . राजनीतिक रैलियों को कवर करने वाले दिल्ली के सारे पत्रकार इस तरह के भीड़ के कांट्रेक्टरों को जानते हैं . कई बार तो किसी नेता के मरने पर रोने के लिए भी किराए की जनता आती है. यह कला कांग्रेसी राज में शुरू हुई जब इमरजेंसी के समर्थन में भीड़ जुटाने का काम दिल्ली में अर्जुन दास और सज्जन कुमार को १९७५ में दिया गया था .उस दौर में कांग्रेस से आम जनता बहुत नाराज़ थी . कोई आने को तैयार नहीं था .तो इन लोगों ने झुग्गी झोपडी कालोनियों से किराए की भीड़ जुटाया था . उसके बाद से तो इस तरह की भीड़ जुटाने का धंधा दिल्ली में पूरी तरह से चल रहा है . धीरे धीरे यह काम राज्यों में भी पंहुच गया . जम्मू कश्मीर में जिन पत्थर फेंकने वालों ने बीजेपी की भीड़ का हिस्सा बनने का धंधा किया था वे पकड़ लिए गए . यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है लेकिन बीजेपी के नेतृत्व के सामने खिसियाने के सिवा अब कोई और रास्ता नहीं बचा है . लेकिन जब अवाम की हिस्सेदारी के बिना किराए की भीड़ के साथ इस तरह का काम किया जाएगा तो उसके नतीजे भी राजनीतिक नहीं होंगें ,खिसियाने की नौबत बार बार आयेगी.
श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने के बारे में बीजेपी को इसके पहले भी एक बार खिसियाना पड़ा था जब प्रो मुरली मनोहर जोशी बीजेपी के अध्यक्ष थे और पीवी नरसिम्हा राव प्रधान मंत्री पद पर विराजमान थे. प्रो. जोशी के नेतृत्व में झंडा फहराने वालों की टोली दिल्ली से चल पड़ी. उम्मीद थी कि जनवरी की भारी ठण्ड में जम्मू-श्रीनगर हाइवे बंद रहेगा और श्रीनगर की अशांत स्थिति के मद्दे नज़र लोगों को जम्मू में ही रोक दिया जाएगा . पत्रकारों का एक दल भी साथ था . लेकिन जब डॉ जोशी जम्मू पंहुचे तो पी वी नरसिम्हा राव का बयान आ गया कि भारत में २६ जनवरी को झंडा फहराया जाता है . इस देश का कोई भी नागरिक देश के किसी भी कोने में झंडा फहरा सकता है . इसका मतलब यह हुआ कि डॉ जोशी को श्रीनगर जाकर झंडा फहराना पड़ेगा . गिरफ्तार होने की संभावना ख़त्म हो चुकी थी .पी वी नरसिम्हा राव ने सरकारी जहाज का इंतज़ाम करके जोशी जी की टीम को श्रीनगर पंहुचा दिया . २५ जनवरी के दिन लाल चौक पर एक बम धमाका भी हो गया जहां झंडा फहराया जाना था . ज़बरदस्त सुरक्षा के घेरे में जोशी जी की टीम लाल चौक ले जाई गयी और झंडा फहराने का काम शुरू हुआ. उनके साथ बीजेपी के कई और नेता भी थे. श्रीनगर की २६ जनवरी की ठण्ड में भी सब के माथे पर पसीना चमक रहा था . किस्मत की बात ऐसी कि जोशी जे ने झंडा उल्टा फहरा दिया . सुरक्षा का ज़बरदस्त बंदोबस्त था लिहाजा किसी को कोई चोट चपेट नहीं लगी. दिल्ली में बैठे बीजेपी में मौजूद जोशी जी के विरोधियों ने उस घटना का वर्णन खूब चटखारे लेकर किया. २४ घंटे की टी वी न्यूज़ का ज़माना नहीं था वरना पूरे देश ने इस दुर्दशा को देखा होता .
इस बार भी झंडा फहराने के मुद्दे पर अपशकुन शुरू हो गया है . देखना है कि अगले दो दिनों में भावनात्मक राजनीति किस तरह के मोड़ से होकर गुज़रती है . वैसे बीजेपी या उसकी पूर्वज जनसंघ की किस्मत में कश्मीर की खराब हालात से राजनीतिक लाभ लेना लिखा नहीं है. शुरुआती दौर में जनसंघ के नेता डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ भी यह हो चुका है . जब वे श्रीनगर जाने के लिए जम्मू पंहुचे तो उनके साथ जनसंघ के कार्यकर्ता के नाम पर वही लोग थे जो प्रजा परिषद् में रह चुके थे . गौर करने की बात यह है कि प्रजा परिषद् वही संगठन है जिसके लोग १९४७ में राजा के साथ थे जब वे जिन्ना के साथ जाने के चक्कर में थे. ज़ाहिर है कि जम्मू-कश्मीर में प्रजा परिषद् वालों की कोई इज्ज़त नहीं थी जिसकी वजह से डॉ श्यामप्रसाद मुखर्जी की पोजीशन भी खराब हुई थी . कुल मिलाकर ज़रूरी यह है कि राजनीति को गंभीर आचरण का विषय समझा जाना चाहिए और देश की एकता के खिलाफ काम कभी नहीं करना चाहिए .
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