शेष नारायण सिंह
बाढ़ के करण पकिस्तान में भारी तबाही आ गयी है . एक करोड़ घर तबाह हो गए हैं और करीब ५ करोड़ लोग बेघर हो गए हैं . इन लोगों को फ़ौरन मदद की ज़रुरत है .क्योंकि वे आसमान के नीचे रातें बिता रहे हैं . उनका सब कुछ लुट गया है . पंजाब और सिंध के सूबे भारी तबाही की चपेट में हैं . सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं ,उसके पास इतना धन नहीं है कि इन परेशान लोगों की मदद की जा सके. इनको किसी तरह की नार्मल ज़िंदगी मुहैया कराने के लिए कम से कम पांच हज़ार करोड़ रूपये की फौरी ज़रुरत है लेकिन अभी विदेशों और संयुक्त राष्ट्र की ओर से इसकी आधी रक़म का भी इंतज़ाम नहीं हो सका है . दुनिया के बाकी देश पाकिस्तान में सरकारों को गैर ज़िम्मेदार मानते रहे हैं इसलिए बहुत सारे दानदाता मदद के लिए नहीं आ रहे हैं . सुनामी के लिए अमरीका सहित पश्चिमी देशों ने भारी मदद की थी लेकिन अब वे भी हाथ खींचते नज़र आ रहे हैं . भारत ने आर्थिक सहायता का प्रस्ताव किया था लेकिन पाकिस्तान सरकार के लिए भारत से मदद लेने में राजनीतिक परेशानी है ,इसलिए उसने संयुक्त राष्ट्र के ज़रिये मदद भेजने की बात की है . पाकिस्तान सरकार में शीर्ष स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह से पश्चिम के देश कोई भी मदद करने में संकोच कर रहे हैं . सरकार इतनी बड़ी तबाही को संभाल पाने के लिए बिलकुल सक्षम नहीं है . पाकिस्तान के बहुत सारे शहरों से नौजवान लड़के लडकियां निकल पड़े हैं अपने देश के खस्ताहाल लोगों की मदद करने लेकिन उन्हें गावों के बारे में कोई जानकारी नहीं है और उनकी मुसीबत यह है कि सरकार की ओर से देहाती इलाकों में तैनात मुकामी कर्मचारी कहीं नज़र ही नहीं आ रहे हैं जिसके वजह से मदद के काम में किसी तरह का कोई सामंजस्य नहीं है. पाकिस्तान के अपने राजनेताओं का व्यवहार बहुत ही गैरजिम्मेदाराना है . वे एक दूसरे के ऊपर आरोप लगाते फिर रहे हैं . आपदा के शुरुआती दिनों में पाकिस्तानी राष्ट्रपति,आसिफ अली ज़रदारी की विदेश यात्रा के औचित्य पर रोज़ ही चर्चा हो रही है जो कि पूरी तरह से बेमतलब है . इस वक़्त तो पाकिस्तान की लगभग एक तिहाई आबादी बहुत बड़ी मुसीबत से गुज़र रही है और पाकिस्तानी राजनेता अपनी सियासत को चमक देने में लगा हुआ है . पाकिस्तानी राजनेताओं के इसी गैरजिम्मेदार आचरण के कारण संपन्न देशों के लोग बेमतलब सवाल पूछ रहे हैं . बी बी सी और सी एन एन टेलिविज़न ने पाकिस्तानी अवाम की मुसीबत को बहुत ही गंभीरता से लिया है .वे लगातार अपनी बुलेटिनों में पाकिस्तानी तबाही की तस्वीरें दिखा रहे हैं और बाकी दुनिया से अपील कर रहे हैं कि पाकिस्तानी सरकार के भ्रष्टाचार को कुछ वक़्त के लिएय नज़र अंदाज़ करके संयुक्त राष्ट्र और अन्य स्वयंसेवी संगठनों के ज़रिये पाकिस्तान की मुसीबत में पड़ी जनता को बचाने की कोशिश करें . इस सारे मामले में अमरीकी सरकार का रुख बहुत ही अमानवीय है . हालांकि वह अब तक सबसे बड़ा दानदाता देश है लेकिन जो अमरीका पाकिस्तान की फौज़ को तालिबान और अल कायदा के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए अरबों डालर की मदद कर रहा है उसकी तरफ से कुछ सौ करोड़ रूपये की मदद इतनी बड़ी मुसीबत के दौर में बहुत ही गलत बात लगती है . अमरीका को यह मालूम होना चाहिए कि पाकिस्तानी सेना के जो जवान उसके हित में काम कर रहे हैं और अफगानिस्तान, वजीरिस्तान, बलोचिस्तान और सूबा-ए-सरहद में अपनी जान हथेली पर लेकर अपने ही मुल्क के लोगों को मार रहे हैं , वे पाकिस्तान के ग्रामीण इलाकों से आते हैं . पाकिस्तानी फौज़ का एक बहुत बड़ा हिस्सा पाकिस्तानी पंजाब के उन गावों से भर्ती किया जाता है जहां इस वक़्त बाढ़ की तबाही फैली हुई है. अमरीका उनकी भी कोई मदद नहीं कर रहा है .
बी बी सी टेलिविज़न पर एक बहस में पश्चिम के कुछ राजनीतिक विश्लेषक यह कहते पाए गए कि पाकिस्तान की सरकारें हमेशा से ही गैर ज़िम्मेदार रही हैं और वे परमाणु बम बना रही हैं . इसलिए उनको सहायता देने का कोई मतलब नहीं है . पश्चिमी देशों के इन तथाकथित बुद्धिजीवियों की यह सोच बिलकुल वहशियाना है . क्या इस बात को सही ठहराया जा सकता है कि कि पाकिस्तानी सरकार और फौज बहुत ही भ्रष्ट संगठन हैं ,इसलिए वहां के लोगों को प्राक्रतिक आपदा की हालात में मरने के लिए छोड़ दिया जाए. पूरी दुनिया के देशों से अपील की जानी चाहिए कि इस वक़्त मुसीबत पाकिस्तानी सरकार पर नहीं आई है , मुसीबत पाकिस्तानी अवाम पर आई है. सब को चाहिए कि पाकिस्तानी सरकार की बे-ईमान नीतियों, भ्रष्टाचार और नाकाबिलियत को कुछ देर के लिए भुला दें और वहां की अवाम को मुसीबत के वक़्त अकेला न छोड़ दें . पाकिस्तान में जो करीब पांच करोड़ लोग मुसीबत ही हद से गुज़र रहे हैं वे सब इंसान हैं और अच्छे इंसान हैं . मान लिया कि पाकिस्तान सरकार बे-ईमान है लेकिन बाढ़ के शिकार लोग इस सरकार में शामिल नहीं हैं , वे इस सरकार की गलत नीतियों के शिकार हैं और पूरी दुनिया को इनकी मदद के लिए आगे आना चाहिए . हालांकि यह भी सच है कि इस मुसीबत की घड़ी में भी पाकिस्तानी अवाम को बरगलाने की हुक्मरान की कोशिश जारी है . आज ही खबर है कि पाकिस्तानी सेना सीमा पर भारतीय चौकियों पर रह रह कर गोलियां चला रही है जिस से वहां के अखबारों में ख़बरों का स्पेस फौज की इन ख़बरों से घिर जाए . इसके बावजूद भी पाकिस्तानी जनता के प्रति सब को सहानुभूति रखना चाहिए क्योंकि पाकिस्तान की सरकार और जनता में ज़मीन आसमान का फर्क है
Sunday, August 22, 2010
Saturday, August 21, 2010
दिल्ली के रोहिणी इलाके में मुसलमानों को धार्मिक आज़ादी नहीं
शेष नारायण सिंह
आज़ादी की लड़ाई की एक और विरासत को दिल्ली के रोहिणी इलाके में दफ़न किया जा रहा है . जंगे-आज़ादी के दौरान हमारे नेताओं ने कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि वे हिन्दुओं की आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं क्योंकि वे भारत की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे . अंगेजों की पूरी कोशिश थी के भारत को हन्दू और मुसलमान के बीच खाई के ज़रिये अलग कर दिया जाए लेकिन वे कामयाब नहीं हुए. कोशिश पूरी की लेकिन सफलता हाथ नहीं आई. उस काम के लिए उन्होंने दो संगठन खड़े किये . कभी कांगेस का ही हिस्सा रही मुस्लिम लीग को जिन्ना और लियाक़त अली के नेतृत्व में झाड़ पोछ कर भारत की आज़ादी के खिलाफ मैदान में उतारा और अंग्रेजों से माफी मांग चुके वी डी सावरकर का इस्तेमाल करके हिन्दू धर्म से अलग एक नयी विचारधारा को जन्म दिया जिसे हिंदुत्व कहा गया . सावरकर ने खुद बार बार कहा है कि हिंदुत्व वास्तव में एक राजनीतिक विचारधारा है . बहरहाल १९२४ में सावरकर की किताब , हिंदुत्व छप कर आई और १९२५ में अंग्रेजों ने नागपुर के एक डाक्टर को आगे करके आर एस एस की स्थापना करवा दी. . मुस्लिम लीग तो अपने मकसद में कामयाब हो गयी . जब वह भारत की आज़ादी को नहीं रोक पाई तो उसने भारत का बँटवारा ही करवा दिया और पाकिस्तान की स्थपाना हो गयी. आज जब पाकिस्तान की दुर्दशा देखते हैं तो समझ में आता है कि कितनी बड़ी गलती मुहम्मद अली जिन्ना ने की थी. लगता है कि मुसलमानों को नुकसान पंहुचाने वाला यह सबसे बड़ा राजनीतिक फैसला था. आर एस एस वाले कोशिश करते रहे लेकिन अँगरेज़ उन्हें कुछ नहीं दे सका . बाद में उनके साथियों ने की महात्मा गांधी को मारा लेकिन उसके बाद वे पूरी तरह से राजनीतिक हाशिये पर आ गए. आज़ादी के आन्दोलन के नेताओं के उत्तराधिकारी कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों में आबाद हो गए लेकिन वे आज़ादी की लड़ाई वाले कांग्रेसियों जैसे मज़बूत नहीं थे लिहाजा बाद के वक़्त में आर एस एस और उस से जुड़े संगठन ताक़तवर होते गए और अब उनकी ताक़त का खामियाजा हर जगह राष्ट्र को ही झेलना पड़ रहा है .कहीं आर एस एस लोग वाले महिलाओं को पीट रहे हैं तो कहीं और कुछ कारस्तानी कर रहे हैं .
आर एस एस की ताज़ा दादागीरी का मामला दिल्ली का है . उत्तरी दिल्ली के छोर पर बसे उप नगर रोहिणी में कोई मस्जिद नहीं थी . वहां रहने वालों ने डी डी ए में दरखास्त देकर करीब ३६० वर्ग मीटर का एक प्लाट ले लिया .जून २००९ में डी डी ए ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को प्लाट पर क़ब्ज़ा दे दिया . सरकारी चिट्ठी में साफ़ लिखा था कि ज़मीन मस्जिद के निर्माण के लिए दी जा रही है लेकिन जब २६ जून २००९ को मस्जिद के निर्माण का काम शुरू हुआ तो भगवा ब्रिगेड के लोग वहां पंहुच गए और मार पीट शुरू कर दी. वे माइक लेकर आये थे और पूरे जोर शोर से मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे थे . शुक्रवार का दिन था और वहां नमाज़ पढ़ कर काम शुरू होना था लेकिन हिन्दुत्ववादी गुंडों ने तूफ़ान खड़ा कर दिया. एक मजदूर का गला काट दिया . बाद में उसे अस्पताल ले जाया गया जहां उसकी जान बचा ली गयी . दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को आर एस एस के इरादों की भनक लग गयी थी इसलिए उन्होंने पहले ही पुलिस वालों को चौकन्ना कर दिया था लेकिन मामूली संख्या में मौजूद पुलिस वालों को भी भीड़ ने मारा पीटा और काम रुक गया. तुर्रा यह कि पुलिस ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी की ओर से एफ आई आर तक नहीं लिखा . जब इन लोगों ने कहा तो साफ़ मना कर दिया और कहा कि पुलिस ने अपनी तरफ से ही रिपोर्ट लिख ली है . वह रिपोर्ट हल्की थी , उसमें मजदूर के गले पर धारदार हथिआर से वार करने की बात का ज़िक्र तक नहीं किया गया था. लेकिन इसके बाद जो हुआ वह बहुत ही शर्मनाक है. डी डी ए ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को सूचित किया कि मुकामी रेज़ीडेंट वेलफेयर अशोसिशन के विरोध के कारण मस्जिद निर्माण के लिए किया गया अलाटमेंट रद्द किया जाता है . यह नौकरशाही में भगवा ब्रिगेड की घुसपैठ का एक मामूली उदाहरण है . बहर हाल मामला माइनारिटी कमीशन में ले जाया गया और उनके आदेश पर एक बार फिर प्लाट तो मिल गया है लेकिन आगे क्या होगा कोई नहीं जानता . अब बात अखबारों में छप गयी है तो मुसलमानों के वोट के चक्कर में राजनीतिक पार्टियों के नेता लोग हल्ला गुला तो ज़रूर करेगें लेकिन नतीजा क्या होगा कोई नहीं जानता . आर एस एस के लोगों की कोशिश है कि ऐसे मुद्दे उठाये जाएँ जिस से साम्प्रदायिकता का ज़हर फैले और हिन्दू उनकी तरफ एकजुट हों .
यह देश का दुर्भाग्य है कि आज देश में धर्म निरपेक्षता की लड़ाई लड़ने वाला कोई संगठन नहीं है . आर एस एस की रणनीति है कि इस तरह के मुद्दों को उठाकर वे अपने आपको हिन्दुओं का नेता साबित कर दें . ठीक उसी तरह जैसे जिन्ना ने १९४६ में किया था. हुआ यह था कि जिन्ना ने मांग की कि देश की आज़ादी के बारे में फैसला लेने के लिए जो कमेटी बन रही है ,उसमें मुसलमानों का नामांकन करने का अधिकार केवल जिन्ना को होना चाहिए . महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और नेहरू ने साफ़ मना कर दिया . नतीजा यह हुआ कि अपने कोटे के चार मुसलमानों को जिन्ना ने नामांकित किया जबकि कांग्रेस ने अपने कोटे से ३ मुसलमानों को नामांकित कर दिया . और जिन्ना का मुसलमानों का खैरख्वाह बनने का सपना धरा का धरा रह गया. बहरहाल जिस तरह से संघी ताक़तें लामबंद हो रही हैं वह बहुत ही खतरनाक है और देश की एकता को उस से ख़तरा है . कांग्रेस समेत सभी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों को चाहिए उसे फ़ौरन लगाम देने के लिए जागरूकता अभियान चलायें. भारत के संविधान में भी लिखा है कि इस देश में हर आदमी को अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी है. और अगर रोहिणी के मुसलमान अपने धर्म का पालन न कर सके तो संविधान के अनुच्छेद २५ का सीधे तौर पर उन्लंघन होगा . अनुच्छेद २५ में साफ़ लिखा है कि भारत के हर नागरिक को अपने धर्म के पालन की पूरी आज़ादी है . इसलिए देश की आबादी के बीस फीसदी को हम उनके अधिकारों से वंचित नहीं रख सकते.
आज़ादी की लड़ाई की एक और विरासत को दिल्ली के रोहिणी इलाके में दफ़न किया जा रहा है . जंगे-आज़ादी के दौरान हमारे नेताओं ने कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि वे हिन्दुओं की आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं क्योंकि वे भारत की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे . अंगेजों की पूरी कोशिश थी के भारत को हन्दू और मुसलमान के बीच खाई के ज़रिये अलग कर दिया जाए लेकिन वे कामयाब नहीं हुए. कोशिश पूरी की लेकिन सफलता हाथ नहीं आई. उस काम के लिए उन्होंने दो संगठन खड़े किये . कभी कांगेस का ही हिस्सा रही मुस्लिम लीग को जिन्ना और लियाक़त अली के नेतृत्व में झाड़ पोछ कर भारत की आज़ादी के खिलाफ मैदान में उतारा और अंग्रेजों से माफी मांग चुके वी डी सावरकर का इस्तेमाल करके हिन्दू धर्म से अलग एक नयी विचारधारा को जन्म दिया जिसे हिंदुत्व कहा गया . सावरकर ने खुद बार बार कहा है कि हिंदुत्व वास्तव में एक राजनीतिक विचारधारा है . बहरहाल १९२४ में सावरकर की किताब , हिंदुत्व छप कर आई और १९२५ में अंग्रेजों ने नागपुर के एक डाक्टर को आगे करके आर एस एस की स्थापना करवा दी. . मुस्लिम लीग तो अपने मकसद में कामयाब हो गयी . जब वह भारत की आज़ादी को नहीं रोक पाई तो उसने भारत का बँटवारा ही करवा दिया और पाकिस्तान की स्थपाना हो गयी. आज जब पाकिस्तान की दुर्दशा देखते हैं तो समझ में आता है कि कितनी बड़ी गलती मुहम्मद अली जिन्ना ने की थी. लगता है कि मुसलमानों को नुकसान पंहुचाने वाला यह सबसे बड़ा राजनीतिक फैसला था. आर एस एस वाले कोशिश करते रहे लेकिन अँगरेज़ उन्हें कुछ नहीं दे सका . बाद में उनके साथियों ने की महात्मा गांधी को मारा लेकिन उसके बाद वे पूरी तरह से राजनीतिक हाशिये पर आ गए. आज़ादी के आन्दोलन के नेताओं के उत्तराधिकारी कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों में आबाद हो गए लेकिन वे आज़ादी की लड़ाई वाले कांग्रेसियों जैसे मज़बूत नहीं थे लिहाजा बाद के वक़्त में आर एस एस और उस से जुड़े संगठन ताक़तवर होते गए और अब उनकी ताक़त का खामियाजा हर जगह राष्ट्र को ही झेलना पड़ रहा है .कहीं आर एस एस लोग वाले महिलाओं को पीट रहे हैं तो कहीं और कुछ कारस्तानी कर रहे हैं .
आर एस एस की ताज़ा दादागीरी का मामला दिल्ली का है . उत्तरी दिल्ली के छोर पर बसे उप नगर रोहिणी में कोई मस्जिद नहीं थी . वहां रहने वालों ने डी डी ए में दरखास्त देकर करीब ३६० वर्ग मीटर का एक प्लाट ले लिया .जून २००९ में डी डी ए ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को प्लाट पर क़ब्ज़ा दे दिया . सरकारी चिट्ठी में साफ़ लिखा था कि ज़मीन मस्जिद के निर्माण के लिए दी जा रही है लेकिन जब २६ जून २००९ को मस्जिद के निर्माण का काम शुरू हुआ तो भगवा ब्रिगेड के लोग वहां पंहुच गए और मार पीट शुरू कर दी. वे माइक लेकर आये थे और पूरे जोर शोर से मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे थे . शुक्रवार का दिन था और वहां नमाज़ पढ़ कर काम शुरू होना था लेकिन हिन्दुत्ववादी गुंडों ने तूफ़ान खड़ा कर दिया. एक मजदूर का गला काट दिया . बाद में उसे अस्पताल ले जाया गया जहां उसकी जान बचा ली गयी . दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को आर एस एस के इरादों की भनक लग गयी थी इसलिए उन्होंने पहले ही पुलिस वालों को चौकन्ना कर दिया था लेकिन मामूली संख्या में मौजूद पुलिस वालों को भी भीड़ ने मारा पीटा और काम रुक गया. तुर्रा यह कि पुलिस ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी की ओर से एफ आई आर तक नहीं लिखा . जब इन लोगों ने कहा तो साफ़ मना कर दिया और कहा कि पुलिस ने अपनी तरफ से ही रिपोर्ट लिख ली है . वह रिपोर्ट हल्की थी , उसमें मजदूर के गले पर धारदार हथिआर से वार करने की बात का ज़िक्र तक नहीं किया गया था. लेकिन इसके बाद जो हुआ वह बहुत ही शर्मनाक है. डी डी ए ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को सूचित किया कि मुकामी रेज़ीडेंट वेलफेयर अशोसिशन के विरोध के कारण मस्जिद निर्माण के लिए किया गया अलाटमेंट रद्द किया जाता है . यह नौकरशाही में भगवा ब्रिगेड की घुसपैठ का एक मामूली उदाहरण है . बहर हाल मामला माइनारिटी कमीशन में ले जाया गया और उनके आदेश पर एक बार फिर प्लाट तो मिल गया है लेकिन आगे क्या होगा कोई नहीं जानता . अब बात अखबारों में छप गयी है तो मुसलमानों के वोट के चक्कर में राजनीतिक पार्टियों के नेता लोग हल्ला गुला तो ज़रूर करेगें लेकिन नतीजा क्या होगा कोई नहीं जानता . आर एस एस के लोगों की कोशिश है कि ऐसे मुद्दे उठाये जाएँ जिस से साम्प्रदायिकता का ज़हर फैले और हिन्दू उनकी तरफ एकजुट हों .
यह देश का दुर्भाग्य है कि आज देश में धर्म निरपेक्षता की लड़ाई लड़ने वाला कोई संगठन नहीं है . आर एस एस की रणनीति है कि इस तरह के मुद्दों को उठाकर वे अपने आपको हिन्दुओं का नेता साबित कर दें . ठीक उसी तरह जैसे जिन्ना ने १९४६ में किया था. हुआ यह था कि जिन्ना ने मांग की कि देश की आज़ादी के बारे में फैसला लेने के लिए जो कमेटी बन रही है ,उसमें मुसलमानों का नामांकन करने का अधिकार केवल जिन्ना को होना चाहिए . महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और नेहरू ने साफ़ मना कर दिया . नतीजा यह हुआ कि अपने कोटे के चार मुसलमानों को जिन्ना ने नामांकित किया जबकि कांग्रेस ने अपने कोटे से ३ मुसलमानों को नामांकित कर दिया . और जिन्ना का मुसलमानों का खैरख्वाह बनने का सपना धरा का धरा रह गया. बहरहाल जिस तरह से संघी ताक़तें लामबंद हो रही हैं वह बहुत ही खतरनाक है और देश की एकता को उस से ख़तरा है . कांग्रेस समेत सभी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों को चाहिए उसे फ़ौरन लगाम देने के लिए जागरूकता अभियान चलायें. भारत के संविधान में भी लिखा है कि इस देश में हर आदमी को अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी है. और अगर रोहिणी के मुसलमान अपने धर्म का पालन न कर सके तो संविधान के अनुच्छेद २५ का सीधे तौर पर उन्लंघन होगा . अनुच्छेद २५ में साफ़ लिखा है कि भारत के हर नागरिक को अपने धर्म के पालन की पूरी आज़ादी है . इसलिए देश की आबादी के बीस फीसदी को हम उनके अधिकारों से वंचित नहीं रख सकते.
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Thursday, August 19, 2010
फिल्म शोले का जश्न और सरकारी आतंक को जनता का जवाब
शेष नारायण सिंह
35 साल पहले १९७५ के स्वतंत्रता दिवस पर फिल्म शोले रिलीज़ हुई थी. इस शुरुआत तो बहुत मामूली थी लेकिन कुछ ही दिनों में यह फिल्म पूरे देश में चर्चा का विषय बन गयी. उस फिल्म में आनंद और ज़ंजीर जैसी फिल्मों से थोडा नाम कमा चुके अमिताभ बच्चन थे तो उस वक़्त के ही-मैन धर्मेन्द्र भी थे .लेकिन फिल्म सबसे ज्यादा चर्चा में अमजद खां की वजह से आई . व्यापारिक लिहाज़ से फिल्म बहुत ही सफल रही. बहुत सारी व्याख्याएं हैं यह बताने के लिए कि क्यों यह फिल्म इतनी सफल रही लेकिन जो सबसे बड़ी बात है वह उसकी कहानी और उसकी भाषा है. आज के सबसे बेहतरीन फिल्म लेखक जावेद अख्तर के इम्तिहान की फिल्म थी यह. यक़ीन जैसी फ्लॉप फिल्मों से शुरू करके उन्होंने सलीम खां के साथ जोड़ी बनायी थी. जी पी सिप्पी के बैनर के मुकामी लेखक थे. अंदाज़, सीता और गीता जैसी फिल्मों के लिए यह जोड़ी कहानी लिख चुकी थी . और जब शोले बनी तो कम दाम देकर इन्हीं लेखकों से कहानी और संवाद लिखवा लिए गए. और उसके बाद तो जिधर जाओ वहीं इस फिल्म के डायलाग सुनने को मिल जाते थे. वीडियो का चलन तो नहीं था लेकिन शोले के डायलाग बोलते हुए लोग कहीं भी मिल जाते थे. किसी बेवक़ूफ़ अफसर को अंग्रेजों के ज़माने का जेलर कह दिया जाता था . क्योंकि अपने इस डायलाग की वजह से असरानी सरकारी नाकारापन के सिम्बल बन गए थे. अमजद खां के डायलाग पूरी तरह से हिट हुए . इतने खूंखार डाकू का रोल किया था अमजद खां ने लेकिन वह सबका प्यारा हो गया. मीडिया का इतना विस्तार नहीं था ,कुछ फ़िल्मी पत्रिकाएं थीं, लेकिन धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान के ज़रिये आबादी की मुख्यधारा में ल्मों का ज़िक्र पंहुचता था . ऐसे माहौल में शोले का एक कल्ट फिल्म बनना एक पहेली थी जो शुरूमें समझ में नहीं आती थी. ऐसा लगता है कि इस फिल्म की सफलता में इसकी रिलीज़ के करीब दो महीन पहले लगी इमरजेंसी का सबसे ज्यादा योगदान था . सरकारी दमनतंत्र पूरे उफान पर था. हर पुलिस वाला किसी भी राह चलते को हड़का लेता था . बड़े शहरों में तो नेता लोग ही पकडे जा रहे थे लेकिन कस्बों में पुलिस ने हर उस आदमी को दुरुस्त करने का फैसला कर रखा था जो उसकी बात नहीं मानता था. दरोगा लोग उन व्यापारियों को बंद कर दे रहे थे जिन्होंने कभी उनका हुक्म नहीं माना था. हर कस्बे से जो व्यापारी पकडे गए, उन्हें डी आई आर में बंद किया गया. बहाने भी अजीब थे . मसलन अगर किसी ने अपनी दुकान पर रेट सही नहीं लिखा या बोर्ड पर स्टोर की सही जानकारी नहीं दी, उसे बंद कर दिया जाता. चार छेह दिन बंद रहने के बाद घूस-पात देकर लोग छूट जाते लेकिन नौकरशाही के आतंक का लोहा मान कर आते . आस पास भी ऐसा ही माहौल था. अखबार अब जैसे तो नहीं थे लेकिन जो भी अखबार थे उनमें यह खबरें बिलकुल नहीं छप सकती थीं क्योंकि सेंसर लागू था. बड़े नेताओं या राजनीति की वे खबरें जो कांग्रेस के खिलाफ होतीं वे भी नहीं छप सकती थी. आम तौर पर अखबारों में विकास की खबरें रहती थीं या कांग्रेसियों के वे भाषण जिसमें कहा गया रहता था कि इमरजेंसी की १०० नयी उपलब्धियां हैं , आइये इन्हें स्थायी बनाएं. या संजय गाँधी के वचन ,बातें कम ,काम ज्यादा को अखबारों में तरह तरह से प्रमुखता दी जाती थी . हर वह आदमी जो किसी रूप में सरकार का प्रतिनिधित्व करता था ,उसे देख कर लोग चिढ़ते थे लेकिन इमरजेंसी का आतंक था और कोई भी सरकारी अफसर के विरोध में एक शब्द नहीं बोल सकता था .
इस माहौल में शोले रिलीज़ हुई . इस फिल्म के पहले बहुत सारी फ़िल्में डाकुओं पर आधारित बनी थीं और बहुत सारे डाकू पसंद भी किये गए थे लेकिन उन डाकुओं में राबिनहुड का व्यक्तित्व मिलाया जाता था जिस से लोग उन्हें पसंद करें. मसलन कहीं डाकू किसी गरीब की मदद कर रहा होता था तो कहीं किसी लड़की को बचा रहा होता था और हीरो साहेब वह रोल कर रहे होते थे . डाकू का मानवीय चेहरा सामने आता था और वह सहानुभूति का पात्र बन जाता था लेकिन शोले का डाकू ऐसे किसी काम में नहीं शामिल था. वह खतरनाक था, खूंखार था और गरीब आदमियों के खिलाफ था. किसी के हाथ काट लेता था, तो किसी गरीब आदमी के बच्चे की लाश उसके घर वालों के पास भेज देता था या किसी लडकी को मजबूर करता था . इसके बावजूद उसको १९७५-७६ की जनता ने कल्ट फिगर बनाया .किसी को पता भी नहीं था कि ऐसा क्यों हो रहा है लेकिन बाद में समझ में आया कि वह फिल्म इसलिए सफल हुई थी कि उसमें सरकार के दो प्रमुख संस्थान , पुलिस और जेल के खिलाफ माहौल बनाया गया था . बगावत करने वाले खूंखार डाकू को जनता अपनाने को तैयार थी लेकिन दोनों हाथ गंवा चुके पुलिस वाले से उसकी हमदर्दी नहीं थी. वास्तव में आम आदमी को राज्य के खिलाफ कुछ होता देखकर मज़ा आने लगा था. इसके अलावा अमजद खां, जावेद अख्तर और अमिताभ बच्चन की बुलंदी का दौर इसी फिल्म से शुरू होता है .अखबारों में विकास की ख़बरों के खिलाफ इस फिल्म को एक स्टेटमेंट के रूप में भी देखा गया था और शोले ने व्यापारिक सफलता के सारे रिकार्ड कायम किये . इसलिए आज ३५ साल बाद जब पीछे मुड़ कर देखते हैं तो लगता है कि किस तरह से सरकारी आतंक से दबी हुई जनता एक फिल्म को ही उत्सव का साधन बना लेती है.
35 साल पहले १९७५ के स्वतंत्रता दिवस पर फिल्म शोले रिलीज़ हुई थी. इस शुरुआत तो बहुत मामूली थी लेकिन कुछ ही दिनों में यह फिल्म पूरे देश में चर्चा का विषय बन गयी. उस फिल्म में आनंद और ज़ंजीर जैसी फिल्मों से थोडा नाम कमा चुके अमिताभ बच्चन थे तो उस वक़्त के ही-मैन धर्मेन्द्र भी थे .लेकिन फिल्म सबसे ज्यादा चर्चा में अमजद खां की वजह से आई . व्यापारिक लिहाज़ से फिल्म बहुत ही सफल रही. बहुत सारी व्याख्याएं हैं यह बताने के लिए कि क्यों यह फिल्म इतनी सफल रही लेकिन जो सबसे बड़ी बात है वह उसकी कहानी और उसकी भाषा है. आज के सबसे बेहतरीन फिल्म लेखक जावेद अख्तर के इम्तिहान की फिल्म थी यह. यक़ीन जैसी फ्लॉप फिल्मों से शुरू करके उन्होंने सलीम खां के साथ जोड़ी बनायी थी. जी पी सिप्पी के बैनर के मुकामी लेखक थे. अंदाज़, सीता और गीता जैसी फिल्मों के लिए यह जोड़ी कहानी लिख चुकी थी . और जब शोले बनी तो कम दाम देकर इन्हीं लेखकों से कहानी और संवाद लिखवा लिए गए. और उसके बाद तो जिधर जाओ वहीं इस फिल्म के डायलाग सुनने को मिल जाते थे. वीडियो का चलन तो नहीं था लेकिन शोले के डायलाग बोलते हुए लोग कहीं भी मिल जाते थे. किसी बेवक़ूफ़ अफसर को अंग्रेजों के ज़माने का जेलर कह दिया जाता था . क्योंकि अपने इस डायलाग की वजह से असरानी सरकारी नाकारापन के सिम्बल बन गए थे. अमजद खां के डायलाग पूरी तरह से हिट हुए . इतने खूंखार डाकू का रोल किया था अमजद खां ने लेकिन वह सबका प्यारा हो गया. मीडिया का इतना विस्तार नहीं था ,कुछ फ़िल्मी पत्रिकाएं थीं, लेकिन धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान के ज़रिये आबादी की मुख्यधारा में ल्मों का ज़िक्र पंहुचता था . ऐसे माहौल में शोले का एक कल्ट फिल्म बनना एक पहेली थी जो शुरूमें समझ में नहीं आती थी. ऐसा लगता है कि इस फिल्म की सफलता में इसकी रिलीज़ के करीब दो महीन पहले लगी इमरजेंसी का सबसे ज्यादा योगदान था . सरकारी दमनतंत्र पूरे उफान पर था. हर पुलिस वाला किसी भी राह चलते को हड़का लेता था . बड़े शहरों में तो नेता लोग ही पकडे जा रहे थे लेकिन कस्बों में पुलिस ने हर उस आदमी को दुरुस्त करने का फैसला कर रखा था जो उसकी बात नहीं मानता था. दरोगा लोग उन व्यापारियों को बंद कर दे रहे थे जिन्होंने कभी उनका हुक्म नहीं माना था. हर कस्बे से जो व्यापारी पकडे गए, उन्हें डी आई आर में बंद किया गया. बहाने भी अजीब थे . मसलन अगर किसी ने अपनी दुकान पर रेट सही नहीं लिखा या बोर्ड पर स्टोर की सही जानकारी नहीं दी, उसे बंद कर दिया जाता. चार छेह दिन बंद रहने के बाद घूस-पात देकर लोग छूट जाते लेकिन नौकरशाही के आतंक का लोहा मान कर आते . आस पास भी ऐसा ही माहौल था. अखबार अब जैसे तो नहीं थे लेकिन जो भी अखबार थे उनमें यह खबरें बिलकुल नहीं छप सकती थीं क्योंकि सेंसर लागू था. बड़े नेताओं या राजनीति की वे खबरें जो कांग्रेस के खिलाफ होतीं वे भी नहीं छप सकती थी. आम तौर पर अखबारों में विकास की खबरें रहती थीं या कांग्रेसियों के वे भाषण जिसमें कहा गया रहता था कि इमरजेंसी की १०० नयी उपलब्धियां हैं , आइये इन्हें स्थायी बनाएं. या संजय गाँधी के वचन ,बातें कम ,काम ज्यादा को अखबारों में तरह तरह से प्रमुखता दी जाती थी . हर वह आदमी जो किसी रूप में सरकार का प्रतिनिधित्व करता था ,उसे देख कर लोग चिढ़ते थे लेकिन इमरजेंसी का आतंक था और कोई भी सरकारी अफसर के विरोध में एक शब्द नहीं बोल सकता था .
इस माहौल में शोले रिलीज़ हुई . इस फिल्म के पहले बहुत सारी फ़िल्में डाकुओं पर आधारित बनी थीं और बहुत सारे डाकू पसंद भी किये गए थे लेकिन उन डाकुओं में राबिनहुड का व्यक्तित्व मिलाया जाता था जिस से लोग उन्हें पसंद करें. मसलन कहीं डाकू किसी गरीब की मदद कर रहा होता था तो कहीं किसी लड़की को बचा रहा होता था और हीरो साहेब वह रोल कर रहे होते थे . डाकू का मानवीय चेहरा सामने आता था और वह सहानुभूति का पात्र बन जाता था लेकिन शोले का डाकू ऐसे किसी काम में नहीं शामिल था. वह खतरनाक था, खूंखार था और गरीब आदमियों के खिलाफ था. किसी के हाथ काट लेता था, तो किसी गरीब आदमी के बच्चे की लाश उसके घर वालों के पास भेज देता था या किसी लडकी को मजबूर करता था . इसके बावजूद उसको १९७५-७६ की जनता ने कल्ट फिगर बनाया .किसी को पता भी नहीं था कि ऐसा क्यों हो रहा है लेकिन बाद में समझ में आया कि वह फिल्म इसलिए सफल हुई थी कि उसमें सरकार के दो प्रमुख संस्थान , पुलिस और जेल के खिलाफ माहौल बनाया गया था . बगावत करने वाले खूंखार डाकू को जनता अपनाने को तैयार थी लेकिन दोनों हाथ गंवा चुके पुलिस वाले से उसकी हमदर्दी नहीं थी. वास्तव में आम आदमी को राज्य के खिलाफ कुछ होता देखकर मज़ा आने लगा था. इसके अलावा अमजद खां, जावेद अख्तर और अमिताभ बच्चन की बुलंदी का दौर इसी फिल्म से शुरू होता है .अखबारों में विकास की ख़बरों के खिलाफ इस फिल्म को एक स्टेटमेंट के रूप में भी देखा गया था और शोले ने व्यापारिक सफलता के सारे रिकार्ड कायम किये . इसलिए आज ३५ साल बाद जब पीछे मुड़ कर देखते हैं तो लगता है कि किस तरह से सरकारी आतंक से दबी हुई जनता एक फिल्म को ही उत्सव का साधन बना लेती है.
Wednesday, August 18, 2010
जे एन यू में एक कवि को बेईज्ज़त कर रही है सत्ता और उसके एजेंट
शेष नारायण सिंह
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बार बार तनाशाही प्रवृत्तियाँ जन्म लेती रही हैं ,हालांकि उसका मूल चरित्र जनवादी ही रहा है .लगता है कि उसकी डिजाइन में ही तानाशाही को रोक देने का प्रोग्राम फिट है . यह अलग बात है कि अपनी स्थापना के पहले दशक में ही इस विश्वविद्यालय ने इमरजेंसी का आतंक देखा था. उसी इमरजेंसी में इस विश्वविद्यालय की जनता ने अपने साथियों को बेमतलब गिरफ्तार होते देखा था, एक प्रधानमंत्री की पुत्रवधू का आतंक देखा था.उस वक़्त जे एन यू का इलाका हौज़ ख़ास थाने में पड़ता था . वहां का दरोगा आतंक का पर्याय था ,उसी ने उस वक़्त के बड़े नेताओं , डी पी त्रिपाठी ,प्रबीर पुरकायस्थ आदि को गिरफ्तार किया था, उन दिनों सब को मालूम था कि मुखबिरी का काम प्रधानमंत्री के घर से ही हो रहा था. उसी दौर में इस विश्वविद्यालय ने बी डी नागचौधरी जैसे वाइस चांसलर को भी झेला था जो इमरजेंसी की कृपा से विश्वविद्यालय पर नाजिल कर दिया गया था . उसको हटाने के लिए बाद में आन्दोलन भी चला ,उसके तुगलक रोड स्थित घर पर नाईट विजिल भी की गयी. लेकिन जे एन यू के कैम्पस का स्थायी भाव हमेशा से ही जनवादी रहा . बीच बीच में क्षेपक आते रहे लेकिन उन्हें अपने अन्दर की ताक़त से यह यूनिवर्सिटी संभालती रही .लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कैम्पस में कुछ ऐसे तत्व भी प्रभावशाली होने लगे हैं जिनकी सोच और पोलिटिक्स का स्थायी भाव फासिज्म और दादागीरी है . उनकी वाणी बहुत ही संतुलित होगी, शिष्ट होगी और वे चुपचाप फासिज्म को लागू कर रहे होंगें . देखा गया है कि ऐसी प्रवृत्तियों के कारण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अब तानाशाही की बुनियादी बातें संस्थागत रूप ले रही हैं . अब उस विश्वविद्यालय से सहनशीलता गायब हो रही है . खबर आई है कि पिछले ३० वर्षों से कैम्पस में ही रह रहे एक कवि, रमाशंकर विद्रोही को वहां से बहाने की कोशिश चल रही है. हिन्दी विभाग के एक शोध छात्र ने मोहल्ला पोर्टल पर लिखा है कि विद्रोही को भगाया जा रहा है .छात्र ने लिखा है कि जे एन यू प्रशासन ने जनकवि विद्रोही को कैंपस निकाला दे दिया है। इस छात्र ने सूचना दी है कि यह कुछ दक्षिणपंथी छात्र संगठनों की कारस्तानी है। विद्रोही जी हमेशा से प्रगतिशील आंदोलन के पक्षधर रहे हैं। ये बात इन संगठनों और प्रशासन को रास नहीं आ रही .सब लोग जानते हैं कि विद्रोही जी कभी कभार सन्निपात के शिकार हो जाते हैं लेकिन आज तक होश में कभी भी उन्होंने किसी को कोई अपशब्द नहीं कहा। उनके खिलाफ षड्यंत्र करने वाले वही लोग हैं, जो किसी पुलिसिया कुलपति द्वारा पूरे हिंदी और गैर हिंदी लेखिकाओं को दी गयी गालियों पर खुश होते हैं। प्रशासन या शासन उनका कभी कुछ नहीं बिगाड़ता। इस छात्र ने सभी साथियों से अपील किया है कि वे प्रशासन के इस कदम का पुरजोर विरोध करें और प्रशासन को माफ़ी मांगने पर बाध्य किया जाए. कुछ छात्र कैम्पस में इस सरकारी फरमान के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं ताकि अपने आप को हिटलर और इदी अमीन समझने वाले प्रशासन को तानाशाही वाले इस फैसले को वापस लेने पर मजबूर किया जा सके. यह सच है कि विद्रोही न तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हैं और न ही वहां वे नौकरी करते हैं .लेकिन यह भी सच है कि अब वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एक अभिन्न अंग हैं . जिस पीढी के साथ उन्होंने कैम्पस में अपना छात्र जीवन शुरू किया था , उनके बच्चे भी अब विश्वविद्यालय में आ चुके हैं . जो जानते हैं उन्हें पता है कि वे कितनी मुसीबतों के दौर से गुज़रे हैं और यह भी कि जे एन यू की नयी पीढियां विद्रोही की उपस्थिति को पसंद करती हैं . पिछले ३० वर्षों में उन्होंने हिन्दी साहित्य को कुछ न कुछ दिया ही है . कैम्पस में उनके चाहने वाले विद्वानों की एक परंपरा है . उनकी कविताओं का एक पोर्टल भी छात्रों ने बना रखा है. इसलिए उन्हें भगाने का कोई कारण समझ में नहीं आता. वे विश्वविद्यालय के किसी काम में कोई अडंगा नहीं डालते तो उन्हें भगा देने की क्या ज़रुरत है . यहाँ यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि रमाशंकर विद्रोही बहुत ही कुशाग्र्बुद्धि छात्र रहे हैं . सुल्तानपुर जिले के कादीपुर जैसे छोटे क़स्बे में वे १९७४ में छात्र थे लेकिन कविता की दुनिया में उनकी प्रतिभा का लोहा माना जाता था . वे उच्च शिक्षा के लिए जे एन यू आये और जहां आकर शहरी सपनों के जंगल में कहीं खो गए. बाद में जब उन्होंने होश संभाला तो उनके पास वही बचा था जो उनका अपना था, और वह थी उनकी कविता. आज वह कविता भविष्य के साहित्य की थाती है लेकिन सत्ता और उसके एजेंट उनके खिलाफ लामबंद हो चुके हैं . ज़रुरत इस बात की है कि विद्रोही को जानने वाले जो लोग संसद से सडक तक मौजूद हैं , उनके आशियाने को उजड़ने से बचाएं क्योकि अब जे एन यू ही उनका आशियाना है .
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बार बार तनाशाही प्रवृत्तियाँ जन्म लेती रही हैं ,हालांकि उसका मूल चरित्र जनवादी ही रहा है .लगता है कि उसकी डिजाइन में ही तानाशाही को रोक देने का प्रोग्राम फिट है . यह अलग बात है कि अपनी स्थापना के पहले दशक में ही इस विश्वविद्यालय ने इमरजेंसी का आतंक देखा था. उसी इमरजेंसी में इस विश्वविद्यालय की जनता ने अपने साथियों को बेमतलब गिरफ्तार होते देखा था, एक प्रधानमंत्री की पुत्रवधू का आतंक देखा था.उस वक़्त जे एन यू का इलाका हौज़ ख़ास थाने में पड़ता था . वहां का दरोगा आतंक का पर्याय था ,उसी ने उस वक़्त के बड़े नेताओं , डी पी त्रिपाठी ,प्रबीर पुरकायस्थ आदि को गिरफ्तार किया था, उन दिनों सब को मालूम था कि मुखबिरी का काम प्रधानमंत्री के घर से ही हो रहा था. उसी दौर में इस विश्वविद्यालय ने बी डी नागचौधरी जैसे वाइस चांसलर को भी झेला था जो इमरजेंसी की कृपा से विश्वविद्यालय पर नाजिल कर दिया गया था . उसको हटाने के लिए बाद में आन्दोलन भी चला ,उसके तुगलक रोड स्थित घर पर नाईट विजिल भी की गयी. लेकिन जे एन यू के कैम्पस का स्थायी भाव हमेशा से ही जनवादी रहा . बीच बीच में क्षेपक आते रहे लेकिन उन्हें अपने अन्दर की ताक़त से यह यूनिवर्सिटी संभालती रही .लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कैम्पस में कुछ ऐसे तत्व भी प्रभावशाली होने लगे हैं जिनकी सोच और पोलिटिक्स का स्थायी भाव फासिज्म और दादागीरी है . उनकी वाणी बहुत ही संतुलित होगी, शिष्ट होगी और वे चुपचाप फासिज्म को लागू कर रहे होंगें . देखा गया है कि ऐसी प्रवृत्तियों के कारण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अब तानाशाही की बुनियादी बातें संस्थागत रूप ले रही हैं . अब उस विश्वविद्यालय से सहनशीलता गायब हो रही है . खबर आई है कि पिछले ३० वर्षों से कैम्पस में ही रह रहे एक कवि, रमाशंकर विद्रोही को वहां से बहाने की कोशिश चल रही है. हिन्दी विभाग के एक शोध छात्र ने मोहल्ला पोर्टल पर लिखा है कि विद्रोही को भगाया जा रहा है .छात्र ने लिखा है कि जे एन यू प्रशासन ने जनकवि विद्रोही को कैंपस निकाला दे दिया है। इस छात्र ने सूचना दी है कि यह कुछ दक्षिणपंथी छात्र संगठनों की कारस्तानी है। विद्रोही जी हमेशा से प्रगतिशील आंदोलन के पक्षधर रहे हैं। ये बात इन संगठनों और प्रशासन को रास नहीं आ रही .सब लोग जानते हैं कि विद्रोही जी कभी कभार सन्निपात के शिकार हो जाते हैं लेकिन आज तक होश में कभी भी उन्होंने किसी को कोई अपशब्द नहीं कहा। उनके खिलाफ षड्यंत्र करने वाले वही लोग हैं, जो किसी पुलिसिया कुलपति द्वारा पूरे हिंदी और गैर हिंदी लेखिकाओं को दी गयी गालियों पर खुश होते हैं। प्रशासन या शासन उनका कभी कुछ नहीं बिगाड़ता। इस छात्र ने सभी साथियों से अपील किया है कि वे प्रशासन के इस कदम का पुरजोर विरोध करें और प्रशासन को माफ़ी मांगने पर बाध्य किया जाए. कुछ छात्र कैम्पस में इस सरकारी फरमान के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं ताकि अपने आप को हिटलर और इदी अमीन समझने वाले प्रशासन को तानाशाही वाले इस फैसले को वापस लेने पर मजबूर किया जा सके. यह सच है कि विद्रोही न तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हैं और न ही वहां वे नौकरी करते हैं .लेकिन यह भी सच है कि अब वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एक अभिन्न अंग हैं . जिस पीढी के साथ उन्होंने कैम्पस में अपना छात्र जीवन शुरू किया था , उनके बच्चे भी अब विश्वविद्यालय में आ चुके हैं . जो जानते हैं उन्हें पता है कि वे कितनी मुसीबतों के दौर से गुज़रे हैं और यह भी कि जे एन यू की नयी पीढियां विद्रोही की उपस्थिति को पसंद करती हैं . पिछले ३० वर्षों में उन्होंने हिन्दी साहित्य को कुछ न कुछ दिया ही है . कैम्पस में उनके चाहने वाले विद्वानों की एक परंपरा है . उनकी कविताओं का एक पोर्टल भी छात्रों ने बना रखा है. इसलिए उन्हें भगाने का कोई कारण समझ में नहीं आता. वे विश्वविद्यालय के किसी काम में कोई अडंगा नहीं डालते तो उन्हें भगा देने की क्या ज़रुरत है . यहाँ यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि रमाशंकर विद्रोही बहुत ही कुशाग्र्बुद्धि छात्र रहे हैं . सुल्तानपुर जिले के कादीपुर जैसे छोटे क़स्बे में वे १९७४ में छात्र थे लेकिन कविता की दुनिया में उनकी प्रतिभा का लोहा माना जाता था . वे उच्च शिक्षा के लिए जे एन यू आये और जहां आकर शहरी सपनों के जंगल में कहीं खो गए. बाद में जब उन्होंने होश संभाला तो उनके पास वही बचा था जो उनका अपना था, और वह थी उनकी कविता. आज वह कविता भविष्य के साहित्य की थाती है लेकिन सत्ता और उसके एजेंट उनके खिलाफ लामबंद हो चुके हैं . ज़रुरत इस बात की है कि विद्रोही को जानने वाले जो लोग संसद से सडक तक मौजूद हैं , उनके आशियाने को उजड़ने से बचाएं क्योकि अब जे एन यू ही उनका आशियाना है .
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शेष नारायण सिंह
Monday, August 16, 2010
कश्मीर में सकारात्मक पहल का सही मौक़ा
शेष नारायण सिंह
( मूल लेख दैनिक जागरण ( १५-८-२०१०) में छप चुका है .)
कश्मीर का आन्दोलन पाकिस्तान के समर्थन से चलने वाले अलगाववादी आन्दोलन के नेताओं के काबू से बाहर हो गया है . कश्मीर मामलों के जानकार बलराज पुरी ने अपने ताज़ा आलेख में लिखा है कि घाटी में जो नौजवान पत्थर फेंक रहे हैं , वे पाकिस्तान की शह पर चल रहे अलगाववाद के नेताओं पर अब विश्वास नहीं करते. सही बात यह है कि उन कम उम्र बच्चों का हर तरह के नेताओं से विश्वास उठ गया है . वे आज़ादी की बात करते हैं लेकिन उनकी आज़ादी भारत से अलग होने की आज़ादी नहीं है . सच्चाई यह है जब वहां के राजा ने १९४७ में भारत में विलय के कागजों पर दस्तखत कर दिया था तो १९४७ में कश्मीरी अवाम ने अपने आप को आज़ाद माना था . यह आज़ादी उन्हें ३६१ साल बाद हासिल हुई थी. कश्मीरी अवाम , मुसलमान और हिन्दू सभी अपने को तब से गुलाम मानते चले आ रहे थे जब १५८६ में मुग़ल सम्राट अकबर ने कश्मीर को अपने राज में मिला लिया था. उसके बाद वहां बहुत सारे हिन्दू और मुसलमान राजा हुए लेकिन कश्मीरियों ने अपने आपको तब तक गुलाम माना जब १९४७ में भारत के साथ विलय नहीं हो गया. इसलिए कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब बिलकुल अलग है और उसको पब्लिक ओपीनियन के नेताओं को समझना चाहिए. इसी आज़ादी की भावना को केंद्र में रख कर पाकिस्तान ने नौजवानों को भटकाया और घाटी के ही कुछ तथाकथित नेताओं का इस्तेमाल करता रहा. यह गीलानी , यह मीरवाइज़ सब पाकिस्तान के हाथों में खेलते रहे और पैसा लेते रहे . लेकिन अब जब यह साफ़ हो चुका है कि इन नेताओं की घाटी के नौजवानों को दिशा देने की औकात नहीं है तो भारत सरकार को फ़ौरन हस्तक्षेप करना चाहिए और इन नौजवानों के नेताओं को तलाश कर बात करनी चाहिए . कश्मीर के तथाकथित नेताओं या अलगाववादियों से बात करने का कोई मतलब नहीं है .इन नेताओं से समझौता हो भी गया तो कम उम्र के पत्थर फेंक रहे बच्चे इनकी बात नहीं मानेगें . पिछले २० वर्षों में यह पहली बार हुआ है कि पाकिस्तान से खर्चा पानी ले रहे नेताओं को कश्मीरी अवाम टालने के चक्कर में है .
ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार को अंदाज़ है कि अगर सही तरीके से कश्मीरी नौजवानों को संभाला जाए तो पहल को सार्थक नाम दिया जा सकता है और पाकिस्तानी तिकड़म को फेल किया जा सकता है . शायद इसी लिए सी रंगराजन की अध्यक्षता में जो कमेटी बनायी गयी है उसका फोकस केवल कश्मीरी नौजवानों को रोजगार के अवसर मुहैया करवाना है . पत्थर फेंकने वाले लड़कों के आन्दोलन को पाकिस्तानी शह पर घोषित करने में पता नहीं क्यों सरकारी बाबू वर्ग ज़रुरत से ज्यादा उतावली दिखा रहा है . . कश्मीर मामलों के जानकार बलराज पुरी कहते हैं कि कश्मीरी लड़कों के मौजूदा पत्थर फेंक आन्दोलन को पाकिस्तानी या आलगाव वादी लोगों की बात कह कर भारत अपनी सबसे महत्वपूर्ण पहल से हाथ धो बैठेगा. बताया गया है कि पत्थर फेंक आन्दोलन आधुनिक टेक्नालोजी की उपज है . बच्चे ट्विटर और फेसबुक का इस्तेमाल करके संवाद कायम कर रहे हैं और स्वतः स्फूर्त तरीके से सडकों पर आ रहे हैं . सही बात यह है कि पाकिस्तानी हुक्मरान भी नए हालात से परेशान हैं और घाटी में सक्रिय अपने गुमाश्तों को डांट फटकार रहे हैं .अगर भारत ने इस वक़्त सही पहल कर दी तो हालात बदलने में देर नहीं लगेगी. कश्मीर में जो सबसे ज़रूरी बात है ,वह यह कि १९४७ में जो कश्मीर के राजा की सोच थी उसे फ़ौरन खारिज किया जाना चाहिए . वह तो जिन्नाह के साथ जाने के चक्कर में थे. और उनकी पिछलग्गू राजनीतिक जमात उन्हें समर्थन दे रही थी. कश्मीर में भारत का इकबाल बुलंद करने के लिए सबसे ज़रूरी दस्तावेज़ है १९५२ का नेहरू-अब्दुल्ला समझौता . उसी के आधार पर कश्मीर को उसकी नौजवान आबादी को साथ लेकर भारत का अभिन्न अंग बनाने की कोशिश की जानी चाहिए . ध्यान रहे , पत्थर फेंक रहे नौजवान वे हैं जिनका पाकिस्तानी और भारतीय नेताओं से मोहभंग हो चुका है . उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती कोई भी पहल नहीं कर सकते . यह सत्ताभोगी हैं . जो सडकों पर पत्थर फेंक रहे २० साल से भी कम उम्र के लडके हैं उन्हें मुख्यधारा में लाया जाना चाहिये . १९५२ का समझौता पाकिस्तान को भी धता बताता है और राजा की मानसिकता को भी . . इसके अलावा कश्मीर में कुछ काम फ़ौरन किये जाने चाहिए . जैसे अभी वहां पंचायती राज एक्ट नहीं लगा है ., उसे लगाया जाना चाहिए . आर टी आई ने पूरे भारत में राजकाज के तरीके में भारी बदलाव ला दिया है . लेकिन अभी कश्मीर में वह ठीक से चल ही नही रहा है . उसे भी कारगर तरीके से लागू किया जाना चाहिये . मानवाधिकार आयोग का अधिकार क्षेत्र भी कश्मीर तक बढ़ा देना चाहिये .कश्मीर में मौजूद राजनीतिक पार्टियां भी अगर अपना घर तुरंत ठीक नहीं करतीं तो मुश्किल बढ़ जायेगी.. इस लिए केंद्र सरकार में मौजूद समझदार लोगों को चाहिए कि फ़ौरन पहल करें और कश्मीर में सामान्य हालात लाने में मदद करें
( मूल लेख दैनिक जागरण ( १५-८-२०१०) में छप चुका है .)
कश्मीर का आन्दोलन पाकिस्तान के समर्थन से चलने वाले अलगाववादी आन्दोलन के नेताओं के काबू से बाहर हो गया है . कश्मीर मामलों के जानकार बलराज पुरी ने अपने ताज़ा आलेख में लिखा है कि घाटी में जो नौजवान पत्थर फेंक रहे हैं , वे पाकिस्तान की शह पर चल रहे अलगाववाद के नेताओं पर अब विश्वास नहीं करते. सही बात यह है कि उन कम उम्र बच्चों का हर तरह के नेताओं से विश्वास उठ गया है . वे आज़ादी की बात करते हैं लेकिन उनकी आज़ादी भारत से अलग होने की आज़ादी नहीं है . सच्चाई यह है जब वहां के राजा ने १९४७ में भारत में विलय के कागजों पर दस्तखत कर दिया था तो १९४७ में कश्मीरी अवाम ने अपने आप को आज़ाद माना था . यह आज़ादी उन्हें ३६१ साल बाद हासिल हुई थी. कश्मीरी अवाम , मुसलमान और हिन्दू सभी अपने को तब से गुलाम मानते चले आ रहे थे जब १५८६ में मुग़ल सम्राट अकबर ने कश्मीर को अपने राज में मिला लिया था. उसके बाद वहां बहुत सारे हिन्दू और मुसलमान राजा हुए लेकिन कश्मीरियों ने अपने आपको तब तक गुलाम माना जब १९४७ में भारत के साथ विलय नहीं हो गया. इसलिए कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब बिलकुल अलग है और उसको पब्लिक ओपीनियन के नेताओं को समझना चाहिए. इसी आज़ादी की भावना को केंद्र में रख कर पाकिस्तान ने नौजवानों को भटकाया और घाटी के ही कुछ तथाकथित नेताओं का इस्तेमाल करता रहा. यह गीलानी , यह मीरवाइज़ सब पाकिस्तान के हाथों में खेलते रहे और पैसा लेते रहे . लेकिन अब जब यह साफ़ हो चुका है कि इन नेताओं की घाटी के नौजवानों को दिशा देने की औकात नहीं है तो भारत सरकार को फ़ौरन हस्तक्षेप करना चाहिए और इन नौजवानों के नेताओं को तलाश कर बात करनी चाहिए . कश्मीर के तथाकथित नेताओं या अलगाववादियों से बात करने का कोई मतलब नहीं है .इन नेताओं से समझौता हो भी गया तो कम उम्र के पत्थर फेंक रहे बच्चे इनकी बात नहीं मानेगें . पिछले २० वर्षों में यह पहली बार हुआ है कि पाकिस्तान से खर्चा पानी ले रहे नेताओं को कश्मीरी अवाम टालने के चक्कर में है .
ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार को अंदाज़ है कि अगर सही तरीके से कश्मीरी नौजवानों को संभाला जाए तो पहल को सार्थक नाम दिया जा सकता है और पाकिस्तानी तिकड़म को फेल किया जा सकता है . शायद इसी लिए सी रंगराजन की अध्यक्षता में जो कमेटी बनायी गयी है उसका फोकस केवल कश्मीरी नौजवानों को रोजगार के अवसर मुहैया करवाना है . पत्थर फेंकने वाले लड़कों के आन्दोलन को पाकिस्तानी शह पर घोषित करने में पता नहीं क्यों सरकारी बाबू वर्ग ज़रुरत से ज्यादा उतावली दिखा रहा है . . कश्मीर मामलों के जानकार बलराज पुरी कहते हैं कि कश्मीरी लड़कों के मौजूदा पत्थर फेंक आन्दोलन को पाकिस्तानी या आलगाव वादी लोगों की बात कह कर भारत अपनी सबसे महत्वपूर्ण पहल से हाथ धो बैठेगा. बताया गया है कि पत्थर फेंक आन्दोलन आधुनिक टेक्नालोजी की उपज है . बच्चे ट्विटर और फेसबुक का इस्तेमाल करके संवाद कायम कर रहे हैं और स्वतः स्फूर्त तरीके से सडकों पर आ रहे हैं . सही बात यह है कि पाकिस्तानी हुक्मरान भी नए हालात से परेशान हैं और घाटी में सक्रिय अपने गुमाश्तों को डांट फटकार रहे हैं .अगर भारत ने इस वक़्त सही पहल कर दी तो हालात बदलने में देर नहीं लगेगी. कश्मीर में जो सबसे ज़रूरी बात है ,वह यह कि १९४७ में जो कश्मीर के राजा की सोच थी उसे फ़ौरन खारिज किया जाना चाहिए . वह तो जिन्नाह के साथ जाने के चक्कर में थे. और उनकी पिछलग्गू राजनीतिक जमात उन्हें समर्थन दे रही थी. कश्मीर में भारत का इकबाल बुलंद करने के लिए सबसे ज़रूरी दस्तावेज़ है १९५२ का नेहरू-अब्दुल्ला समझौता . उसी के आधार पर कश्मीर को उसकी नौजवान आबादी को साथ लेकर भारत का अभिन्न अंग बनाने की कोशिश की जानी चाहिए . ध्यान रहे , पत्थर फेंक रहे नौजवान वे हैं जिनका पाकिस्तानी और भारतीय नेताओं से मोहभंग हो चुका है . उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती कोई भी पहल नहीं कर सकते . यह सत्ताभोगी हैं . जो सडकों पर पत्थर फेंक रहे २० साल से भी कम उम्र के लडके हैं उन्हें मुख्यधारा में लाया जाना चाहिये . १९५२ का समझौता पाकिस्तान को भी धता बताता है और राजा की मानसिकता को भी . . इसके अलावा कश्मीर में कुछ काम फ़ौरन किये जाने चाहिए . जैसे अभी वहां पंचायती राज एक्ट नहीं लगा है ., उसे लगाया जाना चाहिए . आर टी आई ने पूरे भारत में राजकाज के तरीके में भारी बदलाव ला दिया है . लेकिन अभी कश्मीर में वह ठीक से चल ही नही रहा है . उसे भी कारगर तरीके से लागू किया जाना चाहिये . मानवाधिकार आयोग का अधिकार क्षेत्र भी कश्मीर तक बढ़ा देना चाहिये .कश्मीर में मौजूद राजनीतिक पार्टियां भी अगर अपना घर तुरंत ठीक नहीं करतीं तो मुश्किल बढ़ जायेगी.. इस लिए केंद्र सरकार में मौजूद समझदार लोगों को चाहिए कि फ़ौरन पहल करें और कश्मीर में सामान्य हालात लाने में मदद करें
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Sunday, August 15, 2010
आधी आबादी की इन्साफ की लड़ाई और शबाना आजमी
शेष नारायण सिंह
( यह आलेख १५ अगस्त २०१० को राष्ट्रीय सहारा ( हिंदी ) में छप चुका है )
आज़ादी के 63 साल बाद भी देश में आज़ादी पूरी तरह से नहीं आई है . शायद इसीलिये आज़ादी का जो सपना हमारे महानायकों ने देखा था वह पूरा नहीं हो रहा है ..सबसे मुश्किल बात यह है कि राज-काज के फैसलों से देश की आधी आबादी को बाहर रखा जा रहा है ..अपने देश में आज भी महिलायें मुख्य धारा से बाहर हैं . असंवेदनशीलता की हद तो यह है कि जनगणना में गृहिणी को अनुत्पादक काम में शामिल माना गया है और उन्हें भिखारियों की श्रेणी में रखने की कोशिश की गयी . लेकिन हल्ला गुल्ला होने के बाद शायद यह मसला तो दब गया लेकिन महिलाओं को सत्ता से बाहर रखने में अभी तक मर्दवादी राजनीति के पैरोकार सफल हैं और उन्हें संसद और विधान मंडलों में बराबर का हक नहीं दे रहे हैं . महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए जो बिल राज्य सभा में पास किया गया था ,उसे मानसून सत्र में पेश करने की मंशा सरकारी तौर पर जतायी गयी है . यानी इस सत्र में जो काम होना है उसमें महिला आरक्षण बिल भी है .. लेकिन राज्य सभा में बिल को पास करवाने के लिए कांग्रेस ने जो उत्साह दिखाया था वह ढीला पड़ चुका है .कांग्रेस और बी जे पी में ऐसे सांसदों की संख्या खासी बड़ी है जो मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद की तरह सोचते हैं . अजीब बात है कि मुलायम सिंह और लालू प्रसाद जिन डॉ राम मनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानते हैं , वही डॉ लोहिया महिलाओं को आरक्षण के पक्षधर थे.इसलिए बिल को पास करवाना आसान नहीं है लेकिन उसे इतिहास के डस्ट बिन में भी नहीं डाला जा सकता है क्योंकि देश में जागरूक नागरिकों का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई सीटें दे दी जाएँ. इसके फायदे बहुत हैं लेकिन उन फायदों का यहाँ ज़िक्र करना बार बार कही गयी बातों को फिर से दोहराना माना जाएगा. यहाँ तो बस दीवाल पर लिखी इबारत को एक बार फिर से दोहरा देना है कि अब महिलाओं के लिए विधान मंडलों और संसद में आरक्षण को रोक पाना राजनीतिक पार्टियों के लिए बहुत मुश्किल होगा . इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि लोक सभा और राज्य सभा में ऐसी पार्टियां बहुमत में हैं जो घोषित रूप से महिलाओं के आरक्षण के पक्ष में हैं . उनको उनकी बात पूरी करने के लिए मजबूर करने के लिए बड़े पैमाने पर आन्दोलन चल रहा है . इसी आन्दोलन की एक कड़ी के रूप में मानसून सत्र शुरू होने के बाद नयी दिल्ली के जंतर मंतर पर बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं का हुजूम आया और उसने साफ़ कह दिया कि सरकार और विपक्षी दलों को अब महिला आरक्षण बिल पास कर देना चाहिए वरना बहुत देर हो जायेगी. मानवधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे संगठन ,अनहद की ओर से आयोजित जंतर मंतर की रैली से जो सन्देश निकला वह दूर तक जाएगा . इसी रैली में सिने कलाकार और सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली नेता, शबाना आजमी भी मौजूद थीं . उन्होंने ऐलान किया कि अब इस लड़ाई को तब तक जारी रखा जाएगा जब तक कि महिलायें बराबरी के अपने मकसद को हासिल नहीं कर लेतीं .शबाना इस रैली की मुख्य आकर्षण थीं . उन्होंने कहा कि यह लड़ाई केवल औरतों के बारे में नहीं है , यह इन्साफ की लड़ाई है .लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि ३३ फीसदी आरक्षण कोई जादू की छडी नहीं है कि यह हो जाने के बाद सारी समस्याओं का हल मिल जाएगा. यह तो औरतों का वह हक है जो उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था. यह सच है कि जब महात्मा गांधी ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी तो आवाहन किया था कि महिलाओं को उनका अधिकार दिया जाना चाहिए . लेकिन हुआ ठीक उसका उल्टा. आज आज़ादी के ६३ साल बाद भी संसद में केवल ८ फीसदी महिलायें हैं ज़रुरत इस बात की है कि महिलाओं को उनका वाजिब हक दिया जाए .अगर ऐसा हुआ तो हमारा समाज एक बेहतर समाज होगा क्योंकि महिलायें समाज की बेहतरी के लिए हमेशा काम करती हैं..उनको मालूम है कि यह लड़ाई मामूली नहीं है और तब तक चलती रहेगी जब तक कि लोकसभा में ३३ फीसदी आरक्षण के लिए बिल पास नहीं हो जाता .
शबाना आज़मी का यह बयान कोरा भाषण नहीं है क्योंकि अब तक का उनका रिकार्ड ऐसा रहा है कि वे जो कहती हैं वही करती भी हैं . कान फिल्म समारोह में जाने के पहले जब उन्हें पता लगा कि मुंबई के एक इलाके के लोगों की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही हैं तो शबाना आज़मी ने कान को टाल दिया और मुंबई में जाकर भूख हड़ताल पर बैठ गयीं. भयानक गर्मी और ज़मीन पर बैठ कर हड़ताल करती शबाना आज़मी का बी पी बढ़ गया. बीमार हो गयीं .सारे रिश्तेदार परेशान हो गए . लोगों ने सोचा कि उनके अब्बा से कहा जाए तो वे शायद इस जिद्दी लड़की को समझा दें. उनके अब्बा , कैफ़ी आजमी बहुत बड़े शायर थे ,अपनी बेटी से बेपनाह मुहब्बत करते थे और शबाना के सबसे अच्छे दोस्त थे. लेकिन कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट भी थे और उनका टेलीग्राम आया . लिखा था," बेस्ट ऑफ़ लक कॉमरेड." शबाना की बुलंदी में उनके अति प्रगतिशील पिता की सोच का बहुत ज्यादा योगदान है . हालांकि शबाना का दावा है कि उन्हें बचपन में राजनीति में कोई रूचि नहीं थी, वे अखबार भी नहीं पढ़ती थी. लेकिन सच्चाई यह है कि वे राजनीति में रहती थी. उनका बचपन मुंबई के रेड फ्लैग हाल में बीता था. रेड फ्लैग हाल किसी एक इमारत का नाम नहीं है . वह गरीब आदमी के लिए लड़ी गयी बाएं बाजू की लड़ाई का एक अहम मरकज़ है . आठ कमरों और एक बाथरूम वाले इस मकान में आठ परिवार रहते थे . हर परिवार के पास एक एक कमरा था . और परिवार भी क्या थे . इतिहास की दिशा को तय किया है इन कमरों में रहने वाले परिवारों ने. शौकत कैफ़ी ने अपनी उस दौर की ज़िन्दगी को अपनी किताब में याद किया है . लिखती हैं ,' रेड फ्लैग हाल एक गुलदस्ते की तरह था जिसमें गुजरात से आये मणिबेन और अम्बू भाई , मराठवाडा से सावंत और शशि ,यू पी से कैफ़ी,सुल्ताना आपा ,सरदार भाई ,उनकी दो बहनें रबाब और सितारा ,मध्य प्रदेश से सुधीर जोशी , शोभा भाभी और हैदराबाद से मैं . रेड फ्लैग हाल में सब एक एक कमरे के घर में रहते थे. सबका बावर्चीखाना बालकनी में होता था . वहां सिर्फ एक बाथरूम था और एक ही लैट्रीन लेकिन मैंने कभी किसी को बाथ रूम के लिए झगड़ते नहीं देखा."
इस तरह के माहौल से शबाना आजमी आई हैं . उनके बचपन की भी अजीब यादें हैं . संघर्ष करने में उनको मज़ा आता है . शायद ऐसा इसलिए कि रेड फ्लैग हाल के उनके बचपन में जब मजदूर संघर्ष करते थे तो शबाना के माता पिता भी जुलूस में शामिल होते थे. बेटी साथ जाती थी. इसलिए बचपन से ही वे नारे लगा रहे मजदूरों के कन्धों पर बैठी होती थी. चारों तरफ लाल झंडे और उसके बीच में एक अबोध बच्ची. यह बच्ची जब बड़ी हुई तो उसे इन्साफ के खिलाफ खड़े होने की ट्रेनिंग नहीं लेनी पड़ी. क्योंकि वह तो उन्हें घुट्टी में ही पिलाया गया था. शबाना आजमी ने एक बार मुझे बताया था कि लाला झंडे देख कर उनको लगता था कि उन्हें उसी के बीच होना चाहिए था क्योंकि वे तो बचपन से ही वहीं होती थीं .उन्हने दूर दूर तक फहर रहे लाल झंडों को देख कर लगता था ,जैसे कोई जश्न का माहौल हो.
ऐसे बहुत सारे मामले हैं जहां शबाना ने अपनी बात को मनवाया है . तो इस बार तो उनके साथ महिलाओं की बहुत बड़ी संख्या है और देश की राजनीतिक आबादी के बहुत सारे लोग महिला आरक्षण के पक्ष में हैं. शबाना आज़मी एक ऐसी महिला कार्यकर्ता हैं जिन्हें पुरुषों से बेपनाह प्यार मिला है . उनका आन्दोलन पुरुष विरोधी नहीं है. उनके अब्बा, कैफ़ी आजमी उन्हें जान से बढ़ कर मुहब्बत करते थे. शबाना को आम बहुत पसंद हैं .उनके बचपन में जब बहुत गरीबी थी तो कैफ़ी अपनी बेटी को आम बहुत मुश्किल से दे पाते थे . लेकिन जब उन्हें अपने गाँव में फिर से रहने का मौक़ा मिला तो उन्होंने शबाना के लिए आम का पूरा एक बाग़ लगवा दिया . इसलिए शबाना का महिला अआरक्षण आन्दोलन में शामिल होना न तो इत्तिफाक है और नहीं किसी तरह की पुरुष विरोधी मानसिकता . वे इन्साफ की लड़ाई लड़ रही हैं .
लगता है कि अब लड़ाई एक निर्णायक मुकाम तक पंहुच चुकी है . इस संघर्ष की एक अच्छाई यह भी है कि इसमें अगुवाई उन महिलाओं के हाथ में है जो अपने क्षेत्र में बुलंदियां हासिल कर चुकी हैं , किसी नेता की बेटी या बहू नहीं हैं . उम्मीद है कि इसी सत्र में लोकसभा महिला आरक्षण को मंजूरी दे देगी और हम एक देश के रूप में गर्व से सिर ऊंचा कर सकेगें
( यह आलेख १५ अगस्त २०१० को राष्ट्रीय सहारा ( हिंदी ) में छप चुका है )
आज़ादी के 63 साल बाद भी देश में आज़ादी पूरी तरह से नहीं आई है . शायद इसीलिये आज़ादी का जो सपना हमारे महानायकों ने देखा था वह पूरा नहीं हो रहा है ..सबसे मुश्किल बात यह है कि राज-काज के फैसलों से देश की आधी आबादी को बाहर रखा जा रहा है ..अपने देश में आज भी महिलायें मुख्य धारा से बाहर हैं . असंवेदनशीलता की हद तो यह है कि जनगणना में गृहिणी को अनुत्पादक काम में शामिल माना गया है और उन्हें भिखारियों की श्रेणी में रखने की कोशिश की गयी . लेकिन हल्ला गुल्ला होने के बाद शायद यह मसला तो दब गया लेकिन महिलाओं को सत्ता से बाहर रखने में अभी तक मर्दवादी राजनीति के पैरोकार सफल हैं और उन्हें संसद और विधान मंडलों में बराबर का हक नहीं दे रहे हैं . महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए जो बिल राज्य सभा में पास किया गया था ,उसे मानसून सत्र में पेश करने की मंशा सरकारी तौर पर जतायी गयी है . यानी इस सत्र में जो काम होना है उसमें महिला आरक्षण बिल भी है .. लेकिन राज्य सभा में बिल को पास करवाने के लिए कांग्रेस ने जो उत्साह दिखाया था वह ढीला पड़ चुका है .कांग्रेस और बी जे पी में ऐसे सांसदों की संख्या खासी बड़ी है जो मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद की तरह सोचते हैं . अजीब बात है कि मुलायम सिंह और लालू प्रसाद जिन डॉ राम मनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानते हैं , वही डॉ लोहिया महिलाओं को आरक्षण के पक्षधर थे.इसलिए बिल को पास करवाना आसान नहीं है लेकिन उसे इतिहास के डस्ट बिन में भी नहीं डाला जा सकता है क्योंकि देश में जागरूक नागरिकों का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई सीटें दे दी जाएँ. इसके फायदे बहुत हैं लेकिन उन फायदों का यहाँ ज़िक्र करना बार बार कही गयी बातों को फिर से दोहराना माना जाएगा. यहाँ तो बस दीवाल पर लिखी इबारत को एक बार फिर से दोहरा देना है कि अब महिलाओं के लिए विधान मंडलों और संसद में आरक्षण को रोक पाना राजनीतिक पार्टियों के लिए बहुत मुश्किल होगा . इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि लोक सभा और राज्य सभा में ऐसी पार्टियां बहुमत में हैं जो घोषित रूप से महिलाओं के आरक्षण के पक्ष में हैं . उनको उनकी बात पूरी करने के लिए मजबूर करने के लिए बड़े पैमाने पर आन्दोलन चल रहा है . इसी आन्दोलन की एक कड़ी के रूप में मानसून सत्र शुरू होने के बाद नयी दिल्ली के जंतर मंतर पर बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं का हुजूम आया और उसने साफ़ कह दिया कि सरकार और विपक्षी दलों को अब महिला आरक्षण बिल पास कर देना चाहिए वरना बहुत देर हो जायेगी. मानवधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे संगठन ,अनहद की ओर से आयोजित जंतर मंतर की रैली से जो सन्देश निकला वह दूर तक जाएगा . इसी रैली में सिने कलाकार और सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली नेता, शबाना आजमी भी मौजूद थीं . उन्होंने ऐलान किया कि अब इस लड़ाई को तब तक जारी रखा जाएगा जब तक कि महिलायें बराबरी के अपने मकसद को हासिल नहीं कर लेतीं .शबाना इस रैली की मुख्य आकर्षण थीं . उन्होंने कहा कि यह लड़ाई केवल औरतों के बारे में नहीं है , यह इन्साफ की लड़ाई है .लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि ३३ फीसदी आरक्षण कोई जादू की छडी नहीं है कि यह हो जाने के बाद सारी समस्याओं का हल मिल जाएगा. यह तो औरतों का वह हक है जो उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था. यह सच है कि जब महात्मा गांधी ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी तो आवाहन किया था कि महिलाओं को उनका अधिकार दिया जाना चाहिए . लेकिन हुआ ठीक उसका उल्टा. आज आज़ादी के ६३ साल बाद भी संसद में केवल ८ फीसदी महिलायें हैं ज़रुरत इस बात की है कि महिलाओं को उनका वाजिब हक दिया जाए .अगर ऐसा हुआ तो हमारा समाज एक बेहतर समाज होगा क्योंकि महिलायें समाज की बेहतरी के लिए हमेशा काम करती हैं..उनको मालूम है कि यह लड़ाई मामूली नहीं है और तब तक चलती रहेगी जब तक कि लोकसभा में ३३ फीसदी आरक्षण के लिए बिल पास नहीं हो जाता .
शबाना आज़मी का यह बयान कोरा भाषण नहीं है क्योंकि अब तक का उनका रिकार्ड ऐसा रहा है कि वे जो कहती हैं वही करती भी हैं . कान फिल्म समारोह में जाने के पहले जब उन्हें पता लगा कि मुंबई के एक इलाके के लोगों की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही हैं तो शबाना आज़मी ने कान को टाल दिया और मुंबई में जाकर भूख हड़ताल पर बैठ गयीं. भयानक गर्मी और ज़मीन पर बैठ कर हड़ताल करती शबाना आज़मी का बी पी बढ़ गया. बीमार हो गयीं .सारे रिश्तेदार परेशान हो गए . लोगों ने सोचा कि उनके अब्बा से कहा जाए तो वे शायद इस जिद्दी लड़की को समझा दें. उनके अब्बा , कैफ़ी आजमी बहुत बड़े शायर थे ,अपनी बेटी से बेपनाह मुहब्बत करते थे और शबाना के सबसे अच्छे दोस्त थे. लेकिन कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट भी थे और उनका टेलीग्राम आया . लिखा था," बेस्ट ऑफ़ लक कॉमरेड." शबाना की बुलंदी में उनके अति प्रगतिशील पिता की सोच का बहुत ज्यादा योगदान है . हालांकि शबाना का दावा है कि उन्हें बचपन में राजनीति में कोई रूचि नहीं थी, वे अखबार भी नहीं पढ़ती थी. लेकिन सच्चाई यह है कि वे राजनीति में रहती थी. उनका बचपन मुंबई के रेड फ्लैग हाल में बीता था. रेड फ्लैग हाल किसी एक इमारत का नाम नहीं है . वह गरीब आदमी के लिए लड़ी गयी बाएं बाजू की लड़ाई का एक अहम मरकज़ है . आठ कमरों और एक बाथरूम वाले इस मकान में आठ परिवार रहते थे . हर परिवार के पास एक एक कमरा था . और परिवार भी क्या थे . इतिहास की दिशा को तय किया है इन कमरों में रहने वाले परिवारों ने. शौकत कैफ़ी ने अपनी उस दौर की ज़िन्दगी को अपनी किताब में याद किया है . लिखती हैं ,' रेड फ्लैग हाल एक गुलदस्ते की तरह था जिसमें गुजरात से आये मणिबेन और अम्बू भाई , मराठवाडा से सावंत और शशि ,यू पी से कैफ़ी,सुल्ताना आपा ,सरदार भाई ,उनकी दो बहनें रबाब और सितारा ,मध्य प्रदेश से सुधीर जोशी , शोभा भाभी और हैदराबाद से मैं . रेड फ्लैग हाल में सब एक एक कमरे के घर में रहते थे. सबका बावर्चीखाना बालकनी में होता था . वहां सिर्फ एक बाथरूम था और एक ही लैट्रीन लेकिन मैंने कभी किसी को बाथ रूम के लिए झगड़ते नहीं देखा."
इस तरह के माहौल से शबाना आजमी आई हैं . उनके बचपन की भी अजीब यादें हैं . संघर्ष करने में उनको मज़ा आता है . शायद ऐसा इसलिए कि रेड फ्लैग हाल के उनके बचपन में जब मजदूर संघर्ष करते थे तो शबाना के माता पिता भी जुलूस में शामिल होते थे. बेटी साथ जाती थी. इसलिए बचपन से ही वे नारे लगा रहे मजदूरों के कन्धों पर बैठी होती थी. चारों तरफ लाल झंडे और उसके बीच में एक अबोध बच्ची. यह बच्ची जब बड़ी हुई तो उसे इन्साफ के खिलाफ खड़े होने की ट्रेनिंग नहीं लेनी पड़ी. क्योंकि वह तो उन्हें घुट्टी में ही पिलाया गया था. शबाना आजमी ने एक बार मुझे बताया था कि लाला झंडे देख कर उनको लगता था कि उन्हें उसी के बीच होना चाहिए था क्योंकि वे तो बचपन से ही वहीं होती थीं .उन्हने दूर दूर तक फहर रहे लाल झंडों को देख कर लगता था ,जैसे कोई जश्न का माहौल हो.
ऐसे बहुत सारे मामले हैं जहां शबाना ने अपनी बात को मनवाया है . तो इस बार तो उनके साथ महिलाओं की बहुत बड़ी संख्या है और देश की राजनीतिक आबादी के बहुत सारे लोग महिला आरक्षण के पक्ष में हैं. शबाना आज़मी एक ऐसी महिला कार्यकर्ता हैं जिन्हें पुरुषों से बेपनाह प्यार मिला है . उनका आन्दोलन पुरुष विरोधी नहीं है. उनके अब्बा, कैफ़ी आजमी उन्हें जान से बढ़ कर मुहब्बत करते थे. शबाना को आम बहुत पसंद हैं .उनके बचपन में जब बहुत गरीबी थी तो कैफ़ी अपनी बेटी को आम बहुत मुश्किल से दे पाते थे . लेकिन जब उन्हें अपने गाँव में फिर से रहने का मौक़ा मिला तो उन्होंने शबाना के लिए आम का पूरा एक बाग़ लगवा दिया . इसलिए शबाना का महिला अआरक्षण आन्दोलन में शामिल होना न तो इत्तिफाक है और नहीं किसी तरह की पुरुष विरोधी मानसिकता . वे इन्साफ की लड़ाई लड़ रही हैं .
लगता है कि अब लड़ाई एक निर्णायक मुकाम तक पंहुच चुकी है . इस संघर्ष की एक अच्छाई यह भी है कि इसमें अगुवाई उन महिलाओं के हाथ में है जो अपने क्षेत्र में बुलंदियां हासिल कर चुकी हैं , किसी नेता की बेटी या बहू नहीं हैं . उम्मीद है कि इसी सत्र में लोकसभा महिला आरक्षण को मंजूरी दे देगी और हम एक देश के रूप में गर्व से सिर ऊंचा कर सकेगें
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राहुल सिंह का दिलचस्प ब्लॉग
रायपुर में राहुल सिंह रहते हैं . छत्तीस गढ़ और नया थियेटर के बारे में बहुत सारी जानकारी है उनके पास . उनका ब्लॉग "सिंहावलोकन" बहुत सारी दिलचस्प जानकारियों का खज़ाना है . ब्लॉग का पता है .
http://akaltara.blogspot.com
मैंने पीपली लाइव के बारे में बहुत सारी सूचना वहां से ली है . उसके अलावा भी बहुत कुछ है वहां. किसी अखबार के साथ बातचीत में अनुषा रिज़वी ने कहा है कि पीपली लाइव के बाद टी वी पत्रकारिता में कुछ नहीं बदलेगा.. लेकिन सच्चाई यह है कि बदलना तो है ही, जैसे चल रहा है,वैसे नहीं चलेगा. पूरी उम्मीद है कि पीपली लाइव ही उसका निमित्त बन जाए
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मैंने पीपली लाइव के बारे में बहुत सारी सूचना वहां से ली है . उसके अलावा भी बहुत कुछ है वहां. किसी अखबार के साथ बातचीत में अनुषा रिज़वी ने कहा है कि पीपली लाइव के बाद टी वी पत्रकारिता में कुछ नहीं बदलेगा.. लेकिन सच्चाई यह है कि बदलना तो है ही, जैसे चल रहा है,वैसे नहीं चलेगा. पूरी उम्मीद है कि पीपली लाइव ही उसका निमित्त बन जाए
Saturday, August 14, 2010
क्या इसी नेतृत्व के साथ किया जायेगा फासिस्टों से मुकाबला
शेष नारायण सिंह
पश्चिम बंगाल में सरकार गँवा देने के मुहाने पर खडी मार्क्सवादी काम्युनिस्ट पार्टी को अपनी एक और ऐतिहासिक भूल का पता लग गया है . पार्टी के लगभग सभी बड़े नेता आन्ध्र प्रदेश के नगर ,विजयवाड़ा में मिले और स्वीकार किया कि यू पी ए सरकार से समर्थन वापस लेने में देर हो गयी . पार्टी को लगता है कि समर्थन उसी वक़्त वापस ले लेना चाहिए था जब यू पी ए -प्रथम सरकार अमरीका से परमाणु समझौता करने का मंसूबा ही बना रही थी. अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहा गया है कि पार्टी के पोलित ब्यूरो और सेन्ट्रल कमेटी ने इस बात का सही आकलन नहीं किया कि मनमोहन सिंह की उस वक़्त की सरकार का इरादा कितना पक्का है . इसलिए गलती हो गयी. ज़ाहिर है कि मार्क्सवादी पार्टी ने अपनी एक और ऐतिहासिक भूल को स्वीकार कर लिया है . इसके पहले भी यह पार्टी कई ऐतिहासिक भूलें कर चुकी है लेकिन इस भूल का रंग थोडा अलग है . जब १९९६ में ज्योति बसु को मुख्य मंत्री बनने से रोका गया था ,उसे भी सी पी एम के आर्काइव्ज़ में एक बड़ी ऐतिहासिक भूल की श्रेणी में रख दिया गया है . उस भूल के सूत्रधार भी आज के महासचिव , प्रकाश करात को माना जाता है लेकिन उन दिनों वे परदे के पीछे से अपना काम करते थे. . अब खेल बदल गया है . वे खुद ही पार्टी के आला अफसर हैं और जो मन में आता है उसी को नीति बनाकर पेश कर देते हैं . इसलिए जब परमाणु समझौते के मुद्दे पर मनमोहन सिंह सरकार को गिराने की बात आई तो वे पूरी तरह से कंट्रोल में थे. जिसने भी उनकी बात नहीं मानी उसको डांट दिया . महासचिव का फरमान आया कि पार्टी के बड़े नेता और लोक सभा के स्पीकर सोमनाथ चटर्जी अपना पद छोड़ दें . सोमनाथ जी ने पार्टी के सबसे आदरणीय नेता ज्योति बसु से राय ली और कहा कि अभी इस्तीफ़ा देना ठीक नहीं है क्योंकि स्पीकर तो पार्टी की राजनीति से ऊपर उठ चुका होता है.. करात बाबू को गुस्सा आ गया और उन्होंने सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाल दिया. अपनी जीवनीमें सोमनाथ चटर्जी ने उस वक़्त की तानाशाही की बात को विस्तार से लिखा है . मार्क्सवादी पार्टी के बड़े नेता और पार्टी से सहानुभूति रखने वाले बुद्धिजीवी मानते हैं कि वह फैसला इतना बेतुका था कि उसके घाव को वामपंथी आन्दोलन बहुत दिन तक झेलेगा. एक मत यह भी है कि पश्चिम बंगाल में पार्टी की हालत उसी दिन से बिगड़ना शुरू हो गयी थी जिस दिन सोमनाथ दा को निकाला गया था. अब विजयवाड़ा में पेश किये गए कागजों से पता चलता है कि पार्टी ने स्वीकार किया है कि ' पार्टी ने अपनी ताक़त को ज्यादा आंक लिया था, इसी वजह से गलती हो गयी . आत्मालोचन की इस बात में दम है . यह बात बिकुल सच है कि पार्टी ने अपनी ताक़त को बहुत बढ़ा चढ़ा कर आंक लिया था . पार्टी के आला हाकिम को मुगालता हो गया था कि वह मायावती, चन्द्रबाबू नायडू आदि नेताओं का नेता बन जाएगा और तीसरा मोर्चा एक सच्चाई बन जाएगा और जब चुनाव होगें तो चारो तरफ मार्क्सवादी पार्टी की ताक़त का डंका बज जाएगा. इस सारे खेल में सबसे अजीब बात यह है कि पार्टी के सबसे बड़े नेता के अलावा सब को मालूम था कि वह मुंगेरी लाल के हसीन सपने देख रहा है लेकिन उसे उस वक़्त रोकना असंभव था. केरल में एक भ्रष्ट नेता को ईमानदार साबित करने का प्रोजेक्ट भी उसी मनोदशा का नमूना है . बहर हाल अब पार्टी का लगभग सब कुछ ख़त्म होने को है . और अगर सोमनाथ चटर्जी की बात का विश्वास करें तो इसके लिए जिम्मेवार केवल प्रकाश करात हैं . उनका कहना है कि पार्टी के वर्तमान महासचिव में दंभ बहुत ज्यादा है और वे अपनी बात के सामने किसी को सही नहीं मानते. उनकी दूसरी सबसे बड़ी दिक्क़त यह है कि वे किसी तरह के विरोध को बर्दाश्त नहीं कर पाते और विरोध करने वाले को दुश्मन मान बैठते हैं. बहर हाल विजयवाड़ा में एक बार फिर यह तय किया गया है कि गैर कांग्रेस-गैर बी जे पी विकल्प की तलाश जारी रहेगी . अब जब कुछ महीनों बाद बंगाल में भी सत्ता लुट जायगी तो इस काम को करने के लिए बड़ी संख्या में नेता भी मिल जायेगें और एक बार फिर जनवादी राजनीति को ज़मीन पर विकास का मौक़ा दिया जाएगा . इस बार बस फर्क इतना है कि आर एस एस की रहनुमाई में फासिस्ट ताकतें पहले से बहुत ज्यादा मज़बूत हैं और एक आदमी की जिद के चलते कम्युनिस्ट पार्टियां बहुत कमज़ोर हो चुकी हैं
पश्चिम बंगाल में सरकार गँवा देने के मुहाने पर खडी मार्क्सवादी काम्युनिस्ट पार्टी को अपनी एक और ऐतिहासिक भूल का पता लग गया है . पार्टी के लगभग सभी बड़े नेता आन्ध्र प्रदेश के नगर ,विजयवाड़ा में मिले और स्वीकार किया कि यू पी ए सरकार से समर्थन वापस लेने में देर हो गयी . पार्टी को लगता है कि समर्थन उसी वक़्त वापस ले लेना चाहिए था जब यू पी ए -प्रथम सरकार अमरीका से परमाणु समझौता करने का मंसूबा ही बना रही थी. अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहा गया है कि पार्टी के पोलित ब्यूरो और सेन्ट्रल कमेटी ने इस बात का सही आकलन नहीं किया कि मनमोहन सिंह की उस वक़्त की सरकार का इरादा कितना पक्का है . इसलिए गलती हो गयी. ज़ाहिर है कि मार्क्सवादी पार्टी ने अपनी एक और ऐतिहासिक भूल को स्वीकार कर लिया है . इसके पहले भी यह पार्टी कई ऐतिहासिक भूलें कर चुकी है लेकिन इस भूल का रंग थोडा अलग है . जब १९९६ में ज्योति बसु को मुख्य मंत्री बनने से रोका गया था ,उसे भी सी पी एम के आर्काइव्ज़ में एक बड़ी ऐतिहासिक भूल की श्रेणी में रख दिया गया है . उस भूल के सूत्रधार भी आज के महासचिव , प्रकाश करात को माना जाता है लेकिन उन दिनों वे परदे के पीछे से अपना काम करते थे. . अब खेल बदल गया है . वे खुद ही पार्टी के आला अफसर हैं और जो मन में आता है उसी को नीति बनाकर पेश कर देते हैं . इसलिए जब परमाणु समझौते के मुद्दे पर मनमोहन सिंह सरकार को गिराने की बात आई तो वे पूरी तरह से कंट्रोल में थे. जिसने भी उनकी बात नहीं मानी उसको डांट दिया . महासचिव का फरमान आया कि पार्टी के बड़े नेता और लोक सभा के स्पीकर सोमनाथ चटर्जी अपना पद छोड़ दें . सोमनाथ जी ने पार्टी के सबसे आदरणीय नेता ज्योति बसु से राय ली और कहा कि अभी इस्तीफ़ा देना ठीक नहीं है क्योंकि स्पीकर तो पार्टी की राजनीति से ऊपर उठ चुका होता है.. करात बाबू को गुस्सा आ गया और उन्होंने सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाल दिया. अपनी जीवनीमें सोमनाथ चटर्जी ने उस वक़्त की तानाशाही की बात को विस्तार से लिखा है . मार्क्सवादी पार्टी के बड़े नेता और पार्टी से सहानुभूति रखने वाले बुद्धिजीवी मानते हैं कि वह फैसला इतना बेतुका था कि उसके घाव को वामपंथी आन्दोलन बहुत दिन तक झेलेगा. एक मत यह भी है कि पश्चिम बंगाल में पार्टी की हालत उसी दिन से बिगड़ना शुरू हो गयी थी जिस दिन सोमनाथ दा को निकाला गया था. अब विजयवाड़ा में पेश किये गए कागजों से पता चलता है कि पार्टी ने स्वीकार किया है कि ' पार्टी ने अपनी ताक़त को ज्यादा आंक लिया था, इसी वजह से गलती हो गयी . आत्मालोचन की इस बात में दम है . यह बात बिकुल सच है कि पार्टी ने अपनी ताक़त को बहुत बढ़ा चढ़ा कर आंक लिया था . पार्टी के आला हाकिम को मुगालता हो गया था कि वह मायावती, चन्द्रबाबू नायडू आदि नेताओं का नेता बन जाएगा और तीसरा मोर्चा एक सच्चाई बन जाएगा और जब चुनाव होगें तो चारो तरफ मार्क्सवादी पार्टी की ताक़त का डंका बज जाएगा. इस सारे खेल में सबसे अजीब बात यह है कि पार्टी के सबसे बड़े नेता के अलावा सब को मालूम था कि वह मुंगेरी लाल के हसीन सपने देख रहा है लेकिन उसे उस वक़्त रोकना असंभव था. केरल में एक भ्रष्ट नेता को ईमानदार साबित करने का प्रोजेक्ट भी उसी मनोदशा का नमूना है . बहर हाल अब पार्टी का लगभग सब कुछ ख़त्म होने को है . और अगर सोमनाथ चटर्जी की बात का विश्वास करें तो इसके लिए जिम्मेवार केवल प्रकाश करात हैं . उनका कहना है कि पार्टी के वर्तमान महासचिव में दंभ बहुत ज्यादा है और वे अपनी बात के सामने किसी को सही नहीं मानते. उनकी दूसरी सबसे बड़ी दिक्क़त यह है कि वे किसी तरह के विरोध को बर्दाश्त नहीं कर पाते और विरोध करने वाले को दुश्मन मान बैठते हैं. बहर हाल विजयवाड़ा में एक बार फिर यह तय किया गया है कि गैर कांग्रेस-गैर बी जे पी विकल्प की तलाश जारी रहेगी . अब जब कुछ महीनों बाद बंगाल में भी सत्ता लुट जायगी तो इस काम को करने के लिए बड़ी संख्या में नेता भी मिल जायेगें और एक बार फिर जनवादी राजनीति को ज़मीन पर विकास का मौक़ा दिया जाएगा . इस बार बस फर्क इतना है कि आर एस एस की रहनुमाई में फासिस्ट ताकतें पहले से बहुत ज्यादा मज़बूत हैं और एक आदमी की जिद के चलते कम्युनिस्ट पार्टियां बहुत कमज़ोर हो चुकी हैं
सौरभ द्विवेदी ने पीपली लाइव के बारे में बहुत अच्छा लिखा
सौरभ द्विवेदी ने पीपली लाइव के बारे में बहुत अच्छा लिखा . मन में आया कि अपने ब्लॉग पर इसे पोस्ट कर दूं . सौरभ से बात की और उन्होंने खुशी ज़ाहिर की . बहुत ही दिलचस्प है यह.
http://upanyaas.blogspot.com/2010/08/blog-post_13.html
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Friday, August 13, 2010
हिंदू धर्म और हिंदुत्व में फर्क है
शेष नारायण सिंह
हिंदू धर्म भारत का प्राचीन धर्म है। इसमें बहुत सारे संप्रदाय हैं। संप्रदायों को मानने वाला व्यक्ति अपने आपको हिंदू कहता है लेकिन हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका प्रतिपादन 1924 में वीडी सावरकर ने अपनी किताब 'हिंदुत्व में किया था। सावरकर इटली के उदार राष्ट्रवादी चिंतक माजिनी से बहुत प्रभावित हुए थे। उनके विचारों से प्रभावित होकर ही उन्होंने हिंदुत्व का राजनीतिक अभियान का मंच बनाने की कोशिश की थी।
सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा भी दी। उनके अनुसार -''हिंदू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र तक के भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि माने। इस विचारधारा को ही हिंदुत्व नाम दिया गया है। ज़ाहिर है हिंदुत्व को हिंदू धर्म से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन हिंदू धर्म और हिंदुत्व में शाब्दिक समानता के चलते पर्यायवाची होने का बोध होता है। इसी भ्रम के चलते कई बार सांप्रदायिकता के खतरे भी पैदा हो जाते हैं। धर्म और सांप्रदायिकता के सवाल पर कोई भी सार्थक बहस शुरू करने के पहले यह जरूरी है कि धर्म के स्वरूप और उसके दर्शन को समझने की कोशिश की जाये।
दर्शन शास्त्र के लगभग सभी विद्वानों ने धर्म को परिभाषित करने का प्रयास किया है। धर्म दर्शन के बड़े ज्ञाता गैलोबे की परिभाषा लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती है। उनका कहना है कि -''धर्म अपने से परे किसी शक्ति में श्रद्घा है जिसके द्वारा वह अपनी भावात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और जीवन में स्थिरता प्राप्त करना है और जिसे वह उपासना और सेवा में व्यक्त करता है। इसी से मिलती जुलती परिभाषा ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी दी गयी है जिसके अनुसार ''धर्म व्यक्ति का ऐसा उच्चतर अदृश्य शक्ति पर विश्वास है जो उसके भविष्य का नियंत्रण करती है जो उसकी आज्ञाकारिता, शील, सम्मान और आराधना का विषय है।
यह परिभाषाएं लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत में कुछं ऐसे भी धर्म हैं जो सैद्धांतिक रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। जैन धर्म में तो ईश्वर की सत्ता के विरूद्घ तर्क भी दिए गये हैं। बौद्ध धर्म में प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्घांत को माना गया है जिसके अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है और यह संसार कार्य-कारण की अनन्त श्रंखला है। इसी के आधार पर दुख के कारण स्वरूप बारह कडिय़ों की व्याख्या की गयी है। जिन्हें द्वादश निदान का नाम दिया गया है।
इसीलिए धर्म वह अभिवृत्ति है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को, प्रत्येक क्रिया को प्रभावित करती है। इस अभिवृत्ति का आधार एक सर्वव्यापक, अदार्श विषय के प्रति आस्था है। यह विषय जैन धर्म का कर्म-नियम, बौद्घों का प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्घांत या वैष्णवों, ईसाइयों और मुसलमानों का ईश्वर हो सकता है। आस्था और विश्वास में अंतर है। विश्वास तर्क और सामान्य प्रेक्षण पर आधारित होता है लेकिन आस्था तर्क से परे की स्थिति है। विश्वविख्यात दार्शनिक इमनुअल कांट ने आस्था की परिभाषा की है। उनके अनुसार ''आस्था वह है जिसमें आत्मनिष्ठ रूप से पर्याप्त लेकिन वस्तुन्ष्टि रूप से अपर्याप्त ज्ञान हो।
आस्था का विषय बुद्घि या तर्क के बिल्कुल विपरीत नहीं होता लेकिन उसे तर्क की कसौटी पर कसने की कोशिश भी नहीं की जानी चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि जो धार्मिक मान्यताएं बुद्घि के विपरीत हों, वे स्वीकार्य नहीं। धार्मिक आस्था तर्कातीत है तर्क विपरीत नहीं। सच्चाई यह है कि धार्मिक आस्था का आधार अनुभूति है। यह अनुभूति सामान्य अनुभूतियों से भिन्न है। इसी अनुभूति को रहस्यात्मक अनुभूति या समाधिजन्य अनुभूति का जाता है। यह अनुभूति सबको नहीं होती केवल उनको ही होती है जो अपने आपका इसके लिए तैयार करते हैं।
इस अनुभूति को प्राप्त करने के लिए धर्म में साधना का मार्ग बताया गया है। इस साधना की पहली शर्त है अहंकार का त्याग करना। जब तक व्यक्ति तेरे-मेरे के भाव से मुक्त नहीं होगा, तब तक चित्त निर्मल नहीं होगा और दिव्य अनुभूति प्राप्त नहीं होगी। इस अनुभूति का वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि इस अनुभूति के वक्त ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुरी नहीं रहती। कोई भी साधक जब इस अनुभूति का वर्णन करता है तो वह वर्णन अपूर्ण रहता है। इसीलिए संतों और साधकों ने इसके वर्णन के लिए प्रतीकों का सहारा लिया है। प्रतीक उसी परिवेश के लिए जाते हैं, जिसमें साधक रहता है इसीलिए अलग-अलग साधकों के वर्णन अलग-अलग होते हैं, अनुभूति की एकरूपता नहीं रहती।
लेकिन यह बात निर्विवाद है कि इस दिव्य अनुभूति का प्रभाव सभी देशों और कालों में रहने वाले साधकों पर एक सा पड़ता है। अध्यात्मिक अनुभूति की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि सन्त चरित्र है। सभी धर्मों के संतों का चरित्र एक सा रहता है। सन्तों का जीवन के प्रति दृष्टिïकोण बदल जाता है, ऐसे सन्तों की भाषा सदैव प्रतीकात्मक होती है। इसका उद्देश्य किसी वस्तुसत्ता का वर्णन करना न होकर, जिज्ञासुओं तथा साधकों में ऊंची भावनाएं जागृत करना होता है। सन्तों में भौतिक सुखों के प्रति उदासीनता का भाव पाया जाता है। लेकिन यह उदासीनता नकारात्मक नहीं होती। पतंजलि ने साफ साफ कहा है कि योग साधक के मन में मैत्री, करुणा एवं मुदिता अर्थात दूसरों के सुख में संतोष के गुण होने चाहिये।
सांसारिक सुखों के प्रति जो उदासीनता सन्तों में पाई जाती है उसे एक उदाहरण में समझा जा सकता है। छोटी बच्ची गुडिय़ा के गायब हो जाने पर दुखी होती है और मिल जाने पर खुश होती है। उसके माता पिता मुस्कुराते हैं और बच्ची के व्यवहार को नासमझी समझते हैं। उसी प्रकार सन्त भी आम आदमी के ईप्र्या, द्वेष, मान-अपमान संबंधी मापदंडों पर मुस्कुराते हैं और मानते हैं कि जीवन के उच्चतर मूल्यों को न समझ पाने के कारण व्यक्ति इस तरह का आचरण करता है। भौतिक उपलब्धियों के प्रति उदासीनता का यह भाव श्रेष्ठ वैज्ञानिकों, चिन्तकों आदि में भी पाया जाता है।
लेकिन सन्त मानवीय तकलीफों के प्रति उदासीन नहीं होते। अरण्यकांड के अंत मे गोस्वामी तुलसीदास ने सन्तों के स्वभाव की विवेचना की है। कहते हैं-संत सबके सहज मित्र होते हैं-श्रद्घा, क्षमा, मैत्री और करुणा उनके स्वाभाविक गुण होते हैं। बौद्घ ग्रंथों में भी ब्रह्मï विहार को भिक्षुओं का स्वाभाविक गुण बताया गया है। मैत्री, करुणा, मुदिता और सांसारिक भागों के प्रति उपेक्षा ही ब्रह्मï विहार हैं। किसी भी धर्म की सर्वोच्च उपलब्धि सन्त चरित्र ही है। इसीलिए हर धर्म के महान संतों ने मैत्री, करुणा और मुदिता का ही उपदेश दिया है। भारतीय संदर्भ में धर्म का विशेष अर्थ है। प्राचीन भारतीय चिन्तन में मूल्य का प्रयोग नहीं हुआ है। मूल्य की बजाय पुरुषार्थ शब्द का प्रयोग किया गया है।
चार पुरुषार्थ हैं-धर्म, अर्थ, काम है मोक्ष। आमतौर पर 'धर्म शब्द का प्रयोग मोक्ष या पारलौकिक आनन्द प्राप्त करने के मार्ग के रूप में किया जाता है। लेकिन भारतीय परम्परा में धर्म और मोक्ष समानार्थी शब्द नहीं हैं। धर्म का अर्थ नैतिक आचरण के रूप में किया गया है, धर्म सम्मत अर्थ और काम ही पुरुषार्थ हैं। धर्म शब्द की व्युत्पत्ति 'धृ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है धारण करना। महाभारत में कहा गया है कि जो समाज को धारण करे वही धर्म है।
यहां धर्म नैतिक चेतना या विवेक के अर्थ में प्रयोग किया गया है। वैसे भी भारतीय परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग अधिकतर कर्तव्य के अर्थ में ही होता है। इसीलिए धर्म के दो प्रकार बताए गये हैं-विशेषधर्म और सामान्य धर्म। सामान्य धर्म मानव का स्वाभाविक धर्म है जबकि विशेष धर्म उसके विभिन्न सामाजिक सन्दर्भों में कर्तव्य है। सामान्य धर्म है-धृति:, क्षमा,यम, शौचम् अस्तेयम् इन्द्रिय निग्रह, धा,विद्या, सत्यम, आक्रोध। मतलब यह है कि धर्म इंसान के लिए बहुत जरूरी चीज है। सच्चा धर्म मनुष्य के चरित्र को उदात्त बनाता है और वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा को विकसित करता है। धर्म मनुष्यों को जोड़ता है, तोड़ता नहीं।
प्रथम पुरुषार्थ के रूप में धर्म नैतिकता है और चौथे पुरुषार्थ, मोक्ष की प्राप्ति का साधन है। इसीलिए नैतिक आचरण या धर्म आचरण का पालन न करने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी नहीं हो सकता। हमने देखा कि भारतीय परम्परा के अनुसार धर्म पूरी तरह से जीवन के हर पक्ष को प्रभावित करता है जबकि सम्प्रदाय का एक सीमित क्षेत्र है। संस्कृत कोश के अनुसार सम्प्रदाय का अर्थ है-धर्म (मोक्ष) शिक्षा की विशेष पद्घति। औक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार मज़हब का अर्थ है-वह धार्मिक ग्रुप या वर्ग जो मुख्य परम्परा से हटकर हो। सवाल यह है कि विभिन्न सम्प्रदाय पैदा क्यों और कैसे होते हैं। ऐसा लगता है कि सभी लोग धर्म के उदात्त स्वरूप को समझ नहीं पाते हैं जिस अहंकार से मुक्ति धर्म साधना की मुख्य शर्त होती है, उसी के वशीभूत होकर अपने-अपने ढंग से धर्म के मूल स्वरूप की व्याख्या करने लगते हैं।
दार्शनिक मतभेद के कारण भी अलग-अलग सम्प्रदायों का उदय होता है। उपनिषदों में अनुभूतिजन्य सत्य का वर्णन किया गया है। इन अनुभूतियों की व्याख्या उद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्घाद्वैत आदि दार्शनिक दृष्टिïयों से की गयी है। सत्य की अनुभूति के लिए इन सम्प्रदायों में अलग-अलग पद्घति बताई गयी है। लेकिन जो बात सबसे अहम है, वह यह है कि सभी सम्प्रदायों में साधना की पद्घति की विभिन्नता तो है लेकिन नैतिक आचरण के मामले पर लगभग पूरी तरह से एक रूपता है। परेशानी तब होती है जब विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी इस एकरूपता का कम महत्व देकर, भिन्नता पर ही फोकस कर लेते हैं और अपनी सांप्रदायिक मान्यता को सबसे ऊपर मानने लगते हैं।
यहां समझने की बात यह है कि अपने सम्प्रदाय को सबसे बड़ा मानने में वे अहंकार की शरण जाते हैं और हमने इस की शुरूआत में ही बता दिया है कि धार्मिक साधना की पहली शर्त ही अहंकार का खात्मा है। जब व्यक्ति या सम्प्रदाय अहंकारी हो जाता है तो संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है। जाहिर है कि अहंकारी व्यक्ति सांप्रदायिक तो हो सकता है, धार्मिक कतई नहीं हो सकता। संकुचित दृष्टि के कारण सामाजिक विद्वेष उत्पन्न होता है। लोग लक्ष्य को भूल जाते हैं और सत्य तक पहुंचने के रास्ते को ही महत्व देने लगते हैं और यही सांप्रदायिक आचरण है।
कभी-कभी स्वार्थी और चालक लोग भी साधारण लोगों को सांप्रदायिक श्रेष्ठता के नाम पर ठगते हैं। एक खास किस्म की पूजा पद्घति, कर्मकांड आदि के चक्कर में सादा दिल इंसान फंसता जाता है। समाज में दंगे फसाद इसे संकीर्ण स्वार्थ के कारण होते हैं। जो सत्ता सारी सृष्टि में व्याप्त है, उसे हम मंदिरों और गिरिजाघरों में सीमित कर देते हैं और इंसान को बांट देते हैं।धर्म का लक्ष्य सन्त चरित्र है, दम्भी, लोभी और भोगी गुरू नहीं सत्य तो एक ही है उसकी प्राप्ति के उपाय अनेक हो सकते हैं और अगर मकसद को भूलकर उस तक पहुंचने के साधन पर लड़ाई भिड़ाई हो जाए तो हम लक्ष्यहीन हो जाएंगी और दिग्भ्रम की स्थिति पद होगी। और इसी हालत का फायदा उठाकर हर धर्म का कठमुल्ला और धार्मिक विद्वेष की राजनीति की रोटी खाने वाला नेता सांप्रदायिक दंगे कराएगा, समाज को बांटेगा और धार्मिकता के लक्ष्य में अडंगा खड़ा करेगा।
ज़ाहिर है धर्म को सम्प्रदाय मानने की गलती से ही संघर्ष और दंगे फसाद के हालात पैदा होते हैं और अगर हमारी आजादी की लड़ाई के असली मकसद को हासिल करना है तो उदारवादी राजनीति के नेताओं को चाहिए वे आम आदमी को धर्म के असली अर्थ के बारे में जानकारी देने का अभियान चलाएं और लोगों को जागरूक करें। ऐसा करने से आजादी की लड़ाई का एक अहम लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा
हिंदू धर्म भारत का प्राचीन धर्म है। इसमें बहुत सारे संप्रदाय हैं। संप्रदायों को मानने वाला व्यक्ति अपने आपको हिंदू कहता है लेकिन हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका प्रतिपादन 1924 में वीडी सावरकर ने अपनी किताब 'हिंदुत्व में किया था। सावरकर इटली के उदार राष्ट्रवादी चिंतक माजिनी से बहुत प्रभावित हुए थे। उनके विचारों से प्रभावित होकर ही उन्होंने हिंदुत्व का राजनीतिक अभियान का मंच बनाने की कोशिश की थी।
सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा भी दी। उनके अनुसार -''हिंदू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र तक के भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि माने। इस विचारधारा को ही हिंदुत्व नाम दिया गया है। ज़ाहिर है हिंदुत्व को हिंदू धर्म से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन हिंदू धर्म और हिंदुत्व में शाब्दिक समानता के चलते पर्यायवाची होने का बोध होता है। इसी भ्रम के चलते कई बार सांप्रदायिकता के खतरे भी पैदा हो जाते हैं। धर्म और सांप्रदायिकता के सवाल पर कोई भी सार्थक बहस शुरू करने के पहले यह जरूरी है कि धर्म के स्वरूप और उसके दर्शन को समझने की कोशिश की जाये।
दर्शन शास्त्र के लगभग सभी विद्वानों ने धर्म को परिभाषित करने का प्रयास किया है। धर्म दर्शन के बड़े ज्ञाता गैलोबे की परिभाषा लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती है। उनका कहना है कि -''धर्म अपने से परे किसी शक्ति में श्रद्घा है जिसके द्वारा वह अपनी भावात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और जीवन में स्थिरता प्राप्त करना है और जिसे वह उपासना और सेवा में व्यक्त करता है। इसी से मिलती जुलती परिभाषा ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी दी गयी है जिसके अनुसार ''धर्म व्यक्ति का ऐसा उच्चतर अदृश्य शक्ति पर विश्वास है जो उसके भविष्य का नियंत्रण करती है जो उसकी आज्ञाकारिता, शील, सम्मान और आराधना का विषय है।
यह परिभाषाएं लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत में कुछं ऐसे भी धर्म हैं जो सैद्धांतिक रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। जैन धर्म में तो ईश्वर की सत्ता के विरूद्घ तर्क भी दिए गये हैं। बौद्ध धर्म में प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्घांत को माना गया है जिसके अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है और यह संसार कार्य-कारण की अनन्त श्रंखला है। इसी के आधार पर दुख के कारण स्वरूप बारह कडिय़ों की व्याख्या की गयी है। जिन्हें द्वादश निदान का नाम दिया गया है।
इसीलिए धर्म वह अभिवृत्ति है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को, प्रत्येक क्रिया को प्रभावित करती है। इस अभिवृत्ति का आधार एक सर्वव्यापक, अदार्श विषय के प्रति आस्था है। यह विषय जैन धर्म का कर्म-नियम, बौद्घों का प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्घांत या वैष्णवों, ईसाइयों और मुसलमानों का ईश्वर हो सकता है। आस्था और विश्वास में अंतर है। विश्वास तर्क और सामान्य प्रेक्षण पर आधारित होता है लेकिन आस्था तर्क से परे की स्थिति है। विश्वविख्यात दार्शनिक इमनुअल कांट ने आस्था की परिभाषा की है। उनके अनुसार ''आस्था वह है जिसमें आत्मनिष्ठ रूप से पर्याप्त लेकिन वस्तुन्ष्टि रूप से अपर्याप्त ज्ञान हो।
आस्था का विषय बुद्घि या तर्क के बिल्कुल विपरीत नहीं होता लेकिन उसे तर्क की कसौटी पर कसने की कोशिश भी नहीं की जानी चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि जो धार्मिक मान्यताएं बुद्घि के विपरीत हों, वे स्वीकार्य नहीं। धार्मिक आस्था तर्कातीत है तर्क विपरीत नहीं। सच्चाई यह है कि धार्मिक आस्था का आधार अनुभूति है। यह अनुभूति सामान्य अनुभूतियों से भिन्न है। इसी अनुभूति को रहस्यात्मक अनुभूति या समाधिजन्य अनुभूति का जाता है। यह अनुभूति सबको नहीं होती केवल उनको ही होती है जो अपने आपका इसके लिए तैयार करते हैं।
इस अनुभूति को प्राप्त करने के लिए धर्म में साधना का मार्ग बताया गया है। इस साधना की पहली शर्त है अहंकार का त्याग करना। जब तक व्यक्ति तेरे-मेरे के भाव से मुक्त नहीं होगा, तब तक चित्त निर्मल नहीं होगा और दिव्य अनुभूति प्राप्त नहीं होगी। इस अनुभूति का वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि इस अनुभूति के वक्त ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुरी नहीं रहती। कोई भी साधक जब इस अनुभूति का वर्णन करता है तो वह वर्णन अपूर्ण रहता है। इसीलिए संतों और साधकों ने इसके वर्णन के लिए प्रतीकों का सहारा लिया है। प्रतीक उसी परिवेश के लिए जाते हैं, जिसमें साधक रहता है इसीलिए अलग-अलग साधकों के वर्णन अलग-अलग होते हैं, अनुभूति की एकरूपता नहीं रहती।
लेकिन यह बात निर्विवाद है कि इस दिव्य अनुभूति का प्रभाव सभी देशों और कालों में रहने वाले साधकों पर एक सा पड़ता है। अध्यात्मिक अनुभूति की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि सन्त चरित्र है। सभी धर्मों के संतों का चरित्र एक सा रहता है। सन्तों का जीवन के प्रति दृष्टिïकोण बदल जाता है, ऐसे सन्तों की भाषा सदैव प्रतीकात्मक होती है। इसका उद्देश्य किसी वस्तुसत्ता का वर्णन करना न होकर, जिज्ञासुओं तथा साधकों में ऊंची भावनाएं जागृत करना होता है। सन्तों में भौतिक सुखों के प्रति उदासीनता का भाव पाया जाता है। लेकिन यह उदासीनता नकारात्मक नहीं होती। पतंजलि ने साफ साफ कहा है कि योग साधक के मन में मैत्री, करुणा एवं मुदिता अर्थात दूसरों के सुख में संतोष के गुण होने चाहिये।
सांसारिक सुखों के प्रति जो उदासीनता सन्तों में पाई जाती है उसे एक उदाहरण में समझा जा सकता है। छोटी बच्ची गुडिय़ा के गायब हो जाने पर दुखी होती है और मिल जाने पर खुश होती है। उसके माता पिता मुस्कुराते हैं और बच्ची के व्यवहार को नासमझी समझते हैं। उसी प्रकार सन्त भी आम आदमी के ईप्र्या, द्वेष, मान-अपमान संबंधी मापदंडों पर मुस्कुराते हैं और मानते हैं कि जीवन के उच्चतर मूल्यों को न समझ पाने के कारण व्यक्ति इस तरह का आचरण करता है। भौतिक उपलब्धियों के प्रति उदासीनता का यह भाव श्रेष्ठ वैज्ञानिकों, चिन्तकों आदि में भी पाया जाता है।
लेकिन सन्त मानवीय तकलीफों के प्रति उदासीन नहीं होते। अरण्यकांड के अंत मे गोस्वामी तुलसीदास ने सन्तों के स्वभाव की विवेचना की है। कहते हैं-संत सबके सहज मित्र होते हैं-श्रद्घा, क्षमा, मैत्री और करुणा उनके स्वाभाविक गुण होते हैं। बौद्घ ग्रंथों में भी ब्रह्मï विहार को भिक्षुओं का स्वाभाविक गुण बताया गया है। मैत्री, करुणा, मुदिता और सांसारिक भागों के प्रति उपेक्षा ही ब्रह्मï विहार हैं। किसी भी धर्म की सर्वोच्च उपलब्धि सन्त चरित्र ही है। इसीलिए हर धर्म के महान संतों ने मैत्री, करुणा और मुदिता का ही उपदेश दिया है। भारतीय संदर्भ में धर्म का विशेष अर्थ है। प्राचीन भारतीय चिन्तन में मूल्य का प्रयोग नहीं हुआ है। मूल्य की बजाय पुरुषार्थ शब्द का प्रयोग किया गया है।
चार पुरुषार्थ हैं-धर्म, अर्थ, काम है मोक्ष। आमतौर पर 'धर्म शब्द का प्रयोग मोक्ष या पारलौकिक आनन्द प्राप्त करने के मार्ग के रूप में किया जाता है। लेकिन भारतीय परम्परा में धर्म और मोक्ष समानार्थी शब्द नहीं हैं। धर्म का अर्थ नैतिक आचरण के रूप में किया गया है, धर्म सम्मत अर्थ और काम ही पुरुषार्थ हैं। धर्म शब्द की व्युत्पत्ति 'धृ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है धारण करना। महाभारत में कहा गया है कि जो समाज को धारण करे वही धर्म है।
यहां धर्म नैतिक चेतना या विवेक के अर्थ में प्रयोग किया गया है। वैसे भी भारतीय परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग अधिकतर कर्तव्य के अर्थ में ही होता है। इसीलिए धर्म के दो प्रकार बताए गये हैं-विशेषधर्म और सामान्य धर्म। सामान्य धर्म मानव का स्वाभाविक धर्म है जबकि विशेष धर्म उसके विभिन्न सामाजिक सन्दर्भों में कर्तव्य है। सामान्य धर्म है-धृति:, क्षमा,यम, शौचम् अस्तेयम् इन्द्रिय निग्रह, धा,विद्या, सत्यम, आक्रोध। मतलब यह है कि धर्म इंसान के लिए बहुत जरूरी चीज है। सच्चा धर्म मनुष्य के चरित्र को उदात्त बनाता है और वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा को विकसित करता है। धर्म मनुष्यों को जोड़ता है, तोड़ता नहीं।
प्रथम पुरुषार्थ के रूप में धर्म नैतिकता है और चौथे पुरुषार्थ, मोक्ष की प्राप्ति का साधन है। इसीलिए नैतिक आचरण या धर्म आचरण का पालन न करने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी नहीं हो सकता। हमने देखा कि भारतीय परम्परा के अनुसार धर्म पूरी तरह से जीवन के हर पक्ष को प्रभावित करता है जबकि सम्प्रदाय का एक सीमित क्षेत्र है। संस्कृत कोश के अनुसार सम्प्रदाय का अर्थ है-धर्म (मोक्ष) शिक्षा की विशेष पद्घति। औक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार मज़हब का अर्थ है-वह धार्मिक ग्रुप या वर्ग जो मुख्य परम्परा से हटकर हो। सवाल यह है कि विभिन्न सम्प्रदाय पैदा क्यों और कैसे होते हैं। ऐसा लगता है कि सभी लोग धर्म के उदात्त स्वरूप को समझ नहीं पाते हैं जिस अहंकार से मुक्ति धर्म साधना की मुख्य शर्त होती है, उसी के वशीभूत होकर अपने-अपने ढंग से धर्म के मूल स्वरूप की व्याख्या करने लगते हैं।
दार्शनिक मतभेद के कारण भी अलग-अलग सम्प्रदायों का उदय होता है। उपनिषदों में अनुभूतिजन्य सत्य का वर्णन किया गया है। इन अनुभूतियों की व्याख्या उद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्घाद्वैत आदि दार्शनिक दृष्टिïयों से की गयी है। सत्य की अनुभूति के लिए इन सम्प्रदायों में अलग-अलग पद्घति बताई गयी है। लेकिन जो बात सबसे अहम है, वह यह है कि सभी सम्प्रदायों में साधना की पद्घति की विभिन्नता तो है लेकिन नैतिक आचरण के मामले पर लगभग पूरी तरह से एक रूपता है। परेशानी तब होती है जब विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी इस एकरूपता का कम महत्व देकर, भिन्नता पर ही फोकस कर लेते हैं और अपनी सांप्रदायिक मान्यता को सबसे ऊपर मानने लगते हैं।
यहां समझने की बात यह है कि अपने सम्प्रदाय को सबसे बड़ा मानने में वे अहंकार की शरण जाते हैं और हमने इस की शुरूआत में ही बता दिया है कि धार्मिक साधना की पहली शर्त ही अहंकार का खात्मा है। जब व्यक्ति या सम्प्रदाय अहंकारी हो जाता है तो संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है। जाहिर है कि अहंकारी व्यक्ति सांप्रदायिक तो हो सकता है, धार्मिक कतई नहीं हो सकता। संकुचित दृष्टि के कारण सामाजिक विद्वेष उत्पन्न होता है। लोग लक्ष्य को भूल जाते हैं और सत्य तक पहुंचने के रास्ते को ही महत्व देने लगते हैं और यही सांप्रदायिक आचरण है।
कभी-कभी स्वार्थी और चालक लोग भी साधारण लोगों को सांप्रदायिक श्रेष्ठता के नाम पर ठगते हैं। एक खास किस्म की पूजा पद्घति, कर्मकांड आदि के चक्कर में सादा दिल इंसान फंसता जाता है। समाज में दंगे फसाद इसे संकीर्ण स्वार्थ के कारण होते हैं। जो सत्ता सारी सृष्टि में व्याप्त है, उसे हम मंदिरों और गिरिजाघरों में सीमित कर देते हैं और इंसान को बांट देते हैं।धर्म का लक्ष्य सन्त चरित्र है, दम्भी, लोभी और भोगी गुरू नहीं सत्य तो एक ही है उसकी प्राप्ति के उपाय अनेक हो सकते हैं और अगर मकसद को भूलकर उस तक पहुंचने के साधन पर लड़ाई भिड़ाई हो जाए तो हम लक्ष्यहीन हो जाएंगी और दिग्भ्रम की स्थिति पद होगी। और इसी हालत का फायदा उठाकर हर धर्म का कठमुल्ला और धार्मिक विद्वेष की राजनीति की रोटी खाने वाला नेता सांप्रदायिक दंगे कराएगा, समाज को बांटेगा और धार्मिकता के लक्ष्य में अडंगा खड़ा करेगा।
ज़ाहिर है धर्म को सम्प्रदाय मानने की गलती से ही संघर्ष और दंगे फसाद के हालात पैदा होते हैं और अगर हमारी आजादी की लड़ाई के असली मकसद को हासिल करना है तो उदारवादी राजनीति के नेताओं को चाहिए वे आम आदमी को धर्म के असली अर्थ के बारे में जानकारी देने का अभियान चलाएं और लोगों को जागरूक करें। ऐसा करने से आजादी की लड़ाई का एक अहम लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा
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Thursday, August 12, 2010
लालगढ़ में लाल होती राजनीति से दिल्ली में लाल होते चेहरे
शेष नारायण सिंह
( डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में छप चुका है )
माओवादी आतंकवादियों के गढ़ में बड़ी रैली करके तृणमूल कांग्रेस की नेता और रेल मंत्री ममता बनर्जी ने साबित कर दिया है कि वे पश्चिम बंगाल में सत्ता के दर पर दस्तक दे रही हैं. रैली में उनके साथ मंच पर मेधा पाटकर और स्वामी अग्निवेश मौजूद थे जिस से साबित होता है कि एन जी ओ सेक्टर पूरी तरह से ममता बनर्जी के साथ है.लेकिन राजनीतिक बिरादरी में ममत और माओवादियों के बीच बढ़ रही राजनीतिक निकटता को लेकर शंकाएं हैं .लोकसभा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों ने आरोप लगाया कि लाल गढ़ की रैली का इंतज़ाम पूरी तरह से माओवादियों के हाथ में था.और जो आदमी रैली का नेता था वह माओवादी आतंक से जुड़े अपराधों की जांच में पूछताछ का विषय है.माओवादियों को तृणमूल कांग्रेस का ख़ास सहयोगी बताते हुए मार्क्सवादी नेताओं ने सरकार से मांग की कि वह यू पी ए और माओवादी आतंकवाद के बीच के रिश्ते को साफ़ करे.कांग्रेस की औपचारिक लाइन चाहे जो हो लेकिन अनौपचारिक रूप से ममता बनर्जी के माओवादियों के रिश्ते की चर्चा से कांग्रेस में बहुत ज्यादा मतभेद हैं .प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने जब कहा कि माओवादी देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े बड़ा ख़तरा हैं , तो वे अपनी निजी राय नहीं दे रहे थे. वास्तव में वे सरकार की नीति बता रहे थे. विपक्ष ने सवाल किया कि जिस संगठन को प्रधान मंत्री सबसे बड़ा ख़तरा बता चुके हैं , उनकी सरकार के रेल मंत्री को क्या उसके साथ एक ही मंच पर मौजूद रहना चाहिए.. आरोप यह भी लगा है कि जिन लोगों के ऊपर सी आर पी एफ के जवानों को क़त्ल करने के आरोप लगे हैं , उन्हें मंच पर बुलाना क्या राष्ट्र हित में है. तृणमूल कांग्रेस के नेता, सुदीप बंद्योपाध्याय ने कहा कि ममता बनर्जी लाल गढ़ में शान्ति और एकता के मिशन पर गयी थीं.. राजनीतिक बयानबाजी की बात तो अलग है लेकिन ममता बनर्जी का रवैया कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा कर सकता है .गृह मंत्री पी चिदंबरम और कांगेस महासचिव, दिग्विजय सिंह पहले ही एक doosre के खिलाफ मैदान ले चुके हैं और अब कांग्रेस के प्रवक्ता लोग अपनी पार्टी को लालगढ़ रैली से अलग रखने की koshish कर रहे हैं लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि उनकी गति सांप छंछूदर की हो गयी है.उधर बाकी पार्टियों के लोग पीपुल्स कमेटी अगेंस्ट पुलिस अट्रोसिटीज़ को माओवादी संगठनों के मंच के रूप में पेश कर रहे हैं लेकिन तृणमूल कांग्रेस का दावा है कि पीपुल्स कमेटी अगेंस्ट पुलिस अट्रोसिटीज़ कोई प्रतिबंधित संगठन नहीं है. बी जे पी ने भी माओवादी आतंक को हल करने के सरकार के तरीकों पर सवाल उठाये हैं..
उधर माओवादियों के साथ सहानुभूति रखने वाली जमातें ममता को पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री के रूप में पेश करना शुरू कर चुकी हैं ..मेधा पाटकर ने लालगढ़ की रैली में ऐलान किया कि तृणमूल कांग्रेस ने वचन दिया है कि वह २०११ के बाद भी शोषण और भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान जारी रखेगी ,इसलिए वे उनके साथ हैं. उनके साथ आये स्वामी अग्निवेश ने कहा कि पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री को पूरी तरह से आराम करना चाहिए क्योंकि उसके बाद ममता बनर्जी का युग शुरू हो जाएगा.मेधा पाटकर ने माओवादी आतंकवादियों से भी अपील की कि उन्हें हथियार डाल देना चाहिए और शांतिपूर्वक अपनी मांगों को रखना चाहिए लेकिन बाकी राजनीतिक दलों के नेताओं को उनकी इस अपील में कोई दम नहीं नज़र आता क्योंकि माओवादियों की राजनीति का बुनियादी सिद्धांत ही सशस्त्र क्रान्ति है और वे उसी में लगे हुए हैं . अभी मेधा पाटकर और अग्निवेश जैसे लोग उन्हें समर्थन दे रहे हैं तो ठीक है लेकिन जब बात बढ़ जायेगी तो माओवादियों के प्रभाव वाले इलाकों में मेधा पाटकर के बिना भी राजनीति अच्छी तरह से चलाई जा सकती है.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का आरोप है कि लालगढ़ इलाके के माओवादियों को फिर से संगठित होने और अन्य सुरक्षित स्थानों पर भेजने के उद्देश्य से लाल गढ़ में रैली का आयोजन किया गया था. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के आला नेता, सीताराम येचुरी ने कहा कि प्रधानमंत्री को इस बात का जवाब देना होगा कि उनके सरकार की एक मंत्री उन्हीं माओवादियों के साथ मिलकर राजनीतिक गतिविधियों को संचालित कर रही है जिन माओवादियों को उन्होंने खुद देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए बहुत बड़ा ख़तरा बताया था. ममता बनर्जी ने कहा था कि उसी लालगढ़ में वे बिना सुरक्षा के घूम रही हैं जहां, पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री की जाने की हिम्मत नहीं पड़ी थी. सीताराम येचुरी ने कहा कि जिन लोगों से आम लोगों को ख़तरा हो सकता है , ममता बनर्जी तो उनके साथ मिलकर राजनीति कर रही हैं . उन्होंने बुद्धिजीवियों की भी खिंचाई की और कहा कि जिस तरह से पश्चिम बंगाल में आतंक को उकसाया जा अरझा है अगर उस पर फ़ौरन रोक न लगाई गयी तो नतीजे भयानक हो सकते हैं ..जो भी हो माओवादी राजनीति के कारण देश में आतंरिक हलचल है और इसे दुरुस्त करने की सख्त ज़रुरत है .
( डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में छप चुका है )
माओवादी आतंकवादियों के गढ़ में बड़ी रैली करके तृणमूल कांग्रेस की नेता और रेल मंत्री ममता बनर्जी ने साबित कर दिया है कि वे पश्चिम बंगाल में सत्ता के दर पर दस्तक दे रही हैं. रैली में उनके साथ मंच पर मेधा पाटकर और स्वामी अग्निवेश मौजूद थे जिस से साबित होता है कि एन जी ओ सेक्टर पूरी तरह से ममता बनर्जी के साथ है.लेकिन राजनीतिक बिरादरी में ममत और माओवादियों के बीच बढ़ रही राजनीतिक निकटता को लेकर शंकाएं हैं .लोकसभा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों ने आरोप लगाया कि लाल गढ़ की रैली का इंतज़ाम पूरी तरह से माओवादियों के हाथ में था.और जो आदमी रैली का नेता था वह माओवादी आतंक से जुड़े अपराधों की जांच में पूछताछ का विषय है.माओवादियों को तृणमूल कांग्रेस का ख़ास सहयोगी बताते हुए मार्क्सवादी नेताओं ने सरकार से मांग की कि वह यू पी ए और माओवादी आतंकवाद के बीच के रिश्ते को साफ़ करे.कांग्रेस की औपचारिक लाइन चाहे जो हो लेकिन अनौपचारिक रूप से ममता बनर्जी के माओवादियों के रिश्ते की चर्चा से कांग्रेस में बहुत ज्यादा मतभेद हैं .प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने जब कहा कि माओवादी देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े बड़ा ख़तरा हैं , तो वे अपनी निजी राय नहीं दे रहे थे. वास्तव में वे सरकार की नीति बता रहे थे. विपक्ष ने सवाल किया कि जिस संगठन को प्रधान मंत्री सबसे बड़ा ख़तरा बता चुके हैं , उनकी सरकार के रेल मंत्री को क्या उसके साथ एक ही मंच पर मौजूद रहना चाहिए.. आरोप यह भी लगा है कि जिन लोगों के ऊपर सी आर पी एफ के जवानों को क़त्ल करने के आरोप लगे हैं , उन्हें मंच पर बुलाना क्या राष्ट्र हित में है. तृणमूल कांग्रेस के नेता, सुदीप बंद्योपाध्याय ने कहा कि ममता बनर्जी लाल गढ़ में शान्ति और एकता के मिशन पर गयी थीं.. राजनीतिक बयानबाजी की बात तो अलग है लेकिन ममता बनर्जी का रवैया कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा कर सकता है .गृह मंत्री पी चिदंबरम और कांगेस महासचिव, दिग्विजय सिंह पहले ही एक doosre के खिलाफ मैदान ले चुके हैं और अब कांग्रेस के प्रवक्ता लोग अपनी पार्टी को लालगढ़ रैली से अलग रखने की koshish कर रहे हैं लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि उनकी गति सांप छंछूदर की हो गयी है.उधर बाकी पार्टियों के लोग पीपुल्स कमेटी अगेंस्ट पुलिस अट्रोसिटीज़ को माओवादी संगठनों के मंच के रूप में पेश कर रहे हैं लेकिन तृणमूल कांग्रेस का दावा है कि पीपुल्स कमेटी अगेंस्ट पुलिस अट्रोसिटीज़ कोई प्रतिबंधित संगठन नहीं है. बी जे पी ने भी माओवादी आतंक को हल करने के सरकार के तरीकों पर सवाल उठाये हैं..
उधर माओवादियों के साथ सहानुभूति रखने वाली जमातें ममता को पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री के रूप में पेश करना शुरू कर चुकी हैं ..मेधा पाटकर ने लालगढ़ की रैली में ऐलान किया कि तृणमूल कांग्रेस ने वचन दिया है कि वह २०११ के बाद भी शोषण और भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान जारी रखेगी ,इसलिए वे उनके साथ हैं. उनके साथ आये स्वामी अग्निवेश ने कहा कि पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री को पूरी तरह से आराम करना चाहिए क्योंकि उसके बाद ममता बनर्जी का युग शुरू हो जाएगा.मेधा पाटकर ने माओवादी आतंकवादियों से भी अपील की कि उन्हें हथियार डाल देना चाहिए और शांतिपूर्वक अपनी मांगों को रखना चाहिए लेकिन बाकी राजनीतिक दलों के नेताओं को उनकी इस अपील में कोई दम नहीं नज़र आता क्योंकि माओवादियों की राजनीति का बुनियादी सिद्धांत ही सशस्त्र क्रान्ति है और वे उसी में लगे हुए हैं . अभी मेधा पाटकर और अग्निवेश जैसे लोग उन्हें समर्थन दे रहे हैं तो ठीक है लेकिन जब बात बढ़ जायेगी तो माओवादियों के प्रभाव वाले इलाकों में मेधा पाटकर के बिना भी राजनीति अच्छी तरह से चलाई जा सकती है.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का आरोप है कि लालगढ़ इलाके के माओवादियों को फिर से संगठित होने और अन्य सुरक्षित स्थानों पर भेजने के उद्देश्य से लाल गढ़ में रैली का आयोजन किया गया था. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के आला नेता, सीताराम येचुरी ने कहा कि प्रधानमंत्री को इस बात का जवाब देना होगा कि उनके सरकार की एक मंत्री उन्हीं माओवादियों के साथ मिलकर राजनीतिक गतिविधियों को संचालित कर रही है जिन माओवादियों को उन्होंने खुद देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए बहुत बड़ा ख़तरा बताया था. ममता बनर्जी ने कहा था कि उसी लालगढ़ में वे बिना सुरक्षा के घूम रही हैं जहां, पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री की जाने की हिम्मत नहीं पड़ी थी. सीताराम येचुरी ने कहा कि जिन लोगों से आम लोगों को ख़तरा हो सकता है , ममता बनर्जी तो उनके साथ मिलकर राजनीति कर रही हैं . उन्होंने बुद्धिजीवियों की भी खिंचाई की और कहा कि जिस तरह से पश्चिम बंगाल में आतंक को उकसाया जा अरझा है अगर उस पर फ़ौरन रोक न लगाई गयी तो नतीजे भयानक हो सकते हैं ..जो भी हो माओवादी राजनीति के कारण देश में आतंरिक हलचल है और इसे दुरुस्त करने की सख्त ज़रुरत है .
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Monday, August 9, 2010
सीमा आजमी- भारतीय सिनेमा की नयी आजमी
शेष नारायण सिंह
मुंबई में शाहिद अनवर के नाटक ,सारा शगुफ्ता का मंचन होना था . थोडा विवाद भी हो गया तो लगा कि अब ज़रूर देख लेना चाहिए .बान्द्रा के किसी हाल में था. हाल में बैठ गए. सम्पादक साथ थे तो थोडा शेखी भी बनाकर रखनी थी कि गोया नाटक की विधा के खासे जानकार हैं. सारा को मैंने दिल्ली के हौज़ ख़ास में २५ साल से भी पहले अमृता प्रीतम के घर में देखा था . बाजू में स . प्रीतम सिंह का मकान था, वहीं पता लगा कि पाकिस्तानी शायरा ,सारा शगुफ्ता आई हुई हैं तो स्व. प्यारा सिंह सहराई की अचकन पकड़ कर चले गए . इस हवाले से सारा शगुफ्ता से मैं अपने को बहुत करीब मानता था . लेकिन एक बार की, एक घंटे की मुलाकात में जितने करीब आ सकते थे , थे उतने ही क़रीब . बहरहाल सारा की शख्सियत ऐसी थी कि उस एक बार की मुलाक़ात या दर्शन के बाद भी उनकी बहुत सारी बातें याद रह गयी हैं .तो मुंबई में जब सारा की ज़िंदगी के सन्दर्भ में एक नाटक की बात सुनी तो लगा कि देखना चाहिए . नाटक देखने गए . कम लोग आये थे. मंच पर जब अभिनेत्री आई तो लगा कि अगले दो घंटे बर्बाद हो गए .लेकिन कुछ मिनट बाद जब उसने शाहिद अनवर की स्क्रिप्ट को बोलना शुरू किया तो लगा कि अरे यह तो सारा शगुफ्ता की तरह ही बोल रही है और जब उसने कहा कि
मैदान मेरा हौसला है ,
अंगारा मेरी ख्वाहिश
हम सर पर कफ़न बाँध कर पैदा हुए हैं
अंगूठी पहन कर नहीं
जिसे तुम चोरी कर लोगे.
लगा जैसे करेंट छू गया हो और मैं अपनी कुर्सी के छोर पर आ गया . समझ में आ गया कि मैं किसी बहुत बड़ी अभिनेत्री से मुखातिब हूँ .नाटक आगे बढ़ा और जब मंच पर मौजूद अभिनेत्री ने कहा कि
मेरा बाप जिंदा था और हम यतीम हो गए .
तो मैं सन्न रह गया . याद आया कि ठीक इसी तरह से सारा ने शायद बहुत साल पहले यही बात कही थी . उसके बाद तो नाटक से वह अभिनेत्री गायब हो गयी अब मेरी सारा शगुफ्ता ही वहां मौजूद थी और मैं सब कुछ सुन रहा था.. कुछ देर बाद मुंबई के उस मंच पर मौजूद सारा ने कहा कि
चार बार मेरी शादी हुई, चार बार मैं पागलखाने गयी और चार बार मैंने खुदकुशी की कोशिश की
तो मुझे लगा कि यह सारा तो पाकिस्तानी समाज में औरत का जो मुकाम है उसको ही बयान कर रही है . नाटक आगे बढ़ा . सारा की शायद दो शादियाँ हो चुकी थीं. यह दूसरी शादी का ज़िक्र है उसके नए शौहर के घर में बुद्धिजीवियों की महफ़िल जमने लगी . संवाद आया कि
घर में महफ़िल जमती. लोग इलियट की तरह बोलते और सुकरात की तरह सोचते .
मैं चटाई पर लेटी दीवारें गिना करती और अपनी जहालत पर जलती भुनती रहती.
मेरे लिए यह भी जाना पहचाना मंज़र था ,यह तो अपनी दिल्ली है जहां सत्तर और अस्सी के दशक में अधेड़ लोग मंडी हाउस के आस पास पढने वाली २०-२२ साल की लड़कियों को ऐसी ही भाषा बोलकर बेवक़ूफ़ बनाया करते थे. और फिर शादी कर लेते थे . बाद में लगभग सबका तलाक़ हो जाता था ...अब मुझे साफ़ लग गया कि मुंबई के थियेटर के मंच पर जो सारा मौजूद है वह पूरी दुनिया की उन औरतों की बात कर रही है जो बड़े शहरों में रहने के लिए अभिशप्त हैं.
नाटक देखने के बाद आकर इसका रिव्यू लिख दिया , अपने अखबार में छप गया . कुछ पोर्टलों पर छपा और मैं भूल गया . शुरू में सोच था कि अगर सारा का रोल करने वाली अभिनेत्री, सीमा आज़मी कहीं मिल गयी तो उसका इंटरव्यू ज़रूर करूंगा . लेकिन नहीं मिली . किसी दोस्त से ज़िक्र किया तो उन्होंने मिला दिया और जब सीमा आजमी से बात की तो निराश नहीं हुआ. सीमा का संघर्ष भी गाँव से शहर आकर अपनी ज़िन्दगी अपनी, शर्तों पर जीने का फैसला करने वाली लड़कियों के गाइड का काम कर सकता है. सीमा की अब तक ज़िंदगी भी बहुत असाधारण है .
सीमा के पिताजी रेलवे में कर्मचारी थे ,दिल्ली में पोस्टिंग थी .सरकारी मकान था सरोजिनी नगर में .लेकिन उनकी माँ कुछ भाई बहनों के साथ गाँव में रहती थीं जबकि पिता जी सीमा और उनके दो भाइयों के साथ दिल्ली में रहते थे. सोचा था कि बच्चे पढ़-लिख जायेगें तो ठीक रहेगा. कोई सरकारी नौकरी मिल जायेगी ..बस इतने से सपने थे लेकिन सीमा के सपने अलग थे. उसने एन एस डी का नाम नहीं सुना था . लेकिन वहां से उसने तालीम पायी और एन एस डी की रिपर्टरी कंपनी में करीब ढाई साल काम किया . माता जी तो बेटी की हर बात को सही मानती थीं लेकिन पिता जी नाराज़ ही रहे . नाटक में काम करने वाली बेटी पर, आज़मगढ़ से आये एक मध्यवर्गीय आदमी को जितना गर्व होना था , बस उतना ही था. किसी से बताते तक नहीं थे . हाँ , जब फिल्म चक दे इण्डिया में काम मिला तो वे अपने दोस्तों से बेटी की तारीफ़ करने लगे और अब उन्हें भी अपनी बेटी पर नाज़ है . कई सीरियलों और कुछ फिल्मों में काम कर चुकी हैं , सीमा आजमी लेकिन अभी तो शुरुआत है . सीमा को अभिनय करते देख कर लगता है कि शबाना आजमी या स्मिता पाटिल की प्रतिभा वाली कोई लडकी भारतीय सिनेमा को नसीब हो गयी है .
मुंबई में शाहिद अनवर के नाटक ,सारा शगुफ्ता का मंचन होना था . थोडा विवाद भी हो गया तो लगा कि अब ज़रूर देख लेना चाहिए .बान्द्रा के किसी हाल में था. हाल में बैठ गए. सम्पादक साथ थे तो थोडा शेखी भी बनाकर रखनी थी कि गोया नाटक की विधा के खासे जानकार हैं. सारा को मैंने दिल्ली के हौज़ ख़ास में २५ साल से भी पहले अमृता प्रीतम के घर में देखा था . बाजू में स . प्रीतम सिंह का मकान था, वहीं पता लगा कि पाकिस्तानी शायरा ,सारा शगुफ्ता आई हुई हैं तो स्व. प्यारा सिंह सहराई की अचकन पकड़ कर चले गए . इस हवाले से सारा शगुफ्ता से मैं अपने को बहुत करीब मानता था . लेकिन एक बार की, एक घंटे की मुलाकात में जितने करीब आ सकते थे , थे उतने ही क़रीब . बहरहाल सारा की शख्सियत ऐसी थी कि उस एक बार की मुलाक़ात या दर्शन के बाद भी उनकी बहुत सारी बातें याद रह गयी हैं .तो मुंबई में जब सारा की ज़िंदगी के सन्दर्भ में एक नाटक की बात सुनी तो लगा कि देखना चाहिए . नाटक देखने गए . कम लोग आये थे. मंच पर जब अभिनेत्री आई तो लगा कि अगले दो घंटे बर्बाद हो गए .लेकिन कुछ मिनट बाद जब उसने शाहिद अनवर की स्क्रिप्ट को बोलना शुरू किया तो लगा कि अरे यह तो सारा शगुफ्ता की तरह ही बोल रही है और जब उसने कहा कि
मैदान मेरा हौसला है ,
अंगारा मेरी ख्वाहिश
हम सर पर कफ़न बाँध कर पैदा हुए हैं
अंगूठी पहन कर नहीं
जिसे तुम चोरी कर लोगे.
लगा जैसे करेंट छू गया हो और मैं अपनी कुर्सी के छोर पर आ गया . समझ में आ गया कि मैं किसी बहुत बड़ी अभिनेत्री से मुखातिब हूँ .नाटक आगे बढ़ा और जब मंच पर मौजूद अभिनेत्री ने कहा कि
मेरा बाप जिंदा था और हम यतीम हो गए .
तो मैं सन्न रह गया . याद आया कि ठीक इसी तरह से सारा ने शायद बहुत साल पहले यही बात कही थी . उसके बाद तो नाटक से वह अभिनेत्री गायब हो गयी अब मेरी सारा शगुफ्ता ही वहां मौजूद थी और मैं सब कुछ सुन रहा था.. कुछ देर बाद मुंबई के उस मंच पर मौजूद सारा ने कहा कि
चार बार मेरी शादी हुई, चार बार मैं पागलखाने गयी और चार बार मैंने खुदकुशी की कोशिश की
तो मुझे लगा कि यह सारा तो पाकिस्तानी समाज में औरत का जो मुकाम है उसको ही बयान कर रही है . नाटक आगे बढ़ा . सारा की शायद दो शादियाँ हो चुकी थीं. यह दूसरी शादी का ज़िक्र है उसके नए शौहर के घर में बुद्धिजीवियों की महफ़िल जमने लगी . संवाद आया कि
घर में महफ़िल जमती. लोग इलियट की तरह बोलते और सुकरात की तरह सोचते .
मैं चटाई पर लेटी दीवारें गिना करती और अपनी जहालत पर जलती भुनती रहती.
मेरे लिए यह भी जाना पहचाना मंज़र था ,यह तो अपनी दिल्ली है जहां सत्तर और अस्सी के दशक में अधेड़ लोग मंडी हाउस के आस पास पढने वाली २०-२२ साल की लड़कियों को ऐसी ही भाषा बोलकर बेवक़ूफ़ बनाया करते थे. और फिर शादी कर लेते थे . बाद में लगभग सबका तलाक़ हो जाता था ...अब मुझे साफ़ लग गया कि मुंबई के थियेटर के मंच पर जो सारा मौजूद है वह पूरी दुनिया की उन औरतों की बात कर रही है जो बड़े शहरों में रहने के लिए अभिशप्त हैं.
नाटक देखने के बाद आकर इसका रिव्यू लिख दिया , अपने अखबार में छप गया . कुछ पोर्टलों पर छपा और मैं भूल गया . शुरू में सोच था कि अगर सारा का रोल करने वाली अभिनेत्री, सीमा आज़मी कहीं मिल गयी तो उसका इंटरव्यू ज़रूर करूंगा . लेकिन नहीं मिली . किसी दोस्त से ज़िक्र किया तो उन्होंने मिला दिया और जब सीमा आजमी से बात की तो निराश नहीं हुआ. सीमा का संघर्ष भी गाँव से शहर आकर अपनी ज़िन्दगी अपनी, शर्तों पर जीने का फैसला करने वाली लड़कियों के गाइड का काम कर सकता है. सीमा की अब तक ज़िंदगी भी बहुत असाधारण है .
सीमा के पिताजी रेलवे में कर्मचारी थे ,दिल्ली में पोस्टिंग थी .सरकारी मकान था सरोजिनी नगर में .लेकिन उनकी माँ कुछ भाई बहनों के साथ गाँव में रहती थीं जबकि पिता जी सीमा और उनके दो भाइयों के साथ दिल्ली में रहते थे. सोचा था कि बच्चे पढ़-लिख जायेगें तो ठीक रहेगा. कोई सरकारी नौकरी मिल जायेगी ..बस इतने से सपने थे लेकिन सीमा के सपने अलग थे. उसने एन एस डी का नाम नहीं सुना था . लेकिन वहां से उसने तालीम पायी और एन एस डी की रिपर्टरी कंपनी में करीब ढाई साल काम किया . माता जी तो बेटी की हर बात को सही मानती थीं लेकिन पिता जी नाराज़ ही रहे . नाटक में काम करने वाली बेटी पर, आज़मगढ़ से आये एक मध्यवर्गीय आदमी को जितना गर्व होना था , बस उतना ही था. किसी से बताते तक नहीं थे . हाँ , जब फिल्म चक दे इण्डिया में काम मिला तो वे अपने दोस्तों से बेटी की तारीफ़ करने लगे और अब उन्हें भी अपनी बेटी पर नाज़ है . कई सीरियलों और कुछ फिल्मों में काम कर चुकी हैं , सीमा आजमी लेकिन अभी तो शुरुआत है . सीमा को अभिनय करते देख कर लगता है कि शबाना आजमी या स्मिता पाटिल की प्रतिभा वाली कोई लडकी भारतीय सिनेमा को नसीब हो गयी है .
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