शेष नारायण सिंह
मुंबई में शाहिद अनवर के नाटक ,सारा शगुफ्ता का मंचन होना था . थोडा विवाद भी हो गया तो लगा कि अब ज़रूर देख लेना चाहिए .बान्द्रा के किसी हाल में था. हाल में बैठ गए. सम्पादक साथ थे तो थोडा शेखी भी बनाकर रखनी थी कि गोया नाटक की विधा के खासे जानकार हैं. सारा को मैंने दिल्ली के हौज़ ख़ास में २५ साल से भी पहले अमृता प्रीतम के घर में देखा था . बाजू में स . प्रीतम सिंह का मकान था, वहीं पता लगा कि पाकिस्तानी शायरा ,सारा शगुफ्ता आई हुई हैं तो स्व. प्यारा सिंह सहराई की अचकन पकड़ कर चले गए . इस हवाले से सारा शगुफ्ता से मैं अपने को बहुत करीब मानता था . लेकिन एक बार की, एक घंटे की मुलाकात में जितने करीब आ सकते थे , थे उतने ही क़रीब . बहरहाल सारा की शख्सियत ऐसी थी कि उस एक बार की मुलाक़ात या दर्शन के बाद भी उनकी बहुत सारी बातें याद रह गयी हैं .तो मुंबई में जब सारा की ज़िंदगी के सन्दर्भ में एक नाटक की बात सुनी तो लगा कि देखना चाहिए . नाटक देखने गए . कम लोग आये थे. मंच पर जब अभिनेत्री आई तो लगा कि अगले दो घंटे बर्बाद हो गए .लेकिन कुछ मिनट बाद जब उसने शाहिद अनवर की स्क्रिप्ट को बोलना शुरू किया तो लगा कि अरे यह तो सारा शगुफ्ता की तरह ही बोल रही है और जब उसने कहा कि
मैदान मेरा हौसला है ,
अंगारा मेरी ख्वाहिश
हम सर पर कफ़न बाँध कर पैदा हुए हैं
अंगूठी पहन कर नहीं
जिसे तुम चोरी कर लोगे.
लगा जैसे करेंट छू गया हो और मैं अपनी कुर्सी के छोर पर आ गया . समझ में आ गया कि मैं किसी बहुत बड़ी अभिनेत्री से मुखातिब हूँ .नाटक आगे बढ़ा और जब मंच पर मौजूद अभिनेत्री ने कहा कि
मेरा बाप जिंदा था और हम यतीम हो गए .
तो मैं सन्न रह गया . याद आया कि ठीक इसी तरह से सारा ने शायद बहुत साल पहले यही बात कही थी . उसके बाद तो नाटक से वह अभिनेत्री गायब हो गयी अब मेरी सारा शगुफ्ता ही वहां मौजूद थी और मैं सब कुछ सुन रहा था.. कुछ देर बाद मुंबई के उस मंच पर मौजूद सारा ने कहा कि
चार बार मेरी शादी हुई, चार बार मैं पागलखाने गयी और चार बार मैंने खुदकुशी की कोशिश की
तो मुझे लगा कि यह सारा तो पाकिस्तानी समाज में औरत का जो मुकाम है उसको ही बयान कर रही है . नाटक आगे बढ़ा . सारा की शायद दो शादियाँ हो चुकी थीं. यह दूसरी शादी का ज़िक्र है उसके नए शौहर के घर में बुद्धिजीवियों की महफ़िल जमने लगी . संवाद आया कि
घर में महफ़िल जमती. लोग इलियट की तरह बोलते और सुकरात की तरह सोचते .
मैं चटाई पर लेटी दीवारें गिना करती और अपनी जहालत पर जलती भुनती रहती.
मेरे लिए यह भी जाना पहचाना मंज़र था ,यह तो अपनी दिल्ली है जहां सत्तर और अस्सी के दशक में अधेड़ लोग मंडी हाउस के आस पास पढने वाली २०-२२ साल की लड़कियों को ऐसी ही भाषा बोलकर बेवक़ूफ़ बनाया करते थे. और फिर शादी कर लेते थे . बाद में लगभग सबका तलाक़ हो जाता था ...अब मुझे साफ़ लग गया कि मुंबई के थियेटर के मंच पर जो सारा मौजूद है वह पूरी दुनिया की उन औरतों की बात कर रही है जो बड़े शहरों में रहने के लिए अभिशप्त हैं.
नाटक देखने के बाद आकर इसका रिव्यू लिख दिया , अपने अखबार में छप गया . कुछ पोर्टलों पर छपा और मैं भूल गया . शुरू में सोच था कि अगर सारा का रोल करने वाली अभिनेत्री, सीमा आज़मी कहीं मिल गयी तो उसका इंटरव्यू ज़रूर करूंगा . लेकिन नहीं मिली . किसी दोस्त से ज़िक्र किया तो उन्होंने मिला दिया और जब सीमा आजमी से बात की तो निराश नहीं हुआ. सीमा का संघर्ष भी गाँव से शहर आकर अपनी ज़िन्दगी अपनी, शर्तों पर जीने का फैसला करने वाली लड़कियों के गाइड का काम कर सकता है. सीमा की अब तक ज़िंदगी भी बहुत असाधारण है .
सीमा के पिताजी रेलवे में कर्मचारी थे ,दिल्ली में पोस्टिंग थी .सरकारी मकान था सरोजिनी नगर में .लेकिन उनकी माँ कुछ भाई बहनों के साथ गाँव में रहती थीं जबकि पिता जी सीमा और उनके दो भाइयों के साथ दिल्ली में रहते थे. सोचा था कि बच्चे पढ़-लिख जायेगें तो ठीक रहेगा. कोई सरकारी नौकरी मिल जायेगी ..बस इतने से सपने थे लेकिन सीमा के सपने अलग थे. उसने एन एस डी का नाम नहीं सुना था . लेकिन वहां से उसने तालीम पायी और एन एस डी की रिपर्टरी कंपनी में करीब ढाई साल काम किया . माता जी तो बेटी की हर बात को सही मानती थीं लेकिन पिता जी नाराज़ ही रहे . नाटक में काम करने वाली बेटी पर, आज़मगढ़ से आये एक मध्यवर्गीय आदमी को जितना गर्व होना था , बस उतना ही था. किसी से बताते तक नहीं थे . हाँ , जब फिल्म चक दे इण्डिया में काम मिला तो वे अपने दोस्तों से बेटी की तारीफ़ करने लगे और अब उन्हें भी अपनी बेटी पर नाज़ है . कई सीरियलों और कुछ फिल्मों में काम कर चुकी हैं , सीमा आजमी लेकिन अभी तो शुरुआत है . सीमा को अभिनय करते देख कर लगता है कि शबाना आजमी या स्मिता पाटिल की प्रतिभा वाली कोई लडकी भारतीय सिनेमा को नसीब हो गयी है .
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Monday, August 9, 2010
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