शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली ,९ दिसंबर. कार्मिक लोक शिकायत,कानून और न्याय संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने आज संसद के दोनों सदनों में लोक पाल विधेयक २०११ के सम्बन्ध में अपनी सिफारिशें पेश कर दीं. यह स्थायी समिति राज्यसभा के प्रशासनिंक कंट्रोल में है इसलिए इसके अध्यक्ष भी राज्यसभा के सदस्य अभिषेक मनु सिंघवी हैं. अगस्त में अन्ना हजारे के अनशन से पैदा हुए राजनीतिक हालात के बाद लोकसभा में हुई बहस और लोकसभा की मंशा वाले प्रस्ताव के पारित होने के बाद लोकपाल बिल का ड्राफ्ट संसद की स्थायी समिति के पास विचार के लिए भेजा गया था . संसद की स्थायी समिति एक ताक़तवर समिति होती है . उसके पास सरकार के पास से आये बिल को पूरी तरह से खारिज करने समेत उसे पूरी तरह से संशोधित करने का अधिकार तक होता है . कई बार ऐसा भी हुआ है कि स्थाई समिति ने सरकार की तरफ से पेश किये गए कानूनों के कुछ मसौदों को पूरी तरह से खारिज कर दिया है .लोकपाल और राज्यों में नियुक्त होने वाले लोकायुक्तों को संवैधानिक दर्ज़ा दिया गया है जिससे उनेक काम काज में सरकारी या किसी अन्य किस्म का दबाव न पड़ सके.
लोकपाल बिल लोक सभा में ४ अगस्त २०११ को पेश किया गया था और इसे संसद की स्थायी समिति को ८ अगस्त को भेजा गया था . इस बिल का उद्देश्य एक ऐसा कानून बनाना है जो सरकार में विभिन्न पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार के बारे में जांच करेगा. इस कमेटी के सामने विचार के लिए दस हज़ार सुझाव आये . अन्ना हजारे की टीम ने भी समिति के सामने कई बार हाज़िर होकर अपनी बात रखी २३ सितम्बर २०११ के दिन पहली बैठक हुई और अंतिम बैठक ७ दिसंबर को हुई. इस बीच कमेटी के सामने कई न्यायविद, भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश , गैरसरकारी संगठनों के प्रतिनधि , टीम अन्ना के प्रतिनिधि , अन्ना हजारे खुद ,धार्मिक संगठन ,सी बी आई, सी वी सी आदि बहुत सारे लोग पेश हुए.
रिपोर्ट संसद में पेश होने के बाद समिति के अध्यक्ष , अभिषेक मनु सिंघवी ने पत्राकारों से बात की और बताया कि सरकार के बहुत सारे सुझाव खारिज कर दिए गए हैं . जो ड्राफ्ट कमेटी के पास आया था उसको पूरी तरह से स्वीकार करने का कोई कारण नहीं था. करीब ढाई महीने की बैठकों के बाद जो सिफारिशें सरकार को दी गयी हैं उनमें टीम अन्ना समेत बहुत सारे लोगों के सुझाव हैं . किसी भी संगठन की बात को पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया गया है.
अगर स्थायी समिति की सिफारिशों को मान लिया गया तो देश में भ्रष्टाचार की जांच की प्रक्रिया में बुनियादी बदलाव आ जायेगें . मसलन सी बी आई को अब केवल जांच करने का अधिकार रहेगा. मुक़दमा चलाने का अधिकार प्रस्तावित लोक पाल विधेयक के अभियोजन विभाग को सौंप दिया जाएगा .. सिफारिशों में प्रावधान है कि लोकपाक के अधीन एक अभियोजन विभाग बनाया जाए. और इस तरह से देश में पिछले साठ वर्षों से चल रही उस मांग को पूरा किया जा सकेगा जिसके तहत एक अभियोजन सर्विस शुरू करने की मांग होती रही है . अन्ना हजारे वालों को स्थायी समिति से निराशा इसलिए हुई है क्योंकि वे चाहते थे कि लोकपाल के अधीन ही देश के सभी सरकारी कर्मचारी आ जाएँ .लेकिन स्थाई समिति ने सुझाव दिया है कि प्रथम और द्वितीय श्रेणी के सभी अधिकारी लोकपाल के दायरे में आ जाएँ जबकि तीसरी श्रेणी के कर्मचारी मुख्य सतर्कता आयोग के जांच के दायरे में डाल दिए जाएँ . आने वाले समय में चतुर्थ श्रेणी का कोई कर्मचारी नहीं रह जाएगा क्योंकि ताज़ा वेतन आयोग की सिफारिशों में प्रावधान है कि चौथी श्रेणी को तीसरी श्रेणी में ही मिला दिया जाएगा.
अन्ना हजारे की टीम वालों को प्रधान मंत्री को लोकपाल के दायरे में न लाने पर भी परेशानी होगी क्योंकि समिति ने प्रधान मंत्री को लोक पाल में लाने के मामले को पूरी संसद के विवेक पर छोड़ दिया है . सी बी आई के कलेवर में भी पूरा बदलाव कर दिया गया है . सी बी आई अब प्रिलिमिनरी जाँच नहीं करेगी . वह कम लोकपाल का होगा . जिन मामलों में लोकपाल को लगेगा कि गंभीर जांच की ज़रुरत है, उन्हें सी बी आई के हवाले किया जाएगा. जांच के दौरान न तो लोकपाल और न ही सरकार सी बी आई के काम में दखल दे सकेंगें. जांच पूरी होने पर लोकपाल के अभियोजन विभाग का ज़िम्मा होगा कि वह विशेष अदालत में मुक़दमा चलाये और दोषी व्यक्ति को सज़ा दिलवाए. .समिति की सबसे अहम सिफारिश यह है कि अब किसी भी कर्मचारी के भ्रष्टाचार या किसी अन्य आपराधिक जांच करने के लिए जांच एजेंसी को किसी से परमिशन नहीं लेना पडेगा. अब तक होता यह था कि सम्बंधित उच्च अधिकारी मिलीभगत करके जांच की अनुमति ही नहीं देते थे . नतीजा यह होता था कि भ्रष्टाचारी कर्मचारी खुले आम घूमता रहता था.
. संसद सदस्यों के बारे में कमेटी ने साफ़ कहा है कि संविधान के अनुच्छेद १०५ में दिए गए अधिकार उनको मिलते रहेगें . संसद के अंदर के किसी भी काम पर उन्हें पहले की तरह के अधिकार हैं . लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनको अपराध करने के छूट है. संसद के ऐसे सदस्यों को दंड देने का अधिकार है जो संसद की मर्यादा को लांघते हैं .सरकारी कंपनियों , एन जी ओ और मीडिया को भी लोकपाल के दायरे में लिया गया है . जो बात अन्ना हजारे की टीम को बहुत बुरी लगेगी , वह यह है कि दस लाख से ज्यादा धन दान में लेने वाले एन जी ओ को भी लोक पाल के घेरे में ले लिया गया है . अन्ना हजारे की टीम कई सदस्यों के पास जो कई एन जी ओ हैं वे सभी लोकपाल के दायरे में अपने आप आ जायेगे,. विदेशों से धन लेने वालों को भी लोकपाल की जांच सीमा में डाल दिया गया है . अन्ना की टीम के सभी सदस्य और उनेक एन जी ओ इस प्रावधान के लपेटे इमं आ जायेगें .
गलत शिकायत करने वालों को अब तक पांच साल की सजा और कई लाख रूपये के दंड का प्रावधान था. अब कानून में ज़रूरी सुधार करके आर्थिक जुर्माना २५ हज़ार कर दिया जाएगा जबकि जेल की सजा घटा कर छः महीने कर दी जायेगी. लोकपाल की नियुक्ति के लिए भी बहुत ऊंचे आदर्श रखे गए हैं . प्रधान मंत्री, लोक सभा के अध्यक्ष , लोक सभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश के अलावा एक बहुत ही सम्मानित व्यक्ति को चयन समिति में रखा जाएगा. इस सम्मानित व्यक्ति का चुनाव सी ए जी, सी वी सी और संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष करेगें . इस चयन समिति के विचार के लिए जो नाम भेजे जायेगें उनके लिए कम से कम सात सदस्यों की एक खोजबीन समिति बनायी जायेगी. इस खोजबीन समिति में कम से कम ५० प्रतिशत ऐसे लोग होंगें जो अनुसूचित जाति , महिला ,अल्पसंख्यक और ओ बी सी समुदाय से होंगें .सरकारी बिल में लिखा गया था कि भारत के वर्तमान या पूर्व मुख्य न्यायाधीश को या सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान या अवकाश प्राप्त न्यायाधीश को ही लोक पाल बनाया जाए .स्थायी समिति ने इस बात को खारिज कर दिया है . चयन समिति के सामने अब ऐसा कोई न बंधन नहीं होगा . किसी को भी लोकपाल बनाया जा सकता है.
लोक पाल के दायरे में न्याय पालिका को शामिल नहीं किया गया है . लेकिन उनके लिए एक विस्तृत न्यायिक मानक और जवाब देही विधेयक के सिफारिश की गयी है जिसका काम यह होगा कि जजों की शुरुआती भर्ती के स्टेज से सक्रिय रहकर न्याय व्यवस्था को भ्रष्टाचार की सीमा से बाहर रखने का काम करे.
लोक पाल के साथ ही नागरिक चार्टर और शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना करने वाले कानून को भी बनाने की सिफारिश इस समिति ने किया है. जिसका उद्देश्य उन सरकारी अफसरों पर लगाम कसना है जो अपना काम नियम के अनुसार और सही वक़्त पर नहीं करते.
Saturday, December 10, 2011
महंगाई के मुद्दे पर सरकार को नहीं घेर सकी भाजपा
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली ,८ दिसंबर. महंगाई के मामले पर सरकार को घेरने में नाकाम रही भाजपा ने सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए आज फिर वही २ जी वाला रास्ता चुना. लोक सभा में आज भाजपा महंगाई के मुद्दे पर नियम १९३ के तहत बहस के लिए राजी हो गयी जिसका मतलब कि केंद्र सरकार को संसद में महंगाई के मुद्दे पर वोट का सामना नहीं करना पड़ा . अगर बहस नियम १८४ के तहत होती तो सरकार मुश्किल में पड़ सकती थी. भाजपा को आज राजनीतिक संजीवनी सुब्रमण्यम स्वामी के एक मुदमे से मिली आज नई दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी की एक अर्जी मंजूर कर ली गयी .अब वे गवाहों से जिरह कर सकेगें . अब इस बात की संभावना बढ़ गयी है कि सुब्रमण्यम स्वामी कोर्ट में गृहमंत्री,पी चिदम्बरम से पूछताछ कर सकेगें हालांकि इसमें अभी बहुत सारी अडचने हैं लेकिन आज के नई दिल्ली की अदालत के आदेश के बाद रास्ता थोडा आसान हो गया है . स्वामी का आरोप है कि २ जी के घोटाले में ए राजा और पी चिदंबरम बराबर के गुनहगार हैं . इस आदेश के आते ही सुब्रमण्यम स्वामी की पुरानी पार्टी जनसंघ के साथी जो आजकल भाजपा में हैं ,सरकार पर टूट पड़े और गृहमंत्री के इस्तीफे की मांग को फिर से उठाना शुरू कर दिया . हालांकि सरकार ने भाजपा की मंशा को कमज़ोर करने की गरज से साफ़ कहा कि पी चिदंबरम के इस्तीफे का सवाल ही नहीं पैदा होता .
कांग्रेस और केंद्र सरकार ने भाजपा की ओर से आ रही पी चिंदबरम के इस्तीफे की मांग को राजनीतिक अवसरवादिता बताया है . कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि नई दिल्ली कोर्ट का आज का आदेश न्यायिक प्रक्रिया में एक कड़ी मात्र है . यह कोई फैसला नहीं है . इस आदेश से यह कहीं से साबित नहीं होता कि पी चिंदबरम का आपाध साबित हो गया है .उन्होंने विपक्ष के अभियान को ज़बरदस्ती के एराजनीति बताया और कहा कि यह लोग किसी न किसी बहाने से संसद के काम में बाधा डालने के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं . संसदीय कार्य मंत्री राजीव शुक्ल ने कहा कि भाजपा के पास कोई रचनात्मक मुद्दा नहीं है इसलिए वे सरकार को मीडिया के ज़रिये घेरने की कोशिश कर रहे हैं .
कोर्ट में जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी ने चिदंबरम के खिलाफ सीबीआई जांच की मांग की अर्जी लगाई थी और आरोप लगाया था कि 2008 में जब चिदंबरम वित्त मंत्री थे तो उन्हें 2जी आवंटन में ए राजा के साथ मिलकर हेराफेरी की थी . हालांकि आज सुब्रमण्यम स्वामी बहुत दुखी थे क्योंकि आज ही खबर आई है कि अब उनको हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाने लायक नहीं माना जा रहा है लेकिन उनके मुक़दमे से उनकी पुरानी पार्टी वालों को सरकार पर मीडिया आक्रमण करने का एक और मौक़ा मिल गया है . भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने किसी टी वी चैनल पर कहा कि अब अगर थोड़ी सी शर्म चिंदबरम में बाकी है तो उन्हें तुरंत कुर्सी छोड़ देना चाहिए।
पटियाला हाउस कोर्ट ने सुब्रमण्यम स्वामी को सीबीआई के एक बड़े अधिकारी समेत वित्त मंत्रालय के अधिकारी एस एस खुल्लर से भी बातचीत की अनुमति दी है. लेकिन इसके पहले उन्हें 17 दिसंबर को गवाह के तौर पेश होकर गवाही देनी पड़ेगी. अगर कोर्ट स्वामी की गवाही से संतुष्ट होगा तभी चिंदबरम से पूछताछ संभव हो पायेगी. इसका मतलब यह हुआ कि अभी पी चिदंबरम से जिरह की संभावना में कई दिक्क़तें हैं लेकिन भाजपा वाले इस मुद्दे को राजनीतिक बनाने के चक्कर में इसे ले उड़े हैं .अभी २ जी मामले की जांच कर रही सीबीआई चिंदबरम को दोषी नहीं मानती .सीबीआई का दावा है कि वह मामले को लेकर चार्जशीट दाखिल कर चुकी है इसलिए चिदंबरम के खिलाफ जांच नहीं की जा सकती. ज़ाहिर है पी चिंदबरम का केस शुद्ध रूप से राजनीतिक मामला है और भाजपा के एपूरी कोशिश है इस के सहारे केंद्र सरकार को भ्रष्ट साबित करने के उसके प्रोजेक्ट को ताक़त मिले
नई दिल्ली ,८ दिसंबर. महंगाई के मामले पर सरकार को घेरने में नाकाम रही भाजपा ने सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए आज फिर वही २ जी वाला रास्ता चुना. लोक सभा में आज भाजपा महंगाई के मुद्दे पर नियम १९३ के तहत बहस के लिए राजी हो गयी जिसका मतलब कि केंद्र सरकार को संसद में महंगाई के मुद्दे पर वोट का सामना नहीं करना पड़ा . अगर बहस नियम १८४ के तहत होती तो सरकार मुश्किल में पड़ सकती थी. भाजपा को आज राजनीतिक संजीवनी सुब्रमण्यम स्वामी के एक मुदमे से मिली आज नई दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी की एक अर्जी मंजूर कर ली गयी .अब वे गवाहों से जिरह कर सकेगें . अब इस बात की संभावना बढ़ गयी है कि सुब्रमण्यम स्वामी कोर्ट में गृहमंत्री,पी चिदम्बरम से पूछताछ कर सकेगें हालांकि इसमें अभी बहुत सारी अडचने हैं लेकिन आज के नई दिल्ली की अदालत के आदेश के बाद रास्ता थोडा आसान हो गया है . स्वामी का आरोप है कि २ जी के घोटाले में ए राजा और पी चिदंबरम बराबर के गुनहगार हैं . इस आदेश के आते ही सुब्रमण्यम स्वामी की पुरानी पार्टी जनसंघ के साथी जो आजकल भाजपा में हैं ,सरकार पर टूट पड़े और गृहमंत्री के इस्तीफे की मांग को फिर से उठाना शुरू कर दिया . हालांकि सरकार ने भाजपा की मंशा को कमज़ोर करने की गरज से साफ़ कहा कि पी चिदंबरम के इस्तीफे का सवाल ही नहीं पैदा होता .
कांग्रेस और केंद्र सरकार ने भाजपा की ओर से आ रही पी चिंदबरम के इस्तीफे की मांग को राजनीतिक अवसरवादिता बताया है . कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि नई दिल्ली कोर्ट का आज का आदेश न्यायिक प्रक्रिया में एक कड़ी मात्र है . यह कोई फैसला नहीं है . इस आदेश से यह कहीं से साबित नहीं होता कि पी चिंदबरम का आपाध साबित हो गया है .उन्होंने विपक्ष के अभियान को ज़बरदस्ती के एराजनीति बताया और कहा कि यह लोग किसी न किसी बहाने से संसद के काम में बाधा डालने के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं . संसदीय कार्य मंत्री राजीव शुक्ल ने कहा कि भाजपा के पास कोई रचनात्मक मुद्दा नहीं है इसलिए वे सरकार को मीडिया के ज़रिये घेरने की कोशिश कर रहे हैं .
कोर्ट में जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी ने चिदंबरम के खिलाफ सीबीआई जांच की मांग की अर्जी लगाई थी और आरोप लगाया था कि 2008 में जब चिदंबरम वित्त मंत्री थे तो उन्हें 2जी आवंटन में ए राजा के साथ मिलकर हेराफेरी की थी . हालांकि आज सुब्रमण्यम स्वामी बहुत दुखी थे क्योंकि आज ही खबर आई है कि अब उनको हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाने लायक नहीं माना जा रहा है लेकिन उनके मुक़दमे से उनकी पुरानी पार्टी वालों को सरकार पर मीडिया आक्रमण करने का एक और मौक़ा मिल गया है . भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने किसी टी वी चैनल पर कहा कि अब अगर थोड़ी सी शर्म चिंदबरम में बाकी है तो उन्हें तुरंत कुर्सी छोड़ देना चाहिए।
पटियाला हाउस कोर्ट ने सुब्रमण्यम स्वामी को सीबीआई के एक बड़े अधिकारी समेत वित्त मंत्रालय के अधिकारी एस एस खुल्लर से भी बातचीत की अनुमति दी है. लेकिन इसके पहले उन्हें 17 दिसंबर को गवाह के तौर पेश होकर गवाही देनी पड़ेगी. अगर कोर्ट स्वामी की गवाही से संतुष्ट होगा तभी चिंदबरम से पूछताछ संभव हो पायेगी. इसका मतलब यह हुआ कि अभी पी चिदंबरम से जिरह की संभावना में कई दिक्क़तें हैं लेकिन भाजपा वाले इस मुद्दे को राजनीतिक बनाने के चक्कर में इसे ले उड़े हैं .अभी २ जी मामले की जांच कर रही सीबीआई चिंदबरम को दोषी नहीं मानती .सीबीआई का दावा है कि वह मामले को लेकर चार्जशीट दाखिल कर चुकी है इसलिए चिदंबरम के खिलाफ जांच नहीं की जा सकती. ज़ाहिर है पी चिंदबरम का केस शुद्ध रूप से राजनीतिक मामला है और भाजपा के एपूरी कोशिश है इस के सहारे केंद्र सरकार को भ्रष्ट साबित करने के उसके प्रोजेक्ट को ताक़त मिले
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ज़रदारी से नाराज़ पाकिस्तानी फौज ने की इमरान खां की ताजपोशी की तैयारी
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता के घेरे में है . बिना पहले से तय किसी कार्यक्रम के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी दुबई चले गए हैं . उनके बेटे ,बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी से मुलाक़ात की है . बिलावल पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष भी हैं . सरकारी तौर पर बताया गया है कि ज़रदारी मेडिकल जांच के सिलसिले में दुबई गए हैं लेकिन पाकिस्तान में पहले भी बड़े बड़े फैसले पब्लिक डोमेन में अफवाहों के रास्ते ही आये हैं . पाकिस्तानी सियासत के जानकार बताते है क कुछ बड़ा मामला हो चुका है .पाकिस्तानी फौज ने ज़रदारी को सत्ता से अलग करने की अपनी योजना को अंजाम तक पंहुचा दिया है और अब उसकी औपचारिकता पूरी की जा रही हो .वैसे भी पाकिस्तान में किसी भी सिविलियन सरकार ने कभी भी अपना वक़्त पूरा नहीं किया है ,हो सकता है कि ज़रदारी का भी वही हाल हो .
अंग्रेज़ी सत्ता के ख़त्म होने के बाद जब भारत को आज़ादी मिली तो जुगाड़ करके मुहम्मद अली जिन्नाह ने भारत के कई टुकड़े करवा कर पाकिस्तान नाम का देश बनवा दिया था. पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में हासिल करने के लिए पाकिस्तान के संस्थापाक मुहम्मद अली जिन्नाह ने एक दिन की भी जेलयात्रा नहीं की,कोई संघर्ष नहीं किया . बस लिखापढी करके पाकिस्तान ले लिया था . नतीजा यह हुआ कि जब उनके शागिर्द लियाक़त अली प्रधानमंत्री बने तो पाकिस्तान में बहुत से ऐसे लोग थे जो यह मानते थे कि लियाक़त अली को प्रधानमंत्री बनवाकर जिन्नाह ने गलती की है , लियाक़त अली से भी बहुत ज्यादा काबिल लोग पाकिस्तान में मौजूद थे. बाद में उन्हीं बहुत काबिल लोगों ने लियाक़त अली को क़त्ल करवा दिया था. बाद में जनरल अयूब ने सिविलियन सत्ता को धता बताकर फौज की हुकूमत कायम कर दी थी. यही सिलसिला पिछले साठ साल से चल रहा है. हर बार फौज सिविलियन हुकूमत को हटाने के लिए नई नई तरकीबें अपनाती है . कभी भुट्टो को गिरफ्तार करती है तो कभी नवाज़ शरीफ को देश से निकाल देती है .हो सकता है कि इस बार इलाज के लिए दुबई भेजकर राष्ट्रपति की छुट्टी करने की योजना बनायी गयी हो और उसी को अंजाम तक पंहुचाया जा रहा हो. जो भी ,इतना पक्का है कि बार बार फौजी हुकूमत कायम होने की वजह से बाकी दुनिया में पाकिस्तानी राष्ट्र की विश्वसनीयता बहुत ही कम हो गयी है . अब तक पाकिस्तान को अमरीका का पिछलग्गू देश माना जाता था , अब उसे चीन का मुहताज माना जाता है . जो भी हो अपनी स्थापना के साथ से ही राजनीतिक अस्थिरता का शिकार बने एक राष्ट्र की जितनी दुर्दशा होती है , पाकिस्तान की उतनी ही दुर्दशा हो रही है .
हर बार की तरह ,इस बार भी पाकिस्तान के मौजूदा संकट का कारण अमरीका है . अफगानिस्तान में तैनात नैटो के नाम से काम करने वाली अमरीकी फौज़ ने पाकिस्तान की सीमा में तैनात उसके २४ फौजियों मार डाला . इसके बाद पूरे देश में राजनीतिक तूफ़ान आ गया . पाकिस्तानी हुकूमत पर दबाव पड़ने लगा कि वह अमरीका से सख्ती से पेश आये . लेकिन अमरीकी मदद से अपने देश का आर्थिक इंतज़ाम कर रहे पाकिस्तान की यह हैसियत नहीं है कि वह अमरीका से सख्ती का रुख अपनाए .अमरीका के राष्ट्रपति ने भी पाकिस्तान की सिविलियन सरकार को जीत का दावा करने का कोई मौक़ा नहीं दिया . अगर अमरीका माफी मांग लेता तो ज़रदारी समेत बाकी पाकिस्तान परस्त हुक्मरानों को मुह छुपाने का मौका मिल जाता लेकिन अमरीका ने वह मौक़ा भी नहीं दिया . नतीजा सामने है . जानकार बताते हैं कि अमरीका खुद चाहता है कि अब ज़रदारी की छुट्टी कर दी जाए. वैसे भी अमरीका हमेशा से ही पाकिस्तानी फौज के तानाशाहों को अपने लिए मुफीद मानता रहा है . जो भी फौजी जनरल पाकिस्तान का शासक बना है ,वह पक्के तौर पर अमरीका का फरमाबरदार रहा है . जनरल अयूब ने पाकिस्तानी फौज़ को शुरुआती दिनों में अमरीकी साज़ सामान से पाट दिया था. १९६५ में भारत पर जब उन्होंने हमला किया था तो उन्हें मुगालता था कि सुपीरियर अमरीकी असलहों के बल पर वे भारत को हरा देगें लेकिन ऐसा न हुआ . अमरीकी पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने दौड़ा दौड़ा कर मारा था और सैकड़ों की तादाद में उन टैंकों को ट्राफी के तौर पर भारत लाये थे . आज भारत की बहुत सारी सैनिक छावनियों में पाकिस्तानी सेना से छीने हुए अमरीका के पैटन टैंक बतौर ट्राफी देखने को मिलते रहते हैं. दूसरे फौजी जनरल याहया खां भी बहुत बड़े अमरीका परस्त थे. उनकी हुकूमत के दौरान ही पूर्वी पाकिस्तान को बंगला देश बना दिया गया था. तीसरे फौजी शासक , जनरल जिया उल हक थे . १९७१ की लड़ाई का दर्द उनको हमेशा सालता रहता था ,इसलिए उन्होंने हमेशा ही भारत को तबाह करने की योजना पर ही काम किया . भारत का सबसे बड़ा दुश्मन हाफ़िज़ सईद जनरल जिया उल हक का चेला है . भारत को तबाह करने में जनरल जिया को अमरीका से भी मदद मिली . पंजाब में आतंकवाद और कश्मीर में आतंकवाद जनरल जिया की कृपा से ही शुरू हुआ. परवेज़ मुशर्रफ भी खासे अमरीका परस्त राष्ट्रपति थे. अमरीका को खुश रखने के लिए उन्होंने पाकिस्तान को अमरीकी फौजों के हवाले कर दिया और अफगानिस्तान के तालिबान शासकों को नष्ट करने के लिए अफगानिस्तान पर होने वाले अमरीकी हमलों के लिए बेस उपलब्ध कराया . अब तक पाकिस्तानी फौज अमरीका की बहुत ही प्रिय फौज रही है लेकिन इस बार मामला गड़बड़ा रहा है . पाकिस्तानी फौज ने ओसामा बिन लादेन को अपनी हिफाज़त में रख छोड़ा था लेकिन अमरीकी खुफिया विभाग ने उसे मार डाला और अब पाकिस्तानी सैनिकों को मार कर अमरीकियों ने पाकिस्तानी फौज के लिए बहुत मुश्किल पैदा कर दिया है . अब किस मुंह से पाकिस्तानी फौज के वर्तमान मुखिया अमरीका परस्त बने रह सकते हैं . लेकिन हालात बहुत तेज़ी से बदल रहे हैं . ताज़ा राजनीतिक हालात ऐसे बन रहे हैं जिसके बाद पाकिस्तानी फौज के सामने अमरीका से मदद लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा .
पाकिस्तान में इस बात की बहुत ज़ोरों से चर्चा है कि पाकिस्तान क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान और तहरीके इंसाफ़ पार्टी के प्रमुख इमरान खां को पाकिस्तानी फौज इस बार सत्ता सौंपना चाहती है . उसको भरोसा है कि राजनीति के कच्चे खिलाड़ी और अति महत्वाकांक्षी इमरान खां को सामने करके फौज अपनी मनमानी कर सकेगी. इस काम को वह अमरीका की मदद के बिना पूरा नहीं कर सकती. अमरीका को भी इसमें कोई दिक्क़त नहीं है क्योंकि इमरान खां खुद पश्चिमी सभ्यता के रंग में ढले हैं , वे अमरीका की किसी भी बात को मना नहीं कर पायेगें और पाकिस्तानी फौज भी दक्षिण एशिया के इलाके में अमरीकी हितों की झंडाबरदार बनी रहेगी. अमरीका भी पाकिस्तानी फौज को बहुत दबाना नहीं चाहता . उसे डर है कि कहीं जनरल कयानी चीन के शरण में न चले जाएँ . अगर ऐसा हुआ तो दक्षिण एशिया में अमरीकी दबदबे को भारी नुकसान पंहुचेगा. इसलिए लगता है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी की बीमारी इमरान खां की ताजपोशी के रास्ते में पड़ने वाले हर रोड़े को साफ़ करने की अमरीका की कोशिश का हिस्सा है . ऐसा करके अमरीका पाकिस्तानी फौज को भी खुश रख सकेगा और दुनिया के सामने एक ऐसे इंसान को अमरीका का सिविलियन शासक बना कर पेश कर सकेगा जो पहले से ही एक अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व का मालिक है .
पाकिस्तानी राजनीति के जानकारों की इस व्याख्या को अगर सच मान लिया जाए तो आसिफ अली ज़रदारी की बीमारी का राजनीतिक मतलब साफ़ हो जाता है . ऐसा लगता है कि ज़रदारी, पाकिस्तानी फौज और अमरीकी विदेश विभाग के बीच इस तरह का समझौता हो गया है . इसीलिये ज़रदारी की बीमारी को अफवाहों की ज़द से बाहर निकालने की गरज से सरकारी प्रवक्ता फरातुल्लाह बाबर से ही कहलवाया गया कि राष्ट्रपति ज़रदारी केवल रूटीन चेक अप के लिए दुबई गए हैं. उन्होंने कहा कि उनको पहले से ही दिल की कोई मामूली बीमारी थी ,जिसकी जांच का समय आ गया था और वे उसी सिलसिले में विदेश गए हैं . अभी यह पता नहीं है कि वे स्वदेश कब तक लौटेगें . उनकी गैर मौजूदगी में प्रधान मंत्री युसूफ रज़ा गीलानी की राय से सेनेट के अध्यक्ष को कार्यवाहक राष्ट्रपति भी बना दिया गया है .
इसके पहले पाकिस्तानी फौज से डरे हुए आसिफ अली ज़रदारी ने अमरीका से अपील की थी कि पाकिस्तानी फौज की उस कोशिश को नाकाम कर दिया जाए जिसके तहत वह उनको बेदखल करना चाह रही थी . लेकिन लगता है कि अब अमरीका भी ज़रदारी से ऊब गया है . शायद इसीलिये उसने इस काम में ज़रदारी की मदद कर रहे अमरीका में पाकिस्तानी राजदूत , हुसैन हक्कानी की कोशिश को बेनकाब कर दिया था और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा था. जो भी हो ,साफ़ लग रहा है कि पाकिस्तान में सत्ता बदलने वाली है . और अमरीका किसी भी कीमत पर पाकिस्तान की फौज़ की मर्जी के खिलाफ जाने को तैयार नहीं है . इसलिए समझौते के तौर पर इमरान खां की ताजपोशी की तैयारी की जा रही है
पाकिस्तान एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता के घेरे में है . बिना पहले से तय किसी कार्यक्रम के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी दुबई चले गए हैं . उनके बेटे ,बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी से मुलाक़ात की है . बिलावल पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष भी हैं . सरकारी तौर पर बताया गया है कि ज़रदारी मेडिकल जांच के सिलसिले में दुबई गए हैं लेकिन पाकिस्तान में पहले भी बड़े बड़े फैसले पब्लिक डोमेन में अफवाहों के रास्ते ही आये हैं . पाकिस्तानी सियासत के जानकार बताते है क कुछ बड़ा मामला हो चुका है .पाकिस्तानी फौज ने ज़रदारी को सत्ता से अलग करने की अपनी योजना को अंजाम तक पंहुचा दिया है और अब उसकी औपचारिकता पूरी की जा रही हो .वैसे भी पाकिस्तान में किसी भी सिविलियन सरकार ने कभी भी अपना वक़्त पूरा नहीं किया है ,हो सकता है कि ज़रदारी का भी वही हाल हो .
अंग्रेज़ी सत्ता के ख़त्म होने के बाद जब भारत को आज़ादी मिली तो जुगाड़ करके मुहम्मद अली जिन्नाह ने भारत के कई टुकड़े करवा कर पाकिस्तान नाम का देश बनवा दिया था. पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में हासिल करने के लिए पाकिस्तान के संस्थापाक मुहम्मद अली जिन्नाह ने एक दिन की भी जेलयात्रा नहीं की,कोई संघर्ष नहीं किया . बस लिखापढी करके पाकिस्तान ले लिया था . नतीजा यह हुआ कि जब उनके शागिर्द लियाक़त अली प्रधानमंत्री बने तो पाकिस्तान में बहुत से ऐसे लोग थे जो यह मानते थे कि लियाक़त अली को प्रधानमंत्री बनवाकर जिन्नाह ने गलती की है , लियाक़त अली से भी बहुत ज्यादा काबिल लोग पाकिस्तान में मौजूद थे. बाद में उन्हीं बहुत काबिल लोगों ने लियाक़त अली को क़त्ल करवा दिया था. बाद में जनरल अयूब ने सिविलियन सत्ता को धता बताकर फौज की हुकूमत कायम कर दी थी. यही सिलसिला पिछले साठ साल से चल रहा है. हर बार फौज सिविलियन हुकूमत को हटाने के लिए नई नई तरकीबें अपनाती है . कभी भुट्टो को गिरफ्तार करती है तो कभी नवाज़ शरीफ को देश से निकाल देती है .हो सकता है कि इस बार इलाज के लिए दुबई भेजकर राष्ट्रपति की छुट्टी करने की योजना बनायी गयी हो और उसी को अंजाम तक पंहुचाया जा रहा हो. जो भी ,इतना पक्का है कि बार बार फौजी हुकूमत कायम होने की वजह से बाकी दुनिया में पाकिस्तानी राष्ट्र की विश्वसनीयता बहुत ही कम हो गयी है . अब तक पाकिस्तान को अमरीका का पिछलग्गू देश माना जाता था , अब उसे चीन का मुहताज माना जाता है . जो भी हो अपनी स्थापना के साथ से ही राजनीतिक अस्थिरता का शिकार बने एक राष्ट्र की जितनी दुर्दशा होती है , पाकिस्तान की उतनी ही दुर्दशा हो रही है .
हर बार की तरह ,इस बार भी पाकिस्तान के मौजूदा संकट का कारण अमरीका है . अफगानिस्तान में तैनात नैटो के नाम से काम करने वाली अमरीकी फौज़ ने पाकिस्तान की सीमा में तैनात उसके २४ फौजियों मार डाला . इसके बाद पूरे देश में राजनीतिक तूफ़ान आ गया . पाकिस्तानी हुकूमत पर दबाव पड़ने लगा कि वह अमरीका से सख्ती से पेश आये . लेकिन अमरीकी मदद से अपने देश का आर्थिक इंतज़ाम कर रहे पाकिस्तान की यह हैसियत नहीं है कि वह अमरीका से सख्ती का रुख अपनाए .अमरीका के राष्ट्रपति ने भी पाकिस्तान की सिविलियन सरकार को जीत का दावा करने का कोई मौक़ा नहीं दिया . अगर अमरीका माफी मांग लेता तो ज़रदारी समेत बाकी पाकिस्तान परस्त हुक्मरानों को मुह छुपाने का मौका मिल जाता लेकिन अमरीका ने वह मौक़ा भी नहीं दिया . नतीजा सामने है . जानकार बताते हैं कि अमरीका खुद चाहता है कि अब ज़रदारी की छुट्टी कर दी जाए. वैसे भी अमरीका हमेशा से ही पाकिस्तानी फौज के तानाशाहों को अपने लिए मुफीद मानता रहा है . जो भी फौजी जनरल पाकिस्तान का शासक बना है ,वह पक्के तौर पर अमरीका का फरमाबरदार रहा है . जनरल अयूब ने पाकिस्तानी फौज़ को शुरुआती दिनों में अमरीकी साज़ सामान से पाट दिया था. १९६५ में भारत पर जब उन्होंने हमला किया था तो उन्हें मुगालता था कि सुपीरियर अमरीकी असलहों के बल पर वे भारत को हरा देगें लेकिन ऐसा न हुआ . अमरीकी पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने दौड़ा दौड़ा कर मारा था और सैकड़ों की तादाद में उन टैंकों को ट्राफी के तौर पर भारत लाये थे . आज भारत की बहुत सारी सैनिक छावनियों में पाकिस्तानी सेना से छीने हुए अमरीका के पैटन टैंक बतौर ट्राफी देखने को मिलते रहते हैं. दूसरे फौजी जनरल याहया खां भी बहुत बड़े अमरीका परस्त थे. उनकी हुकूमत के दौरान ही पूर्वी पाकिस्तान को बंगला देश बना दिया गया था. तीसरे फौजी शासक , जनरल जिया उल हक थे . १९७१ की लड़ाई का दर्द उनको हमेशा सालता रहता था ,इसलिए उन्होंने हमेशा ही भारत को तबाह करने की योजना पर ही काम किया . भारत का सबसे बड़ा दुश्मन हाफ़िज़ सईद जनरल जिया उल हक का चेला है . भारत को तबाह करने में जनरल जिया को अमरीका से भी मदद मिली . पंजाब में आतंकवाद और कश्मीर में आतंकवाद जनरल जिया की कृपा से ही शुरू हुआ. परवेज़ मुशर्रफ भी खासे अमरीका परस्त राष्ट्रपति थे. अमरीका को खुश रखने के लिए उन्होंने पाकिस्तान को अमरीकी फौजों के हवाले कर दिया और अफगानिस्तान के तालिबान शासकों को नष्ट करने के लिए अफगानिस्तान पर होने वाले अमरीकी हमलों के लिए बेस उपलब्ध कराया . अब तक पाकिस्तानी फौज अमरीका की बहुत ही प्रिय फौज रही है लेकिन इस बार मामला गड़बड़ा रहा है . पाकिस्तानी फौज ने ओसामा बिन लादेन को अपनी हिफाज़त में रख छोड़ा था लेकिन अमरीकी खुफिया विभाग ने उसे मार डाला और अब पाकिस्तानी सैनिकों को मार कर अमरीकियों ने पाकिस्तानी फौज के लिए बहुत मुश्किल पैदा कर दिया है . अब किस मुंह से पाकिस्तानी फौज के वर्तमान मुखिया अमरीका परस्त बने रह सकते हैं . लेकिन हालात बहुत तेज़ी से बदल रहे हैं . ताज़ा राजनीतिक हालात ऐसे बन रहे हैं जिसके बाद पाकिस्तानी फौज के सामने अमरीका से मदद लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा .
पाकिस्तान में इस बात की बहुत ज़ोरों से चर्चा है कि पाकिस्तान क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान और तहरीके इंसाफ़ पार्टी के प्रमुख इमरान खां को पाकिस्तानी फौज इस बार सत्ता सौंपना चाहती है . उसको भरोसा है कि राजनीति के कच्चे खिलाड़ी और अति महत्वाकांक्षी इमरान खां को सामने करके फौज अपनी मनमानी कर सकेगी. इस काम को वह अमरीका की मदद के बिना पूरा नहीं कर सकती. अमरीका को भी इसमें कोई दिक्क़त नहीं है क्योंकि इमरान खां खुद पश्चिमी सभ्यता के रंग में ढले हैं , वे अमरीका की किसी भी बात को मना नहीं कर पायेगें और पाकिस्तानी फौज भी दक्षिण एशिया के इलाके में अमरीकी हितों की झंडाबरदार बनी रहेगी. अमरीका भी पाकिस्तानी फौज को बहुत दबाना नहीं चाहता . उसे डर है कि कहीं जनरल कयानी चीन के शरण में न चले जाएँ . अगर ऐसा हुआ तो दक्षिण एशिया में अमरीकी दबदबे को भारी नुकसान पंहुचेगा. इसलिए लगता है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी की बीमारी इमरान खां की ताजपोशी के रास्ते में पड़ने वाले हर रोड़े को साफ़ करने की अमरीका की कोशिश का हिस्सा है . ऐसा करके अमरीका पाकिस्तानी फौज को भी खुश रख सकेगा और दुनिया के सामने एक ऐसे इंसान को अमरीका का सिविलियन शासक बना कर पेश कर सकेगा जो पहले से ही एक अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व का मालिक है .
पाकिस्तानी राजनीति के जानकारों की इस व्याख्या को अगर सच मान लिया जाए तो आसिफ अली ज़रदारी की बीमारी का राजनीतिक मतलब साफ़ हो जाता है . ऐसा लगता है कि ज़रदारी, पाकिस्तानी फौज और अमरीकी विदेश विभाग के बीच इस तरह का समझौता हो गया है . इसीलिये ज़रदारी की बीमारी को अफवाहों की ज़द से बाहर निकालने की गरज से सरकारी प्रवक्ता फरातुल्लाह बाबर से ही कहलवाया गया कि राष्ट्रपति ज़रदारी केवल रूटीन चेक अप के लिए दुबई गए हैं. उन्होंने कहा कि उनको पहले से ही दिल की कोई मामूली बीमारी थी ,जिसकी जांच का समय आ गया था और वे उसी सिलसिले में विदेश गए हैं . अभी यह पता नहीं है कि वे स्वदेश कब तक लौटेगें . उनकी गैर मौजूदगी में प्रधान मंत्री युसूफ रज़ा गीलानी की राय से सेनेट के अध्यक्ष को कार्यवाहक राष्ट्रपति भी बना दिया गया है .
इसके पहले पाकिस्तानी फौज से डरे हुए आसिफ अली ज़रदारी ने अमरीका से अपील की थी कि पाकिस्तानी फौज की उस कोशिश को नाकाम कर दिया जाए जिसके तहत वह उनको बेदखल करना चाह रही थी . लेकिन लगता है कि अब अमरीका भी ज़रदारी से ऊब गया है . शायद इसीलिये उसने इस काम में ज़रदारी की मदद कर रहे अमरीका में पाकिस्तानी राजदूत , हुसैन हक्कानी की कोशिश को बेनकाब कर दिया था और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा था. जो भी हो ,साफ़ लग रहा है कि पाकिस्तान में सत्ता बदलने वाली है . और अमरीका किसी भी कीमत पर पाकिस्तान की फौज़ की मर्जी के खिलाफ जाने को तैयार नहीं है . इसलिए समझौते के तौर पर इमरान खां की ताजपोशी की तैयारी की जा रही है
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शेष नारायण सिंह
Thursday, December 8, 2011
पानी पर गांठ के बहाने कविता और समाज पर गहन चर्चा
शेष नारायण सिंह
हिन्दी की कवयित्री रीता भदौरिया के दूसरे काव्य संग्रह 'पानी में गाँठ' के लोकार्पण का अवसर। दिल्ली में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के सभागार में राजधानी की नामचीन अदबी और शहाफी शख्सीयतों की मौजदगी में रीता की कविताओं पर चर्चा हुई और कविता और समाज पर भी। रीता के संवेदन और उनकी रचना प्रतिभा में वक्ताओं को प्रचुर संभावना दिखी। सदारत कर रहे थे हिन्दी के बड़े कवि प्रयाग शुक्ल। अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने समय की कमी और विमर्श से उपजे उत्तेजनात्मक तनाव के बीच से निकलने की सधी हुई कोशिश की पर समय पर तनाव भारी रहा। संक्षिप्ति की वकालत के बावजूद विस्तार से बचना उन जैसे बड़े साहित्यकार के लिए भी संभव नहीं हो सका और सच तो यह है कि यही श्रोताओं के लिए आनंददायक रहा। वे चिंतित थे कि खराब और अच्छी कविता की बात की गयी, वे चिंतित थे कि कलावाद पर आक्षेप किया गया। उन्होंने जवाब भी दिया, बहुत स्पष्ट और साफ सुथरा, कलावाद कोई बुरी चीज नहीं है, मैं स्वयं कलावादी हूँ। कला लोक से ही जन्मती है, लोक के साथ ही आगे बढ़ती है। न तो कविता के पाठक कम हुए हैं, न ही अच्छी कविताएं। सारे देश में घूमा हूँ मैं, हर जगह कविता लिखने वाले, उसके प्रशंसक मिले हैं। मैं कविता को अच्छी या बुरी कविता के रूप में नहीं देखता हूँ, मेरे लिए कविता सिर्फ अच्छी होती है, कोई ज्यादा अच्छी, कोई कम अच्छी।
इस मौके पर प्रयाग शुक्ल के अलावा असगर वजाहत, वीरेन डंगवाल, अशोक चक्रधर, आलोक पुराणिक, कमर वहीद नकवी, राम कृपाल सिंह, प्रभात कुमार राय, प्रो. जय प्रकाश द्विवेदी, कुलदीप तलवार, कुलदीप कुमार, राम बहादुर राय, सुभाष राय, वंशीधर मिश्र, मिथिलेश कुमार सिंह, मधु जोशी आदि मौजूद थे। दिल्ली के हिन्दी पत्रकारों का भी बड़ा जमावड़ा था। असगर वजाहत ने कविता के महत्व का प्रतिपादन करते हुए उसे जीवन और समाज के परिष्कार का सबसे बड़ा औजार कहा। उन्होंने कहा कि जब आप को सभी छोड़ दें, कोई भी आप की मदद करने वाला न हो, तब भी कविता अपनी समूची ताकत और संभावना के साथ आप के साथ होगी। असगर साहब ने कहा कि कविता समानांतर समाज बनाती है, वह समाज को दिशा देने, उसे विकसित करने का काम करती है। वीरेन डंगवाल ने कहा कि बीते सालों में कविता का जनतांत्रीकरण हुआ है और बहुत से नए कवि सामने आये हैं। सुभाष राय और बंधीधर मिश्र ने कुछ खतरों की ओर संकेत किया और कविताप्रेमियों और आलोचकों को आगाह करने की कोशिश की। राय का मानना था कि बहुत सारे नकली या अखबारी अनुभवों पर कविताएं लिखी जा रहीं हैं। कवि वहां उपस्थित नहीं है, जहाँ से वह रचना का कथ्य उठाता है। अनुभव की प्रामाणिकता के अभाव में कविता भी संदेह के घेरे में है। कवि सम्मान, पुरस्कार के पीछे भाग रहा है, अच्छी कविताएं भी आ रहीं हैं लेकिन खराब कविताएं ज्यादा आ रहीं हैं। मिश्र ने धूमिल के उद्घरण देते हुए कहा कि कविताएं सार्थक वक्तव्य होने की जगह केवल वक्तव्य हो जाएँ तो वे अपना प्रभाव खो देंगी। उन्होंने दृष्टिसम्पन्नता के अभाव की ओर संकेत किया।
मधु जोशी ने विस्तार से रीता भदौरिया के संघर्ष और संवेदनात्मक विकास की चर्चा की और उनकी कविताओं को सराहा। जोशी ने कहा कि रीता की कविताओं में विचारों की निरंतरता है। अशोक चक्रधर ने रीता के संग्रह से कुछ कविताओं का पाठ किया और उनमें एक वृहत्तर संभावना की चर्चा करते हुए कहा कि पुस्तक पर अलग से बात होनी चाहिए। इस मौके पर कवयित्री रीता ने स्वयं की रचना प्रकिया के बारे में बताया और कहा कि उन्होंने जीवन में काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं। अपने विभाग के कामकाज के सिलसिले में ऐसे लोग भी देखे हैं जिनके पास दो वक्त की रोटी का इंतजाम नहीं है और ऐसे लोग भी, जिनके पास अपनी संपत्ति को ठिकाने लगाने का तरीका नहीं सूझ रहा। उन्होंने विकास का भ्रम और अंतिम पड़ाव, अपने कविता संग्रह से दो कविताएं पढ़कर सुनाई। गोष्ठी का संचालन जाने-माने रंगकर्मी और पत्रकार अनिल शुक्ल ने किया।
हिन्दी की कवयित्री रीता भदौरिया के दूसरे काव्य संग्रह 'पानी में गाँठ' के लोकार्पण का अवसर। दिल्ली में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के सभागार में राजधानी की नामचीन अदबी और शहाफी शख्सीयतों की मौजदगी में रीता की कविताओं पर चर्चा हुई और कविता और समाज पर भी। रीता के संवेदन और उनकी रचना प्रतिभा में वक्ताओं को प्रचुर संभावना दिखी। सदारत कर रहे थे हिन्दी के बड़े कवि प्रयाग शुक्ल। अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने समय की कमी और विमर्श से उपजे उत्तेजनात्मक तनाव के बीच से निकलने की सधी हुई कोशिश की पर समय पर तनाव भारी रहा। संक्षिप्ति की वकालत के बावजूद विस्तार से बचना उन जैसे बड़े साहित्यकार के लिए भी संभव नहीं हो सका और सच तो यह है कि यही श्रोताओं के लिए आनंददायक रहा। वे चिंतित थे कि खराब और अच्छी कविता की बात की गयी, वे चिंतित थे कि कलावाद पर आक्षेप किया गया। उन्होंने जवाब भी दिया, बहुत स्पष्ट और साफ सुथरा, कलावाद कोई बुरी चीज नहीं है, मैं स्वयं कलावादी हूँ। कला लोक से ही जन्मती है, लोक के साथ ही आगे बढ़ती है। न तो कविता के पाठक कम हुए हैं, न ही अच्छी कविताएं। सारे देश में घूमा हूँ मैं, हर जगह कविता लिखने वाले, उसके प्रशंसक मिले हैं। मैं कविता को अच्छी या बुरी कविता के रूप में नहीं देखता हूँ, मेरे लिए कविता सिर्फ अच्छी होती है, कोई ज्यादा अच्छी, कोई कम अच्छी।
इस मौके पर प्रयाग शुक्ल के अलावा असगर वजाहत, वीरेन डंगवाल, अशोक चक्रधर, आलोक पुराणिक, कमर वहीद नकवी, राम कृपाल सिंह, प्रभात कुमार राय, प्रो. जय प्रकाश द्विवेदी, कुलदीप तलवार, कुलदीप कुमार, राम बहादुर राय, सुभाष राय, वंशीधर मिश्र, मिथिलेश कुमार सिंह, मधु जोशी आदि मौजूद थे। दिल्ली के हिन्दी पत्रकारों का भी बड़ा जमावड़ा था। असगर वजाहत ने कविता के महत्व का प्रतिपादन करते हुए उसे जीवन और समाज के परिष्कार का सबसे बड़ा औजार कहा। उन्होंने कहा कि जब आप को सभी छोड़ दें, कोई भी आप की मदद करने वाला न हो, तब भी कविता अपनी समूची ताकत और संभावना के साथ आप के साथ होगी। असगर साहब ने कहा कि कविता समानांतर समाज बनाती है, वह समाज को दिशा देने, उसे विकसित करने का काम करती है। वीरेन डंगवाल ने कहा कि बीते सालों में कविता का जनतांत्रीकरण हुआ है और बहुत से नए कवि सामने आये हैं। सुभाष राय और बंधीधर मिश्र ने कुछ खतरों की ओर संकेत किया और कविताप्रेमियों और आलोचकों को आगाह करने की कोशिश की। राय का मानना था कि बहुत सारे नकली या अखबारी अनुभवों पर कविताएं लिखी जा रहीं हैं। कवि वहां उपस्थित नहीं है, जहाँ से वह रचना का कथ्य उठाता है। अनुभव की प्रामाणिकता के अभाव में कविता भी संदेह के घेरे में है। कवि सम्मान, पुरस्कार के पीछे भाग रहा है, अच्छी कविताएं भी आ रहीं हैं लेकिन खराब कविताएं ज्यादा आ रहीं हैं। मिश्र ने धूमिल के उद्घरण देते हुए कहा कि कविताएं सार्थक वक्तव्य होने की जगह केवल वक्तव्य हो जाएँ तो वे अपना प्रभाव खो देंगी। उन्होंने दृष्टिसम्पन्नता के अभाव की ओर संकेत किया।
मधु जोशी ने विस्तार से रीता भदौरिया के संघर्ष और संवेदनात्मक विकास की चर्चा की और उनकी कविताओं को सराहा। जोशी ने कहा कि रीता की कविताओं में विचारों की निरंतरता है। अशोक चक्रधर ने रीता के संग्रह से कुछ कविताओं का पाठ किया और उनमें एक वृहत्तर संभावना की चर्चा करते हुए कहा कि पुस्तक पर अलग से बात होनी चाहिए। इस मौके पर कवयित्री रीता ने स्वयं की रचना प्रकिया के बारे में बताया और कहा कि उन्होंने जीवन में काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं। अपने विभाग के कामकाज के सिलसिले में ऐसे लोग भी देखे हैं जिनके पास दो वक्त की रोटी का इंतजाम नहीं है और ऐसे लोग भी, जिनके पास अपनी संपत्ति को ठिकाने लगाने का तरीका नहीं सूझ रहा। उन्होंने विकास का भ्रम और अंतिम पड़ाव, अपने कविता संग्रह से दो कविताएं पढ़कर सुनाई। गोष्ठी का संचालन जाने-माने रंगकर्मी और पत्रकार अनिल शुक्ल ने किया।
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शेष नारायण सिंह
Wednesday, December 7, 2011
संसद में हंगामा करना सबसे कमज़ोर तरीका है संसदीय काम का
शेष नारायण सिंह
संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में अभी तक कोई ख़ास काम नहीं हो सका है .लगभग आधा सत्र बीत चुका है. इस सत्र में संसद को लोकपाल बिल पास करना है. पिछले सत्र में लोकसभा ने संकल्प लिया था और यह माना जा रहा था कि शीतकालीन सत्र में लोकपाल बिल को कानून की शक्ल दे दी जायेगी. अब तक के संकेत से तो यही लगता है कि वह एक टेढ़ी खीर है जो भी दो चार मिनट संसद की कार्यवाही चलती है उसको देख कर लगता है कि आजकल यह रिवाज़ हो गया है क संसद सदस्य हर उस मसले को हल्ला गुल्ला करके ही सरकार की नज़र में ला सकते हैं जिस से वे चिंतित हैं . इस सत्र में बीजेपी और वामपंथी पार्टियों वाले तो मूल रूप से खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश के मुद्दे पर हंगामा कर रहे हैं जबकि अन्य पार्टियों के लोग अलग अलग मुद्दों पर संसद का काम शुरू होते ही हल्ला गुल्ला शुरू कर देते हैं . अजीब बात है कि कांग्रेस वाले भी तेलंगाना राज्य के मुद्दे पर सरकार के सामने अपनी बात रखने के लिए संसद में शोरगुल का रास्ता ही अपना रहे हैं जबकि सत्ता पक्ष की पार्टी होने के नाते उनके सामने बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं . यह बात समझ में नहीं आती कि जब संसद के सदस्य के रूप में राजनीतिक नेताओं के सामने सरकार को घेरने के बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं तो सदन की कार्यवाही में बाधा डालने के तरीके को अपनाने का औचित्य क्या है .देखा यह जा रहा है कि संसद में हल्ला गुल्ला करके सदस्यगण अपनी बात कहने के बहुमूल्य अवसर गँवा रहे हैं .
कुछ संसद सदस्यों से बातचीत हुई तो लगा कि वे सरकार की मनमानी से दुखी होकर संसद का काम नहीं चलने दे रहे हैं . यह बात बिलकुल तर्कसंगत नहीं है . अगर संसद सदस्य चाहे तो उसके पास सरकार को घेरने के इतने साधन हैं कि कोई भी सरकार मनमानी नहीं कर सकती.यह तो वह सरकार है जिसमें बहुत सारी राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं . सरकार में शामिल पार्टियों के आपस में भी खूब मतभेद हैं . खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश के ही मसले पर सरकार में शामिल तृणमूल कांग्रेस और डी एम के खुले आम सरकार के खिलाफ बोल रहे हैं जबकि सरकार को भाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी इस विषय पर सरकार के पक्ष में नहीं हैं . इसके बावजूद भी विपक्ष हल्ला करके अपनी बात को जनता तक पंहुचाने की कोशिश कर रहा है . हो सकता है आज का विपक्ष उसी को सही मानता हो लेकिन इसी लोकसभा में विपक्ष ने ऐसे ऐसे काम किये हैं कि दुनिया की कोई भी संसद उनसे प्रेरणा ले सकती है . १९७१ के लोकसभा चुनावों के बाद इंदिरा गाँधी की सरकार बनी थी . उनके पास बहुत ही मज़बूत बहुमत था. तो तिहाई से ज्यादा बहुमत वाली सरकारें कुछ भी कर सकती हैं ,संविधान में संशोधन तक कर सकती हैं लेकिन पांचवीं लोक सभा के आधा दर्जन सदस्यों ने इंदिरा गांधी की सरकार को सदन में हमेशा घेर कर रखा. इन छः सदस्यों के काम के तरीके को आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा के रूप में लेना चाहिए. इनमें से अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा अब कोई जीवित नहीं हैं लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ज्योतिर्मय बसु,संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के मधु लिमये और मधु दंडवते, जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय लोक दल के पीलू मोदी और कांग्रेस ( ओ ) के श्याम नंदन मिश्र की मौजूदगी में इंदिरा गाँधी की सरकार का हर वह फैसला चुनौती के रास्ते से गुज़रता था जिसे इन सदस्यों ने जनहित की अनदेखी का फैसला माना . आज तो लोकसभा की कार्यवाही लाइव दिखाई जाती है , हर पल की जानकारी देश के कोने कोने में पंहुचती है . चौबीस घंटों का टेलिविज़न समाचार है , बहुत सारे अखबार हैं जो नेताओं की हर अच्छाई को जनता तक दिन रात पंहुचा रहे हैं लेकिन उन दिनों ऐसा नहीं था. समाचार के श्रोत के रूप में टेलिविज़न का विकास नहीं हुआ था , रेडियो सरकारी था . जनता को ख़बरों के लिए कुछ अखबारों पर निर्भर रहना पड़ता था. आज तो हर बड़े शहर से अखबार छपते हैं , उन दिनों ऐसा नहीं था. इतने अखबार भी नहीं छपते थे लेकिन संसद की इन विभूतियों के काम की हनक पूरे देश में महसूस की जाती थी. बहुत साल बाद जब मधु लिमये से इसके कारणों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उन दिनों संसद सदस्य बहुत सारा वक़्त संसद की लाइब्रेरी में बिताते थे जिसके कारण उनके पास हर तरह की सूचना होती थी. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसा नहीं है .
संसद के सदस्य के रूप में नेताओं के पास ऐसे बहुत सारे साधन हैं कि वे सरकार को किसी भी फैसले में मनमानी से रोक सकते हैं . आजकल तो लोकसभा की कार्यवाही लाइव दिखाई जाती है जिसके कारण सदस्यों की प्रतिभा को पूरा देश देख सकता है और राजनीतिक बिरादरी के बारे में ऊंची राय बन सकती है . अगर सरकार को जनविरोधी मानते हैं तो उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर सरकार की छुट्टी करने तक का प्रावधान संसद के नियमों में है लेकिन उसके लिए सदस्यों पूरी तैयारी के साथ ही सदन में आना पड़ेगा. संसद के सदस्य के रूप में नेताओं के पास जो अवसर उपलब्ध हैं उन पर एक नज़र डालना दिलचस्प होगा.
सबसे महत्वपूर्ण तो प्रश्न काल ही है .लोकसभा की कार्यवाही के लिए जो नियम बनाए गए हैं उनमें नियम ३२ से लेकर ५४ तक प्रश्नों के बारे में हैं . सदन की कार्यवाही का पहला घंटा प्रश्न काल के रूप में जाना जाता है और इसमें हर तरह के सवाल कर सकते हैं . कुछ सवाल तो मौखिक उत्तर के लिए होते हैं सदन के अंदर सम्बंधित मंत्री को सदस्यों के सवालों का जवाब देना पड़ता है . मंत्री से बाकायदा पूरक प्रश्न पूछे जा सकते हैं , हर सदस्य किसी भी सवाल पर स्पष्टीकरण मांग सकता है और सरकार के सामने गोल मोल जवाब देने के विकल्प बहुत कम होते हैं ..मौखिक प्रशनों के अलावा बहुत सारे पश्न ऐसे होते हैं जिनका जवाब लिखित रूप में सरकार की तरफ से दिया जाता है . अगर सरकार की ओर से लिखित जवाब में कोई बात स्पष्ट नहीं होती तो सदस्य के पास नियम ५५ के तहत आधे घंटे की चर्चा के लिए नोटिस देने का अधिकार होता है . अध्यक्ष महोदय की अनुमति से आधे घंटे की चर्चा में सरकार से स्पष्टीकरण माँगा जा सकता है .सरकार की नीयत पर लगाम लगाए रखने के लिए विपक्ष के पास नियम ५६ से ६३ के तहत काम रोको प्रस्ताव का रास्ता खुला होता है . अगर कोई मामला अर्जेंट है और जनहित में है तो अध्यक्ष महोदय की अनुमति से काम रोको प्रस्ताव लाया जा सकता है . इस प्रस्ताव पर बहस के बाद वोट डाले जाते हैं और अगर सरकार के खिलाफ काम रोको प्रस्ताव पास हो जाता है तो इसे सरकार के खिलाफ निंदा का प्रस्ताव माना जाता है . देखा यह गया है कि सरकारें काम रोको प्रस्ताव से बचना चाहती हैं इसलिए इस प्रस्ताव के रास्ते में बहुत सारी अड़चन रहती है . बहरहाल सरकार के काम काज पर नज़र रखने के लिए काम रोको प्रस्ताव विपक्ष के हाथ में सबसे मज़बूत हथियार है . इसके अलावा नियम १७१ के तहत सदन के विचार के लिए एक प्रस्ताव लाया जा सकता है जो सदस्य की राय हो सकती है ,कोई सुझाव हो सकता है या सरकार की किसी नीति या किसी काम .की आलोचना हो सकती है . इसके ज़रिये सरकार को सही काम करने के लिए सुझाव दिया जा सकता है ,उस से आग्रह किया जा सकता है . ध्यान आकर्षण करने लिए बनाए गए लोक सभा के नियम १७० से १८३ के अंतर्गत जनहित के लगभग सभी मामले उठाये जा सकते हैं .
विपक्ष के हाथ में लोक सभा के नियम १८४ से लेकर १९२ तक की ताक़त भी है . इन नियमों के अनुसार कोई भी सदस्य किसी राष्ट्रीय हित के मसले पर सरकार के खिलाफ प्रस्ताव पेश कर सकता है . नियम १८६ में उन मुद्दों का विस्तार से वर्णन किया गया है जो बहस के लिए उठाये जा सकते हैं . इन नियमों के तहत होने वाली चर्चा के अंत में वोट डाले जाते हैं इसलिए यह सरकार के लिए खासी मुश्किल पैदा कर सकते हैं . लोकसभा में अध्यक्ष की अनुमति के बिना कोई भी बहस नहीं हो सकते ए, वह नियम इस बहस में भी लागू होते हैं . इसके अलावा लोकसभा के नियम १९३ से १९६ के तहत जनहित के किसी मुद्दे पर लघु अवधि की चर्चा की नोटिस दी जा सकती है . इस नियम के तहत होने वाली बहस के बाद वोट नहीं डाले जाते लेकिन जब सब कुछ पूरा देश टेलिविज़न के ज़रिये लाइव देख रहा है तो सरकार और सांसदों की मंशा तो जनता की अदालत में साफ़ नज़र आती ही रहती है .नियम १९७ के अंतर्गत संसद सदस्य , सरकार या किसी मंत्री का ध्यान आकर्षित करने के लिए ध्यानाकर्षण प्रस्ताव ला सकते हैं . पहले ध्यानाकर्षण प्रस्ताव की चर्चा आखबारों में खूब पढी जाती थी लेकिन आजकल ऐसा बहुत कम होता है .
विपक्ष के पास लोकसभा में सबसे बड़ा हथियार नियम १९८ के तहत सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव है . इस प्रस्ताव के तहत सरकारें गिराई जा सकती हैं . विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार इसी प्रस्ताव के बाद गिरी थी.इस तरह से हम देखते हैं कि संसद सदस्यों के पास सरकार से जनहित और राष्ट्रहित के काम कवाने के लिए बहुत सारे तरीके उपलब्ध हैं लेकिन उसके बाद भी जब इस देश की एक अरब से ज़्यादा आबादी के प्रतिनधि शोरगुल के ज़रिये अपनी ड्यूटी करने को प्राथमिकता देते हैं तो निराशा होती है
संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में अभी तक कोई ख़ास काम नहीं हो सका है .लगभग आधा सत्र बीत चुका है. इस सत्र में संसद को लोकपाल बिल पास करना है. पिछले सत्र में लोकसभा ने संकल्प लिया था और यह माना जा रहा था कि शीतकालीन सत्र में लोकपाल बिल को कानून की शक्ल दे दी जायेगी. अब तक के संकेत से तो यही लगता है कि वह एक टेढ़ी खीर है जो भी दो चार मिनट संसद की कार्यवाही चलती है उसको देख कर लगता है कि आजकल यह रिवाज़ हो गया है क संसद सदस्य हर उस मसले को हल्ला गुल्ला करके ही सरकार की नज़र में ला सकते हैं जिस से वे चिंतित हैं . इस सत्र में बीजेपी और वामपंथी पार्टियों वाले तो मूल रूप से खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश के मुद्दे पर हंगामा कर रहे हैं जबकि अन्य पार्टियों के लोग अलग अलग मुद्दों पर संसद का काम शुरू होते ही हल्ला गुल्ला शुरू कर देते हैं . अजीब बात है कि कांग्रेस वाले भी तेलंगाना राज्य के मुद्दे पर सरकार के सामने अपनी बात रखने के लिए संसद में शोरगुल का रास्ता ही अपना रहे हैं जबकि सत्ता पक्ष की पार्टी होने के नाते उनके सामने बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं . यह बात समझ में नहीं आती कि जब संसद के सदस्य के रूप में राजनीतिक नेताओं के सामने सरकार को घेरने के बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं तो सदन की कार्यवाही में बाधा डालने के तरीके को अपनाने का औचित्य क्या है .देखा यह जा रहा है कि संसद में हल्ला गुल्ला करके सदस्यगण अपनी बात कहने के बहुमूल्य अवसर गँवा रहे हैं .
कुछ संसद सदस्यों से बातचीत हुई तो लगा कि वे सरकार की मनमानी से दुखी होकर संसद का काम नहीं चलने दे रहे हैं . यह बात बिलकुल तर्कसंगत नहीं है . अगर संसद सदस्य चाहे तो उसके पास सरकार को घेरने के इतने साधन हैं कि कोई भी सरकार मनमानी नहीं कर सकती.यह तो वह सरकार है जिसमें बहुत सारी राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं . सरकार में शामिल पार्टियों के आपस में भी खूब मतभेद हैं . खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश के ही मसले पर सरकार में शामिल तृणमूल कांग्रेस और डी एम के खुले आम सरकार के खिलाफ बोल रहे हैं जबकि सरकार को भाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी इस विषय पर सरकार के पक्ष में नहीं हैं . इसके बावजूद भी विपक्ष हल्ला करके अपनी बात को जनता तक पंहुचाने की कोशिश कर रहा है . हो सकता है आज का विपक्ष उसी को सही मानता हो लेकिन इसी लोकसभा में विपक्ष ने ऐसे ऐसे काम किये हैं कि दुनिया की कोई भी संसद उनसे प्रेरणा ले सकती है . १९७१ के लोकसभा चुनावों के बाद इंदिरा गाँधी की सरकार बनी थी . उनके पास बहुत ही मज़बूत बहुमत था. तो तिहाई से ज्यादा बहुमत वाली सरकारें कुछ भी कर सकती हैं ,संविधान में संशोधन तक कर सकती हैं लेकिन पांचवीं लोक सभा के आधा दर्जन सदस्यों ने इंदिरा गांधी की सरकार को सदन में हमेशा घेर कर रखा. इन छः सदस्यों के काम के तरीके को आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा के रूप में लेना चाहिए. इनमें से अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा अब कोई जीवित नहीं हैं लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ज्योतिर्मय बसु,संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के मधु लिमये और मधु दंडवते, जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय लोक दल के पीलू मोदी और कांग्रेस ( ओ ) के श्याम नंदन मिश्र की मौजूदगी में इंदिरा गाँधी की सरकार का हर वह फैसला चुनौती के रास्ते से गुज़रता था जिसे इन सदस्यों ने जनहित की अनदेखी का फैसला माना . आज तो लोकसभा की कार्यवाही लाइव दिखाई जाती है , हर पल की जानकारी देश के कोने कोने में पंहुचती है . चौबीस घंटों का टेलिविज़न समाचार है , बहुत सारे अखबार हैं जो नेताओं की हर अच्छाई को जनता तक दिन रात पंहुचा रहे हैं लेकिन उन दिनों ऐसा नहीं था. समाचार के श्रोत के रूप में टेलिविज़न का विकास नहीं हुआ था , रेडियो सरकारी था . जनता को ख़बरों के लिए कुछ अखबारों पर निर्भर रहना पड़ता था. आज तो हर बड़े शहर से अखबार छपते हैं , उन दिनों ऐसा नहीं था. इतने अखबार भी नहीं छपते थे लेकिन संसद की इन विभूतियों के काम की हनक पूरे देश में महसूस की जाती थी. बहुत साल बाद जब मधु लिमये से इसके कारणों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उन दिनों संसद सदस्य बहुत सारा वक़्त संसद की लाइब्रेरी में बिताते थे जिसके कारण उनके पास हर तरह की सूचना होती थी. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसा नहीं है .
संसद के सदस्य के रूप में नेताओं के पास ऐसे बहुत सारे साधन हैं कि वे सरकार को किसी भी फैसले में मनमानी से रोक सकते हैं . आजकल तो लोकसभा की कार्यवाही लाइव दिखाई जाती है जिसके कारण सदस्यों की प्रतिभा को पूरा देश देख सकता है और राजनीतिक बिरादरी के बारे में ऊंची राय बन सकती है . अगर सरकार को जनविरोधी मानते हैं तो उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर सरकार की छुट्टी करने तक का प्रावधान संसद के नियमों में है लेकिन उसके लिए सदस्यों पूरी तैयारी के साथ ही सदन में आना पड़ेगा. संसद के सदस्य के रूप में नेताओं के पास जो अवसर उपलब्ध हैं उन पर एक नज़र डालना दिलचस्प होगा.
सबसे महत्वपूर्ण तो प्रश्न काल ही है .लोकसभा की कार्यवाही के लिए जो नियम बनाए गए हैं उनमें नियम ३२ से लेकर ५४ तक प्रश्नों के बारे में हैं . सदन की कार्यवाही का पहला घंटा प्रश्न काल के रूप में जाना जाता है और इसमें हर तरह के सवाल कर सकते हैं . कुछ सवाल तो मौखिक उत्तर के लिए होते हैं सदन के अंदर सम्बंधित मंत्री को सदस्यों के सवालों का जवाब देना पड़ता है . मंत्री से बाकायदा पूरक प्रश्न पूछे जा सकते हैं , हर सदस्य किसी भी सवाल पर स्पष्टीकरण मांग सकता है और सरकार के सामने गोल मोल जवाब देने के विकल्प बहुत कम होते हैं ..मौखिक प्रशनों के अलावा बहुत सारे पश्न ऐसे होते हैं जिनका जवाब लिखित रूप में सरकार की तरफ से दिया जाता है . अगर सरकार की ओर से लिखित जवाब में कोई बात स्पष्ट नहीं होती तो सदस्य के पास नियम ५५ के तहत आधे घंटे की चर्चा के लिए नोटिस देने का अधिकार होता है . अध्यक्ष महोदय की अनुमति से आधे घंटे की चर्चा में सरकार से स्पष्टीकरण माँगा जा सकता है .सरकार की नीयत पर लगाम लगाए रखने के लिए विपक्ष के पास नियम ५६ से ६३ के तहत काम रोको प्रस्ताव का रास्ता खुला होता है . अगर कोई मामला अर्जेंट है और जनहित में है तो अध्यक्ष महोदय की अनुमति से काम रोको प्रस्ताव लाया जा सकता है . इस प्रस्ताव पर बहस के बाद वोट डाले जाते हैं और अगर सरकार के खिलाफ काम रोको प्रस्ताव पास हो जाता है तो इसे सरकार के खिलाफ निंदा का प्रस्ताव माना जाता है . देखा यह गया है कि सरकारें काम रोको प्रस्ताव से बचना चाहती हैं इसलिए इस प्रस्ताव के रास्ते में बहुत सारी अड़चन रहती है . बहरहाल सरकार के काम काज पर नज़र रखने के लिए काम रोको प्रस्ताव विपक्ष के हाथ में सबसे मज़बूत हथियार है . इसके अलावा नियम १७१ के तहत सदन के विचार के लिए एक प्रस्ताव लाया जा सकता है जो सदस्य की राय हो सकती है ,कोई सुझाव हो सकता है या सरकार की किसी नीति या किसी काम .की आलोचना हो सकती है . इसके ज़रिये सरकार को सही काम करने के लिए सुझाव दिया जा सकता है ,उस से आग्रह किया जा सकता है . ध्यान आकर्षण करने लिए बनाए गए लोक सभा के नियम १७० से १८३ के अंतर्गत जनहित के लगभग सभी मामले उठाये जा सकते हैं .
विपक्ष के हाथ में लोक सभा के नियम १८४ से लेकर १९२ तक की ताक़त भी है . इन नियमों के अनुसार कोई भी सदस्य किसी राष्ट्रीय हित के मसले पर सरकार के खिलाफ प्रस्ताव पेश कर सकता है . नियम १८६ में उन मुद्दों का विस्तार से वर्णन किया गया है जो बहस के लिए उठाये जा सकते हैं . इन नियमों के तहत होने वाली चर्चा के अंत में वोट डाले जाते हैं इसलिए यह सरकार के लिए खासी मुश्किल पैदा कर सकते हैं . लोकसभा में अध्यक्ष की अनुमति के बिना कोई भी बहस नहीं हो सकते ए, वह नियम इस बहस में भी लागू होते हैं . इसके अलावा लोकसभा के नियम १९३ से १९६ के तहत जनहित के किसी मुद्दे पर लघु अवधि की चर्चा की नोटिस दी जा सकती है . इस नियम के तहत होने वाली बहस के बाद वोट नहीं डाले जाते लेकिन जब सब कुछ पूरा देश टेलिविज़न के ज़रिये लाइव देख रहा है तो सरकार और सांसदों की मंशा तो जनता की अदालत में साफ़ नज़र आती ही रहती है .नियम १९७ के अंतर्गत संसद सदस्य , सरकार या किसी मंत्री का ध्यान आकर्षित करने के लिए ध्यानाकर्षण प्रस्ताव ला सकते हैं . पहले ध्यानाकर्षण प्रस्ताव की चर्चा आखबारों में खूब पढी जाती थी लेकिन आजकल ऐसा बहुत कम होता है .
विपक्ष के पास लोकसभा में सबसे बड़ा हथियार नियम १९८ के तहत सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव है . इस प्रस्ताव के तहत सरकारें गिराई जा सकती हैं . विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार इसी प्रस्ताव के बाद गिरी थी.इस तरह से हम देखते हैं कि संसद सदस्यों के पास सरकार से जनहित और राष्ट्रहित के काम कवाने के लिए बहुत सारे तरीके उपलब्ध हैं लेकिन उसके बाद भी जब इस देश की एक अरब से ज़्यादा आबादी के प्रतिनधि शोरगुल के ज़रिये अपनी ड्यूटी करने को प्राथमिकता देते हैं तो निराशा होती है
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शेष नारायण सिंह,
संसद में हंगामा करना,
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Tuesday, December 6, 2011
एक मनु की औकात नहीं कि वह जाति व्यवस्था की स्थापना कर दे
शेष नारायण सिंह
डा.अंबेडकर के 55वे निर्वाण दिवस के मौके पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.
डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब अफुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..
डा.अंबेडकर के 55वे निर्वाण दिवस के मौके पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.
डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब अफुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..
Monday, December 5, 2011
देव आनंद ने ज़िंदगी का साथ निभाना बंद कर दिया
शेष नारायण सिंह
देव आनंद ने आज ज़िंदगी का साथ निभाना बंद कर दिया,हालांकि उन्होंने बार बार यह ऐलान किया था कि वे ज़िंदगी साथ निभाते चले जायेगें. देव आनंद ने अपनी सारी ज़िंदगी फिल्मों को समर्पित की इसलिए उन्हें फिल्मकार के रूप में ही याद किया जाएगा. लेकिन उनकी एक ज़िन्दगी वह भी है जो १९४६ में फ़िल्मी कैरियर शुरू होने के पहले मुंबई में शुरू हो चुकी थी. देव आनंद ने उसी गवर्नमेंट कालेज लाहौर से पढाई की थी जहां देश के बड़े बड़े बुद्धिजीवी गए थे. लाहौर से अंग्रेज़ी में बी ए करने के बाद वे मुंबई चले गए जहां उनके बड़े भाई चतन आनंद रोज़गार के तलाश में पहले से ही रहते थे. दूसरे विश्व युद्ध का ज़माना था. उन्हें मुंबई में फौजी दफ्तर में एक क्लर्क की नौकरी मिल गयी.मुंबई में उन्हीं दिनों महात्मा गाँधी के नाम का तूफ़ान चल रहा था. ख्वाजा अहमद अब्बास की प्रेरणा और प्रयास से इप्टा ( इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन ) की स्थापना हो चुकी थी . चेतन आनंद इप्टा में जुट चुके थे, देव आनंद भी उनके साथ नाटक के ज़रिते जान जागरण के अभियान में जुट गए. वहां उनकी मुलाक़ात होमी भाभा, क्रिशन चंदर ,कैफ़ी आज़मी ,मजरूह सुल्तानपुरी साहिर लुधियानवी ,बलराज साहनी ,मोहन सहगल, मुल्क राज आनंद, रोमेश थापर, शैलेन्द्र ,प्रेम धवन ,इस्मत चुगताई .ए के हंगल, हेमंत कुमार , अदी मर्जबान,सलिल चौधरी जैसे कम्युनिस्टों से हुई . एक बेहतरीन कलात्मक जीवन की बुनियाद पड़ चुकी थी. १९४२-४३ में बने यह दोस्त जब तक जीवित रहे ,देव आनंद की बुलंदियों को और ऊंचा करने में सहयोग करते रहे. यह सब यह दुनिया छोड़कर जा चुके हैं . अफ़सोस, आज इप्टा का आख़िरी महान कलाकार भी अलविदा कह गया.
नाटकों में तो वे अपने भाई और बलराज साहनी के साथ बहुत कुछ काम करते रहे लेकिन पहला फ़िल्मी ब्रेक उनको १९४६ में मिला जब महान कलाकार ,अशोक कुमार ने उन्हें प्रभात टाकीज की फिल्म हम एक हैं में काम दे दिया . इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी मुलाक़ात , गुरु दत्त से हुई, जो गुरु दत्त के जीवन भर चली. इसी दोस्ती का नतीजा था कि जब देव आनंद ने अपनी फिल्म कंपनी नवकेतन के बैनर तले, व्लादिमीर गोगोल के विख्यात नाटक , इन्स्पेक्टर जनरल के आधार पर फिल्म बाज़ी बनाने का फैसला किया तो उनके इप्टा वाले कई साथी साथ आये. इस फिल्म की कहानी और संवाद बलराज सहनी ने लिखा, गुरु दत्त की यह पहली निर्देशित फिल्म है , साहिर लुधियानवी ने गाने लिखे , सचिन देव बर्मन ने संगीत दिया और अपनी भावी पत्नी कल्पना कार्तिक के साथ देव आनंद ने इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई. यह देव आनद का ही जज्बा था कि बहुत सारे नए लोगों के साथ उन्होंने फिल्म बानने का रिस्क लिया . इस फिल्म में ही बलराज साहनी पहली बार लेखक के रूप में देखे गए . गीतकार के रूप में साहिर लुधियानवी की यह पहली फिल्म है , गुरुदत्त और सचिन देव बर्मन की भी पहली फिल्म है . लेकिन देव आनंद ने बाज़ी लगाई और एक बहुत ही सफल फिल्म बन गयी. बाकी ज़िंदगी में भी देव आनंद इस तरह के खतरों से खेलते रहे , प्रयोग करते रहे , नए नए लोगों को फ़िल्मी परदे पर बड़े बड़े काम के लिए उतारते रहे. आज जब भारतीय सिनेमा के इतिहास पर नज़र डालते हैं तो साफ़ समझ में आ जाता है कि रावी नदी के किनारे के इस छोरे की रिस्क लेने की ताक़त की वजह से ही आज हम भारतीय सिनेमा के बहुत बड़े कलाकारों को जानते हैं .उन्होंने अपनी पहली फिल्म में ही नए लोगों को मौक़ा दिया . बाद में भी शत्रुघ्न सिन्हा को प्रेम पुजारी में ब्रेक दिया , जीनत अमान, टीना मुनीम जैसी अभिनेत्रियों को खोज निकाला. उनके कुछ प्रयोग बुरी तरह से फेल भी हुए . जाहिदा और नताशा नाम की अनजान लड़कियों को उन्होंने अपनी बहुत बड़ी फिल्मों में मुख्य भूमिका दी लेकिन वे अभिनय नहीं कर सकीं , कहीं खो गयीं . अपने बेटे सुनील को भी उन्होंने हीरो बनाने की कोशिश की. सफल विदेशी फिल्म क्रेमर बनाम क्रेमर की तरह की आनंद बनाम आनंद बनायी लेकिन सुनील अभिनय कला में माहिर नहीं थे. देव आनंद ने मनोज कुमार या राजेंद्र कुमार की तरह अपने बेटे को अभिनेता बनने की जिद नहीं की, उसे और काम में लगा दिया .
देव आनंद ने जो कुछ भी किया वह सिनेमा हो गया . साठ और सत्तर के दशक में देव आनंद जो करते थे,वही फैशन हो जाता था. उनके नाम से बहुत सारी कहानियाँ भी चला दी जाती थी, १९६७ में मुझे कई लोगों ने बताया था कि देव आनंद के ऊपर सरकारी रोक लगी हुई है कि वे सफ़ेद पैंट और काली कमीज़ नहीं पहन सकते . उस पोशाक में वे इतने ज्यादा आकर्षक लगते थे कि जिधर जाते हैं उधर लडकियां उनके पीछे दौड़ पड़ती हैं .यह बकवास थी लेकिन एक कहानी के रूप में चल गयी थी. उनके स्टाइल को सभी कापी करते थे. उनके समकालीन दिलीप कुमार और राज कपूर भी बहुत बड़े अभिनेता थे लेकिन जो जलवा देव आनंद का था ,वह किसी का नहीं .अपने समय की सबसे खूबसूरत अभिनत्रियों ने देव आनंद के साथ काम किया था. सुरैया , मधुबाला , नूतन, वहीदा रहमान, हेमा मालिनी, जीनत अमान, टीना मुनीम ,मुमताज को इस बात पर हमेशा गर्व रहा कि वे देव आनंद की हीरोइन रह चुकी हैं.
देव आनंद को उनकी हिम्मत के लिए हमेशा याद किया जाएगा.फिल्मों में तो वे प्रयोग करते ही रहे , इंसाफ़ के पक्षधर के रूप में अपने आपको स्थापित करने के मामले में भी उनका कोई जोड़ नहीं है . १९७५ में जब इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाई तो देव आनंद ने उसका विरोध किया. यह वही दौर है जब मुंबई की फिल्मी दुनिया के लोग लाइन लगाकर संजय गाँधी और इंदिरा गांधी की जय जयकार कर रहे थे , उन्हीं दिनों किशोर कुमार और देव आनंद ने तानाशाही के खिलाफ मोर्चा खोल दिया . संजय गांधी ने दूरदर्शन पर उनकी फिल्मों और किशोर कुमार के गानों को बंद करवा दिया. उन दिनों दूरदर्शन ही इकलौता टी वी चैनल होता था . लेकिन इन दोनों ने परवाह नहीं की. देव आनंद ने तो एक राजनीतिक पार्टी भी बनायी . बाद में जब जनता पार्टी की जीत हुई तो और सारे नव निर्वाचित सांसद दिल्ली के राज घाट स्थित महात्मा गांधी की समाधि पर क़सम खाने गए तो देव आनंद भी वहां मौजूद थे . सबकी नज़र उनके सामने इज्ज़त से झुक झुक जाती थी.
देव आनंद की शख्सियत को आंकड़ों के ज़रिये समझ पाना थोडा मुश्किल है . उन्हें वे सभी पुरस्कार और सम्मान मिले जो बड़े सिनेमा वालों को मिलते हैं , दादा साहेब फाल्के, पद्म भूषण , फिल्मफेयर जैसे सभी सम्मान उन्हें मिले लेकिन जो सबसे बड़ा सम्मान उन्हें मिला वह यह कि उन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक मील का पत्थर स्थापित किया .आज देव आनंद नहीं है , जाना ही था , सभी जाते हैं . लेकिन मन में एक हूक सी उठती है कि काश देव आनंद न जाते ..
देव आनंद ने आज ज़िंदगी का साथ निभाना बंद कर दिया,हालांकि उन्होंने बार बार यह ऐलान किया था कि वे ज़िंदगी साथ निभाते चले जायेगें. देव आनंद ने अपनी सारी ज़िंदगी फिल्मों को समर्पित की इसलिए उन्हें फिल्मकार के रूप में ही याद किया जाएगा. लेकिन उनकी एक ज़िन्दगी वह भी है जो १९४६ में फ़िल्मी कैरियर शुरू होने के पहले मुंबई में शुरू हो चुकी थी. देव आनंद ने उसी गवर्नमेंट कालेज लाहौर से पढाई की थी जहां देश के बड़े बड़े बुद्धिजीवी गए थे. लाहौर से अंग्रेज़ी में बी ए करने के बाद वे मुंबई चले गए जहां उनके बड़े भाई चतन आनंद रोज़गार के तलाश में पहले से ही रहते थे. दूसरे विश्व युद्ध का ज़माना था. उन्हें मुंबई में फौजी दफ्तर में एक क्लर्क की नौकरी मिल गयी.मुंबई में उन्हीं दिनों महात्मा गाँधी के नाम का तूफ़ान चल रहा था. ख्वाजा अहमद अब्बास की प्रेरणा और प्रयास से इप्टा ( इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन ) की स्थापना हो चुकी थी . चेतन आनंद इप्टा में जुट चुके थे, देव आनंद भी उनके साथ नाटक के ज़रिते जान जागरण के अभियान में जुट गए. वहां उनकी मुलाक़ात होमी भाभा, क्रिशन चंदर ,कैफ़ी आज़मी ,मजरूह सुल्तानपुरी साहिर लुधियानवी ,बलराज साहनी ,मोहन सहगल, मुल्क राज आनंद, रोमेश थापर, शैलेन्द्र ,प्रेम धवन ,इस्मत चुगताई .ए के हंगल, हेमंत कुमार , अदी मर्जबान,सलिल चौधरी जैसे कम्युनिस्टों से हुई . एक बेहतरीन कलात्मक जीवन की बुनियाद पड़ चुकी थी. १९४२-४३ में बने यह दोस्त जब तक जीवित रहे ,देव आनंद की बुलंदियों को और ऊंचा करने में सहयोग करते रहे. यह सब यह दुनिया छोड़कर जा चुके हैं . अफ़सोस, आज इप्टा का आख़िरी महान कलाकार भी अलविदा कह गया.
नाटकों में तो वे अपने भाई और बलराज साहनी के साथ बहुत कुछ काम करते रहे लेकिन पहला फ़िल्मी ब्रेक उनको १९४६ में मिला जब महान कलाकार ,अशोक कुमार ने उन्हें प्रभात टाकीज की फिल्म हम एक हैं में काम दे दिया . इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी मुलाक़ात , गुरु दत्त से हुई, जो गुरु दत्त के जीवन भर चली. इसी दोस्ती का नतीजा था कि जब देव आनंद ने अपनी फिल्म कंपनी नवकेतन के बैनर तले, व्लादिमीर गोगोल के विख्यात नाटक , इन्स्पेक्टर जनरल के आधार पर फिल्म बाज़ी बनाने का फैसला किया तो उनके इप्टा वाले कई साथी साथ आये. इस फिल्म की कहानी और संवाद बलराज सहनी ने लिखा, गुरु दत्त की यह पहली निर्देशित फिल्म है , साहिर लुधियानवी ने गाने लिखे , सचिन देव बर्मन ने संगीत दिया और अपनी भावी पत्नी कल्पना कार्तिक के साथ देव आनंद ने इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई. यह देव आनद का ही जज्बा था कि बहुत सारे नए लोगों के साथ उन्होंने फिल्म बानने का रिस्क लिया . इस फिल्म में ही बलराज साहनी पहली बार लेखक के रूप में देखे गए . गीतकार के रूप में साहिर लुधियानवी की यह पहली फिल्म है , गुरुदत्त और सचिन देव बर्मन की भी पहली फिल्म है . लेकिन देव आनंद ने बाज़ी लगाई और एक बहुत ही सफल फिल्म बन गयी. बाकी ज़िंदगी में भी देव आनंद इस तरह के खतरों से खेलते रहे , प्रयोग करते रहे , नए नए लोगों को फ़िल्मी परदे पर बड़े बड़े काम के लिए उतारते रहे. आज जब भारतीय सिनेमा के इतिहास पर नज़र डालते हैं तो साफ़ समझ में आ जाता है कि रावी नदी के किनारे के इस छोरे की रिस्क लेने की ताक़त की वजह से ही आज हम भारतीय सिनेमा के बहुत बड़े कलाकारों को जानते हैं .उन्होंने अपनी पहली फिल्म में ही नए लोगों को मौक़ा दिया . बाद में भी शत्रुघ्न सिन्हा को प्रेम पुजारी में ब्रेक दिया , जीनत अमान, टीना मुनीम जैसी अभिनेत्रियों को खोज निकाला. उनके कुछ प्रयोग बुरी तरह से फेल भी हुए . जाहिदा और नताशा नाम की अनजान लड़कियों को उन्होंने अपनी बहुत बड़ी फिल्मों में मुख्य भूमिका दी लेकिन वे अभिनय नहीं कर सकीं , कहीं खो गयीं . अपने बेटे सुनील को भी उन्होंने हीरो बनाने की कोशिश की. सफल विदेशी फिल्म क्रेमर बनाम क्रेमर की तरह की आनंद बनाम आनंद बनायी लेकिन सुनील अभिनय कला में माहिर नहीं थे. देव आनंद ने मनोज कुमार या राजेंद्र कुमार की तरह अपने बेटे को अभिनेता बनने की जिद नहीं की, उसे और काम में लगा दिया .
देव आनंद ने जो कुछ भी किया वह सिनेमा हो गया . साठ और सत्तर के दशक में देव आनंद जो करते थे,वही फैशन हो जाता था. उनके नाम से बहुत सारी कहानियाँ भी चला दी जाती थी, १९६७ में मुझे कई लोगों ने बताया था कि देव आनंद के ऊपर सरकारी रोक लगी हुई है कि वे सफ़ेद पैंट और काली कमीज़ नहीं पहन सकते . उस पोशाक में वे इतने ज्यादा आकर्षक लगते थे कि जिधर जाते हैं उधर लडकियां उनके पीछे दौड़ पड़ती हैं .यह बकवास थी लेकिन एक कहानी के रूप में चल गयी थी. उनके स्टाइल को सभी कापी करते थे. उनके समकालीन दिलीप कुमार और राज कपूर भी बहुत बड़े अभिनेता थे लेकिन जो जलवा देव आनंद का था ,वह किसी का नहीं .अपने समय की सबसे खूबसूरत अभिनत्रियों ने देव आनंद के साथ काम किया था. सुरैया , मधुबाला , नूतन, वहीदा रहमान, हेमा मालिनी, जीनत अमान, टीना मुनीम ,मुमताज को इस बात पर हमेशा गर्व रहा कि वे देव आनंद की हीरोइन रह चुकी हैं.
देव आनंद को उनकी हिम्मत के लिए हमेशा याद किया जाएगा.फिल्मों में तो वे प्रयोग करते ही रहे , इंसाफ़ के पक्षधर के रूप में अपने आपको स्थापित करने के मामले में भी उनका कोई जोड़ नहीं है . १९७५ में जब इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाई तो देव आनंद ने उसका विरोध किया. यह वही दौर है जब मुंबई की फिल्मी दुनिया के लोग लाइन लगाकर संजय गाँधी और इंदिरा गांधी की जय जयकार कर रहे थे , उन्हीं दिनों किशोर कुमार और देव आनंद ने तानाशाही के खिलाफ मोर्चा खोल दिया . संजय गांधी ने दूरदर्शन पर उनकी फिल्मों और किशोर कुमार के गानों को बंद करवा दिया. उन दिनों दूरदर्शन ही इकलौता टी वी चैनल होता था . लेकिन इन दोनों ने परवाह नहीं की. देव आनंद ने तो एक राजनीतिक पार्टी भी बनायी . बाद में जब जनता पार्टी की जीत हुई तो और सारे नव निर्वाचित सांसद दिल्ली के राज घाट स्थित महात्मा गांधी की समाधि पर क़सम खाने गए तो देव आनंद भी वहां मौजूद थे . सबकी नज़र उनके सामने इज्ज़त से झुक झुक जाती थी.
देव आनंद की शख्सियत को आंकड़ों के ज़रिये समझ पाना थोडा मुश्किल है . उन्हें वे सभी पुरस्कार और सम्मान मिले जो बड़े सिनेमा वालों को मिलते हैं , दादा साहेब फाल्के, पद्म भूषण , फिल्मफेयर जैसे सभी सम्मान उन्हें मिले लेकिन जो सबसे बड़ा सम्मान उन्हें मिला वह यह कि उन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक मील का पत्थर स्थापित किया .आज देव आनंद नहीं है , जाना ही था , सभी जाते हैं . लेकिन मन में एक हूक सी उठती है कि काश देव आनंद न जाते ..
Sunday, December 4, 2011
विद्या बालन बहुत बड़ी कलाकार हैं
शेष नारायण सिंह
विद्या बालन की फिल्म डर्टी पिक्चर देखने का मौक़ा मिला..इसके पहले महीनों से पी आर वालों की कृपा से चल रहे प्रोमो की भीड़ में लगता था कि फिल्म बनाने वालों ने प्रचार प्रसार के लिए खूब पैसा झोंका है ,इसलिए लग रहा था कि डर्टी पिक्चर भी बाकी फिल्मों जैसी ही एक फिल्म होगी जिसमें हर तरह के मसाले अपनाए गए होंगें . फिल्म की कहानी वगैरह भी वैसी ही थी. हर तरह का मसाला था. नसीरुद्दीन शाह जैसे समर्थ अभिनेता की घटिया एक्टिंग थी . नसीर आम तौर पर ऐसी रद्दी एक्टिंग नहीं करते. लेकिन ६५ साल की उम्र में जो काम मिलता है ,वह कर लेना ठीक रहता है . क़र्ज़ में डूबे अमिताभ बच्चन ने भी कभी लोगों को करोड़पति बनाने का लालच देने वाले लोगों का साथ कर लिया था और लालच के धंधे में लोगों को फंसाने वालों के साथ मिलकर पैसा कमाया था और अपना क़र्ज़ उतारा था. इमरान हाशमी से किसी एक्टिंग की उम्मीद कोई नहीं करता,उनकी तो फिल्म में मौजूदगी ही उनको रोटी पानी भर के पैसे का बंदोबस्त कर देती है . तुषार कपूर भी ठीक हैं . जब उनकी अम्मा और उनकी बहन फिल्म के प्रोड्यूसर हों तो उनको भी छोटा मोटा रोल मिल जाना कोई बड़ी बात नहीं है . पैसा उनकी अम्मा का है जो चाहें करें . वैसे भी जब इमरान हाशमी आदि जैसे एक्टर फिल्म में रोल पा रहे हैं तो तुषार तो घर के बन्दे हैं .
लेकिन फिल्म ने एक बात मेरे दिलो दिमाग पर बैठा दी है कि यह विद्या बालन बहुत बड़ी कलाकार है . जिस तरीके से उसने अभिव्यक्ति को जीवंत रूप दिया है वह न भूतो न भविष्यति है . एक्सप्रेशन के व्याकरण को उसने बिलकुल शास्त्रीय अर्थ बख्श दिया है . कहीं वहीदा रहमान लगती है तो कहीं रेखा . कहीं स्मिता पाटिल तो कहीं शबाना आजमी . समझ में नहीं आता कि करीब एक सौ अलग अलग तरह के भाव वाले चेहरे कैसे जी लिया है इस लडकी ने . और जिस फ्लैश में चेहरे की कुछ लकीरें, बात करते करते बदल जाती है,क्या बात है . लगता है कि आचार्य भरत के नाट्य शास्त्र के चेहरे की अभिव्यक्ति वाले किसी चैप्टर का लैब में डिमान्स्ट्रेशन चल रहा हो . आज ही देव आनंद गए हैं और वे यह कहते हुए गए हैं कि उनका सबसे अच्छा काम अभी आने वाला है . उनके इस बयान को उनकी जिंदादिली का उदाहरण माना जाता है लेकिन एक बात बहुत ही भरोसे के साथ कही जा सकती है कि बुलंदियों पर मौजूद विद्या बालन का सबसे अच्छा काम अभी आने वाला है . आने वाले वर्षों में सिनेमा के जानकारों को विद्या बालन पर नज़र रखना पड़ेगा . अगर नज़र नहीं रख सके तो कुछ छूट जाएगा क्योंकि विदा बालन के अभिनय की बुलंदियां आनी अभी बाकी हैं .
विद्या बालन की फिल्म डर्टी पिक्चर देखने का मौक़ा मिला..इसके पहले महीनों से पी आर वालों की कृपा से चल रहे प्रोमो की भीड़ में लगता था कि फिल्म बनाने वालों ने प्रचार प्रसार के लिए खूब पैसा झोंका है ,इसलिए लग रहा था कि डर्टी पिक्चर भी बाकी फिल्मों जैसी ही एक फिल्म होगी जिसमें हर तरह के मसाले अपनाए गए होंगें . फिल्म की कहानी वगैरह भी वैसी ही थी. हर तरह का मसाला था. नसीरुद्दीन शाह जैसे समर्थ अभिनेता की घटिया एक्टिंग थी . नसीर आम तौर पर ऐसी रद्दी एक्टिंग नहीं करते. लेकिन ६५ साल की उम्र में जो काम मिलता है ,वह कर लेना ठीक रहता है . क़र्ज़ में डूबे अमिताभ बच्चन ने भी कभी लोगों को करोड़पति बनाने का लालच देने वाले लोगों का साथ कर लिया था और लालच के धंधे में लोगों को फंसाने वालों के साथ मिलकर पैसा कमाया था और अपना क़र्ज़ उतारा था. इमरान हाशमी से किसी एक्टिंग की उम्मीद कोई नहीं करता,उनकी तो फिल्म में मौजूदगी ही उनको रोटी पानी भर के पैसे का बंदोबस्त कर देती है . तुषार कपूर भी ठीक हैं . जब उनकी अम्मा और उनकी बहन फिल्म के प्रोड्यूसर हों तो उनको भी छोटा मोटा रोल मिल जाना कोई बड़ी बात नहीं है . पैसा उनकी अम्मा का है जो चाहें करें . वैसे भी जब इमरान हाशमी आदि जैसे एक्टर फिल्म में रोल पा रहे हैं तो तुषार तो घर के बन्दे हैं .
लेकिन फिल्म ने एक बात मेरे दिलो दिमाग पर बैठा दी है कि यह विद्या बालन बहुत बड़ी कलाकार है . जिस तरीके से उसने अभिव्यक्ति को जीवंत रूप दिया है वह न भूतो न भविष्यति है . एक्सप्रेशन के व्याकरण को उसने बिलकुल शास्त्रीय अर्थ बख्श दिया है . कहीं वहीदा रहमान लगती है तो कहीं रेखा . कहीं स्मिता पाटिल तो कहीं शबाना आजमी . समझ में नहीं आता कि करीब एक सौ अलग अलग तरह के भाव वाले चेहरे कैसे जी लिया है इस लडकी ने . और जिस फ्लैश में चेहरे की कुछ लकीरें, बात करते करते बदल जाती है,क्या बात है . लगता है कि आचार्य भरत के नाट्य शास्त्र के चेहरे की अभिव्यक्ति वाले किसी चैप्टर का लैब में डिमान्स्ट्रेशन चल रहा हो . आज ही देव आनंद गए हैं और वे यह कहते हुए गए हैं कि उनका सबसे अच्छा काम अभी आने वाला है . उनके इस बयान को उनकी जिंदादिली का उदाहरण माना जाता है लेकिन एक बात बहुत ही भरोसे के साथ कही जा सकती है कि बुलंदियों पर मौजूद विद्या बालन का सबसे अच्छा काम अभी आने वाला है . आने वाले वर्षों में सिनेमा के जानकारों को विद्या बालन पर नज़र रखना पड़ेगा . अगर नज़र नहीं रख सके तो कुछ छूट जाएगा क्योंकि विदा बालन के अभिनय की बुलंदियां आनी अभी बाकी हैं .
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शेष नारायण सिंह
शुक्रवार के दिन गैरसरकारी संसदसदस्य बड़े कानून बना सकते हैं .
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, २ दिसंबर.आज नौवें दिन भी संसद में कोई काम नहीं हो सका. शीतकालीन सत्र का आधा वक़्त ख़त्म हो चुका है और अभी यह उम्मीद नज़र नहीं आ रही है कि आने वाले दिनों में भी कोई काम काज हो सकेगा. इसी सत्र में लोकपाल बिल भी पास होना है जिसके लिए राजनीतिक वातावरण पहले से ही बहुत गर्म हो चुका है . लोकपाल कानून को पास कराने के लिए शुरू किये गए आन्दोलन से सुर्ख़ियों में आये अन्ना हजारे और उनके संगी साथी अभी से ताल ठोंक रहे हैं . ज़ाहिर है आने वाला समय देश की राजनीति में बहुत ही दिलचस्प होगा.
आज शुक्रवार है .संसद में शुक्रवार का दिन वैसे भी ढीला माना जाता है . शुक्रवार का दिन उन सदस्यों के विधायी काम के लिए रिज़र्व रखा गया है जो सरकार में नहीं है . संसद के समय का बहुत बड़ा हिस्सा सरकारी विधायी कार्य को समर्पित होता है . इसलिए वे कानून धरे रह जाते हैं जिसे सरकार की मर्जी के खिलाफ सदस्य लाना चाहते हैं . इसीलिये १९५२ से ही शुक्रवार का दिन प्राइवेट मेंबर बिल के लिए आरक्षित कर दिया गया है . इस दिन सदस्य ऐसा कोई भी प्रस्ताव संसद के विचार के लिए ला सकते हैं जिसको वे जनहित में कानून बनाना चाहते हैं . पिछले ५९ वर्षों में हज़ारों प्राइवेट मेंबर बिल संसद के दोनों सदनों में पेश किये जा चुके हैं . जिनमें से १४ अब तक कानून भी बन चुके हैं . ऐसा ही एक बिल १९५६ में रायबरेली के कांग्रेस सांसद फीरोज़ गांधी ने पेश किया था जिसकी वजह से आज संसद की कार्यवाही आम आदमी तक पंहुच पाती है . उसके पहले संसद की कार्यवाही को रिपोर्ट करने की पूरी छूट नहीं होती थी. हुआ यह था कि उस वक़्त के वित्तमंत्री ने बिरला औद्योगिक घराने के बारे में कोई बयान दिया था . लेकिन अगले दिन के अखबारों में उसका कहीं भी कोई उल्लेख नहीं था. राजनीतिक आचरण में शुचिता के पक्षधर फीरोज़ गांधी को यह बात ठीक नहीं लगी. उन्होंने लोकसभा में एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया जिसका उद्देश्य संसद की कार्यवाही को रिपोर्ट करने के काम को बंदिशों से आज़ाद कराना था . . उन्होंने कहा कि मैं इस सदन में जनता का प्रतिनधि हूँ . मैं जो कुछ भी यहाँ बोलता हूँ उसे जनता तक पंहुचाना प्रेस की ड्यूटी है. मैं आग्रह करता हूँ कि एक ऐसा क़ानून बनाया जाय जिस से सदन की कार्यवाही वर्बेटिम ( अक्षरशः ) रिपोर्ट की जा सके. यह भी प्रावधान किया जाना चाहिये कि उन संवाददाताओं के ऊपर संसद की कार्यवाही रिपोर्ट करने के लिए कोई भी मानहानि का मुक़दमा न चलाया जा सके या उनके ऊपर कोई जुरमाना न हो सके. आज संसद के अंदर होने वाली हर बात को पूरा देश जानता है . वह एक प्राइवेट मेबर बिल के ज़रिये ही कानून बन सका था लेकिन आजकल अजीब माहौल है . ज़्यादातर संसद सदस्य गुरुवार को ही दिल्ली छोड़ देते हैं और शुक्रवार का दिन आम तौर पर खाली माना जाता है . जबकि सच्चाई यह है कि अगर संसद सदस्य रचनात्मक तरीके से काम करें तो शुक्रवार के दिन का बहुत ही अच्छा इस्तेमाल किया जा सकता है .
नई दिल्ली, २ दिसंबर.आज नौवें दिन भी संसद में कोई काम नहीं हो सका. शीतकालीन सत्र का आधा वक़्त ख़त्म हो चुका है और अभी यह उम्मीद नज़र नहीं आ रही है कि आने वाले दिनों में भी कोई काम काज हो सकेगा. इसी सत्र में लोकपाल बिल भी पास होना है जिसके लिए राजनीतिक वातावरण पहले से ही बहुत गर्म हो चुका है . लोकपाल कानून को पास कराने के लिए शुरू किये गए आन्दोलन से सुर्ख़ियों में आये अन्ना हजारे और उनके संगी साथी अभी से ताल ठोंक रहे हैं . ज़ाहिर है आने वाला समय देश की राजनीति में बहुत ही दिलचस्प होगा.
आज शुक्रवार है .संसद में शुक्रवार का दिन वैसे भी ढीला माना जाता है . शुक्रवार का दिन उन सदस्यों के विधायी काम के लिए रिज़र्व रखा गया है जो सरकार में नहीं है . संसद के समय का बहुत बड़ा हिस्सा सरकारी विधायी कार्य को समर्पित होता है . इसलिए वे कानून धरे रह जाते हैं जिसे सरकार की मर्जी के खिलाफ सदस्य लाना चाहते हैं . इसीलिये १९५२ से ही शुक्रवार का दिन प्राइवेट मेंबर बिल के लिए आरक्षित कर दिया गया है . इस दिन सदस्य ऐसा कोई भी प्रस्ताव संसद के विचार के लिए ला सकते हैं जिसको वे जनहित में कानून बनाना चाहते हैं . पिछले ५९ वर्षों में हज़ारों प्राइवेट मेंबर बिल संसद के दोनों सदनों में पेश किये जा चुके हैं . जिनमें से १४ अब तक कानून भी बन चुके हैं . ऐसा ही एक बिल १९५६ में रायबरेली के कांग्रेस सांसद फीरोज़ गांधी ने पेश किया था जिसकी वजह से आज संसद की कार्यवाही आम आदमी तक पंहुच पाती है . उसके पहले संसद की कार्यवाही को रिपोर्ट करने की पूरी छूट नहीं होती थी. हुआ यह था कि उस वक़्त के वित्तमंत्री ने बिरला औद्योगिक घराने के बारे में कोई बयान दिया था . लेकिन अगले दिन के अखबारों में उसका कहीं भी कोई उल्लेख नहीं था. राजनीतिक आचरण में शुचिता के पक्षधर फीरोज़ गांधी को यह बात ठीक नहीं लगी. उन्होंने लोकसभा में एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया जिसका उद्देश्य संसद की कार्यवाही को रिपोर्ट करने के काम को बंदिशों से आज़ाद कराना था . . उन्होंने कहा कि मैं इस सदन में जनता का प्रतिनधि हूँ . मैं जो कुछ भी यहाँ बोलता हूँ उसे जनता तक पंहुचाना प्रेस की ड्यूटी है. मैं आग्रह करता हूँ कि एक ऐसा क़ानून बनाया जाय जिस से सदन की कार्यवाही वर्बेटिम ( अक्षरशः ) रिपोर्ट की जा सके. यह भी प्रावधान किया जाना चाहिये कि उन संवाददाताओं के ऊपर संसद की कार्यवाही रिपोर्ट करने के लिए कोई भी मानहानि का मुक़दमा न चलाया जा सके या उनके ऊपर कोई जुरमाना न हो सके. आज संसद के अंदर होने वाली हर बात को पूरा देश जानता है . वह एक प्राइवेट मेबर बिल के ज़रिये ही कानून बन सका था लेकिन आजकल अजीब माहौल है . ज़्यादातर संसद सदस्य गुरुवार को ही दिल्ली छोड़ देते हैं और शुक्रवार का दिन आम तौर पर खाली माना जाता है . जबकि सच्चाई यह है कि अगर संसद सदस्य रचनात्मक तरीके से काम करें तो शुक्रवार के दिन का बहुत ही अच्छा इस्तेमाल किया जा सकता है .
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गैरसरकारी संसदसदस्य,
फीरोज़ गांधी,
रायबरेली,
शुक्रवार,
शेष नारायण सिंह
अमेठी के राजा ने दिखाए बगावती तेवर
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,२९ नवम्बर . कांग्रेस पार्टी की मुसीबतें बढ़ती ही जा रही हैं . पार्टी के महसचिव, राहुल गाँधी के तुफैल में दिल्ली में बुलाये गए यूथ कांग्रेस वालों को आज प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राजनीति के बारे में बताया लेकिन लगता है कि उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक गलती के बाद उससे भी बड़ी गलती कर रहे राहुल गांधी के सामने असली समस्याएं आना शुरू हो गयी हैं . आज राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्र ,अमेठी के राजा और उनकी पड़ोसी सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतकर आये संसद सदस्य संजय सिंह ने खुदरा कारोबार के अलोकप्रिय मुद्दे पर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया . लोकसभा के कल तक के लिए स्थगित होने के बाद उन्होंने संसद भवन परिसर में ही पत्रकारों को बताया कि खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों को पूंजी निवेश के लिए बुलाना बिकुल गलत राजनीति है . उन्होंने कहा कि यह कांग्रेस पार्टी की मूल राजनीतिक विचार धारा से बिलकुल अलग है और इसका विरोध किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि वे इसके खिलाफ हैं और वे प्रधान मंत्री को इसके बारे में पत्र लिख कर आगाह करने जा रहे हैं .उनका दावा है कि यह फैसला इस देश के आम आदमी पर सीधा वार करेगा और कम से कम यह तो कांग्रेस की राजनीति का मकसद कभी नहीं रहा कि आम आदमी को परेशान किया जाए.
उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनावों में एक मज़बूत राजनीतिक हैसियत के लिए अभियान चला रही कांग्रेस पार्टी के लिए यह एक गैरमामूली चुनौती है . संजय सिंह का विरोध किसी एक एम पी का विरोध नहीं है . इस विरोध का खामियाजा कांग्रेस को तो भोगना ही पड़ेगा . खुद राहुल गांधी को अपने इलाके में पाँचों विधान सभा सीटें जीतने का सपना भूल जाना पडेगा. अगर कहीं संसद में दुर्दशा झेल रही कांग्रेस के पतन की शुरुआत हो गयी तो राहुल गांधी को राजनीति के सपने से भी तौबा करना पड़ सकता है . संजय सिंह के करीबी लोगों ने संकेत दिया है कि राहुल गांधी के पड़ोसी क्षेत्र से और उसी जिले से एम पी होने के बावजूद राहुल गांधी ने संजय सिंह से दूरी बना कर रखा हुआ है . हद तो तब हो गयी जब राहुल गांधी ने पिछले हफ्ते लखनऊ के आस पास के जिलों में जनसंपर्क अभियान शुरू किया . उस अभियान में उनके साथ इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा और बाराबंकी के सांसद पी एल पुनिया सर्वेसर्वा के तौर पर मौजूद थे. उस इलाके की राजनीति जानने वालों का दावा है कि कांग्रेस सांसद जगदम्बिका पाल के घर के पास जब २५ नवम्बर को राहुल गांधी की सभा हुई ,उसी दिन दिल्ली में जगदम्बिका पाल के बेटे का रिसेप्शन था. यह कार्यक्रम करीब तीन महीने पहले से तय था लेकिन ऐन उसी दिन राहुल गांधी ने उनके गाँव के पास सभा की . सभा में जगदम्बिका पाल नहीं थे. संजय सिंह को भी वहां नहीं बुलाया गया था. एक सन्देश देने की कोशिश की गयी थी कि उत्तर प्रदेश में अब संजय सिंह और जगदम्बिका पाल जैसे लोगों की कोई ज़रुरत नहीं है , उनकी कमी को दिग्विजय सिंह बहुत ही प्रभाव शाली तरीके से पूरा कर रहे हैं. बताते हैं कि संजय सिंह का आज मीडिया से मुखातिब होना इसी तिरस्कार की राजनीति का एक नतीजा है .संजय गाँधी के १९७५-७६ वाले अमेठी कैम्प से हाईलाईट हुए जगदम्बिका पाल और संजय सिंह यू पी की राजनीति में इतना कुछ बिगाड़ सकते हैं जिसका अभी तक राहुल गांधी के नए सिपहसालार बने बेनी प्रसाद वर्मा और पी एल पुनिया को अंदाज़ तक नहीं होगा. संजय सिंह ने तो बोलना शुरू कर दिया है लेकिन अभी जगदम्बिका पाल चुप हैं लेकिन उनके करीबी लोगों का कहना है कि २५ तारीख को खलीलाबाद में सभा करके राहुल गांधी ने ऐसी हालत पैदा कर दी है कि अब जगदम्बिका पाल कांग्रेस के लिए वोट मांगने जायेगें तो उनके अपने लोग ही उन्हें गंभीरता से नहीं लेगें . संजय सिंह की भी यही हालत अमेठी में हो चुकी है . सरकार के खिलाफ बयान देकर वे अपने आपको ऐसी स्थिति में लाने की कोशिश कर रहे हैं कि कम से कम चुनाव के वक़्त वे इलाके में जाकर कह सकें कि उन्होंने तो कांग्रेस की गलत नीतियों का विरोध किया था.
नई दिल्ली,२९ नवम्बर . कांग्रेस पार्टी की मुसीबतें बढ़ती ही जा रही हैं . पार्टी के महसचिव, राहुल गाँधी के तुफैल में दिल्ली में बुलाये गए यूथ कांग्रेस वालों को आज प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राजनीति के बारे में बताया लेकिन लगता है कि उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक गलती के बाद उससे भी बड़ी गलती कर रहे राहुल गांधी के सामने असली समस्याएं आना शुरू हो गयी हैं . आज राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्र ,अमेठी के राजा और उनकी पड़ोसी सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतकर आये संसद सदस्य संजय सिंह ने खुदरा कारोबार के अलोकप्रिय मुद्दे पर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया . लोकसभा के कल तक के लिए स्थगित होने के बाद उन्होंने संसद भवन परिसर में ही पत्रकारों को बताया कि खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों को पूंजी निवेश के लिए बुलाना बिकुल गलत राजनीति है . उन्होंने कहा कि यह कांग्रेस पार्टी की मूल राजनीतिक विचार धारा से बिलकुल अलग है और इसका विरोध किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि वे इसके खिलाफ हैं और वे प्रधान मंत्री को इसके बारे में पत्र लिख कर आगाह करने जा रहे हैं .उनका दावा है कि यह फैसला इस देश के आम आदमी पर सीधा वार करेगा और कम से कम यह तो कांग्रेस की राजनीति का मकसद कभी नहीं रहा कि आम आदमी को परेशान किया जाए.
उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनावों में एक मज़बूत राजनीतिक हैसियत के लिए अभियान चला रही कांग्रेस पार्टी के लिए यह एक गैरमामूली चुनौती है . संजय सिंह का विरोध किसी एक एम पी का विरोध नहीं है . इस विरोध का खामियाजा कांग्रेस को तो भोगना ही पड़ेगा . खुद राहुल गांधी को अपने इलाके में पाँचों विधान सभा सीटें जीतने का सपना भूल जाना पडेगा. अगर कहीं संसद में दुर्दशा झेल रही कांग्रेस के पतन की शुरुआत हो गयी तो राहुल गांधी को राजनीति के सपने से भी तौबा करना पड़ सकता है . संजय सिंह के करीबी लोगों ने संकेत दिया है कि राहुल गांधी के पड़ोसी क्षेत्र से और उसी जिले से एम पी होने के बावजूद राहुल गांधी ने संजय सिंह से दूरी बना कर रखा हुआ है . हद तो तब हो गयी जब राहुल गांधी ने पिछले हफ्ते लखनऊ के आस पास के जिलों में जनसंपर्क अभियान शुरू किया . उस अभियान में उनके साथ इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा और बाराबंकी के सांसद पी एल पुनिया सर्वेसर्वा के तौर पर मौजूद थे. उस इलाके की राजनीति जानने वालों का दावा है कि कांग्रेस सांसद जगदम्बिका पाल के घर के पास जब २५ नवम्बर को राहुल गांधी की सभा हुई ,उसी दिन दिल्ली में जगदम्बिका पाल के बेटे का रिसेप्शन था. यह कार्यक्रम करीब तीन महीने पहले से तय था लेकिन ऐन उसी दिन राहुल गांधी ने उनके गाँव के पास सभा की . सभा में जगदम्बिका पाल नहीं थे. संजय सिंह को भी वहां नहीं बुलाया गया था. एक सन्देश देने की कोशिश की गयी थी कि उत्तर प्रदेश में अब संजय सिंह और जगदम्बिका पाल जैसे लोगों की कोई ज़रुरत नहीं है , उनकी कमी को दिग्विजय सिंह बहुत ही प्रभाव शाली तरीके से पूरा कर रहे हैं. बताते हैं कि संजय सिंह का आज मीडिया से मुखातिब होना इसी तिरस्कार की राजनीति का एक नतीजा है .संजय गाँधी के १९७५-७६ वाले अमेठी कैम्प से हाईलाईट हुए जगदम्बिका पाल और संजय सिंह यू पी की राजनीति में इतना कुछ बिगाड़ सकते हैं जिसका अभी तक राहुल गांधी के नए सिपहसालार बने बेनी प्रसाद वर्मा और पी एल पुनिया को अंदाज़ तक नहीं होगा. संजय सिंह ने तो बोलना शुरू कर दिया है लेकिन अभी जगदम्बिका पाल चुप हैं लेकिन उनके करीबी लोगों का कहना है कि २५ तारीख को खलीलाबाद में सभा करके राहुल गांधी ने ऐसी हालत पैदा कर दी है कि अब जगदम्बिका पाल कांग्रेस के लिए वोट मांगने जायेगें तो उनके अपने लोग ही उन्हें गंभीरता से नहीं लेगें . संजय सिंह की भी यही हालत अमेठी में हो चुकी है . सरकार के खिलाफ बयान देकर वे अपने आपको ऐसी स्थिति में लाने की कोशिश कर रहे हैं कि कम से कम चुनाव के वक़्त वे इलाके में जाकर कह सकें कि उन्होंने तो कांग्रेस की गलत नीतियों का विरोध किया था.
Tuesday, November 29, 2011
केंद्र सरकार ने रिटेल कारोबार में विदेशी पूंजी निवेश का फैसला अमरीका के दबाव में किया है .दासगुप्ता.
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,२८ नवम्बर . खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश पर केंद्र सरकार के ऊपर राजनीतिक हमले बहुत तेज़ हो गए है .. आज विपक्ष के साथ साथ यू पी ए की साथी पार्टियों ने भी खुले आम सरकार का विरोध किया . कम्युनिस्ट पार्टी के संसद सदस्य गुरुदास दासगुप्ता ने साफ़ आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को वादा किया था कि अमरीकी अर्थ व्यवस्था को सहारा देने के लिए लिए वे अपने देश के रिटेल कारोबार को बड़ी अमरीकी कंपनियों के लिए खोल देगें . इसीलिये उन्होंने बिना संसद को भरोसे में लिए कैबेनिट में ऐसा फैसला ले लिया जिसकी वजह से आने वाली पीढियां भी परेशानी में पड़ सकती हैं .उन्होंने यह कहा कि इस फैसले को लेने में डॉ मनमोहन सिंह ने जो हडबडी दिखाई है वह शक़ पैदा करती है उन्होंने आरोप लगाया कि डॉ मनमोहन सिंह ने यह फैसला किसी दबाव में लिया है . उनका कहना है कि यह फैसला आर्थिक कारणों से नहीं राजनीतिक कारणों से लिया गया है . प्रधान मंत्री पर गंभीर आरोप लगाते हुए वाम मोर्चे ने कहा कि इस फैसले से देश का कोई भला नहीं होगा.
इसके पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सभा में नेता, सीताराम येचुरी ने कहा कि जब संसद का सत्र चल रहा हो तो इतने अहम फैसले को संसद को विश्वास में लिए बिना लेना बिलकुल गलत है . उन्होंने कहा जो हडबडी केंद्र सरकार ने दिखाई है , वह बिलकुल आश्चर्यजनक है. आज़ादी के बाद के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ जब किसी सरकार ने इस तरह का काम किया हो.. सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि सरकार का यह कहना कि वे इस मुद्दे पर संसद में बहस करने को तैयार हैं कोई मतलब नहीं रखता .सवाल पैदा होता है जब सरकार ने फैसला ले ही लिया है तो सदन में बहस का अभिनय करने का क्या मतलब है . वामपंथी मोर्चे की मांग है कि सरकार ने खुदरा कारोबार में विदेशी निवेशा करने का जो फैसला लिया है पहले उसे वापस ले तभी उस पर बहस की बात का कोई मतलब निकलेगा. उन्होंने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार नहीं चाहती कि संसद के शीतकालीन सत्र में महत्वपूर्ण बिल लाये जा सकें , इसलिए वह किसी न किसी बहाने संसद की कार्यवाही में बाधा डालने के हालात पैदा कर रही है . . सरकार ने सारे विपक्ष को अपने खुदरा कारोबार वाले फैसले से उत्तेजित करने की कोशिश की है जिसके बाद ऐसा माहौल बन सके कि कोई काम न हो और बाद में वह देश को बता सके कि विपक्ष ने काम नहीं करने दिया इसलिए लोकपाल समेत और भी बिल नहीं लाये जा सके. . सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि सरकार अखबारों में विज्ञापन लाकर खुदर कारोबार में विदेशी निवेश के मामले में गलत बयानी भी कर रही है . वे इसका भी विरोध करते हैं .
लोक सभा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बासुदेव आचार्य ने बताया कि वाणिज्य मंत्रालय की संसद की स्थायी समिति ने एक राय से सरकार से सिफारिश की थी कि मल्टी ब्रैंड या सिंगल ब्रैंड , किसी भी खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए .वामपंथी मोर्चे ने कहा कि उनकी तरफ से लोक सभा में काम रोको प्रस्ताव दिया गया है . जब तक सरकार विदेशी पूंजी निवेश वाले अपने फैसले को वापस नहीं लेती तब तक उस पर भी बहस नहीं की जायेगी.
नई दिल्ली,२८ नवम्बर . खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश पर केंद्र सरकार के ऊपर राजनीतिक हमले बहुत तेज़ हो गए है .. आज विपक्ष के साथ साथ यू पी ए की साथी पार्टियों ने भी खुले आम सरकार का विरोध किया . कम्युनिस्ट पार्टी के संसद सदस्य गुरुदास दासगुप्ता ने साफ़ आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को वादा किया था कि अमरीकी अर्थ व्यवस्था को सहारा देने के लिए लिए वे अपने देश के रिटेल कारोबार को बड़ी अमरीकी कंपनियों के लिए खोल देगें . इसीलिये उन्होंने बिना संसद को भरोसे में लिए कैबेनिट में ऐसा फैसला ले लिया जिसकी वजह से आने वाली पीढियां भी परेशानी में पड़ सकती हैं .उन्होंने यह कहा कि इस फैसले को लेने में डॉ मनमोहन सिंह ने जो हडबडी दिखाई है वह शक़ पैदा करती है उन्होंने आरोप लगाया कि डॉ मनमोहन सिंह ने यह फैसला किसी दबाव में लिया है . उनका कहना है कि यह फैसला आर्थिक कारणों से नहीं राजनीतिक कारणों से लिया गया है . प्रधान मंत्री पर गंभीर आरोप लगाते हुए वाम मोर्चे ने कहा कि इस फैसले से देश का कोई भला नहीं होगा.
इसके पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सभा में नेता, सीताराम येचुरी ने कहा कि जब संसद का सत्र चल रहा हो तो इतने अहम फैसले को संसद को विश्वास में लिए बिना लेना बिलकुल गलत है . उन्होंने कहा जो हडबडी केंद्र सरकार ने दिखाई है , वह बिलकुल आश्चर्यजनक है. आज़ादी के बाद के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ जब किसी सरकार ने इस तरह का काम किया हो.. सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि सरकार का यह कहना कि वे इस मुद्दे पर संसद में बहस करने को तैयार हैं कोई मतलब नहीं रखता .सवाल पैदा होता है जब सरकार ने फैसला ले ही लिया है तो सदन में बहस का अभिनय करने का क्या मतलब है . वामपंथी मोर्चे की मांग है कि सरकार ने खुदरा कारोबार में विदेशी निवेशा करने का जो फैसला लिया है पहले उसे वापस ले तभी उस पर बहस की बात का कोई मतलब निकलेगा. उन्होंने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार नहीं चाहती कि संसद के शीतकालीन सत्र में महत्वपूर्ण बिल लाये जा सकें , इसलिए वह किसी न किसी बहाने संसद की कार्यवाही में बाधा डालने के हालात पैदा कर रही है . . सरकार ने सारे विपक्ष को अपने खुदरा कारोबार वाले फैसले से उत्तेजित करने की कोशिश की है जिसके बाद ऐसा माहौल बन सके कि कोई काम न हो और बाद में वह देश को बता सके कि विपक्ष ने काम नहीं करने दिया इसलिए लोकपाल समेत और भी बिल नहीं लाये जा सके. . सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि सरकार अखबारों में विज्ञापन लाकर खुदर कारोबार में विदेशी निवेश के मामले में गलत बयानी भी कर रही है . वे इसका भी विरोध करते हैं .
लोक सभा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बासुदेव आचार्य ने बताया कि वाणिज्य मंत्रालय की संसद की स्थायी समिति ने एक राय से सरकार से सिफारिश की थी कि मल्टी ब्रैंड या सिंगल ब्रैंड , किसी भी खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए .वामपंथी मोर्चे ने कहा कि उनकी तरफ से लोक सभा में काम रोको प्रस्ताव दिया गया है . जब तक सरकार विदेशी पूंजी निवेश वाले अपने फैसले को वापस नहीं लेती तब तक उस पर भी बहस नहीं की जायेगी.
Sunday, November 27, 2011
इस बार उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है
शेष नारायण सिंह
उत्तरप्रदेश विधान सभा के चुनाव के लिए प्रचार शुरू हो गया है .राहुल गांधी अपने विवादास्पद बयानों के चलते सुर्ख़ियों में बने हुए हैं . कभी मुलायम सिंह यादव के सबसे वफादार साथी रहे बेनी प्रसाद वर्मा के जिले,बाराबंकी में उन्होंने कई धमाकेदार बयान दिये और एक बार फिर साबित करने की कोशिश की कि उत्तर प्रदेश के लोग दिल्ली और मुंबई में भीख मांगने के काम को कोई अछूत काम नहीं मानते हैं . राहुल गांधी के इस बयान को बीजेपी वाले उनके खिलाफ इस्तेमाल करेगें . उस बयान की धमक यू पी विधान सभा चुनाव पर तो पड़ेगी ही, राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उसका असर मुंबई में यू पी विधान सभा चुनाव के आस पास ही हो रहे नगरपालिका चुनावों पर भी पड़ सकता है . यह बयान निश्चित रूप से लोगों को शाक करने के लिए दिया गया है , लोगों को सोचने के लिए मजबूर करने के लिए दिया गया है . अगर कांग्रेस के पास ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ता होते तो इसे राहुल गांधी की यू पी वालों के घर छोड़ कर भागने की प्रवृत्ति को रोकने की कोशिश के रूप में पेश किया जा सकता था . लेकिन कांग्रेस के पास यू पी में नेता बहुत हैं, कार्यकर्ता बिलकुल नहीं हैं . मीडिया में भी राज्य के कांग्रेसी नेताओं की ऐसी छवि नहीं है कि राहुल गांधी की बात को आम जनता तक पंहुचाने में वे सहयोग कर सकें . जबकि विपक्षी दलों की कोशिश होगी कि वे राहुल गांधी के इस बयान को एक गैर ज़िम्मेदार बयान के दायरे से बाहर ही न आने दें .कांग्रेस ने पिछले कुछ वर्षों में यू पी में बहुत काम किया है . ख़ास तौर पर मुसलमानों में अपनी छवि को सुधारने में सफलता पायी है . इसका नतीजा लोकसभा २००९ में नज़र भी आया जब कांग्रेस पार्टी राज्य की दोनों बड़ी पार्टियों के बराबर सांसद चुनवाने में सफल रही. इस बार भी कांग्रेस को उम्मीद है कि मुसलमान उसको उसी तरह से समर्थन देगें जिस तरह से लोक सभा चुनाव २००९ के वक़्त दिया था. यह उम्मीद बिकुल जायज़ है .लेकिन अब हालात बदल गए है . सबसे बड़ी बात तो यही है कि इस बार एक ऐसी सरकार चुनी जानी है जो यू पी में राज काज संभालेगी . उसके पास कानून व्यवस्था का प्रबंधन होगा . मुसलमान की पूरी कोशिश होगी कि वह उत्तर प्रदेश में किसी ऐसी सरकार के गठन में सहयोग न कर दे जो गुजरात की मोदी सरकार की तरह काम करे. गुजरात की मोदी सरकार के बारे में जो तथ्य सामने आ रहे हैं उन से कोई भी मुसलमान डर सकता है . सबसे ताज़ा मामला मुंबई की लडकी इशरत जहां को फर्जी इनकाउंटर के ज़रिये क़त्ल करने का है .गुजरात के पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट तक में हलफनामा दाखिल कर दिया है कि मुख्य मंत्री,नरेंद्र मोदी ने गोधरा में ट्रेन में आग लगने के बाद पुलिस को हुक्म दिया था कि हिन्दुओं के गुस्से को प्रकट होने दें . दुनिया जानती है कि उस गुस्से के बाद गुजरात के कुछ शहरों में मुसलमानों का क्या हाल हुआ था. पूरे देश में मुसलामन उस हालत में नहीं पंहुचना चाहता जिस हालत में २००२ में गुजरात के मुसलमान पंहुच गए थे . बहुत सारे लोग यह कहते पाए जाते हैं कि नरेंद्र मोदी निजी तौर पर बहुत ही शांत प्रवृत्ति के इंसान हैं . उनकी बात को अगर मान भी लिया जाये तो गुजरात २००२ के नरसंहार को भुलाया नहीं जा सकता . इससे यह साबित होता है कि बीजेपी का मुख्यमंत्री अगर बहुत भला आदमी भी होगा तो वह गोधरा के बाद मुसलमानों के क़त्ले आम जैसी हालत पैदा होने से रोकने में बहुत दिलचस्पी नहीं लेगा. ज़ाहिर है कि कहीं भी कोई भी मुसलमान ऐसी किसी सरकार के बनने के हालात नहीं पैदा होने देगा जिससे उत्तर प्रदेश में बीजेपी की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बन जाए.पूरी तरह से टुकड़ों टुकड़ों में बँट चुकी उत्तर प्रदेश की आबादी में अब बहुत कम वोट बैंक रह गए हैं . इसलिए यह उम्मीद करना कि कोई एक ख़ास वर्ग किसी एक पार्टी के पक्ष में टूट पडेगा, बेमतलब है . अब तक माना जाता था कि उत्तर प्रदेश में दलित वर्गों का वोटर मौजूदा मुख्य मंत्री , मायावती के साथ रहता है लेकिन इस बार वह तस्वीर भी बदल रही है . गाँवों के स्तर तक जिस तरह से भ्रष्टाचार करने वालों का सरकारी आशीर्वाद से आतंक मचा हुआ है उसका शिकार सभी लोग हो रहे हैं . उसमें दलित भी शामिल हैं . इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि विधान सभा २०१२ में यू पी की जनता कुछ इस तरह से वोट करेगी जिस से राज्य में ग्रामीण स्तर पर मची लूट को रोका जा सके. ऐसी हालत में वोट उसी को मिल सकता है जो अपने आप को मायावाती के विकल्प के रूप में पेश करने में सफल होगा .समाजवादी पार्टी और उसके नेता मुलायम सिंह मायावती को सबसे मज़बूत चुनौती देने वाले नेता के रूप में पहचाने जाते हैं. पारंपरिक रूप से मुसलमान उनको वोट देते भी रहे हैं . यहाँ तक कि २००७ में भी मुसलमानों ने उनको वोट दिया था लेकिन उनकी पिछली सरकार में उनके कुछ साथियों की कारस्तानी ऐसी थी कि उनको बाकी कहीं से वोट नहीं मिले . नतीजा यह हुआ कि उनसे नाराज़ जनता ने मायावाती को मुख्यमंत्री बना दिया . स्पष्ट बहुमत के साथ मायावती पहली बार मुख्य मंत्री बनी थीं . इसके पहले हर बार वे बीजेपी के समर्थन से ही सरकार चलाती रही थीं . पूर्ण बहुमत के साथ चली मायावती की सरकार ऐसी सरकार नहीं है जिसको कोई बहुत गरीबपरवर सरकार कह सके . उसमें आर्थिक शुचिता निश्चित रूप से बहुत कम रही है . ऐसा लगता है कि मायावती को मालूम है कि पुराने फार्मूलों से इस बार चुनाव जीत सकना मुश्किल होगा.शायद इसीलिए चुनाव के ऐन पहले या यूं कहें कि चुनावी रणनीति को धार देने की गरज से मायावती ने उत्तर प्रदेश के बँटवारे का ऐलान कर दिया है . उत्तर प्रदेश के बँटवारे का राजनीतिक फैसला लेकर मायावती ने राज्य में सारे चुनावी समीकरण बदल दिया है . सबको मालूम है कि विधानसभा में पास किये गए मुख्यमंत्री मायावती के प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है लेकिन वह एक धमाकेदार राजनीतिक स्टेटमेंट तो हैं ही. उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव २०१२ में अब यह मुद्दा निश्चित रूप से अहम भूमिका निभायेगा. राज्य के बँटवारे पर गोलमोल बयान दे रही कांग्रेस और बीजेपी के सामने अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में खासी मुश्किल पेश आने वाली है . उत्तर प्रदेश के बँटवारे की बात कर रहे अजीत सिंह को इस राजनीतिक घटनाक्रम ने निश्चित रूप से कमज़ोर किया है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के बीच कांग्रेस की मज़बूत होती साख के चक्कर में वे कांग्रेस से समझौता करने की कोशिश कर रहे हैं . उनके स्वर्गीय पिता ने अपनी बिरादरी के वोट और मुसलमानों के वोट के बल पर उतर प्रदेश में वर्षों राज किया था लेकिन अब मुसलमानों के बीच अजीत सिंह की स्वीकार्यता घटी है .लोकसभा २००९ के दौरान उनकी ख़ास सहयोगी और पार्टी की बड़ी नेता, अनुराधा चौधरी को जिताने के लिए गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी का सहयोग लिया गया था. अजीत सिंह और अनुराधा चौधरी के साथ नरेंद्र मोदी की तस्वीर वाले पोस्टर पूरे इलाके में पाट दिए गए थे. मुसलमानों ने एकमुश्त अनुराधा के खिलाफ वोट दिया और वे हार गयीं . वे पोस्टर इलाके के लोगों को अभी भी याद है . इसलिए लगता है कि राज्य के बँटवारे के मुद्दे के छिन जाने के बाद अजीत सिंह खासे कमज़ोर हुए हैं . पश्चिमी उत्तरप्रदेश के प्रभावशाली मुसलमानों के बीच उनकी नरेंद्र मोदी परस्त नेता की छवि भी उनको नुकसान पंहुचा सकती है . जानकार तो यहाँ तक कहते हैं कि अगर कांग्रेस ने अजीत सिंह के साथ समझौता किया तो उसके अपने वोट पश्चिम में ही नहीं पूरे राज्य में घट जायेगें .ऐसी हालत में कांग्रेस के समझौते के बाद भी अजीत सिंह एक ताक़त के रूप में नहीं उभरने वाले हैं . वैसे भी उनके बारे में यह शक़ बना रहता है कि पता नहीं कब वे बीजेपी से जा मिलेगें .
कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के सामने विकल्प बहुत कम हैं . हालांकि खासी बड़ी संख्या में मुसलमान कांग्रेस की तरफ खिंचे हैं लेकिन कांग्रेस जब तक सरकार बनाने लायक स्थिति में नहीं आती तब तक मुसलमानों के वोट सारी सहानुभूति के बावजूद उसे नहीं मिलेगें . मायवाती के खिलाफ बन रहे माहौल के बाद लगता है कि मुसलमानों की प्राथमिकता सूची में समाजवादी पार्टी सबसे ऊपर रहेगी. कहा जा रहा है कि राज्य के बँटवारे का विरोध करके मुलायम सिंह यादव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को नाराज़ कर लिया है और उनको इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है .मुलायम सिंह यादव ने इस बार अपने चुनाव अभियान की शुरुआत एटा जिले के उस इलाके से की जहां यादवों का ख़ासा प्रभाव है . लगता है कि राज्य के बँटवारे की राजनीतिक चाल से होने वाले नुकसान की भरपाई वे पिछड़ों के वोट को अपने साथ बड़े पैमाने पर जोड़कर करना चाहते हैं . लेकिन उनकी हालत पूर्वी उत्तरप्रदेश में उतनी मजबूत नहीं है जितनी पहले हुआ करती थी .वहां पीस पार्टी नाम की एक पार्टी बना दी गयी है जो निश्चित रूप से मुलायम सिंह के मतदाताओं को तोड़ेगी उनके प्रभाव के जिलों, आज़मगढ़ , जौनपुर आदि में उनकी बिरादरी के जो नेता उनके सारथी हैं वे बहुत ही अलोकप्रिय लोग हैं . वहां मायावती का प्रभाव भी बहुत ज्यादा है . बीजेपी के तीनों बड़े नेता उसी इलाके के हैं . अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही और राजनाथ सिंह की कोशिश है कि ठाकुरों को साथ जोड़ा जाए. जब कि उसी इलाके से आने वाले कलराज मिश्र ने भी अपने को अभी से मुख्यमंत्री के रूप में देखना शुरू कर दिया है. उनकी रथ यात्रा के कारण भी उनके कार्यकर्ताओं में कुछ जागरूकता देखी गयी है . राहुल गांधी भी पूर्वी उत्तर प्रदेश को बहुत महत्व दे रहे हैं .पीस पार्टी के कारण मुसलमानों में दुविधा की स्थिति है . लेकिन कांग्रेस और बीजेपी की लगभग बराबर हो रही ताक़त के बाद लगता है वहां भी मुसलमानों को मायावती और मुलायम सिंह यादव के बीच ही चुनाव करना पडेगा . इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि बहुत हाई प्रोफाइल प्रचार के बावजूद भी पीस पार्टी के पहचान एक वोट काटने वाली पार्टी वाली ही बन जाय. ऐसी हालत में मुलायम सिंह और मायावती के बीच टाई होगी. दलित वोट तो मायावती के साथ जाएगा ही , अगर मुलायम सिंह ऐसा माहौल बनाने में सफल हो गए कि वे मायावती को हरा सकते हैं तो मुसलमान , बैकवर्ड और मायवती के नाराज़ वोटर के कंधे पर बैठ कर वे इस बार भी यू पी की सत्ता पर काबिज़ हो सकते हैं . लेकिन अभी बहुत जल्दी है . कुछ भी फाइनल कहना ठीक नहीं होगा लेकिन यह बात बहुत ही भरोसे के साथ कही जा सकती है कि इस बार उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है .
उत्तरप्रदेश विधान सभा के चुनाव के लिए प्रचार शुरू हो गया है .राहुल गांधी अपने विवादास्पद बयानों के चलते सुर्ख़ियों में बने हुए हैं . कभी मुलायम सिंह यादव के सबसे वफादार साथी रहे बेनी प्रसाद वर्मा के जिले,बाराबंकी में उन्होंने कई धमाकेदार बयान दिये और एक बार फिर साबित करने की कोशिश की कि उत्तर प्रदेश के लोग दिल्ली और मुंबई में भीख मांगने के काम को कोई अछूत काम नहीं मानते हैं . राहुल गांधी के इस बयान को बीजेपी वाले उनके खिलाफ इस्तेमाल करेगें . उस बयान की धमक यू पी विधान सभा चुनाव पर तो पड़ेगी ही, राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उसका असर मुंबई में यू पी विधान सभा चुनाव के आस पास ही हो रहे नगरपालिका चुनावों पर भी पड़ सकता है . यह बयान निश्चित रूप से लोगों को शाक करने के लिए दिया गया है , लोगों को सोचने के लिए मजबूर करने के लिए दिया गया है . अगर कांग्रेस के पास ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ता होते तो इसे राहुल गांधी की यू पी वालों के घर छोड़ कर भागने की प्रवृत्ति को रोकने की कोशिश के रूप में पेश किया जा सकता था . लेकिन कांग्रेस के पास यू पी में नेता बहुत हैं, कार्यकर्ता बिलकुल नहीं हैं . मीडिया में भी राज्य के कांग्रेसी नेताओं की ऐसी छवि नहीं है कि राहुल गांधी की बात को आम जनता तक पंहुचाने में वे सहयोग कर सकें . जबकि विपक्षी दलों की कोशिश होगी कि वे राहुल गांधी के इस बयान को एक गैर ज़िम्मेदार बयान के दायरे से बाहर ही न आने दें .कांग्रेस ने पिछले कुछ वर्षों में यू पी में बहुत काम किया है . ख़ास तौर पर मुसलमानों में अपनी छवि को सुधारने में सफलता पायी है . इसका नतीजा लोकसभा २००९ में नज़र भी आया जब कांग्रेस पार्टी राज्य की दोनों बड़ी पार्टियों के बराबर सांसद चुनवाने में सफल रही. इस बार भी कांग्रेस को उम्मीद है कि मुसलमान उसको उसी तरह से समर्थन देगें जिस तरह से लोक सभा चुनाव २००९ के वक़्त दिया था. यह उम्मीद बिकुल जायज़ है .लेकिन अब हालात बदल गए है . सबसे बड़ी बात तो यही है कि इस बार एक ऐसी सरकार चुनी जानी है जो यू पी में राज काज संभालेगी . उसके पास कानून व्यवस्था का प्रबंधन होगा . मुसलमान की पूरी कोशिश होगी कि वह उत्तर प्रदेश में किसी ऐसी सरकार के गठन में सहयोग न कर दे जो गुजरात की मोदी सरकार की तरह काम करे. गुजरात की मोदी सरकार के बारे में जो तथ्य सामने आ रहे हैं उन से कोई भी मुसलमान डर सकता है . सबसे ताज़ा मामला मुंबई की लडकी इशरत जहां को फर्जी इनकाउंटर के ज़रिये क़त्ल करने का है .गुजरात के पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट तक में हलफनामा दाखिल कर दिया है कि मुख्य मंत्री,नरेंद्र मोदी ने गोधरा में ट्रेन में आग लगने के बाद पुलिस को हुक्म दिया था कि हिन्दुओं के गुस्से को प्रकट होने दें . दुनिया जानती है कि उस गुस्से के बाद गुजरात के कुछ शहरों में मुसलमानों का क्या हाल हुआ था. पूरे देश में मुसलामन उस हालत में नहीं पंहुचना चाहता जिस हालत में २००२ में गुजरात के मुसलमान पंहुच गए थे . बहुत सारे लोग यह कहते पाए जाते हैं कि नरेंद्र मोदी निजी तौर पर बहुत ही शांत प्रवृत्ति के इंसान हैं . उनकी बात को अगर मान भी लिया जाये तो गुजरात २००२ के नरसंहार को भुलाया नहीं जा सकता . इससे यह साबित होता है कि बीजेपी का मुख्यमंत्री अगर बहुत भला आदमी भी होगा तो वह गोधरा के बाद मुसलमानों के क़त्ले आम जैसी हालत पैदा होने से रोकने में बहुत दिलचस्पी नहीं लेगा. ज़ाहिर है कि कहीं भी कोई भी मुसलमान ऐसी किसी सरकार के बनने के हालात नहीं पैदा होने देगा जिससे उत्तर प्रदेश में बीजेपी की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बन जाए.पूरी तरह से टुकड़ों टुकड़ों में बँट चुकी उत्तर प्रदेश की आबादी में अब बहुत कम वोट बैंक रह गए हैं . इसलिए यह उम्मीद करना कि कोई एक ख़ास वर्ग किसी एक पार्टी के पक्ष में टूट पडेगा, बेमतलब है . अब तक माना जाता था कि उत्तर प्रदेश में दलित वर्गों का वोटर मौजूदा मुख्य मंत्री , मायावती के साथ रहता है लेकिन इस बार वह तस्वीर भी बदल रही है . गाँवों के स्तर तक जिस तरह से भ्रष्टाचार करने वालों का सरकारी आशीर्वाद से आतंक मचा हुआ है उसका शिकार सभी लोग हो रहे हैं . उसमें दलित भी शामिल हैं . इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि विधान सभा २०१२ में यू पी की जनता कुछ इस तरह से वोट करेगी जिस से राज्य में ग्रामीण स्तर पर मची लूट को रोका जा सके. ऐसी हालत में वोट उसी को मिल सकता है जो अपने आप को मायावाती के विकल्प के रूप में पेश करने में सफल होगा .समाजवादी पार्टी और उसके नेता मुलायम सिंह मायावती को सबसे मज़बूत चुनौती देने वाले नेता के रूप में पहचाने जाते हैं. पारंपरिक रूप से मुसलमान उनको वोट देते भी रहे हैं . यहाँ तक कि २००७ में भी मुसलमानों ने उनको वोट दिया था लेकिन उनकी पिछली सरकार में उनके कुछ साथियों की कारस्तानी ऐसी थी कि उनको बाकी कहीं से वोट नहीं मिले . नतीजा यह हुआ कि उनसे नाराज़ जनता ने मायावाती को मुख्यमंत्री बना दिया . स्पष्ट बहुमत के साथ मायावती पहली बार मुख्य मंत्री बनी थीं . इसके पहले हर बार वे बीजेपी के समर्थन से ही सरकार चलाती रही थीं . पूर्ण बहुमत के साथ चली मायावती की सरकार ऐसी सरकार नहीं है जिसको कोई बहुत गरीबपरवर सरकार कह सके . उसमें आर्थिक शुचिता निश्चित रूप से बहुत कम रही है . ऐसा लगता है कि मायावती को मालूम है कि पुराने फार्मूलों से इस बार चुनाव जीत सकना मुश्किल होगा.शायद इसीलिए चुनाव के ऐन पहले या यूं कहें कि चुनावी रणनीति को धार देने की गरज से मायावती ने उत्तर प्रदेश के बँटवारे का ऐलान कर दिया है . उत्तर प्रदेश के बँटवारे का राजनीतिक फैसला लेकर मायावती ने राज्य में सारे चुनावी समीकरण बदल दिया है . सबको मालूम है कि विधानसभा में पास किये गए मुख्यमंत्री मायावती के प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है लेकिन वह एक धमाकेदार राजनीतिक स्टेटमेंट तो हैं ही. उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव २०१२ में अब यह मुद्दा निश्चित रूप से अहम भूमिका निभायेगा. राज्य के बँटवारे पर गोलमोल बयान दे रही कांग्रेस और बीजेपी के सामने अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में खासी मुश्किल पेश आने वाली है . उत्तर प्रदेश के बँटवारे की बात कर रहे अजीत सिंह को इस राजनीतिक घटनाक्रम ने निश्चित रूप से कमज़ोर किया है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के बीच कांग्रेस की मज़बूत होती साख के चक्कर में वे कांग्रेस से समझौता करने की कोशिश कर रहे हैं . उनके स्वर्गीय पिता ने अपनी बिरादरी के वोट और मुसलमानों के वोट के बल पर उतर प्रदेश में वर्षों राज किया था लेकिन अब मुसलमानों के बीच अजीत सिंह की स्वीकार्यता घटी है .लोकसभा २००९ के दौरान उनकी ख़ास सहयोगी और पार्टी की बड़ी नेता, अनुराधा चौधरी को जिताने के लिए गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी का सहयोग लिया गया था. अजीत सिंह और अनुराधा चौधरी के साथ नरेंद्र मोदी की तस्वीर वाले पोस्टर पूरे इलाके में पाट दिए गए थे. मुसलमानों ने एकमुश्त अनुराधा के खिलाफ वोट दिया और वे हार गयीं . वे पोस्टर इलाके के लोगों को अभी भी याद है . इसलिए लगता है कि राज्य के बँटवारे के मुद्दे के छिन जाने के बाद अजीत सिंह खासे कमज़ोर हुए हैं . पश्चिमी उत्तरप्रदेश के प्रभावशाली मुसलमानों के बीच उनकी नरेंद्र मोदी परस्त नेता की छवि भी उनको नुकसान पंहुचा सकती है . जानकार तो यहाँ तक कहते हैं कि अगर कांग्रेस ने अजीत सिंह के साथ समझौता किया तो उसके अपने वोट पश्चिम में ही नहीं पूरे राज्य में घट जायेगें .ऐसी हालत में कांग्रेस के समझौते के बाद भी अजीत सिंह एक ताक़त के रूप में नहीं उभरने वाले हैं . वैसे भी उनके बारे में यह शक़ बना रहता है कि पता नहीं कब वे बीजेपी से जा मिलेगें .
कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के सामने विकल्प बहुत कम हैं . हालांकि खासी बड़ी संख्या में मुसलमान कांग्रेस की तरफ खिंचे हैं लेकिन कांग्रेस जब तक सरकार बनाने लायक स्थिति में नहीं आती तब तक मुसलमानों के वोट सारी सहानुभूति के बावजूद उसे नहीं मिलेगें . मायवाती के खिलाफ बन रहे माहौल के बाद लगता है कि मुसलमानों की प्राथमिकता सूची में समाजवादी पार्टी सबसे ऊपर रहेगी. कहा जा रहा है कि राज्य के बँटवारे का विरोध करके मुलायम सिंह यादव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को नाराज़ कर लिया है और उनको इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है .मुलायम सिंह यादव ने इस बार अपने चुनाव अभियान की शुरुआत एटा जिले के उस इलाके से की जहां यादवों का ख़ासा प्रभाव है . लगता है कि राज्य के बँटवारे की राजनीतिक चाल से होने वाले नुकसान की भरपाई वे पिछड़ों के वोट को अपने साथ बड़े पैमाने पर जोड़कर करना चाहते हैं . लेकिन उनकी हालत पूर्वी उत्तरप्रदेश में उतनी मजबूत नहीं है जितनी पहले हुआ करती थी .वहां पीस पार्टी नाम की एक पार्टी बना दी गयी है जो निश्चित रूप से मुलायम सिंह के मतदाताओं को तोड़ेगी उनके प्रभाव के जिलों, आज़मगढ़ , जौनपुर आदि में उनकी बिरादरी के जो नेता उनके सारथी हैं वे बहुत ही अलोकप्रिय लोग हैं . वहां मायावती का प्रभाव भी बहुत ज्यादा है . बीजेपी के तीनों बड़े नेता उसी इलाके के हैं . अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही और राजनाथ सिंह की कोशिश है कि ठाकुरों को साथ जोड़ा जाए. जब कि उसी इलाके से आने वाले कलराज मिश्र ने भी अपने को अभी से मुख्यमंत्री के रूप में देखना शुरू कर दिया है. उनकी रथ यात्रा के कारण भी उनके कार्यकर्ताओं में कुछ जागरूकता देखी गयी है . राहुल गांधी भी पूर्वी उत्तर प्रदेश को बहुत महत्व दे रहे हैं .पीस पार्टी के कारण मुसलमानों में दुविधा की स्थिति है . लेकिन कांग्रेस और बीजेपी की लगभग बराबर हो रही ताक़त के बाद लगता है वहां भी मुसलमानों को मायावती और मुलायम सिंह यादव के बीच ही चुनाव करना पडेगा . इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि बहुत हाई प्रोफाइल प्रचार के बावजूद भी पीस पार्टी के पहचान एक वोट काटने वाली पार्टी वाली ही बन जाय. ऐसी हालत में मुलायम सिंह और मायावती के बीच टाई होगी. दलित वोट तो मायावती के साथ जाएगा ही , अगर मुलायम सिंह ऐसा माहौल बनाने में सफल हो गए कि वे मायावती को हरा सकते हैं तो मुसलमान , बैकवर्ड और मायवती के नाराज़ वोटर के कंधे पर बैठ कर वे इस बार भी यू पी की सत्ता पर काबिज़ हो सकते हैं . लेकिन अभी बहुत जल्दी है . कुछ भी फाइनल कहना ठीक नहीं होगा लेकिन यह बात बहुत ही भरोसे के साथ कही जा सकती है कि इस बार उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है .
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