शेष नारायण सिंह
भ्रष्टाचार के कुछ मामलों में सुरेश कलमाड़ी की गिरफ्तारी देश में चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान को ज़बरदस्त ताक़त देगा. आम तौर पर होता यह रहा है कि किसी भी केस में सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी अपने सदस्यों या सहयोगियों को गिरफ्तार नहीं करती . कहीं से बलि के बकरे तलाशे जाते हैं और उन्हें ही शील्ड की तरह इस्तेमाल करके नेता को बचा लिया जाता है . ऐसे सैकड़ों मामले हैं . १९७४ में पांडिचेरी लाइसेंस घोटाले में एक एम पी , तुलमोहन राम को पकड़ लिया गया था . जबकि सबको मालूम था जबकि सबको मालूम था कि खेल उस वक़्त के युवराज संजय गाँधी और उनकी प्रधानमंत्री माँ के फायदे के लिए हुआ था. उस वक़्त देश की लोक सभा में विपक्ष की बेंचों पर बहुत ही बेहतरीन लोग होते थे. मधु लिमये , ज्योतिर्मय बसु, इन्द्रजीत गुप्ता, हरि विष्णु कामथ,अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता विपक्ष की शोभा थे. इंदिरा गाँधी के पास १९७१ वाला दो तिहाई बहुमत था लेकिन मामला उजागर हुआ और पूरी दुनिया को मालूम हुआ कि भ्रष्टाचार की जड़ें कहाँ तक थीं . लेकिन असली अपराधियों का सज़ा नहीं मिली. उसके बाद तो अरुण नेहरू का दबदबा बना और भ्रष्टाचार को एक संस्थागत रूप दे दिया गया. बाद की सभी सरकारों ने भ्रष्टाचार के मामलों को दबाने में ही भलाई समझी . राजीव गाँधी, वी पी सिंह ,पी वी नरसिम्हा राव , एच डी देवेगौडा , इन्दर कुमार गुजराल , अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों के दौरान सत्ता पक्ष के नेताओं ने तबियत से भ्रष्टाचार किया और देश में ऐसा माहौल बना कि बे ईमानी का बुरा मानने का रिवाज़ की ख़त्म हो गया . लेकिन अब देख जा रहा है कि भ्रष्ट आदमियों को पकड़कर जेल भेजा जा रहा है . राजनेता कैसा भी हो जेलों की हवा खाने को मजबूर हो रहा है . दर असल जैन हवाला काण्ड के बाद नेता बेख़ौफ़ हो गए थे . उस रिश्वत काण्ड में कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा लगभग सभी पार्टियों के नेता शामिल थे , बीजेपी के आडवाणी थे तो कांग्रेस के सतीश शर्मा . शरद यादव थे तो सीताराम केसरी. आरोप भी बिकुल सही पाए गए थे लेकिन सभी नेताओंने मिलकर ऐसी खिचडी पकाई कि कोई बता ही नहीं सकता कि मामला दफ़न किस रसातल में कर दिया गया . उसके बाद के भी भ्रष्टाचारों को दबाया ही गया . एक से एक भ्रष्ट नेता और मंत्री आते रहे और जाते रहे ,किसी के भ्रष्टाचार का ज़िक्र तक नहीं हुआ . जांच की बात तो सोचने का कोई मतलब ही नहीं है . सब नेताओं को मालूम था कि लूटो और खाओ किसी कानून से डरने की ज़रुरत नहीं है. लेकिन अब देखने में आ रहा है कि बड़े बड़े नेताओं के करीबी लोग जेलों की सैर कर रहे हैं . ऐसा शायद इस लिए हो रहा है कि मीडिया अलर्ट है और सूचना का अधिकार कानून प्रभावी तरीके से चल रहा है . वेब मीडिया के चलते मीडिया को मैनेज करने की नेताओं की कोशिशें भी बेकार साबित हो रही हैं . आज कोई नेता एक चोरी करता है और अगर किसी ब्लॉगर के हाथ सूचना लग गयी तो लगभग उसी क्षण वह सूचना दुनिया भर के लिए उपलब्ध हो जाती है .जिस लोकपाल बिल को पिछले ४० साल से सरकारें ठंडे बस्ते में डाले हुए थीं वह अब देश की जनता की अदालत में है . यानी भ्रष्टाचार से लड़ने की एक देशव्यापी
लड़ाई चल रही है और केंद्र सरकार किसी भी सूचना को छुपा नहीं पा रही है और उसे एक्शन लेना पड़ रहा है . जनमत और मीडिया का दबाव इतना है कि राजनीतिक पार्टियों को कुछ करना पड़ रहा है .यह अलग बात है कि बीजेपी वालों को लग रहा है कि यह अभी कम है . बीजेपी के एक दिल्ली दरबारी प्रवक्ता को आज टेलिविज़न पर कहते सुना गया कि सुरेश कलमाड़ी तो ठीक है लेकिन उनके सारे फैसले प्रधान मंत्री कार्यालय में लिए गए थे इसलिए उसके खिलाफ फ़ौरन गिरफ्तारी जैसी कार्रवाई होनी चाहिए . भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे जनता के युद्ध में बीजेपी को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है. उनके मौजूदा दो मुख्य मंत्री आपराधिक मामलों के आरोपी हैं. कर्नाटक के मुख्यमंत्री को जब हटाने की बात आई तो उसने धमका दिया . और दिल्ली वाले बीजेपी के नेता दुबक गए . एक बड़े नेता का बयान आया कि उस मुख्यमंत्री को इसलिए नहीं हटाया जा रहा है उस के बाद दक्षिण में उनकी पार्टी ही ख़त्म हो जायेगी. वाजपेयी सरकार के दौरान सैकड़ों ऐसे घोटाले हैं जिन पर बीजेपी के प्रवक्ताओं की नज़र नहीं जाती . उनका अध्यक्ष पूरी दुनिया के सामने नोटों की गड्डियाँ संभालते देखा गया था. और भी बहुत सारे अपराधी हैं उनकी पार्टी में लेकिन उन्हें कुछ नहीं दिखता . नरेंद्र मोदी के कृत्यों की पोल रोज़ ही खुल रही है लेकिन पूरी पार्टी उनके साथ खडी है . ऐसी हालत में कम से कम बीजेपी की औकात तो नहीं है कि वह अपने आपको भ्रष्टाचार के खिलाफ क्रूसेडर के रूप में पेश कर सके.इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस वाले पाकसाफ़ है . उनके भ्रष्टाचार तो बीजेपी वालों से भी ज्यादा हैं . और भ्रष्टाचार के खिलाफ मौजूदा अभियान और उसको मिल रही सफलता कांग्रेस की कृपा का नतीजा नहीं है . सही बात यह है कि यह सारी सफलता मीडिया की वजह से मिल रही है .एक खबर आती है और पूरी दुनिया से लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं . अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने इसलिए कांग्रेस सरकार को काम करना पड़ता है . इसलिए मौजूदा लड़ाई में राजनीतिक पार्टियां बिलकुल हाशिये पर हैं और जनता की लड़ाई में मीडिया क्षण क्षण का भागीदार है . इस बात में भी दो राय नहीं है कि मीडिया में बहुत सारे अपराधी हैं . राडिया टेप्स वाले पत्रकारों को कौन नहीं जानता .सच्ची बात यह है कि प्रिंट और टेलिविज़न के बड़े बड़े सूरमा पत्रकार भी भ्रष्ट आचरण के गुनाहगार हैं . लेकिन जो वेब मीडिया है वह सही काम कर रहा है . देखा यह जा रहा है कि टी वी और अखबार वाले भी वेब मीडिया के दबाव में आकर ही मुद्दों को उठा रहे हैं .नतीजा यह है कि भ्रष्टाचार से ऊब चुकी जनता को अपनी बात कहने के अवसर मिल रहे हैं और भ्रष्ट लोगों की मुसीबत आई हुई है .ज़ाहिर है आने वाला वक़्त देश के आम आदमी के लिए खुश नुमा हो सकता है क्योंकि अगर सार्वजनिक सुविधाओं के लिए निर्धारित पैसा घूस खोरों से बच गया तो वह देश के की काम आयेगा
Tuesday, April 26, 2011
Sunday, April 24, 2011
अन्ना हजारे के आन्दोलन को उत्तर प्रदेश की पिच पर तौल रहे हैं कांग्रेस और बीजेपी वाले
शेष नारायण सिंह
अन्ना हजारे के आन्दोलन ने अलग अलग राजनीतिक खेमों में अलग अलग असर डाला है . जहां तक कांग्रेस का सवाल है उसने पक्के तौर पर इस आन्दोलन को बीजेपी की गोद से छीनकर अपनी अध्यक्ष सोनिया गाँधी की छवि को दुरुस्त करने की कोशिश में शुरुआती सफलता हासिल कर ली है . जब अन्ना हजारे ने सरकारी दखल वाली ड्राफ्टिंग कमेटी में आपने बन्दों के साथ शामिल होने का फैसला किया तो बीजेपी के हाथ बड़ी निराशा लगी. नागपुर जिले के बीजेपी नेता और मौजूदा अध्यक्ष नितिन गडकरी खासे नाराज़ हुए और उन्होंने इस आन्दोलन में सबसे अहम भूमिका निभा रहे बाबा रामदेव से आपनी नाराज़गी भी ज़ाहिर कर दी. दिल्ली में मौजूद उनके प्रवक्ताओं ने उसी राग में अपनी बात कहनी शुरू कर दी .शायद इसलिए कि दिल्ली में सक्रिय ज़्यादातर बीजेपी नेताओं का राजनीतिक ज्ञान अखबारों को पढ़कर ही आता है . इस बीच कांग्रेस ने अपनी सर्वोच्च नेता सोनिया गाँधी को भ्रष्टाचार के खिलाफ सक्रिय महान नेता साबित करने के चक्कर में अन्ना हजारे के साथियों के खिलाफ उल जलूल बयान देना शुरू कर दिया .दिग्विजय सिंह ने शान्ति भूषण ,प्रशांत भूषण और संतोष हेगड़े को निशाने पर लिया . एक फर्जी सी डी को बाज़ार में डालकर अन्ना के साथियों को भ्रष्ट साबित करने की मुहिम को तेज़ कर दिया गया .ज़ाहिर है कि देश में कांग्रेस की इस दोहरी चाल के खिलाफ माहौल बनने लगा . वेब मीडिया की कृपा से सबको मालूम पड़ गया कि कांग्रेस का खेल क्या है . बीजेपी को इस आन्दोलन की समर्थक बता कर कांग्रेस की तरफ से किया गया हमला अब बेअसर हो चुका है .उधर बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह के पटना से आये बयान ने नए राजनीतिक समीकरणों का संकेत दे दिया है .उनके बयान से लगता है कि अब बीजेपी अन्ना के आन्दोलन का जितना भी इस्तेमाल कांग्रेस को बेनकाब करने के लिए कर पायेगी ,करेगी. उन्होंने कहा है कि कांग्रेस की कोशिश है कि जन लोक पाल बिल को बेमतलब कर दिया जाए . लोकपाल बिल की मसौदा समिति के सदस्यों के खिलाफ शुरू हुए कांग्रेस के अभियान को वे इस सांचे में फिट करके अन्ना के अभियान से ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक लाभ लेने की बात करते नज़र आते हैं . हालांकि उन्होंने किसी को भी क्लीन चिट देने से इनकार किया लेकिन बिल का मसौदा तैयार होने के पहले ही उसमें तरह तरह के पेंच फंसाने के कांग्रेस के अभियान को आड़े हाथों लिया . राजनाथ सिंह का बयान कोई निजी बयान नहीं है .यह इस बात का संकेत है कि बीजेपी में अन्ना के आन्दोलन को लेकर जो दुविधा बनी हुई थी , वह अब दूर हो रही है . लगता है कि दिल्ली में बसने वाले बीजेपी के जड़ विहीन नेताओं की ज़द से अब रणनीति बाहर आ चुकी है और अब उसमें ज़मीनी राजनीति के दिग्गज भी शामिल किये जा रहे हैं . राजनाथ सिंह की पहचान देश के उन बीजेपी नेताओं के रूप में होती है जिन्होंने ज़मीनी राजनीति के बल पर मौजूदा ऊंचाइयां तय की हैं . भागते भूत की लंगोटी पर क़ब्ज़ा करने की उनकी रणनीति से बीजेपी को शायद बहुत वोटों का फायदा न हो लेकिन बीजेपी वालों को एक मौक़ा और मिल गया है जब वे कांग्रेस को भ्रष्टाचार की पोषक पार्टी के रूप में पेश कर सकते हैं . राजनीति की ज़बान में कहा जाए तो यह अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.
बीजेपी की बदली हुई सोच का अंदाज़ कांगेस को भी लग चुका है .शायद इसीलिये हर मंच से अब कांग्रेसी नेता संतोष हेगड़े की तारीफ़ कर रहे हैं . यहाँ तक कि दिग्विजय सिंह भी पिछले एकाध दिन से बदले बदले नज़र आ रहे हैं . उन्होंने भी संतोष हेगड़े की तारीफ़ की और आजकल शान्ति भूषण और उनके बेटे के खिलाफ बयान नहीं दे रहे हैं . अमर सिंह भी थोडा ढीले पड़े हैं . हालांकि 'भूषण गरियाओ अभियान' के दौरान तो वे दिग्विजय सिंह के भाई ही बन गए थे .दोनों भाइयों ने फर्रुखाबाद जाकर एक ही मंच से भाषण दिया और एक माला साथ साथ पहनी . लेकिन लगता है कि दिग्विजय सिंह ने इतनी बार अन्ना के आन्दोलन के खिलाफ बयान दे दिया है कि वे कांग्रेस की विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लगा चुके हैं . ऐसे माहौल में राजनाथ सिंह का बयान दिग्विजय सिंह को बहुत नुकसान पंहुचाएगा. इस खेल के अंदर का खेल समझने की कोशिश की जाए तो तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी सामने आता है. आजकल उत्तर प्रदेश में मायावाती से नाराज़ ठाकुरों को अपनी तरफ करने का अभियान चल रहा है . कांग्रेस की कोशिश है कि अगर ठाकुर जाति के लोग एक वोट बैंक के रूप में उसके साथ जुड़ जाएँ तो मुसलमानों को समझाया जा सकता है कि ठाकुर उनके साथ हैं और अगर मुसलमान भी साथ आ जाएँ तो बीजेपी को कमज़ोर किया जा सकता है .उत्तर प्रदेश में दिग्विजय सिंह का यह एक प्रमुख एजेंडा है . लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि उत्तर प्रदेश के आम ठाकुरों की बात तो जाने दीजिये ,वहां के कांग्रेसी राजपूत भी उनको अपना नेता नहीं मानते . वे अपने आपको दिग्विजय सिंह से बड़ा नेता मानते हैं . बीजेपी की भी यही कोशिश है . अगर राजपूत थोक में उसके पास आ गए तो मुसलमान कांग्रेस का चक्कर छोड़कर सीधे बी एस पी में जाएगा. ऐसी हालत में बीजेपी को उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बी एस पी के खिलाफ खडी सबसे मज़बूत पार्टी के रूप में अपने आपको पेश करने का मौक़ा लगेगा.यानी बीजेपी की भी मजबूरी है कि वह अब राजनाथ सिंह को ज्यादा गंभीरता से ले क्योंकि उत्तर प्रदेश में जो भी मज़बूत होगा ,दिल्ली में उसकी सत्ता स्थापित होने की संभावना बहुत बढ़ जायेगी.
अन्ना हजारे के आन्दोलन ने अलग अलग राजनीतिक खेमों में अलग अलग असर डाला है . जहां तक कांग्रेस का सवाल है उसने पक्के तौर पर इस आन्दोलन को बीजेपी की गोद से छीनकर अपनी अध्यक्ष सोनिया गाँधी की छवि को दुरुस्त करने की कोशिश में शुरुआती सफलता हासिल कर ली है . जब अन्ना हजारे ने सरकारी दखल वाली ड्राफ्टिंग कमेटी में आपने बन्दों के साथ शामिल होने का फैसला किया तो बीजेपी के हाथ बड़ी निराशा लगी. नागपुर जिले के बीजेपी नेता और मौजूदा अध्यक्ष नितिन गडकरी खासे नाराज़ हुए और उन्होंने इस आन्दोलन में सबसे अहम भूमिका निभा रहे बाबा रामदेव से आपनी नाराज़गी भी ज़ाहिर कर दी. दिल्ली में मौजूद उनके प्रवक्ताओं ने उसी राग में अपनी बात कहनी शुरू कर दी .शायद इसलिए कि दिल्ली में सक्रिय ज़्यादातर बीजेपी नेताओं का राजनीतिक ज्ञान अखबारों को पढ़कर ही आता है . इस बीच कांग्रेस ने अपनी सर्वोच्च नेता सोनिया गाँधी को भ्रष्टाचार के खिलाफ सक्रिय महान नेता साबित करने के चक्कर में अन्ना हजारे के साथियों के खिलाफ उल जलूल बयान देना शुरू कर दिया .दिग्विजय सिंह ने शान्ति भूषण ,प्रशांत भूषण और संतोष हेगड़े को निशाने पर लिया . एक फर्जी सी डी को बाज़ार में डालकर अन्ना के साथियों को भ्रष्ट साबित करने की मुहिम को तेज़ कर दिया गया .ज़ाहिर है कि देश में कांग्रेस की इस दोहरी चाल के खिलाफ माहौल बनने लगा . वेब मीडिया की कृपा से सबको मालूम पड़ गया कि कांग्रेस का खेल क्या है . बीजेपी को इस आन्दोलन की समर्थक बता कर कांग्रेस की तरफ से किया गया हमला अब बेअसर हो चुका है .उधर बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह के पटना से आये बयान ने नए राजनीतिक समीकरणों का संकेत दे दिया है .उनके बयान से लगता है कि अब बीजेपी अन्ना के आन्दोलन का जितना भी इस्तेमाल कांग्रेस को बेनकाब करने के लिए कर पायेगी ,करेगी. उन्होंने कहा है कि कांग्रेस की कोशिश है कि जन लोक पाल बिल को बेमतलब कर दिया जाए . लोकपाल बिल की मसौदा समिति के सदस्यों के खिलाफ शुरू हुए कांग्रेस के अभियान को वे इस सांचे में फिट करके अन्ना के अभियान से ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक लाभ लेने की बात करते नज़र आते हैं . हालांकि उन्होंने किसी को भी क्लीन चिट देने से इनकार किया लेकिन बिल का मसौदा तैयार होने के पहले ही उसमें तरह तरह के पेंच फंसाने के कांग्रेस के अभियान को आड़े हाथों लिया . राजनाथ सिंह का बयान कोई निजी बयान नहीं है .यह इस बात का संकेत है कि बीजेपी में अन्ना के आन्दोलन को लेकर जो दुविधा बनी हुई थी , वह अब दूर हो रही है . लगता है कि दिल्ली में बसने वाले बीजेपी के जड़ विहीन नेताओं की ज़द से अब रणनीति बाहर आ चुकी है और अब उसमें ज़मीनी राजनीति के दिग्गज भी शामिल किये जा रहे हैं . राजनाथ सिंह की पहचान देश के उन बीजेपी नेताओं के रूप में होती है जिन्होंने ज़मीनी राजनीति के बल पर मौजूदा ऊंचाइयां तय की हैं . भागते भूत की लंगोटी पर क़ब्ज़ा करने की उनकी रणनीति से बीजेपी को शायद बहुत वोटों का फायदा न हो लेकिन बीजेपी वालों को एक मौक़ा और मिल गया है जब वे कांग्रेस को भ्रष्टाचार की पोषक पार्टी के रूप में पेश कर सकते हैं . राजनीति की ज़बान में कहा जाए तो यह अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.
बीजेपी की बदली हुई सोच का अंदाज़ कांगेस को भी लग चुका है .शायद इसीलिये हर मंच से अब कांग्रेसी नेता संतोष हेगड़े की तारीफ़ कर रहे हैं . यहाँ तक कि दिग्विजय सिंह भी पिछले एकाध दिन से बदले बदले नज़र आ रहे हैं . उन्होंने भी संतोष हेगड़े की तारीफ़ की और आजकल शान्ति भूषण और उनके बेटे के खिलाफ बयान नहीं दे रहे हैं . अमर सिंह भी थोडा ढीले पड़े हैं . हालांकि 'भूषण गरियाओ अभियान' के दौरान तो वे दिग्विजय सिंह के भाई ही बन गए थे .दोनों भाइयों ने फर्रुखाबाद जाकर एक ही मंच से भाषण दिया और एक माला साथ साथ पहनी . लेकिन लगता है कि दिग्विजय सिंह ने इतनी बार अन्ना के आन्दोलन के खिलाफ बयान दे दिया है कि वे कांग्रेस की विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लगा चुके हैं . ऐसे माहौल में राजनाथ सिंह का बयान दिग्विजय सिंह को बहुत नुकसान पंहुचाएगा. इस खेल के अंदर का खेल समझने की कोशिश की जाए तो तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी सामने आता है. आजकल उत्तर प्रदेश में मायावाती से नाराज़ ठाकुरों को अपनी तरफ करने का अभियान चल रहा है . कांग्रेस की कोशिश है कि अगर ठाकुर जाति के लोग एक वोट बैंक के रूप में उसके साथ जुड़ जाएँ तो मुसलमानों को समझाया जा सकता है कि ठाकुर उनके साथ हैं और अगर मुसलमान भी साथ आ जाएँ तो बीजेपी को कमज़ोर किया जा सकता है .उत्तर प्रदेश में दिग्विजय सिंह का यह एक प्रमुख एजेंडा है . लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि उत्तर प्रदेश के आम ठाकुरों की बात तो जाने दीजिये ,वहां के कांग्रेसी राजपूत भी उनको अपना नेता नहीं मानते . वे अपने आपको दिग्विजय सिंह से बड़ा नेता मानते हैं . बीजेपी की भी यही कोशिश है . अगर राजपूत थोक में उसके पास आ गए तो मुसलमान कांग्रेस का चक्कर छोड़कर सीधे बी एस पी में जाएगा. ऐसी हालत में बीजेपी को उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बी एस पी के खिलाफ खडी सबसे मज़बूत पार्टी के रूप में अपने आपको पेश करने का मौक़ा लगेगा.यानी बीजेपी की भी मजबूरी है कि वह अब राजनाथ सिंह को ज्यादा गंभीरता से ले क्योंकि उत्तर प्रदेश में जो भी मज़बूत होगा ,दिल्ली में उसकी सत्ता स्थापित होने की संभावना बहुत बढ़ जायेगी.
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Saturday, April 23, 2011
अमरीका की पालतू पाकिस्तानी बिल्ली ने गरज कर म्याऊँ कहा
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान की मदद करके अब अमरीका पछता रहा है .अब अमरीकी अधिकारी वे बातें सार्वजनिक रूप से कहने लगे हैं जो आम तौर पर दोनों देशों के बड़े नेता बंद कमरों में कहा करते थे. मसलन अब अमरीकी फौज के मुखिया ऐलानियाँ कह रहे हैं कि पाकिस्तानी सेना और उसकी संस्था आई एस आई आतंकवाद की प्रायोजक है अभी पिछले हफ्ते पाकिस्तानी वित्त सचिव हफीज शेख ने कह दिया कि यह सच नहीं है कि उनका देश अमरीकी मदद से फायदा उठा रहा है . अमरीकी अधिकारियों ने फ़ौरन फटकार लगाई कि वित्त सचिव महोदय गलत बयानी कर रहे हैं . अमरीकी सरकार की तरफ से बताया गया कि पिछले दस वर्षों में अमरीका पाकिस्तान को बीस अरब डालर की मदद कर चुका है . और जब से पाकिस्तान बना है अमरीका उसे करीब पचास अरब डालर का दान दे चुका है . यह भी साफ़ कर दिया गया कि यह शुद्ध रूप से खैरात है , इसके अलावा अमरीका समय समय पर पाकिस्तान को अंतर राष्ट्रीय संस्थाओं से सस्ते रेट पर क़र्ज़ वगैरह भी दिलवाता रहा है .पाकिस्तान को अमरीका ने बहुत बड़े पैमाने पर विकास के लिए भी सहायता की है . पाकिस्तानी सेना तो लगभग पूरी तरह अमरीकी मदद की वजह से चल पा रही है . अमरीका ने आरोप लगाया कि अमरीका से मिली हुई मदद के अस्तित्व को इनकार करके पाकिस्तान अहसान फरामोशी कर रहा है .इस बातचीत के बाद दोनों देशों के बीच के संबंधों में बहुत तल्खी आ गयी है . इस तल्खी को दुरुस्त करने के उद्देश्य से पाकिस्तान के विदेश सचिव , सलमान बशीर गुरुवार को अमरीका पंहुचे . लेकिन बात और बिगड़ गयी. वहां अमरीकी सेना की संयुक्त कमान के मुखिया एडमिरल माइक मुलेन ने बयान दे दिया कि पाकिस्तानी सेना आतंकवाद की प्रायोजक है और उसी ने हक्कानी गिरोह और लश्कर-ए-तय्यबा को हर तरह की मदद की है . यह दोनों ही गिरोह अफगानिस्तान और भारत में तो आतंक फैला ही रहे हैं , यह अफ्गान्स्सितान में अमरीकी और अन्य सहयोगी देशों के लोगों की ह्त्या कर रहे हैं . उनके इस बयान के बाद पाकिस्तानी सेना के मुखिया जनरल अशफाक परवेज़ कयानी भड़क उठे और उन्होंने अमरीका अपर गलत बात करने का आरोप लगा डाला .उन्होंने कहा कि अमरीका पाकिस्तान के बारे में नकारात्मक प्रचार कर रहा है और वे उस प्रचार को व्यक्तिगत रूप से खारिज करते हैं .उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी फौज आतंकवाद के खात्मे के लिए जो कुछ भी कर रही है , वह पाकिस्तानी राष्ट्र के दृढ़ निश्चय का बहुत बड़ा सबूत है .
अब अमरीकी शासकों को साफ़ नज़र आने लगा है कि पाकिस्तानी फौज की संस्था आई एस आई सही मायनों में आतंकवाद की ठेकेदार है . पिछले ३० वर्षों से भारत आई एस आई प्रायोजित आतंकवाद को झेला है . पंजाब और जम्मू-कश्मीर में आई एस आई के आतंक का सामना किया है . लेकिन जब भी अमरीका से कहा गया कि जो भी मदद पाकिस्तान को अमरीका तरफ से मिलती है ,उसका बड़ा हिस्सा भारत के खिलाफ इस्तेमाल होता है तो अमरीका ने उसे हंस कर टाल दिया . अब जब अमरीकी हितों पर हमला हो रहा है तो पाकिस्तान में अमरीका को कमी नज़र आने लगी है .
पाकिस्तान में अमरीका विरोध में भारी जनमत है . जो भी पाकिस्तानी नेता या फौजी अमरीका के खिलाफ बयान देता है ,उसकी अपने देश में इज्ज़त बढ़ जाती है . ज़ाहिर है जनरल कयानी के अमरीका के खिलाफ दिए गए बयान की बहुत तारीफ़ की जा रही है . लेकिन सच्चाई यह है कि अगर अमरीका पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देना बंद कर दे पाकिस्तान में रोटी पानी का संकट भी आ सकता है . अब तक पाकिस्तान को सउदी अरब से खासी मदद मिलती रही है लेकिन अब पश्चिम एशिया में तानाशाही के खिलाफ चल रहे आन्दोलनों के चलते लगभग सभी अरब देश अपनी ही मुसीबतों में घिरे हुए हैं . उनके लिए किसी बाहरी देश की मदद कर पाना अब थोडा मुश्किल होगा. पाकिस्तान का मददगार चीन भी है लेकिन वह उसे नक़द कोई मदद नहीं देता . वह पाकिस्तान में बहुत सारी ढांचागत सुविधाओं की स्थापना कर रहा है ,जिससे आने वाले वक़्त में पाकिस्तानी राष्ट्र को लाभ मिल सकता है .लेकिन पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि मुहम्मद अली जिन्नाह के बाद पाकिस्तान को कोई ऐसा नेता नसीब नहीं हुआ जो दूर की बात सोचे ,पाकिस्तानी अवाम के भविष्य की चिंता करे.वहां पर तो जो भी सत्ता में आता है वह देश के संसाधनों को अपनी जेब में भरने के चक्कर में ही रहता है . कई पाकिस्तानी तानाशाह तो ऐसे भी गुज़रे हैं जो देश की कीमत पर अपनी संपत्ति को बढाते रहे हैं . पाकिस्तानी फौज का भी यही इतिहास रहा है . उसके बड़े अफसर भी अमरीका से हर तरह का लाभ लेते रहे हैं . शीतयुद्ध के दिनों में दक्षिण एशिया में सोवियत रूस का प्रभाव काबू में करने के लिए पाकिस्तानी फौज की खूब मदद की गयी . अफगानिस्तान से रूसी सेना को भगाने में पाकिस्तान की फौज और आई एस आई ने अहम भूमिका निभाई थी . लेकिन सोवियत रूस के तबाह हो जाने के बाद अमरीका ने उस दौर में जिस आतंकवाद को उकसाया था वह उसी के गले पड़ गया . अब उसी आतंकवाद से लड़ने के लिए अमरीका को पाकिस्तानी मदद की ज़रुरत है . जार्ज बुश की मूर्खतापूर्ण कूटनीति के चलते अमरीका पिछले कई वर्षों से अफगानिस्तान में उलझ गया है . कई बार तो ऐसा लगता है कि अमरीका के लिए अफगानिस्तान की लड़ाई , वियतनाम से भी महंगी पड़ सकती है . ऐसी हालत में उसे पाकिस्तान को नाराज़ करना बाहुत भारी पड़ सकता है . यह बात सारी दुनिया के साथ साथ पाकिस्तानी जनरल कयानी को भी पता है और वे उसी की कीमत वसूल रहे हैं और अपनी जनता की वाहवाही लेने के लिए अमरीका के खिलाफ उलटे सीधे बयान भी देते रहते हैं .लेकिन अमरीका के सब्र का बाँध अगर टूट गया तो इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अमरीका पाकिस्तान को भविष्य में आर्थिक सहायता देने से मना कर दे. अगर ऐसा हुआ तो पाकिस्तान को तबाह होने से कोई नहीं बचा सकेगा .
पाकिस्तान की मदद करके अब अमरीका पछता रहा है .अब अमरीकी अधिकारी वे बातें सार्वजनिक रूप से कहने लगे हैं जो आम तौर पर दोनों देशों के बड़े नेता बंद कमरों में कहा करते थे. मसलन अब अमरीकी फौज के मुखिया ऐलानियाँ कह रहे हैं कि पाकिस्तानी सेना और उसकी संस्था आई एस आई आतंकवाद की प्रायोजक है अभी पिछले हफ्ते पाकिस्तानी वित्त सचिव हफीज शेख ने कह दिया कि यह सच नहीं है कि उनका देश अमरीकी मदद से फायदा उठा रहा है . अमरीकी अधिकारियों ने फ़ौरन फटकार लगाई कि वित्त सचिव महोदय गलत बयानी कर रहे हैं . अमरीकी सरकार की तरफ से बताया गया कि पिछले दस वर्षों में अमरीका पाकिस्तान को बीस अरब डालर की मदद कर चुका है . और जब से पाकिस्तान बना है अमरीका उसे करीब पचास अरब डालर का दान दे चुका है . यह भी साफ़ कर दिया गया कि यह शुद्ध रूप से खैरात है , इसके अलावा अमरीका समय समय पर पाकिस्तान को अंतर राष्ट्रीय संस्थाओं से सस्ते रेट पर क़र्ज़ वगैरह भी दिलवाता रहा है .पाकिस्तान को अमरीका ने बहुत बड़े पैमाने पर विकास के लिए भी सहायता की है . पाकिस्तानी सेना तो लगभग पूरी तरह अमरीकी मदद की वजह से चल पा रही है . अमरीका ने आरोप लगाया कि अमरीका से मिली हुई मदद के अस्तित्व को इनकार करके पाकिस्तान अहसान फरामोशी कर रहा है .इस बातचीत के बाद दोनों देशों के बीच के संबंधों में बहुत तल्खी आ गयी है . इस तल्खी को दुरुस्त करने के उद्देश्य से पाकिस्तान के विदेश सचिव , सलमान बशीर गुरुवार को अमरीका पंहुचे . लेकिन बात और बिगड़ गयी. वहां अमरीकी सेना की संयुक्त कमान के मुखिया एडमिरल माइक मुलेन ने बयान दे दिया कि पाकिस्तानी सेना आतंकवाद की प्रायोजक है और उसी ने हक्कानी गिरोह और लश्कर-ए-तय्यबा को हर तरह की मदद की है . यह दोनों ही गिरोह अफगानिस्तान और भारत में तो आतंक फैला ही रहे हैं , यह अफ्गान्स्सितान में अमरीकी और अन्य सहयोगी देशों के लोगों की ह्त्या कर रहे हैं . उनके इस बयान के बाद पाकिस्तानी सेना के मुखिया जनरल अशफाक परवेज़ कयानी भड़क उठे और उन्होंने अमरीका अपर गलत बात करने का आरोप लगा डाला .उन्होंने कहा कि अमरीका पाकिस्तान के बारे में नकारात्मक प्रचार कर रहा है और वे उस प्रचार को व्यक्तिगत रूप से खारिज करते हैं .उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी फौज आतंकवाद के खात्मे के लिए जो कुछ भी कर रही है , वह पाकिस्तानी राष्ट्र के दृढ़ निश्चय का बहुत बड़ा सबूत है .
अब अमरीकी शासकों को साफ़ नज़र आने लगा है कि पाकिस्तानी फौज की संस्था आई एस आई सही मायनों में आतंकवाद की ठेकेदार है . पिछले ३० वर्षों से भारत आई एस आई प्रायोजित आतंकवाद को झेला है . पंजाब और जम्मू-कश्मीर में आई एस आई के आतंक का सामना किया है . लेकिन जब भी अमरीका से कहा गया कि जो भी मदद पाकिस्तान को अमरीका तरफ से मिलती है ,उसका बड़ा हिस्सा भारत के खिलाफ इस्तेमाल होता है तो अमरीका ने उसे हंस कर टाल दिया . अब जब अमरीकी हितों पर हमला हो रहा है तो पाकिस्तान में अमरीका को कमी नज़र आने लगी है .
पाकिस्तान में अमरीका विरोध में भारी जनमत है . जो भी पाकिस्तानी नेता या फौजी अमरीका के खिलाफ बयान देता है ,उसकी अपने देश में इज्ज़त बढ़ जाती है . ज़ाहिर है जनरल कयानी के अमरीका के खिलाफ दिए गए बयान की बहुत तारीफ़ की जा रही है . लेकिन सच्चाई यह है कि अगर अमरीका पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देना बंद कर दे पाकिस्तान में रोटी पानी का संकट भी आ सकता है . अब तक पाकिस्तान को सउदी अरब से खासी मदद मिलती रही है लेकिन अब पश्चिम एशिया में तानाशाही के खिलाफ चल रहे आन्दोलनों के चलते लगभग सभी अरब देश अपनी ही मुसीबतों में घिरे हुए हैं . उनके लिए किसी बाहरी देश की मदद कर पाना अब थोडा मुश्किल होगा. पाकिस्तान का मददगार चीन भी है लेकिन वह उसे नक़द कोई मदद नहीं देता . वह पाकिस्तान में बहुत सारी ढांचागत सुविधाओं की स्थापना कर रहा है ,जिससे आने वाले वक़्त में पाकिस्तानी राष्ट्र को लाभ मिल सकता है .लेकिन पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि मुहम्मद अली जिन्नाह के बाद पाकिस्तान को कोई ऐसा नेता नसीब नहीं हुआ जो दूर की बात सोचे ,पाकिस्तानी अवाम के भविष्य की चिंता करे.वहां पर तो जो भी सत्ता में आता है वह देश के संसाधनों को अपनी जेब में भरने के चक्कर में ही रहता है . कई पाकिस्तानी तानाशाह तो ऐसे भी गुज़रे हैं जो देश की कीमत पर अपनी संपत्ति को बढाते रहे हैं . पाकिस्तानी फौज का भी यही इतिहास रहा है . उसके बड़े अफसर भी अमरीका से हर तरह का लाभ लेते रहे हैं . शीतयुद्ध के दिनों में दक्षिण एशिया में सोवियत रूस का प्रभाव काबू में करने के लिए पाकिस्तानी फौज की खूब मदद की गयी . अफगानिस्तान से रूसी सेना को भगाने में पाकिस्तान की फौज और आई एस आई ने अहम भूमिका निभाई थी . लेकिन सोवियत रूस के तबाह हो जाने के बाद अमरीका ने उस दौर में जिस आतंकवाद को उकसाया था वह उसी के गले पड़ गया . अब उसी आतंकवाद से लड़ने के लिए अमरीका को पाकिस्तानी मदद की ज़रुरत है . जार्ज बुश की मूर्खतापूर्ण कूटनीति के चलते अमरीका पिछले कई वर्षों से अफगानिस्तान में उलझ गया है . कई बार तो ऐसा लगता है कि अमरीका के लिए अफगानिस्तान की लड़ाई , वियतनाम से भी महंगी पड़ सकती है . ऐसी हालत में उसे पाकिस्तान को नाराज़ करना बाहुत भारी पड़ सकता है . यह बात सारी दुनिया के साथ साथ पाकिस्तानी जनरल कयानी को भी पता है और वे उसी की कीमत वसूल रहे हैं और अपनी जनता की वाहवाही लेने के लिए अमरीका के खिलाफ उलटे सीधे बयान भी देते रहते हैं .लेकिन अमरीका के सब्र का बाँध अगर टूट गया तो इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अमरीका पाकिस्तान को भविष्य में आर्थिक सहायता देने से मना कर दे. अगर ऐसा हुआ तो पाकिस्तान को तबाह होने से कोई नहीं बचा सकेगा .
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शेष नारायण सिंह
Thursday, April 21, 2011
भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ा लठैत कौन ?
शेष नारायण सिंह
इस बात में दो राय नहीं है कि अन्ना हजारे सर्वोच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से बहुत चिंतित हैं . उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में बिताया है . फौज की नौकरी ख़त्म करने के बाद उन्होंने सही गांधीवादी तरीके से अभियान चलाया और अपने गाँव को बाकी गावों से बेहतर बनाया . उनके गाँव में कुछ ऐसे परिवार भी हैं जो ऊब कर बड़े शहरों में चले गए थे लेकिन फिर वापस आ गए हैं. अन्ना को उनके समाज में बहुत ही सम्मान से देखा जाता है . ज़ाहिर है धीरे धीरे ईमानदारी से काम करते हुए वे आज देश में एक आन्दोलन खड़ा करने में सफल रहे हैं .डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने उन्हें सुझाव दिया था जब राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन चलायें तो कुछ साफ़ छवि वाले राजनेताओं को भी साथ लें लें क्योंकि अंत में तय सब कुछ राजनीति के मैदान में ही होता है और वहां एक से एक घाघ बैठे हैं .उनको संभाल पाना अन्ना हजारे जैसे सीधे आदमी के लिए बहुत मुश्किल होगा. डॉ स्वामी की बात बिलकुल सच निकली. सत्ता पक्ष और विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टियों ने अन्ना हजारे के अभियान को अपना बनाने की कोशिश की . शुरुआती सफलता तो मुख्य विपक्षी पार्टी को मिली लेकिन जब मामला राजनीतिक लाभ लेने का आया तो कांग्रेस की अध्यक्ष ने हस्तक्षेप किया और अन्ना हजारे को विपक्ष के खेल से बाहर करके अपने साथ ले लिया . मुख्य विपक्षी पार्टी को निराशा हुई और उन्होंने अन्ना हजारे के खिलाफ तरह तरह की बातें करना शुरू कर दिया . अब पता चला है कि अपने ख़ास बन्दे बाबा रामदेव का इस्तेमाल करके एक नया अभियान शुरू करने की योजना बन रही है . बाबा का बयान आया है कि अब इंडिया अगेंस्ट करप्शन नाम के संगठन के बैनर तले एक नया आन्दोलन चलाया जाएगा. यानी अन्ना हजारे का अपनी राजनीति में इस्तेमाल करने में नाकाम रहने के बाद मुख्य विपक्षी पार्टी के लोग हताश नहीं हैं . वे कांग्रेस को भ्रष्टाचार का समानार्थक शब्द बनाने की अपनी मुहिम को अन्ना हजारे के बिना भी चलाने की कोशिश करेगें . लेकिन लगता है कि कांग्रेस ने भी अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ हीरो न बनने देने का फैसला कर लिया है .कांग्रेस का लगभग हर महत्वपूर्ण नेता , अन्ना हजारे पर छींटाकशी कर चुका है . जब अन्ना हजारे ने इस पर एतराज़ किया तो कांग्रेसियों ने कहना शुरू कर दिया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम नहीं लगाई जा सकती.यह भी कहा गया कि जब तक हर पक्ष के बारे में सारी बातें सामने न आ जाएँ तब तक सही बहस नहीं हो सकेगी .अन्ना की टीम के दो महत्वपूर्ण सदस्यों के बारे में कांग्रेस के संकटमोचक अमर सिंह भी सक्रिय हो गए.उन्होंने ऐसा अभियान चलाया कि शान्ति भूषण और प्रशांत भूषण की ईमानदारी की छवि ही सवालों के घेरे में आ गयी .अब अन्ना के आन्दोलन को कांग्रेसी लोग बिलकुल बेचारा बना देने की कोशिश में पूरी ताक़त से जुट गए हैं . बात बहुत अजीब लगती थी लेकिन सोनिया गाँधी ने जब अन्ना हजारे की शिकायती चिट्ठी का जवाब भेजा तो बात समझ में आ गयी . सच्चाई यह है कि सोनिया गाँधी अपने आपको सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बहुत बड़ी अलंबरदार मानती हैं और जब अन्ना हजारे ने उनके उस रोल को कमज़ोर करने की कोशिश की तो सोनिया गाँधी को अच्छा नहीं लगा .उन्होंने अन्ना की चिट्ठी का जो जवाब दिया है उस से उनका यह दर्द साफ़ नज़र आता है . उन्होंने अन्ना को भरोसा दिलाया है कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता लाने के लिए उनकी प्रतिबद्धता पर अन्ना को विश्वास करना चाहिए .यानी जब मैं भ्रष्टाचार के खिलाफ खुद काम कर रही हूँ तो आप क्यों बीच में कूद पड़े . ज़ाहिर है सोनिया गाँधी ने अन्ना के आन्दोलन से हो रहे नुकसान को तो काबू में कर लिया लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आन्दोलन की नेता वे खुद ही बनी रहना चाहती हैं . सूचना का अधिकार कानून बनवाकर और अपनी सरकारों के कई मंत्रियों के भ्रष्टाचार उजागर होने के बाद उनको दंडित करके उन्होंने अपनी यह छवि निखारने की पूरी कोशिश की है. अन्ना हजारे को लिखा गया उनका जवाब भी इसी कोशिश की एक कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए . उस चिट्ठी में उन्होंने लगभग कह दिया है कि सर्वोच्च स्तर के भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रस्तावित लोकपाल बिल पर वे पूरी तल्लीनता से काम कर रही थीं लेकिन अन्ना के अनिश्चित कालीन अनशन से सब गड़बड़ कर दिया . सोनिया गाँधी लिखती हैं कि उनकी अध्यक्षता वाली नेशनल एडवाइज़री काउन्सिल अन्ना हजारे के साथ लोकपाल बिल के ड्राफ्ट पर सलाह मशविरा कर रही थी लेकिन इस बीच अन्ना के समर्थकों ने अनशन शुरू करवा दिया जिस से कि माहौल बदल गया और बात बिगड़ गयी . उसी चिट्ठी में सोनिया गाँधी ने लिखा है कि अरुणा राय की अध्यक्षता में बनायी गयी एन ए सी की एक उप समिति इस मामले पर गौर कर रही थी और उसने सिविल सोसाइटी के बहुत सारे प्रतिनिधियों से बातचीत की थी . जिन लोगों से बात चीत हुई थी उसमें अन्ना हजारे के बहुत करीबी लोगों , शांति भूषण , संतोष हेगड़े , प्रशांत भूषण , स्वामी अग्निवेश और अरविन्द केजरीवाल शामिल हैं . यानी सोनिया गाँधी यह कहना चाहती हैं कि आप और हम तो एक ही रास्ते पर चल रहे थे लेकिन बीच में कुछ लोगों ने कूद कर सब गड़बड़ कर दिया . सोनिया गाँधी ने साफ़ कहा कि कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन में उनकी पार्टी ने लोकपाल बिल को पास करने का फैसला कर लिया था और एन ए सी की कार्यसूची में भी था और २८ अप्रैल की बैठक में अहम फैसले लिए जाने थे लेकिन आपके अनशन ने सब गड़बड़ कर दिया .
ज़ाहिर है सोनिया गाँधी नाराज़ हैं . उन्हें यह बात नागवार गुज़री है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ी नेता बनने की उनकी कोशिश को किसी ने ब्रेक लगाने की कोशिश की . शायद इसीलिये उनकी पार्टी के लोग अन्ना हजारे या उनके बाकी साथियों को घेरने में जुट गए हैं . हालांकि यह भी सच है कि अगर अन्ना हजारे ने देशव्यापी हस्तक्षेप न किया होता तो कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन वाला लोकपाल बिल सब्जी का टोकरा ही साबित होता . जो भी हो उम्मीद की जानी चाहिए निहित स्वार्थों के चौतरफा हमलों से बचकर एक मज़बूत लोकपाल बिल बनाया जाएगा . उसमें अगर शान्ति भूषण ,प्रशांत भूषण या किसी और की पोल खुलती है तो खुले, जनता को इस से कोई मतलाब नहीं है .लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कारगर कानून की जितनी आज ज़रूरत है उतनी कभी नहीं थी.
इस बात में दो राय नहीं है कि अन्ना हजारे सर्वोच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से बहुत चिंतित हैं . उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में बिताया है . फौज की नौकरी ख़त्म करने के बाद उन्होंने सही गांधीवादी तरीके से अभियान चलाया और अपने गाँव को बाकी गावों से बेहतर बनाया . उनके गाँव में कुछ ऐसे परिवार भी हैं जो ऊब कर बड़े शहरों में चले गए थे लेकिन फिर वापस आ गए हैं. अन्ना को उनके समाज में बहुत ही सम्मान से देखा जाता है . ज़ाहिर है धीरे धीरे ईमानदारी से काम करते हुए वे आज देश में एक आन्दोलन खड़ा करने में सफल रहे हैं .डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने उन्हें सुझाव दिया था जब राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन चलायें तो कुछ साफ़ छवि वाले राजनेताओं को भी साथ लें लें क्योंकि अंत में तय सब कुछ राजनीति के मैदान में ही होता है और वहां एक से एक घाघ बैठे हैं .उनको संभाल पाना अन्ना हजारे जैसे सीधे आदमी के लिए बहुत मुश्किल होगा. डॉ स्वामी की बात बिलकुल सच निकली. सत्ता पक्ष और विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टियों ने अन्ना हजारे के अभियान को अपना बनाने की कोशिश की . शुरुआती सफलता तो मुख्य विपक्षी पार्टी को मिली लेकिन जब मामला राजनीतिक लाभ लेने का आया तो कांग्रेस की अध्यक्ष ने हस्तक्षेप किया और अन्ना हजारे को विपक्ष के खेल से बाहर करके अपने साथ ले लिया . मुख्य विपक्षी पार्टी को निराशा हुई और उन्होंने अन्ना हजारे के खिलाफ तरह तरह की बातें करना शुरू कर दिया . अब पता चला है कि अपने ख़ास बन्दे बाबा रामदेव का इस्तेमाल करके एक नया अभियान शुरू करने की योजना बन रही है . बाबा का बयान आया है कि अब इंडिया अगेंस्ट करप्शन नाम के संगठन के बैनर तले एक नया आन्दोलन चलाया जाएगा. यानी अन्ना हजारे का अपनी राजनीति में इस्तेमाल करने में नाकाम रहने के बाद मुख्य विपक्षी पार्टी के लोग हताश नहीं हैं . वे कांग्रेस को भ्रष्टाचार का समानार्थक शब्द बनाने की अपनी मुहिम को अन्ना हजारे के बिना भी चलाने की कोशिश करेगें . लेकिन लगता है कि कांग्रेस ने भी अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ हीरो न बनने देने का फैसला कर लिया है .कांग्रेस का लगभग हर महत्वपूर्ण नेता , अन्ना हजारे पर छींटाकशी कर चुका है . जब अन्ना हजारे ने इस पर एतराज़ किया तो कांग्रेसियों ने कहना शुरू कर दिया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम नहीं लगाई जा सकती.यह भी कहा गया कि जब तक हर पक्ष के बारे में सारी बातें सामने न आ जाएँ तब तक सही बहस नहीं हो सकेगी .अन्ना की टीम के दो महत्वपूर्ण सदस्यों के बारे में कांग्रेस के संकटमोचक अमर सिंह भी सक्रिय हो गए.उन्होंने ऐसा अभियान चलाया कि शान्ति भूषण और प्रशांत भूषण की ईमानदारी की छवि ही सवालों के घेरे में आ गयी .अब अन्ना के आन्दोलन को कांग्रेसी लोग बिलकुल बेचारा बना देने की कोशिश में पूरी ताक़त से जुट गए हैं . बात बहुत अजीब लगती थी लेकिन सोनिया गाँधी ने जब अन्ना हजारे की शिकायती चिट्ठी का जवाब भेजा तो बात समझ में आ गयी . सच्चाई यह है कि सोनिया गाँधी अपने आपको सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बहुत बड़ी अलंबरदार मानती हैं और जब अन्ना हजारे ने उनके उस रोल को कमज़ोर करने की कोशिश की तो सोनिया गाँधी को अच्छा नहीं लगा .उन्होंने अन्ना की चिट्ठी का जो जवाब दिया है उस से उनका यह दर्द साफ़ नज़र आता है . उन्होंने अन्ना को भरोसा दिलाया है कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता लाने के लिए उनकी प्रतिबद्धता पर अन्ना को विश्वास करना चाहिए .यानी जब मैं भ्रष्टाचार के खिलाफ खुद काम कर रही हूँ तो आप क्यों बीच में कूद पड़े . ज़ाहिर है सोनिया गाँधी ने अन्ना के आन्दोलन से हो रहे नुकसान को तो काबू में कर लिया लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आन्दोलन की नेता वे खुद ही बनी रहना चाहती हैं . सूचना का अधिकार कानून बनवाकर और अपनी सरकारों के कई मंत्रियों के भ्रष्टाचार उजागर होने के बाद उनको दंडित करके उन्होंने अपनी यह छवि निखारने की पूरी कोशिश की है. अन्ना हजारे को लिखा गया उनका जवाब भी इसी कोशिश की एक कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए . उस चिट्ठी में उन्होंने लगभग कह दिया है कि सर्वोच्च स्तर के भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रस्तावित लोकपाल बिल पर वे पूरी तल्लीनता से काम कर रही थीं लेकिन अन्ना के अनिश्चित कालीन अनशन से सब गड़बड़ कर दिया . सोनिया गाँधी लिखती हैं कि उनकी अध्यक्षता वाली नेशनल एडवाइज़री काउन्सिल अन्ना हजारे के साथ लोकपाल बिल के ड्राफ्ट पर सलाह मशविरा कर रही थी लेकिन इस बीच अन्ना के समर्थकों ने अनशन शुरू करवा दिया जिस से कि माहौल बदल गया और बात बिगड़ गयी . उसी चिट्ठी में सोनिया गाँधी ने लिखा है कि अरुणा राय की अध्यक्षता में बनायी गयी एन ए सी की एक उप समिति इस मामले पर गौर कर रही थी और उसने सिविल सोसाइटी के बहुत सारे प्रतिनिधियों से बातचीत की थी . जिन लोगों से बात चीत हुई थी उसमें अन्ना हजारे के बहुत करीबी लोगों , शांति भूषण , संतोष हेगड़े , प्रशांत भूषण , स्वामी अग्निवेश और अरविन्द केजरीवाल शामिल हैं . यानी सोनिया गाँधी यह कहना चाहती हैं कि आप और हम तो एक ही रास्ते पर चल रहे थे लेकिन बीच में कुछ लोगों ने कूद कर सब गड़बड़ कर दिया . सोनिया गाँधी ने साफ़ कहा कि कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन में उनकी पार्टी ने लोकपाल बिल को पास करने का फैसला कर लिया था और एन ए सी की कार्यसूची में भी था और २८ अप्रैल की बैठक में अहम फैसले लिए जाने थे लेकिन आपके अनशन ने सब गड़बड़ कर दिया .
ज़ाहिर है सोनिया गाँधी नाराज़ हैं . उन्हें यह बात नागवार गुज़री है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ी नेता बनने की उनकी कोशिश को किसी ने ब्रेक लगाने की कोशिश की . शायद इसीलिये उनकी पार्टी के लोग अन्ना हजारे या उनके बाकी साथियों को घेरने में जुट गए हैं . हालांकि यह भी सच है कि अगर अन्ना हजारे ने देशव्यापी हस्तक्षेप न किया होता तो कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन वाला लोकपाल बिल सब्जी का टोकरा ही साबित होता . जो भी हो उम्मीद की जानी चाहिए निहित स्वार्थों के चौतरफा हमलों से बचकर एक मज़बूत लोकपाल बिल बनाया जाएगा . उसमें अगर शान्ति भूषण ,प्रशांत भूषण या किसी और की पोल खुलती है तो खुले, जनता को इस से कोई मतलाब नहीं है .लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कारगर कानून की जितनी आज ज़रूरत है उतनी कभी नहीं थी.
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Wednesday, April 20, 2011
भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम का पहला राउंड सोनिया गाँधी ने जीता
शेष नारायण सिंह
अन्ना हजारे के अनिश्चितकालीन अनशन के दौरान मैं अस्पताल में पड़ा था. मुझे तो पीड़ा थी लेकिन डाक्टरों ने कहा कि बहुत ही मामूली बीमारी है . जो भी हो उस दौर में कुछ लिख नहीं पाया . कई मित्रों ने कहा कि इतनी बड़ी घटना घट रही है और आप कुछ लिख नहीं रहे हैं . लगा कि अवसर चूक रहा था लेकिन आज करीब दो हफ्ते बाद जब फिर लिखने बैठा हूँ तो लगता है कि अच्छा हुआ कुछ नहीं लिखा. क्योंकि चीज़ें इतनी तेज़ी से बदल रही थीं कि अगर कुछ लिख मारता तो ख़तरा पूरा था कि बेवकूफी भरा ज्ञान ही बघारता. अब ठीक है . अन्ना हजारे के मौजूं पर रवीश कुमार का बेहतरीन आलेख पढ़ चुका हूँ. अंग्रेज़ी अख़बारों में सर्वज्ञ विश्लेषकों की शेखी पढ़ चुका हूँ और अब अन्ना हजारे के आन्दोलन को रास्ते से धकेल देने की कोशिशों के बारे में शुरुआती कोशिशों का जायजा ले चुका हूँ .लगता है आज जो कुछ लिखा जाएगा वह थोडा बहुत सन्दर्भ में होगा. सबसे बड़ी बात अब यह समझ में आ रही है कि जिन राजनेताओं ने लोकपाल बिल को ४२ वर्षों से लटकाए रखा वे आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं . वे इस बिल को लगभग उसी क्वालिटी की सब्जी बनाने की कोशिश करेगें जैसी प्रसार भारती के साथ इन लोगों ने किया था . करीब बीस साल पहले जब प्रसार भारती की बात होती थी तो लगता था कि ऐसी संस्था बन जायेगी जो नेताओं की खूब जमकर पोल खोलेगी लेकिन प्रसार भारती का जो स्वरुप बन कर आया वह ऐसा है जैसे लाखों वर्षों से पाली गयी किसी बिल्ली ने म्याऊँ की आवाज़ निकाली हो . जैसा कि ज़्यादातर फालतू किस्म की संस्थाओं के साथ होता है ,प्रसार भारती भी सत्ता पक्ष के मित्रों को नौकरी देने का मंच बन कर रह गयी है . नेता लोग कोशिश करेगें कि लोकपाल बिल भी कुछ उसी डिजाइन का एक मंच बन जाए. लेकिन सूचना के अधिकार कानून और वेब पत्रकारिता की पूंजी से लैस इस देश का शिक्षित समाज नेताओं की मनमानी को शायद अब कारगर नहीं होने देगा.आजकल कांग्रेस की तरफ से कुछ नेता अन्ना हजारे को बेचारा साबित करने के चक्कर में जुटे हैं. उनकी टीम के खिलाफ सड़क छाप टिप्पणियाँ कर रहे हैं . उनकी कोशिश है कि लोकपाल बिल को या तो ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया जाए और अगर नहीं तो इतना बवाल खड़ा कर दिया जाए कि मामला विवादित हो जाए . लेकिन सूचना की क्रान्ति, और विकीलीक्स की परंपरा से वाकिफ लोगों को उन तरीकों से बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता जिस से पहले बनाया जाता था . आगे क्या होगा वह तो अभी अंदाज़ लगाना भी ठीक नहीं है लेकिन ३० जनवरी और आज के बीच जो कुछ भी हुआ है उस पर अब अपनी बात कहने का अवसर आ गया है . इतनी सूचना पब्लिक डोमेन में उपलब्ध है कि विश्लेषण करने में रिस्क बिलकुल नहीं है .
इस बात में दो राय नहीं है कि अन्ना हजारे का आन्दोलन उच्चकोटि की राजनीति का उदाहरण है . अन्ना के कैम्प में अपने लोगों को अहम रोल दिलवाकर आर एस एस/बीजेपी ने कोशिश की थी कि इस आन्दोलन को कांग्रेस के खिलाफ तूफ़ान के रूप में खड़ा कर दिया जाए. यह बिलकुल सही राजनीति थी और हर राजनीतिक पार्टी को अपने लाभ के लिए काम करना चाहिए . आर एस एस/बीजेपी की कोशिश थी कि कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्यायवाची बनाकर पेश कर दिया जाए और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को कांग्रेस के खिलाफ तूफ़ान के रूप में खड़ा कर दिया जाए. यह बहुत ही सही राजनीतिक रणनीति थी. लेकिन सच्ची बात यह है कि अन्ना हजारे का आन्दोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था . वह भ्रष्टाचार मूल रूप से तो कांग्रेस में ही है लेकिन आर एस एस/बीजेपी की सरकारें भी कम भ्रष्ट नहीं है . ज़ाहिर है अन्ना का आन्दोलन आर एस एस/बीजेपी की सरकारों के खिलाफ भी है . उन्होंने इस बात को बार बार कहा भी है .आर एस एस/बीजेपी ने किसी बहुत ही पाक साफ़ आदमी के आन्दोलन को अपने हित में इस्तेमाल करने की पहली कोशिश जेपी आन्दोलन के साथ की थी. जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने १९७४ में इंदिरा गाँधी की कांग्रेस के खिलाफ आन्दोलन की शुरुआत की तो उनके साथ कुछ आदर्शवादी समाजवादी लोग ही थे. लेकिन देश में इंदिरा गाँधी और उनके बेटे संजय के खिलाफ माहौल बन रहा था .आर एस एस ने राजनीति के इस रुख को पहचान लिया . इस बीच बी एच यू से अपनी पढाई पूरी करके के एन गोविन्दाचार्य पटना में आर एस एस के प्रचारक के रूप में गये. उन्होंने ही जेपी से बात की और उनके आन्दोलन को आर एस एस के समर्थन की पेशकश की. जेपी को बताया गया कि आपके साथ जो समाजवादी लोग लगे हैं वे सब नेता है और नेताओं के बल पर कोई भी आन्दोलन नहीं चलता . आर एस एस में सभी कार्यकर्ता होते हैं और वे आन्दोलन को ताक़त देगें . उसके बाद तो जेपी की बड़ी सभाएं होने लगीं . शुरू में जेपी का आन्दोलन भी इंदिरा गाँधी के खिलाफ नहीं था. वे कहते थे कि राजनीति में जो गड़बड़ियां आ गयीं है उन्हें ठीक करने की ज़रूरत है और उसमें इंदिरा गांधी को भी योगदान करना चाहिए . वे कई बार जवाहरलाल नेहरू से अपने संबंधों का हवाला भी देते थे लेकिन इंदिरा गाँधी की मानसिकता दूसरी थी . उन्होंने सोचा कि सत्ता का दमन चक्र चला कर उस आन्दोलन को निपटाया जा सकता था . वैसे महात्मा गाँधी के बाद इस देश में यह पहला आन्दोलन भी था जिसमें आम आदमी शामिल हुआ था .उन्होंने जेपी के कांग्रेस में मौजूद समर्थकों को कसना शुरू कर दिया . हेमवती नंदन बहुगुणा और चन्द्र शेखर उनकी इस नीति के शिकार हो गए . और आर एस एस ने अपने समर्थकों को पूरी तरह से आन्दोलन को ताक़त देने में लगा दिया . इंदिरा गाँधी ने जेपी को नज़रंदाज़ करना शुरू कर दिया और उनको 'कुछ लोग ' कहने लगीं . इस बीच इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आया और इंदिरा गाँधी के अंदर का तानाशाह भड़क उठा . नतीजा यह हुआ कि जो आन्दोलन राजनीति से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए शुरू हुआ था वह कांग्रेस के खिलाफ एक तूफ़ान की शक्ल में खड़ा हो गया . बाद में १९७७ आया और आर एस एस को एक बार केंद्र की सरकार में शामिल होने का मौक़ा मिला.
अन्ना हजारे का आन्दोलन भी उसी तर्ज़ पर चल निकला था . ३० जनवरी २०११ के दिन जो देश भर में लोग उठ खड़े हुए थे ,उसमें बड़ी संख्या आर एस एस के कार्यकर्ताओं की थी. इस आन्दोलन में बहुत बड़े पैमाने पर सक्रिय बाबा रामदेव के ठिकाने पर जाकर बीजेपी के अध्यक्ष ने मुलाक़ात कर ली थी . अगर तीन चार दिन और यही हाल रहता तो आर एस एस/बीजेपी की कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय बना देने में सफलता मिल जाती . और फिर १९७४ के आन्दोलन से भी ताक़त वर आन्दोलन तैयार हो जाता . कांग्रेसी नेताओं ने भी ऐसा माहौल बनाना शुरू कर दिया था कि अन्ना हजारे न चाहते हुए भी आर एस एस/बीजेपी के हित में काम करते नज़र आने लगते . लेकिन ठीक इसी वक़्त पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने हस्तक्षेप किया और अन्ना हजारे के आन्दोलन से आर एस एस/बीजेपी को अलग कर दिया . उनकी पार्टी और सरकार के खिलाफ जो तूफ़ान चल पड़ा था उसे रास्ते में ही रोक कर अपनी राजनीतिक दक्षता का परिचय दिया . ज़ाहिर है कि आर एस एस/बीजेपी को इस खेल ने निराशा हुई और एक बड़ा राजनीतिक मौक़ा हाथ से निकल गया . बीजेपी के प्रवक्ताओं और उनकी तरफ से मीडिया में काम करने वालों का जो अन्ना के प्रति गुस्सा है वह इसी राजनीतिक घटना क्रम का नतीजा है .जिस सोनिया गाँधी को आर एस एस/बीजेपी वाले राजनेता ही मानने को तैयार नहीं थे ,उसने एक बार उन्हें फिर परेशानी में डाल दिया है . अब तो आर एस एस/बीजेपी वाले यह कहते पाए जा रहे हैं कि अन्ना हजारे वास्तव में कांग्रेस के बन्दे हैं . जो भी हो देश का राजनीतिक घटना क्रम एक बहुत ही दिलचस्प दौर से गुज़र रहा है और इस युद्ध का पहला राउंड सोनिया गाँधी ने जीत लिया है . आने वाला वक़्त दिलचस्प होगा और दुनिया भर के राजनीतिक विशेषकों की उस पर नज़र रहेगी.
अन्ना हजारे के अनिश्चितकालीन अनशन के दौरान मैं अस्पताल में पड़ा था. मुझे तो पीड़ा थी लेकिन डाक्टरों ने कहा कि बहुत ही मामूली बीमारी है . जो भी हो उस दौर में कुछ लिख नहीं पाया . कई मित्रों ने कहा कि इतनी बड़ी घटना घट रही है और आप कुछ लिख नहीं रहे हैं . लगा कि अवसर चूक रहा था लेकिन आज करीब दो हफ्ते बाद जब फिर लिखने बैठा हूँ तो लगता है कि अच्छा हुआ कुछ नहीं लिखा. क्योंकि चीज़ें इतनी तेज़ी से बदल रही थीं कि अगर कुछ लिख मारता तो ख़तरा पूरा था कि बेवकूफी भरा ज्ञान ही बघारता. अब ठीक है . अन्ना हजारे के मौजूं पर रवीश कुमार का बेहतरीन आलेख पढ़ चुका हूँ. अंग्रेज़ी अख़बारों में सर्वज्ञ विश्लेषकों की शेखी पढ़ चुका हूँ और अब अन्ना हजारे के आन्दोलन को रास्ते से धकेल देने की कोशिशों के बारे में शुरुआती कोशिशों का जायजा ले चुका हूँ .लगता है आज जो कुछ लिखा जाएगा वह थोडा बहुत सन्दर्भ में होगा. सबसे बड़ी बात अब यह समझ में आ रही है कि जिन राजनेताओं ने लोकपाल बिल को ४२ वर्षों से लटकाए रखा वे आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं . वे इस बिल को लगभग उसी क्वालिटी की सब्जी बनाने की कोशिश करेगें जैसी प्रसार भारती के साथ इन लोगों ने किया था . करीब बीस साल पहले जब प्रसार भारती की बात होती थी तो लगता था कि ऐसी संस्था बन जायेगी जो नेताओं की खूब जमकर पोल खोलेगी लेकिन प्रसार भारती का जो स्वरुप बन कर आया वह ऐसा है जैसे लाखों वर्षों से पाली गयी किसी बिल्ली ने म्याऊँ की आवाज़ निकाली हो . जैसा कि ज़्यादातर फालतू किस्म की संस्थाओं के साथ होता है ,प्रसार भारती भी सत्ता पक्ष के मित्रों को नौकरी देने का मंच बन कर रह गयी है . नेता लोग कोशिश करेगें कि लोकपाल बिल भी कुछ उसी डिजाइन का एक मंच बन जाए. लेकिन सूचना के अधिकार कानून और वेब पत्रकारिता की पूंजी से लैस इस देश का शिक्षित समाज नेताओं की मनमानी को शायद अब कारगर नहीं होने देगा.आजकल कांग्रेस की तरफ से कुछ नेता अन्ना हजारे को बेचारा साबित करने के चक्कर में जुटे हैं. उनकी टीम के खिलाफ सड़क छाप टिप्पणियाँ कर रहे हैं . उनकी कोशिश है कि लोकपाल बिल को या तो ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया जाए और अगर नहीं तो इतना बवाल खड़ा कर दिया जाए कि मामला विवादित हो जाए . लेकिन सूचना की क्रान्ति, और विकीलीक्स की परंपरा से वाकिफ लोगों को उन तरीकों से बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता जिस से पहले बनाया जाता था . आगे क्या होगा वह तो अभी अंदाज़ लगाना भी ठीक नहीं है लेकिन ३० जनवरी और आज के बीच जो कुछ भी हुआ है उस पर अब अपनी बात कहने का अवसर आ गया है . इतनी सूचना पब्लिक डोमेन में उपलब्ध है कि विश्लेषण करने में रिस्क बिलकुल नहीं है .
इस बात में दो राय नहीं है कि अन्ना हजारे का आन्दोलन उच्चकोटि की राजनीति का उदाहरण है . अन्ना के कैम्प में अपने लोगों को अहम रोल दिलवाकर आर एस एस/बीजेपी ने कोशिश की थी कि इस आन्दोलन को कांग्रेस के खिलाफ तूफ़ान के रूप में खड़ा कर दिया जाए. यह बिलकुल सही राजनीति थी और हर राजनीतिक पार्टी को अपने लाभ के लिए काम करना चाहिए . आर एस एस/बीजेपी की कोशिश थी कि कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्यायवाची बनाकर पेश कर दिया जाए और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को कांग्रेस के खिलाफ तूफ़ान के रूप में खड़ा कर दिया जाए. यह बहुत ही सही राजनीतिक रणनीति थी. लेकिन सच्ची बात यह है कि अन्ना हजारे का आन्दोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था . वह भ्रष्टाचार मूल रूप से तो कांग्रेस में ही है लेकिन आर एस एस/बीजेपी की सरकारें भी कम भ्रष्ट नहीं है . ज़ाहिर है अन्ना का आन्दोलन आर एस एस/बीजेपी की सरकारों के खिलाफ भी है . उन्होंने इस बात को बार बार कहा भी है .आर एस एस/बीजेपी ने किसी बहुत ही पाक साफ़ आदमी के आन्दोलन को अपने हित में इस्तेमाल करने की पहली कोशिश जेपी आन्दोलन के साथ की थी. जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने १९७४ में इंदिरा गाँधी की कांग्रेस के खिलाफ आन्दोलन की शुरुआत की तो उनके साथ कुछ आदर्शवादी समाजवादी लोग ही थे. लेकिन देश में इंदिरा गाँधी और उनके बेटे संजय के खिलाफ माहौल बन रहा था .आर एस एस ने राजनीति के इस रुख को पहचान लिया . इस बीच बी एच यू से अपनी पढाई पूरी करके के एन गोविन्दाचार्य पटना में आर एस एस के प्रचारक के रूप में गये. उन्होंने ही जेपी से बात की और उनके आन्दोलन को आर एस एस के समर्थन की पेशकश की. जेपी को बताया गया कि आपके साथ जो समाजवादी लोग लगे हैं वे सब नेता है और नेताओं के बल पर कोई भी आन्दोलन नहीं चलता . आर एस एस में सभी कार्यकर्ता होते हैं और वे आन्दोलन को ताक़त देगें . उसके बाद तो जेपी की बड़ी सभाएं होने लगीं . शुरू में जेपी का आन्दोलन भी इंदिरा गाँधी के खिलाफ नहीं था. वे कहते थे कि राजनीति में जो गड़बड़ियां आ गयीं है उन्हें ठीक करने की ज़रूरत है और उसमें इंदिरा गांधी को भी योगदान करना चाहिए . वे कई बार जवाहरलाल नेहरू से अपने संबंधों का हवाला भी देते थे लेकिन इंदिरा गाँधी की मानसिकता दूसरी थी . उन्होंने सोचा कि सत्ता का दमन चक्र चला कर उस आन्दोलन को निपटाया जा सकता था . वैसे महात्मा गाँधी के बाद इस देश में यह पहला आन्दोलन भी था जिसमें आम आदमी शामिल हुआ था .उन्होंने जेपी के कांग्रेस में मौजूद समर्थकों को कसना शुरू कर दिया . हेमवती नंदन बहुगुणा और चन्द्र शेखर उनकी इस नीति के शिकार हो गए . और आर एस एस ने अपने समर्थकों को पूरी तरह से आन्दोलन को ताक़त देने में लगा दिया . इंदिरा गाँधी ने जेपी को नज़रंदाज़ करना शुरू कर दिया और उनको 'कुछ लोग ' कहने लगीं . इस बीच इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आया और इंदिरा गाँधी के अंदर का तानाशाह भड़क उठा . नतीजा यह हुआ कि जो आन्दोलन राजनीति से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए शुरू हुआ था वह कांग्रेस के खिलाफ एक तूफ़ान की शक्ल में खड़ा हो गया . बाद में १९७७ आया और आर एस एस को एक बार केंद्र की सरकार में शामिल होने का मौक़ा मिला.
अन्ना हजारे का आन्दोलन भी उसी तर्ज़ पर चल निकला था . ३० जनवरी २०११ के दिन जो देश भर में लोग उठ खड़े हुए थे ,उसमें बड़ी संख्या आर एस एस के कार्यकर्ताओं की थी. इस आन्दोलन में बहुत बड़े पैमाने पर सक्रिय बाबा रामदेव के ठिकाने पर जाकर बीजेपी के अध्यक्ष ने मुलाक़ात कर ली थी . अगर तीन चार दिन और यही हाल रहता तो आर एस एस/बीजेपी की कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय बना देने में सफलता मिल जाती . और फिर १९७४ के आन्दोलन से भी ताक़त वर आन्दोलन तैयार हो जाता . कांग्रेसी नेताओं ने भी ऐसा माहौल बनाना शुरू कर दिया था कि अन्ना हजारे न चाहते हुए भी आर एस एस/बीजेपी के हित में काम करते नज़र आने लगते . लेकिन ठीक इसी वक़्त पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने हस्तक्षेप किया और अन्ना हजारे के आन्दोलन से आर एस एस/बीजेपी को अलग कर दिया . उनकी पार्टी और सरकार के खिलाफ जो तूफ़ान चल पड़ा था उसे रास्ते में ही रोक कर अपनी राजनीतिक दक्षता का परिचय दिया . ज़ाहिर है कि आर एस एस/बीजेपी को इस खेल ने निराशा हुई और एक बड़ा राजनीतिक मौक़ा हाथ से निकल गया . बीजेपी के प्रवक्ताओं और उनकी तरफ से मीडिया में काम करने वालों का जो अन्ना के प्रति गुस्सा है वह इसी राजनीतिक घटना क्रम का नतीजा है .जिस सोनिया गाँधी को आर एस एस/बीजेपी वाले राजनेता ही मानने को तैयार नहीं थे ,उसने एक बार उन्हें फिर परेशानी में डाल दिया है . अब तो आर एस एस/बीजेपी वाले यह कहते पाए जा रहे हैं कि अन्ना हजारे वास्तव में कांग्रेस के बन्दे हैं . जो भी हो देश का राजनीतिक घटना क्रम एक बहुत ही दिलचस्प दौर से गुज़र रहा है और इस युद्ध का पहला राउंड सोनिया गाँधी ने जीत लिया है . आने वाला वक़्त दिलचस्प होगा और दुनिया भर के राजनीतिक विशेषकों की उस पर नज़र रहेगी.
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Monday, April 4, 2011
जगजीवन राम-लोकतंत्र और सामाजिक बराबरी के अग्रणी राजनेता
शेष नारायण सिंह
पांच अप्रैल जगजीवन राम की जयंती है. उनकी शख्सियत के कई आयाम हैं . लेकिन सबसे बड़ी बात जो उनके व्यक्तित्व से निकल कर आती है वह अन्याय के खिलाफ खड़े होने की उनकी प्रवृत्ति है. अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने हमेशा ही अन्याय का विरोध किया . खुद दलित परिवार में पैदा हुए थे . हालांकि उनके पिता उस वक़्त के समाज के नेता थे. शिवनारायणी सम्प्रदाय के महंत थे, कांग्रेस की राजनीति में शामिल रह चुके थे और दलितों के बीच बहुत ही सम्मान की नज़र से देखे जाते थे . लेकिन तत्कालीन सामंती समाज ने उन्हें बरबरी का अवसर कभी नहीं दिया . और जब जगजीवन राम के बचपन में ही पिता की मृत्यु हो गयी तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा लेकिन कुशाग्रबुद्धि जगजीवन राम की माँ ने शिक्षा के मह्त्व को पहचानते हुए पढाई नहीं बंद करवाई. बचपन में ही उन्होंने स्कूल में अछूत बच्चों के खिलाफ हो रहे भेद भाव के खिलाफ आवाज़ उठायी जो बाद में उनकी प्रकृति का हिस्सा बन गया . उन्होंने १९७७ में भी अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठायी जब इंदिरा गाँधी ने अपने लफंगा टाइप बेटे को सत्ता की बागडोर थमाने की योजना बनायी . जगजीवन राम का अन्याय का विरोध करने के तरीका औरों से अलग था . वे कभी भी सब कुछ दांव पर नहीं लगाते थे. मसलन जब इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाने का फैसला किया तो उन्होंने उसका समर्थन किया . यहाँ तक कि इमरजेंसी को मंज़ूर करवाने के लिए जो प्रस्ताव लोक सभा में सरकार की तरफ से पेश किया गया था ,उसको बाबू जगजीवन राम ने ही पाइलट किया था. हालांकि इमरजेंसी इंदिरा गाँधी की तानाशाही के खिलाफ अवाम की जुबान बंद करने के लिए लगाई गयी थी लेकिन शायद बाबू जी को उसमें कुछ अच्छाइयां नज़र आ रही होंगीं. लेकिन बहुत शुरुआती स्टेज में ही यह साफ़ हो गया कि इमरजेंसी को इंदिरा जी के छोटे बेटे को सत्ता के दावेदार के रूप में स्थापित करने के लिए लगाया गया था. उसके आस पास एक चौकड़ी जमा हो गयी,जिसमें कुछ पुलिस वाले, कुछ आई ए एस अफसर, कुछ नेता,दिल्ली शहर के कुछ लफंगे ,कुछ स्मगलर , कुछ दलाल और कुछ ब्लैक मार्केटियर शामिल थे. उन दिनों जो लोग बाबू जगजीवन राम से मिले थे उन्होंने इस बात की बार बार ताईद की थी कि इमरजेंसी का समर्थन करके जगजीवन राम बहुत दुखी थे . लेकिन तब तक देश का हर बड़ा कांग्रेसी नेता इंदिरा जी के बेटे की चौकड़ी के जाल में फंस चुका था . बाबू जगजीवन राम की राजनीतिक कुशलता और विद्वत्ता की परीक्षा हो रही थी. उनके पास पूरे देश से कांग्रेस कार्यकर्ता आते थे और उन्हें मालूम था कि इमरजेंसी में दलितों और अल्पसंख्यकों को खूब परेशान किया जा रहा है. उस ज़माने में केंद्र के साथ साथ हर राज्य में भी कांग्रेस की सरकारें होती थी. उनके सभी मुख्य मंत्री इंदिरा गाँधी के बेटे संजय के सामने नतमस्तक थे. उत्तर प्रदेश में हेमवती नंदन बहुगुणा ने संविधान की बात कने की कोशिश की तो उन्हें पैदल कर दिया गया . उनकी जगह पर आये नारायण दत्त तिवारी तो सीधे ही संजय गाँधी की मंडली के हुक्म के गुलाम थे . लगभग हर राज्य में यही आलम था .बाबू जगजीवन राम को करीब से जानने वाले बताते हैं कि इंदिरा गाँधी के इस पुत्र मोह की बलि चढ़ रहे लोकतांत्रिक मूल्यों के खात्मे से वे बहुत दुखी थे . लेकिन उन्हें यह भी मालूम था कि अगर खुले आम बगावत कर दी तो उनका भी वही हाल होगा जो बाकी विपक्षी नेताओं का हो रहा था. विपक्ष का हर नेता, यहाँ तक कि मामूली कार्यकर्ता भी जेलों में था. ज़ाहिर है उस माहौल में जगजीवन राम अगर कोई समझदारी की बात करते तो उन्हें भी राजनीतिक रूप से ख़त्म कर दिया जाता . वे चुप चाप सही वक़्त का इंतज़ार करते रहे और जब इंदिरा जी के खुफिया तंत्र ने उन्हें भरोसा दिला दिया कि विपक्ष पूरी तरह से पस्त पड़ा था .अगर उस वक़्त चुनाव करा दिए जाएँ तो कांग्रेस की दुबारा वापसी हो सकती थी और उसके ठीक बाद संजय गाँधी कि ताजपोशी कर दी जाती. चुनाव की घोषणा हो जाने के बाद अपने विश्वस्त साथियों हेमवती नंदन बहुगुणा, नंदिनी सत्पथी और के आर गणेश के साथ बाबू जगजीवन राम ने लोकशाही की बिसात पर अपनी धमाकेदार मौजूदगी का ऐलान कर दिया . उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दिया, सरकार से इस्तीफ़ा दिया और कांग्रेस फोर डेमोक्रेसी के गठन का ऐलान कर दिया. निराश हताश विपक्ष के नेताओं में जान आ गयी . बाबू जगजीवन राम के पास पहले से ही पूरे देश से आये कांग्रेस कार्यकर्ताओं का इनपुट था ही और देश में तूफ़ान आ गया. इस तरह १९७७ में देश की जनता ने इंदिरा गाँधी की स्थापित सत्ता का विरोध करके एक ऐसी पार्टी को सत्ता सौंप दी जिसका तब तक गठन ही नहीं हुआ था. जनता पार्टी का गठन मोरारजी देसाई कि सरकार बन जाने के बाद हुआ . लोकतंत्र के अध्येता बताते हैं कि यहीं पर जनता पार्टी के नेताओं का वर्ग चरित्र सामने आ गया . उनमें से ज़्यादातर सामन्ती मानसिकता के थे और उन्होंने प्रधान मंत्री पद के असली हक़दार बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया . लेकिन बाबूजी खुश थे .देश में एक बार फिर जनता की ताक़त की सत्ता स्थापित हो चुकी थी .
१९७७ में इंदिरा गाँधी के पुत्र मोह के चक्कर में देश को कुछ गैर ज़िम्मेदार लोगों के हाथ में जाने से उन्होंने बचा लिया था . यह उनके बगावती तेवर की वजह से ही हुआ था. अपने पूरे राजनीतिक जीवन में वे हमेशा सही मूल्यों की राजनीति का समर्थन करते रहे. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में उन्होंने इस बात का विरोध किया था कि दलित छात्रों को बाकी छात्रों के साथ बैठकर खाना खाने की अनुमति नहीं थी. .बनारस की सामन्ती मानसिकता से ऊब कर ही वे कलकत्ता गए थे जहां उन्होंने अपने आपको मजदूरों के एक शुभचिन्तक के रूप में स्थापित किया . वहीं पर वे महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस की नज़र में आये और बाद में तो उन्होंने अंग्रेजों की उस कोशिश को धता बता दिया जिसमें उन्हने लालच देकर महात्मा गाँधी के खिलाफ करने की कोशिश की जा रही थी. महत्मा जी ने कहा था कि जगजीवन राम खरा सोना हैं .उस दौर के बहुत सारे गैर कांग्रेसी नेता अंग्रेजों के भक्त हो गए थे लेकिन बाबू जगजीवन राम ने ऐसा नहीं होने दिया .१९४२ के भारत छोडो आन्दोलन में वे एक बहुत बड़े नेता के रूप में उभरे . बाद में जब शिमला में दलितो के हित की बात करने वे कैबिनेट mishan से मिलने गए तो उन्होंने भारत और यहाँ के लोगों के हित को सर्वोपरि रखा . १९३० के दशक में तो एक अवसर ऐसा भी आया जब अँगरेज़ अनुसूचित जातियों के नेताओं को जिन्ना के बराबर खड़े कर देने की साज़िश पर काम कर रहे थे लेकिन बाद में जगजीवन राम ने उसे नाकाम कर दिया . अजीब बात है कि सामंती सोच के इतिहासकारों ने बाबू जगजीवन राम को किसी और कांग्रेसी नेता के रूप में पेश करने की कोशिश की और सफल रहे . सच्चाई यह है वे सही मायनों में लोकतंत्र और सामाजिक बराबरी के अग्रणी दार्शनिक और राजनीतिज्ञ थे
पांच अप्रैल जगजीवन राम की जयंती है. उनकी शख्सियत के कई आयाम हैं . लेकिन सबसे बड़ी बात जो उनके व्यक्तित्व से निकल कर आती है वह अन्याय के खिलाफ खड़े होने की उनकी प्रवृत्ति है. अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने हमेशा ही अन्याय का विरोध किया . खुद दलित परिवार में पैदा हुए थे . हालांकि उनके पिता उस वक़्त के समाज के नेता थे. शिवनारायणी सम्प्रदाय के महंत थे, कांग्रेस की राजनीति में शामिल रह चुके थे और दलितों के बीच बहुत ही सम्मान की नज़र से देखे जाते थे . लेकिन तत्कालीन सामंती समाज ने उन्हें बरबरी का अवसर कभी नहीं दिया . और जब जगजीवन राम के बचपन में ही पिता की मृत्यु हो गयी तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा लेकिन कुशाग्रबुद्धि जगजीवन राम की माँ ने शिक्षा के मह्त्व को पहचानते हुए पढाई नहीं बंद करवाई. बचपन में ही उन्होंने स्कूल में अछूत बच्चों के खिलाफ हो रहे भेद भाव के खिलाफ आवाज़ उठायी जो बाद में उनकी प्रकृति का हिस्सा बन गया . उन्होंने १९७७ में भी अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठायी जब इंदिरा गाँधी ने अपने लफंगा टाइप बेटे को सत्ता की बागडोर थमाने की योजना बनायी . जगजीवन राम का अन्याय का विरोध करने के तरीका औरों से अलग था . वे कभी भी सब कुछ दांव पर नहीं लगाते थे. मसलन जब इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाने का फैसला किया तो उन्होंने उसका समर्थन किया . यहाँ तक कि इमरजेंसी को मंज़ूर करवाने के लिए जो प्रस्ताव लोक सभा में सरकार की तरफ से पेश किया गया था ,उसको बाबू जगजीवन राम ने ही पाइलट किया था. हालांकि इमरजेंसी इंदिरा गाँधी की तानाशाही के खिलाफ अवाम की जुबान बंद करने के लिए लगाई गयी थी लेकिन शायद बाबू जी को उसमें कुछ अच्छाइयां नज़र आ रही होंगीं. लेकिन बहुत शुरुआती स्टेज में ही यह साफ़ हो गया कि इमरजेंसी को इंदिरा जी के छोटे बेटे को सत्ता के दावेदार के रूप में स्थापित करने के लिए लगाया गया था. उसके आस पास एक चौकड़ी जमा हो गयी,जिसमें कुछ पुलिस वाले, कुछ आई ए एस अफसर, कुछ नेता,दिल्ली शहर के कुछ लफंगे ,कुछ स्मगलर , कुछ दलाल और कुछ ब्लैक मार्केटियर शामिल थे. उन दिनों जो लोग बाबू जगजीवन राम से मिले थे उन्होंने इस बात की बार बार ताईद की थी कि इमरजेंसी का समर्थन करके जगजीवन राम बहुत दुखी थे . लेकिन तब तक देश का हर बड़ा कांग्रेसी नेता इंदिरा जी के बेटे की चौकड़ी के जाल में फंस चुका था . बाबू जगजीवन राम की राजनीतिक कुशलता और विद्वत्ता की परीक्षा हो रही थी. उनके पास पूरे देश से कांग्रेस कार्यकर्ता आते थे और उन्हें मालूम था कि इमरजेंसी में दलितों और अल्पसंख्यकों को खूब परेशान किया जा रहा है. उस ज़माने में केंद्र के साथ साथ हर राज्य में भी कांग्रेस की सरकारें होती थी. उनके सभी मुख्य मंत्री इंदिरा गाँधी के बेटे संजय के सामने नतमस्तक थे. उत्तर प्रदेश में हेमवती नंदन बहुगुणा ने संविधान की बात कने की कोशिश की तो उन्हें पैदल कर दिया गया . उनकी जगह पर आये नारायण दत्त तिवारी तो सीधे ही संजय गाँधी की मंडली के हुक्म के गुलाम थे . लगभग हर राज्य में यही आलम था .बाबू जगजीवन राम को करीब से जानने वाले बताते हैं कि इंदिरा गाँधी के इस पुत्र मोह की बलि चढ़ रहे लोकतांत्रिक मूल्यों के खात्मे से वे बहुत दुखी थे . लेकिन उन्हें यह भी मालूम था कि अगर खुले आम बगावत कर दी तो उनका भी वही हाल होगा जो बाकी विपक्षी नेताओं का हो रहा था. विपक्ष का हर नेता, यहाँ तक कि मामूली कार्यकर्ता भी जेलों में था. ज़ाहिर है उस माहौल में जगजीवन राम अगर कोई समझदारी की बात करते तो उन्हें भी राजनीतिक रूप से ख़त्म कर दिया जाता . वे चुप चाप सही वक़्त का इंतज़ार करते रहे और जब इंदिरा जी के खुफिया तंत्र ने उन्हें भरोसा दिला दिया कि विपक्ष पूरी तरह से पस्त पड़ा था .अगर उस वक़्त चुनाव करा दिए जाएँ तो कांग्रेस की दुबारा वापसी हो सकती थी और उसके ठीक बाद संजय गाँधी कि ताजपोशी कर दी जाती. चुनाव की घोषणा हो जाने के बाद अपने विश्वस्त साथियों हेमवती नंदन बहुगुणा, नंदिनी सत्पथी और के आर गणेश के साथ बाबू जगजीवन राम ने लोकशाही की बिसात पर अपनी धमाकेदार मौजूदगी का ऐलान कर दिया . उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दिया, सरकार से इस्तीफ़ा दिया और कांग्रेस फोर डेमोक्रेसी के गठन का ऐलान कर दिया. निराश हताश विपक्ष के नेताओं में जान आ गयी . बाबू जगजीवन राम के पास पहले से ही पूरे देश से आये कांग्रेस कार्यकर्ताओं का इनपुट था ही और देश में तूफ़ान आ गया. इस तरह १९७७ में देश की जनता ने इंदिरा गाँधी की स्थापित सत्ता का विरोध करके एक ऐसी पार्टी को सत्ता सौंप दी जिसका तब तक गठन ही नहीं हुआ था. जनता पार्टी का गठन मोरारजी देसाई कि सरकार बन जाने के बाद हुआ . लोकतंत्र के अध्येता बताते हैं कि यहीं पर जनता पार्टी के नेताओं का वर्ग चरित्र सामने आ गया . उनमें से ज़्यादातर सामन्ती मानसिकता के थे और उन्होंने प्रधान मंत्री पद के असली हक़दार बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया . लेकिन बाबूजी खुश थे .देश में एक बार फिर जनता की ताक़त की सत्ता स्थापित हो चुकी थी .
१९७७ में इंदिरा गाँधी के पुत्र मोह के चक्कर में देश को कुछ गैर ज़िम्मेदार लोगों के हाथ में जाने से उन्होंने बचा लिया था . यह उनके बगावती तेवर की वजह से ही हुआ था. अपने पूरे राजनीतिक जीवन में वे हमेशा सही मूल्यों की राजनीति का समर्थन करते रहे. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में उन्होंने इस बात का विरोध किया था कि दलित छात्रों को बाकी छात्रों के साथ बैठकर खाना खाने की अनुमति नहीं थी. .बनारस की सामन्ती मानसिकता से ऊब कर ही वे कलकत्ता गए थे जहां उन्होंने अपने आपको मजदूरों के एक शुभचिन्तक के रूप में स्थापित किया . वहीं पर वे महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस की नज़र में आये और बाद में तो उन्होंने अंग्रेजों की उस कोशिश को धता बता दिया जिसमें उन्हने लालच देकर महात्मा गाँधी के खिलाफ करने की कोशिश की जा रही थी. महत्मा जी ने कहा था कि जगजीवन राम खरा सोना हैं .उस दौर के बहुत सारे गैर कांग्रेसी नेता अंग्रेजों के भक्त हो गए थे लेकिन बाबू जगजीवन राम ने ऐसा नहीं होने दिया .१९४२ के भारत छोडो आन्दोलन में वे एक बहुत बड़े नेता के रूप में उभरे . बाद में जब शिमला में दलितो के हित की बात करने वे कैबिनेट mishan से मिलने गए तो उन्होंने भारत और यहाँ के लोगों के हित को सर्वोपरि रखा . १९३० के दशक में तो एक अवसर ऐसा भी आया जब अँगरेज़ अनुसूचित जातियों के नेताओं को जिन्ना के बराबर खड़े कर देने की साज़िश पर काम कर रहे थे लेकिन बाद में जगजीवन राम ने उसे नाकाम कर दिया . अजीब बात है कि सामंती सोच के इतिहासकारों ने बाबू जगजीवन राम को किसी और कांग्रेसी नेता के रूप में पेश करने की कोशिश की और सफल रहे . सच्चाई यह है वे सही मायनों में लोकतंत्र और सामाजिक बराबरी के अग्रणी दार्शनिक और राजनीतिज्ञ थे
Monday, March 28, 2011
बीजेपी ने हिन्दू राष्ट्रवाद को इस्तेमाल किया है अब तक
शेष नारायण सिंह
विकीलीक्स ने अमरीकी दूतावास के संदेशों को पब्लिक डोमेन में लाकर भारतीय राजनीति का बहुत उपकार किया है . विकीलीक्स की कृपा से ही हम जानते हैं कि बीजेपी की नज़र में हिंदुत्व एक अवसरवादी राजनीति है. बीजेपी के बड़े नेता और टाप पद के प्रमुख दावेदार अरुण जेटली ने यह बात अमरीकी अफसर राबर्ट ब्लेक को एक अन्तरंग बातचीत में बतायी थी .श्री जेटली ने उसको भरोसे के साथ बताया था कि हिन्दू राष्ट्रवाद एक अवसरवादी मुद्दा है . उन्होंने समझाया कि बातचीत शुरू करने के लिए यह ठीक तरीका है .इस से ज्यादा कुछ नहीं . आज से करीब छः साल पहले हुई इस बातचीत में अरुण जेटली ने अमरीका को बता दिया था कि लाल कृष्ण आडवानी कुछ वर्षों के बाद बीजेपी की राजनीति के हाशिये पर आ जायेगें और अगली पीढी के लोग काम संभाल लेगें. अगर आडवाणी को उस वक़्त मालूम होता कि अरुण जेटली उनके बारे में इस तरह की बात करते हैं तो आज अरुण जेटली का राजनीतिक जीवन बिलकुल अलग होता .यह जिस दौर की बात चीत है उसके बारे में सबको मालूम है अरुण जेटली को बीजेपी के आडवाणी गुट ख़ास नेता माना जाता था . आडवाणी से पिछले पांच वर्षों में अरुण जेटली को बहुत समर्थन मिला है . जानकार बताते हैं कि अरुण जेटली को राज्यसभा का सदस्य बनवाने में भी आडवानी की प्रमुख भूमिका रही है . उनको राज्यसभा में बीजेपी का नेता भी आडवाणी ने ही बनवाया था. २००९ में लाल कृष्णा आडवाणी पूरे देश में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बन कर घूमते फिर रहे थे और अरुण जेटली उनको उसके चार साल पहले ही रिटायर करवाने की तैयारी में थे . . बाद में मीडिया को अरुण जेटली ने बताया कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा था . यहाँ उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि जब पहले दिन विकीलीक्स के संदेशों को द हिन्दू अखबार ने छापा था और पता चला था कि कांग्रेस की मनमोहन सरकार को बचाने के लिए २००८ में पैसे चले थे ,तो क्यों उसको अंतिम सत्य मानकर संसद नहीं चलने दिया था . सच्चाई यह है सारा देश जानता है कि २००८ में परमाणु बिल के मुद्दे पर पैसे चले थे और उस काण्ड में लाल कृष्ण आडवाणी सहित बीजेपी के कई नेता किसी न किसी रूप में शामिल थे . लेकिन बीजेपी का यह आग्रह कि मनमोहन सिंह इस्तीफ़ा दें बिलकुल तर्कसंगत नहीं लगा था . अब नए खुलासे के बाद तो बीजेपी को उन सभी लोगों से माफी मांगनी चाहिए जिन्होंने हिन्दू राष्ट्रवाद की पक्षधर पार्टी के रूप में बीजेपी को सम्मान दिया है और अपनाया है . बीजेपी की वैचारिक सोच की नियंता पार्टी आर एस एस है . आर एस एस की राजनीति का मकसद घोषित रूप से हिन्दू राष्ट्रवाद है . १९८० में आर एस एस ने तत्कालीन जनता पार्टी को इसीलिये तोडा था कि पार्टी के बड़े नेता और समाजवादी चिन्तक मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल थे, वे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें . मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आर एस एस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक अवधारणा है . आर एस एस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया .शुरू में इस नई पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक दर्शन को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की . लेकिन जब १९८४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद को रामजन्मभूमि बता कर राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना १९६६ में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगा कि आर एस एस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वी एच पी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है ..कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने अपना राजनीतिक काम ठीक से नहीं किया है इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का खूब प्रचार प्रसार हो गया है . जब बीजेपी ने हिन्दू राष्ट्रवाद को अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया तो उस विचारधारा को मानने वाले बड़ी संख्या में उसके साथ जुड़ गए .वही लोग १९९१ में अयोध्या आये थे जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी . बाबरी मस्जिद को तबाह करने पर आमादा इन लोगों के ऊपर गोलियां भी चली थीं .वही लोग १९९२ में अयोध्या आये थे जिनकी मौजूदगी में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ , वही लोग साबरमती एक्सप्रेस में सवार थे जब गोधरा रेलवे स्टेशन पर उन्हें जिंदा जला दिया गया . . अब जब निजी बातचीत के आधार पर दुनिया को मालूम चल गया है कि बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद को केवल बातचीत का प्वाइंट मानती है तो उनके परिवार वालों पर क्या गुज़र रही होगी जो हिन्दू राष्ट्रवाद के चक्कर में मारे जा चुके हैं . . सबको मालूम है हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के बल पर देश का नेतृत्व नहीं किया जा सकता . इसलिए बीजेपी के राष्ट्र को नेतृत्व देने की इच्छा रखने वाले नेताओं में अपने आपको हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति से दूर रखने की प्रवृत्ति पायी जाने लगी है . इसी सोच के तहत लाल कृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की तारीफ़ की थी और अब अरुण जेटली इसको बोगस विचारधारा के रूप में पेश कर रहे हैं . लेकिन विकीलीक्स के खुलासों ने इस अहम जानकारी को पब्लिक डोमेन में डालकर भारतीय राजनीति के टाप नेताओं की सोच को उजागर किया है जिसकी सराहना के जानी चाहिए
विकीलीक्स ने अमरीकी दूतावास के संदेशों को पब्लिक डोमेन में लाकर भारतीय राजनीति का बहुत उपकार किया है . विकीलीक्स की कृपा से ही हम जानते हैं कि बीजेपी की नज़र में हिंदुत्व एक अवसरवादी राजनीति है. बीजेपी के बड़े नेता और टाप पद के प्रमुख दावेदार अरुण जेटली ने यह बात अमरीकी अफसर राबर्ट ब्लेक को एक अन्तरंग बातचीत में बतायी थी .श्री जेटली ने उसको भरोसे के साथ बताया था कि हिन्दू राष्ट्रवाद एक अवसरवादी मुद्दा है . उन्होंने समझाया कि बातचीत शुरू करने के लिए यह ठीक तरीका है .इस से ज्यादा कुछ नहीं . आज से करीब छः साल पहले हुई इस बातचीत में अरुण जेटली ने अमरीका को बता दिया था कि लाल कृष्ण आडवानी कुछ वर्षों के बाद बीजेपी की राजनीति के हाशिये पर आ जायेगें और अगली पीढी के लोग काम संभाल लेगें. अगर आडवाणी को उस वक़्त मालूम होता कि अरुण जेटली उनके बारे में इस तरह की बात करते हैं तो आज अरुण जेटली का राजनीतिक जीवन बिलकुल अलग होता .यह जिस दौर की बात चीत है उसके बारे में सबको मालूम है अरुण जेटली को बीजेपी के आडवाणी गुट ख़ास नेता माना जाता था . आडवाणी से पिछले पांच वर्षों में अरुण जेटली को बहुत समर्थन मिला है . जानकार बताते हैं कि अरुण जेटली को राज्यसभा का सदस्य बनवाने में भी आडवानी की प्रमुख भूमिका रही है . उनको राज्यसभा में बीजेपी का नेता भी आडवाणी ने ही बनवाया था. २००९ में लाल कृष्णा आडवाणी पूरे देश में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बन कर घूमते फिर रहे थे और अरुण जेटली उनको उसके चार साल पहले ही रिटायर करवाने की तैयारी में थे . . बाद में मीडिया को अरुण जेटली ने बताया कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा था . यहाँ उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि जब पहले दिन विकीलीक्स के संदेशों को द हिन्दू अखबार ने छापा था और पता चला था कि कांग्रेस की मनमोहन सरकार को बचाने के लिए २००८ में पैसे चले थे ,तो क्यों उसको अंतिम सत्य मानकर संसद नहीं चलने दिया था . सच्चाई यह है सारा देश जानता है कि २००८ में परमाणु बिल के मुद्दे पर पैसे चले थे और उस काण्ड में लाल कृष्ण आडवाणी सहित बीजेपी के कई नेता किसी न किसी रूप में शामिल थे . लेकिन बीजेपी का यह आग्रह कि मनमोहन सिंह इस्तीफ़ा दें बिलकुल तर्कसंगत नहीं लगा था . अब नए खुलासे के बाद तो बीजेपी को उन सभी लोगों से माफी मांगनी चाहिए जिन्होंने हिन्दू राष्ट्रवाद की पक्षधर पार्टी के रूप में बीजेपी को सम्मान दिया है और अपनाया है . बीजेपी की वैचारिक सोच की नियंता पार्टी आर एस एस है . आर एस एस की राजनीति का मकसद घोषित रूप से हिन्दू राष्ट्रवाद है . १९८० में आर एस एस ने तत्कालीन जनता पार्टी को इसीलिये तोडा था कि पार्टी के बड़े नेता और समाजवादी चिन्तक मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल थे, वे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें . मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आर एस एस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक अवधारणा है . आर एस एस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया .शुरू में इस नई पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक दर्शन को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की . लेकिन जब १९८४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद को रामजन्मभूमि बता कर राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना १९६६ में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगा कि आर एस एस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वी एच पी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है ..कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने अपना राजनीतिक काम ठीक से नहीं किया है इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का खूब प्रचार प्रसार हो गया है . जब बीजेपी ने हिन्दू राष्ट्रवाद को अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया तो उस विचारधारा को मानने वाले बड़ी संख्या में उसके साथ जुड़ गए .वही लोग १९९१ में अयोध्या आये थे जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी . बाबरी मस्जिद को तबाह करने पर आमादा इन लोगों के ऊपर गोलियां भी चली थीं .वही लोग १९९२ में अयोध्या आये थे जिनकी मौजूदगी में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ , वही लोग साबरमती एक्सप्रेस में सवार थे जब गोधरा रेलवे स्टेशन पर उन्हें जिंदा जला दिया गया . . अब जब निजी बातचीत के आधार पर दुनिया को मालूम चल गया है कि बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद को केवल बातचीत का प्वाइंट मानती है तो उनके परिवार वालों पर क्या गुज़र रही होगी जो हिन्दू राष्ट्रवाद के चक्कर में मारे जा चुके हैं . . सबको मालूम है हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के बल पर देश का नेतृत्व नहीं किया जा सकता . इसलिए बीजेपी के राष्ट्र को नेतृत्व देने की इच्छा रखने वाले नेताओं में अपने आपको हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति से दूर रखने की प्रवृत्ति पायी जाने लगी है . इसी सोच के तहत लाल कृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की तारीफ़ की थी और अब अरुण जेटली इसको बोगस विचारधारा के रूप में पेश कर रहे हैं . लेकिन विकीलीक्स के खुलासों ने इस अहम जानकारी को पब्लिक डोमेन में डालकर भारतीय राजनीति के टाप नेताओं की सोच को उजागर किया है जिसकी सराहना के जानी चाहिए
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शेष नारायण सिंह,
हिन्दू राष्ट्रवाद
Saturday, March 26, 2011
विकीलीक्स ने किया बीजेपी की दोहरी चाल को बेनकाब
शेष नारायण सिंह
विकीलीक्स के कंधे पर बैठकर मनमोहन सिंह को पैदल करने की बीजेपी की रणनीति उल्टी पड़ गयी है.विकीलीक्स के ज़रिये उजागर हुए नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास के अफसरों की ओर से अमरीकी विदेश विभाग को भेजे गए संदेशों के बाद बीजेपी ने ऐसा तूफ़ान खड़ा किया कि लगता था कि बस अगले कुछ घंटों में ही वे लोग मनमोहन सिंह को लपक लेगें . संघभक्त मीडिया ने भी अपनी भूमिका निभाई . कांग्रेसी सहम भी गए लेकिन बीजेपी के भाग से छींका टूटा नहीं. मनमोहन सिंह ने संसद के दोनों सदनों में बयान दिया कि बीजेपी के हल्ले गुल्ले का कोई मतलब नहीं है . लेकिन बीजेपी वाले विकीलीक्स को अंतिम सत्य मनवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते रहे.. प्रधानमंत्री पद के पूर्व उम्मीदवार सहित बीजेपी के सभी बड़े नेता मनमोहन सिंह से एक इस्तीफे की फ़रियाद करते रहे लेकिन मनमोहन सिंह ने साफ़ मना कर दिया . उन्होंने कहा कि बीजेपी को जनता ने रिजेक्ट करके बहुत अच्छा काम किया है . दुनिया जानती है कि परमाणु बिल को पास करवाने के लिए पैसे के इस्तेमाल के मसले में ऐसा कुछ भी नया नहीं था जिसे विकीलीक्स ने उजागर किया हो . सब को मालूम था कि पैसा चला था और बीजेपी के आला नेता ,लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वीकार भी किया था कि उनकी पार्टी के संसद सदस्यों ने उनसे मंजूरी लेकर कथित रूप से रिश्वत में मिला पैसा लोकसभा में लाकर पेश किया था . जांच भी हुई थी और अन्य लोगों के अलावा लाल कृष्ण आडवाणी के उन दिनों के भक्त, सुधीन्द्र कुलकर्णी की जांच करने का सुझाव भी इस काम के लिए नियुक्त जेपीसी ने दिया था. कांग्रेस के खिलाफ तो जो भी विकीलीक्स में पता चला था,वह दुनिया जानती थी लेकिन द हिन्दू अखबार ने आज जो कुछ बीजेपी के बारे में विकीलीक्स के हवाले से छापा है,वह एक अनहोनी है. लोकसभा चुनाव २००९ के नतीजे आने के ठीक पहले नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास में चार्ज ड अफ़ेयर्स के रूप में तैनात पीटर बरले,१३ मई २००९ को लाल कृष्ण आडवाणी से मिले थे . मुलाक़ात के बाद उसी दिन उन्होंने एक सन्देश अपनी सरकार के पास अमरीका में भेजा था. उस तार में जो कुछ लिखा है अगर उसे सच माना जाय तो बीजेपी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी की छवि बहुत ही धूमिल नज़र आयेगी.. अमरीका बहुत चिंतित था कि २००९ के चुनावों के बाद सत्ता पाने की उम्मीद में बैठी बीजेपी और प्रधान मंत्री हासिल करने के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवाणी अगर सफल हो गए तो अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचेगा . अपने सन्देश में चार्ज ड अफ़ेयर्स ने लिखा है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बहुत ही शांतचित्त बैठे थे . बात चीत के दौरान लाल कृष्ण आडवाणी ने भारत-अमरीका परमाणु संधि के बारे में अपनी पार्टी के सख्त रुख को गंभीरता से न लेने की सलाह दी और भरोसा दिलाया कि अगर बीजेपी सत्ता में आ जाती है तो परमाणु समझौते पर फिर से कोई विचार नहीं किया जाएगा . चार्ज ड अफ़ेयर्स ने इस बात को जोर देकर लिखा है कि श्री आडवाणी ने स्वीकार किया कि बीजेपी ने जुलाई २००८ में सार्वजनिक रूप से कहा था कि समझौते से भारत की सामरिक स्वायत्तता कमज़ोर हुई है और सत्ता में आने पर उनकी पार्टी उस संधि का पुनर्परीक्षण करेगी. चार्ज ड अफ़ेयर्स का दावा है कि लाल कृष्ण आडवाणी ने साफ़ कहा कि वह बयान देश की आन्तरिक राजनीति की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर दिया गया था. सत्ता में आने पर बीजेपी ऐसा कुछ नहीं करेगी. लाल कृष्ण आडवाणी का यह बयान अगर यह सच है तो यह बहुत ही गैरजिम्मेदार राजनीतिक आचरण है . क्योंकि आडवाणी साफ़ साफ़ यह कह रहे हैं कि परमाणु संधि का जो भी विरोध किया गया था, वह पब्लिक के लिए था . ऐसा भी नहीं है कि श्री आडवाणी यह बात यूं ही कह रहे थे . अपने तर्क की गंभीरता को उन्होंने ऐतिहासिक सन्दर्भों से पुष्ट भी किया .उन्होंने कहा कि ऐसा उनकी पार्टी पहले भी कर चुकी है . श्री आडवाणी ने ख़ास तौर से १९७२ के इंदिरा गाँधी और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के बीच हुए शिमला समझौते का उल्लेख किया और कहा कि समझौते के बाद उनकी तत्कालीन पार्टी ( भारतीय जनसंघ ) ने पब्लिक की नज़र में समझौते का विरोध किया था लेकिन जब सत्ता में आई तो उसका पूरी तरह से पालन किया गया .
यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि लाल कृष्ण आडवाणी का बयान उनका कोई निजी बयान नहीं है . वास्तव में वह उनकी पार्टी की नीति पर आधारित बयान है . विकीलीक्स के एक अन्य सन्देश के हवाले से यह बात समझी जा सकती है . बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की एक अहम बैठक २६ और २७ दिसंबर २००५ को मुंबई में हुई थी जहां यू पी ए सरकार की सख्त आलोचना की गई थी और कहा गया था कि उसने ऐसी विदेश नीति अपनाई है जो भारत को अमरीका का गुलाम बना देगी . लेकिन इस प्रस्ताव को पास करने के तुरंत बाद ही बीजेपी के नेताओं ने अमरीकी दूतावास में तैनात अफसरों को बताना शुरू कर दिया कि घबडाने के कोई बात नहीं है क्योंकि यह बयान यू पी ए के खिलाफ जनता की नज़र में ऊंचा उठने के लिए दिया गया है . सच्चाई यह है कि जहां तक अमरीका का सवाल है कांग्रेस और बीजेपी की नीतियों में कोई फ़र्क़ नहीं है . उस वक़्त के नई दिल्ली स्थित अमरीकी दूतावास के डिप्टी चीफ आफ मिशन, राबर्ट ब्लेक ने २८ दिसंबर २००५ के दिन अपनी सरकार को भेजे गए सन्देश में साफ़ लिखा है कि २८ दिसंबर को ही उनके साथ एक निजी बातचीत में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य शेषाद्रि चारी ने कहा कि विदेशनीति वाले प्रस्ताव को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है. खासकर वे बातें तो बिलकुल गंभीरता से न ली जायें जहां अमरीका के खिलाफ टिप्पणी की गयी है .उन्होंने यह भी कहा कि भारत में अमरीका विरोध का आम तौर पर माहौल रहता है ,इसलिए जनता को ध्यान में रख कर इस तरह के बयान दिए जाते हैं . इसका मतलब यह है कि बीजेपी वाले भारत की जनता को कुछ कहते हैं लेकिन उनकी मंशा कुछ और रहती है . रिचर्ड ब्लेक ने बीजेपी के इरादों का विश्लेषण भी किया है . उन्होंने अपने सन्देश में लिखा है कि बीजेपी के प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने भी इन स्पष्ट किया कि भारत-अमरीका संबंधों के बारे में बीजेपी को कोई एतराज़ नहीं है . उनका विचार है कि बीजेपी की राजनीतिक लाइन यू पी ए का विरोध करने की है . वैसे बीजेपी के नेताओं को मालूम है कि अमरीका में उनकी इतनी इज़्ज़त है कि अगर वे सार्वजनिक रूप से अमरीका के खिलाफ भी बयान देगें तो अमरीका बुरा नहीं मानेगा. तो यह है बीजेपी की अमरीका विरोध की सच्चाई . ज़ाहिर है इन मामलों के सार्वजनिक होने के बाद देश की जनता बीजेपी की बातों को गंभीरता से नहीं लेगी.
विकीलीक्स के कंधे पर बैठकर मनमोहन सिंह को पैदल करने की बीजेपी की रणनीति उल्टी पड़ गयी है.विकीलीक्स के ज़रिये उजागर हुए नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास के अफसरों की ओर से अमरीकी विदेश विभाग को भेजे गए संदेशों के बाद बीजेपी ने ऐसा तूफ़ान खड़ा किया कि लगता था कि बस अगले कुछ घंटों में ही वे लोग मनमोहन सिंह को लपक लेगें . संघभक्त मीडिया ने भी अपनी भूमिका निभाई . कांग्रेसी सहम भी गए लेकिन बीजेपी के भाग से छींका टूटा नहीं. मनमोहन सिंह ने संसद के दोनों सदनों में बयान दिया कि बीजेपी के हल्ले गुल्ले का कोई मतलब नहीं है . लेकिन बीजेपी वाले विकीलीक्स को अंतिम सत्य मनवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते रहे.. प्रधानमंत्री पद के पूर्व उम्मीदवार सहित बीजेपी के सभी बड़े नेता मनमोहन सिंह से एक इस्तीफे की फ़रियाद करते रहे लेकिन मनमोहन सिंह ने साफ़ मना कर दिया . उन्होंने कहा कि बीजेपी को जनता ने रिजेक्ट करके बहुत अच्छा काम किया है . दुनिया जानती है कि परमाणु बिल को पास करवाने के लिए पैसे के इस्तेमाल के मसले में ऐसा कुछ भी नया नहीं था जिसे विकीलीक्स ने उजागर किया हो . सब को मालूम था कि पैसा चला था और बीजेपी के आला नेता ,लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वीकार भी किया था कि उनकी पार्टी के संसद सदस्यों ने उनसे मंजूरी लेकर कथित रूप से रिश्वत में मिला पैसा लोकसभा में लाकर पेश किया था . जांच भी हुई थी और अन्य लोगों के अलावा लाल कृष्ण आडवाणी के उन दिनों के भक्त, सुधीन्द्र कुलकर्णी की जांच करने का सुझाव भी इस काम के लिए नियुक्त जेपीसी ने दिया था. कांग्रेस के खिलाफ तो जो भी विकीलीक्स में पता चला था,वह दुनिया जानती थी लेकिन द हिन्दू अखबार ने आज जो कुछ बीजेपी के बारे में विकीलीक्स के हवाले से छापा है,वह एक अनहोनी है. लोकसभा चुनाव २००९ के नतीजे आने के ठीक पहले नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास में चार्ज ड अफ़ेयर्स के रूप में तैनात पीटर बरले,१३ मई २००९ को लाल कृष्ण आडवाणी से मिले थे . मुलाक़ात के बाद उसी दिन उन्होंने एक सन्देश अपनी सरकार के पास अमरीका में भेजा था. उस तार में जो कुछ लिखा है अगर उसे सच माना जाय तो बीजेपी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी की छवि बहुत ही धूमिल नज़र आयेगी.. अमरीका बहुत चिंतित था कि २००९ के चुनावों के बाद सत्ता पाने की उम्मीद में बैठी बीजेपी और प्रधान मंत्री हासिल करने के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवाणी अगर सफल हो गए तो अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचेगा . अपने सन्देश में चार्ज ड अफ़ेयर्स ने लिखा है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बहुत ही शांतचित्त बैठे थे . बात चीत के दौरान लाल कृष्ण आडवाणी ने भारत-अमरीका परमाणु संधि के बारे में अपनी पार्टी के सख्त रुख को गंभीरता से न लेने की सलाह दी और भरोसा दिलाया कि अगर बीजेपी सत्ता में आ जाती है तो परमाणु समझौते पर फिर से कोई विचार नहीं किया जाएगा . चार्ज ड अफ़ेयर्स ने इस बात को जोर देकर लिखा है कि श्री आडवाणी ने स्वीकार किया कि बीजेपी ने जुलाई २००८ में सार्वजनिक रूप से कहा था कि समझौते से भारत की सामरिक स्वायत्तता कमज़ोर हुई है और सत्ता में आने पर उनकी पार्टी उस संधि का पुनर्परीक्षण करेगी. चार्ज ड अफ़ेयर्स का दावा है कि लाल कृष्ण आडवाणी ने साफ़ कहा कि वह बयान देश की आन्तरिक राजनीति की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर दिया गया था. सत्ता में आने पर बीजेपी ऐसा कुछ नहीं करेगी. लाल कृष्ण आडवाणी का यह बयान अगर यह सच है तो यह बहुत ही गैरजिम्मेदार राजनीतिक आचरण है . क्योंकि आडवाणी साफ़ साफ़ यह कह रहे हैं कि परमाणु संधि का जो भी विरोध किया गया था, वह पब्लिक के लिए था . ऐसा भी नहीं है कि श्री आडवाणी यह बात यूं ही कह रहे थे . अपने तर्क की गंभीरता को उन्होंने ऐतिहासिक सन्दर्भों से पुष्ट भी किया .उन्होंने कहा कि ऐसा उनकी पार्टी पहले भी कर चुकी है . श्री आडवाणी ने ख़ास तौर से १९७२ के इंदिरा गाँधी और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के बीच हुए शिमला समझौते का उल्लेख किया और कहा कि समझौते के बाद उनकी तत्कालीन पार्टी ( भारतीय जनसंघ ) ने पब्लिक की नज़र में समझौते का विरोध किया था लेकिन जब सत्ता में आई तो उसका पूरी तरह से पालन किया गया .
यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि लाल कृष्ण आडवाणी का बयान उनका कोई निजी बयान नहीं है . वास्तव में वह उनकी पार्टी की नीति पर आधारित बयान है . विकीलीक्स के एक अन्य सन्देश के हवाले से यह बात समझी जा सकती है . बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की एक अहम बैठक २६ और २७ दिसंबर २००५ को मुंबई में हुई थी जहां यू पी ए सरकार की सख्त आलोचना की गई थी और कहा गया था कि उसने ऐसी विदेश नीति अपनाई है जो भारत को अमरीका का गुलाम बना देगी . लेकिन इस प्रस्ताव को पास करने के तुरंत बाद ही बीजेपी के नेताओं ने अमरीकी दूतावास में तैनात अफसरों को बताना शुरू कर दिया कि घबडाने के कोई बात नहीं है क्योंकि यह बयान यू पी ए के खिलाफ जनता की नज़र में ऊंचा उठने के लिए दिया गया है . सच्चाई यह है कि जहां तक अमरीका का सवाल है कांग्रेस और बीजेपी की नीतियों में कोई फ़र्क़ नहीं है . उस वक़्त के नई दिल्ली स्थित अमरीकी दूतावास के डिप्टी चीफ आफ मिशन, राबर्ट ब्लेक ने २८ दिसंबर २००५ के दिन अपनी सरकार को भेजे गए सन्देश में साफ़ लिखा है कि २८ दिसंबर को ही उनके साथ एक निजी बातचीत में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य शेषाद्रि चारी ने कहा कि विदेशनीति वाले प्रस्ताव को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है. खासकर वे बातें तो बिलकुल गंभीरता से न ली जायें जहां अमरीका के खिलाफ टिप्पणी की गयी है .उन्होंने यह भी कहा कि भारत में अमरीका विरोध का आम तौर पर माहौल रहता है ,इसलिए जनता को ध्यान में रख कर इस तरह के बयान दिए जाते हैं . इसका मतलब यह है कि बीजेपी वाले भारत की जनता को कुछ कहते हैं लेकिन उनकी मंशा कुछ और रहती है . रिचर्ड ब्लेक ने बीजेपी के इरादों का विश्लेषण भी किया है . उन्होंने अपने सन्देश में लिखा है कि बीजेपी के प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने भी इन स्पष्ट किया कि भारत-अमरीका संबंधों के बारे में बीजेपी को कोई एतराज़ नहीं है . उनका विचार है कि बीजेपी की राजनीतिक लाइन यू पी ए का विरोध करने की है . वैसे बीजेपी के नेताओं को मालूम है कि अमरीका में उनकी इतनी इज़्ज़त है कि अगर वे सार्वजनिक रूप से अमरीका के खिलाफ भी बयान देगें तो अमरीका बुरा नहीं मानेगा. तो यह है बीजेपी की अमरीका विरोध की सच्चाई . ज़ाहिर है इन मामलों के सार्वजनिक होने के बाद देश की जनता बीजेपी की बातों को गंभीरता से नहीं लेगी.
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शेष नारायण सिंह
Friday, March 25, 2011
पी चिदंबरम को बर्खास्त करने की मांग ,दोनों सदनों में हंगामा
शेष नारायण सिंह
भारत के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने २००९ में नई दिल्ली में तैनात अमरीकी राजदूत को बताया कि अगर पूर्व और उत्तर भारत के लोग भारत का हिस्सा न होते तो भारत एक बहुत ज्यादा विकसित देश होता. भारत के गृहमंत्री का यह बयान हर तरह से निंदा करने लायक है . वैसे भी वे बहुत वर्षों से दिल्ली की काकटेल सर्किट के सदस्य हैं जिसमें अभी तक बिहारी शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है . वे दक्षिण से चुनकर ज़रूर आते हैं लेकिन उन्हें दक्षिण भारतीय नहीं कहा जा सकता . वे दरअसल दिल्ली में रहने वाली उस जाति के सदस्य हैं जिनके पूर्वज या तो अंग्रेजों के चाकर थे, उनके जी हुज़ूर थे या अंग्रेजों के राज में दिल्ली में दलाली वगैरह किया करते थे. पिछले साठ वर्षों में बाकी भारत से जो लोग भी दिल्ली आये उनकी एक बड़ी संख्या के लोग इसी बिरादरी की सदस्यता लेने के लिए व्याकुल रहते रहे हैं . इस वर्ग के लोगों को किसी भी प्रदेश या किसी भी वर्ग का कहना उस वर्ग का अपमान होगा. इनकी बिरादरी बहुत ही छोटी है . इसमें आम तौर पर नई भर्ती नहीं होती. कुछ ऐसे लड़के जो बिहार ,ओडिशा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मूल निवासी होते हैं और आई ए एस या इनकम टैक्स जैसी नौकरियों में सिविल सर्विस परीक्षा पास करके चुन लिए जाते हैं , उनको शादी व्याह के चक्कर में फंसाकर इस काकटेल सर्किट वाले अपने साथ मिला अलेते हैं . बाद में उनके बाल बच्चे भी इसी तरह की ज़िंदगी के आदी हो जाते हैं और वे भी बिहारी शंब्द को बतौर गाली इस्तेमाल करने लगते हैं . दिल्ली शहर में आई ए एस या और नौकरियों में बहुत सारे ऐसे अफसर मिल जायेगें जिनकी शादी बचपन में ही हो गयी थी लेकिन बाद में बड़ी नौकरी में चुन लिए जाने के बाद काकटेल सर्किट वालों ने उन्हें फंसाया और दुबारा शादी करवा दी. उत्तर प्रदेश और बिहार का होने के बावजूद भी इन लोगों की जो औलादें है वे भी इसी दिल्ली की काकटेलजीवी बिरादरी के तरह बात करते पाए जाती हैं .. करीब तीस साल पहले तो यह बीमारी बहुत ही भयानक थी . उस दौर में चिदंबरम की उम्र के लोग यही कोई तीस पैंतीस साल के थे . चिदंबरम का अमरीकी आका को दिया गया बयान उनकी उसी मानसिकता की खुरचन है . इस तरह की बात करने वाले लोग आम तौर पर बिना किसी सोच समझ के ही यह बयान दे देते हैं .उन्हें मालूम नहीं रहता कि दुनिया कितनी बदल गयी है . ऐसे लोग जब पकडे जाते हैं तो कहते हैं कि वह बात तो मैंने निश्चिन्त भाव से की गई किसी बातचीत के दौरान कही थी. इनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि आप जब औपचारिक नहीं होते तो क्या गाली गलौज की भाषा में बात करते हैं . बहरहाल जो बात सबसे ज्यादा संभव लगती है वह यह है कि इस तरह की बातचीत करने वाले किसी बीमारी का शिकार होते हैं और उन्हें मानसिक रोगी मानकर उनकी बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए . चिदंबरम के इस गैरज़िम्मेदार बयान पर उन्हें आज संसद के दोनों ही सदनों में लथेरा गया और सरकार को उनकी वजह से खिसियाहट झेलना पड़ा.
उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को घटिया बताने के पहले इन लोगों को सोचना चाहिए कि इन दो राज्यों का योगदान भारत के राजनीतिक विकास में सबसे ज्यादा है . महात्मा गाँधी भी अंतर राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य नेता बनने के पहले चंपारण गए थे .वे राष्ट्रीय स्तर के नेता तभी बने जब उन्हें इस इलाके ने स्वीकार किया . जवाहलाल नेहरू का योगदान भारत की राजनीति में किसी से कम नहीं है. आज देश की सभी बड़ी संस्थाओं में इस इलाके से आये लोगों की भूमिका कम नहीं है. पी चिदंबरम को यह भी याद रखना चाहिए कि वे जिस सामंती मानसिकता में रहते हैं वह कब की ख़त्म हो चुकी है आज जिन लोगों के समर्थन से कांग्रेस सत्ता में हैं उनके पूर्वज दलाल नहीं थे.अंग्रेजों के जी हुजूर नहीं थे और किसी की दी हुई रोटी को तिरस्कार की नज़र से देखते थे , जिन लालू प्रसाद , मायावती, मुलायम सिंह यादव की पार्टियों के कृपा से आज पी चिदंबरम गृह मंत्री हैं , उन लोगों के पूर्वज अपनी मेहनत की कमाई खाते थे और दिल्ली के दलालों के पूर्वज उनके पूर्वजों का शोषण करते थे . इसलिए किसी तरह की गैरजिम्मेदार बात करने के पहले उन्हें अपने इन नए अन्न दाताओं के गुस्से का ध्यान कर लेना चाहिए . अगर चिदंबरम जैसे लोगों को यह औकात बोध रहे तो आने वाले वक़्त में कांग्रेस भी आराम से रहेगी और पी चिदंबरम की बर्खास्तगी की मांग भी नहीं होगी.
भारत के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने २००९ में नई दिल्ली में तैनात अमरीकी राजदूत को बताया कि अगर पूर्व और उत्तर भारत के लोग भारत का हिस्सा न होते तो भारत एक बहुत ज्यादा विकसित देश होता. भारत के गृहमंत्री का यह बयान हर तरह से निंदा करने लायक है . वैसे भी वे बहुत वर्षों से दिल्ली की काकटेल सर्किट के सदस्य हैं जिसमें अभी तक बिहारी शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है . वे दक्षिण से चुनकर ज़रूर आते हैं लेकिन उन्हें दक्षिण भारतीय नहीं कहा जा सकता . वे दरअसल दिल्ली में रहने वाली उस जाति के सदस्य हैं जिनके पूर्वज या तो अंग्रेजों के चाकर थे, उनके जी हुज़ूर थे या अंग्रेजों के राज में दिल्ली में दलाली वगैरह किया करते थे. पिछले साठ वर्षों में बाकी भारत से जो लोग भी दिल्ली आये उनकी एक बड़ी संख्या के लोग इसी बिरादरी की सदस्यता लेने के लिए व्याकुल रहते रहे हैं . इस वर्ग के लोगों को किसी भी प्रदेश या किसी भी वर्ग का कहना उस वर्ग का अपमान होगा. इनकी बिरादरी बहुत ही छोटी है . इसमें आम तौर पर नई भर्ती नहीं होती. कुछ ऐसे लड़के जो बिहार ,ओडिशा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मूल निवासी होते हैं और आई ए एस या इनकम टैक्स जैसी नौकरियों में सिविल सर्विस परीक्षा पास करके चुन लिए जाते हैं , उनको शादी व्याह के चक्कर में फंसाकर इस काकटेल सर्किट वाले अपने साथ मिला अलेते हैं . बाद में उनके बाल बच्चे भी इसी तरह की ज़िंदगी के आदी हो जाते हैं और वे भी बिहारी शंब्द को बतौर गाली इस्तेमाल करने लगते हैं . दिल्ली शहर में आई ए एस या और नौकरियों में बहुत सारे ऐसे अफसर मिल जायेगें जिनकी शादी बचपन में ही हो गयी थी लेकिन बाद में बड़ी नौकरी में चुन लिए जाने के बाद काकटेल सर्किट वालों ने उन्हें फंसाया और दुबारा शादी करवा दी. उत्तर प्रदेश और बिहार का होने के बावजूद भी इन लोगों की जो औलादें है वे भी इसी दिल्ली की काकटेलजीवी बिरादरी के तरह बात करते पाए जाती हैं .. करीब तीस साल पहले तो यह बीमारी बहुत ही भयानक थी . उस दौर में चिदंबरम की उम्र के लोग यही कोई तीस पैंतीस साल के थे . चिदंबरम का अमरीकी आका को दिया गया बयान उनकी उसी मानसिकता की खुरचन है . इस तरह की बात करने वाले लोग आम तौर पर बिना किसी सोच समझ के ही यह बयान दे देते हैं .उन्हें मालूम नहीं रहता कि दुनिया कितनी बदल गयी है . ऐसे लोग जब पकडे जाते हैं तो कहते हैं कि वह बात तो मैंने निश्चिन्त भाव से की गई किसी बातचीत के दौरान कही थी. इनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि आप जब औपचारिक नहीं होते तो क्या गाली गलौज की भाषा में बात करते हैं . बहरहाल जो बात सबसे ज्यादा संभव लगती है वह यह है कि इस तरह की बातचीत करने वाले किसी बीमारी का शिकार होते हैं और उन्हें मानसिक रोगी मानकर उनकी बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए . चिदंबरम के इस गैरज़िम्मेदार बयान पर उन्हें आज संसद के दोनों ही सदनों में लथेरा गया और सरकार को उनकी वजह से खिसियाहट झेलना पड़ा.
उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को घटिया बताने के पहले इन लोगों को सोचना चाहिए कि इन दो राज्यों का योगदान भारत के राजनीतिक विकास में सबसे ज्यादा है . महात्मा गाँधी भी अंतर राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य नेता बनने के पहले चंपारण गए थे .वे राष्ट्रीय स्तर के नेता तभी बने जब उन्हें इस इलाके ने स्वीकार किया . जवाहलाल नेहरू का योगदान भारत की राजनीति में किसी से कम नहीं है. आज देश की सभी बड़ी संस्थाओं में इस इलाके से आये लोगों की भूमिका कम नहीं है. पी चिदंबरम को यह भी याद रखना चाहिए कि वे जिस सामंती मानसिकता में रहते हैं वह कब की ख़त्म हो चुकी है आज जिन लोगों के समर्थन से कांग्रेस सत्ता में हैं उनके पूर्वज दलाल नहीं थे.अंग्रेजों के जी हुजूर नहीं थे और किसी की दी हुई रोटी को तिरस्कार की नज़र से देखते थे , जिन लालू प्रसाद , मायावती, मुलायम सिंह यादव की पार्टियों के कृपा से आज पी चिदंबरम गृह मंत्री हैं , उन लोगों के पूर्वज अपनी मेहनत की कमाई खाते थे और दिल्ली के दलालों के पूर्वज उनके पूर्वजों का शोषण करते थे . इसलिए किसी तरह की गैरजिम्मेदार बात करने के पहले उन्हें अपने इन नए अन्न दाताओं के गुस्से का ध्यान कर लेना चाहिए . अगर चिदंबरम जैसे लोगों को यह औकात बोध रहे तो आने वाले वक़्त में कांग्रेस भी आराम से रहेगी और पी चिदंबरम की बर्खास्तगी की मांग भी नहीं होगी.
Thursday, March 24, 2011
मोरारजी देसाई की पुरातनपंथी सोच से निराश होकर वंचित तबकों ने अपने मंच बनाया
शेष नारायण सिंह
आज से ठीक ३४ साल पहले २४ मार्च १९७७ के दिन मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी.कांग्रेस की स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता ने फैसला सुना दिया था .अजीब इत्तफाक है कि देश के राजनीतिक इतिहास में इतने बड़े परिवर्तन के बाद सत्ता के शीर्ष पर जो आदमी स्थापित किया गया वह पूरी तरह से परिवर्तन का विरोधी था. मोरारजी देसाई तो इंदिरा गाँधी की कसौटी पर भी दकियानूसी विचारधारा के राजनेता थे लेकिन इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की सत्ता से मुक्ति की अभिलाषा ही आम आदमी का लक्ष्य बन चुकी थी इसलिए जो भी मिला उसे स्वीकार कर लिया . कांग्रेस के खिलाफ जनता इतने बड़े पैमाने पर हो गयी थी कि जो भी कांग्रेस के खिलाफ खड़ा हुआ उसको ही नेता मान लिया . कांग्रेस को हराने के बाद जिस जनता पार्टी के नेता के रूप में मोरार्जी देसाई ने सत्ता संभाली थी , चुनाव के दौरान उसका गठन तक नहीं हुआ था. सत्ता मिल जाने के बाद औपचारिक रूप से पहली मई १९७७ के दिन जनता पार्टी का गठन किया गया
कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की फौरी कारण तो इमरजेंसी की ज्यादतियां थीं .इमरजेंसी में तानाशाही निजाम कायम करके इंदिरा गाँधी ने अपने एक बेरोजगार बेटे को सत्ता थमाने की कोशिश की थी . वह लड़का भी क्या था. दिल्ली में कुछ लफंगा टाइप लोगों से उसने दोस्ती कर रखी थी और इंदिरा गाँधी के शासन काल के में वह पूरी तरह से मनमानी कर रहा था . इमरजेंसी लागू होने के बाद तो वह और भी बेकाबू हो गया . कुछ चापलूस टाइप नेताओं और अफसरों को काबू में करके उसने पूरे देश में मनमानी का राज कायम कर रखा था. इमरजेंसी लगने के पहले तक आमतौर पर माना जाता था कि कांग्रेस पार्टी मुसलमानों और दलितों की भलाई के लिए काम करती थी .हालांकि यह सच्चाई नहीं थी क्योंकि इन वर्गों को बेवक़ूफ़ बनाकर सत्ता में बने रहने का यह एक बहाना मात्र था . इमरजेंसी में दलितों और मुसलमानों के प्रति कांग्रेस का असली रुख सामने आ गया . दोनों ही वर्गों पर खूब अत्याचार हुए . देहरादून के दून स्कूल में कुछ साल बिता चुके इंदिरा गाँधी के उसी बिगडैल बेटे ने पुराने राजा महराजाओं के बेटों को कांग्रेस की मुख्य धारा में ला दिया था जिसकी वजह से कांग्रेस का पुराना स्वरुप पूरी तरह से बदल दिया गया था . अब कांग्रेस ऐलानियाँ सामंतों और उच्च वर्गों की पार्टी बन चुकी थी. ऐसी हालत में दलितों और मुसलमानों ने उत्तर भारत में कांग्रेस से किनारा कर लिया . नतीजा दुनिया जानती है . कांग्रेस उत्तर भारत में पूरी तरह से हार गयी और केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार स्थापित हुई .लेकिन सत्ता में आने के पहले ही कांग्रेस के खिलाफ जीत कर आई पार्टियों ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता का परिचय दे दिया . जनता पार्टी की जीत के बाद जो नेता चुनाव जीतकर आये उनमें सबसे बुलंद व्यक्तित्व , बाबू जगजीवन राम का था . आम तौर पर माना जा रहा था कि प्रधान मंत्री पद पर उनको ही बैठाया जाएगा लेकिन जयप्रकाश नारायण के साथ कई दौर की बैठकों के बाद यह तय हो गया कि जगजीवन राम को जनता पार्टी ने किनारे कर दिया है, जो सीट उन्हें मिलनी चाहिए थी वह यथास्थितिवादी राजनेता मोरारजी देसाई को दी गयी . इसे उस वक़्त के प्रगतिशील वर्गों ने धोखा माना था . आम तौर पर माना जा रहा था कि एक दलित और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को प्रधानमंत्री पद पर देख कर सामाजिक परिवर्तन की शक्तियां और सक्रिय हो जायेगीं . जिसका नतीजा यह होता कि सामाजिक परिवर्तन का तूफ़ान चल पड़ता और राजनीतिक आज़ादी का वास्तविक लक्ष्य हासिल कर लिया गया होता . जिन लोगों ने इमरजेंसी के दौरान देश की राजनीतिक स्थिति देखी है उन्हें मालूम है कि बाबू जगजीवन राम के शामिल होने के पहले सभी गैर कांग्रेसी नेता मानकर चल रहे थे कि समय से पहले चुनाव की घोषणा इंदिरा गाँधी ने इस लिए की थी कि उन्हें अपनी जीत का पूरा भरोसा था. विपक्ष की मौजूदगी कहीं थी ही नहीं .जेलों से जो नेता छूट कर आ रहे थे ,वे आराम की बात ही कर रहे थे. ,सबकी हिम्मत खस्ता थी लेकिन ६ फरवरी १९७७ के दिन सब कुछ बदल गया . जब इंदिरा गाँधी की सरकार के मंत्री बाबू जगजीवन राम ने बगावत कर दी . सरकार से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना डाली उनके साथ हेमवती नन्दन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी भी थे . उसके बाद तो राजनीतिक तूफ़ान आ गया . इंदिरा गाँधी के खिलाफ आंधी चलने लगी और वे रायबरेली से खुद चुनाव हार गयीं . सबको मालूम था कि १९७७ के चुनाव में दलितों ने पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया लेकिन जब बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री बनाने की बात आई तो सबने कहना शुरू कर दिया कि अभी देश एक दलित को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है .मीडिया में भी ऐसे ही लोगों का वर्चस्व था जो यही बात करते रहते थे . और इस तरह एक बड़ी संभावित क्रान्ति को कुचल दिया गया . जनाकांक्षाओं पर मोरारजी देसाई का यथास्थितिवादी बुलडोज़र चल गया . उसके बाद शासक वर्गों के हितों के रक्षक जनहित की बातें भूल कर अपने हितों की साधना में लग गए . जनता पार्टी में आर एस एस के लोग भी भारी संख्या में मौजूद थे . ज़ाहिर है उनकी ज़्यादातर नीतियों का मकसद सामंती सोच वाली सत्ता को स्थापित करना था. जिसकी वजह से जनता पार्टी राजनीतिक विरोधाभासों का पुलिंदा बन गयी और इंदिरा गाँधी की राजनीतिक कुशलता के सामने धराशायी हो गयी . जो सरकार पांच साल के लिए बनाई गयी थी वह दो साल में ही तहस नहस हो गयी .
लेकिन जनता पार्टी की दलित और मुसलमान विरोधी मानसिकता को एक भावी राजनीतिक विचारक ने भांप लिया था. और इन वर्गों को एकजुट करने के काम में जुट गए थे. १९७१ में ही वंचितों के हक के सबसे बड़े पैरोकार, कांशीराम ने दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों के हित के लिए काम करना शुरू कर दिया था. सवर्णों के प्रभाव वाली राजनीतिक पार्टियों से किसी को कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन जनता पार्टी का जो जनादेश था ,उस से उम्मीद बंधी थी कि शायद उसकी सरकार आम आदमी की पक्षधर सरकार के रूप में काम करे . लेकिन जब उसकी कोई उम्मीद नहीं रह गयी तो डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वन दिवस,६ दिसंबर के दिन १९७८ में दिल्ली के बोट क्लब पर दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक कर्मचारियों के फेडरेशन का बहुत ही जोर शोर से आयोजन किया गया . बनाया . बामसेफ नाम का यह संगठन वंचित तबक़ों के कर्मचारियों में बहुत ही लोकप्रिय हो गया था . शुरू में तो यह इन वर्गों के कर्मचारियों के शोषण के खिलाफ एक मोर्चे के रूप में काम करता रहा लेकिन बाद में इसी संगठन के अगले क़दम के रूप में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डी एस फोर नाम के संगठन की स्थापना की गई. इस तरह जनता पार्टी के जन्म से जो उम्मीद बंधी उसके निराशा में बदल जाने के बाद दलितों के अधिकारों के संघर्ष का यह मंच सामाजिक बराबरी के इतिहास में मील का एक पत्थर बना. जनता पार्टी जब यथास्थिवाद की बलि चढ़ गयी तो कांशी राम ने सामाजिक बराबरी और वंचित वर्गों के हितों के संगर्ष के लिए एक राजनीतिक मंच की स्थापना की और उसे बहुजन समाज पार्टी का नाम दिया . बाद में यही पार्टी पूरे देश में पुरातनपंथी राजनीतिक और समाजिक् सोच को चुनौती देने के एक मंच में रूप में स्थापित हो गयी. इस तरह हम देखते हैं कि हालांकि मोरारजी देसाई का आज से ठीक ३४ साल पहले सत्ता पर काबिज़ होना देश के राजनीतिक इतिहास में एक कामा की होसियत भी नहीं रखता लेकिन उनका सत्ता में आना सामाजिक बराबरी के संघर्ष के इतिहास में एक अहम मुकाम रखता है
आज से ठीक ३४ साल पहले २४ मार्च १९७७ के दिन मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी.कांग्रेस की स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता ने फैसला सुना दिया था .अजीब इत्तफाक है कि देश के राजनीतिक इतिहास में इतने बड़े परिवर्तन के बाद सत्ता के शीर्ष पर जो आदमी स्थापित किया गया वह पूरी तरह से परिवर्तन का विरोधी था. मोरारजी देसाई तो इंदिरा गाँधी की कसौटी पर भी दकियानूसी विचारधारा के राजनेता थे लेकिन इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की सत्ता से मुक्ति की अभिलाषा ही आम आदमी का लक्ष्य बन चुकी थी इसलिए जो भी मिला उसे स्वीकार कर लिया . कांग्रेस के खिलाफ जनता इतने बड़े पैमाने पर हो गयी थी कि जो भी कांग्रेस के खिलाफ खड़ा हुआ उसको ही नेता मान लिया . कांग्रेस को हराने के बाद जिस जनता पार्टी के नेता के रूप में मोरार्जी देसाई ने सत्ता संभाली थी , चुनाव के दौरान उसका गठन तक नहीं हुआ था. सत्ता मिल जाने के बाद औपचारिक रूप से पहली मई १९७७ के दिन जनता पार्टी का गठन किया गया
कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की फौरी कारण तो इमरजेंसी की ज्यादतियां थीं .इमरजेंसी में तानाशाही निजाम कायम करके इंदिरा गाँधी ने अपने एक बेरोजगार बेटे को सत्ता थमाने की कोशिश की थी . वह लड़का भी क्या था. दिल्ली में कुछ लफंगा टाइप लोगों से उसने दोस्ती कर रखी थी और इंदिरा गाँधी के शासन काल के में वह पूरी तरह से मनमानी कर रहा था . इमरजेंसी लागू होने के बाद तो वह और भी बेकाबू हो गया . कुछ चापलूस टाइप नेताओं और अफसरों को काबू में करके उसने पूरे देश में मनमानी का राज कायम कर रखा था. इमरजेंसी लगने के पहले तक आमतौर पर माना जाता था कि कांग्रेस पार्टी मुसलमानों और दलितों की भलाई के लिए काम करती थी .हालांकि यह सच्चाई नहीं थी क्योंकि इन वर्गों को बेवक़ूफ़ बनाकर सत्ता में बने रहने का यह एक बहाना मात्र था . इमरजेंसी में दलितों और मुसलमानों के प्रति कांग्रेस का असली रुख सामने आ गया . दोनों ही वर्गों पर खूब अत्याचार हुए . देहरादून के दून स्कूल में कुछ साल बिता चुके इंदिरा गाँधी के उसी बिगडैल बेटे ने पुराने राजा महराजाओं के बेटों को कांग्रेस की मुख्य धारा में ला दिया था जिसकी वजह से कांग्रेस का पुराना स्वरुप पूरी तरह से बदल दिया गया था . अब कांग्रेस ऐलानियाँ सामंतों और उच्च वर्गों की पार्टी बन चुकी थी. ऐसी हालत में दलितों और मुसलमानों ने उत्तर भारत में कांग्रेस से किनारा कर लिया . नतीजा दुनिया जानती है . कांग्रेस उत्तर भारत में पूरी तरह से हार गयी और केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार स्थापित हुई .लेकिन सत्ता में आने के पहले ही कांग्रेस के खिलाफ जीत कर आई पार्टियों ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता का परिचय दे दिया . जनता पार्टी की जीत के बाद जो नेता चुनाव जीतकर आये उनमें सबसे बुलंद व्यक्तित्व , बाबू जगजीवन राम का था . आम तौर पर माना जा रहा था कि प्रधान मंत्री पद पर उनको ही बैठाया जाएगा लेकिन जयप्रकाश नारायण के साथ कई दौर की बैठकों के बाद यह तय हो गया कि जगजीवन राम को जनता पार्टी ने किनारे कर दिया है, जो सीट उन्हें मिलनी चाहिए थी वह यथास्थितिवादी राजनेता मोरारजी देसाई को दी गयी . इसे उस वक़्त के प्रगतिशील वर्गों ने धोखा माना था . आम तौर पर माना जा रहा था कि एक दलित और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को प्रधानमंत्री पद पर देख कर सामाजिक परिवर्तन की शक्तियां और सक्रिय हो जायेगीं . जिसका नतीजा यह होता कि सामाजिक परिवर्तन का तूफ़ान चल पड़ता और राजनीतिक आज़ादी का वास्तविक लक्ष्य हासिल कर लिया गया होता . जिन लोगों ने इमरजेंसी के दौरान देश की राजनीतिक स्थिति देखी है उन्हें मालूम है कि बाबू जगजीवन राम के शामिल होने के पहले सभी गैर कांग्रेसी नेता मानकर चल रहे थे कि समय से पहले चुनाव की घोषणा इंदिरा गाँधी ने इस लिए की थी कि उन्हें अपनी जीत का पूरा भरोसा था. विपक्ष की मौजूदगी कहीं थी ही नहीं .जेलों से जो नेता छूट कर आ रहे थे ,वे आराम की बात ही कर रहे थे. ,सबकी हिम्मत खस्ता थी लेकिन ६ फरवरी १९७७ के दिन सब कुछ बदल गया . जब इंदिरा गाँधी की सरकार के मंत्री बाबू जगजीवन राम ने बगावत कर दी . सरकार से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना डाली उनके साथ हेमवती नन्दन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी भी थे . उसके बाद तो राजनीतिक तूफ़ान आ गया . इंदिरा गाँधी के खिलाफ आंधी चलने लगी और वे रायबरेली से खुद चुनाव हार गयीं . सबको मालूम था कि १९७७ के चुनाव में दलितों ने पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया लेकिन जब बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री बनाने की बात आई तो सबने कहना शुरू कर दिया कि अभी देश एक दलित को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है .मीडिया में भी ऐसे ही लोगों का वर्चस्व था जो यही बात करते रहते थे . और इस तरह एक बड़ी संभावित क्रान्ति को कुचल दिया गया . जनाकांक्षाओं पर मोरारजी देसाई का यथास्थितिवादी बुलडोज़र चल गया . उसके बाद शासक वर्गों के हितों के रक्षक जनहित की बातें भूल कर अपने हितों की साधना में लग गए . जनता पार्टी में आर एस एस के लोग भी भारी संख्या में मौजूद थे . ज़ाहिर है उनकी ज़्यादातर नीतियों का मकसद सामंती सोच वाली सत्ता को स्थापित करना था. जिसकी वजह से जनता पार्टी राजनीतिक विरोधाभासों का पुलिंदा बन गयी और इंदिरा गाँधी की राजनीतिक कुशलता के सामने धराशायी हो गयी . जो सरकार पांच साल के लिए बनाई गयी थी वह दो साल में ही तहस नहस हो गयी .
लेकिन जनता पार्टी की दलित और मुसलमान विरोधी मानसिकता को एक भावी राजनीतिक विचारक ने भांप लिया था. और इन वर्गों को एकजुट करने के काम में जुट गए थे. १९७१ में ही वंचितों के हक के सबसे बड़े पैरोकार, कांशीराम ने दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों के हित के लिए काम करना शुरू कर दिया था. सवर्णों के प्रभाव वाली राजनीतिक पार्टियों से किसी को कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन जनता पार्टी का जो जनादेश था ,उस से उम्मीद बंधी थी कि शायद उसकी सरकार आम आदमी की पक्षधर सरकार के रूप में काम करे . लेकिन जब उसकी कोई उम्मीद नहीं रह गयी तो डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वन दिवस,६ दिसंबर के दिन १९७८ में दिल्ली के बोट क्लब पर दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक कर्मचारियों के फेडरेशन का बहुत ही जोर शोर से आयोजन किया गया . बनाया . बामसेफ नाम का यह संगठन वंचित तबक़ों के कर्मचारियों में बहुत ही लोकप्रिय हो गया था . शुरू में तो यह इन वर्गों के कर्मचारियों के शोषण के खिलाफ एक मोर्चे के रूप में काम करता रहा लेकिन बाद में इसी संगठन के अगले क़दम के रूप में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डी एस फोर नाम के संगठन की स्थापना की गई. इस तरह जनता पार्टी के जन्म से जो उम्मीद बंधी उसके निराशा में बदल जाने के बाद दलितों के अधिकारों के संघर्ष का यह मंच सामाजिक बराबरी के इतिहास में मील का एक पत्थर बना. जनता पार्टी जब यथास्थिवाद की बलि चढ़ गयी तो कांशी राम ने सामाजिक बराबरी और वंचित वर्गों के हितों के संगर्ष के लिए एक राजनीतिक मंच की स्थापना की और उसे बहुजन समाज पार्टी का नाम दिया . बाद में यही पार्टी पूरे देश में पुरातनपंथी राजनीतिक और समाजिक् सोच को चुनौती देने के एक मंच में रूप में स्थापित हो गयी. इस तरह हम देखते हैं कि हालांकि मोरारजी देसाई का आज से ठीक ३४ साल पहले सत्ता पर काबिज़ होना देश के राजनीतिक इतिहास में एक कामा की होसियत भी नहीं रखता लेकिन उनका सत्ता में आना सामाजिक बराबरी के संघर्ष के इतिहास में एक अहम मुकाम रखता है
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शेष नारायण सिंह
Monday, March 21, 2011
बाप के पाग न लागल दाग , न माई के दाग लगा अंचरे में
शेष नारायण सिंह
( आलोक तोमर की याद २१ मार्च २०११ )
आलोक तोमर की अंत्येष्टि से लौटा हूँ.मन बहुत ही खिन्न है .आलोक की कलम की ताक़त का लोहा मानने वालों का नाम दिमाग में घूम रहा है . अटल बिहारी वाजपेयी का नाम सबसे पहले मन में आया . अटल जी आलोक के फैन थे. जब मुझे पता चला कि आलोक के लेखन को अटल बिहारी वाजपेयी बहुत पसंद करते हैं तो बहुत उत्सुक हुआ . आलोक तोमर को फिर से पढने की इच्छा हुई . पढ़ा भी . १९६७ में मैं भी अटल बिहारी वाजपेयी का प्रशंसक था . सही बात यह है कि हाई स्कूल के छात्र के रूप में मैंने उनको भाषण करते देखा था . और उनकी शैली को नक़ल करने की कोशिश की थी . बाद में उसी शैली की कृपा से अपने विश्वविद्यालय में एक वक्ता के रूप में नाम मिला. वजीफा मिला और पढाई हो सकी. ज़ाहिर है जिस को भी अटल बिहारी वाजपेयी पसंद कर रहे होगें,उसके बारे में मेरी राय निश्चित रूप से पाजिटिव होगी. उसके बाद से मैंने आलोक तोमर को नियमित रूप से पढ़ना शुरू कर दिया . बाद में पता लगा कि अमिताभ बच्चन ने ज़िंदगी भर में जो सबसे अच्छे गैर फ़िल्मी डायलाग बोले हैं , उनको भी आलोक तोमर ने लिखा था . अमिताभ के बेस्ट फ़िल्मी डायलाग तो खैर जावेद अख्तर ने लिखे थे , ज़ंजीर में भी और शोले में भी . प्रभाष जोशी ने निजी बातचीत में बार बार आलोक तोमर की तारीफ की थी .लिखा भी . प्रभाष जी की मृत्यु के बाद जब कुछ लोगों ने उनकी चावी के भंजन का अभियान चलाया तो आलोक ने अकेले सबसे लोहा लिया .प्रभाष जी के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करने वालों को बाकायदा धमकाया लेकिन मैदान नहीं छोड़ा .
बहुत सारी यादें हैं . लेकिन आज जो कुछ देख कर आया हूँ ,उसके बाद हिम्मत हार गया हूँ .. लोदी रोड की श्मसान भूमि में आलोक तोमर के पिता जी को देख कर बहुत तकलीफ हुई . अपना जवान बेटा अगर इंसान के सामने ही गुज़र जाए तो उस से बड़ा कष्ट हो ही नहीं सकता . कुंवर सिंह महाकाव्य की वह पंक्ति याद आ गयी जब बेटे के शहीद होने का वर्णन किया गया है
.
. पूत जुझाइ के देस बदे, बुढ़िया-बुढ़वा जहँ बैठल होइहें . जेकर कान्ह कुंआर जुझे उजरी मथुरा अब कौन बसईहें
आज जब मैंने आलोक की बच्ची को उनका अंतिम संस्कार करते देखा तो सिहर गया . जब वह बच्ची घड़े में जल लेकर आलोक के पार्थिव शरीर के चारों ओर परिक्रमा कर रही थी तो लगा कि पक्षाघात हो गया है मुझे. अंतिम क्षणों के अनुष्टान के दौरान जब उनकी पत्नी ने कहा कि आलोक उठ जाओ , तो लगा कि अगर जीवित होते तो अपनी मित्र और पत्नी की बात को ज़रूर पूरा करते. आलोक के बारे में सभी जानते हैं कि वे जिसके भी मित्र थे ,पूरी तरह उसके साथ रहते थे. मुंबई की फ़िल्मी दुनिया के कलाकार ,ओम पुरी आलोक के मित्र थे . जब अपने किसी आचरण की वजह से ओम जी की बहुत बदनामी हुई ,तो भी आलोक उनके साथ रहे , दिलासा दिया और कोशिश की कि उनका कम से कम नुकसान हो .
आलोक के कैंसर के बारे में सबसे पहले मुझे यशवंत सिंह ने बताया था . यशवंत सिंह से आलोक का परिचय ताज़ा था,पुराना नहीं था ,लेकिन वे यशवंत के पक्ष में हमेशा खड़े रहे . मेरे मित्र प्रदीप सिंह और आलोक तोमर ने साथ काम किया था . आलोक तोमर के बारे में कभी कोई सेमिनारनुमा चर्चा तो नहीं हुई लेकिन पिछले बीस-बाईस वर्षों में प्रदीप ने इतनी अच्छी बातें की हैं वे सारी याद आ रही हैं. विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री बनवाने में मीडिया की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता . उसमें प्रभाष जोशी और जनसत्ता की भी अहम भूमिका थी. आलोक उस टीम के प्रमुख नायक थे . लेकिन जब वी पी सिंह ने उलटे सीधे काम करने शुरू कर दिए तो आलोक ने सबसे पहले लाठी उठायी और फिर तो वी पी सिंह के पतन की पटकथा लिखने का काम शुरू हो गया. अटल जी के करीबी होने के बावजूद जब भी उनकी पार्टी ने कोई गैर ज़िम्मेदार काम किया,आलोक ने उसका पत्रकारीय विश्लेषण ज़रूर किया.
आलोक तोमर को अंतिम विदाई देने गए लोगों में मालवा से आये हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार रवीन्द्र शाह भी थे .जब मैंने बात चीत के दौरान कहा कि अगर आलोक पचास साल में चले गए तो मैं तो ओवरड्यू हो गया हूँ . रवीन्द्र ने कहा कि ऐसा नहीं है . सभी पत्रकारों की शारीरिक उम्र और संघर्ष की उम्र फिक्स रहती है. हम लोगों ने उतना संघर्ष नहीं किया है जितना आलोक तोमर ने किया . उन्होंने कभी भी किसी लड़ाई को टाला नहीं , फ़ौरन निपटा देने में विश्वास करते रहे . इस तरह उनका पूरा जीवन ही संघर्ष को समर्पित था . हम लोग अभी उतना संघर्ष नहीं कर सके हैं ,इसलिए हमारी उम्र अभी बची हुई है . आलोक की संघर्ष और जीवन की उम्र बराबर ही थी . अलविदा आलोक . हम उम्मीद करते हैं कि तुम्हारी पत्नी जो तुम्हारी सबसे करीबी दोस्त भी हैं , अपने को संभाल सकें . हम दुआ करते हैं कि तुम्हारी बेटी भी उतनी ही मज़बूत बने जितने तुम थे .तुम्हारे माता पिता को पता नहीं किस जन्म की गलती के लिए सज़ा मिली है . उन्हने इतनी ताक़त मिले कि एक बहादुर बेटे के मान बाप के रूप में बाकी ज़िन्दगी बिता सकें . मैं तो बहुत मामूली आदमी हूँ लेकिन अगर डेटलाइन इंडिया जारी रहा तो जो कुछ भी लिखूंगा डेटलाइन इंडिया में ज़रूर भेजूंगा, चाहे किसी काम का हो या न हो. अलविदा एक बहादुर पत्रकार
( आलोक तोमर की याद २१ मार्च २०११ )
आलोक तोमर की अंत्येष्टि से लौटा हूँ.मन बहुत ही खिन्न है .आलोक की कलम की ताक़त का लोहा मानने वालों का नाम दिमाग में घूम रहा है . अटल बिहारी वाजपेयी का नाम सबसे पहले मन में आया . अटल जी आलोक के फैन थे. जब मुझे पता चला कि आलोक के लेखन को अटल बिहारी वाजपेयी बहुत पसंद करते हैं तो बहुत उत्सुक हुआ . आलोक तोमर को फिर से पढने की इच्छा हुई . पढ़ा भी . १९६७ में मैं भी अटल बिहारी वाजपेयी का प्रशंसक था . सही बात यह है कि हाई स्कूल के छात्र के रूप में मैंने उनको भाषण करते देखा था . और उनकी शैली को नक़ल करने की कोशिश की थी . बाद में उसी शैली की कृपा से अपने विश्वविद्यालय में एक वक्ता के रूप में नाम मिला. वजीफा मिला और पढाई हो सकी. ज़ाहिर है जिस को भी अटल बिहारी वाजपेयी पसंद कर रहे होगें,उसके बारे में मेरी राय निश्चित रूप से पाजिटिव होगी. उसके बाद से मैंने आलोक तोमर को नियमित रूप से पढ़ना शुरू कर दिया . बाद में पता लगा कि अमिताभ बच्चन ने ज़िंदगी भर में जो सबसे अच्छे गैर फ़िल्मी डायलाग बोले हैं , उनको भी आलोक तोमर ने लिखा था . अमिताभ के बेस्ट फ़िल्मी डायलाग तो खैर जावेद अख्तर ने लिखे थे , ज़ंजीर में भी और शोले में भी . प्रभाष जोशी ने निजी बातचीत में बार बार आलोक तोमर की तारीफ की थी .लिखा भी . प्रभाष जी की मृत्यु के बाद जब कुछ लोगों ने उनकी चावी के भंजन का अभियान चलाया तो आलोक ने अकेले सबसे लोहा लिया .प्रभाष जी के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करने वालों को बाकायदा धमकाया लेकिन मैदान नहीं छोड़ा .
बहुत सारी यादें हैं . लेकिन आज जो कुछ देख कर आया हूँ ,उसके बाद हिम्मत हार गया हूँ .. लोदी रोड की श्मसान भूमि में आलोक तोमर के पिता जी को देख कर बहुत तकलीफ हुई . अपना जवान बेटा अगर इंसान के सामने ही गुज़र जाए तो उस से बड़ा कष्ट हो ही नहीं सकता . कुंवर सिंह महाकाव्य की वह पंक्ति याद आ गयी जब बेटे के शहीद होने का वर्णन किया गया है
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. पूत जुझाइ के देस बदे, बुढ़िया-बुढ़वा जहँ बैठल होइहें . जेकर कान्ह कुंआर जुझे उजरी मथुरा अब कौन बसईहें
आज जब मैंने आलोक की बच्ची को उनका अंतिम संस्कार करते देखा तो सिहर गया . जब वह बच्ची घड़े में जल लेकर आलोक के पार्थिव शरीर के चारों ओर परिक्रमा कर रही थी तो लगा कि पक्षाघात हो गया है मुझे. अंतिम क्षणों के अनुष्टान के दौरान जब उनकी पत्नी ने कहा कि आलोक उठ जाओ , तो लगा कि अगर जीवित होते तो अपनी मित्र और पत्नी की बात को ज़रूर पूरा करते. आलोक के बारे में सभी जानते हैं कि वे जिसके भी मित्र थे ,पूरी तरह उसके साथ रहते थे. मुंबई की फ़िल्मी दुनिया के कलाकार ,ओम पुरी आलोक के मित्र थे . जब अपने किसी आचरण की वजह से ओम जी की बहुत बदनामी हुई ,तो भी आलोक उनके साथ रहे , दिलासा दिया और कोशिश की कि उनका कम से कम नुकसान हो .
आलोक के कैंसर के बारे में सबसे पहले मुझे यशवंत सिंह ने बताया था . यशवंत सिंह से आलोक का परिचय ताज़ा था,पुराना नहीं था ,लेकिन वे यशवंत के पक्ष में हमेशा खड़े रहे . मेरे मित्र प्रदीप सिंह और आलोक तोमर ने साथ काम किया था . आलोक तोमर के बारे में कभी कोई सेमिनारनुमा चर्चा तो नहीं हुई लेकिन पिछले बीस-बाईस वर्षों में प्रदीप ने इतनी अच्छी बातें की हैं वे सारी याद आ रही हैं. विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री बनवाने में मीडिया की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता . उसमें प्रभाष जोशी और जनसत्ता की भी अहम भूमिका थी. आलोक उस टीम के प्रमुख नायक थे . लेकिन जब वी पी सिंह ने उलटे सीधे काम करने शुरू कर दिए तो आलोक ने सबसे पहले लाठी उठायी और फिर तो वी पी सिंह के पतन की पटकथा लिखने का काम शुरू हो गया. अटल जी के करीबी होने के बावजूद जब भी उनकी पार्टी ने कोई गैर ज़िम्मेदार काम किया,आलोक ने उसका पत्रकारीय विश्लेषण ज़रूर किया.
आलोक तोमर को अंतिम विदाई देने गए लोगों में मालवा से आये हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार रवीन्द्र शाह भी थे .जब मैंने बात चीत के दौरान कहा कि अगर आलोक पचास साल में चले गए तो मैं तो ओवरड्यू हो गया हूँ . रवीन्द्र ने कहा कि ऐसा नहीं है . सभी पत्रकारों की शारीरिक उम्र और संघर्ष की उम्र फिक्स रहती है. हम लोगों ने उतना संघर्ष नहीं किया है जितना आलोक तोमर ने किया . उन्होंने कभी भी किसी लड़ाई को टाला नहीं , फ़ौरन निपटा देने में विश्वास करते रहे . इस तरह उनका पूरा जीवन ही संघर्ष को समर्पित था . हम लोग अभी उतना संघर्ष नहीं कर सके हैं ,इसलिए हमारी उम्र अभी बची हुई है . आलोक की संघर्ष और जीवन की उम्र बराबर ही थी . अलविदा आलोक . हम उम्मीद करते हैं कि तुम्हारी पत्नी जो तुम्हारी सबसे करीबी दोस्त भी हैं , अपने को संभाल सकें . हम दुआ करते हैं कि तुम्हारी बेटी भी उतनी ही मज़बूत बने जितने तुम थे .तुम्हारे माता पिता को पता नहीं किस जन्म की गलती के लिए सज़ा मिली है . उन्हने इतनी ताक़त मिले कि एक बहादुर बेटे के मान बाप के रूप में बाकी ज़िन्दगी बिता सकें . मैं तो बहुत मामूली आदमी हूँ लेकिन अगर डेटलाइन इंडिया जारी रहा तो जो कुछ भी लिखूंगा डेटलाइन इंडिया में ज़रूर भेजूंगा, चाहे किसी काम का हो या न हो. अलविदा एक बहादुर पत्रकार
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Sunday, March 20, 2011
कूच करने के लिए पचास साल की भी कोई उम्र होती है
शेष नारायण सिंह
आलोक तोमर चले गए. जाने के लिए भी दिन क्या चुना . ठीक होली के दिन . शायद यह सुनिश्चित करना चाहते रहे होंगें कि बहुत करीबी लोगों के अलावा कोई दुःख न मना ले.आलोक के बारे में आज कुछ भी लिख पाना मुश्किल होगा लेकिन आलोक का नाम लेते ही कुछ यादें आ जाती हैं .
आलोक तोमर ने अपने प्रोफेशनल जीवन में प्रभाषजी से बहुत कुछ सीखा ,इस बात को वे बार बार स्वीकार भी करते रहे. प्रभाष जी से दण्डित होने के बाद भी उन्हें सम्मान देते रहे. लेकिन अपने को हमेशा उनका शिष्य मानते रहे. आलोक मूल रूप से मध्य प्रदेश के भिंड जिले के रहने वाले थे अपने गाँव में लालटेन की रोशनी में अपनी शुरुआती पढाई करते हुए जब उन्हें पत्रकारिता में रूचि बढ़ी तो सबसे ज्यादा वे रविवार के उस वक़्त के विशेष संवाददाता उदयन शर्मा से प्रभावित हुए . बाद में उदयन शर्मा ,रविवार के संपादक भी बने. बहुत नामी पत्रकार हो जाने के बाद एक बार उन्होंने बहुत ही स्नेह से बताया था कि उन्होंने अपने गाँव में अपनी पढाई वाली छप्पर की टाटी के साथ किसी अखबार में छपी उदयन शर्मा की फोटो लगा रखी थी. बाद में जब जनसत्ता में काम करना शुरू किया तो लेखन में वही धार थी जिसके लिए उदयन शर्मा जाने जाते थे .जनसत्ता में रिपोर्टर के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनायी और बाकी जीवन उस पहचान के साथ जीते रहे. जनसत्ता की बुलंदी भारत में हिन्दी पत्रकारिता की बुलंदी भी है . दर असल १९८३ में जनसत्ता अखबार के बाज़ार में आने के बाद भारतीय राजनीति का परिवर्तन चक्र बहुत तेज़ी से घूमा . प्रभाष जोशी ने ढूंढ ढूंढ कर अपने साथ अच्छे लोगों को भर्ती किया . उसी रेले के साथ आलोक तोमर भी आये थे. जनसत्ता ने खूब तरक्की की और उसमें शामिल सभी लोगों ने तरक्की की . तीस साल की उम्र तक पंहुचते पंहुचते ,आलोक तोमर हिन्दी पत्रकारिता में एक स्थापित नाम बन चुके थे .इतने बड़े नाम कि उनके खिलाफ बाकायदा साजिशें रची जाने लगी थीं . राजनीति के तो वे मर्मज्ञ थे ही , साहित्य और सिनेमा के मुद्दों पर भी उनका पत्रकारीय चंचुप्रवेश था . अपने विरोधी को कभी माफ़ नहीं किया आलोक तोमर ने . जब जनसत्ता और आलोक तोमर अपनी बुलंदी पर थे ,तो कुछ लोगों ने साजिशन उन्हें बदनाम करने की कोशिश भी की लेकिन आलोक डटे रहे. वे ब्लैकमेलरों, बलात्कारियों ,जातिवादियों और निक्करधारियों के धुर विरोधी थे . जनसत्ता के बाद आलोक तोमर ने कई नौकरियाँ कीं लेकिन कहीं जमे नहीं . सच्ची बात यह है कि जनसत्ता के बाद कोई भी ऐसा संस्थान उन्हें नहीं मिला जिसकी पहले से ही कोई इज्ज़त हो .एक बार उन्होंने एक बिल्डर के चैनल में प्रमुख का काम संभाल लिया था . वह बेचारा बिल्डर अपने को भाग्यविधाता समझ बैठा था. आलोक तोमर ने उसे ठीक किया और उसे पत्रकारों से तमीज से बात करने की बुनियादी शिक्षा देने का अहम काम किया. प्रभाष जी की मृत्यु के बाद कुछ लोग कुछ लालच के वशीभूत होकर काम करने लगे थे . वेब पत्रकारिता का इस्तेमाल करके आलोक तोमर ने सब से मोर्चा लिया . अगर कोई प्रभाषजी की स्मृति के साथ अपमानजनक भाषा में बात करता था तो उसे दण्डित करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे. एक बार उन्होंने लिखा था कि
."प्रभाष जोशी पर हमला बोलने वाले चिरकुट लफंगों की जमात पर मैंने हमला बोला था और आगे भी अगर प्रभाष जी का अपमान तर्करहित उच्च विचारों द्वारा किया जाएगा तो बोलूंगा। इतना ही नहीं, कोई सामने आ कर बात करेगा और ऐसी ही नीचता और अभद्रता पर उतारू हो जाएगा जैसी इंटरनेट के अगंभीर और अर्धसाक्षर लोग चला रहे हैं तो कनपटी के नीचे झापड़ भी दूंगा। "
इसके बाद बहुत हल्ला गुल्ला हुआ लेकिन लेकिन आलोक जमे रहे. कभी हार नहीं मानी . हार तो उन्होंने कैंसर से भी नहीं मानी ,उसका मजाक उड़ाते रहे. और आखिर में चले गए.आलोक के बहुत सारे शत्रु थे लेकिन उस से ज्यादा उनके मित्र हैं. यहाँ से कूच करने के लिए पचास साल की भी कोई उम्र होती है लेकिन कूच कर गए. अलविदा आलोक
आलोक तोमर चले गए. जाने के लिए भी दिन क्या चुना . ठीक होली के दिन . शायद यह सुनिश्चित करना चाहते रहे होंगें कि बहुत करीबी लोगों के अलावा कोई दुःख न मना ले.आलोक के बारे में आज कुछ भी लिख पाना मुश्किल होगा लेकिन आलोक का नाम लेते ही कुछ यादें आ जाती हैं .
आलोक तोमर ने अपने प्रोफेशनल जीवन में प्रभाषजी से बहुत कुछ सीखा ,इस बात को वे बार बार स्वीकार भी करते रहे. प्रभाष जी से दण्डित होने के बाद भी उन्हें सम्मान देते रहे. लेकिन अपने को हमेशा उनका शिष्य मानते रहे. आलोक मूल रूप से मध्य प्रदेश के भिंड जिले के रहने वाले थे अपने गाँव में लालटेन की रोशनी में अपनी शुरुआती पढाई करते हुए जब उन्हें पत्रकारिता में रूचि बढ़ी तो सबसे ज्यादा वे रविवार के उस वक़्त के विशेष संवाददाता उदयन शर्मा से प्रभावित हुए . बाद में उदयन शर्मा ,रविवार के संपादक भी बने. बहुत नामी पत्रकार हो जाने के बाद एक बार उन्होंने बहुत ही स्नेह से बताया था कि उन्होंने अपने गाँव में अपनी पढाई वाली छप्पर की टाटी के साथ किसी अखबार में छपी उदयन शर्मा की फोटो लगा रखी थी. बाद में जब जनसत्ता में काम करना शुरू किया तो लेखन में वही धार थी जिसके लिए उदयन शर्मा जाने जाते थे .जनसत्ता में रिपोर्टर के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनायी और बाकी जीवन उस पहचान के साथ जीते रहे. जनसत्ता की बुलंदी भारत में हिन्दी पत्रकारिता की बुलंदी भी है . दर असल १९८३ में जनसत्ता अखबार के बाज़ार में आने के बाद भारतीय राजनीति का परिवर्तन चक्र बहुत तेज़ी से घूमा . प्रभाष जोशी ने ढूंढ ढूंढ कर अपने साथ अच्छे लोगों को भर्ती किया . उसी रेले के साथ आलोक तोमर भी आये थे. जनसत्ता ने खूब तरक्की की और उसमें शामिल सभी लोगों ने तरक्की की . तीस साल की उम्र तक पंहुचते पंहुचते ,आलोक तोमर हिन्दी पत्रकारिता में एक स्थापित नाम बन चुके थे .इतने बड़े नाम कि उनके खिलाफ बाकायदा साजिशें रची जाने लगी थीं . राजनीति के तो वे मर्मज्ञ थे ही , साहित्य और सिनेमा के मुद्दों पर भी उनका पत्रकारीय चंचुप्रवेश था . अपने विरोधी को कभी माफ़ नहीं किया आलोक तोमर ने . जब जनसत्ता और आलोक तोमर अपनी बुलंदी पर थे ,तो कुछ लोगों ने साजिशन उन्हें बदनाम करने की कोशिश भी की लेकिन आलोक डटे रहे. वे ब्लैकमेलरों, बलात्कारियों ,जातिवादियों और निक्करधारियों के धुर विरोधी थे . जनसत्ता के बाद आलोक तोमर ने कई नौकरियाँ कीं लेकिन कहीं जमे नहीं . सच्ची बात यह है कि जनसत्ता के बाद कोई भी ऐसा संस्थान उन्हें नहीं मिला जिसकी पहले से ही कोई इज्ज़त हो .एक बार उन्होंने एक बिल्डर के चैनल में प्रमुख का काम संभाल लिया था . वह बेचारा बिल्डर अपने को भाग्यविधाता समझ बैठा था. आलोक तोमर ने उसे ठीक किया और उसे पत्रकारों से तमीज से बात करने की बुनियादी शिक्षा देने का अहम काम किया. प्रभाष जी की मृत्यु के बाद कुछ लोग कुछ लालच के वशीभूत होकर काम करने लगे थे . वेब पत्रकारिता का इस्तेमाल करके आलोक तोमर ने सब से मोर्चा लिया . अगर कोई प्रभाषजी की स्मृति के साथ अपमानजनक भाषा में बात करता था तो उसे दण्डित करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे. एक बार उन्होंने लिखा था कि
."प्रभाष जोशी पर हमला बोलने वाले चिरकुट लफंगों की जमात पर मैंने हमला बोला था और आगे भी अगर प्रभाष जी का अपमान तर्करहित उच्च विचारों द्वारा किया जाएगा तो बोलूंगा। इतना ही नहीं, कोई सामने आ कर बात करेगा और ऐसी ही नीचता और अभद्रता पर उतारू हो जाएगा जैसी इंटरनेट के अगंभीर और अर्धसाक्षर लोग चला रहे हैं तो कनपटी के नीचे झापड़ भी दूंगा। "
इसके बाद बहुत हल्ला गुल्ला हुआ लेकिन लेकिन आलोक जमे रहे. कभी हार नहीं मानी . हार तो उन्होंने कैंसर से भी नहीं मानी ,उसका मजाक उड़ाते रहे. और आखिर में चले गए.आलोक के बहुत सारे शत्रु थे लेकिन उस से ज्यादा उनके मित्र हैं. यहाँ से कूच करने के लिए पचास साल की भी कोई उम्र होती है लेकिन कूच कर गए. अलविदा आलोक
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