शेष नारायण सिंह
आलोक तोमर चले गए. जाने के लिए भी दिन क्या चुना . ठीक होली के दिन . शायद यह सुनिश्चित करना चाहते रहे होंगें कि बहुत करीबी लोगों के अलावा कोई दुःख न मना ले.आलोक के बारे में आज कुछ भी लिख पाना मुश्किल होगा लेकिन आलोक का नाम लेते ही कुछ यादें आ जाती हैं .
आलोक तोमर ने अपने प्रोफेशनल जीवन में प्रभाषजी से बहुत कुछ सीखा ,इस बात को वे बार बार स्वीकार भी करते रहे. प्रभाष जी से दण्डित होने के बाद भी उन्हें सम्मान देते रहे. लेकिन अपने को हमेशा उनका शिष्य मानते रहे. आलोक मूल रूप से मध्य प्रदेश के भिंड जिले के रहने वाले थे अपने गाँव में लालटेन की रोशनी में अपनी शुरुआती पढाई करते हुए जब उन्हें पत्रकारिता में रूचि बढ़ी तो सबसे ज्यादा वे रविवार के उस वक़्त के विशेष संवाददाता उदयन शर्मा से प्रभावित हुए . बाद में उदयन शर्मा ,रविवार के संपादक भी बने. बहुत नामी पत्रकार हो जाने के बाद एक बार उन्होंने बहुत ही स्नेह से बताया था कि उन्होंने अपने गाँव में अपनी पढाई वाली छप्पर की टाटी के साथ किसी अखबार में छपी उदयन शर्मा की फोटो लगा रखी थी. बाद में जब जनसत्ता में काम करना शुरू किया तो लेखन में वही धार थी जिसके लिए उदयन शर्मा जाने जाते थे .जनसत्ता में रिपोर्टर के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनायी और बाकी जीवन उस पहचान के साथ जीते रहे. जनसत्ता की बुलंदी भारत में हिन्दी पत्रकारिता की बुलंदी भी है . दर असल १९८३ में जनसत्ता अखबार के बाज़ार में आने के बाद भारतीय राजनीति का परिवर्तन चक्र बहुत तेज़ी से घूमा . प्रभाष जोशी ने ढूंढ ढूंढ कर अपने साथ अच्छे लोगों को भर्ती किया . उसी रेले के साथ आलोक तोमर भी आये थे. जनसत्ता ने खूब तरक्की की और उसमें शामिल सभी लोगों ने तरक्की की . तीस साल की उम्र तक पंहुचते पंहुचते ,आलोक तोमर हिन्दी पत्रकारिता में एक स्थापित नाम बन चुके थे .इतने बड़े नाम कि उनके खिलाफ बाकायदा साजिशें रची जाने लगी थीं . राजनीति के तो वे मर्मज्ञ थे ही , साहित्य और सिनेमा के मुद्दों पर भी उनका पत्रकारीय चंचुप्रवेश था . अपने विरोधी को कभी माफ़ नहीं किया आलोक तोमर ने . जब जनसत्ता और आलोक तोमर अपनी बुलंदी पर थे ,तो कुछ लोगों ने साजिशन उन्हें बदनाम करने की कोशिश भी की लेकिन आलोक डटे रहे. वे ब्लैकमेलरों, बलात्कारियों ,जातिवादियों और निक्करधारियों के धुर विरोधी थे . जनसत्ता के बाद आलोक तोमर ने कई नौकरियाँ कीं लेकिन कहीं जमे नहीं . सच्ची बात यह है कि जनसत्ता के बाद कोई भी ऐसा संस्थान उन्हें नहीं मिला जिसकी पहले से ही कोई इज्ज़त हो .एक बार उन्होंने एक बिल्डर के चैनल में प्रमुख का काम संभाल लिया था . वह बेचारा बिल्डर अपने को भाग्यविधाता समझ बैठा था. आलोक तोमर ने उसे ठीक किया और उसे पत्रकारों से तमीज से बात करने की बुनियादी शिक्षा देने का अहम काम किया. प्रभाष जी की मृत्यु के बाद कुछ लोग कुछ लालच के वशीभूत होकर काम करने लगे थे . वेब पत्रकारिता का इस्तेमाल करके आलोक तोमर ने सब से मोर्चा लिया . अगर कोई प्रभाषजी की स्मृति के साथ अपमानजनक भाषा में बात करता था तो उसे दण्डित करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे. एक बार उन्होंने लिखा था कि
."प्रभाष जोशी पर हमला बोलने वाले चिरकुट लफंगों की जमात पर मैंने हमला बोला था और आगे भी अगर प्रभाष जी का अपमान तर्करहित उच्च विचारों द्वारा किया जाएगा तो बोलूंगा। इतना ही नहीं, कोई सामने आ कर बात करेगा और ऐसी ही नीचता और अभद्रता पर उतारू हो जाएगा जैसी इंटरनेट के अगंभीर और अर्धसाक्षर लोग चला रहे हैं तो कनपटी के नीचे झापड़ भी दूंगा। "
इसके बाद बहुत हल्ला गुल्ला हुआ लेकिन लेकिन आलोक जमे रहे. कभी हार नहीं मानी . हार तो उन्होंने कैंसर से भी नहीं मानी ,उसका मजाक उड़ाते रहे. और आखिर में चले गए.आलोक के बहुत सारे शत्रु थे लेकिन उस से ज्यादा उनके मित्र हैं. यहाँ से कूच करने के लिए पचास साल की भी कोई उम्र होती है लेकिन कूच कर गए. अलविदा आलोक
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अत्यंत दुखद समाचार!
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