शेष नारायण सिंह
पांच अप्रैल जगजीवन राम की जयंती है. उनकी शख्सियत के कई आयाम हैं . लेकिन सबसे बड़ी बात जो उनके व्यक्तित्व से निकल कर आती है वह अन्याय के खिलाफ खड़े होने की उनकी प्रवृत्ति है. अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने हमेशा ही अन्याय का विरोध किया . खुद दलित परिवार में पैदा हुए थे . हालांकि उनके पिता उस वक़्त के समाज के नेता थे. शिवनारायणी सम्प्रदाय के महंत थे, कांग्रेस की राजनीति में शामिल रह चुके थे और दलितों के बीच बहुत ही सम्मान की नज़र से देखे जाते थे . लेकिन तत्कालीन सामंती समाज ने उन्हें बरबरी का अवसर कभी नहीं दिया . और जब जगजीवन राम के बचपन में ही पिता की मृत्यु हो गयी तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा लेकिन कुशाग्रबुद्धि जगजीवन राम की माँ ने शिक्षा के मह्त्व को पहचानते हुए पढाई नहीं बंद करवाई. बचपन में ही उन्होंने स्कूल में अछूत बच्चों के खिलाफ हो रहे भेद भाव के खिलाफ आवाज़ उठायी जो बाद में उनकी प्रकृति का हिस्सा बन गया . उन्होंने १९७७ में भी अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठायी जब इंदिरा गाँधी ने अपने लफंगा टाइप बेटे को सत्ता की बागडोर थमाने की योजना बनायी . जगजीवन राम का अन्याय का विरोध करने के तरीका औरों से अलग था . वे कभी भी सब कुछ दांव पर नहीं लगाते थे. मसलन जब इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाने का फैसला किया तो उन्होंने उसका समर्थन किया . यहाँ तक कि इमरजेंसी को मंज़ूर करवाने के लिए जो प्रस्ताव लोक सभा में सरकार की तरफ से पेश किया गया था ,उसको बाबू जगजीवन राम ने ही पाइलट किया था. हालांकि इमरजेंसी इंदिरा गाँधी की तानाशाही के खिलाफ अवाम की जुबान बंद करने के लिए लगाई गयी थी लेकिन शायद बाबू जी को उसमें कुछ अच्छाइयां नज़र आ रही होंगीं. लेकिन बहुत शुरुआती स्टेज में ही यह साफ़ हो गया कि इमरजेंसी को इंदिरा जी के छोटे बेटे को सत्ता के दावेदार के रूप में स्थापित करने के लिए लगाया गया था. उसके आस पास एक चौकड़ी जमा हो गयी,जिसमें कुछ पुलिस वाले, कुछ आई ए एस अफसर, कुछ नेता,दिल्ली शहर के कुछ लफंगे ,कुछ स्मगलर , कुछ दलाल और कुछ ब्लैक मार्केटियर शामिल थे. उन दिनों जो लोग बाबू जगजीवन राम से मिले थे उन्होंने इस बात की बार बार ताईद की थी कि इमरजेंसी का समर्थन करके जगजीवन राम बहुत दुखी थे . लेकिन तब तक देश का हर बड़ा कांग्रेसी नेता इंदिरा जी के बेटे की चौकड़ी के जाल में फंस चुका था . बाबू जगजीवन राम की राजनीतिक कुशलता और विद्वत्ता की परीक्षा हो रही थी. उनके पास पूरे देश से कांग्रेस कार्यकर्ता आते थे और उन्हें मालूम था कि इमरजेंसी में दलितों और अल्पसंख्यकों को खूब परेशान किया जा रहा है. उस ज़माने में केंद्र के साथ साथ हर राज्य में भी कांग्रेस की सरकारें होती थी. उनके सभी मुख्य मंत्री इंदिरा गाँधी के बेटे संजय के सामने नतमस्तक थे. उत्तर प्रदेश में हेमवती नंदन बहुगुणा ने संविधान की बात कने की कोशिश की तो उन्हें पैदल कर दिया गया . उनकी जगह पर आये नारायण दत्त तिवारी तो सीधे ही संजय गाँधी की मंडली के हुक्म के गुलाम थे . लगभग हर राज्य में यही आलम था .बाबू जगजीवन राम को करीब से जानने वाले बताते हैं कि इंदिरा गाँधी के इस पुत्र मोह की बलि चढ़ रहे लोकतांत्रिक मूल्यों के खात्मे से वे बहुत दुखी थे . लेकिन उन्हें यह भी मालूम था कि अगर खुले आम बगावत कर दी तो उनका भी वही हाल होगा जो बाकी विपक्षी नेताओं का हो रहा था. विपक्ष का हर नेता, यहाँ तक कि मामूली कार्यकर्ता भी जेलों में था. ज़ाहिर है उस माहौल में जगजीवन राम अगर कोई समझदारी की बात करते तो उन्हें भी राजनीतिक रूप से ख़त्म कर दिया जाता . वे चुप चाप सही वक़्त का इंतज़ार करते रहे और जब इंदिरा जी के खुफिया तंत्र ने उन्हें भरोसा दिला दिया कि विपक्ष पूरी तरह से पस्त पड़ा था .अगर उस वक़्त चुनाव करा दिए जाएँ तो कांग्रेस की दुबारा वापसी हो सकती थी और उसके ठीक बाद संजय गाँधी कि ताजपोशी कर दी जाती. चुनाव की घोषणा हो जाने के बाद अपने विश्वस्त साथियों हेमवती नंदन बहुगुणा, नंदिनी सत्पथी और के आर गणेश के साथ बाबू जगजीवन राम ने लोकशाही की बिसात पर अपनी धमाकेदार मौजूदगी का ऐलान कर दिया . उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दिया, सरकार से इस्तीफ़ा दिया और कांग्रेस फोर डेमोक्रेसी के गठन का ऐलान कर दिया. निराश हताश विपक्ष के नेताओं में जान आ गयी . बाबू जगजीवन राम के पास पहले से ही पूरे देश से आये कांग्रेस कार्यकर्ताओं का इनपुट था ही और देश में तूफ़ान आ गया. इस तरह १९७७ में देश की जनता ने इंदिरा गाँधी की स्थापित सत्ता का विरोध करके एक ऐसी पार्टी को सत्ता सौंप दी जिसका तब तक गठन ही नहीं हुआ था. जनता पार्टी का गठन मोरारजी देसाई कि सरकार बन जाने के बाद हुआ . लोकतंत्र के अध्येता बताते हैं कि यहीं पर जनता पार्टी के नेताओं का वर्ग चरित्र सामने आ गया . उनमें से ज़्यादातर सामन्ती मानसिकता के थे और उन्होंने प्रधान मंत्री पद के असली हक़दार बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया . लेकिन बाबूजी खुश थे .देश में एक बार फिर जनता की ताक़त की सत्ता स्थापित हो चुकी थी .
१९७७ में इंदिरा गाँधी के पुत्र मोह के चक्कर में देश को कुछ गैर ज़िम्मेदार लोगों के हाथ में जाने से उन्होंने बचा लिया था . यह उनके बगावती तेवर की वजह से ही हुआ था. अपने पूरे राजनीतिक जीवन में वे हमेशा सही मूल्यों की राजनीति का समर्थन करते रहे. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में उन्होंने इस बात का विरोध किया था कि दलित छात्रों को बाकी छात्रों के साथ बैठकर खाना खाने की अनुमति नहीं थी. .बनारस की सामन्ती मानसिकता से ऊब कर ही वे कलकत्ता गए थे जहां उन्होंने अपने आपको मजदूरों के एक शुभचिन्तक के रूप में स्थापित किया . वहीं पर वे महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस की नज़र में आये और बाद में तो उन्होंने अंग्रेजों की उस कोशिश को धता बता दिया जिसमें उन्हने लालच देकर महात्मा गाँधी के खिलाफ करने की कोशिश की जा रही थी. महत्मा जी ने कहा था कि जगजीवन राम खरा सोना हैं .उस दौर के बहुत सारे गैर कांग्रेसी नेता अंग्रेजों के भक्त हो गए थे लेकिन बाबू जगजीवन राम ने ऐसा नहीं होने दिया .१९४२ के भारत छोडो आन्दोलन में वे एक बहुत बड़े नेता के रूप में उभरे . बाद में जब शिमला में दलितो के हित की बात करने वे कैबिनेट mishan से मिलने गए तो उन्होंने भारत और यहाँ के लोगों के हित को सर्वोपरि रखा . १९३० के दशक में तो एक अवसर ऐसा भी आया जब अँगरेज़ अनुसूचित जातियों के नेताओं को जिन्ना के बराबर खड़े कर देने की साज़िश पर काम कर रहे थे लेकिन बाद में जगजीवन राम ने उसे नाकाम कर दिया . अजीब बात है कि सामंती सोच के इतिहासकारों ने बाबू जगजीवन राम को किसी और कांग्रेसी नेता के रूप में पेश करने की कोशिश की और सफल रहे . सच्चाई यह है वे सही मायनों में लोकतंत्र और सामाजिक बराबरी के अग्रणी दार्शनिक और राजनीतिज्ञ थे
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