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Saturday, March 23, 2013

उत्तर प्रदेश में लोकसभा के चुनाव की तैयारियां और मुसलमानों की भूमिका




शेष नारायण सिंह 

उत्तर प्रदेश में एक बार फिर मुसलमानों में अपने आपको लोकप्रिय बनाने के लिए राजनीतिक पार्टियों में होड़ शुरू हो गयी है . सब को मालूम है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सफलता के लिए मुसलमानों के समर्थन की ज़रूरत होती है . पिछले विधान सभा चुनाव के दौरान एक बार फिर यह साबित हो गया है कि मुसलमान जिस तरफ जाता है उसकी सीटें बढ़ जाती हैं .जहां तक बीजेपी का सवाल है वह पिछले चुनाव में मुसलमानों का विरोध करके ध्रुवीकरण करवाने की कोशिश कर चुकी है .सबको मालूम है की उसको कोई राजनीतिक सफलता नहीं मिली . शायद अगले लोकसभा चुनाव की तैयारी में आम तौर पर मुसलमानों के  दुश्मन के रूप में माने जाने वाले नरेन्द्र मोदी भी अपनी ऐसी कुछ तस्वीरें अखबारों में छपवा रहे हैं जिसमें वे मुसलमानों की हुलिया वाले कपडे पहने कुछ लोगों के साथ देखे जा सकते हैं . हालांकि मोदी को भी मालूम है की मुसलमान उनको हराने के लिए ही वोट देगा लेकिन   बीजेपी वाले अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं कि   मोदी के ऊपर मुस्लिम द्रोह का जो मुलम्मा लगा है उसको मिटाया जा सके. सभी दलों को पता है कि उत्तर प्रदेश में अधिक से अधिक सीटें जीतने के लिए मुसलमानों की मदद बहुत ज़रूरी है  शायद इसीलिये सभी गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों सबसे बड़ा शुभचिन्तक बता रही है . 

उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां मुसलमान किसी भी सीट पर पक्की जीत तो नहीं दिलवा सकते हैं लेकिन एकाध सीट को छोड़कर उनकी संख्या हर सीट पर चुनावी नतीजों को प्रभावित करती है .आबादी के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां मुसलमानों की आबादी बहुत घनी है.रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर मुज़फ्फर नगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां  कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . जहां तक बीजेपी का सवाल है उन्हें मालूम है कि  उन्हने मुसलामानों के वोट नहीं मिलने वाले हैं  इसलिए उनकी तरफ से केवल सांकेतिक कोशिश ही की जा रही है . उत्तर प्रदेश से आने वाले इकलौते राष्ट्रीय  मुस्लिम नेता तक रामपुर जैसी मुस्लिम बहुल सीट से चुनाव  हार गए थे. लेकिन बाकी तीनों पार्टियां मुसलमानों के वोट  की चाहत रखती हैं . कांग्रेस ने पिछले विधान सभा चुनावों के दौरान ओबीसी कोटे से काटकर  साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक  आरक्षण की बात करके  मुसलमानों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश की थी . वह सफल नहीं रहा  .कांग्रेस के खाते में मुसलमानों का पक्षधर बनाने के बहुत सारे अवसर नहीं हैं . बड़े ताम झाम के साथ  यू  पी ए  सरकार ने अल्पसंख्यक मंत्रालय बनाया था .उस वक़्त कहा गया था कि  सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लागू करवाने का ज़िम्मा इस मंत्रालय के पास था. लेकिन शुरू में यह मंत्रालय ऐसे  मंत्रियों के हवाले किया गया था जो इस काम को पार्ट टाइम मानकर चल रहे थे. अब जो नए मंत्री आये हैं वे काम को गंभीरता से ले रहे हैं लेकिन अब समय बहुत कम बचा है . ज़ाहिर है मुसलमानों का पक्षधर बनाने की कांग्रेस की कोशिश हमेशा की तरह डावांडोल  है .पिछले मंत्रियों के कार्यकाल के काम काज की जांच करने वाली संसद की एक कमेटी ने सरकार के कामकाज की सख्त नुक्ताचीनी की  थी .
 सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय से सम्बंधित कमेटी ने अल्पसंख्यकों के लिए किये जा रहे काम में सम्बंधित मंत्रालय को गाफिल पाया था . इस समिति की बीसवीं रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकार ने  मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए बजट में मिली हुई रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया और पैसे वापस भी करने पड़े.  कमेटी की रिपोर्ट में लिखा गया है कि कमेटी इस  बात से बहुत नाराज़ है कि २०१०-११ के साल में अल्पसंख्यक मंत्रालय ने ५८७ करोड़ सत्तर लाख की वह रक़म लौटा दी  जो घनी अल्पसंख्यक आबादी के विकास के लिए मिले थे. हद तो तब हो गयी जब मुस्लिम बच्चों के वजीफे के लिए मिली हुई रक़म  वापस कर दी गयी.  यह रक़म संसद ने दी थी और सरकार ने इसे इसलिए वापस कर दिया कि वह इन स्कीमों में ज़रूरी काम नहीं तलाश पायी. यह सरकारी बाबूतंत्र के नाकारापन का नतीजा है .,  प्री मैट्रिक वजीफों के मद   में  मिले हुए धन में से ३३ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए , मेरिट वजीफों के लिए मिली हुई रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए और पोस्ट मैट्रिक वजीफों के लिए मिली हुयी रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए . इसका मतलब  यह हुआ कि सभी पार्टियों के प्रतिनिधित्व वाली  संसद ने तो सरकार को मुसलमानों के विकास के लिए पैसा दिया था लेकिन सरकार ने उसका सही इस्तेमाल नहीं किया . इस के बारे में सरकार का कहना  है कि उनके पास  अल्पसंख्यक आबादी वाले जिलों से प्रस्ताव नहीं आये इसलिए उन्होंने संसद से मिली रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया . संसद की स्थायी समिति ने इस बात पर सख्त नाराज़गी जताई है और कहा है कि वजीफों वाली गलती बहुत बड़ी है और उसको दुरुस्त करने के लिए सरकार को काम करना चाहिए . बजट में वजीफों की घोषणा हो जाने  के बाद सरकार को चाहिए कि उसके लिए ज़रूरी प्रचार प्रसार आदि करे जिससे जनता भी अपने जिले या राज्य के अधिकारियों पर दबाव बना सके और अल्पसंख्यकों के विकास के लिए मिली हुई रक़म  सही तरीके से इस्तेमाल हो सके. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास मुसलमानों का नेतृत्व  करने वालों की भी भारी कमी है . अपने एक राष्ट्रीय नेता को उन्होंने प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर देख लिया  कि  बड़े नेता को चार्ज देने से भी उनका कोई लाभ नहीं हुआ. 
बहुजन समाज पार्टी  भी मुस्लिम बी वोटों की दावेदार के रूप में जानी जाती है . यह अलग बात है कि  मायावती ने राज्य और केंद्र में कई बार बीजेपी की सरकारों का समर्थन किया है लेकिन वे अपने को मुसलमानों का शुभचिंतक बताती हैं . उनकी तरकीब यह है कि वे बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देती हैं . उनके साथ कुछ मुसलमान मंत्री भी रहते हैं लेकिन  किसी को भी नेता के रूप में उभरने का मौक़ा नहीं  मिलता,सभी मायावती जी की छत्रछाया में ही नेता बने रहते हैं .


उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों की खैरख्वाह के रूप में समाजवादी पार्टी को १९९१ से ही एक पहचान मिली हुयी है . बीच में कुछ महीनों के लिए पार्टी के अध्यक्ष के कल्याण प्रेम के कारण समाजवादी पार्टी को मुसलमानों  ने शक की नज़र से देखा लेकिन बाद में जब कल्याण सिंह को पार्टी से हटा दिया गया  तो मुसलमान बड़ी संख्या में उनके साथ आये और  सत्ता अखिलेश यादव को सौंप दी .लेकिन जब सत्ता आयी तो दिल्ली  और पश्चिमी  उत्तर प्रदेश के बहुत सारे मुसलमानों  ने दावा करना शुरू कर दिया की उनके कारण ही सारा मुसलमान समाजवादी पार्टी के साथ जुडा था. मुलायम सिंह की पार्टी को सत्ता दिलवाने का दावा करने वालों में ऐसे मुसलमान भी शामिल थे जो अपने मुहल्ले का चुनाव नहीं जीत सकते . ऐसे बहुत सारे मुसलमान  भी  मुलायम सिंह की तकदीर बनाने का  दावा करने लगे जिनकी रोटी पानी भी समाजवादी पार्टी की वजह से चलती  थी . मुलायम सिंह यादव ने इस जमात के लोगों को खूब लाभ पंहुचाया और  जनता में ऐसा माहौल बनना शुरू  हो गया कि वे लोग वास्तव में समाजवादी पार्टी के सही खैरख्वाह हैं . आजकल पूरे राज्य में यही माहौल है . हालांकि सच्चाई  यह  है  उत्तर प्रदेश का आम मुसलमान इन लोगों में से किसी को नेता नहीं  मानता . वह केवल मुलायम सिंह यादव को अपना  शुभचिन्तक और नेता मानता है. समाजवादी पार्टी के अन्दर  की खबर रखने वाले पार्टी के एक नेता ने बताया  कि  उनकी पार्टी का आलाकमान अब पार्टी में ऐसे मुसलमानों को महत्व देना  चाहता है जो वक़्त के साथ आर्थिक लाभ के लिए हर सत्ताधारी पार्टी के चक्कर नहीं काटने  लगते .अब ऐसे नेताओं को आगे बढाने की योजना पर काम चल रहा है जो नौजवान हों और समाजवादी पार्टी के साथ ही शुरू से जुड़े रहे हों . जिनको विकसित किया जाए और जो बाद में पार्टी का मुस्लिम फेस बन सकें . पार्टी की स्थापना के बाद मुलायम सिंह यादव ने यह प्रयास किया था  जब उन्होंने एक आन्दोलन से आये आज़म खान को समाजवादी पार्टी का प्रमुख मुस्लिम चेहरा बनाया था लेकिन बाद में जब अमर सिंह का प्रादुर्भाव हुआ तो आज़म खान का महत्व कम हो गया . पता चला है की इस बार भी सत्ता के दलालों के  मकड़जाल से निकल कर समाजवादी पार्टी का आलाकमान किसी मुसलमान को गंभीर नेता के रूप में आगे बढाने की सोच रहा है . पता चला है की अमरोहा के विधायक और मंत्री, कमाल अख्तर को समाजवादी पार्टी आगे बढाने की सोच रही है . कमाल अख्तर छात्र नेता रहे हैं , जामिया मिलिया के छात्र संघ के अध्यक्ष रहे, समाजवादी पार्टी के युवा  संगठन के अखिल भारतीय अध्यक्ष रहे और  राज्य सभा के सदस्य रहे . समाजवादी पार्टी के नेताओं के आस पास घूमने वाले अन्य नेताओं से अलग उनकी छवि भी है. पार्टी के शीर्ष नेता उन्हें पसंद करते हैं और वे चुनाव भी जीत जाते हैं . आजकल मंत्री हैं और लखनऊ के सत्ता के गलियारों के जानकारों  का कहना है की बहुत खुशमिजाज़ भी है।यह देखना दिलचस्प होगा कि समाजवादी पार्टी की यह कोशिश कितना  प्रभावकारी साबित होते है .  बहरहाल आने वाला चुनाव राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के लिए एक अवसर है . वक़्त ही बताएगा कि  वह इस अवसर का कैसा इस्तेमाल करती है .

Sunday, December 25, 2011

लोकपाल बिल लोकसभा में पेश करके कांग्रेस का जीत का दावा

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली ,२२ दिसंबर . आज लोकसभा में लोकपाल और लोकायुक्त बिल २०११ पेश कर दिया गया. सदन में ४ अगस्त को इसी विषय पर पेश किया गया बिल वापस ले लिया गया है. लोकपाल बिल को संसद में प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायणसामी ने पाइलट किया. अध्यक्ष के आसन पर फ्रांसिस्को सरदिन्हा मौजूद थे. बिल को पेश करने में ही जो दिक्क़तें आयीं उनसे साफ लगता है कि लोकपाल बिल पास होने में खासी मुश्किल होगी. बहस की शुरुआत सदन की नेता, सुषमा स्वराज ने किया. उन्होंने कुछ कारणों से बिल को आज पेश किये जाने का विरोध किया . उन्होंने कहा कि यह बिल भारत के संघीय ढांचे पर हमला करता है . सुषमा स्वराज ने कहा कि संविधान में यह व्यवस्था है और सुप्रीम कोर्ट के कई आदेश हैं कि रिज़र्वेशन किसी भी हालत में ५० प्रतिशत से ज्यादा नहीं किया जा सकता है .लेकिन इस बिल में कहा गया है कि रिज़र्वेशन ५० प्रतिशत से कम नहीं होगा. यानी यह ९ सदस्यों के लोकपाल में कम से कम ५ सदस्यों को रिज़र्वेशन देने की बात कही गयी है . उनको इस बात पर भी एतराज़ था कि इसमें अल्पसंख्यकों को रिज़र्वेशन दिया गया है .उनका कहना था कि जब संविधान में धार्मिक आधार पर रिज़र्वेशन नहीं दिया गया है तो संविधान का विरोध करके क्यों ऐसा कानून बनाया जा रहा है जो सुप्रीम कोर्ट में जाकर फेल हो जाए. बहस के आखिर में सदन के नेता प्रणब मुखर्जी ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है . और अगर ऐसा है भी तो उसे जब इस बिल पर २७ दिसम्बर से सिलसिलेवार बहस होगी तब ठीक कर लिया जाये़या.
आज दिन में सदन शुरू में स्थगित करना पड़ा लेकिन जब साढ़े तीन बजे सदन की बैठक दुबारा शुरू हुई तो बिल को पेश करने के स्तर पर ही खासी लम्बी बहस हो गयी. समाजवादी पार्टी के नेता, मुलायम सिंह यादव ने इस बात पर आपत्ति की लोकपाल की संस्था ऐसी बनने जा रही है जो किसी के प्रति ज़िम्मेदार नहीं होगा. उन्होंने कहा कि जो लोग अन्ना हजारे के साथ हैं वे दूध के धुले नहीं है . इस बात का डर है कि लोकपाल भी भ्रष्टाचार के एक नए केंद्र के रूप में स्थापित हो जाये़या . वह सब को ब्लैकमेल करेगा. इसके बाद राजद के नेता, लालू प्रसाद यादव ने बहुत ज़ोरदार तरीके से अपने बात रखी . उन्होंने इस बात पर सख्त एतराज़ किया किया कि कुछ लोग ऐसे हैं जो स्वयंभू नेता बन गए हैं और संसद सदस्यों को अपमानित कर रहे हैं .उन्होंने कहा कि किसी भी आन्दोलन की धमकी के बाद सरकार को कोई भी कानून नहीं बनाया जाना चाहिए. इसमें जल्दी मचाने के ज़रुरत नहीं है उन्होंने भी इस बात को जोर देकर कहा कि प्रधान मंत्री को इसके दायरे से बाहर रखा जाये .जनता दल यू के शरद यादव , आल इण्डिया अन्ना द्रमुक के थाम्बी दुराई , सी पी एम के बासुदेव आचार्य ने संघीय ढाँचे को तोड़ने के किसी भी कोशिश का विरोध किया . बीजेपी के यशवंत सिन्हा ने भी ज़ोरदार विरोध किया कि सरकार अल्पसंख्यकों को रिज़र्वेशन देने की कोशिश कर रही हैं .
शिवसेना ने लोकपाल का ज़बरस्त विरोध किया और अन्ना हजारे और उनकी टीम को गैरज़िम्मेदार बताया. पार्टी के सदस्य ने कहा कि उनकी पार्टी के नेता, बाल ठाकरे को इस बात की आशंका है कि इस लोकपाल को इतना ताक़तवर बना कर कहीं देश तानाशाही की तरफ तो नहीं बढ़ रहा है .सी पी आई के गुरुदास दासगुप्ता ने कहा कि कुछ लोगों को इस बात का हक नहीं है कि वे संसद को धमकाएं लेकिन उनकी इस बात पर सदन के नेता प्रणब मुखर्जी ने उन्हें याद दिलाया कि वे अपने पार्टी के नेता को समझाएं कि वे जन्तर मंतर के धरनामंच पर न जाएँ. कानून बनाने का काम संसद को ही करने दें . बहरहाल बिल लोकसभा में पेश हो गया और कांग्रेस इस बात पर बहुत खुश है कि उसने २७ अगस्त को सदन में पास हुए प्रस्ताव की रोशनी में वह बिल पेश कर दिया जिसका उन्होंने वायदा किया था.
बिल को पास करने या न करने के लिए लोकसभा की बैठक २७ से २९ दिसंबर तक होगी . अभी बिल के पास होने के बारे में कोई बात नहीं कही जा सकती है क्योंकि जो पार्टियां पहले अन्ना हजारे के साथ थीं वे भी आज पेश किये गए बिल को कमज़ोर बताकर उस से बच निकलने के चक्कर में हैं .

Thursday, August 5, 2010

सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।

शेष नारायण सिंह

लोक सभा में उर्दू आज सबकी प्रिय भाषा बन गयी. मुलायम सिंह यादव ने जीरो आवर में उर्दू अखबारों के साथ हो रही ज्यादती की बात को उठाया . फिर क्या था . हर पार्टी के नेता टूट पड़ा और उर्दू के पक्ष में भाषण देने लगा .उन लोगों ने भी उर्दू के पक्ष में बात की जिन्हें उर्दू वाले अपना नहीं मानते . बी जे पी के उप नेता अगोपी नाथ मुंडे और शत्रुघ्न सिन्हा ने भी उर्दू की शान में खूब कसीदे पढ़े. हालांकि चाचा जीरो आवर में शुरू हुए इथे एलेकिन बड़ी देर तक चलती रही. लगभग हर ओआर्ती के नेता उर्दू के पक्ष में खड़े दिखे. फारूक अब्दुल्ला, गुलाम नबी आज़ाद, और ममता बनर्जी ने भी बात की और लोक सभा अध्यक्ष ,मीरा कुमार ने सरकार से जवाब देने को कहा. सरकार की ओर से प्रणब मुखर्जी ने लोक सभा को भरोसा दिलाया कि सरकार उर्दू के लिए वह सब कुछ करेगी जो संभव है. उर्दू के बारे में इतनी अहम चर्चा के बाद मुझे अपना एक पुराना लेख याद आ गया . जिसे फिर से प्रस्तुत करना ठीक रहेगा.

कभी उर्दू की धूम सारे जहां में हुआ करती थी, दक्षिण एशिया का बेहतरीन साहित्य इसी भाषा में लिखा जाता था और उर्दू जानना पढ़े लिखे होने का सबूत माना जाता था। अब वह बात नही है। राजनीति के थपेड़ों को बरदाश्त करती भारत की यह भाषा आजकल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था।आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। 12वीं सदी की शुरुआत में मध्य एशिया से आने वाले लोग भारत में बसने लगे थे। वे अपने साथ चर्खा और कागज भी लाए जिसके बाद जिंदगी, तहज़ीब और ज़बान ने एक नया रंग अख्तियार करना शुरू कर दिया। जो फौजी आते थे, वे साथ लाते थे अपनी जबान खाने पीने की आदतें और संगीत।
वे यहां के लोगों से अपने इलाके की जबान में बात करते थे जो यहां की पंजाबी, हरियाणवी और खड़ी बोली से मिल जाती थी और बन जाती थी फौजी लश्करी जबान जिसमें पश्तों, फारसी, खड़ी बोली और हरियाणवी के शब्द और वाक्य मिलते जाते थे। 13 वीं सदी में सिंधी, पंजाबी, फारसी, तुर्की और खड़ी बोली के मिश्रण से लश्करी की अगली पीढ़ी आई और उसे सरायकी ज़बान कहा गया। इसी दौर में यहां सूफी ख्यालात की लहर भी फैल रही थी। सूफियों के दरवाज़ों पर बादशाह आते और अमीर आते, सिपहसालार आते और गरीब आते और सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। सूफियों की खानकाहों में जो संगीत पैदा हुआ वह आज 800 साल बाद भी न केवल जिंदा है बल्कि अवाम की जिंदगी का हिस्सा है।
अजमेर शरीफ में चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दू, मुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थे, आने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी। इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे। अमीर खुसरो साहब ने लाजवाब शायरी की जो अभी तक बेहतरीन अदब का हिस्सा है और आने वाली नस्लें उन पर फख्र करेंगी। हजरत अमीर खुसरों से महबूब-ए-इलाही ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।
उर्दू की तरक्की में दिल्ली के सुलतानों की विजय यात्राओं का भी योगदान है। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब गुजरात पर हमला किया तो लश्कर के साथ वहां यह जबान भी गई। 1327 ई. में जब तुगलक ने दकन कूच किया तो देहली की भाषा, हिंदवी उनके साथ गई। अब इस ज़बान में मराठी, तेलुगू और गुजराती के शब्द मिल चुके थे। दकनी और गूजरी का जन्म हो चुका था।इस बीच दिल्ली पर कुछ हमले भी हुए। 14वीं सदी के अंत में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया, जिंदगी मुश्किल हो गई। लोग भागने लगे। यह भागते हुए लोग जहां भी गए अपनी जबान ले गए जिसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की पूर्वज भाषा का दायरा पूरे भारत में फैल रहा था। दिल्ली से दूर अपनी जबान की धूम मचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। बीजापुर में हिंदवी को बहुत इज्जत मिली। वहां का सुलतान आदिलशाह अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था, उसे जगदगुरू कहा जाता था। सुलतान ने स्वयं हजरत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम), ख्वाजा गेसूदराज और बहुत सारे हिंदू देवी देवताओं की शान में शायरी लिखी। गोलकुंडा के कुली कुतुबशाह भी बड़े शायर थे। उन्होंने राधा और कृष्ण की जिंदगी के बारे में शायरी की। मसनवी कुली कुतुबशाह एक ऐतिहासिक किताब है। 1653 में उर्दू गद्य (नस्त्र) की पहली किताब लिखी गई। उर्दू के विकास के इस मुकाम पर गव्वासी का नाम लेना जरूरी हैं। गव्वासी ने बहुत काम किया है इनका नाम उर्दू के जानकारों में सम्मान से लिया जाता है। दकन में उर्दू को सबसे ज्यादा सम्मान वली दकनी की शायरी से मिला। आप गुजरात की बार-बार यात्रा करते थे। इन्हें वली गुजराती भी कहते हैं। 2002 में अहमदाबाद में हुए दंगों में इन्हीं के मजार पर बुलडोजर चलवा कर नरेंद्र मोदी ने उस पर सड़क बनवा दी थी। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीत, साहित्य, वास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है।
1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुगुल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे। वहां अबुलफजल भी थे, तो फैजी भी थे, अब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेव, बाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावती की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी है।शाहजहां के काल में मुगल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली आ गई। इसी दौर में वली दकनी की शायरी दिल्ली पहुंची और दिल्ली के फारसी दानों को पता चला कि रेख्ता में भी बेहतरीन शायरी हो सकती थी और इसी सोच के कारण रेख्ता एक जम्हूरी जबान के रूप में अपनी पहचान बना सकी। दिल्ली में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध ने दिल्ली से अपना नाता तोड़ लिया लेकिन जबान की तरक्की लगातार होती रही। दरअसल 18वीं सदी मीर, सौदा और दर्द के नाम से याद की जायेगी। मीर पहले अवामी शायर हैं। बचपन गरीबी में बीता और जब जवान हुए तो दिल्ली पर मुसीबत बनकर नादिर शाह टूट पड़ा।
उनकी शायरी की जो तल्खी है वह अपने जमाने के दर्द को बयान करती है। बाद में नज़ीर की शायरी में भी ज़ालिम हुक्मरानों का जिक्र, मीर तकी मीर की याद दिलाता है। मुगलिया ताकत के कमजोर होने के बाद रेख्ता के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र हैं, हैदराबाद, रामपुर और लखनऊ। इसी जमाने में दिल्ली से इंशा लखनऊ गए। उनकी कहानी ''रानी केतकी की कहानी'' उर्दू की पहली कहानी है। इसके बाद मुसहफी, आतिश और नासिख का जिक्र होना जरूरी है। मीर हसन ने दकनी और देहलवी मसनवियां लिखी।
उर्दू की इस विकास यात्रा में वाजिद अली शाह 'अख्तर' का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन जब 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो अदब के केंद्र के रूप में लखनऊ की पहचान को एक धक्का लगा लेकिन दिल्ली में इस दौर में उर्दू ज़बान परवान चढ़ रही थी।
बख्त खां ने पहला संविधान उर्दू में लिखा। बहादुरशाह जफर खुद शायर थे और उनके समकालीन ग़ालिब और जौक उर्दू ही नहीं भारत की साहित्यिक परंपरा की शान हैं। इसी दौर में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने उर्दू की बड़ी सेवा की उर्दू के सफरनामे का यह दौर गालिब, ज़ौक और मोमिन के नाम है। गालिब इस दौर के सबसे कद्दावर शायर हैं। उन्होंने आम ज़बानों में गद्य, चिट्ठयां और शायरी लिखी। इसके पहले अदालतों की भाषा फारसी के बजाय उर्दू को बना दिया गया।
1822 में उर्दू सहाफत की बुनियाद पड़ी जब मुंशी सदासुख लाल ने जाने जहांनुमा अखबार निकाला। दिल्ली से 'दिल्ली उर्दू अखबार' और 1856 में लखनऊ से 'तिलिस्मे लखनऊ' का प्रकाशन किया गया। लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की स्थापना का उर्दू के विकास में प्रमुख योगदान है। सर सैय्यद अहमद खां, मौलाना शिबली नोमानी, अकबर इलाहाबादी, डा. इकबाल उर्दू के विकास के बहुत बड़े नाम हैं। इक़बाल की शायरी, लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी और सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा हमारी तहजीब और तारीख का हिस्सा हैं। इसके अलावा मौलवी नजीर अहमद, पं. रतनलाल शरशार और मिर्जा हादी रुस्वा ने नोवल लिखे। आग़ा हश्र कश्मीरी ने नाटक लिखे।
कांग्रेस के सम्मेलनों की भाषा भी उर्दू ही बन गई थी। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस $गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।
आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है लेकिन दाग के शब्दों में

उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दाग
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।

Sunday, July 26, 2009

एक और ऐतिहासिक भूल

केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापसी की वाम मोर्चा की नीति कुतूहल का विषय तो तब से ही थी, जब प्रकाश करात ने इसकी घोषणा की थी। 2004 में कांग्रेस ने वामपंथी दलों के सहयोग से केंद्र में सरकार बनाने का फैसला किया था, तभी से जानकारों को विश्वास था कि सरकार के चार सला पूरा होने के बाद ही समर्थन वापसी हो जायेगी।

इस सोच का आधार यह था कि बाहर से रहकर समर्थन दे रही पार्टी चुनाव में जाने के पहले कांग्रेस से झगड़ा करके कांग्रेस पार्टी के उन कामों से पल्ला झाड़ लेगी जो अलोक प्रिय होंगे और उन कामों के लिए क्रेडिट लेगी जिनसे चुनावी फायदा होगा, जो जनहित में होंगी। आजकल वामपंथी पार्टियों के प्रवक्ता चारों तरफ यह कहते फिर रहे हैं कि देश की अर्थ व्यवस्था को तबाह होने से कम्युनिस्टों ने बचाया। उनका दावा है कि मनमोहन सिंह सरकार तो ऐसी नीतियां बनाने और लागू करने की फिराक में थी जो देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह अमरीकियों का मोहताज बना देतीं और उनका विरोध परमाणु संधि से था, जिसके कारण उन्होंने सरकार से समर्थन वापस ले लिया।

सब जानते है कि यह बहाना है क्योंकि अगर समर्थन वापसी का यही कारण है तो जब परमाणु समझौते की बात शुरू हुई, यह काम तभी हो जाना चाहिए था। दरअसल समर्थन वापसी की कुछ गुत्थियां अब सुलझने लगी हैं। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े लेकिन बरखास्त नेता सोमनाथ चटर्जी ने कहा है कि उन्होंने माकपा नेत्तत्व को समझाने की कोशिश की थी और आगाह किया था कि 1996 वाली गलती की तरह फिर ऐतिहासिक भूल न करें। 1996 में गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने का काम माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ज्योति बसु को मिल रहा था, लेकिन माकपा की केंद्रीय कमेटी ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया और एच. डी. देवगौड़ा प्रधानमंत्री बन गए।

सोमनाथ चटर्जी ने दावा किया है कि उन्होंने माकपा के नेताओं को समझाया था कि परमाणु समझौते के खिलाफ अपना रूख ज्यों का त्यों रखो- देश की जनता को अपनी बात से अवगत कराओ लेकिन समर्थन वापस मत लो। सोमनाथ चटर्जी का कहना है कि समर्थन वापसी से वही ताकते मजबूत होंगी जिनके खिलाफ हम जीवन भर संघर्ष करते रहे हैं। लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा और अपनी जिद पर आमादा वामपंथी नेतृत्व ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। नतीजा सामने है एक सरकार सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थी, उसके सामने अस्त्तित्व का संकट पैदा हो गया। आज वामपंथी पार्टियां चुनाव मैदान में हैं अब तक के संकेतों से साफ है कि लोकसभा में वामपंथी सदस्यों की जो संख्या थी, इस बार उससे कम होगीं यानी सरकार से समर्थन वापसी से जिस राजनीतिक फायदे की उम्मीद थी, वह नहीं हुई उल्टे घाटा होने का खतरा पैदा हो गया है।

Friday, June 26, 2009

पद की गरिमा

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपाल स्वामी ने जाते जाते एक और कारनामा कर दिखाया है जिससे उनके बारे में जो शक शुरू था, उसके सच्चाई में बदलने के आसार बढ़ गए हैं इसके पहले भी चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सिफारिश करके श्री गोपाल स्वामी, विवादों में घिर चुके हैं। बीजेपी के नेताओं की शिकायत पर उन्होंने नवीन चावला के खिलाफ कार्रवाई की शुरूआत कर दी थी।

उस वक्त आम धारणा यह बनी थी कि मुख्य चुनाव आयुक्त ने फैसला करने के लिए कुछ ऐसे तथ्यों पर भी विचार किया था जो फाइल में नहीं थे। इस बार भी उन्होंने कांगेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ कार्रवाई करने की इच्छा जता कर, एक खास राजनीतिक दल के लिए अपनी मुहब्बत का खुलासा कर दिया है।

वर्तमान मामला ऐसा नहीं था जिसमें बहुत कुछ किया जा सके। मामला 2006 का है जब बेल्जियम की सरकार ने सोनिया गांधी को एक नागरिक सम्मान देकर उनका अभिनंदन किया था। यह वह दौरा था जब बीजेपी वाले यह मानते थे कि सोनिया गांधी बहुत मामूली राजनीतिक नेता हैं उसके दो साल पहले ही बीजेपी नेता सुषमा स्वराज ने धमकी दे रखी थी कि अगर सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री बनीं तो सुषमा जी सिर मुंडवा लेंगी। 2006-07 तक भी बीजेपी के सोनिया गांधी के प्रति रूख में यही हल्कापन नजर आता था।

इसी सोच के तहत सोनिया गांधी को फूंक कर उड़ा देने की मंशा के तहत यह कदम उठाया गया था शायद दिमाग में कहीं यह विचार भी रहा हो कि गोपाल स्वामी साहब से अच्छे रसूखा के चलते सोनिया गांधी को अपमानित करने का एक मौका हाथ आ जाएगा। चुनाव आयोग में इस तरह की बहुत सारी शिकायतें आती रहती हैं और उनका निपटारा होता रहता है, लेकिन गोपाल स्वामी ने न केवल मामले को महत्व दिया बल्कि इस पर कार्रवाई करने के अपने मंसूबे का भी इजहार किया। यह अलग बात है कि अपने रिटायर होने के ठीक एक दिन पहले इस तरह का आचरण करके उन्होंने अपनी प्रतिबद्घता का साफ संकेत दिया है।

और निर्वाचन आयोग की गरिमा पर ठेस पहुंचाने की कोशिश की है। माना जाता है कि संवैधानिक मर्यादा सुनिश्चित करने वाले संगठनों के खिलाफ आम तौर पर बयान नहीं दिया जाना चाहिए ऐसा करना लोकतंत्र के हित में नहीं हैं। यहां यह बात दिलचस्प है कि चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संगठनों की मार्यादा को सर्वोच्च रखने का जिम्मा उन लोगों पर भी तो है जो वहां बड़े पदों पर बैठे हुए हैं अगर सर्वोच्च पद पर बैठे हैं। व्यक्ति के कार्यकलाप से ही यह संकेत मिलने लगे कि वह अपने पद की गरिमा को नहीं संभाल पा रहा है तो यह देश का दुर्भाग्य है।

यहां यह कहने की बिल्कुल मंशा नहीं है कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त का किसी खास राजनीतिक पार्टी से संबंध है लेकिन इस बात पर हैरत जरूर है कि उनके ज्यादातर फैसलों से देश की राजनीति में एक खास सोच के लोगों का फायदा होता था। बहरहाल अब तो वे रिटायर हो गए लेकिन अपने पद की गरिमा के साथ उन्होंने जो ज्यादती की है उसे दुरूस्त होने में बहुत समय लगेगा।