Monday, April 1, 2013

रिटायर होने के बाद भी इन्साफ के लिए लड़ते हैं जस्टिस मार्कंडेय काटजू



शेष नारायण सिंह


  प्रेस काउन्सिल के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने १९९३ के मुंबई धमाकों के आभियुक्त संजय दत्त और जेबुन्निसा की सज़ा को माफ करवाने के लिए राष्ट्रपति और महाराष्ट्र के राज्यपाल से अपील करने का फैसला कर लिया है . आज जब उनको बताया गया कि संजय दत्त ने कहा है कि वे कोई माफी नहीं मांगने जा रहे हैं और वे निर्धारित समय पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार समर्पण कर देगें और देश की सबसे बड़ी अदालत ने उन्हें जो सज़ा दी है उसे भुगत कर ही बाहर आयेगें ,तो जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा कि उनकी योजना पर संजय दत्त के इस बयान से कोई फर्क नहीं पडेगा क्योंकि वे संजय दत्त के प्रतिनिधि के रूप में नहीं जा रहे हैं . वे अपनी तरफ से सज़ा को माफ करवाने के लिए अपील करेगें .उन्होंने कहा कि संजय दत्त और जेबुन्निसा का मामला ऐसा है जिसमें उन दोनों की सज़ा को माफ किया जाना चाहिए . जस्टिस काटजू का विरोध बीजेपी और आर एस एस से जुड़े संगठन और उन  संगठनों से सहानुभूति रखने वाले लोग पूरे जोर शोर से कर रहे हैं . एक टी वी बहस में जनता पार्टी के अध्यक्ष ,डॉ सुब्रमण्यम  स्वामी ने बहुत  ही ज़ोरदार तरीके से कहा कि सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला है जिसमें  लिखा है कि किसी भी व्यक्ति की सजा को माफ करने का एक ही आधार बनता है कि  सजा को माफ करने से कोई सार्वजनिक हित का काम होगा . संजय  दत्त को माफी देने से किसी भी सार्वजनिक हित के काम के होने की कोई संभावना नहीं है  इसलिए उनको माफी नहीं दी जानी चाहिए . लेकिन जस्टिस मार्कंडेय काटजू का तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद ७२ और १६१ में लिखा है कि किसी भी सज़ा पाए हुए व्यक्ति को राष्ट्रपति और राज्यपाल माफी दे  सकते हैं . उन्होंने जोर देकर कहा कि दोनों ही अनुच्छेदों में कहीं नहीं लिखा है कि माफी का आधार क्या होगा . उन्होंने कहा कि माफी देने के हज़ारों आधार हो सकते हैं . यह तो राष्ट्रपति और राज्यपाल के विवेक पर छोड़ दिया गया है .  सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों में यह उल्लेख अवश्य है कि सार्वजनिक हित का कोई मुद्दा होना चाहिए लेकिन ऐसे कई फैसले हैं जिनमें यह भी लिखा है कि सार्वजनिक हित के अलावा और भी मुद्दों पर सज़ा को  माफ किया जा सकता है . कम से कम संविधान तो  इसके लिए कोई भी शर्त नहीं निर्धारित करता . जहां तक सुप्रीम कोर्ट  के  किसी फैसले की बात है ,किसी भी फैसले के बाद राष्ट्रपति और राज्यपाल के क्षमा देने के अधिकारों में कोई भी परिवर्तन नहीं किया गया  है .

जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा है कि संजय दत्त की माफी की अपील करने के पहले उन्होने  संजय दत्त से कोई बात नहीं की है . उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले में दो बातें  लिखी हैं . एक तो यह कि संजय दत्त पर आतंक के किसी भी अपराध में शामिल होने के सबूत नहीं  हैं . अदालत ने यह भी कहा है कि उन्होने यह हथियार अपने परिवार की रक्षा के लिए रखे थे .और दूसरा यह कि संजय दत्त ने अपने पास ऐसे हथियार रखे जो उनको नहीं रखना  चाहिए था . उसकी सज़ा उन्हें  मिल चुकी है . वे १८ महीने जेल में रहकर आये हैं और जेल से आने के बाद भी कई साल तक अपने आपको संभलाने में लगे रहे . इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें छोड़ दिया  गया है . जस्टिस काटजू की अपील यह  है कि मानवीय आधार पर संजय दत्त और जेबुन्निसा की सजा को माफ किया जाना चाहिए. . इसलिए उन्होने  यह अपील की  है . जब जस्टिस काटजू को याद दिलाया गया कि ए के ५६ जैसे हथियारों से परिवार की रक्षा की बात समझ में नही आती  तो उन्होंने कहा कि  सुप्रीम कोर्ट के फैसले में लिखी बातों पर वे बहस नहीं करना चाहते , न उनको करना चाहिए .   उन्होंने यह भी साफ़ किया कि वे  किसी न्यायिक प्रक्रिया के तहत माफी की बात  नहीं कर रहे हैं वे तो राष्ट्रपति और राज्यपाल के उस अधिकार की बात कर रहे हैं  जो उन्हें संविधान की ओर से मिला हुआ है .
जेबुन्निसा काजी के केस में भी जस्टिस  मार्कंडेय काटजू को मेरिट नज़र आती है .उन्होंने कहा कि उनके बारे में हुए फैसले को पढ़ने के बाद वे इस नतीजे पर पंहुचे हैं कि  जेबुन्निसा को भी माफी मिलनी चाहिए .उनको सज़ा केवल इस बात पर मिली है कि उनके पास से ऐसे हथियार मिले हैं जिनको रखना गैर कानूनी है .उनकी बेटी का कहना है कि वे लोग अबू सलेम को इलाके के एक प्रापर्टी डीलर के रूप में जानते थे और जब वह कोई सामान रख कर चला गया और बाद में पता चला कि वे हथियार थे तो उनकी माँ का क्या कसूर है . पड़ोसी का सामान कौन  नहीं रखता . उनकी माँ को मालूम ही नहीं था कि  उस बैग में क्या रखा था. जस्टिस काटजू का  कहना है कि जेबुन्निसा ने इस बात का कभी खंडन नहीं किया कि उनके यहाँ सामान नहीं  मिला. उनकी राय  में जेबुन्निसा को शुरुआती स्तर पर ही बेनिफिट आफ डाउट मिलना चाहिए था .लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ है तो अब उनको माफी दी जानी चाहिए. वे बहुत बीमार हैं . उनकी किडनी का आपरेशन हुआ है .उनको हर छः महीने  बाद जांच करवानी पड़ती है . जस्टिस काटजू को डर है कि वे बाकी सज़ा काट ही नहीं पायेगीं. वैसे भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पैरा १२५ में लिखा है कि वे साज़िश के मुख्य आरोप में दोषी नहीं  पायी गयी हैं .

जस्टिस काटजू को इन्साफ की लड़ाई में शामिल होने का शौक़ है . इसके अलावा वे कभी भी सच्चाई को बयान करने में संकोच नहीं करते. पिछले दिनों कुछ टी वी पत्रकारों को कम बौद्धिक स्तर का व्यक्ति बताकर टी वी उन्होंने पत्रकारिता के मठाधीशों को नाराज़ कर दिया था .उनके इस बयान के बाद तूफ़ान मच गया . टी वी न्यूज़ के अपनी ताक़त दिखाना शुरू कर दिया . उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाने लगा . पत्रकार बिरादरी में मार्कंडेय काटजू को घटिया आदमी बताने का फैशन चलाने की कोशिश शुरू हो गयी. अधिकतम लोगों तक अपनी पंहुच की ताक़त के बल पर टी वी चैनलों के कुछ स्वनामधन्य न्यूज़ रीडरों ने तूफ़ान खड़ा कर दिया . लेकिन मार्कंडेय काटजू ने अपनी बात को सही ठहराने का सिलसिला जारी रखा. हर संभव मंच पर उन्होंने अपनी बात कही. जब एक टी वी चैनल की महिला एंकर ने उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया तो उन्होंने फ़ौरन अपना प्रोटेस्ट दर्ज किया . उन एंकर को टेलीफोन करके बताया कि वे उनके बयान को सही तरीके से उद्धरित नहीं कर रही हैं . टी वी चैनल की नामी एंकर साहिबा कह रही थीं कि मार्कंडेय काटजू ने अधिकतर पत्रकारों को अशिक्षित कहा है . काटजू ने उनको फोन करके बताया कि आप गलत बोल रही हैं . करण थापर के साथ हुए इंटरव्यू में मैंने कुछ पत्रकारों को "पूअर इंटेलेक्चुअल लेवल " वाला कहा है . उन्होंने  आग्रह किया कि मेरी आलोचना अवश्य कीजिये लेकिन कृपया मेरी बात को सही तरीके से कोट तो कीजिये . झूठ के आधार पर कोई डिस्कशन संभव नहीं है .

उसके बाद देश के सबसे सम्मानित अंग्रेज़ी अखबार ने जस्टिस मार्कंडेय काटजू के स्पष्टीकरण को प्रमुखता से छापा  और टी वी पत्रकारों के " पूअर इंटेलेक्चुअल लेवल " के विषय पर सार्थक बहस शुरू कर दी  .लेकिन जस्टिस काटजू अपनी बात पर डटे रहे और बहुत सारे टी वी न्यूज़  वालों सार्वजनिक रूप से तो नहीं लेकिन निजी बातचीत में बार बार स्वीकार किया कि काटजू की बात में दम है . मार्कंडेय काटजू  सफल रहे और बहुत सारे लोगों की कोशिश के बाद भी  मीडिया को उनके खिलाफ नहीं खड़ा किया जा  सका. वे आज भी मीडिया के प्रिय है . देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल के प्रमुख तो उन्हने अक्सर अपने यहाँ सम्मान के साथ  बुलाते हैं और उनकी बात को प्रमुखता  देते हैं .
जस्टिस काटजू का परिवार पिछले सौ साल से भी अधिक समय से इलाहाबाद हाई कोर्ट और  वहाँ की न्याय परंपरा का हिस्सा रहा है . उनके पिता ,जस्टिस एस एन काटजू इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं. मार्कंडेय काटजू के दादा डॉ कैलाश नाथ काटजू आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुए थे और केंद्र सरकार  में कानून और रक्षा विभाग के मंत्री भी रह चुके थे. वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी थे. खुद मार्कंडेय काटजू अंग्रेज़ी,
हिन्दीसंस्कृत उर्दूइतिहास ,दर्शनशास्त्र ,समाजशास्त्र जैसे विषयों के अधिकारी विद्वान् हैं . १९६८ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एल एल बी परीक्षा में उन्होंने टाप किया था . इलाहाबाद के हाई कोर्ट में ४५ साल की उम्र में ही जज बन गए थे. मद्रास और दिल्ली हाई कोर्टों में मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं.बहुत सारी किताबों के लेखक हैं और अपनी बात को बिना किसी संकोच के बिना किसी हर्ष विषाद के कह देने की कला में निष्णात हैं . उन्होंने ही इलाहाबाद हाई कोर्ट के बारे में वह बयान दिया था जिसमे उस महान संस्था में काम करने वालों की कठोर आलोचना की गई थी.

बहरहाल उन्होंने संजय दत्त और जेबुन्निसा को मिली सज़ा को माफ कराने का अभियान शुरू करके एक विबाद को फिर जन्म दे दिया है . यह देखन दिलचस्प होगा कि  उनका अभियान क्या रंग लाता है .

श्रीलंका में तमिलों की हालत हिटलर कालीन जर्मनी के यहूदियों जैसी है



शेष नारायण सिंह

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका की सेना की तरफ से श्रीलंकाई तमिलों पर हुई ज्यादतियों के बारे में एक और प्रस्ताव पास हो गया  है . २०११ में भी एक प्रस्ताव पास हुआ था. उस वक़्त श्रीलंका की सरकार ने अपने  राजनयिकों को दुनिया भर में भेजा था और कोशिश की थी कि उसके ऊपर मानवाधिकारों के बारे में संयुक्त राष्ट्र की किसी संस्था में कोई प्रस्ताव न पास हो लेकिन प्रस्ताव पास हो गया था. प्रस्ताव पास करके रिकार्ड की फ़ाइल में रख दिया गया था श्रीलंका की सरकार के ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ा. उसके बाद श्रीलंका ने संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार संबंधी चिंताओं को टालना शुरू कर दिया . इस साल जब प्रस्ताव पास होने वाला था तो श्रीलंका ने  जूनियर अफसरों  का एक प्रतिनिधिमंडल जिनेवा भेज दिया था .  प्रस्ताव पास हो गया . मानवाधिकार परिषद  ने बहुत ही चिंता के साथ यह नोट किया है कि मानवाधिकारों की तबाही  के जो आरोप श्रीलंका की सेना पर लगाये  गए हैं उन पर वहाँ की सरकार गौर नहीं कर रही है . तमिल विद्रोहियों के साथ चले २६ साल के युद्ध में तमिल सेना ने बहुत अत्याचार किया था और एक अनुमान के अनुसार करीब ४०  हज़ार तमिल मूल के गैर सैनिक नागरिकों को मार डाला था . लड़ाई २००९ में खत्म हो गयी थी और  बहुत सारे तमिल विद्रोहियों ने समर्पण कर दिया था. यह अलग बात  है कि बाद में वे सभी सरकारी रिकार्ड में 'लापता दिखा दिए गए थे. श्रीलंका में इस ‘लापता ‘ का मतलब ठिकाने लगा दिया जाना माना जाता है .
जब जिनेवा में मानवाधिकार परिषद में वोट पड़ने वाला था तो बहुत सारे श्रीलंकाई मानवाधिकार कार्यकर्ता वहाँ गए थे और कोशिश कर रहे थे कि ऐसा प्रस्ताव पास किया जाए जिससे श्रीलंका की सरकार पर कुछ दबाव पड़ सके . ज़ाहिर है प्रस्ताव तो बहुत ही हल्का है लेकिन जो लोग इस प्रस्ताव के पक्ष में थे उनको श्रीलंका में  देशद्रोही के रूप में पेश किया जा रहा है और उनको डर है कि अगर वे वापस  गए तो उनको भी 'लापता बता दिया जाएगा.  श्रीलंका में उन लोगों की खैर नहीं है जो राजपक्षे सरकार के  खिलाफ कोई भी राय रखते हों . और अगर वे अपनी राय को कहीं व्यक्त कर दें तो खतरा बहुत बढ़  जाता है . शायद इसीलिये उन पत्रकारों को'लापता होना पड़ रहा है जिन्होंने कभी भी राजपक्षे  सरकार के खिलाफ कुछ भी लिखा है. 
संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद का ताज़ा प्रस्ताव भी श्रीलंका की सरकार पर कोई असर नहीं डाल पायेगा . प्रस्ताव की भाषा बहुत हल्की है उसमें लिखा  है कि श्रीलंका की सरकार को " मानवाधिकारों के कथित उन्लंघन " की जांच करनी चाहिए .यानी सारी दुनिया को मालूम है कि किस तरह से श्रीलंका की सेना ने तमिलों के खून से होली खेली थी लेकिन मानवाधिकार  परिषद उसे कथित के मुलम्मे के साथ प्रस्ताव में पेश करती है . इस तरह के प्रस्ताव से  मानवाधिकारों की रक्षा  की कोई बात तो नहीं ही होने वाली है क्योंकि श्रीलंका को मालूम है कि दुनिया की सरकारें श्रीलंका से किसी गंभीर कार्रवाई की उम्मीद  नहीं करतीं. अगर ऐसा होता तो मानवाधिकारों के बड़े अलम्बरदार बने हुए ब्रिटेन ने कम से कम नाराज़गी जताने की गरज से ही सही , कोलम्बो में प्रस्तावित कामनवेल्थ देशों के सम्मेलन को  ही कहीं और टालने की घोषणा कर दी होती .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.

२००९ में श्रीलंका ने तमिल विद्रोहियों के आंदोलन को कुचल दिया था . उसके बाद से अब तक सरकार ने स्वीकार भी नहीं किया है कि तमिलों के साथ कोई अत्याचार हुआ था. आज भी श्रीलंका के उत्तर और पूर्व में रहने वाले  तमिलों को सेना की बन्दूक की दहशत के नीचे जीवन बिताना पड़ रहा है .लोगों को बिला वजह पकड़ लिया जाता है और बाद में खबर आती है कि वे'लापता हो गए  हैं . जब उनके रिश्तेदार थाने जाकर पुलिस से पूछताछ करते हैं तो पता लगता है कि सम्बंधित व्यक्ति लापता ‘  हो गया है और वह वापस नहीं आएगा. लोगों को मालूम है कि पुलिस के इस बयान का मतलब यह है कि वह व्यक्ति मार दिया गया है . मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को हमेशा डराने धमकाने की कोशिश हमेशा होती रहती है. श्रीलंका की सरकार को अब भरोसा हो गया है कि  कहीं भी कोई प्रस्ताव पारित हो जाए उसके ऊपर कोई दबाव नहीं पड़ने वाला है क्योंकि उसको सुरक्षा परिषद में चीन और  रूस का समर्थन हासिल है जिसके सहारे वह अमरीका की कोई परवाह   नहीं करता. श्रीलंका में जापान के व्यापारिक हित हैं इसलिए जापान भी उसके खिलाफ ऐसा कोई काम नहीं करता जिस से राष्ट्रपति राजपक्षे नाराज़ हो जाएँ .जानकार बताते हैं कि अमरीका भी शायद इसीलिये कुछ करता है कि श्रीलंका में उसके कोई  भी राजनीतिक या व्यापारिक हित नहीं हैं .

श्रीलंका के मानवाधिकार के उन्लंघन के मामले में भारत की दुविधा सबसे भारी है .श्रीलंका में जिस तमिल आबादी पर श्रीलंका की फासिस्ट सोच वाली सरकार का आतंक है वह मूल रूप से भारतीय है ,तमिलनाडु से ही श्रीलंकाई तमिलों के पूर्वज वहाँ गए थे. भारत की राजनीति पर तमिलों के साथ होने वाले अत्याचार का सीधा असर पड़ता है. इस बार तो इसी मुद्दे पर केन्द्र सरकार के  गिरने की नौबत आ गयी .शायद इसीलिये भारत सरकार ने जिनेवा में श्रीलंका के खिलाफ वोट के दौरान बहुत ही सख्त बातें कहीं . हालांकि जो बातें वहाँ कही गयीं  उनका पास हुए प्रस्ताव से कोई लेना देना  नहीं है लेकिन भारत सरकार अपने तमिलनाडु वाले समर्थक दल को अपने बयान के हवाले से बता सकती है कि उसने श्रीलंका सरकार के खिलाफ सख्त रुख अपनाया  था .जिनेवा में भारत के स्थायी प्रतिनिधि का बयान तमिलनाडु में २०१४ के चुनावों में बार बार दोहराया जाएगा और सरकार यह दावा करेगी कि कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार को इस बात पर बहुत तकलीफ थी कि बड़ी संख्या में श्रीलंकाई तमिल आतंक के साये में  जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हैं और सरकार को उन तमिलों के कल्याण की बहुत चिंता है .भारतीय बयान में कहा गया है कि भारत सरकार मांग करती है कि एल एल आर सी ( लेसंस लर्न्ट एंड रीकांसिलिएशन कमीशन ) की रिपोर्ट को लागू किया जाए. यह कमीशन श्रीलंका की सरकार ने ही बनाया था और उसके राष्ट्रपति इसके संरक्षक थे . भारत सरकार ने कहा है कि उत्तरी प्रांत में  लापता लोगों, बंदियों,और अपहरण का शिकार हुए लोगों के बारे में सरकार  अपनी नीति को स्पष्ट करे,. सिविलियन इलाकों से सेना को हटाया जाये ,तमिलों की वह ज़मीन जिस पर सेना ने कब्जा कर रखा  है उसे तुरंत वापस किया जाए . भारत सरकार ने मांग की है कि मानवाधिकार के हनन के सभी मामलों की निष्पक्ष और  विश्वसनीय जांच की जाए. .श्रीलंका की सरकार को चाहिए कि वह सारे मामलों में लोगों की जिम्मेदारी को सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाये.
जिनेवा में दिए गए भारत सरकार के बयान में वह सारी बातें लिखी हुई हैं जिनके सहारे सरकार ,कांग्रेस पार्टी और यू पी ए में कांग्रेस की सहयोगी रही डी एम के अपने आपको तमिलों का शुभचिंतक बता सकती है लेकिन यह बात भी तय है कि  श्रीलंका में रहने वाले तमिलों की मुसीबत अभी खत्म होने वाली नहीं है. उनको अभी उसी फासिस्ट तानाशाही को झेलना पड़ेगा जिसे हिटलर के काल में जर्मनी में रहने वाले यहूदियों को झेलना पड़ा था.  

Tuesday, March 26, 2013

बीजेपी और समाजवादी पार्टी में दूरियां घट रही हैं .




शेष नारायण सिंह
मुंबई, २४ मार्च .सत्ता की राजनीति में बड़े पैमाने पर मंथन चल रहा है .बीजेपी के नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी  राष्ट्रीय राजनीति में धमाकेदार इंट्री ली हैं .आम तौर पर माना जा रहा है की बीजेपी वाले उनको ही आगे  करके कांग्रेस के खिलाफ मोर्चेबंदी करेंगे .हिंदुत्व का  राजनीतिक इस्तेमाल उत्तर  प्रदेश में ही शुरू हुआ था. बाद में नरेंद्र मोदी ने उसका गुजरात में सफलता पूर्वक इस्तेमाल किया . मुसलमानों का खौफ पैदा करके वहाँ के हिंदुओं को एक किया और लगातार चुनाव जीतने  का  रिकार्ड बनाया .आज पूरे देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के उसी माडल को लागू करने की कोशिश की जा रही है . बीजेपी के नेता अभी तो न नुकुर कर रहे हैं लेकिन ईमान है कि आने वाले वक़्त में मोदी की ताक़त भारी पड़ेगी और  धार्मिक ध्रुवीकरण को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की राजनीति आर एस एस की मंजूरी के साथ लोकसभा २०१४ में इस्तेमाल की जायेगी. 
हिंदुत्व  को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने की बीजेपी की कोशिश में उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी अड़चन मुलायम सिंह यादव की पार्टी रही है.अगर कहा जाए कि  लाल कृष्ण आडवानी के हिंदुत्व के अभियान को मुलायम सिंह यादव ने रोक दिया था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. हिंदुत्व के राजनीतिक इस्तेमाल की उनकी मंशा के खिलाफ मुलायाम सिंह यादव चट्टान की तरह खड़े हो गए थे . उसका उनको राजनीतिक लाभ भी मिला. पिछले बीस वर्षों में कई बार उत्तर प्रदेश में सरकार बनी और केन्द्र में भी रक्षा मंत्री तक की पोजीशन तक पंहुचे .उन्होंने हमेशा कहा है कि लाल कृष्ण आडवानी इतिहास की गलत व्याख्या करते  हैं .खास तौर पर अयोध्या की बाबरी मसजिद के बारे में तो लाल कृष्ण आडवानी की हर बात को मुलायम सिंह यादव ने गलत बताया है लेकिन लखनऊ की एक सभा में उन्होंने ऐलान किया  कि लाल कृष्ण आडवानी कभी झूठ नहीं बोलते . उस सभा में मुलायाम सिंह यादव के प्रशंसक  इकठ्ठा हुए थे लेकिन जब   मुलायम सिंह यादव 
ने आडवाणी की तारीफ़ के पुल बांधना शुरू किया तो उन लोगों को अपने कानों पर 

विश्वास ही नहीं हुआ .मुलायम सिंह यादव ने कहा कि लाल कृष्ण आडवाणी जैसे 


बड़े नेता ने उनसे कहा है कि वह चाहते हैं कि सूबे में सपा की सरकार चले लेकिन 

उप्र में भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है। बकौल मुलायम 'यदि आडवाणी ऐसा कह रहे हैं तो 

हमें निश्चित समीक्षा करनी चाहिए। आडवाणी कभी झूठ नहीं बोलते।' मुलायम सिंह 

यादव के इस बयान को राजनीतिक विश्लेषक भूलवश दिया गया बयान नहीं मानते. 

ऐसा लगता है कि  समाजवादी पार्टी में बीजेपी को लेकर गंभीर विचार मंथन चल 

रहा है .अभी कुछ दिन पहले पार्टी के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण नेता राम गोपाल यादव 

ने बीजेपी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी की तारीफ़ की थी और कहा था 


कि अगर उनकी सरकार के ऊपर २००२ के गोधरा के बाद के नर संहार का दाग न 


लगा होता तो वे डॉ मनमोहन सिंह से बहुत अच्छे प्रधान मंत्री थे. उन्होंने कहा  था 

कि अटल जी और डॉ मनमोहन सिंह में कोई तुलना नहीं की जा सकती .

इसके अलावा भी समाजवादी पार्टी और बीजेपी के बीच बढ़ रही नजदीकियां और भी अवसरों पर देखी गयी हैं . राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान लोकसभा में सपा और भाजपा के बीच नए समीकरणों के संकेत दिखे। मुलायम सिंह यादव ने बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के सामने दोनों दलों के बीच दूरी  कम करने का एक  फार्मूला पेश किया .बीजेपी के देशभक्ति, सीमा और भाषाई मुद्दों से शत-प्रतिशत सहमति जताते हुए मुलायम सिंह ने कहा कि यदि मुसलिम और कश्मीर मुद्दे पर वे अपनी नीति बदल लें तो उनके-हमारे बीच की दूरी कम हो जाएगी। जवाब में राजनाथ ने दोनों दलों के बीच दूरियां होने की बात को नकारते हुए भविष्य में साथ आने के संकेत भी दे दिए. राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बुधवार को विपक्ष की तरफ से चर्चा की शुरुआत करते हुए राजनाथ ने किसानों, गरीबों की बात की तो वह मुलायम सिंह यादव बहुत प्रभावित हुए . मुलायम सिंह ने राजनाथ की ओर मुखातिब होकर कहा कि देशभक्ति, सीमा मामलों और भाषा पर हमारी व बीजेपी की नीति एक ही है बीच की दूरी कम हो जाएगी .उनकी इस बात पर बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उठकर हमारे और आपके बीच में दूरी कहां है? अगली बार निश्चित तौर पर आप हमारे साथ होंगे। मुलायम ने भी जोर देकर दोबारा कहा, मैं फिर कह रहा हूं और इस सदन में कह रहा हूं कि भाजपा अपनी नीति बदल रही है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में सत्ता की इस करवट का मतलब समझ में आना शुरू तो हो गया है लेकिन आने वाले दिनों में इसके संकेत और साफ़ हो जायेगें .और अगर यह तय हो गया कि समाजवादी पार्टी और बीजेपी के बीच दोस्ती बढ़ रही है तो उत्तर प्रदेश में राजनीति का खेल बिलकुल बदल जाएगा 

उत्तर प्रदेश सरकार की नाकामी का खामियाजा २०१४ में भुगतना पड़ सकता है .





शेष नारायण सिंह 

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने  उत्तर प्रदेश सरकार और उसके मंत्रियों को आइना दिखाने की कोशिश की .उन्होंने साफ़ कहा कि राज्य में पिछले एक साल में हालात बहुत बिगड गए हैं .उन्होंने सबसे पहले अपने बेटे और राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को ही नसीहत दी और कहा कि  अखिलेश के बारे में यह बहुत मशहूर हो गया है कि वे बहुत सीधे आदमी हैं  लेकिन सिधाई से राज नहीं चलता . सख्ती बरतनी पड़ेगी क्योंकि सत्ता में आने पर अपराधियों, अफसरों , माफिया आदि से सामना होता है और उनको दुरुस्त रखने के लिए सख्ती से काम लेना पडेगा . उन्होने साफ़ कहा कि राज्य में कानून व्यवस्था की हालत बहुत ही खराब है . कुल मिलाकर मुलायमसिंह यादव ने अपनी पार्टी की ऐसी आलोचना की जैसी कि किसी विपक्षी पार्टी ने भी नहीं की थी .
 
सवाल यह उठता है कि मुलायम सिंह यादव इतने गुस्से में क्यों  हैं . एक साल पहले बहुत ही खुशी खुशी उन्होने अपने बेटे को सत्ता सौंपी थी और उम्मीद जताई थी कि करीब दो साल बाद जब लोक सभा के चुनाव होंगें तो  समाजवादी पार्टी को लोक सभा में करीब ५० सीटें मिल जायेगीं . अगर ५० सीटें मिल जातीं तो उनके बल पर कांग्रेस या बीजेपी , कोई भी उन्हें प्रधान मंत्री बनाने के पेशकश कर सकता था . लेकिन आज साल भर बाद मुलायम सिंह यादव की पारखी नज़र ने भांप लिया है कि अगर आज चुनाव हो जाएँ तो उनकी पार्टी को उतनी सीटें भी नहीं मिलेगीं जितनी २००९ में मिली थीं. राज्य सरकार ही समाजवादी पार्टी की जीत या हार को सुनिश्चित करने का सबसे बड़ा जरिया है . और जब राज्य सरकार  की हालत खस्ता है तो उसके हवाले से २०१४ जीतना बिलकुल असंभव है. ऐसी हालत में मंत्रियों को सार्वजनिक रूप से फटकार कर उन्होने हालात को ठीक  करने की कोशिश की है .लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि वे स्थिति को कितना सुधार पाते हैं .

मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव और उनकी सरकार को फटकार कर यह बात तो बहुत साफ़ शब्दों में बता दिया है कि हालात में सुधार लाने की  ज़रूरत है लेकिन एक सच्चाई और है और वह यह कि उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार में अखिलेश यादव केवल मुख्यमंत्री हैं  . बाकी सभी कैबिनेट मंत्री वे हैं जो अखिलेश यादव को बच्चा समझते हैं और मुलायम सिंह यादव के भरोसे के लोग हैं . जब यह सरकार बनी थी तो  लोगों ने उम्मीद जताई थी कि अखिलेश यादव आधुनिक शिक्षा से लैस नौजवान हैं और वे सरकार में नए विचार लायेगें और उन विचारों के बल पर एक नए उत्तर प्रदेश का निर्माण होगा  लेकिन मुलायम सिंह यादव के साथ काम  कर चुके ज़्यादातर मंत्रियों ने आखिलेश की एक न सुनी और सबने अपने मंत्रालय को अपनी ज़मींदारी की तरह चलाना शुरू कर दिया . कानून व्यवस्था पर भी मुलायम सिंह यादव खासे  नाराज़ हैं . लेकिन सच्चाई यह है कि अखिलेश यादव जिस  पुलिस अफसर को राज्य पुलिस का नेतृत्व देना चाहते थे , उसको मौक़ा न देकर नेताजी ने अपने प्रिय अफसर को पुलिस की कमान सौंप दी.अगर आज कानून व्यवस्था की हालत खराब है तो उसके लिए  खराब पुलिस प्रशासन  ज़िम्मेदार  हैं . जहां तक अफ़सरों की तैनाती की बात है  उसमें भी अखिलेश यादव की बहुत नहीं चलती. उनके  अपने सचिवालय में ऐसे कई अफसर तैनात हैं जिनको नेताजी ने सीधे तौर पर नियुक्त किया है . ज़ाहिर है वे लोग भी आखिलेश यादव की नहीं सुनते. नोयडा में कुछ अफसरों की नियुक्ति के मामले में हाई कोर्ट के बार बार दखल देने ले बाद भी उनको वहाँ से तब हटाया गया जब लगा कि सरकार के ऊपर ही मानहानि का मुक़दमा चल जाएगा. बताते  हैं कि राज्य सरकार के एक बहुत ही महत्वपूर्ण पद पर एक ऐसे अफसर को तैनात कर दिया गया है जिसको कि कोर्ट के आदेश पर बाकायदा जेल की सज़ा हो चुकी है . तो ऐसी हालत में राज्य सरकार की असफलता का सारा ज़िम्मा अखिलेश यादव पर डाल  देना नाइंसाफी होगी. अगर मुलायम सिंह यादव चाहते हैं कि अखिलेश यादव पूरी जिम्मेवारी से अपना काम करें तो उनको मंत्रियों और अफसरों की तैनाती में खुली छूट देनी होगी वर्ना बहुत देर हो जायेगी .

मुलायम सिंह यादव ने जो आज लखनऊ में सार्वजनिक रूप से कहा  है वही बात उन्होंने इस रिपोर्टर को कई दिन पहले संसद भवन के अपने कमरे में बतायी थी जिसे कई अखबारों ने छापा भी था . मुलायम सिंह यादव का कहना है २०१४ का चुनाव बहुत ही गंभीरता से लड़ा जाएगा. उन्होंने बताया कि संसद का बजट सत्र खत्म होने के बाद वे निकल पड़ेगें और पूरे राज्य में  जनसंपर्क शुरू कर देगें . वे संसद का सत्र खत्म होते ही हर मंडल में पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक बुलायेगें और उनसे व्यक्तिगत संपर्क करेगें . स्वर्गीय जनेश्वर मिश्र ने उनको आगाह किया था कि अब हर कस्बे में जाने की ज़रूरत नहीं है . उनकी सलाह थी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उनको वहीं जाना चाहिए जहां समाजवादी पार्टी की राज्य इकाई वाले जाने को कहें . लेकिन उन्होंने  राज्य स्तर के अपने पार्टी के नेताओं खासी नाराजगी जताई और कहा कि जो विधायक बन गए हैं वे अब अपने क्षेत्रों में नहीं जा रहे हैं .जो लोग मंत्री बन गए हैं .वे भी तो विधायक ही  हैं लेकिन सब लोग लखनऊ में जमे रहते हैं और जनता से संपर्क नहीं रख रहे हैं . इस कारण से पार्टी का बहुत नुक्सान हो रहा है . उन्होने उन संसद सदस्यों के प्रति भी नाराजगी जताई जो कार्यकर्ताओं को दिल्ली बुला लेते हैं और उनको संसद के अंदर आने  का पास बनवा देते हैं . नतीजा यह होता है कि वे लोग संसद भवन के मुलायम सिंह यादव के कार्यालय के  बाहर आकर खड़े हो जाते हैं . यह ठीक नहीं है. वे चाहते हैं  कि पार्टी के कार्यकर्ता उन्हें लखनऊ में ही मिलें .

मुलायम  सिंह यादव की यह चिंता इसलिए भी है कि उत्तर प्रदेश में आगामी लोक सभा चुनाव  धार्मिक ध्रुवीकरण की बीजेपी की कोशिश की छाया में लड़ा जाएगा . अगर बीजेपी ने वरुण गांधी, उमा भर्ती, कल्याण सिंह और नरेंद्र मोदी जैसे लोगों के जयकारे के साथ चुनाव लड़ा तो यह बात लगभग पक्की है कि मुलायम सिंह यादव को मुसलमानों के वोट नहीं मिलेगें. और अगर मुसलमानों के वोट थोक में कांग्रेस के पास  चले गए तो मुलायम सिंह यादव की सीटें लोक सभा में मौजूदा सीटों से भी कम  हो जायेगीं. पिछली बार २००९ में यह सीटें इसलिए मिली थीं कि राज्य की एक बहुत बड़ी आबादी मायावाती को हराना चाहती थी. इस बार ऐसा नहीं है . इस बार तो ऐसे बहुत लोग मिल जायेगें जो मौजूदा सरकार के काम काज से बहुत निराश हैं और  वे इस सरकार के अलावा किसी और को वोर दे सकते हैं . अगर ऐसा हुआ तो मुलायम सिंह यादव और  उनकी पार्टी के लिए बहुत मुश्किल  हो जायेगी . 

Saturday, March 23, 2013

डी एम के की केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी के बाद के सवाल



शेष नारायण सिंह

डी एम के नेताएम करूणानिधि ने यू पी ए सरकार से समर्थन वापस लेकर राजनीतिक सरगर्मियां  बढ़ा दी हैं . तमिलनाडु में श्रीलंका के तमिलों के समर्थन में लोकप्रिय आंदोलन चल रहा है .ऐसी हालात में राज्य की किसी भी पार्टी के लिए ऐसी किसी सरकार के साथ खड़े रहना बहुत नुक्सानदेह साबित होगा जो श्रीलंका सरकार से किसी तरह से भी सहानुभूति रखती देखी जाए. जानकार बताते हैं कि समर्थन वापसी की राजनीति करूणानिधि की एक राजनीतिक चाल है और जैसा कि उनके बारे में सबको मालूम है वे अक्सर राजनीतिक सौदेबाजी कर रहे होते हैं. इस बार ऐसा नहीं लगता . तमिलों के प्रति केन्द्र सरकार के रुख से तमिलनाडु में नाराज़गी है .आमतौर पर माना जा रहा था कि चुनाव करीब आने पर डी एम के वाले केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी का ड्रामा करेगें लेकिन इतनी जल्दी कर देगेंइसकी उम्मीद नहीं थी. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि केन्द्र सरकार के साथ बने रहने में डी एम को कोई राजनीतिक लाभ नहीं होगा जबकि उसका साथ छोड़ देने से तमिलनाडु की सडकों पर  श्रीलंका  के तमिलों के साथ सहानुभूति प्रकट कर रही जनता के साथ सम्मिलित होने का मौक़ा मिल जाएगा. वहाँ की जयललिता सरकार भी अलग थलग पडी हुई है और उसकी असुविधा को अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने की रणनीति के तहत एम करुनानिधि ने  यह फैसला लिया है .उनकी समर्थन वापसी से केन्द्र सरकार की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है . समर्थन वापसी की बात शुरू होने के साथ साथ यू पी ए को बाहर  से समर्थन दे रही उत्तर प्रदेश की दोनों ही पार्टियों ने ऐलान कर दिया कि उनका समर्थन जारी रहेगा. ज़ाहिर है समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के समर्थन के सुनिश्चित हो जाने के बाद केन्द्र सरकार अपना कार्यकाल बिता लेगी.  हाँ नए घटनाक्रम का एक नतीजा यह हो सकता है कि मुलायम सिंह यादव को खुश रखने के लिए  कांग्रेस पार्टी अपने नेता और केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा को सरकार से निकाल दे. बेनी प्रसाद वर्मा को सरकार से बाहर कर देने में कांग्रेस का कोई राजनीतिक घाटा नहीं होगा क्योंकि सबको मालूम है कि बेनी बाबू की कोई राजनीतिक हैसियत नहीं है . अभी साल भर पहले हुए विधान सभा चुनावों में उन्होने एक सौ से ज्यादा लोगों को चुनकर विधान सभा का टिकट दिया था और किसी को नहीं जितवा पाए. यहाँ तक कि उनके अपने बेटे को भी चुनाव में  हार का सामना करना पड़ा था.बेनी प्रसाद वर्मा की राजनीतिक ताक़त की कोई खास अहमियत नहीं है और अगर उनको हटाकर समाजवादी पार्टी के २२ सदस्यों का समर्थन हासिल किया जा सकता है तो यह सौदा किसी तरह से भी घाटे का नहीं माना जाएगा. 
ऐसी स्थिति में लोक सभा चुनाव २०१४ के पहले  होने की संभावनाओं पर फिर चर्चा शुरू हो गयी है . इस बात से कोई फर्क नहीं पडता कि चुनाव  कब होंगें क्योंकि जब भी चुनाव होंगे राजनीतिक पैरामीटर अब तय हो चुके हैं . बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी की अगुवाई में चुनाव लड़ा जाना लगभग पक्का हो गया है . दिल्ली में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक अक्सर यह कहते पाए जाते  हैं कि बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह  नरेंद्र मोदी के पक्ष में नहीं हैं . यह बात सच नहीं है . राजनाथ सिंह ने खुद कहा है कि बीजेपी का सबसे लोकप्रिय नेता आज की तारीख में नरेंद्र मोदी हैं . उनका कहना  है कि जिन राज्यों में उनकी पार्टी की कोई  महत्वपूर्ण मौजूदगी नहीं है ,वहाँ भी नरेंद्र मोदी को  पसंद करने वालों की बड़ी संख्या है . तमिलनाडु जैसे राज्य में भी मोदी के प्रशंसक हैं . ऐसी हालत में लगता है कि २०१४ के चुनाव में नरेंद्र मोदी  ही प्रमुख होंगें और उनको राजनाथ सिंह का समर्थन रहेगा. बीजेपी के वे बड़े नेता जिनका  कोई ज़मीनी काम नहीं है, उनका कोई महत्व वैसे भी नहीं है . और जब राजनाथ सिंह और नरेंद्र मोदी में सहमति रहेगी तो बीजेपी में किसी भी नेता के लिए मोदी का विरोध कर पाना बहुत मुश्किल होगा. हाँ यह हो सकता है कि नरेंद्र मोदी  को अभी प्रधान मंत्री पद के दावेदार के रूप में न पेश किया जाए ,अभी उनको प्रचार कमेटी के मुखिया या और इसी तरह के किस किसी फैंसी पद के साथ चुनाव  का संचालन का ज़िम्मा दिया जाए लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि अगले चुनाव में नरेंद्र मोदी ही बीजेपी के कर्णधार होंगे और उनको पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का समर्थन रहेगा. बीजेपी को उम्मीद है कि पूरे देश में नरेंद्र मोदी के नाम पर लहर चल पड़ेगी और कांग्रेस का उसी तरह से सफाया हो जाएगा जैसा १९७७ में हो गया था.

राजनाथ सिंह की इस बात में दम हो सकता है कि नरेंद्र मोदी  के समर्थक पूरे भारत में हैं .लेकिन यह भी उतना ही सच है कि नरेंद्र मोदी के विरोधी भी पूरे भारत में हैं जहां तक मुसलमानों का सवाल है वे तो नरेंद्र मोदी को किसी भी सूरत में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं लेकिन गैर मुस्लिम आबादी में भी बीजेपी और नरेंद्र मोदी के विरोधियों की संख्या कम  नहीं है . नरेंद्र मोदी के विरोधी निश्चित रूप से आगामी चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगें. और देश की राजनीति के लिए यह समझ लेना ज़रूरी है कि अपनी धार्मिक पहचान वाली राजनीति के साथ नरेंद्र  मोदी देश की राजनीति को कहाँ तक प्रभावित करते हैं . नरेंद्र मोदी के बीजेपी के मुख्य चुनाव प्रचारक या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होने में सबसे दिलचस्प लड़ाई उत्तर प्रदेश  में ही होगी . कांग्रेस को उम्मीद है कि अगर नरेंद्र मोदी मुख्य नेता के रूप में आगे आये तो उत्तर प्रदेश में उसको फिर अच्छी सीटें मिल जायेगीं . जो कांग्रेस  पार्टी उत्तर प्रदेश के २००७ और २०१२ के विधान सभा चुनावों में सबसे कमज़ोर पार्टी के रूप में सामने आती है , वही पार्टी २००९ के लोक सभा चुनावों में राज्य की दोनों बड़ी पार्टियों, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से भारी क्यों पड़ती है . यह एक  ऐसी पहेली है जिसमें आगामी लोक सभा चुनावों के नतीजों का भेद छुपा है . उत्तर प्रदेश में कई जिलों में मुसलमानो की बड़ी संख्या है . वे आम तौर पर मुलायम सिंह यादव को वोट देते हैं .उनको भरोसा है कि समाजवादी पार्टी उनके हित का पूरा ध्यान रखेगी.लेकिन उनको यह भी मालूम है कि मुलायम सिंह यादव की पार्टी की उत्तर प्रदेश के बाहर कोई खास मौजूदगी नहीं है . वे चाहकर भी  केन्द्र में नरेंद्र मोदी या बीजेपी की सरकार बनने से नहीं रोक सकते . केन्द्र में बीजेपी के खिलाफ बड़ी राजनीतिक जमात तैयार करने के लिए ही २००९ में मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट दे दिया था.  कांग्रेस को इस बार भी  यही उम्मीद है . मुसलमानों के अलावा देश में  बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है जो राजनीति से धर्म  को अलग रखना चाहते हैं . वे भी अक्सर बीजेपी के  खिलाफ ही वोट डालते हैं . यह अलग बात है कि लालकृष्ण आडवानी से लेकर छोटे कार्यकर्ताओं तक बीजेपी वाले आजकल अपने आपको सेकुलर कहने लगे हैं . उनकी बातों को बहुत सारे लोग सच भी मानते हैं . और देश के कई हिस्सों में तो मुसलमानों में भी  यह बात मानी जाने  लगी है कि बीजेपी भी मुसलमानों को वह  नुक्सान नहीं पंहुचायेगी जैसा कि आम तौर पर कहा जाता है . इसी सोच के तहत देश के कई इलाकों में मुसलमानों ने भी बीजेपी को वोट दिया है  लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन सकने की संभावना के बाद तस्वीर एकदम  बदल जायेगी.  गोधरा हादसे के बाद हुए मुसलमानों एक नरसंहार के बारे में अब बहुत जयादा बात नहीं  होती लेकिन सब को मालूम है कि नरेंद्र मोदी  की उस कांड में क्या भूमिका थी. उसी का नतीजा है कि सारे देश में सेकुलर जमातें  मोदी के खिलाफ लामबंद हो जायेगीं . यह भी सच है कि जो भी बीजेपी के  साथ देखा जाएगा उसको सेकुलर जमातों  का वोट नहीं मिलेगा और मुसलमान  तो किसी भी सूरत में बीजेपी के किसी साथी को वोट नहीं देगा. डी एम के ने जब केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी की बात की तो बीजेपी के एक प्रवक्ता की बड़ी दिलचस्प टिप्पणी सुनने को मिली. उन्होंने कहा कि यू पी ए के सभी साथी उसका साथ छोड़ रहे हैं और अब यू पी ए बिलकुल अकेला पड़ जाएगा . लेकिन यही बात तो बीजेपी के बारे में भी सच है . करीब २४ पार्टियों के सहयोग से बीजेपी की सरकार १९९९ में बनी थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री बने थे .  धीरे धीरे वे सभी पार्टियां बीजेपी का साथ छोड़ गयीं . आज उनके साथ केवल शिवसेना और अकाली दल ही मौजूद हैं. नीतीश कुमार की पार्टी टेक्नीकल तौर पर तो उनके साथ है लेकिन कितनी साथ  है ,यह सबको मालूम है . २००४ के चुनावों में एक बहुत ही अजीब सच्चाई से राजनीतिक पार्टियों का सामना हुआ था . जिन लोगों ने सेकुलर वोट की मदद से अपने  राज्यों में सीटें हासिल की थीं  और दिल्ली आकर अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधान मंत्री बनवा दिया था वे सब जीरो हो गए थे . इसलिए अब यह माना जाता है कि सेकुलर वोट  की उम्मीद में जो भी राजनीतिक दल हैं . वे बीजेपी के साथ कभी नहीं जायेगें. चन्द्र बाबू नायडू, ममता बनर्जी , फारूक अब्दुल्ला आदि ऐसे कुछ नाम हैं जिन्होंने दोबारा सेकुलर वोट हासिल करने की क्षमता विकसित कर ली है जिसे वे शायद दुबारा न खोना  चाहें . ऐसी हालत में बीजेपी के राजनीतिक ध्रुवीकरण की  कोशिश का फायदा बीजेपी को तो होगा ही, कांग्रेस को भी होगा . क्योंकि जो लोग देश में धर्म निरपेक्ष राजनीति के समर्थक हैं उनके  सामने बीजेपी के विरोध में खड़ी कांग्रेस के अलावा किसी और के साथ जाने का  रास्ता नही बचेगा  . डी एम के नेता एम करूणानिधि ने सरकार से समर्थन वापसी की बात शुरू करके एक बार से फिर से देश के सामने मौजूद बड़े राजनीतिक सवालों को जिंदा कर दिया है .

कर्नाटक से उत्तर प्रदेश तक, राजनीति की नज़र २०१४ पर है .



शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में हुए शहरी निकायों के चुनावों के बाद देश की राजनीति में बहुत कुछ बदल गया है . वहाँ कांग्रेस ने जीत दर्ज की है और  विधानसभा चुनावों के पूर्व एक सन्देश देने में सफलता हासिल कर ली है कि वह कर्नाटक में सबसे मज़बूत राजनीतिक शक्ति है .कई राज्यों में विधानसभा चुनावों के लगभग तुरंत बाद  ही  लोकसभा के चुनाव होने हैं जिनके ऊपर बहुत सारे  राजनेताओं के सपने निर्भर कर रहे हैं . प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए बीजेपी में उठापटक चल रही है . कांग्रेस में  भी दरबारी संस्कृति से आये लोग राहुल गांधी का नाम लेकर अपने नंबर बढवाने के लिए सक्रिय थे लेकिन एक राज्य के मुख्यमंत्री को फटकार लगाकर राहुल गांधी ने इन चर्चाओं पर फिलहाल विराम लगा दिया है .लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि हर राजनीतिक पार्टी अब  लोकसभा २०१४ के चुनाव की तैयारी कर रही है .सत्ता की मुख्य दावेदार यू पी ए और एन डी ए है . यू पी ए का २००४ से ही राज है . उसके पहले एन डी ए वालों ने भी करीब छः साल राज किया था. जब २००४ में चुनाव हुआ तो उस वक़्त की सरकार ने देश में मीडिया के ज़रिये ऐसा माहौल बनाया कि जनता इण्डिया शाइनिंग के उनके नारे पर भरोसा कर रही है और सत्ता उनको ही दे देगी . लेकिन ऐसा नहीं हुआ. २४ पार्टियों के गठबंधन से बना एन डी ए टूट गया . अब तो एन डी ए में मुख्य पार्टी  बीजेपी है और पूरी मजबूती के साथ  उसको शिवसेना और अकाली दल का समर्थन मिल रहा है . एन  डी ऐ के एक अन्य समर्थक नीतीश कुमार की पार्टी है , लेकिन नरेंद्र मोदी  को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बनाने की कोशिश करके बीजेपी ने नीतीश कुमार को निराश किया है और अब लगभग पक्का  माना जा रहा  है कि नीतीश कुमार २०१४ के चुनावों के पहले या बाद में बीजेपी के खिलाफ खड़े होंगें . इसी हफ्ते नई दिल्ली में नीतीश कुमार की रैली होने वाली है और उसमें बिहार के अधिकार की बात की जायेगी. अब तक केन्द्र सरकार से जो भी नीतीश कुमार की अपेक्षा रही है ,उसे मौजूदा सरकार पूरी कर रही है. जानकार बताते हैं कि अब नीतीश कुमार बीजेपी से दूरी बनाने के लिए कमर कस चुके हैं . अपने किसी नेता को अगली बार प्रधानमंत्री बनाने के अपने अभियान में बीजेपी को नीतीश कुमार पर भरोसा नहीं करना चाहिए .अभी चार महीने पहले तक बीजेपी के बड़े नेता कहते पाए जाते थे कि आठ राज्यो में उनकी  सरकारें थीं ,  लेकिन अब चार राज्यों में ही हैं . उन चार में एक कर्नाटक भी है . यानी अब बीजेपी की मजबूती का दावा केवल मध्य प्रदेश , छत्तीस गढ़ और गुजरात में है . अगर यह  मान भी लिया जाये कि इन तीनों राज्यों में बीजेपी  को सभी सीटें मिल जायेगीं तो क्या बीजेपी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिल जाएगा. सबको मालूम है कि बीजेपी का वही नेता प्रधान मंत्री बन सकता है जो अन्य पार्टियों को स्वीकार्य हो . अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर बीजेपी ने ऐसी पार्टियों का समर्थन ले लिया था जो मूल रूप से बीजेपी की राजनीति की विरोधी मानी जाती हैं. क्या बीजेपी का कोई नेता आज अटल जी की तरह राजनीतिक मतभेदों की बाधा पार करने की क्षमता रखता है? बीजेपी की सरकार बनेगी ऐसा सोचना एक काल्पनिक स्थिति है क्योंकि देश की राजनीति का मौजूदा माहौल ऐसा  नहीं नज़र आता कि बीजेपी को सरकार बनाने का दावा करने भर को बहुमत मिल जाएगा. पिछले एक  वर्ष में बीजेपी ने कई राज्यों में अपने को  कमज़ोर साबित किया है . गुजरात के अलावा उसको कहीं भी एक ताक़तवर पार्टी के रूप में  नहीं माना जा रहा है .

जहां तक कांग्रेस का सवाल है वह आश्वस्त है कि देश में बहुत सारी पार्टियां ऐसी हैं जो बीजेपी और आर एस एस को सत्ता से दूर रखने के लिए उसे समर्थन दे सकती हैं . कांग्रेस इस मामले में भाग्यशाली भी है कि बीजेपी ने लोक सभा में उसकी गलतियों को उजागर करने में वह कुशलता नहीं दिखाई जो १९७१ के बाद के विपक्ष ने कांग्रेस को बेनकाब करने के लिए दिखाई थी. अब तो बीजेपी वाले संसद में बहस बहुत कम करते हैं अक्सर तो हल्ला गुल्ला करके ही काम चला  लेते हैं . नतीजा यह हो रहा है कि कांग्रेस की गलतियाँ पब्लिक डोमेन में  नहीं आ रही हैं. सी ए जी की रिपोर्टों के सहारे कांग्रेस की सरकार को भ्रष्ट साबित करने की कोशिश चल रही है .चारों तरफ फ़ैली हुई महंगाई पर बीजेपी ने कांग्रेस पर कोई कारगर हमला नहीं किया है . ऐसा शायद इसलिए कांग्रेस की आर्थिक उदारीकरण की नीतियों का विरोध बीजेपी नहीं करना चाहती क्योंकि आर्थिक उदारीकरण की डॉ मनमोहन सिंह की अर्थनीति को बीजेपी का पूरा समर्थन मिलता है . राजनीति का मामूली जानकार भी बता देगा कि अपने देश में मंहगाई का कारण आर्थिक उदारीकरण और उस से पैदा हुआ भ्रष्टाचार ही है . दोनों  ही बड़ी पार्टियां आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की समर्थक हैं . इसलिए नीति के आधार पर बीजेपी के लिए कांग्रेस का विरोध कर पाना संभव नहीं है. हाँ  यू पी ए के कुछ मंत्रियों और सोनिया गांधी के परिवार के खिलाफ अभियान चलाकर बीजेपी जनता को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही है . वक़्त ही बताएगा कि उसे कितनी सफलता मिलती है .

 कांग्रेस और बीजेपी के अलावा भी कई ऐसी पार्टियां हैं जो अगला प्रधानमंत्री बनवाने में मदद करेगीं. पश्चिम बंगाल की दोनों ही पार्टियां . लेफ्ट फ्रंट और तृणमूल महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं . आन्ध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी एक राजनीतिक ताक़त बन कर उभर रहे हैं . उन पर भी नज़र रहेगी . बिहार से लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की सफलता पर भी सबकी नज़र रहेगी . उत्तर प्रदेश की अस्सी सीटों का भी ख़ासा योगदान रहेगा. मौजूदा सरकार भी उत्तर प्रदेश की तीन  पार्टियों के सहयोग से चल रही है . बहुजन समाज पार्टी , समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के एम पी , डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाए रखने में मदद कर रहे हैं .आने वाले समय में भी उतर प्रदेश के सांसदों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण रहने वाली है .विधान सभा में स्पष्ट बहुमत लेने के बाद समाजवादी पार्टी के हौसले बहुत ही बुलंद हैं . अखिलेश सरकार के एक साल पूरे हो रहे हैं .  पिछले एक साल में समाजवादी पार्टी के अधिकतर नेताओं ने दावा किया है कि राज्य से ५० से ज़्यादा सीटें जीतकर वे मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनवाएगें . इस महत्वपूर्ण राजनीतिक पहेली को समझने के लिए संसद भवन के उनके कमरे में  आज मुलायम सिंह यादव से मुलाक़ात की गयी . मुलायम सिंह यादव का कहना है २०१४ का चुनाव बहुत ही गंभीरता से लड़ा जाएगा. उन्होंने बताया कि संसद का बजट सत्र खत्म होने के बाद वे निकल पड़ेगें और पूरे राज्य में  जनसंपर्क शुरू कर देगें . जब पूछा गया कि क्या उसी तरह का जनसंपर्क करने की योजना  है जो १९८६-८७ में थी तो उन्होंने बताया कि वह तो तब किया था जब एक बार भी मुख्यमंत्री नहीं बना था.राज्य में हर जिले में लोग उन्हें जानते तक नहीं थे . लेकिन उस यात्रा के बाद तो हर जिले में कई चक्कर लगाया , हर कस्बे तक पंहुचा और हर जिले में दो दो ,तीन तीन बार सोये भी . मुलायम सिंह ने बताया कि अपने बेटे अखिलेश यादव को दो साल पहले वहीं प्रेरणा दी थी और उन्होंने भी राज्य का  खूब दौरा किया और नतीजा सामने है . अपने भावी राजनीतिक कार्यक्रम के बारे में उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश में १८ मंडल हैं . वे संसद का सत्र खत्म होते ही हर मंडल में पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक बुलायेगें और उनसे व्यक्तिगत संपर्क करेगें . स्वर्गीय जनेश्वर मिश्र ने उनको आगाह किया था कि अब हर कस्बे में जाने की ज़रूरत नहीं है . उनकी सलाह थी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उनको वहीं जाना चाहिए जहां समाजवादी पार्टी की राज्य इकाई वाले जाने को कहें . इसलिए वे हर मंडल में बैठकें करने के बाद राज्य पार्टी के सुझाव पर ही काम करेगें . जब उनको याद दिलाया गया कि उनकी पार्टी की सरकार को आये एक साल हो गया है लेकिन सरकार ने कोई ऐसा कारनामा नहीं किया है जिसको उदाहरण के रूप में पेश किया जा सके. उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है . राज्य सरकार ने अपने चुनाव घोषणापत्र में लिखी गयी हर बात को पूरा करने की योजना पर पहले दिन से काम करना शुरू कर दिया था. आज ही अखबारों में छपे हुए लैपटाप वितरण की तस्वीरों के हवाले से उन्होने बताया कि अभी सरकार के एक साल पूरे नहीं हुए हैं लेकिन सरकार ने इतने बड़े प्रोजेक्ट में सफलता हासिल कर ली है . देश की सबसे अच्छी कम्यूटर कंपनी से लैपटाप खरीद जा रहा है लेकिन थोक में खरीदे जाने के कारण उनका दाम आधा करवा लिया गया  है . बेरोजगारी भत्ता फिर से शुरू कर दिया गया है . हाई स्कूल के बाद से ही  मुस्लिम लड़कियों को आर्थिक सहायता दी जा रही है जबकि बाकी लड़कियों को इंटरमीडियेट के बाद  . उन्होंने कहा कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में लिखा है कि मुसलमानों  की हालत अनुसूचित जातियों से भी खराब है इसलिए उनकी  पार्टी की सरकार मुसलमानों के प्रति खास जिम्मेदारी का अनुभव करती है .उन्होंने  बताया कि राज्य में सरकारी ट्यूबवेल और नहरों का पानी किसानो को मुफ्त दिया जा रहा  है.राज्य सरकार ने आदेश कर दिया है कि किसी भी किसान की ज़मीन नीलाम नहीं की जायेगी . होता यह रहा है कि भूमि विकास बैंक से क़र्ज़ लेने वाले किसान जब भुगतान नहीं कर पाते  थे तो उनकी ज़मीन नीलाम कर दी जाती थी . अब सरकारी आदेश है कि नीलामी नहीं होगी. उसके ऊपर से ५० हज़ार रूपये तक के किसानों के क़र्ज़ माफ कर दिए गए हैं .उन्होंने बताया कि कैंसर , दिमाग और हार्ट की गरीब आदमियों की बीमारियों का  इलाज़ राज्य सरकार करवा रही है .उन्होंने  राज्य स्तर के अपने पार्टी के नेताओं खासी नाराजगी जताई और कहा कि जो विधायक बन गए हैं वे अब अपने क्षेत्रों में नहीं जा रहे हैं .जो लोग मंत्री बन गए हैं .वे भी तो विधायक ही  हैं लेकिन सब लोग लखनऊ में जमे रहते हैं और जनता से संपर्क नहीं रख रहे हैं . इस कारण से पार्टी का बहुत नुक्सान हो रहा है .  पार्टी के विधायकों को अपने क्षेत्र में ज़्यादा सक्रिय रहना चाहिए . वे इस बात से भी बहुत नाराज़ हैं कि पार्टी के कुछ नेता दिल्ली के चक्कर काटते रहते हैं . उन्होने उन संसद सदस्यों के प्रति भी नाराजगी जताई जो कार्यकर्ताओं को दिल्ली बुला लेते हैं और उनको संसद के अंदर आने  का पास बनवा देते हैं . नतीजा यह होता है कि वे लोग संसद भवन के मुलायम सिंह यादव के कार्यालय के  बाहर आकर खड़े हो जाते हैं . यह ठीक नहीं है. वे चाहते हैं  कि पार्टी के कार्यकर्ता उन्हें लखनऊ में ही मिलें .कानून व्यवस्था के बारे में बात करने पर उन्होने कहा कि  उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था  की हालत दिल्ली से ठीक है . उत्तर प्रदेश की आबादी दिल्ली से दस गुना ज्यादा है जबकि अपराध दिल्ली में उत्तर प्रदेश से दस गुना ज़्यादा है . प्रतापगढ़ के  पुलिस अफसर  हत्याकांड के बारे में कोई बात करने से उन्होने यह कहकर इनकार कर दिया कि मामले की सी बी आई जाँच हो रही है ,उनका कुछ भी कहना ठीक नहीं है .लेकिन पूरी बातचीत में मुलायम सिंह यादव इस बात से तो आश्वस्त दिखे कि उनकी पार्टी अच्छा काम कर रही  है लेकिन उनको अपनी पार्टी के नेताओं में अनुशासन लाना बहुत ज़रूरी है .अब यह देखना दिलचस्प होगा कि  मुलायम सिंह यादव की यह इच्छा कितनी पूरी होती है क्योंकि राज्य में सत्ता के जितने केंद्र बन गए हैं उनके बीच सुशासन की उम्मीद करना बहुत ही बड़ी बात है ,बहुत ही मुश्किल बात है .
नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की बात को समाजवादी पार्टी एक प्रहसन से ज्यादा कुछ नहीं मानती लेकिन उन्होने साफ़ कहा मोदी  के बारे में चर्चा करना ठीक नहीं होगा  क्योंकि उनके विरोध में भी बोलने पर उनका प्रचार होगा जो ठीक नहीं है .कुल मिलाकर   की  में  तो समाजवादी पार्टी भारी पड़  रही है लेकिन बीजेपी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के  भी इस इंतज़ार में  हैं की समाजवादी पार्टी वाले कोई गलती करें और वे उनको  पीछे धकेलने में कामयाब हों .

नेताओं को बलात्कार के अपराध से मुक्त करने की सरकारी कोशिश का दो सांसदों ने किया विरोध




शेष नारायण सिंह 

१८६० में बनाए गए कानून , भारतीय दंड संहिता में आधुनिक  के हिसाब से बदलाव की मांग बार बार उठती रही है  . पिछले दिनों  दिल्ली  में बहुत ही वहशियाना तरीके से रेप का शिकार हुयी लडकी के अपमान के खिलाफ जब आम आदमी का गुस्सा सडकों पर फूट  पड़ा तो सरकार भी सचेत हुयी और डेढ़ सौ साल से लागू बलात्कार कानून में बदलाव की मंशा बनायी . सरकार ने  फौरी तौर पर जस्टिस जे एस वर्मा की  कमेटी बना दी और उनसे भारतीय दंड संहिता के बलात्कार कानून में ज़रूरी बदलाव की बाबत सलाह देने को कहा . जस्टिस वर्मा ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी और सरकार ने तुरंत एक अध्यादेश जारी करके अपनी तत्परता दिखायी और  एक बिल भी तैयार करके संसद की गृह मंत्रालय की स्थायी समिति को दे दिया और कहा कि  इस पर विधिवत विचार करके सुझाव दिए जाएँ जिसके बाद बिल को संसद में पेश करके कानून बना लिया जाए और अध्यादेश की जगह एक नितमित कानून बन जाए . जिस कमेटी के पास यह बिल भेजा गया उसके अध्यक्ष वेंकैया नायडू हैं लेकिन उसके सदस्यों में देश की राजनीति के बहुत बड़े लोग शामिल हैं . इस कमेटी में  लाल कृष्ण आडवानी लालू प्रसाद , जनार्दन द्विवेदी, डी  राजा ,प्रशांत चटर्जी,सतीश चन्द्र मिश्र,संदीप दीक्षित और नीरज शेखर भी शामिल है. कमेटी ने जो रिपोर्ट दी वह  कुछ सदस्यों को ही नहीं पसदं आयी और उन्होने बाकायदा अपनी नाराजगी जताई और सर्वसम्मति रिपोर्ट के खिलाफ डिसेंट नोट लगा दिया . उनका मुख्य एतराज़ इस बात पर है कि  सरकार ने और स्थाई समिति ने राजनेताओं को बलात्कार के आरोपों से मुक्त रखने की कोशिश की है . जबकि डिसेंट नोट लगाने वाले सदस्यों का कहना है की राजनीतिक व्यक्तियों की ज़िम्मेदारी सबसे ज्यादा है इसलिए उनको मुक्त कर देने से बलात्कार की वारदातों  में कोई कमी नहीं आयेगॆ. 
डिसेंट नोट में लिखा है की २०१०  के सरकारी  विशेयक में एक वाक्य था की " अगर बलात्कार करने वाला व्यक्ति सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक प्रतिष्ठा के पद पर है तो इस अपराध को और भी गंभीर माना जायेगा. , मौजूदा अध्यादेश में  इस परिभाषा से " राजनीतिक " शब्द को हटा दिया गया है .स्थायी समिति ने भी  परिभाषा में इस संशोधन से सहमति व्यक्त की है. हम ' राजनीतिक ' शब्द को हटाये जाने से पूरी तरह से असहमत हैं .धारा ३७६ के  खंड जे में राजनीतिक शब्द हर हाल में जोड़ा जाना चाहिए . यह प्रावधान वंचित महिलाओं के शोषण को ख़त्म करने के लिए लगाया गया था . पिछले कुछ वर्षों में ऐसे बहुत  सारे मामले आये है जहां राजनीतिक पदों पर मौजूद लोगों ने बलात्कार  किये हैं और उनको कानून की ज़द से बाहर करना तो उनके आतंक को बढ़ावा देने से कम नहीं  होगा .वैसे भी कोई भी   बलात्कारी  जुगाड़ करके राजनीतिक पद हासिल कर सकता है और उस से वह  अपराध के दंड से बच  निकलेगा .सरकारी कर्मचारियों के बारे में कहा गया है किअगर वह " जानबूझकर " कोई गलती करता है तो दंड दिया जायेगा. यह बेकार की बात है क्योंकि किसी भी सरकारी  कर्मचारी को कानून के अनजान होने के  बहाने बचने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए . 


कायदे से बलात्कार कानूनों में प्रस्तावित बदलाव के बारे  में सरकार की तरफ से पेश किये गए बिल पर सभी दलों के बड़े नेताओं की सदस्यता वाली संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट को आज की मुख्य खबर  बनना  चाहिए था लेकिन डी  राजा और प्रशांत चटर्जी का डिसेंट नोट ही आज की मुख्य खबर है . डिसेंट नोट को भी रिपोर्ट के साथ संलग्न किया गया है . इन दो सदस्यों ने वर्मा समीति की सिफारिशों को बिल में तोड़ मरोड़ कर शामिल किये जाने का घोर विरोध किया है . उन्होंने कहा है कि स्थाई समिति को चाहिए को वह सरकार से मांग करे की जस्टिस वर्मा समिति की सिफारिशों को शामिल करके सरकार एक नया बिल संसद में विचार करने के लिए लाये. समिति की रिपोर्ट के खंड पांच में अध्यादेश की धारा  ८  की तरह सेक्सुअल असाल्ट के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग किया गया है जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों ही दोषी  साबित हो सकते हैं . . यह  पुरुषों द्वारा होने वाले बलात्कार की घटनाओं को गौण बनाता है . . यह खंड वर्मा समिति की सिफारिशों के विरुद्ध है . जिसमें अपराध करने वाले को पुरुष के रूप  में परिभाषित करने की सिफारिश की गयी है .. आरोपी व्यक्ति केवल पुरुष ही हो सकता है जबकि पीड़ित पक्ष केवल महिला हो सकती है .  मौजूदा बिल वर्मा समिति की इस मंशा को ख़त्म कर देता है . 



सरकारी बिल में वैवाहिक बलात्कार को आई पी सी की धारा ३७५  के तहत अपराध नहीं मन गया है जबकि वर्मा समिति में ऐसा करने की सिफारिश की गयी थॆ. . यह व्यवस्था भारतीय संविधान के भी विरुद्ध है .. संविधान में सभी महिलाओं को हिंसा मुक्त जीवन जीने का अधिकार है . . शायद इसीलिये वर्मा समिति ने कहा था की आई पी सी में " वैवाहिक बलात्कार को शामिल न करना विवाह  की उस पुरातन परम्परा पर आधारित है जिसमें पत्नी को अपने पति की संपत्ति  माना गया है .जबकि आधुनिक समय में विवाह दोनों का सामान उत्तरदायित्व माना  गया है ." कमेटी ने भी इस मामले में सरकार की हाँ में हाँ मिला दी है .बाद में कमेटी ने नेताओं को बरी कारने वाला प्रावधान हटा दिया लेकिन डी राजा का कहना है कि अगर दबाव न डाला गया होता तो शायद यह प्रस्ताव कानून का  हिस्सा बन जाता .

उत्तर प्रदेश में लोकसभा के चुनाव की तैयारियां और मुसलमानों की भूमिका




शेष नारायण सिंह 

उत्तर प्रदेश में एक बार फिर मुसलमानों में अपने आपको लोकप्रिय बनाने के लिए राजनीतिक पार्टियों में होड़ शुरू हो गयी है . सब को मालूम है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सफलता के लिए मुसलमानों के समर्थन की ज़रूरत होती है . पिछले विधान सभा चुनाव के दौरान एक बार फिर यह साबित हो गया है कि मुसलमान जिस तरफ जाता है उसकी सीटें बढ़ जाती हैं .जहां तक बीजेपी का सवाल है वह पिछले चुनाव में मुसलमानों का विरोध करके ध्रुवीकरण करवाने की कोशिश कर चुकी है .सबको मालूम है की उसको कोई राजनीतिक सफलता नहीं मिली . शायद अगले लोकसभा चुनाव की तैयारी में आम तौर पर मुसलमानों के  दुश्मन के रूप में माने जाने वाले नरेन्द्र मोदी भी अपनी ऐसी कुछ तस्वीरें अखबारों में छपवा रहे हैं जिसमें वे मुसलमानों की हुलिया वाले कपडे पहने कुछ लोगों के साथ देखे जा सकते हैं . हालांकि मोदी को भी मालूम है की मुसलमान उनको हराने के लिए ही वोट देगा लेकिन   बीजेपी वाले अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं कि   मोदी के ऊपर मुस्लिम द्रोह का जो मुलम्मा लगा है उसको मिटाया जा सके. सभी दलों को पता है कि उत्तर प्रदेश में अधिक से अधिक सीटें जीतने के लिए मुसलमानों की मदद बहुत ज़रूरी है  शायद इसीलिये सभी गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों सबसे बड़ा शुभचिन्तक बता रही है . 

उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां मुसलमान किसी भी सीट पर पक्की जीत तो नहीं दिलवा सकते हैं लेकिन एकाध सीट को छोड़कर उनकी संख्या हर सीट पर चुनावी नतीजों को प्रभावित करती है .आबादी के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां मुसलमानों की आबादी बहुत घनी है.रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर मुज़फ्फर नगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां  कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . जहां तक बीजेपी का सवाल है उन्हें मालूम है कि  उन्हने मुसलामानों के वोट नहीं मिलने वाले हैं  इसलिए उनकी तरफ से केवल सांकेतिक कोशिश ही की जा रही है . उत्तर प्रदेश से आने वाले इकलौते राष्ट्रीय  मुस्लिम नेता तक रामपुर जैसी मुस्लिम बहुल सीट से चुनाव  हार गए थे. लेकिन बाकी तीनों पार्टियां मुसलमानों के वोट  की चाहत रखती हैं . कांग्रेस ने पिछले विधान सभा चुनावों के दौरान ओबीसी कोटे से काटकर  साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक  आरक्षण की बात करके  मुसलमानों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश की थी . वह सफल नहीं रहा  .कांग्रेस के खाते में मुसलमानों का पक्षधर बनाने के बहुत सारे अवसर नहीं हैं . बड़े ताम झाम के साथ  यू  पी ए  सरकार ने अल्पसंख्यक मंत्रालय बनाया था .उस वक़्त कहा गया था कि  सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लागू करवाने का ज़िम्मा इस मंत्रालय के पास था. लेकिन शुरू में यह मंत्रालय ऐसे  मंत्रियों के हवाले किया गया था जो इस काम को पार्ट टाइम मानकर चल रहे थे. अब जो नए मंत्री आये हैं वे काम को गंभीरता से ले रहे हैं लेकिन अब समय बहुत कम बचा है . ज़ाहिर है मुसलमानों का पक्षधर बनाने की कांग्रेस की कोशिश हमेशा की तरह डावांडोल  है .पिछले मंत्रियों के कार्यकाल के काम काज की जांच करने वाली संसद की एक कमेटी ने सरकार के कामकाज की सख्त नुक्ताचीनी की  थी .
 सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय से सम्बंधित कमेटी ने अल्पसंख्यकों के लिए किये जा रहे काम में सम्बंधित मंत्रालय को गाफिल पाया था . इस समिति की बीसवीं रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकार ने  मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए बजट में मिली हुई रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया और पैसे वापस भी करने पड़े.  कमेटी की रिपोर्ट में लिखा गया है कि कमेटी इस  बात से बहुत नाराज़ है कि २०१०-११ के साल में अल्पसंख्यक मंत्रालय ने ५८७ करोड़ सत्तर लाख की वह रक़म लौटा दी  जो घनी अल्पसंख्यक आबादी के विकास के लिए मिले थे. हद तो तब हो गयी जब मुस्लिम बच्चों के वजीफे के लिए मिली हुई रक़म  वापस कर दी गयी.  यह रक़म संसद ने दी थी और सरकार ने इसे इसलिए वापस कर दिया कि वह इन स्कीमों में ज़रूरी काम नहीं तलाश पायी. यह सरकारी बाबूतंत्र के नाकारापन का नतीजा है .,  प्री मैट्रिक वजीफों के मद   में  मिले हुए धन में से ३३ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए , मेरिट वजीफों के लिए मिली हुई रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए और पोस्ट मैट्रिक वजीफों के लिए मिली हुयी रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए . इसका मतलब  यह हुआ कि सभी पार्टियों के प्रतिनिधित्व वाली  संसद ने तो सरकार को मुसलमानों के विकास के लिए पैसा दिया था लेकिन सरकार ने उसका सही इस्तेमाल नहीं किया . इस के बारे में सरकार का कहना  है कि उनके पास  अल्पसंख्यक आबादी वाले जिलों से प्रस्ताव नहीं आये इसलिए उन्होंने संसद से मिली रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया . संसद की स्थायी समिति ने इस बात पर सख्त नाराज़गी जताई है और कहा है कि वजीफों वाली गलती बहुत बड़ी है और उसको दुरुस्त करने के लिए सरकार को काम करना चाहिए . बजट में वजीफों की घोषणा हो जाने  के बाद सरकार को चाहिए कि उसके लिए ज़रूरी प्रचार प्रसार आदि करे जिससे जनता भी अपने जिले या राज्य के अधिकारियों पर दबाव बना सके और अल्पसंख्यकों के विकास के लिए मिली हुई रक़म  सही तरीके से इस्तेमाल हो सके. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास मुसलमानों का नेतृत्व  करने वालों की भी भारी कमी है . अपने एक राष्ट्रीय नेता को उन्होंने प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर देख लिया  कि  बड़े नेता को चार्ज देने से भी उनका कोई लाभ नहीं हुआ. 
बहुजन समाज पार्टी  भी मुस्लिम बी वोटों की दावेदार के रूप में जानी जाती है . यह अलग बात है कि  मायावती ने राज्य और केंद्र में कई बार बीजेपी की सरकारों का समर्थन किया है लेकिन वे अपने को मुसलमानों का शुभचिंतक बताती हैं . उनकी तरकीब यह है कि वे बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देती हैं . उनके साथ कुछ मुसलमान मंत्री भी रहते हैं लेकिन  किसी को भी नेता के रूप में उभरने का मौक़ा नहीं  मिलता,सभी मायावती जी की छत्रछाया में ही नेता बने रहते हैं .


उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों की खैरख्वाह के रूप में समाजवादी पार्टी को १९९१ से ही एक पहचान मिली हुयी है . बीच में कुछ महीनों के लिए पार्टी के अध्यक्ष के कल्याण प्रेम के कारण समाजवादी पार्टी को मुसलमानों  ने शक की नज़र से देखा लेकिन बाद में जब कल्याण सिंह को पार्टी से हटा दिया गया  तो मुसलमान बड़ी संख्या में उनके साथ आये और  सत्ता अखिलेश यादव को सौंप दी .लेकिन जब सत्ता आयी तो दिल्ली  और पश्चिमी  उत्तर प्रदेश के बहुत सारे मुसलमानों  ने दावा करना शुरू कर दिया की उनके कारण ही सारा मुसलमान समाजवादी पार्टी के साथ जुडा था. मुलायम सिंह की पार्टी को सत्ता दिलवाने का दावा करने वालों में ऐसे मुसलमान भी शामिल थे जो अपने मुहल्ले का चुनाव नहीं जीत सकते . ऐसे बहुत सारे मुसलमान  भी  मुलायम सिंह की तकदीर बनाने का  दावा करने लगे जिनकी रोटी पानी भी समाजवादी पार्टी की वजह से चलती  थी . मुलायम सिंह यादव ने इस जमात के लोगों को खूब लाभ पंहुचाया और  जनता में ऐसा माहौल बनना शुरू  हो गया कि वे लोग वास्तव में समाजवादी पार्टी के सही खैरख्वाह हैं . आजकल पूरे राज्य में यही माहौल है . हालांकि सच्चाई  यह  है  उत्तर प्रदेश का आम मुसलमान इन लोगों में से किसी को नेता नहीं  मानता . वह केवल मुलायम सिंह यादव को अपना  शुभचिन्तक और नेता मानता है. समाजवादी पार्टी के अन्दर  की खबर रखने वाले पार्टी के एक नेता ने बताया  कि  उनकी पार्टी का आलाकमान अब पार्टी में ऐसे मुसलमानों को महत्व देना  चाहता है जो वक़्त के साथ आर्थिक लाभ के लिए हर सत्ताधारी पार्टी के चक्कर नहीं काटने  लगते .अब ऐसे नेताओं को आगे बढाने की योजना पर काम चल रहा है जो नौजवान हों और समाजवादी पार्टी के साथ ही शुरू से जुड़े रहे हों . जिनको विकसित किया जाए और जो बाद में पार्टी का मुस्लिम फेस बन सकें . पार्टी की स्थापना के बाद मुलायम सिंह यादव ने यह प्रयास किया था  जब उन्होंने एक आन्दोलन से आये आज़म खान को समाजवादी पार्टी का प्रमुख मुस्लिम चेहरा बनाया था लेकिन बाद में जब अमर सिंह का प्रादुर्भाव हुआ तो आज़म खान का महत्व कम हो गया . पता चला है की इस बार भी सत्ता के दलालों के  मकड़जाल से निकल कर समाजवादी पार्टी का आलाकमान किसी मुसलमान को गंभीर नेता के रूप में आगे बढाने की सोच रहा है . पता चला है की अमरोहा के विधायक और मंत्री, कमाल अख्तर को समाजवादी पार्टी आगे बढाने की सोच रही है . कमाल अख्तर छात्र नेता रहे हैं , जामिया मिलिया के छात्र संघ के अध्यक्ष रहे, समाजवादी पार्टी के युवा  संगठन के अखिल भारतीय अध्यक्ष रहे और  राज्य सभा के सदस्य रहे . समाजवादी पार्टी के नेताओं के आस पास घूमने वाले अन्य नेताओं से अलग उनकी छवि भी है. पार्टी के शीर्ष नेता उन्हें पसंद करते हैं और वे चुनाव भी जीत जाते हैं . आजकल मंत्री हैं और लखनऊ के सत्ता के गलियारों के जानकारों  का कहना है की बहुत खुशमिजाज़ भी है।यह देखना दिलचस्प होगा कि समाजवादी पार्टी की यह कोशिश कितना  प्रभावकारी साबित होते है .  बहरहाल आने वाला चुनाव राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के लिए एक अवसर है . वक़्त ही बताएगा कि  वह इस अवसर का कैसा इस्तेमाल करती है .

Tuesday, February 26, 2013

अगर बीजेपी ने मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाया तो अलग थलग पड़ जायेगी



 

शेष नारायण सिंह  
 

कांग्रेस के जयपुर चिंतन शिविर में जब राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया तो हर रंग के कांग्रेसी ने उनको प्रधान मंत्री बनाने की राग में बात करना शुरू कर दिया . हद तो तब हो गयी जब उसी मंच पर मौजूद प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की मौजूदगी की परवाह न करते हुए कांग्रेसियों ने राहुल गांधी को प्रधान मंत्री बनाने की मांग करते हुए नारे लगाना शुरू कर दिया . ऐसा माहौल बन गया कि लगने लगा कि अब कांग्रेस का एक सूत्री कार्यक्रम राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना ही रह गया है .  उपाध्यक्ष बनने के बाद दिल्ली में राज्यों के कांग्रेसी मुख्य मंत्रियों , विधान मंडल में कांग्रेस पार्टी के नेताओं और राज्य अध्यक्षों की बैठक में भी उत्तराखंड के  मुख्य मंत्री विजय बहुगुणा ने राग प्रधानमंत्री का आलाप लिया . संतोष की बात यह है कि राहुल गांधी ने उनको फटकार दिया और यह बात वहीं बंद हो गयी. एक  हफ्ते से अधिक वक़्त हो गया है और किसी कांग्रेसी का किसी भी अखबार में राहुल गांधी को  प्रधान मंत्री बनाने वाला बयान नहीं छपा है . यह देश की राजनीति के लिए सुकून की बात है कि देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के नेता और कार्यकर्ता फ़िज़ूल की बातों में समय नहीं लगा रहे हैं . सच्ची बात यह है कि अगर २०१४ के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस इस स्थिति में रही कि वह अपने उम्मीदवार को प्रधानमंत्री बनवा सके तो वह राहुल गांधी समेत किसी को भी प्रधानमंत्री बनवा सकती है .वह उनका अपना मामला है .
लेकिन देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी वाले अभी भी प्रधान मंत्री बनवाने वाले खेल में पूरी तरह से तल्लीन हैं . मीडिया में मौजूद  मोदी के मित्रों की मदद से नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री बनवाने का अभियान प्रतिदिन रफ़्तार पकड़ रहा है . टेलीविज़न में भी नरेंद्र मोदी के समर्थक दिन रात इसी  कार्यक्रम में लगे हुए हैं . हालांकि इस बात की कोई संभावना नहीं  है कि बीजेपी को देश के अगले प्रधान मंत्री के चुनाव में कोई प्रभावशाली भूमिका मिलने वाली है .जब एन डी ए के नेता के रूप में  अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री बने थे तो उनको बीस से ज्यादा राजनीतिक  पार्टियों का समर्थन हासिल था .बीजेपी के अलावा उनके समर्थन में जनता दल यूनाइटेड, अकली दल, असं गन परिषद ,नागालैंड पीपुल्स फ्रंट,उत्तराखंड क्रान्ति दल, जनता पार्टी  आल झारखण्ड स्टूडेंट्स युनियन ,महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी ,हरियाणा जनहित कांग्रेस , झारखण्ड मुक्ति मोर्चा , बहुजन समाज पार्टी ,जम्मू-कश्मीर नेशनल कान्फरेंस,लोक जनशक्ति पार्टी ,एम डी एम के,डी एम के ,पी एम के ,इन्डियन  फेडरल डेमोक्रेटिक पार्टी, तृणमूल कांग्रेस , बीजू जनता दल ,इन्डियन नेशनल लोक दल , राष्ट्रीय लोक दल . तेलुगु देशम , शिव सेना आदि के सहयोग से बीजेपी सत्तधारी पार्टी  बनने में सफल हुई थी. इसमें से बहुत सारी पार्टियां २००४ के चुनावों में शून्य पर पंहुच गयीं . उनके  नेताओं से बात करने पर पता चला है कि वे इसलिए भी तबाह हो गयीं कि उनके समर्थकों में एक बड़ा वर्ग ऐसे लोगों का था जो बीजेपी की राजनीति के विरोधी थे  लेकिन जब केन्द्र में सरकार में शामिल होने का मौक़ा मिला तो वे पार्टियां बीजेपी के साथ शामिल हो गयीं . राजनीति के जानकार मानते हैं कि २०१४ के चुनाव में अब वे पार्टियां बीजेपी के साथ नहीं जाने वाली हैं . आज की राजनीतिक सच्चाई यह  है कि  केवल शिव सेना और अकाली दल आज बीजेपी के साथ पूरी तरह से हैं . एक अन्य मज़बूत सहयोगी नीतीश कुमार की जनता दल ( यू ) भविष्य में  बीजेपी के साथ नही रहेगी . अगर एक  प्रतिशत वे बीजेपी के साथ जाना चाहेगें भी तो नरेंद्र  मोदी के साथ तो बिलकुल नहीं रहेगें . यह बात खुद नीतीश कुमार ने बार बार दोहराई है . ऐसी हालत में नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री बनाने वालों को देश की भावी राजनीति  की सच्चाई पर गौर  करना ज़रूरी है .
मीडिया में मौजूद नरेंद्र मोदी समर्थकों की उतावली का आलम यह है कि  किसी के बयान को भी नरेंद्र मोदी  को प्रधान मंत्री बनाने वाला बयान साबित करने में किसी तरह का संकोच नहीं करते. पिछले दिनों देवबंद के किसी मौलाना ने कुछ कह दिया जिसे मोदी समर्थकों ने मोदी के समर्थन में दिया गया बयान बता दिया . टी वी  चैनलों पर उन मौलाना साहेब की बातें छाई रहीं .जोर शोर से  यह प्रचार किया गया कि देवबंद  जैसी जगह से आने वाले इतने बड़े मौलाना ने ऐलान कर दिया है कि मुसलमान अब नरेंद्र मोदी से नफरत नहीं करते , वे मोदी को प्रधान मंत्री के रूप में स्वीकार करने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं .लेकिन जब उन्हीं मौलाना साहेब ने अपनी सफाई देने की कोशिश की तो उनकी बात को आगे बढाने वाले पता नहीं कहाँ गायब हो गए . वे बेचारे छोटे मोटे टी वी चैनलों के ज़रिये अपनी बात कहने की कोशिश करते पाए जा रहे हैं .
मोदी को प्रधान मंत्री बनाने वालों को बहुत जल्दी है और वे बहुत गुस्से में भी हैं . इसका अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि अगर कहीं मोदी के खिलाफ कोई भी बात लिख  दी जाती है तो उसके खिलाफ तो टिप्पणियां आती हैं  वह गाली गलौज की भाषा अख्तियार कर लेती हैं . आज ही देश के एक बड़े अखबार में नरेंद्र मोदी की तुलना १९३३ के बाद के जर्मनी के नेता से करने की कोशिश करने वाला एक लेख छपा है . उसके खिलाफ मोदी समर्थकों का जो अभियान चल  रहा है उस से अंदाज़ लगाया जा सकता है कि मोदी को प्रधान मंत्री बनाने वाली ब्रिगेड  कितनी असहिष्णु है . अभी पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के पूर्व  जज मार्कंडेय  काटजू ने नरेंद्र मोदी के  बारे में एक विश्लेषणात्मक लेख लिख दिया था . बीजेपी आलाकमान के एक नेता ने पार्टी के अधिकृत प्रकाशन में काटजू के खिलाफ अभियान की शुरुआत कर दी .नतीजा यह हुआ कि बीजेपी का हर छुटभैया नेता इस विवाद में टूट पड़ा और संघ समर्थक मीडिया की मदद से तूफ़ान खडा कर दिया . इस वक़्त अगर भारतीय मीडिया के एक बड़े वर्ग  पर नज़र डाली जाए तो समझ में आ जाएगा कि बीजेपी के मोदी  गुट वालों का  कितना प्रभाव है . दिलचस्प बात  यह है कि बीजेपी या आर एस एस ने अभी हर स्तर पर यह बात बार बार दोहराया है कि नरेंद्र मोदी आधिकारिक रूप से प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश नहीं किये गए  हैं. पार्टी के राष्ट्रीय  अध्यक्ष , राजनाथ सिंह ने कई बार  मीडिया के ज़रिये स्पष्ट कर दिया है कि नरेंद्र मोदी को पार्टी ने प्रधान मंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश नहीं किया है .पार्टी के सही मंचों पर फैसला लिया जाएगा लेकिन मोदी समर्थकों के पास यह सब सुनने का समय नहीं है . उन्हें  तो प्रधानमंत्री के पद पर मोदी की तैनाती चाहिए .
राजनीतिक सच्चाई  यह है कि अगर बीजेपी वाले नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश कर देते हैं तो देश में चुनाव  की राजनीति के बहुत सारे समीकरण बदल जायेगें .बीजेपी के साथ रहकर जिन राजनीतिक पार्टियों ने अपना  सब कुछ गँवा दिया है वे किसी भी हालत में बीजेपी के पास नहीं जायेगीं .  मुसलमानों के समर्थन से चुनाव जीतने वाली पार्टियां भी बीजेपी के साथ नहीं जायेगीं . १९९९ से २००४ के बीच में बीजेपी के साथ रहकर कई पार्टियों ने अपनी राजनीतिक हैसियत को चौपट किया है . इस लिस्ट में राम विलास पासवान, चंद्र बाबू नायडू जैसे नेता सरे फेहरिस्त हैं.  अगर नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने आगे कर दिया तो उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कांग्रेस की मजबूती  की संभावना बहुत ज्यादा  बढ़ जायेगी .  २००७ और २०१२ के विधान सभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को कोई महत्व नहीं दिया लेकिन इन दो चुनावों के बीच जब २००९ का लोक सभा चुनाव हुआ  तो कांग्रेस को अच्छी खासी सीटें मिल गयीं. जानकार बताते हैं कि जनता ने केन्द्र में आर एस एस की संभावित सत्ता  को रोकने के लिए ऐसा किया था. यह बात इस बार भी हो सकती है . वैसे यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति के मौजूदा गणित में भी ऐसा कुछ नहीं है जिस से बीजेपी को सत्ता के करीब जाने में मदद मिलेगी. वहाँ चाहे कांग्रेस जीते या मायावती और मुलायम सिंह यादव , कोई भी  बीजेपी की सरकार नहीं बनवाने वाला है. इसी तरह से ममता बनर्जी ने भी बीजेपी से दूरी बनाकर मुसलमानों का वोट  हासिल किया है और आज कल मुख्यमंत्री बनी हुई हैं . उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद मुसलमानों को खुश करने के लिए उनको बहुत सारी सुविधाएँ दी हैं ,उर्दू अखबार वालों को बहुत महत्व दिया है और अपने आपको मुसलमानों का बहुत बड़ा हित चिन्तक साबित करने का अभियान चलाया है . ऐसी हालत में ऐसा नहीं लगता कि वे भविष्य में बीजेपी के साथ जायेगीं क्योंकि अगर उन्होने ऐसा किया तो उनको राजनीतिक रूप से घाटा होने की पूरी आशंका है .  आन्ध्र प्रदेश  की पार्टियां तेलुगु देशम और तेलंगाना राष्ट्र समिति वाले भी बीजेपी के साथी बनकर चुनावी मैदान में हार का सामना कर चुके हैं . दोनों  ही पार्टियों के  बड़े नेता कई बार कह चुके हैं कि वे किसी भी हालत में बीजेपी के साथ नहीं जायेगें . बड़े राज्यों में बिहार को भी शामिल किया जा  सकता है जहां नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और राम विलास पासवान नरेंद्र मोदी का समर्थन किसी भी हालत में नहीं करेगें.  महारष्ट्र में शिव सेना  तो बीजेपी की मुख्य समर्थक है लेकिन बाकी कोई भी पार्टी उसके साथ नहीं जाने वाली है . पिछले दिनों शरद पवार की कुछ मुलाकातों के हवाले से माहौल बनाने की कोशिश की गयी कि उनकी पार्टी बीजेपी के साथ जा सकती है लेकिन जब पार्टी के अंदर की राजनीति के जानकारों से बात  हुई तो समझ में आ गया कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है .ऐसी हालत में  बीजेपी की राजनीति का समर्थन मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़, गुजरात , राजस्थान . तमिल नाडू और दिल्ली के अलावा कहीं से आने की  संभावना नहीं है . कर्णाटक में बीजेपी का अर्थ पूरी तरह से येदुरप्पा हुआ  करता था . येदुरप्पा की राजनीति के जानकार जानते हैं कि येदुरप्पा के मन में दिल्ली वाले बीजेपी नेताओं के बारे में इतनी तल्खी है कि वे किसी भी हाल में इन लोगों को  समर्थन नहीं देगे.
कुल मिलाकर जो राजनीतिक हालात विकसित हो रहे हैं उन से साफ़ संकेत मिल रहे हैं कि देश में परिपक्वता की राजनीति का युग आने वाला है . कांग्रेस में भी अब चापलूसी करने  वालों का महत्व घटने के संकेत साफ़ नज़र आ रहे हैं . प्रधान मंत्री बनाने वालों की मंडली को फटकार बता कर राहुल गांधी ने संगठन को महत्व देने की बात करके अपनी पार्टी की राजनीति को गरिमा देने की कोशिश की है. बीजेपी में भी नितिन गडकरी को हटाकर राजनाथ सिंह को  पार्टी का अध्यक्ष  बनाया  जाना इस बात का संकेत है कि वे नरेंद्र मोदी और उनके समर्थकों की ओर से मीडिया के ज़रिये चलने वाले अभियानों को उतना महत्व नहीं देने वाले  हैं .ज़ाहिर है कि  देश में परिपक्व राजनीति का युग आने ही वाला है .

Wednesday, February 20, 2013

इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी बना हुआ है आई ए एस अफसरों का डम्पिंग ग्राउंड



शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,१९ फरवरी . भारत में नदियों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण नेटवर्क है . प्राचीन काल में नदियाँ आवाजाही का सबसे प्रमुख साधन थीं इसीलिये ज़्यादातर पुराने शहर नदियों के किनारे ही बसे हैं .बहादुरशाह ज़फर भी जब दिल्ली से रंगून भेजे जा रहे थे कलकत्ता तक की यात्रा गंगा नदी के रास्ते पूरी की थी. आज़ादी के बाद सरकार ने तय किया कि अपने देश में नदियों के ज़रिये यातायात को बड़े पैमाने पर  विकसित किया जाएगा. इसके लिए इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी भी बना दी गयी . सरफेस ट्रांसपोर्ट मंत्रालय के अधीन सारा सरकारी तामझाम भी बना दिया गया . लेकिन अफसरों के गैर ज़िम्मेदार रवैये के कारण पिछले ४० साल से यह सारा काम बेकार पड़ा है . सरकारी पैसा लग रहा है लेकिन कहीं  कुछ नहीं हो रहा है . केन्द्र सरकार के अफसरों के दिल्ली प्रेम के चलते इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी का  मुख्यालय नोयडा में बना दिया गया है जो कि एक तरह से दिल्ली ही है . इनसे कोई पूछे कि ,’भाई दिल्ली के पास मुख्यालय क्यों रखा गया है जबकि दिल्ली  या नोयडा के पास अथारिटी का कहीं कोई काम नहीं है . यह भी वैसा ही अजूबा है कि जैसे ओ एन जी सी  का मुख्यालय देहरादून में बना दिया गया था जबकि उनका सारा काम समुद्र के आस पास है . इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी काम नेशनल वाटरवेज का विकास करना है लेकिन कहीं कोई खास प्रगति नहीं हो  है .
संसद की इस विभाग का काम देखने वाली ,यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध स्थायी संसदीय समिति की नज़र इस मामले पर पड़  गयी और  समिति ने विधिवत जांच की और पाया कि सरकारी तंत्र जो सफ़ेद हाथियों को पालने का बेहद शौक़ीन है ,उसने यहाँ भी एक बेहतरीन क्वालिटी के बहुत ही सफ़ेद हाथी पाल रखा है . कमेटी ने इसी फरवरी में कमेटी ने दोनों ही सदनों के पीठासीन अधिकारीयों को अपनी रिपोर्ट दी है. रिपोर्ट देख कर कुछ ऐसे तथ्य सामने आये हैं जिनको देख कर लगता है कि अगर सरकारी अफसर चाह लें तो बढ़िया से बढिया राष्ट्रीय योजनाओं को अपनी जगह से उठने का कोई मौक़ा ही न नसीब हो .अपने देश में इनलैंड वाटरवेज़ का एक अच्छा नेटवर्क है .नदियों, नहरों,समुद्री क्षेत्रों में करीब १४५०० किलोमीटर की दूरी में जल यातायात संभव है.जिसमें से ५२०० किलोमीटर नदी और ४००० किलोमीटर नहरों में है जिसमें मशीनीकृत छोटे जहाज़  चल सकते हैं जिनसे बहुत सारा व्यापारिक माल ढोया जा सकता है . एक तुलना से बात सही सन्दर्भ में सामने आ जायेगी. अमरीका में पानी के मार्ग से माल ढुलाई उनकी पूरी राष्ट्रीय  क्षमता का २१ प्रतिशत है जबकि अपने देश में दशमलव एक प्रतिशत ( ०.१०) माल की दुलाई जलमार्गों से होती है . माल ढुलाई का यह सस्ता  तरीका है और अपने देश में इसकी बहुत सारी संभावना है लेकिन सरकारी अफसरों के आलस्य की कृपा से राष्ट्र लगातार नुक्सान उठा  रहा  है . यह  कोई आरोप नहीं है , यह सारी जानकारी यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध स्थायी संसदीय समिति की १८९वीं रिपोर्ट में संकलित है . रिपोर्ट में मांग की गयी है  कि इस बात को अर्जेंट समझ कर काम किया जाना चाहिए लेकिन भरोसा इसलिए नहीं जम रहा है कि इस तरह के सिफारिशें पहले भी हो चुकी हैं लेकिन अधिकारियों ने हर बार संसद की मंशा को पटरी से उतारने में सफलता  पा ली है.
यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध स्थायी संसदीय समिति  ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि देश के अंदर जलमार्गों के यातायात को विकसित करने से भारी माल की ढुलाई आसान हो जायेगी . यह तरीका पर्यावरण की रक्षा में भी मदद करेगा.अभी तक यातायात की इस विधा को सरकार की वह प्राथमिकता नहीं मिली है जो मिलनी चाहिए. सरकार ने देश में आतंरिक जल यातायात के लिए पांच मार्गों की घोषणा की है   जिनमें से दो मार्ग तो बिलकुल बंद  पड़े हैं और जो तीन चल भी रहे हैं वह भी लगभग शून्य के आसपास ही की क्षमता का इस्तेमाल कर रहे हैं . संसदीय समिति ने इस बात पर जोर दिया है कि १२वीं
योजना में १०५०० करोड रूपये इस मद में लगाए जाएँ.और एन टी पी सी ,ओ एन जी सी जैसी सरकारी कंपनियों को इस यातायात के विकास में भागीदार बनाया जाए.इस रकम का इस्तेमाल बुनियादी ढाँचे के विकास में लगाया जाए. और इस यातायात को समयबद्ध तरीके से  विकसित किया जाए. आतंरिक जलमार्गों को पड़ोसी देशों , बांग्लादेश और म्यांमार के साथ जोड़ने के लिए भी कोशिश की जानी चाहिए जिससे आर्थिक पक्ष के अलावा कूटनीतिक लाभ भी हासिल किया जा सके.
इस सब काम के लिए ज़िम्मेदार इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी  है . कमेटी ने उसके कामकाज के तरीकों पर भी सख्त टिप्पणी की है. कमेटी का कहना है कि इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी के पास अपनी क्षमता और लक्ष्य हासिल करने की न तो इच्छाशक्ति है और  न ही ज़रूरी लावलश्कर. सरकार को सुझाव दिया गया है कि  हाइड्रोग्राफी ,नेवीगेशन,सिविल इंजीनियरिंग,नौसैनिक आर्किटेक्चर जैसी सुविधाओं से इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी को लैस  किया जाना चाहिए . इसके प्रबंधन में विशेषज्ञों को शामिल किया जाना चाहिए . अभी तो यह आई ए एस अफसरों के लिए एक तरह से डम्पिंग ग्राउंड बना हुआ है जहां यह अफसर तब तक इंतज़ार करते हैं जब तक कि इन्हें कोई बढ़िया मालदार तैनाती न मिल जाए. अफसरशाही की इस जिद के सामने राष्ट्र का एक अहम संसाधन लुंजपुंज पड़ा है इस पर फौरान लगाम  लगाने की ज़रूरत है .

रेलवे मंत्रालय की मनमानी के कारण होती हैं रेल दुर्घटनाएं


 .

शेष नारायण सिंह

अपने देश में  रेलों में सुरक्षा की हालत दिन बा दिन बिगडती जा रही है लेकिन रेलवे के अफसरों को कहीं से भी जिमेदार नहीं ठहराया जा सक रहा है .  यह  रहस्य बना हुआ था लेकिन रेलवे सुरक्षा आयुक्त के कामकाज से सम्बंधित संसद की एक स्थायी समिति की रपोर्ट आने के बाद अब बात समझ में आने लगी है . रेल सुरक्षा के लिए केन्द्र सरकार ने रेलवे एक्ट के तहत रेलवे सुरक्षा आयुक्त के संगठन का गठन किया गया था . एक्ट में इस संगठन का काम बहुत ही महत्वपूर्ण बताया गया था. इस संगठन के जिम्मे रेलवे के हर साजो-सामान का  निरीक्षण भी था. एक्ट में यह व्यवस्था थी की अगर कभी कहीं कोई रेल दुर्घटना हो तो रेलवे सुरक्षा आयुक्त को जांच करना था .इसमें कहीं भी किसी आदेश का इंतज़ार करने की व्यवस्था नहीं थी.इस संगठन की  आज़ादी को बनाए रखने के लिए  रेलवे सुरक्षा आयुक्त को रेल मंत्रालय के  कंट्रोल के बाहर रखा गया था. इसे नागरिक उड्डयन मंत्रालय के प्रशासनिक कंट्रोल में रखा गया था. इसके सारे नियम कानून रेलवे एक्ट के प्रावधानों के तहत बनाए  गए थे .लेकिन रेल मंत्रालय के अधिकारियों ने १९५३ में एक एक्जीक्यूटिव आर्डर जारी करके यह अधिकार वापस ले  लिया. यानी निरीक्षण का जो महत्वपूर्ण काम रेलवे सुरक्षा आयुक्त  को करना था वह वापस ले लिया गया .  संसद की इस विभाग से सम्बंधित स्थायी समिति ने सवाल किया है कि जो अधिकार किसी भी संगठन को संसद के किसी एक्ट के कारण मिला है उसे किसी एक्जीक्यूटिव आर्डर  के ज़रिये कैसे वापस लिया जा सकता है . इसके अलावा हमेशा से ही रेल मंत्रालय  का रवैया ऐसा रहा है कि  रेलवे सुरक्षा आयुक्त का दफ्तर पूरी तरह से रेल मंत्रालय के अधिकारियों की कृपा पर बना रहे. मसलन संसद ने रेलवे सुरक्षा आयुक्त की आटोनामी को सुनिश्चित करने के लिए इसे रेल मंत्रालय से हटकार सिविल एविएशन मंत्रालय के जिम्मे किया था लेकिन रेलवे बोर्ड के ताक़तवर अधिकारियों ने इस आर्डर  जारी कर दिया और नियम बना दिया कि रेलवे सुरक्षा आयुक्त का ज़ोन स्तर पर तैनात बड़ा अफसर वहाँ के जनरल मैनेजर के अधीन काम करेगा. इस आदेश एक बाद सब कुछ ऐसे  ही चलता  रहा और रेलवे सुरक्षा आयुक्त पूरी तरह से सफ़ेद हाथी के रूप में काम  करता रहा. देश  भर में रेल में दुर्घटनाएं होती रहीं और रेल मंत्रालय के अफसरों की सुविधा के हिसाब से  रिपोर्ट आती रही. जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने  रेलवे सुरक्षा का जो भरोसेमंद ताम झाम तैयार किया था , उस रेलवे सुरक्षा आयुक्त के संगठन को  कुछ रेलवे अधिकारियों ने दो एक्जीक्यूटिव आर्डर जारी करके छीन लिया . और संसद को बहुत दिन तक इस हेराफेरी का पता भी नहीं चला.
अब बात  पब्लिक डोमेन में आ गयी है . यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध संसद की स्थायी समिति ने सारी गडबडी को पकड़ लिया है और अपनी १८८वीं रिपोर्ट में संसद को सब कुछ बता दिया है .रिपोर्ट में बताया गया है कि  रेलवे सुरक्षा आयुक्त में कमांड का दोहरापन है .रेलवे एक्ट में इसे नागरिक उड्डयन मंत्रालय के जिम्मे किया गया है .दुर्घटना के इन्वेस्टीगेशन के नियम तो नागरिक उड्डयन मंत्रालय की तरफ से बनाए जाते हैं जबकि दुर्घटना के इन्क्वायरी से सम्बंधित नियम रेल  मंत्रालय से आते हैं .  कमेटी को यह बात बहुत अजीब लगी क्योंकि इस तरह से कुछ  शब्दों के उलटफेर  के बाद जनहित का काम बहुत बुरी तरह से प्रभावित होता है. नतीजा यह होता है कि सुरक्षा के जो कोड बनाए जाते हैं , रेलवे सुरक्षा आयुक्त को  उसके बारे में कोई जानकारी नहीं होती. सरकारी कायदा यह है कि अगर किसी फैसले में दो मंत्रालय शामिल हैं तो जब तक तो दोनों ही मंत्रालय सहमत न हों कोई फैसला न लिया जाए लेकिन रेलवे सुरक्षा आयुक्त के अधिकार के फैसले रेलवे मंत्रालय वाले बड़े मौज से लेते रहते हैं .रेलवे एक्ट में एक टर्म “ सेन्ट्रल गवर्नमेंट “ लिखा हुआ है . इसी टर्म के कवर में रेल मंत्रालय के अफसर मनमानी करते रहते हैं .कमेटी ने सुझाव दिया है कि इस दुविधा को दूर करने के लिए रेलवे एक्ट में ही ज़रूरी सुधार कर दिया  जाना चाहिए .
 मौजूदा सिस्टम में रेलवे मंत्रालय की मनमानी चलती है क्योंकि रेलवे सुरक्षा आयुक्त को अपना काम करने के लिए रेल मंत्रालय पर निर्भर करना पडता है . उसके  पास अपने एक्सपर्ट नहीं होते और रेल मंत्रालय उनको एक्सपर्ट देता नहीं . कमेटी का विचार है कि सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिसके बाद रेलवे सुरक्षा आयुक्त को अपनी एक्सपर्ट  सीधे भर्ती करने के अधिकार मिल जाएँ . वर्ना आज तो रेलवे सुरक्षा आयुक्त पूरी तरह से रेल मंत्रालय के अधीन ही काम करने के लिए अभिशप्त है . नागरिक उड्डयन मंत्रालय वाले केवल कुर्सी मेज़ आदि के  इंतजाम तक ही सीमित हैं . अभी रेलवे सुरक्षा आयुक्त सभी  दुर्घटनाओं की जांच नहीं कर पाता क्योंकि क्योंकि रेल मंत्रालय सभी दुर्घटनाओं की नोटिफिकेशन नहीं जारी करता . नतीजा यह होता है कि रेल मंत्रालय वाले खुद ही  जांच करके मामले को रफा दफा कर देते हैं. रेलवे सुरक्षा आयुक्त को रेलवे की सुरक्षा के मानकों को बदलने के पहले  भरोसे में लेना ज़रूरी है लेकिन अभी ऐसा कुछ नहीं  है . रेल अफसर जब चाहते हैं रेलवे सुरक्षा आयुक्त को बताए बिना मानकों में परिवर्तन कर देते हैं .
इस सारी दुर्दशा से बचने के लिए कमेटी ने सुझाव दिया है रेलवे सुरक्षा आयुक्त को किसी भी मंत्रालय के अधीन कर दिया जाए उससे कोई फर्क नहीं पडेगा लेकिन ज़रूरी  है कि संसद एक अलग एक्ट पास करके रेलवे सुरक्षा आयुक्त के अधिकार ,कर्तव्य और जिम्मेवारियों को विधिवत कानून की सीमा में लाने की व्यवस्था करे . वरना दुर्घटनाएं होती रहेगीं और रेलवे के अधिकारी अपनी मर्जी के हिसाब से रिपोर्ट बनवाते रहेगें.