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Wednesday, June 19, 2013

मुख्यमंत्री सिद्दरमैया का इंटरव्यू , "कर्नाटक की जनता ने जाति के मिथक को तोड़ दिया है ".


कर्नाटक के मुख्यमंत्री  , सिद्दरमैया  ने  जाति को प्राथामिकता देने की  मुख्यमंत्रियों की रिवायत  से साफ़ मना दिया है . उन्होंने अपनी जाति  के किसी भी आदमी को अपने निजी स्टाफ में जगह नहीं देने की घोषणा कर दी है . अपने मंत्रियों को भी उन्होंने सलाह दी है की जाती के शिकंजे से बाहर  आने की कोशिश करें  . पुराने  समाजवादी रहे सिद्दरमैया के इस एक फैसले ने उनको अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री , राम कृष्ण हेगड़े की कतार में खडा कर दिया है , उन्होंने एक बातचीत में बताया की भारत सब का है और आज़ादी के लड़ाई का जो इतिहास है उसके इथास के बाहर जाने  का कोई मतलब नहीं है . अगर अपने निजी स्टाफ की  भर्ती में ही नेता जातिवादी हो जायेगा तो वह जातिवाद को ख़त्म  करने के अपने मकसद में कैसे कामयाब होगा.  हालांकि  राजनीतिक प्रबंधन के काम में सिद्दरमैया जातियों के महत्व  को कम  नहीं मानते . उन्होंने  अहिन्दा की  राजनीति को अपनी जीत की धुरी  बनाया है . अ यानी अल्पसंख्यक, हिन्दुलिगा यानी ओबीसी और दा  यानी दलित . इन तीनों वर्गों के नेता के रूप में अगर उनको मान्यता मिल गयी तो कर्णाटक  में जीत के लिए लिंगायत या वोक्कालिगा होने की जो परंपरा है वह ख़त्म हो जायेगी . कर्नाटक विधान सभा के चुनावों में कांग्रेस को मिले स्पष्ट बहुमत  ने दक्षिण भारत से बीजेपी की राजनीति को ख़त्म कर दिया था . कांग्रेस को इस राज्य में मिली जीत  के बाद लोकसभा २०१४ के लिए भी हौसला अफजाई हुयी थी  . उत्तर भारत में रहने वालों के लिए इस नई इबारत को समझना थोडा मुश्किल माना जाता है . इसी गुत्थी को सुलझाने के लिए कर्नाटक के मुख्यमंत्री , सिद्दरमैया से एक ख़ास बातचीत  की  गयी  . सिद्दरमैया कांग्रेस की राजनीति में थोडा नए हैं . इसलिए उनसे यह समझने की कोशिश भी  की गयी की किस तरह से उन्होंने न केवल बीजेपी की सत्ता को बेदखल किया बल्कि कांग्रेस के अन्दर मौजूद बड़े नताओं की इच्छा के खिलाफ  कांग्रेस आलाकमान की मंजूरी हासिल की और मुख्यमंत्री  बने. पत्रकार शेष नारायण सिंह के साथ हुयी बातचीत के कुछ ख़ास अंश 

सवाल. कर्नाटक में बीजेपी का शासन मजबूती से कायम हुआ था . बी एस येदुरप्पा बहुत ही ज्यादा मजबूती से जमे हुए थे . बीजेपी से हटकर आपके पक्ष में कब महौल बनना शुरू हुआ.  ?

जवाब .जब  जनता दल ( एस ) और बीजेपी की संयुक्त सरकार  बनी थी तो बीस बीस महीने के लिए सत्ता के बंटवारे की बात हुयी थी . एच डी  देवेगौडा ने अपने बेटे कुमारस्वामी को तो मुख्यमंत्री बनवा दिया लेकिन जब बी एस येदुरप्पा का नंबर आया तो तिकड़म करके उनको सत्ता से दूर रखा. उसके बाद जनता की सहानुभूति  येदुरप्पा के साथ हो गयी . जब दोबारा चुनाव हुआ तो बीजेपी को सरकार बनाने का अवसर मिला. लोगों की सहानुभूति येदुरप्पा के साथ थी  . और उसी सहानुभूति के बल पर वे जीत गए लेकिन सत्ता में आते ही येदुरप्पा ने भ्रष्टाचार का राज स्थापित कर दिया और जनता से पूरी तरह से कट गये.  बेल्लारी में रेड्डी भाइयों ने खनिज सम्पदा की लूट मचा दी, येदुरप्पा खुद भी उस से होने वाले लाभ में शामिल थे . यहाँ तक की केंद्र में भी बीजेपी के कुछ नेताओं तक लाभ पंहुच रहा था. कर्नाटक में  भ्रष्टाचार के शासन के खिलाफ माहौल बन रहा था . इसी बीच लोकायुक्त की रिपोर्ट  आ गयी जिसके बाद  सारी दुनिया को मालूम हो गया की येदुरप्पा एक भ्रष्ट मुख्यमंत्री थे  . सुप्रीम कोर्ट ने  भी भ्रष्टाचार पर काबू करने के लिए संविधान में प्रदत्त तरीकों का इस्तेमाल किया . नतीजा यह हुआ कि  बीजेपी और येदुरप्पा भ्रष्टाचार के  पर्यायवाची   बन गए . . चारों तरफ से येदुरप्पा के इस्तीफे की मांग हो रही थी लेकिन दिल्ली में बैठे बीजेपी के वे नेता जिनको खनिज माफिया से लाभ  मिलता था,मुख्यमंत्री के खिलाफ कोई भी ऐक्शन लेने को तैयार ही नहीं थे.  . उसी के बाद हमने विधान सभा के अन्दर धरना दिया . मीडिया ने इस धरने को रिपोर्ट किया . हम सी बी आई जांच की मांग कर रहे थे .  जनार्दन रेड्डी ने धमकाया कि अगर हिम्मत है तो बेल्लारी  आइये . उसी के बाद मैने  बंगलूरू से बेल्लारी की  पदयात्रा कॆ.  ३२५ किलोमीटर  की  यह दूरी सोलह दिन में तय की गयी और खनन माफिया और  उनके  समर्थक मुख्यमंत्री और  बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व के खिलाफ माहौल बनना शुरू हो गया .उसके बाद मैंने राज्य के अन्य इलाकों में भी यात्राएं की .हिंदुत्व की प्रयोग्शाला कहे जाने वाले इलाके तटीय कर्नाटक में भी  यात्रा की और बीजेपी के  भ्रष्ट शासन के खिलाफ माहौल बना तो भ्रष्टाचार की प्रतिनिधि सरकार के जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था. 

सवाल- आप पुराने समाजवादी हैं . कांग्रेस की आलाकमान कल्चर में न आप का कैसे एडजस्टमेंट  हो गया . कांग्रेस के स्थापित नेताओं ने आपको कैसे स्वीकार किया ?

जवाब-- हमारी पार्टी की सबसे बड़ी नेता सोनिया गांधी हैं . उनकी  इच्छा थी की कर्णाटक  को भ्रष्टाचार से मुक्त किया जाये. इसीलिये उन्होंने मुझे कांग्रेस में शामिल किया था .  जब राहुल गांधी ने जयपुर  चिंतन शिविर में कहा कि ईमानदार पार्टी कार्यकर्ताओं को आगे महत्व दिया जायेगा तो मुझे अंदाज़ लाग गया था कि आने वाले समय में कांग्रेस में  मेरे जैसे मेहनत करने वाले लोगों को महत्व मिलेगा  .

सवाल  . क्या आपको वादा किया गया था कि  अगर कांग्रेस को सत्ता मिलेगी तो आपको मुख्यमंत्री बनाया जायेगा. ?

जवाब . बिलकुल नहीं . लेकिन विपक्ष के नेता के रूप में मुझे कम करने का मौक़ा देकर  कांग्रेस आलाकमान ने मुझे पर्याप्त सम्मान दे दिया था . जहां तक मुख्यमंत्री पद की बात  है मैंने उसके बारे  में सोचकर कोई काम नहीं किया था. हाँ यह पक्का था कि  सोनिया गांधी और राहुल गांधी  ने देश के सामने जिस तरह की कांग्रेस  की राजनीति का वादा किया था  उसमें मेहनत  करने वाले  को अपने आप बढ़त  मिल  जाती है .

सवाल .. कर्नाटक की राजनीति में जातियों की बहुत प्रमुखता रही है . आपने  वोक्कालिगा और लिगायत न होते हुए भी किस तरह से जातियों के जंगल से निकल कर सफलता पायी . ?

जवाब --कर्नाटक  विधानसभा के चुनावों ने इस बार साबित कर दिया है कि जनता जातियों के बंधन से बाहर निकल चुकी है .इस चुनाव में कांग्रेस को सभी जातियों के वोट मिले हैं और सभी जातियों  के नेता कांग्रेस में महत्वपूर्ण पदों पर मौजूद हैं .  इन चुनावों में लिंगायत जाति के  पचास विधायक जीतकर आये हैं जिनमें से २९  कांग्रेस के हैं , बीजेपी में केवल  दस विधायक लिंगायत हैं . बी एस येदुरप्पा की  पार्टी के केवल  ६ विधायक चुने गए हैं . वोक्कालिगा जाति  के ५३  विधायक हैं। जिनमें से बीस कांग्रेस के पास हैं . अपने आपको वोक्कालिगा नेता बताने वाले देवेगौडा की पार्टी में  केवल १८ विधायक वोक्कालिगा है . अनुसूचित जाति के  ३५ विधायकों में से  १७  कांग्रेस में हैं . अनुसूचित जनजाति के १९ विधायकों में से ११ कांग्रेस में हैं  . ओबीसी विधायकों के संख्या  ३६ है जिनमें से २७ कांग्रेस में हैं  , ११ मुसलमान जीतकर आये हैं जिनमें से ९ कांग्रेस में हैं .  ईसाई ,जैन और वैश्य समुदाय के सभी विधायक कांग्रेस के साथ हैं .इस तरह से किसी ख़ास जाति  का नेता  बनने की राजनीति करने वालों को कर्नाटक की जनता ने कोई महत्व नहीं दिया है .  

सवाल.  विधानसभा  में  कांग्रेस को मिली जीत , बीजेपी और येदुरप्पा के खिलाफ नेगेटिव वोट है . ऐसा बहुत सारे लोग कहते रहते हैं . क्या इस जीत  को आप लोकसभा के अगले साल होने वाले चुनावो में भी जारी रख सकेगें .?

जवाब....यह नेगेटिव वोट नहीं है . हम इसको आगे भी जारी रखेगें  और लोकसभा चुनाव २०१४ में कम से कम बीस सीटें जीतेगें .


सवाल. अपनी जीत से आगे  भी राजनीतिक जीत सुनिश्चित करने  के लिए क्या  आप  कुछ ज़रूरी क़दम उठायेगें  ?

जवाब ... हम उठा चुके हैं .  विधान सभा में दिए गए अपने पहले भाषण में ही मैं ऐलान कर दिया कि अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के सारे क़र्ज़ माफ़ कर दिए गए हैं . यह वह क़र्ज़ है जो इन समुदायों  के लिए बनाए गए सरकारी कारपोरेशन की और से इन लोगों पर बकाया था.  मेरे ऊपर आरोप लगा  कि  इस तरह से तो सरकारी खज़ाना ही खाली हो जाएगा  लेकिन मैंने साफ़ कह दिया की कोई भी इंसान शौकिया क़र्ज़ नहीं लेता. मेरे एक साथी ने कह दिया कि जब बड़ी बड़ी कंपनियों को इनकम टैक्स में हज़ारों करोड़ की छूट दी जाती है तो वह भी तो सरकारी खजाने से ही जाती है  लेकिन उसके खिलाफ कोई नहीं लिखता . इसी तरह से जब मैंने  फैसला किया की राज्य के ९८ लाख बी पी एल परिवारों को एक रूपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से प्रति महीने  के  हिसाब से ३० किलो चावल दिया जाएगा तो बीजेपी ने हल्ला मचाया .  . मीडिया ने भी कहा कि करीब ४ हज़ार करोड़ रूपये सालाना का  जो नुक्सान होगा उसकी  भरपाई कहाँ से होगी . मेरा मानना है कि  कर्णाटक का बजट एक लाख बीस हज़ार करोड़ का है . और अगर उस में से चार हज़ार करोड़ गरीब भी भूख मिटाने  की लिए दे दिया जाएगा तो उसमें कोई परेशानी नहीं होने चाहिए  

Saturday, May 25, 2013

दिग्विजय सिंह के नाम से कुछ लोगों को गुस्सा क्यों आता है .?



शेष नारायण सिंह

 कर्नाटक में बीजेपी की हार के बाद उस हार के कारणों का विश्लेषण अब एक
कुटीर उद्योग का रूप ले चुका है . एक नए विश्लेषक भी मैदान में हैं .
शिवसेना के सांसद संजय राउत ने हार के कारणों में हिंदुत्व से दूरी को
बताया है .अपनी पार्टी के अखबार सामना के सम्पादकीय में उन्होंने लिखा है
कि अगर बीजेपी ने हिंदुत्व को फोकस में रखा होता तो कर्नाटक में इतनी
बड़ी हार न होती. संजय राउत ने मोदी को भी हिंदुत्व से अलग होने पर खरी
खोटी सुनायी है और कहते हैं अगर मोदी ने हिंदुत्व का सम्मान नहीं किया तो
उनमें और दिग्विजय सिंह कोई फर्क नहीं रहेगा . बीजेपी के नेता भी
दिग्विजय सिंह का नाम आते ही इस तरह से बिफर पड़ते हों जैसे उन्हें लाल
अंगोछा दिखा दिया गया हो .किसी भी विषय पर दिग्विजय सिंह की राय को
बीजेपी वाले खारिज करने में एक मिनट नहीं लगाते . मीडिया में भी एक बड़ा
वर्ग ऐसे पत्रकारों का है जो दिग्विजय सिंह को बहुत ही अछूत टाइप मानते
हैं .  अन्ना हजारे, रामदेव और अरविन्द केजरीवाल के समर्थकों  में ऐसे
लोगों की बड़ी संख्या है जो दिग्विजय सिंह का नाम आते ही गुस्से में आ
जाते हैं और कुछ तो यह  कहते सुने गए हैं वे दिग्विजय सिंह की बातों को
गंभीरता से नहीं लेते . कांग्रेस में बड़े नेताओं का एक ताक़तवर वर्ग
दिग्विजय सिंह के किसी बयान के बाद उस बयान से अपनी दूरी बनाने के लिए
व्याकुल हो जाता है . सोशल मीडिया में भी दिग्विजय सिंह को गाली देने
वालो का एक बहुत बड़ा वर्ग है . जानकार बताते हैं वह वर्ग भी हिंदुत्ववादी
ताक़तों ने ही बनाया है .कुल मिलाकर ऐसा माहौल बन गया है कि हिंदुत्ववादी
साम्प्रदायिक पार्टियों में किसी को दिग्विजय कह देना बहुत अपमान जनक
माना जा रहा है .

सवाल यह उठता  है कि दिग्विजय सिंह के खिलाफ इस तरह का माहौल क्यों है ?
इस सवाल का जवाब उनसे ही लेने की कोशिश की गयी लेकिन उन्होंने कोई जवाब
देने से साफ़ मना कर दिया और कहा कि उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही है
जिसके कारण उनके खिलाफ इस तरह का माहौल बनाया जाए . वे अपनी पार्टी की
बात करते हैं उसके सिद्धांतों की बात करते हैं और पार्टी में उनका कोई
विरोध नहीं है . उनकी पार्टी के बुनियादी सिद्धांतों में सभी धर्मों
संप्रदायों और जातियों को साथ लेकर चलने की बात कही गयी है इसलिए अगर कोई
भी व्यक्ति किसी भी भारतीय को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश
करेगा तो उसका विरोध किया जाएगा और उसकी राजनीतिक सोच को बेनकाब किया
जाएगा .

 मीडिया के बड़े वर्ग और दक्षिणपंथी पार्टियों के  तीखे रुख के बावजूद
दिग्विजय सिंह की पार्टी में उनकी ताक़त किसी से कम नहीं .पार्टी के
अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का उन्हें पूरा संरक्षण मिला हुआ है .इसलिए यह बात
साफ़ है कि बीजेपी , शिवसेना और उनके मुरीद चाहे जो कहें कांग्रेस पार्टी
दिग्विजय सिंह को एक महत्वपूर्ण नेता मानती है और उनकी बातों का सम्मान
किया जाता है . ज़ाहिर है कांग्रेस को उनके बयानों और राजनीति से कोई
नुक्सान नहीं हो रहा है और पार्टी उनकी राजनीतिक सोच को आगे बढाने को
तैयार है . दिग्विजय सिंह के विरोधी भी मानते हैं  कि वे धर्मनिरपेक्षता
की राजनीति को आगे बढाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं . और जब उस
राजनीति से पार्टी का कोई नुक्सान नहीं हो रहा हो तो उनकी पार्टी को क्या
एतराज़ हो सकता है . इस बारीकी को समझने के लिए कांग्रेस के समकालीन
इतिहास पर नज़र डालनी पड़ेगी. महात्मा गांधी, सरदार पटेल , मौलाना आज़ाद और
जवाहरलाल नेहरू आज़ादी के पहले और उसके बाद के  सबसे बड़े नेता थे .
उन्होंने आज़ादी के पहले और बाद में बता दिया था कि धर्मनिरपेक्षता इस
राष्ट्र की स्थापना और संचालन का बुनियादी आधार रहेगा . देखा गया है कि
जवाहरलाल नेहरू के जाने के  बाद कांग्रेस ने जब भी धर्मनिरपेक्षता की
राजनीति को  कमज़ोर किया उसे चुनाव में हार का सामना करना पड़ा .

सबसे पहले इमरजेंसी के दौरान कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता की राह को छोड़ने
की कोशिश की . विपक्ष के सभी बड़े नेता जेलों में बंद थे और ऐसा लगता था
कि बाहर  निकलना असंभव था . आर एस एस वाले भी बंद थे . उस वक़्त के आर एस
एस के मुखिया बालासाहेब  देवरस ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को
कई पत्र लिखे और कांग्रेस के साथ मिलकर काम करने का भरोसा दिया . १०
नवंबर 1975 को येरवदा जेल से लिखे एक पत्र में बालासाहेब देवरस ने इंदिरा
गांधी को बधाई दी थी कि सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय बेंच ने उनके
रायबरेली वाले चुनाव को वैध ठहराया है.  इसके पहले 22 अगस्त 1975 को लिखे
एक अन्य पत्र में आर एस एस प्रमुख ने लिखा कि ''मैंने आपके 15 अगस्त के
भाषण को काफी ध्यान से सुना। आपका भाषण आजकल के हालात के उपयुक्त था और
संतुलित था।'' इसी पत्र में उन्होने इंदिरा गांधी को भरोसा दिलाया था कि
संघ के कार्यकर्ता पूरे देश में फैले हुए हैं जो निस्वार्थ रूप से काम
करते हैं। वह आपके कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में तन-मन से सहयोग करेगें
. इस सब के बावजूद भी इंदिरा गांधी के रुख में तो कोई बदलाव नहीं हुआ
लेकिन उनके बेटे संजय गांधी ने मुसलमानों के विरोध का रवैया अपनाया .
अपने खास अफसरों को लगाकर मुसलमानों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई की और कोशिश
की कि देश के बहुसंख्यक हिंदू  उनको मुस्लिमविरोधी के रूप में स्वीकार कर
लें . यह वह कालखंड है जब कांग्रेस ने पहली बार साफ्ट हिंदुत्व को अपनी
राजनीति का आधार बनाने की कोशिश की थी. कांग्रेस की १९७७ की हार में अन्य
कारणों के अलावा इस बात का महत्त्व सबसे ज्यादा था .हार के बाद  इंदिरा
गांधी ने फिर धर्मनिरपेक्षता की बात शुरू कर दी और उनको हराने वाली जनता
पार्टी में  फूट डाल दी . उन्होंने देश को बताना शुरू कर दिया कि जनता
पार्टी वास्तव में आर एस एस की पार्टी है उसमें समाजवादी तो बहुत कम
संख्या में हैं . जनता पार्टी के बड़े नेता और समाजवादी विचारक मधु लिमये
ने भी साफ़ ऐलान कर दिया कि आर एस एस वास्तव में एक राजनीतिक पार्टी है और
उसके सदस्य जनता पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते . कई महीने चली बहस के बाद
जनता पार्टी टूट गयी और १९८० में कांग्रेस पार्टी दुबारा सत्ता में आ गयी
.

दोहरी सदस्यता के बारे में लाल कृष्ण आडवानी ने अपने ब्लॉग में लिखा है
कि ” मुख्य रूप से 'दोहरी सदस्यता' का विचार मधु लिमये की मानसिक उपज था,
जिसका लक्ष्य था जनता पार्टी के उन सदस्यों को कमजोर करना, जो पहले जनसंघ
का हिस्सा थे और लगातार संघ से जुड़े हुए थे। जब जनता पार्टी को बने एक
वर्ष भी नहीं हुआ था तब लिमये, जो पार्टी के महासचिव थे, ने इस बात पर
जोर दिया कि जनता पार्टी का कोई भी सदस्य साथ-ही-साथ संघ का भी सदस्य
नहीं हो सकता” उन्होंने कांग्रेस की जीत का भी अपने तरीके से ज़िक्र किया
है .लिखते हैं कि “ वर्ष 1980 के संसदीय चुनावों में जनता पार्टी की हार
का अनुमान मुझे पहले से ही था। यह हार अत्यंत गंभीर थी। इसने दर्शाया कि
मतदाता 1977 के जनादेश के साथ विश्वासघात करने के लिए पार्टी को दंड देना
चाहते थे। 1977 में 298 सीटों की तुलना में पार्टी को मात्र 31 सीटें
प्राप्त हुईं। इसमें जनसंघ की सीटें 1977 में 93 की तुलना में मात्र 16
थीं। दूसरी ओर इंदिरा गांधी के नेतृत्ववाली कांग्रेस (आई) शानदार तरीके
से वापस लौटी और 1977 के 153 सांसदों की तुलना में 1980 में उसके 351
सांसद विजयी रहे, जो कि 542 सदस्यीय सदन में लगभग दो-तिहाई बहुमत था।“

दूसरी बार कांग्रेस ने साफ्ट हिंदुत्व की राजनीति को अपनाने का कार्य
बाबरी मसजिद के लिए चलाये गए आर एस एस के आंदोलन के दौरान किया जब राजीव
गांधी मंत्रिमंडल में गृहमंत्री , सरदार बूटा सिंह  ने जाकर अयोध्या में
बाबरी मसजिद के पास एक मंदिर का शिलान्यास करवा दिया . काँग्रेस पार्टी
उसके बाद हुए १९८९ के चुनावों में हार गयी . १९९१ में पी वी नरसिम्हाराव
ने जुगाड करके एक सरकार बनायी .कांग्रेस की इसी सरकार के काल में बाबरी
मसजिद का विध्वंस हुआ और उसके बाद हुए चुनावों में कांग्रेस फिर हार गयी.
उसके बाद कांग्रेस पार्टी इतिहास का विषय बनने की तरफ बढ़ रही थी लेकिन
१९९७ के कोलकता कांग्रेस में सोनिया गांधी ने पार्टी की सदस्यता ली और
१९९८ में कांग्रेस अध्यक्ष बनीं. उस वक़्त कांग्रेस की हालत बहुत खराब थी
. लेकिन सोनिया गांधी ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी धर्मनिरपेक्षता की राह
से भटक गयी थी अब वे हमेशा उसी धर्मनिरपेक्षता की राह पर चलती रहेगीं
.सिद्धांतों को फिर से संभाल लेने का ही नतीजा है कि कांग्रेस ने अपनी
पुरानी हैसियत को पाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया और २००४ में
केन्द्र सरकार पर कांग्रेस का दुबारा कब्ज़ा हो गया . मुख्य विपक्षी दल तब
से लगातार सिमट रहा है .बीजेपी की सरकारें कई राज्यों में बन गयी थीं जो
अब धीरे धीरे विदा हो रही हैं . राजनीतिक जानकार बताते हैं कि इसका कारण
कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष नीतियां हैं .



दिग्विजय सिंह कांग्रेस की इसी आक्रामक धर्मनिरपेक्षता को आगे बढ़ा रहे
हैं .ज़ाहिर है धर्मनिरपेक्ष राजनीति से बीजेपी को चुनावी नुक्सान हो रहा
है और उसके नेता जब भी मौक़ा मिलता है ,दिग्विजय सिंह के खिलाफ अभियान
चलाने का अवसर नहीं चूकते . बीजेपी के समर्थक भी दिग्विजय सिंह को बहुत
ही घटिया इंसान के रूप में पेश करने में संकोच नहीं करते .रामदेव जैसे
लोगों के अलावा मीडिया में मौजूद बीजेपी के सहयोगी भी दिग्विजय सिंह के
हर बयान  को अपनी सुविधानुसार  पेश करते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि आज
दिग्विजय सिंह साम्प्रदायिक ताक़तों को चुनौती देने की राजनीति के विशेषण
बन चुके हैं और उनकी पार्टी में उनको पूरा सम्मान मिल रहा है ..

Saturday, March 23, 2013

कर्नाटक से उत्तर प्रदेश तक, राजनीति की नज़र २०१४ पर है .



शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में हुए शहरी निकायों के चुनावों के बाद देश की राजनीति में बहुत कुछ बदल गया है . वहाँ कांग्रेस ने जीत दर्ज की है और  विधानसभा चुनावों के पूर्व एक सन्देश देने में सफलता हासिल कर ली है कि वह कर्नाटक में सबसे मज़बूत राजनीतिक शक्ति है .कई राज्यों में विधानसभा चुनावों के लगभग तुरंत बाद  ही  लोकसभा के चुनाव होने हैं जिनके ऊपर बहुत सारे  राजनेताओं के सपने निर्भर कर रहे हैं . प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए बीजेपी में उठापटक चल रही है . कांग्रेस में  भी दरबारी संस्कृति से आये लोग राहुल गांधी का नाम लेकर अपने नंबर बढवाने के लिए सक्रिय थे लेकिन एक राज्य के मुख्यमंत्री को फटकार लगाकर राहुल गांधी ने इन चर्चाओं पर फिलहाल विराम लगा दिया है .लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि हर राजनीतिक पार्टी अब  लोकसभा २०१४ के चुनाव की तैयारी कर रही है .सत्ता की मुख्य दावेदार यू पी ए और एन डी ए है . यू पी ए का २००४ से ही राज है . उसके पहले एन डी ए वालों ने भी करीब छः साल राज किया था. जब २००४ में चुनाव हुआ तो उस वक़्त की सरकार ने देश में मीडिया के ज़रिये ऐसा माहौल बनाया कि जनता इण्डिया शाइनिंग के उनके नारे पर भरोसा कर रही है और सत्ता उनको ही दे देगी . लेकिन ऐसा नहीं हुआ. २४ पार्टियों के गठबंधन से बना एन डी ए टूट गया . अब तो एन डी ए में मुख्य पार्टी  बीजेपी है और पूरी मजबूती के साथ  उसको शिवसेना और अकाली दल का समर्थन मिल रहा है . एन  डी ऐ के एक अन्य समर्थक नीतीश कुमार की पार्टी है , लेकिन नरेंद्र मोदी  को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बनाने की कोशिश करके बीजेपी ने नीतीश कुमार को निराश किया है और अब लगभग पक्का  माना जा रहा  है कि नीतीश कुमार २०१४ के चुनावों के पहले या बाद में बीजेपी के खिलाफ खड़े होंगें . इसी हफ्ते नई दिल्ली में नीतीश कुमार की रैली होने वाली है और उसमें बिहार के अधिकार की बात की जायेगी. अब तक केन्द्र सरकार से जो भी नीतीश कुमार की अपेक्षा रही है ,उसे मौजूदा सरकार पूरी कर रही है. जानकार बताते हैं कि अब नीतीश कुमार बीजेपी से दूरी बनाने के लिए कमर कस चुके हैं . अपने किसी नेता को अगली बार प्रधानमंत्री बनाने के अपने अभियान में बीजेपी को नीतीश कुमार पर भरोसा नहीं करना चाहिए .अभी चार महीने पहले तक बीजेपी के बड़े नेता कहते पाए जाते थे कि आठ राज्यो में उनकी  सरकारें थीं ,  लेकिन अब चार राज्यों में ही हैं . उन चार में एक कर्नाटक भी है . यानी अब बीजेपी की मजबूती का दावा केवल मध्य प्रदेश , छत्तीस गढ़ और गुजरात में है . अगर यह  मान भी लिया जाये कि इन तीनों राज्यों में बीजेपी  को सभी सीटें मिल जायेगीं तो क्या बीजेपी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिल जाएगा. सबको मालूम है कि बीजेपी का वही नेता प्रधान मंत्री बन सकता है जो अन्य पार्टियों को स्वीकार्य हो . अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर बीजेपी ने ऐसी पार्टियों का समर्थन ले लिया था जो मूल रूप से बीजेपी की राजनीति की विरोधी मानी जाती हैं. क्या बीजेपी का कोई नेता आज अटल जी की तरह राजनीतिक मतभेदों की बाधा पार करने की क्षमता रखता है? बीजेपी की सरकार बनेगी ऐसा सोचना एक काल्पनिक स्थिति है क्योंकि देश की राजनीति का मौजूदा माहौल ऐसा  नहीं नज़र आता कि बीजेपी को सरकार बनाने का दावा करने भर को बहुमत मिल जाएगा. पिछले एक  वर्ष में बीजेपी ने कई राज्यों में अपने को  कमज़ोर साबित किया है . गुजरात के अलावा उसको कहीं भी एक ताक़तवर पार्टी के रूप में  नहीं माना जा रहा है .

जहां तक कांग्रेस का सवाल है वह आश्वस्त है कि देश में बहुत सारी पार्टियां ऐसी हैं जो बीजेपी और आर एस एस को सत्ता से दूर रखने के लिए उसे समर्थन दे सकती हैं . कांग्रेस इस मामले में भाग्यशाली भी है कि बीजेपी ने लोक सभा में उसकी गलतियों को उजागर करने में वह कुशलता नहीं दिखाई जो १९७१ के बाद के विपक्ष ने कांग्रेस को बेनकाब करने के लिए दिखाई थी. अब तो बीजेपी वाले संसद में बहस बहुत कम करते हैं अक्सर तो हल्ला गुल्ला करके ही काम चला  लेते हैं . नतीजा यह हो रहा है कि कांग्रेस की गलतियाँ पब्लिक डोमेन में  नहीं आ रही हैं. सी ए जी की रिपोर्टों के सहारे कांग्रेस की सरकार को भ्रष्ट साबित करने की कोशिश चल रही है .चारों तरफ फ़ैली हुई महंगाई पर बीजेपी ने कांग्रेस पर कोई कारगर हमला नहीं किया है . ऐसा शायद इसलिए कांग्रेस की आर्थिक उदारीकरण की नीतियों का विरोध बीजेपी नहीं करना चाहती क्योंकि आर्थिक उदारीकरण की डॉ मनमोहन सिंह की अर्थनीति को बीजेपी का पूरा समर्थन मिलता है . राजनीति का मामूली जानकार भी बता देगा कि अपने देश में मंहगाई का कारण आर्थिक उदारीकरण और उस से पैदा हुआ भ्रष्टाचार ही है . दोनों  ही बड़ी पार्टियां आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की समर्थक हैं . इसलिए नीति के आधार पर बीजेपी के लिए कांग्रेस का विरोध कर पाना संभव नहीं है. हाँ  यू पी ए के कुछ मंत्रियों और सोनिया गांधी के परिवार के खिलाफ अभियान चलाकर बीजेपी जनता को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही है . वक़्त ही बताएगा कि उसे कितनी सफलता मिलती है .

 कांग्रेस और बीजेपी के अलावा भी कई ऐसी पार्टियां हैं जो अगला प्रधानमंत्री बनवाने में मदद करेगीं. पश्चिम बंगाल की दोनों ही पार्टियां . लेफ्ट फ्रंट और तृणमूल महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं . आन्ध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी एक राजनीतिक ताक़त बन कर उभर रहे हैं . उन पर भी नज़र रहेगी . बिहार से लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की सफलता पर भी सबकी नज़र रहेगी . उत्तर प्रदेश की अस्सी सीटों का भी ख़ासा योगदान रहेगा. मौजूदा सरकार भी उत्तर प्रदेश की तीन  पार्टियों के सहयोग से चल रही है . बहुजन समाज पार्टी , समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के एम पी , डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाए रखने में मदद कर रहे हैं .आने वाले समय में भी उतर प्रदेश के सांसदों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण रहने वाली है .विधान सभा में स्पष्ट बहुमत लेने के बाद समाजवादी पार्टी के हौसले बहुत ही बुलंद हैं . अखिलेश सरकार के एक साल पूरे हो रहे हैं .  पिछले एक साल में समाजवादी पार्टी के अधिकतर नेताओं ने दावा किया है कि राज्य से ५० से ज़्यादा सीटें जीतकर वे मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनवाएगें . इस महत्वपूर्ण राजनीतिक पहेली को समझने के लिए संसद भवन के उनके कमरे में  आज मुलायम सिंह यादव से मुलाक़ात की गयी . मुलायम सिंह यादव का कहना है २०१४ का चुनाव बहुत ही गंभीरता से लड़ा जाएगा. उन्होंने बताया कि संसद का बजट सत्र खत्म होने के बाद वे निकल पड़ेगें और पूरे राज्य में  जनसंपर्क शुरू कर देगें . जब पूछा गया कि क्या उसी तरह का जनसंपर्क करने की योजना  है जो १९८६-८७ में थी तो उन्होंने बताया कि वह तो तब किया था जब एक बार भी मुख्यमंत्री नहीं बना था.राज्य में हर जिले में लोग उन्हें जानते तक नहीं थे . लेकिन उस यात्रा के बाद तो हर जिले में कई चक्कर लगाया , हर कस्बे तक पंहुचा और हर जिले में दो दो ,तीन तीन बार सोये भी . मुलायम सिंह ने बताया कि अपने बेटे अखिलेश यादव को दो साल पहले वहीं प्रेरणा दी थी और उन्होंने भी राज्य का  खूब दौरा किया और नतीजा सामने है . अपने भावी राजनीतिक कार्यक्रम के बारे में उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश में १८ मंडल हैं . वे संसद का सत्र खत्म होते ही हर मंडल में पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक बुलायेगें और उनसे व्यक्तिगत संपर्क करेगें . स्वर्गीय जनेश्वर मिश्र ने उनको आगाह किया था कि अब हर कस्बे में जाने की ज़रूरत नहीं है . उनकी सलाह थी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उनको वहीं जाना चाहिए जहां समाजवादी पार्टी की राज्य इकाई वाले जाने को कहें . इसलिए वे हर मंडल में बैठकें करने के बाद राज्य पार्टी के सुझाव पर ही काम करेगें . जब उनको याद दिलाया गया कि उनकी पार्टी की सरकार को आये एक साल हो गया है लेकिन सरकार ने कोई ऐसा कारनामा नहीं किया है जिसको उदाहरण के रूप में पेश किया जा सके. उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है . राज्य सरकार ने अपने चुनाव घोषणापत्र में लिखी गयी हर बात को पूरा करने की योजना पर पहले दिन से काम करना शुरू कर दिया था. आज ही अखबारों में छपे हुए लैपटाप वितरण की तस्वीरों के हवाले से उन्होने बताया कि अभी सरकार के एक साल पूरे नहीं हुए हैं लेकिन सरकार ने इतने बड़े प्रोजेक्ट में सफलता हासिल कर ली है . देश की सबसे अच्छी कम्यूटर कंपनी से लैपटाप खरीद जा रहा है लेकिन थोक में खरीदे जाने के कारण उनका दाम आधा करवा लिया गया  है . बेरोजगारी भत्ता फिर से शुरू कर दिया गया है . हाई स्कूल के बाद से ही  मुस्लिम लड़कियों को आर्थिक सहायता दी जा रही है जबकि बाकी लड़कियों को इंटरमीडियेट के बाद  . उन्होंने कहा कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में लिखा है कि मुसलमानों  की हालत अनुसूचित जातियों से भी खराब है इसलिए उनकी  पार्टी की सरकार मुसलमानों के प्रति खास जिम्मेदारी का अनुभव करती है .उन्होंने  बताया कि राज्य में सरकारी ट्यूबवेल और नहरों का पानी किसानो को मुफ्त दिया जा रहा  है.राज्य सरकार ने आदेश कर दिया है कि किसी भी किसान की ज़मीन नीलाम नहीं की जायेगी . होता यह रहा है कि भूमि विकास बैंक से क़र्ज़ लेने वाले किसान जब भुगतान नहीं कर पाते  थे तो उनकी ज़मीन नीलाम कर दी जाती थी . अब सरकारी आदेश है कि नीलामी नहीं होगी. उसके ऊपर से ५० हज़ार रूपये तक के किसानों के क़र्ज़ माफ कर दिए गए हैं .उन्होंने बताया कि कैंसर , दिमाग और हार्ट की गरीब आदमियों की बीमारियों का  इलाज़ राज्य सरकार करवा रही है .उन्होंने  राज्य स्तर के अपने पार्टी के नेताओं खासी नाराजगी जताई और कहा कि जो विधायक बन गए हैं वे अब अपने क्षेत्रों में नहीं जा रहे हैं .जो लोग मंत्री बन गए हैं .वे भी तो विधायक ही  हैं लेकिन सब लोग लखनऊ में जमे रहते हैं और जनता से संपर्क नहीं रख रहे हैं . इस कारण से पार्टी का बहुत नुक्सान हो रहा है .  पार्टी के विधायकों को अपने क्षेत्र में ज़्यादा सक्रिय रहना चाहिए . वे इस बात से भी बहुत नाराज़ हैं कि पार्टी के कुछ नेता दिल्ली के चक्कर काटते रहते हैं . उन्होने उन संसद सदस्यों के प्रति भी नाराजगी जताई जो कार्यकर्ताओं को दिल्ली बुला लेते हैं और उनको संसद के अंदर आने  का पास बनवा देते हैं . नतीजा यह होता है कि वे लोग संसद भवन के मुलायम सिंह यादव के कार्यालय के  बाहर आकर खड़े हो जाते हैं . यह ठीक नहीं है. वे चाहते हैं  कि पार्टी के कार्यकर्ता उन्हें लखनऊ में ही मिलें .कानून व्यवस्था के बारे में बात करने पर उन्होने कहा कि  उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था  की हालत दिल्ली से ठीक है . उत्तर प्रदेश की आबादी दिल्ली से दस गुना ज्यादा है जबकि अपराध दिल्ली में उत्तर प्रदेश से दस गुना ज़्यादा है . प्रतापगढ़ के  पुलिस अफसर  हत्याकांड के बारे में कोई बात करने से उन्होने यह कहकर इनकार कर दिया कि मामले की सी बी आई जाँच हो रही है ,उनका कुछ भी कहना ठीक नहीं है .लेकिन पूरी बातचीत में मुलायम सिंह यादव इस बात से तो आश्वस्त दिखे कि उनकी पार्टी अच्छा काम कर रही  है लेकिन उनको अपनी पार्टी के नेताओं में अनुशासन लाना बहुत ज़रूरी है .अब यह देखना दिलचस्प होगा कि  मुलायम सिंह यादव की यह इच्छा कितनी पूरी होती है क्योंकि राज्य में सत्ता के जितने केंद्र बन गए हैं उनके बीच सुशासन की उम्मीद करना बहुत ही बड़ी बात है ,बहुत ही मुश्किल बात है .
नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की बात को समाजवादी पार्टी एक प्रहसन से ज्यादा कुछ नहीं मानती लेकिन उन्होने साफ़ कहा मोदी  के बारे में चर्चा करना ठीक नहीं होगा  क्योंकि उनके विरोध में भी बोलने पर उनका प्रचार होगा जो ठीक नहीं है .कुल मिलाकर   की  में  तो समाजवादी पार्टी भारी पड़  रही है लेकिन बीजेपी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के  भी इस इंतज़ार में  हैं की समाजवादी पार्टी वाले कोई गलती करें और वे उनको  पीछे धकेलने में कामयाब हों .

Monday, December 27, 2010

कर्नाटक में पंचायतों के चुनाव दादाओं के शक्तिपरीक्षण के मंच नहीं हैं

शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में पंचायत चुनाव चल रहे हैं . दो दौर में पूरे राज्य में चुनाव होने हैं .पहले दौर का चुनाव् 26 दिसंबर को पूरा हो गया . अनुमान है कि करीब 70 प्रतिशत वोट पड़े हैं . अगला दौर 31 दिसंबर के लिए तय है . बंगलोर ,चित्रदुर्ग, रामनगरम, कोलार,चिकबल्लापुर शिमोगा,टुन्कूर,बीदर,बेल्लारी,रायचूर और यादगिर जिलो में चुनाव का काम पूरा हो गया है . छिटपुट हिंसा की खबरें हैं. कुछ जिलों में दो चार जगहों पर फिर से वोट डाले जायेगें ,चिकबल्लापुर के सोरब तालुका के दो गावों में लोगों ने चुनाव का बहिष्कार किया और कहा कि विकास के काम में उनके इलाके की उपेक्षा की गयी है ,इसलिए वे लोग वोट नहीं देगें, और चुनाव का बहिष्कार करेगें. कर्नाटक में पंचायत चुनाव देखना एक अलग तरह का अनुभव है . उत्तर प्रदेश में जिस दादागीरी के दर्शन होते हैं , वह इस राज्य में कहीं नहीं नज़र आता .बंगलोर के पड़ोसी जिले,रामनगरम के मगडी तालुक के कुछ गाँवों में चुनाव प्रक्रिया को करीब से देखने का मौका मिला. उत्तर प्रदेश या अन्य उत्तरी राज्यों में चुनाव की रिपोर्टिंग करने वाले इंसान के लिए यह बिलकुल नया अनुभव था . जब बंगलोर शहर से निकल कर ग्रामीण इलाकों में जाने का मन बनाया तो लोगों से पूछा कि कार में जाने के लिए सरकारी परमिशन लेने का क्या तरीका है . किसी की समझ में ही नहीं आया कि परमिशन का क्या मतलब है . लोगों ने बताया कि आप जाइए और जहां भी मन कहे कार पार्क कीजिये और चुनाव का फर्स्ट हैण्ड अनुभव लीजिये .तुरंत समझ में आ गया कि कर्नाटक में पंचायत चुनाव की रंगत अपने यू पी से बिलकुल अलग है . देहाती इलाकों में कार ले जाने के लिए किसी तरह की परमीशन के निजाम का न होना अपने आप में एक बड़ा संकेत करता है . समझ में आ गया कि यहाँ अभी बूथ कैप्चरिंग की कला का विकास नहीं हुआ है . बंगलोर शहर से करीब 60 किलोमीटर दूर रामनगरम जिले के कुछ बूथों पर जाकर देखने से पता चला कि यहाँ चुनाव बूथ पर किसी तरह की बदमाशी नहीं होती. इस मौके पर भी अपना उत्तर प्रदेश याद आया. गाँवों में जाकर देखा तो पता चला कि ज़्यादातर लोग वोट डालने गए हुए हैं . घर पर बहुत कम लोग हैं . अधिकारियों से बात की तो पता चला कि चुनाव के दौरान वाहनों पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं होता . सत्तर के दशक तक तो अपने राज्यों में भी यही होता था. लेकिन अब वहां सब कुछ बदल गया है . इसका मतलब यह नहीं है कि चुनाव को यहाँ की जनता कम गंभीरता से लेती है . बंगलोर और रामनगरम के जिन इलाकों में जाने का मौक़ा लगा वहां चुनाव में कांटे का मुकाबला है .बीजेपी के मुकाबले ,जनता दल एस और कांग्रेस पार्टी की ताक़त है . कई गाँवों में साफ़ नज़र आया कि जाति या धर्म का प्रभाव यहाँ उतना नहीं है जितना कि उत्तर भारत के राज्यों में साफ़ नज़र आता है . हाँ मतदाता को घूस देने की परम्परा वही उत्तर भारत वाली है . सरजापुर के डी मुनियालप्पा ने आरोप लगाया कि पुलिस के लोग इस तरह से काम कर रहे हैं कि लगता है कि वे सत्ताधारी पार्टी के एजेंट हैं .दलित नेता , अदूर प्रकाश ने बताय कि मतदान के पहले वाली रात को कांग्रेस और बीजेपी वालों ने गाँवों में जाकर मतदाताओं को घूस देने की कोशिश की ,उन्हें रूपये, शराब और गोश्त देकर वोट खरीदने की कोशिश की .इसका मतलब यह हुआ कि जनता जागरूक है और कर्नाटक में पंचायत चुनावों में अभी उत्तर भारतीय सामंती सोच के हावी होने का उतना ख़तरा नहीं . इसका कारण शायद यह है कि इन क्षेत्रों में शिक्षा का विकास ग्रामीण अंचल में बहुत पहले से है. मैसूर के इलाके में शुक्रवार को चुनाव होने हैं और वहां के प्रचार पर नज़र डालने से पता चलता है कि यहाँ पंचायत चुनावों में भी बाकायदा मुद्दों पर चर्चा हो रही है . मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा खुद बीजेपी के चुनाव अभियान की अगुवाई कर रहे हैं . 23 दिसंबर को मुंबई से बंगलोर जाने वाली उद्यान एक्सप्रेस में उनसे मुलाक़ात हो गयी. शायद यादगीर जिले में प्रचार कर के लौट रहे थे. ट्रेन में किसी मुख्यमंत्री को यात्रा करते देखे मुझे 36 साल से ज्यादा हो गए थे . थोडा अजीब लगा लेकिन जब बात हुई तो दिल्ली में उनको लेकर चल रही राजनीति को उन्होंने चर्चा की ज़द में आने के पहले ही टाल दिया जबकि पंचायत चुनावों की बारीकियों पर बात चीत करने को उत्सुक दिखे. कांग्रेस और जनता दल एस की तरफ से भी बड़े नेता चुनाव प्रचार कर रहे हैं और राज्य को प्रभावी नेतृत्व दे पाने में नाकाम रहने के कारण बीजेपी को हराने की अपील कर रहे हैं . कुल मिलाकर कर्नाटक का पंचायत चुनाव लोकतंत्र की जीवन्तता का नमूना है , अपने उत्तर प्रदेश की तरह मुकामी दादाओं की शक्ति परीक्षण का मंच नहीं है .

Thursday, October 14, 2010

कर्नाटक में खेल अभी ख़त्म नहीं हुआ है

शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में बी जे पी का संकट अभी ख़त्म नहीं हुआ है .ऐसा लगता है कि पार्टी के बागी विधायकों ने मुख्यमंत्री को हटाने के लिए लंबा दांव खेल दिया है .पता चला है कि जिन बारह विधायकों ने पहले बगावत का नारा बुलंद किया था , वे बागी विधायकों की पहली किस्त थे.निर्दलीय विधायक शिवराज तंगदागी ने दावा किया है कि इस बार उनके लोग बिना हल्ला गुल्ला किये विधान सभा के अन्दर ही खेल कर जायेगें . यह भी संभव है कि विधान सभा में शक्ति परीक्षण के ऐन पहले बारह विधायक और बगावत का नारा लगा दें . नामी अखबार डेकन हेराल्ड को शिवराज ने बताया कि हालांकि बी जे पी की ओर से सन्देश आ रहे हैं कि अगर बागी विधायक साथ आने को तैयार हो जाएँ तो उनकी सदस्यता को बहाल किया जा सकता है लेकिन सारे लोग एकजुट हैं और उनकी कोशिश है कि बी जे पी विधायकों की कुल संख्या के एक तिहाई से ज्यादा लोग पार्टी से अलग होकर अपने आपको ही असली बी जे पी घोषित कर देगें . इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा रहा है कि बी जे पी से अलग होने वाले विधायक राज्य में एक गैर कांग्रेस सरकार बनाने में मदद करेगें और एच डी कुमारस्वामी की अगुवाई में एक गैर-कांग्रेस ,गैर-बीजेपी सरकार बन जायेगी. उन्होंने कहा कि बी जे पी के राष्ट्रीय नेतृत्व और राज्य के नेताओं को अंदाज़ ही नहीं है कि ज़मीनी सच्चाई क्या है . वे लोग यह मान कर चल रहे हैं कांग्रेस के तिकड़म की वजह से येदुरप्पा के एसर्कार की विदाई हो रही है . जबकि हकीकत यह है कि राज्य की जनता बी जे पी की मुआजूदा सरकार के भ्रष्टाचार के कारनामों से ऊब चुकी है और वह इसको हटाकर कोई भी सरकार बनवाने की सोच रही है. विधायकों की बगावत का असली कारण यह है कि वे अब अपनी पार्टी की सरकार के पक्ष में कुछ भी नहीं बोल पा रहे हैं . कांग्रेस का दुर्भाग्य है है कि कर्नाटक में जिस आदमी को राज्यपाल बनाकर भेजा गया है ,वह दिल्ली दरबार के वफादारों की सूची में सबसे ऊपर रहना चाहता है . उसकी कारस्तानी की वजह से ही ऐसा लगने लगा था कि उठा पटक के खेल में कांग्रेस का हाथ है लेकिन अब साफ़ हो गया है कि कांग्रेस ऐसे किसी खेल में शामिल नहीं रहना चाहती क्योंकि एच डी देवेगौडा के बेटे ,एच डी कुमारस्वामी के साथ कांग्रेस का पुराना तजुर्बा बहुत की रद्दी रहा है लिहाजा कांग्रेस ने साफ़ कर दिया है वह कर्नाटक की सत्ता में आने के लिए अभी इंतज़ार करेगी. यह अलग बात है कि कांग्रेस कर्नाटक में बी जे पी को उसकी औकात बताने के लिए किसी का भी इस्तेमाल करने को तैयार है .और फिलहाल एच डी कुमारस्वामी और बी जे पी के बागी विधायक कांग्रेस की मनोकामना पूरी कर रहे हैं .

अब इस बात में किसी को शक़ नहीं है कि कर्नाटक की मौजूदा सरकार पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुकी है . राज्यपाल ने ऐलानियाँ बताया है कि यह लोग अपराध से पैसा वसूल रहे हैं , खनिज सम्पदा को गैर कानूनी तरीके से लूट रहे हैं , ज़मीनों के धंधे में हेरा फेरी कर रहे हैं और जनता को उसकी किस्मत के सहारे छोड़ दिया गया है . यह सारे सवाल जायज़ हैं और येदुरप्पा को इसका जवाब देना होगा क्योंकि सवाल उठाये हे यूस आदमी ने हैं जिसकी सरकार में येदुरप्पा मुख्य मंत्री के रूप में काम कर रहे हैं . जवाब तो येदुरप्पा के दिल्ली के आकाओं को भी देना होगा क्योंकि दुनिया जानती है कि येदुरप्पा और उनके साथियों की लूट में दिल्ली के बड़े बी जे पी नेता हिस्सा पाते हैं . लेकिन उन लोगों ने दूसरा रास्ता अपनाने का फैसला किया है . बी जे पी के हर बड़े नेता की कोशिश है कि राज्यपाल को ही हटवा दिया जाय क्योंकि वह बड़े पैमाने पर पोल खोलने की कोशिश कर रहा है . राज्यपाल ने अपनी प्रेस कान्फरेन्स में साफ़ कहा कि आधे से ज्यादा बी जे पी मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं . अगर इन मामलों की सही जांच हो जाय तो कर्नाटक के बी जे पी नेता तो फंसेगे ही , दिल्ली के वे नेता भी फंस सकते हैं जिनके यहाँ कर्नाटक के नेताओं ने माल पंहुचाया है . कुल मिलाकर हालात बहुत खराब हैं . लेकिन देश और जनता का दुर्भाग्य यह है कि कहीं भी कोई आवाज़ नेताओं की लूट के खिलाफ नहीं उठती. चारों तरफ लूट का आलम है . यह कहना ठीक नहीं होगा कि बी जे पी वाले ही लूट में शामिल हैं . सच्ची बात यह है कि कांग्रेस ने ही इस देश में लूट की राजनीतिक संस्कृति का आविष्कार किया और उसको बाकायदा चला रही है . इसलिए कर्नाटक में बी जे पी की लूट के हवाले से कांग्रेस को धर्मात्मा मानने की गलती नहीं की जानी चाहिए . इन दोनों पार्टियों से ऊब कर जनता ने जिन क्षेत्रीय पार्टियों को सता थमाई वे भी लूट के मामले में बड़ी पार्टियों से पीछे नहीं हैं . तमिल नाडू , आंध्र प्रदेश , उत्तर प्रदेश , बिहार, आदि राज्यों में दलितों और पिछड़ों की सरकारें आयीं लेकिन राजनीतिक घूसखोरी में कोई कमी नहीं आई . इसलिए आज की हालत में जनता के उठ खड़े होने के अलावा देश की इज्ज़त बचाने का कोई रास्ता नहीं है लेकिन वहां भी गड़बड़ है . सूचना के सारे तन्त्र पर आर एस एस का क़ब्ज़ा है और सही बात जनता तक वे कभी नहीं पंहुचने देगें. ज़ाहिर है कि स्थिति बहुत ही चिंताजनक है और उम्मीद के सिवा आम आदमी के पास कुछ नहीं बचा है .

Tuesday, October 12, 2010

गद्दी के वास्ते कुछ भी करेगा

शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ हुआ है . जिस तरह से विधायकों ने मारपीट की , ध्वनिमत से विश्वास मत पारित हुआ, जिस तरह से अध्यक्ष के पद की गरिमा को नीचा दिखाया गया , सब कुछ अक्षम्य और अमान्य है . हालांकि राज्यपाल की ख्याति ऐसी है कि वह कांग्रेसी खेल का हिस्सा माना जाता है और वह पूरे जीवन तिकड़म की राजनीति करता रहा है लेकिन उसकी ख्याति का बहाना लेकर किसी पार्टी को लोकतंत्र के खिलाफ काम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती. इस सारे काण्ड में बी जे पी के आला हाकिम नितिन गडकरी फिर घेर लिए गए हैं और दिल्ली में उनके दुश्मन , डी-4 वाले कह रहे हैं कि पार्टी अध्यक्ष ने गलती की . उन्हें मंत्रिमंडल में बी एस येदुरप्पा को अपना प्रभाव बढाने के लिए अपने विरोधियों के खिलाफ एक्शन लेने की अनुमति नहीं देनी चाहिये थी. यह अलग बात है कि डी -4 भी अब उतना मज़बूत नहीं है लेकिन मीडिया में अच्छे संबंधों के बल पर गडकरी का मखौल उड़ाने की उसकी ताक़त तो है ही. बी जे पी की गलतियों पर कांग्रेसी नेता मज़ा ले रहे हैं लेकिन कांग्रेस को भी यह समझ लेना चाहिए कि वे भी घटिया राजनीति के मामले में बी जे पी से कम नहीं हैं. वास्तव में दल-बदल की राजनीति को उसके सबसे निचले मुकाम तक पंहुचाने में कांग्रेस का ही सबसे ज्यादा हाथ है . पी वी नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के चक्कर में जो सौदेबाज़ी झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और अजित सिंह से हुई थी , उसके चक्कर में लोकशाही की राजनीति को शर्मसार होना पड़ा था. कर्नाटक में ही कांग्रेस ने बार बार लोकतंत्र को रसातल में ले जाने का काम किया है ,इसलिए कांग्रेस के नेताओं के बयानों के आधार पर लोकशाही की पक्षधरता के बात नहीं की जानी चाहिये . बी जे पी वाले जिस फासिस्ट राजनीति को चलाने के लिए विचारधारा के स्तर पर प्रतिबद्ध हैं , कांग्रेस की पूर्व नेता, स्व इंदिरा गांधी ने उसी राजनीति को अपने प्रिय पुत्र संजय गाँधी के साथ मिलकर परवान चढाया था और देश ने इमरजेंसी के नरक को भोगा था . आज भी कांग्रेस में वंशवाद जिस गहराई के साथ जमा हुआ है ,वह फासिस्ट राजनीति का ही उदाहरण है . इसलिए कांग्रेस को बहुत बढ़ बढ़ कर बात करने की ज़रुरत नहीं है .. लेकिन विधानसभा में जो कुछ भी हुआ उसके लिए उसमें शामिल नेताओं की निंदा की जानी चाहिए . एक बार सत्ता में आ जाने के बाद इन नेताओं को लगने लगता है कि उन्हें सत्ता में बने रहने का निर्द्वंद अधिकार मिल गया है . और यही लोकतंत्र का सबसे बड़ा नुकसान है. कर्नाटक की सत्ता पर काबिज़ बी जे पी और उसके मुख्यमंत्री अपने को सत्ता का स्थायी दावेदार समाझने लगे हैं . इसीलिए शायद उन लोगों ने मनमानी का आचरण शुरू कर दिया . जिसकी वजह से उनकी अपनी पार्टी में भी मतभेद हो गए. बहरहाल यह हमारा विषय नहीं है कि किसी राजनीतिक पार्टी में आपसी गणित क्या है लेकिन जब उस गणित के चलते लोकशाही की संस्थाएं प्रभावित होती हैं तो चिंता होती है . इस बार लोक शाही को शर्मसार करने वालों में सबसे ज्यादा बी जे पी का हाथ है . उसने अध्यक्ष की मर्यादा का पार्टी हित में इस्तेमाल किया. वरना अध्यक्ष की तरफ से निर्दलीय विधायकों को दल बदल कानून के तहत अयोग्य घोषित करने का अधिकार कहाँ से आ गया था . अब सबके सामने यह सच्चाई आ चुकी है बी जे पी के टिकट पर चुन कर आये अध्यक्ष ने अपनी पार्टी की सरकार को बचाने के लिए वह काम किया जो उन्हें नहीं करना चाहिए था. दल बदल कानून के पैराग्राफ 2 में लिखा है कि अगर कोई सदस्य अपनी मर्ज़ी से पार्टी छोड़ दे या पार्टी के निर्देश के खिलाफ सदन में किसी प्रस्ताव पर वोट दे या पार्टी के निर्देश का पालन न करे ,तो उसे सदस्यता से हटाया जा सकता है . सवाल यह उठता है कि जब ऐसी कोई नौबत आई ही नहीं तो माननीय अध्यक्ष जी ने किस आधार पर बी जे पी के बागी सदस्यों की सदस्यता रद्द कर दी. हालांकि यह बात तो विचार के दायरे में आ सकती है लेकिन निर्दलीय विधायकों की सदस्यता रद्द कर देने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे तो किसी पार्टी के सदस्य ही नहीं है .यानी साफ़ हो जाता है कि कर्नाटक में बी जे पी ने " गद्दी के वास्ते कुछ भी करेगा " की मानसिकता के वशीभूत होकर काम किया है .लोक तंत्र में इस तरह के आचरण के लिए जगह नहीं है . बी जे पी के प्रवक्ता गण कहते फिर रहे हैं कि कांग्रेस ने राज्यपाल के पद और गरिमा का दुरुपयोग किया है. यह बात सच लगती है लेकिन इसकी वजह से बी जे पी को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह सत्ता से चिपके रहने के लिए विधान सभा में लोकशाही की बुनियादी अवधारणा का मखौल उडाये. वरना बिना किसी मत विभाजन के अध्यक्ष जी बी एस येदुरप्पा की सरकार को विजयी न घोषित कर देते. ध्वनि मत से विश्वास प्रस्ताव पास करवाने के मामले में बी जे पी वाले कह रहे हैं कि गोवा में भी तो ऐसा ही हुआ था. सवाल यह है कि अगर एक जगह गलत काम हो रहा है तो उसके हवाले से अपनी गलती को को छुपाने की कोशिश करना भी गलती है .इस में भी दो राय नहीं है कि राज्यपाल ने अपने पद का दुरुपयोग किया लेकिन उसको ठीक करने के अलग मंच उपलब्ध हैं , विधान सभा में मारपीट करना और अध्यक्ष के पद का राजनीतिक पक्ष पाट के लिए इस्तेमाल करना अक्षम्य है

Wednesday, July 14, 2010

मीडिया को राजनीतिक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा निगहबान बनना पडेगा

शेष नारायण सिंह

( bhadas4 media पर मूल लेख छप चुका है )
कर्नाटक में खनिज सम्पदा की लूट जारी है. यह लूट कई वर्षों से चल रही है . इस बार मामला थोडा अलग है . राष्ट्रीय संपत्ति के लूटने वाले कर्नाटक सरकार में मंत्री हैं. ऐसे दो मंत्री हैं और दोनों सगे भाई हैं .दोनों ही बी जे पी के ख़ास आदमी हैं. इन्हें बेल्लारी रेड्डी कहा जाता है . इन रेड्डी बंधुओं का लूट का कारोबार आन्ध्र प्रदेश में भी है . यह लोग ,खनिज सम्पदा, खासकर आयरन ओर की गैरकानूनी खुदाई का काम करते हैं . बी जे पी के ख़ास बन्दे होने के बावजूद यह लोग आन्ध्र प्रदेश में भी वही काम कर रहे हैं जो कर्नाटक में करते हैं ..लेकिन आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार इनको पूरा सहयोग कर रही है . बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं के मामले में कांग्रेस और बी जे पी का भेद ख़त्म हो जाता है. कर्नाटक के राज्यपाल ,हंसराज भारद्वाज ने नयी दिल्ली में एक सार्वजनिक बयान दे दिया कि करीब साठ हज़ार करोड़ रूपये के सार्वजनिक धन की हेराफेरी वाले इस मामले में उनकी सरकार कर दो मंत्री शामिल हैं , और मुख्यमंत्री को चाहिए कि उन मंत्रियों को हटा दें. हंसराज भारद्वाज दिल्ली दरबार के पुराने खिलाड़ी हैं . जुगाड़ तंत्र के आचार्य हैं और जिस काम के लिए वे कर्नाटक सरकार को राजनीतिक रूप से घेर रहे हैं , वैसे सैकड़ों मामलों में वे अपनी पार्टी के लोगों की मदद कर चुके हैं . उनके इसी रिकार्ड को सामने रख कर बी जे पी वाले यह साबित करना चाहते हैं कि हंसराज भारद्वाज की नीयत साफ़ नहीं है और उनकी किसी बात को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए . बी जे पी के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने कह दिया कि राज्यपाल की मर्यादा को सम्मान न देकर भारद्वाज ने गलती की है , जबकि कांगेसी कह रहे हैं कि बी जे पी वाले राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद की गरिमा नहीं निभा रहे हैं . दोनों ही पार्टियां इस बात पर कोई ध्यान नहीं दे रही हैं कि राष्ट्रीय सम्पदा की खुले आम लूट हो रही है और उसकी रक्षा की जानी चाहिए . इसके विपरीत दोनों की पार्टियां वे इस बात पर जुटी हैं कि राजनीतिक नेताओं के आचरण को बहस का मुद्दा बना कर घूस, लूट और भ्रष्टाचार के गंभीर मुद्दों से जनता का ध्यान हटाया जाए . यानी लूट से उन दोनों राजनीतिक दलों को कोई एतराज़ नहीं है . ऐसा भी नहीं है कि ऐसा पहली बार हो रहा है कि राजनीतिक बेईमानी का कोई बड़ा मसला सार्वजनिक बहस के दायरे में आया हो और देश की राजनीतिक पार्टियां उस केस से नेताओं को बचाने में न जुट गयी हों . बेल्लारी रेड्डी बंधुओं की लूट का ऐसा ही मामला है . दोनों ही दल मुख्य मुद्दे से बहस को हटाने के काम में लग गए हैं .ऐसी स्थिति में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या मीडिया इस मामले में राजनेताओं को उनका एजेंडा चलाने की अनुमति देगा कि नहीं. कोई मुगालता नहीं होना चाहिए , इस मामले में भी नेताओं का एजेंडा वही है जो हर बार होता है और वह यह कि नेता किसी भी पार्टी का हो उसके ऊपर आंच नहीं आनी चाहिए . इनको यह समझाने की ज़रुरत है कि हो सकता है कि राज्यपाल ने अपने पद की गरिमा न निभाई हो लेकिन जो लूट का मामला सामने आया है ,उस से क्यों भाग रहे हैं आप ?.इनसे यह पूछे जाने की ज़रुरत है कि हो सकता है कि क्या इस सारी जानकारी के बाद आप लोग एक दूसरे को गाली देते रहेगें और मूल मुद्दे से जनता और देश का ध्यान हटा देगें .

इस मुहिम में मीडिया की भूमिका अहम हो सकती है . इस दिशा में मंगलवार को हुई बहस में टाइम्स नाउ नाम के अंग्रेज़ी चैनल की पहल ज़ोरदार थी. ९ बजे रात की ख़बरों के एंकर , अरनब गोस्वामी ने बी जे पी और कांग्रेस के प्रतिनिधि को मुद्दे से नाथ कर रखने की पूरी कोशिश की . यह अलग बात है कि दोनों पार्टियों के वे प्रवक्ता बहस में शामिल थे जो इस बात के लिए प्रसिद्ध हैं कि वे चिल्ला चिला कर अपनी बात कहते रहते हैं , कोई सुने या न सुने. वे कहते रहे कि बी जे पी वाले राज्यपाल के पद का अपमान कर रहे हैं जबकि दूसरे चिल्लाहट मास्टर कह रहे थे हंसराज भारद्वाज जोड़ तोड़ की अपनी कांग्रेसी राजनीति को भूले नहीं है और वही कर रहे हैं . अरनब गोस्वामी ने उनके एजेंडे को नहीं चलने दिया और डाइरेक्ट सवाल पूछे कि सार्वजनिक सम्पदा की इस तरह की लूट को कैसे सही ठहराया जा सकता है. मीडिया का यह सक्रिय रुख अच्छा लगा . अगर बाकी समाचार संगठन भी इसी तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ सोंटा ले कर पिल पड़ेगें तो देश का बहुत उद्धार होगा . इन नेताओं की क्षमता को कम करके भी नहीं आंकना चाहिये . करीब २० साल पहले राजनीतिक भ्रष्टाचार का एक बहुत बड़ा मामला पकड़ा गया था . जैन हवाला काण्ड के नाम से कुख्यात वह मामला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा हुआ था . जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के शहाबुद्दीन गोरी ने देश के नेताओं को किसी जैन की मार्फ़त पैसे दिए थे. जिन लोगों के नाम आये थे वह हैरतअंगेज़ था. उसमें कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता नहीं था लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी , बी जे पी के लाल कृष्ण आडवाणी, शरद यादव, आरिफ मुहम्मद खां, सतीश शर्मा आदि बड़े बड़े नाम थे . स्वर्गीय मधु लिमये ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में केस तक कर दिया था लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ क्योंकि सभी पार्टियों के नेता एक हो गए और सरकार चाहे जिसकी बनी सब लोग इकठ्ठा हो कर मामले को रफा दफा करवाने में सफल हो गए. इस बार भी वही हो सकता है . टाइम्स नाउ ने पहल तो कर दी है लेकिन वह एक कॉर्पोरेट चैनल है ,उसे राजनीतिक ताक़त से समझौता करना पड सकता है . बाकी मीडिया संगठन अगर चौकन्ना रहे तो धीरे धीरे अपने मुल्क में भी वह परंपरा शुरू हो सकती है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा निगहबान मीडिया ही रहे

Thursday, November 12, 2009

भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ जनता का लामबंद होना ज़रूरी

शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में सत्ता का संघर्ष चल रहा है. हो सकता है कि आज सब कुछ ठीक ठाक हो जाए.मुख्य मंत्री बने रहें और उनके विरोधी भी खुश हो जाएँ. एक सत्ता का संघर्ष पिछले १५ दिनों से महाराष्ट्र में चल रहा था , वहां भी सब कुछ निपट गया . अब सब शान्ति शान्ति है. हरियाणा में भी सत्ताधारी पार्टी के खातेमें बहुमत से कुछ कम सीटें आ गयी थीं तो वहां भी सत्ता में कुछ चिंता के बादल घिर आये थे ,वहां भी सब कुछ संभाल लिया गया. सभी निर्दलियों को मंत्री बना दिया गया. सब अमन चैन है. उत्तर परदेश में सत्ता की शीर्ष पर बैठी दलित अस्मिता की पहचान बन चुकी नेता भी कुछ कष्ट में चल रही हैं . उनके दुश्मनों ने कहीं से ढूंढ निकाला है कि उनके पास जो धन दौलत है , वह उनके घोषित आमदनी के साधनों से बहुत ज्यादा है.. झारखण्ड के एक पूर्व मुख्यमंत्री आजकल बीमार हैं जहां से वे सीधे जेल जायेंगें क्योंकि सत्ता में बिताये गए कीब २ वर्षों में उन्होंने इतनी दौलत इकठ्ठा कर ली कि उनके दुश्मनों को गुस्सा आ गया और उनकी सारी पोल खुल गयी. उनके साथ उनके गिरोह के कुछ और लोग भी पकडे जा सकते हैं . झारखण्ड वाले बाबूजी का खेल तो कुछ इतना दिलचस्प है कि उनकी संपत्ति की हनक पूरी दुनिया में महसूस की जा रही है. अबू धाबी के एम के माल से लाकर लाइबेरिया और थाईलैंड तक उनके रूपयों की खनक महसूस की जा रही है . लेकिन उनकी दौलत की कृपा से मुंबई में भी एक घर में उदासी छा गयी है. झारखण्ड के एक मधु कोडा मार्गी मंत्री के मुंबई वाले रिश्तेदार मंत्री बनते बनते रह गए क्योंकि दुश्मनों ने जनपथ में विराजमान सत्ता की अधिष्ठात्री को बता दिया था कि झारखण्ड से निकला रूपया मुंबई में भी काम कर रहा है. पश्चिम बंगाल में भी सत्ता का एक खतरनाक खेल खेला जा रहा है . वहां तो पिछले ३३ साल से गद्दी पर विराजमान वामपंथियों को खदेड़ने के लिए आतंकवादियों तक की मदद ली जा रही है ..

मुराद यह है सत्ता के खेल में हर जगह उठा पटक मची है . यहाँ गौर करने की बात यह है कि इस खेल में हर पार्टी के बन्दे शामिल हैं और सत्ता हासिल करने के लिए कुछ भी करने पर आमादा हैं. सत्ता के प्रति इस दीवानगी की उम्मीद संविधान निर्माताओं को नहीं थी वरना शायद इसका भी कुछ इंतज़ाम कर दिया गया होता. आज़ादी के बाद जब सरदार पटेल अपने गाव गए ,तो कुछ महीनों तक वहीं रह कर आराम करना चाहते थे लेकिन नहीं रह सके क्योंकि जवाहरलाल नेहरु को मालूम था कि देश की एकता का काम सरदार के बिना पूरा नहीं हो सकता. इस तरह के बहुत सारे नेता थे जो सत्ता के निकट भी नहीं जाना चाहते थे. १९५२ के चुनाव में ऐसे बहुत सारे मामले हैं जहां कांग्रेस ने लोगों को टिकट दे दिया और वे लोग भाग खड़े हुए , कहीं रिश्तेदारी में जा कर छुप गए और टिकट किसी और को देना पड़ा लेकिन वह सब अब सपना है . अब वैसा नहीं होता . ६० के दशक तक चुनाव लड़ने के लिए टिकट मांगना अपमान समझा जाता था . पार्टी जिसको ठीक समझती थी , टिकट दे देती थी . ७० के दशक में उस वक़्त की प्रतिष्ठित पत्रिका दिनमान ने जब टिकट याचकों को टिकटार्थी नाम दिया तो बहुत सारे लोग इस संबोधन से अपमानित महसूस करते थे. लेकिन ८० के दशक तक तो टिकटार्थी सर्व स्वीकार्य विशेषण हो गया. लोग खुले आम टिकट माँगने लगे, जुगाड़बाजी का तंत्र शुरू हो गया. इन हालात को जनतंत्र के लिए बहुत ही खराब माना जाता था लेकिन अब हालात बहुत बिगड़ गए हैं . जुगाड़ करके टिकट माँगने वालों की तुलना आज के टिकट याचकों से की जाए तो लगेगा कि वे लोग तो महात्मा थे क्योंकि आजकल टिकट की कीमत लाखों रूपये होती है. दिल्ली के कई पडोसी राज्यों में तो एक पार्टी ने नियम ही बना रखा है कि करीब १० लाख जमा करने के बाद कोई भी व्यक्ति टिकट के लिए पार्टी के नेताओं के पास हाज़िर हो सकता है . उसके बाद इंटरव्यू होता है जिसके बाद टिकट दिया जाता है यानी टिकट की नीलामी होती है. ज़ाहिर है इन तरीकों से टिकट ले कर विधायक बने लोग लूट पाट करते हैं और अपना खर्च निकालते हैं . इसी खर्च निकालने के लिए सत्ता के इस संघर्ष में सभी पार्टियों के नेता तरह तरह के रूप में शामिल होते हैं .सरकारी पैसे को लूट कर अपने तिजोरियां भरते हैं और जनता मुंह ताकती रहती है . अजीब बात यह है कि दिल्ली में बैठे बड़े नेताओं को इन लोगों की चोरी बे-ईमानी की ख़बरों का पता नहीं लगता जबकि सारी दुनिया को मालूम रहता है.

इसी लूट की वजह से सत्ता का संघर्ष चलता रहता है .सत्ता के केंद्र में बैठा व्यक्ति हजारों करोड़ रूपये सरकारी खजाने से निकाल कर अपने कब्जे में करता रहता है. और जब बाकी मंत्रियों को वह ईमानदारी का पाठ पढाने लगता है तो लोग नाराज़ हो जाते हैं और मुख्यमंत्री को हटाने की बात करने लगते हैं . कर्णाटक की लड़ाई की यही तर्ज है.. झारखण्ड की कहानी में एक अनुभवहीन नेता का चरित्र उभर कर सामने आता है जिसने चोरी की कला में महारत नहीं हासिल की थी . जबकि महाराष्ट्र और हरियाणा में सत्ता के संघर्ष में सरकारी पैसा झटकने के गुणी लोगों की बारीक चालों का जो बांकपन देखने को मिला वह झारखण्ड जैसे राज्यों में बहुत समय बाद देखा जाएगा.
सवाल पैदा होता है कि यह नेता लोग जनता के पैसे को जब इतने खुले आम लूट रहे होते हैं तो क्या सोनिया गाँधी, लाल कृष्ण आडवाणी. प्रकाश करात, लालू यादव , मुलायम सिंह यादव , मायावती , करूणानिधि , चन्द्रबाबू नायडू , फारूक अब्दुल्ला जैसे नेताओं को पता नहीं लगता कि वे अपनी अपनी पार्टी के चोरों को समझा दें कि जनता का पैसा लूटने वालों को पार्टी से निकाल दिया जाएगा. लेकिन यह इस देश का दुर्भाग्य है कि इन सारे नेताओं को सब कुछ पता रहता है और यह लोग भ्रष्ट लोगों को सज़ा देने की बात तो खैर सोचते ही नहीं, उनको बचाने की पूरी कोशिश करते हैं . हाँ अगर बात खुल गयी और पब्लिक ओपीनियन के खराब होने का डर लगा तो उसे पद से हटा देते हैं . सजा देने की तो यह लोग सोचते ही नहीं, अपने लोगों को बचाने की ही कोशिश में जुट जाते हैं . यह अपने देश के लिए बहुत ही अशुभ संकेत हैं . जब राजनीतिक सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग भ्रष्टाचार को उत्साहित करने लगें तो देश के लिए बहुत ही बुरी बात है. लेकिन अगर भारत को एक रहना है तो इस प्रथा को ख़त्म करना होगा . हम जानते हैं कि यह बड़े नेता अपने लोगों को तभी हटाते हैं जब कि पब्लिक ओपीनियन इनके खिलाफ हो जाए. यानी अभी आशा की एक किरण बची हुई है और वह है बड़े नेताओं के बीच पब्लिक ओपीनियन का डर . इसलिए सभ्य समाज और देशप्रेमी लोगों की जमात का फ़र्ज़ है कि वह पब्लिक ओपीनियन को सच्चाई के साथ खड़े होने की तमीज सिखाएं और उसकी प्रेरणा दें. लेकिन पब्लिक ओपीनियन तो तब बनेगे जब राजनीति और राजनेताओं के आचरण के बारे में देश की जनता को जानकारी मिले. जानकारी के चलते ही १९२० के बाद महात्मा गाँधी ने ताक़तवर ब्रितानी साम्राज्यवाद को चुनौती दी और अंग्रेजों का बोरिया बिस्तर बंध गया. . एक कम्युनिकेटर के रूप में महात्मा गाँधी की यह बहुत बड़ी सफलता थी . आज कोई गाँधी नहीं है लेकिन देश के गली कूचों तक इन सत्ताधारी बे-ईमानों के कारनामों को पहुचाना ज़रूरी है . क्योंकि अगर हर आदमी चौकन्ना न हुआ तो देश और जनता का सारा पैसा यह नेता लूट ले जायेंगें .

इस माहौल में यह बहुत ज़रूरी है कि जनता तक सबकी खबर पहुचाने का काम मीडिया के लोग करें. यह वास्तव में मीडिया के लिए एक अवसर है कि वह अपने कर्त्तव्य का पालन करके देश को इन भ्रष्ट और बे-ईमान नेताओं के चंगुल से बचाए रखने में मदद करें. अब कोई महात्मा गाँधी तो पैदा होंगें नहीं, उनका जो सबसे बड़ा हथियार कम्युनिकेशन का था , उसी को इस्तेमाल करके देश में जवाबदेह लोकशाही की स्थापना की जा सकती है . गाँधी युग में भी कहा गया था कि जब 'तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो '. अखबार निकाले गए और ब्रितानी साम्राज्य की तोपें हमेशा के लिए शांत कर दी गयी. इस लिए मीडिया पर लाजिम है कि वह जन जागरण का काम पूरी शिद्दत से शुरू कर दे और जनता अपनी सत्ता को लूट रहे इन भ्रष्ट नेताओं-अफसरों से अपना देश बचाने के लिए आगे आये.