Showing posts with label लोकतंत्र. Show all posts
Showing posts with label लोकतंत्र. Show all posts

Monday, March 24, 2014

लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपराधियों को संसद और विधानमंडलों से बाहर रखना होगा


शेष नारायण सिंह
आजकल राजनीति में भले आदमियों के साथ साथ अपराधी भी बड़ी संख्या में देखे जाते हैं . लोकसभा और विधान सभाओं में इनकी संख्या खासी है. पहली बार १९८० में बड़ी संख्या में विधान सभा और लोक सभा के चुनावों में बड़ी संख्या में कांग्रेस के तत्कालीन युवराज संजय गांधी ने अपराधियों या आपराधिक चावी वाले दबंगों को टिकट बांटी थी. उसके बाद तो सभी पार्टियों में अपराधियों को टिकट देने का फैशन हो गया . एक से एक अपराधी और बाहुबली लोग लोकतंत्र के इन पवित्र केन्द्रों में पंहुचने लगे. दोनों बड़ी पार्टियों के अलावा क्षेत्रीय पार्टियों में भी बड़ी तादाद अपराधियों की है .सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश दिया की किसी भी विधान मंडल का चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों को अपनी आपराधिक छवि का रिकार्ड हलफनामे की शक्ल में जमा करना पडेगा . सुप्रीम कोर्ट को उम्मीद थी कि जब जनता को मालूम हो जाएगा कि आपराधिक छवि के लोग उम्मीदवार हैं तो वह उनको वोट नहीं देगी .अपने एक विद्वत्तापूर्ण लेख में विद्वान् राजनीतिक विश्लेषक सर्वमित्रा  सुरजन ने लिख दिया था कि  परंतु जब व्यवहार में इसे देखा गया तो आपराधिक छवि के अधिक से अधिक लोग जीत कर आ गए और इस तरह के हलफनामे का कोई असर नहीं पड़ा। मीडिया द्वारा बार-बार आग्रह किया जाता है कि विभिन्न पार्टियां आपराधिक छवि के लोगों को टिकट नहीं देंपरंतु व्यवहार में कोई भी पार्टी इसका पालन नही करती है। 'ट्रांसपेरंसी इन्टरनेशनलने अपनी रिपोर्ट में संसार के 174 देशों में भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधीकरण के मामले में भारत को स्थान 72वां प्रदान किया है।
स्वतंत्रता के बाद पिछले 60 वर्ष में अपने देश में लोकतंत्र मजबूत तो हुआ हैलेकिन राजनीति का अपराधीकरण भी बढ़ा हैजिससे चुनावों के साफ-सुथरे होने पर संदेह के बादल गहराने लगे हैं। दिनों-दिन यह मुद्दा लोकतंत्र के भविष्य के लिहाज से अहम होता जा रहा है। राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपराधी तत्वों की सहायता लेना तो अब बहुत छोटी बात हो गई है अब तो बाकायदा उनकों टिकट देकर उपकृत किया जा रहा है।  भारत का कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसमें किसी न किसी प्रकार के अपराधी न हो। 
लोकसभा और राय विधानसभाओं में यदि अपराधियों का रिकॉर्ड देखा जाए तो यह देखकर घोर आश्चर्य होता है कि अपराधियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया था कि यदि कोई व्यक्ति संसद या विधानसभा के चुनाव का प्रत्याशी है तो वह यह हलफनामा देगा कि उसके खिलाफ कितने आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह अनुमान था कि जब वोटरों को किसी व्यक्ति का आपराधिक रिकॉर्ड मालूम होगा तो वह उसे किसी हालत में वोट नहीं देगा। परंतु जब व्यवहार में इसे देखा गया तो अपराधिक छवि के अधिक से अधिक लोग जीत कर आ गए और इस तरह के हलफनामे का कोई असर नहीं पड़ा। मीडिया द्वारा बार-बार आग्रह किया जाता है कि विभिन्न पार्टियां आपराधिक छवि के लोगों को टिकट नहीं देंपरंतु व्यवहार में कोई भी पार्टी इसका पालन नही करती है।'ट्रांसपेरंसी इन्टरनेशनलने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि संसार के 174 देशों में भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधीकरण के मामले में भारत का स्थान 72वां है। यहां तक कि संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लगभग एक तिहाई सांसद हैंजिन पर कुल 413 मामले लंबित हैं।
लोकसभा और विधानसभाओं में अपराधियों की संख्या तब और ज़्यादा बढ़ गई जब एक पार्टी के बदले कई पार्टियों की मिलीजुली सरकार बनने लगीखासकर क्षेत्रीय पार्टियों में इतने अपराधी भर पड़े हैं कि उनकी कोई गणना भी नहीं कर सकता है। तर्क दिया जाता है कि जब तक किसी व्यक्ति पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपराध साबित नहीं हो जाता है तब तक उसे अपराधी कैसे कह सकते हैं। पिछले अनेक वर्षों से तमाम संगठन अपराधियों के निर्वाचित होने के अधिकार पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। फिर भी विधानसभाओं तथा संसद में अपराधियों की संख्या कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही है। कोई भी यह नहीं बताता है कि जनता आखिर अपराधियों को क्यों चुन कर भेजती है। यह तो तय है कि उनके गले पर अपराधियों की बन्दूकें नहीं लगी होतीं । और तो और अब तो बात यहाँ तक आ चुकी है कि जो जितना बड़ा अपराधी होगा उसके जीतने की उम्मीद भी अधिक होगी । 
जब तक इस सवाल का जवाब नहीं तलाशा जाएगा कि आम जनता ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले  नेताओं को छोड़कर अपराधियों को ही वोट क्यों देती हैतबतक अपराधियों को निर्वाचित होने से नहीं रोका जा सकता है। यह तय है कि अपराधियों को निर्वाचित होने से रोकने के लिये बनाए जाने वाले कानून एक दिन स्वयं लोकतंत्र का ही गला घोंट देंगे। एक और चौंकाने वाली बात है कि स्विस सरकार के नवीन घोषणा के अनुसार यदि भारत सरकार उनसे मांगे तो वह यह बता सकते हैं कि उनके बैंकों में किन भारतीयों के कितने पैसे जमा है। हालत बहुत ही चिंताजनक हैं लेकिन इसी में से कहीं उम्मीद भी नज़र आने लगी है .
केंद्र सरकार के विधि आयोग ने अपनी २४४वीं रिपोर्ट दाखिल कर दिया है .सुप्रीम कोर्ट ने एक मुक़दमें की सुनवाई के दौरान विधि आयोग को आदेश दिया था कि चुनाव जन प्रतिनिधित्व कानून १९५१ में सुधार के लिए सुझाव तैयार किये जाएँ . माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अपराधियों को राजनीति से बाहर रखना बहुत ज़रूरी है और उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं .सरकार ने अब इस रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश कर दिया है .दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश  जस्टिस ए पी शाह की अध्यक्षता वाले इस आयोग की रिपोर्ट में जो सुझाव दिए गए हैं वे अपराधियों को राजनीति से बाहर रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं . आयोग की रिपोर्ट में सख्त प्रावधान तो  हैं लेकिन ऐसे सुझाव भी हैं जिनको लागू किये जाने पर कानून का दुरुपयोग रोक जा सकेगा .रिपोर्ट का नाम ही " चुनावी अयोग्यताएं " बताया गया है .इसमें एक  महत्वपूर्ण प्रावधान तो यही है कि गलत हलफनामा देने वाले को जेल की सज़ा बढ़ा दी जानी चाहिए . अभी तक का प्रावधान यह है कि जब तक  मुक़दमे  का फैसला न हो जाए तब  तक किसी को चुनाव लड़ने से रोक नहीं  जा सकता . मौजूदा रिपोर्ट में लिखा है कि जब किसी भी अभियुक्त के खिलाफ आरोप तय हो जाएँ उसके बाद से उसे चुनाव के लिए पर्चा दाखिल करने से रोक दिया जाए . हालांकि जानकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जो यह मानता है कि एफ आई आर लिखे जाने के बाद ही अभियुक्त को चुनाव लड़ने से रोक देना चाहिए लेकिन विधि आयोग का मानना  है कि यह उचित नहीं है . रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखाने से किसी नेता को चुनाव रोकने से रोकना संभव होने लगेगा तो पुलिस की मनमानी बढ़ जायेगी .इसलिए जब तक किसी स्तर पर न्यायिक प्रक्रिया से न गुज़र जाए तब तक किसी भी जांच को  प्रामाणिक नहीं माना जाना चाहिए .अभी नियम यह  है कि किसी भी अदालत से सज़ा पाने वालों को चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए .आयोग का कहना है कि अगर नियम का दुरुपयोग रोकने की सही यवस्था की  जा सके तो अपराध तय होने के बाद ऐसे अभियुक्तों को चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है जिनके अपराध में कम से कम पांच साल की सज़ा का प्रावधान हो . अभी तक देखा गया है कि सज़ा हो जाने के बाद अपराधी को रोकने की प्रक्रिया प्रभावशाली नहीं है .भारतीय न्याय व्यवस्था की एक सच्चाई यह भी है कि मुक़दमों के अंतिम निर्णय में बहुत समय लगता है . बहुत सारे मामले ऐसेहैं जहां सबको मालूम रहता  है कि अपराधी कौन है लेकिन वह अदालत से बरी हो जाता है .हालांकि इस प्रावधान के दुरुपयोग की संभावना भी कम नहीं  है लेकिन लेकिन आयोग का कहना है की इसमें ऐसे नियम बनाए जा सकते हैं जिससे कानून का दुरुपयोग न हों .एक सुझाव यह भी है कि एम पी और एम एल ए के खिलाफ दाखिल मुक़दमों में साल भर के अन्दर फैसला आ जाना चाहिए . सुप्रीम कोर्ट ने इस एक सुझाव को मान लिया है और इस सन्दर्भ में फैसला भी दे दिया है .
विधि आयोग की मौजूदा सिफारिशों को मान लेने से अपराधियों को बाहर रखने में ज़रूरी मदद मिलेगी . यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि अगर फौरन कार्रवाई न हुयी तो बहुत देर हो जायेगी .इस चुनाव में भी साफ़ नज़र आ रहा  है कि ऐसे लोगों को चुनाव मैदान में उतारा जा रहा है जो पूरी तरह से अपराधी हैं और संसद की गरिमा को निश्चित रूप से गिरायेगें . ऐसे लोगों पर लगाम लगाए जाने की ज़रुरत है .

Tuesday, October 16, 2012

लोकतंत्र बचाना है तो विधायिका और कार्यपालिका को अलग करना होगा



(यानी विधायकों और सांसदों को मंत्री न बनाया जाए) 

शेष नारायण सिंह 

उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में एक मंत्री ने  जिले के सबसे बड़े मेडिकल अफसर को इसलिए बंधक बना लिया क्योंकि अफसर ने उस मंत्री  का गैरकानूनी हुक्म मानने से इनकार कर दिया था. सूचना  क्रान्ति के निजाम के चलते मंत्री की कारस्तानी दुनिया के सामने आयी और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तुरंत कार्रवाई की और मंत्री को पद छोडना पड़ा . आम  तौर पर माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जिस तपाक से मंत्री को पद से हटाया ,वह अन्य मंत्रियों के लिया सबक रहेगा . लेकिन सवाल यह  है कि क्या इस  मंत्री की कारगुजारी मीडिया ने उजागर न किया होता तब भी उसको हटाया जाता .सरकारों में मुख्यमंत्रियों को साफ़ सुथरा प्रशासन रखने के लिए अपने मंत्रियों के काम काज पर नज़र रखने के लिए मीडिया के अलावा भी कुछ तरीकों की ईजाद  करना चाहिए जिस से बात के मीडिया में पंहुचने के पहले ही उन पर एक्शन हो जाए.इस से सरकारों की कार्यक्षमता  के बारे में अच्छा माहौल बनेगा .हटाये गए  मंत्री जी के बारे में  जो  जानकारी मिली है उसके आधार पर बहुत आराम से कहा जा सकता है कि वे ऐसे धर्मात्मा नहीं थे  जिसके लिए आंसू बहाए जाएँ . उनका अपना इतिहास ऐसा है कि कोई भी सभ्य समाज उनको अपना साथी नहीं मानना चाहेगा . तो प्रश्न यह  है कि उन महोदय को मंत्री बनाया  ही क्यों गया . बताते हैं कि अपने इलाके में उनकी ऐसी दहशत है कि उनके  खिलाफ कोई भी चुनाव नहीं जीत सकता . जिस पार्टी में भी जाते हैं उसे जिता देते हैं . यानी वे विधायिका की ताकत मज़बूत करते हैं इसलिए  उन्हें कार्यपालिका में मनमानी करने की अनुमति दी जाती है.ऐसा लगता है कि कार्यपालिका और विधायिका के रोल आपस में इतने घुल मिल गए हैं कि देश के राजनीतिक फैसलों को लागू करने की ताकत हासिल कर लेने वाले विधायिका के प्रतिनिधि सरकारी फैसलों में मनमानी करने की खुली छूट पा जाते हैं और इसलिए  अपने आर्थिक लाभ के लिए देश की सम्पदा को अपना समझने लगते हैं . यह गलत है . इसका  हर स्तर पर प्रतिकार किया जाना चाहिए .

हमारे लोकतंत्र के तीन स्तंभ बताए गए हैं . न्याय पालिका ,  विधायिका और कार्यपालिका . न्याय पालिका तो  सर्वोच्च स्तर पर अपना काम बहुत ही खूबसूरती से कर रही  है लेकिन कार्यपालिका और  विधायिका अपने फ़र्ज़ को सही  तरीके से नहीं कर पा रही हैं . हमने पिछले कई  वर्षों से देखा है कि संसद का काम इसलिए नहीं हो  पाता कि  विपक्षी पार्टियां सरकार यानी कार्यपालिका के कुछ फैसलों से खुश नहीं रहती. कार्यपालिका के गलत काम के लिए वह विधायिका को अपना काम  नहीं करने देती. इसलिए इस सारी मुसीबात को खत्म करने का एक बाहुत सही तरीका  यह  है कि विधायिका और कार्यपालिका का काम अलग अलग लोग करें . यानी जो लोग विधायिका में हैं वे कार्यपालिका  से अलग रहें . वे कार्यपालिका के काम की निगरानी  रखें उन पर नज़र रखें और संसद की सर्वोच्चता को स्थापित करने में योगदान दें. अभी यह हो रहा है कि जो लोग संसद के सदस्य है , संसद की सर्वोच्चता के संरक्षक हैं वे ही सरकार में शामिल हो जाते हैं और कार्यपालिका भी बन जाते  हैं . गौर  करने की बात यह है कि पिछले १८ साल में जब भी संसद की  कार्यवाही  को हल्ला गुल्ला करके रोका गया है वह विरोध कार्यपालिका के किसी फैसले के बारे में था . यानी संसद का जो विधायिका के रूप में काम करने का मुख्य काम है  उसकी वजह से संसद में  हल्ला गुल्ला कभी नहीं हुआ. हल्ला गुल्ला इसलिए हुआ कि संसद के सदस्यों का जो अतिरिक्त काम है , कार्यपालिका वाला, उसकी वजह से संसद को काम करने का मौका नहीं मिला. इसलिए अब इस बात पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है कि कार्य पालिका और विधायिका का काम अलग अलग लोगों को दिया जाए. यानी ऐसे नियम बना दिए जाएँ  जिसके बाद कोई भी संसद सदस्य या कोई भी विधायक मंत्री न बन सके. संसद या  विधानमंडलों के सदस्य के रूप में नेता लोग अपना काम करें , यानी कानून बनायें और उन कानून को लागू करने वाली कार्यपालिका के काम की निगरानी करें . मंत्री ऐसे लोग बने जो संसद या विधानमंडलों के सदस्य न हों . यहाँ यह गौर करने की बात है कि  नौकरशाही को काबू में रखना भी ज़रूरी है वर्ना वे तो ब्रिटिश नजराना संस्कृति के वारिस हैं, वे तो सब कुछ लूटकर रख देगें. अगर संसद या विधान सभा का सदस्य बनकर केवल क़ानून बनाने का काम मिलने की बात होगी तो इन सदनों में बाहुबली बिलकुल नहीं आयेगें.उसके दो कारण हैं . एक तो उन्हें मालूम है कि कानून बनाने के लिए संविधान और कानून और राजनीति शास्त्र का ज्ञान होना चाहिए . दूसरी बात यह है कि जब उन्हें मालूम हो जाएगा कि संसद के सदस्य बनकर कार्यपालिका पर उनका डाइरेक्ट नियंत्रण नहीं रहेगा तो उनकी रूचि खत्म हो जायेगी. क्योंकि रिश्वत की मलाई तो कार्यपालिका पर कंट्रोल करने से  ही मिलती है .

इस तरह हम देखते हैं कि अगर विधायिका को कार्यपालिका से अलग कर दिया जाए तो देश का बहुत भला हो जाएगा. यह कोई  अजूबा आइडिया नहीं है . अमरीका में ऐसी  ही व्यवस्था है . अपने संसदीय लोकतंत्र को जारी रखते हुए यह किया जा सकता है कि बहुमत दल का नेता मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री बन जाए और वह संसद या विधान मंडलों के बाहर से अपना राजनीतिक मंत्रिमंडल बनाये. एक शंका उठ सकती है कि वही  बाहुबली और भ्रष्ट नेता चुनाव नहीं लड़ेगें और मंत्री बनने के  चक्कर में पड़ जायेगें और वही काम शुरू कर देगें जो अभी करते हैं . लेकिन यह शंका निर्मूल है . क्योंकि कोई मनमोहन सिंह , या नीतीश कुमार या अखिलेश  यादव  या नवीन पटनायक किसी बदमाश को अपने मंत्रिमंडल में नहीं लेगा. संसद का काम यह रहे कि  मंत्रिमंडल के काम की निगरानी रखे . यह मंत्रिमंडल राजनीतिक फैसले ले और मौजूदा नौकरशाही को ईमानदारी से काम करने के लिए मजबूर करे. यह संभव है और इसके लिए कोशिश की जानी चाहिए . कार्यपालिका और नौकरशाही पर अभी  भी संसद की स्टैंडिंग कमेटी कंट्रोल रखती है और वह हमारी लोक शाही का एक बहुत ही मज़बूत पक्ष है . स्टैंडिंग कमेटी की मजबूती का  एक कारण यह भी है कि उसमें कोई भी मंत्री सदस्य के रूप में शामिल नहीं हो सकता . स्टैंडिंग कमेटी मंत्रिमंडल के काम पर निगरानी भरी नज़र रखती है . आज जो काम स्टैंडिंग  कमेटी कर रही है वही काम पूरी संसद का हो जाए तो चुनाव सुधार का बहुत पुराना एजेंडा भी लागू हो जाएगा और अमरीका की तरह विधायिका की सर्वोच्चता भी स्थापित हो जायेगी.  

भारत में भ्रष्टाचार के समकालीन इतिहास पर नज़र डालें तो साफ़ समझ में आ जाता है कि इस काम में राजनीतिक बिरादरी नंबर एक पर है. राजनेता, एम पी या एम एल ए का चुनाव जीतता है और केन्द्र या राज्य में मंत्री बन जाता है . मंत्री बनते ही कार्यपालिका के राजनीतिक फैसलों का मालिक बन बैठता है . और उन्हीं फैसलों की कीमत के रूप में घूस स्वीकार करना शुरू कर देता है. जब राजनेता भ्रष्ट हो जाता है तो उसके मातहत काम करने  वाली नौकरशाही को भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस मिल जाता है और वह पूरी मेहनत और बेईमानी के साथ घूस वसूलने  में जुट जाता है. फिर तो नीचे तक भ्रष्टाचार का राज कायम हो जाता है. भ्रष्टाचार के तत्व निरूपण में जाने की ज़रूरत इसलिए नहीं है कि भ्रष्टाचार हमारे सामाजिक राजनीतिक जीवन  का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा बन  चुका है कि उसके बारे में किसी भी भारतीय को कुछ बताना बिकुल बेकार की कवायद होगी. इस देश में जो भी जिंदा इंसान अहै वह भ्रष्टाचार की  चारों तरफ की मौजूदगी को अच्छी तरह जानता है . 

 उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार को अंदर से देख और झेल  रहे मेरे एक अफसर मित्र से चर्चा के दौरान भ्रष्टाचार को खत्म करने के कुछ  दिलचस्प  तर्क सामने आये. उत्तर प्रदेश की नौकरशाही में अफसरों का एक वर्ग ऐसा भी है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ है लेकिन जल में रहकर मगर से  वैर नहीं करता और नियम कानून की सीमाओं में रहकर  अपना काम करता रहता है .मेरे अफसर मित्र उसी वर्ग के हैं . उन्होंने भ्रष्टाचार  को खत्म करने के कई गुर बताए लेकिन सिद्धांत के स्तर पर जो कुछ उन्होंने बताया ,वह फील्ड में काम करने वाले उस योद्धा के तर्क हैं जो भ्रष्टाचार की मार का सोते जागते मुकाबला करता रहता है . जब तक एक कलक्टर या एस डी एम जाग रहा होता है उसे को न कोई नेता या मंत्री या उसका बड़ा अफसर भ्रष्टाचार के तहत कोई न कोई काम करने की सिफारिश करने को कहता रहता है . उन्होंने बताया कि जिलों में सबसे ज्यादा भ्रष्ट राजनीतिक नेता होते हैं . जो लोग मंत्री हो जाते हैं वे तो हर काम को अपनी मर्जी से करवाने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार  मानते हैं . उसके बाद मंत्री जी के चमचों का नंबर  आता है. यह चमचा वाली संस्था तो बनी ही भ्रष्टाचार का निजाम कायम रखने के लिए है. उसके बाद वे नेता आते हैं जो विधायक या सांसद हो चुके होते हैं लेकन मंत्री नहीं बन पाते . यह सरकारी पक्ष के ही होते हैं . सरकारी पक्ष के नेताओं के बाद विपक्ष की पार्टियों के विधायकों और सांसदों का नंबर आता है जिनके चमचे भी  सक्रिय रहते हैं .  इस वर्ग के नेता भी कम ताक़त्वर  नहीं होते और उनका भी खर्चा पानी घूस की गिजा पर ही चलता है . उसके बाद उन नेताओं  का नंबर  आता है जो भूतपूर्व हो चुके होते हैं . भूतपूर्व के बाद वे नेता आते हैं जिनको अभी चुनावी सफलता नहीं मिली है  या कि मिलने वाली है .

कुल मिलाकर यह देखा गया है कि सरकारी फैसलों को घूस की चाभी से अपने पक्ष में करने वाले लोगों में सबसे आगे वही लोग  होते हैं जो राजनीति के क्षेत्र से आते हैं .  अगर चुनाव जीतने  वालों को स्पष्ट रूप से विधायिका का काम दे दिया जाए और उनको कार्यपालिका में शामिल होने  से रोक दिया जाए यानी उन्हें मंत्री बनने के लिए अयोग्य करार कर दिया जाए और उन्हें मंत्रियों और अफसरों के काम  पर निगरानी रखने का काम  सौंप दिया जाए और उनकी घूस लेने की क्षमता को खत्म कर दिया जाए तो देश में राजनीतिक सुधार का जो माहौल बनेगा वह बेईमानी और भ्रष्टाचार के निजाम को खत्म करने की दिशा में महत्वपूर्ण होगा .

Monday, January 16, 2012

पाकिस्तान में लोकतंत्र और राजनीतिक पार्टियों का इम्तिहान हो रहा है

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान में आजकल वह हो रहा है जो अब तक कभी नहीं हुआ.देश की संसद में यह तय हो रहा है कि देश में लोकतंत्र का निजाम रहना है कि एक बार फिर तानाशाही कायम होनी है . अब तक तो होता यह था कि कोई फौजी जनरल आकर सिविलियन सरकारों को बता देता था कि भाई बहुत हुआ अब चलो ,हम राजकाज संभालेगें . सिविलियन हुकूमत वाले जब ज्यादा लोकशाही की बात करते थे तो उन्हें दुरुस्त कर दिया जाता था. चाहे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो रहे हों या लियाकत अली खां और या नवाज़ शरीफ रहे हों सब को फौज ने अपमानित ही किया लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि पूरे देश में आजकल लोकतंत्र बनाम तानाशाही की बहस चल रही है . हालांकि मौजूदा सरकार की लोकप्रियता और भ्रष्टाचार के हवाले से उसे हटाने का राग चारों तरफ से सुनायी पड़ने लगा है लकिन लगता है कि अब पुरानी बातें नहीं चलने वाली हैं . संसद का विशेष सत्र चल रहा है और सोमवार को संसद तय करेगी कि आगे का रास्ता क्या हो . प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी ने संसद में कहा कि तय यह होना है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र रहेगा या तानाशाही .उन्होंने कहा कि अगर उनकी सरकार ने गलातियाँ की हैं तो ठीक है उन्हें सज़ा दी जाए लेकिन संसद या लोकतंत्र को सज़ा नहीं दी जानी चाहिए .पाकिस्तानी जनमत का दबाव ऐसा है कि अब तक फौज के बूटों पर ताल दे रहे पंजाबी राजनेता , नवाज़ शरीफ भी कहने लगे हैं कि सरकार को चाहिए कि वक़्त से पहले चुनाव करवाकर लोकतंत्र की बहाली को सुनिश्चित करें.

शुक्रवार को अवामी नेशनल पार्टी के नेता, अफसंदर वली खां ने कौमी असेम्बली में संसद,सरकार और लोकतंत्र के पक्ष में एक प्रस्ताव रखा. इसी प्रस्ताव पर सोमवार को वोट पडेगा. प्रस्ताव में राजनीतिक नेतृत्व की उस कोशिश का भी समर्थन किया गया है जिसमें वह लोकतंत्र को बचाने की कोशिश कर रही है .पाकिस्तान में आजकल सरकार ही सवालों के घेरे में नहीं है .सही बात यह है कि पाकिस्तान के अस्तित्व पर एक बार फिर सवालिया निशान लग गया है .पाकिस्तान के लोकतंत्र को एक बार फिर अपनी जान बचाने के लिए मजबूर कर दिया गया है .लेकिन यह एक दिन में नहीं हुआ. बहुत शुरू से ही पाकिस्तान की हर मुसीबत के लिए नेताओं को ज़िम्मेदार ठहराकर पाकिस्तानी फौज़ सत्ता हथियाती रही है . नेता भी आम तौर पर इतने बेईमान और भ्रष्ट हो जाते थे कि जनता दुआ करने लगती थी कि किसी तरह से फौज ही आ जाए . आम तौर पर फौज के सत्ता में आने पर लोग राहत की सांस लेते थे .लेकिन अब पहली बार ऐसा हो रहा है कि जनता इस बात पर बहस कर रही है कि देश में किस तरह का निजाम स्थापित किया जाए . हुकूमत के फैसलों में मनमानी करने की आदी पाकिस्तानी फौज़ के सामने भी विकल्प कम होते जा रहे हैं . हर बार होता यह था कि जब भी पाकिस्तान की सरकार पर फौज का क़ब्ज़ा होता था तो अमरीका फौजी तानाशाह को मदद करने लगता था . आर्थिक रूप से अमरीकी सरकार के शामिल हो जाने के बाद फौजी जनरल को कोई रोक नहीं सकता था . इस इलाके में रूस के प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से अमरीका ने शुरुआती दो जनरलों, अयूब और याहया खां को समर्थन दिया था. जिया उल हक को अफगानिस्तान में सोवियत दखल को कम करने के लिए समर्थन दिया गया था और परवेज़ मुशर्रफ को तालिबानी आतंकियों को काबू में करने के लिए धन दिया गया था . लेकिन इस बार यह बिलकुल तय है कि अमरीका किसी भी फौजी हुकूमत को समर्थन देने को तैयार नहीं है . उसके अपने हित में है कि पाकिस्तान में जैसी भी हो लोकतंत्र वाली सरकार ही रहे. ऐसे माहौल में लगता है कि पाकिस्तान की जनता को आज़ादी के साठ साल बाद ही सही अपने हक को हासिल करने का मौक़ा मिल रहा है .

हालांकि अभी यह कह पाना बहुत मुश्किल है कि जिस तरह का माहौल है उसमें संसदीय लोकतंत्र सुरक्षित बच पायेगा .फौज ने एक पुराने क्रिकेट खिलाड़ी को आगे कर दिया है और लगता है कि वह उसी को आगे करके लोकतंत्र को कंट्रोल में रखने की कोशिश कर रही है .इस खिलाड़ी ने एक राजनीतिक पार्टी भी बना रखा है और अगर पहले जैसे हालात होते तो अब तक वह सत्ता पर काबिज़ भी हो चुका होता लेकिन पाकिस्तानी मीडिया और जनमत का दबाव ऐसा है कि फौज को चुप बैठने के लिए मजबूर कर दिया गया है .पाकिस्तान की सभी राजनीतिक पार्टियां भी एक इम्तिहान के दौर से गुज़र रही है देखना यह है कि आने वाले वक़्त में पाकिस्तान में लोक तंत्र बचता है कि नहीं और अगर बचता है तो किस रूपमें .

Monday, July 4, 2011

पाकिस्तान में जो लोकतंत्र की बात करेगा, मारा जाएगा

(दैनिक जागरण से साभार )

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तानी हुकूमत की शह पर एक और मानवाधिकार कार्यकर्ता को मौत के घाट उतार दिया है . बलोचिस्तान के जाफराबाद जिले में मीर रुस्तम बारी को डेरा अल्लाहयार इलाके में उनके घर के सामने ही मोटरसाइकिल सवाल बंदूकधारियों ने मार डाला .उनकी मौके पर ही मौत हो गयी. यह पाकिस्तान की तथाकथित सिविलियन हुकूमत के उस अभियान की एक कड़ी मात्र है जिसमें फौज के इशारे पर उन लोगों को मार दिया जाता है जो सरकार और फौज के लिए मुश्किल पैदा करने की कोशिश कर रहे होते हैं . मीर रुस्तम बारी अपने ही राज्य बलोचिस्तान में घर बार छोड़कर भागने को मजबूर हुए बुगती और मारी क़बीलों के लोगों के हक की लड़ाई लड़ रहे थे.ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में किसी को मार डालना उसी तरह से हो गया है जैसे किसी पार्क में टहलना हो. अभी पिछले हफ्ते पाकिस्तानी रेंजर्स ने कराची शहर के बीचोबीच उन्नीस साल के एक लड़के, सरफ़राज़ शाह को राह चलते मार डाला था . पाकिस्तानी रेंजर्स भारत के बी एस एफ की तरह का संगठन है जो सीमा पर तैनात रहता है लेकिन कभी कभी आतंरिक सुरक्षा के काम में भी लगाया जाता है . सरफराज शाह की हत्या को सबने देखा क्योंकि किसी वीडियो कैमरामैन ने उसकी फिल्म उतार ली थी और न्यूज़ चैनलों ने उसे सार्वजनिक कर दिया था. सरफ़राज़ शाह की हत्या मीर रुस्तम बारी से अलग तरह की हत्या है . इस नौजवान को तो रेंजर्स के सिपाहियों ने मज़ा लेने के लिए मार डाला था अ, कहीं कोई राजनीतिक मंशा नहीं थी. इसीलिये यह हत्या ज्यादा खतरनाक मानी जा रही है क्योंकि जिस समाज में तफरीह के लिए किसी राह चलते इंसान को मार डाला जाए उसका अधोपतन लगभग पूरी तरह से मुक़म्मल माना जाता है .पूरे पाकिस्तान ने टी वी चैनलों पर देखा कि किस तरह रेंजर्स की गोली का शिकार होकर वह नौजवान चिल्लाता रहा कि उसे अस्पताल पंहुचा दिया जाय लेकिन कोई नहीं आया. सरफ़राज़ शाह की हत्या पाकिस्तानी राष्ट्र और समाज के लिए एक खतरे की घंटी है . क्योंकि जो पाकिस्तानी फौज और आई एस आई अब तक उन लोगों को मार रही थी जो हुकूमत के लिए मुश्किलें पैदा कर रहे थे और उसने राह चलते लोगों को अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया है . पाकिस्तान में रहने वाले बुद्धिजीवियों का कहना है कि देश बहुत ही बड़े संकट के दौर से गुज़र रहा है . उनका दावा है कि यह संकट १९७१ के उस संकट से भी बड़ा है जब मुल्क का एक बड़ा हिस्सा अलग होकर स्वतंत्र बंगलादेश बन गया था .
पाकिस्तान के ताज़ा हालत के बारे में जो बात हैरानी की है वह यह कि लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करने वालों की लगभग रोज़ ही हो रही हत्याओं के बावजूद बाकी दुनिया में कहीं भी उसके विरोध में आवाज़ नहीं उठ रही है . जहां तक सभ्य समाज के लोगों की हत्या का सवाल है वह तो वहां रोज़ ही हो रही है. मीर रुस्तम बारी की ह्त्या के एकाध दिन पहले ही क्वेटा में प्रोफ़ेसर सबा दश्तियारी को मार डाला गया था . उसके कुछ दिन पहले खोजी पत्रकार सलीम शहजाद को मौत के घाट उतार दिया गया था. इन हत्याओं में जो बात उभर कर सामने आती है वह यह कि मारे गए सभी लोग उस बिरादरी से सम्बंधित हैं जो फौज के इशारे पर काम करने वाली अमरीकापरस्त सिविलियन हुकूमत की गैरज़िम्मेदार नीतियों से लोगों को आगाह कर रहे थे . इस बिरादरी के लोगों को ख़त्म कर देने का सिलसिला पिछले कुछ वर्षों से चल रहा है . हालांकि इस तरह से मारे गए लोगों की पूरी सूची तो नहीं बनायी जा सकती लेकिन कुछ ऐसे नाम जो मीडिया की नज़र में आये हैं वे किस्से की कई परतों को बयान कर देते हैं . पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर , सलमान तासीर की उनके ही सुरक्षा गार्ड के हाथों हुई हत्या को इस डिजाइन की एक अहम कड़ी के रूप में देखा जाता है . सलमान तासीर के बाद अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री शाहबाज़ भट्टी और पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग के के संयोजक नईम साबिर को मारा गया था. पाकिस्तान के मानवाधिकार संगठनों का दावा है कि जो लोग भी मारे जा रहे हैं लगभग सभी लोग अल कायदा के प्रभाव वाले सैनिक और आतंकवादी संगठनों के शिकार हो रहे हैं .प्रोफ़ेसर सबा दश्तियारी से जिहादी संगठन ख़ास तौर से नाराज़ थे क्योंकि उनके काम से नौजवानों में लोकतांत्रिक चेतना आती. वे छात्रों को लोकतंत्र के बारे में जागरूकता का सन्देश दे रहे थे. बलोचिस्तान में पाकिस्तानी फौज का डंडा बहुत ही ज़बर्दस्त तरीके से चल रहा है . ऐसा शायद इसलिए हो रहा है कि उस इलाके में ज़मीन के नीचे कच्चे के तेल बहुत बड़े ज़खीरों का पता चला है और सरकार उसे पूरी तरह से अपने कब्जे में रखना चाह रही है .वहां अक्सर निर्दोष बलोच युवकों को पकड़ कर उनको सेना के कब्जे में रखा जाता है और उन्हें हर किस्म की यातनाएं दी जाती हैं . आतंक फैलाने के उद्देश्य से ऐसे लोगों को मार दिया जाता है जो बिलकुल सीधे सादे लोग होते हैं . अभी पिछले दिनों बलोचिस्तान विश्वविद्यालय की एक महिला प्रोफ़ेसर ,नाज़िमा तालिब को भी गोली मार दी गयी थी.
एकाध को छोड़कर मारे गए ज़्यादातर लोग पाकिस्तानी समाज में चेतना फैलाने का काम कर रहे थे. कुछ को पाकिस्तानी सेना के लोगों ने सीधे तौर पर मार डाला था लेकिन कुछ को किसी आतंकवादी संगठन के लोगों ने मारा और ज़िम्मेदारी ली. जानकार बताते हैं कि पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन लगभग पूरी तरह से आई एस आई और फौज की कृपा से चलते हैं इसलिए वहां पर लोकतंत्र और मानवाधिकारों का जो भी खात्मा हो रहा है उसके लिए आई एस आई और फौज ही पूरी तरह से ज़िम्मेदार है.

Sunday, March 13, 2011

लोकतंत्र

(आदित्य राज शर्मा की कविता ,साभार उनसे पूछ कर यहाँ लगाई जा रही है )

लोकतंत्र जातियों की जंग में बदल दिया
मेहेंदियों का रंग ख़ूनी रंग में बदल दिया
जो घरों में ला रहे हैं जंगलों की आग को
और जो जगा रहे हैं जातियों के नाग को
जिनका है अतीत वैमनस्य के जूनून का
और सर पे पाप है पहाड़ियों के खून का
इस चमन में बुलबुलों के पंख नोचतें हैं जो
वे कोई बड़े खुदा हैं खुद ही सोचते हैं जो

जिनके यहाँ ख़ूनी दाग साफ़ किये जाते हैं
फाँसी वाले गुनाहगार माफ़ किये जाते हैं
जिसने गुण्डे हौंसलों को दी सदैव थपकियाँ
और हल्ला बोल-बोल दी कलम को धमकियाँ
जिसके राज में जली हैं प्रेस की भी होलियाँ
और भीड़ पर चली हैं बेशुमार गोलियाँ
जिसने टूट के कगार ला दिया समाज को
जो नहीं बचा सके हैं माँ बहन की लाज को

जिसके आस-पास गुण्डे तस्करों का जोर है
उनके हाथ में वतन की आज बागडोर है
मेरा वास्ता नहीं है कोई राजपाट से
इक सवाल पूछता हूँ रोज राजघाट से
मेरी नींद खो गयी हुजूर इस मलाल में
क्या वतन को मिलना था यही पचास साल में
कल जो घर से भागा किसी ज्ञान की तलाश में
करोड़ों की संपदा है आज उसके पास में

गोरैया के बच्चों को जला दिया है नीड़ ने
आस्थाएं तोड़ दी हैं साधुओं की भीड़ ने
पाखण्डी परम्परा है आन-बान-शान की
है करोड़ों की कमी मजहबी दुकान की
पूजा पाठ हो रहा है धन्ना सेठ के लिये
कोई यज्ञ होता नहीं भूखे पेट के लिये
भगवानों के चित्रों से भभूत झड़ी मिली है
साधुओं की देह हीरे मोती जड़ी मिली है

कोई स्वर्ग जाने हेतु दे रहा है सीढियाँ
कहीं भूत-प्रेतों से ही डर रही हैं पीढियाँ
कोई सुबह का उजाला रैन बना देता है
कोई चमत्कार स्वर्ण चैन बना देता है
कोई मन्त्र -सिद्धि की ही दे रहा है बूटियाँ
कोई हवा में ही बना देता है अंगूठियाँ
पर कोई गरीबों की लँगोटी न बना सका
कोई स्वामी संत बाबा रोटी न बना सका

Tuesday, October 12, 2010

गद्दी के वास्ते कुछ भी करेगा

शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ हुआ है . जिस तरह से विधायकों ने मारपीट की , ध्वनिमत से विश्वास मत पारित हुआ, जिस तरह से अध्यक्ष के पद की गरिमा को नीचा दिखाया गया , सब कुछ अक्षम्य और अमान्य है . हालांकि राज्यपाल की ख्याति ऐसी है कि वह कांग्रेसी खेल का हिस्सा माना जाता है और वह पूरे जीवन तिकड़म की राजनीति करता रहा है लेकिन उसकी ख्याति का बहाना लेकर किसी पार्टी को लोकतंत्र के खिलाफ काम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती. इस सारे काण्ड में बी जे पी के आला हाकिम नितिन गडकरी फिर घेर लिए गए हैं और दिल्ली में उनके दुश्मन , डी-4 वाले कह रहे हैं कि पार्टी अध्यक्ष ने गलती की . उन्हें मंत्रिमंडल में बी एस येदुरप्पा को अपना प्रभाव बढाने के लिए अपने विरोधियों के खिलाफ एक्शन लेने की अनुमति नहीं देनी चाहिये थी. यह अलग बात है कि डी -4 भी अब उतना मज़बूत नहीं है लेकिन मीडिया में अच्छे संबंधों के बल पर गडकरी का मखौल उड़ाने की उसकी ताक़त तो है ही. बी जे पी की गलतियों पर कांग्रेसी नेता मज़ा ले रहे हैं लेकिन कांग्रेस को भी यह समझ लेना चाहिए कि वे भी घटिया राजनीति के मामले में बी जे पी से कम नहीं हैं. वास्तव में दल-बदल की राजनीति को उसके सबसे निचले मुकाम तक पंहुचाने में कांग्रेस का ही सबसे ज्यादा हाथ है . पी वी नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के चक्कर में जो सौदेबाज़ी झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और अजित सिंह से हुई थी , उसके चक्कर में लोकशाही की राजनीति को शर्मसार होना पड़ा था. कर्नाटक में ही कांग्रेस ने बार बार लोकतंत्र को रसातल में ले जाने का काम किया है ,इसलिए कांग्रेस के नेताओं के बयानों के आधार पर लोकशाही की पक्षधरता के बात नहीं की जानी चाहिये . बी जे पी वाले जिस फासिस्ट राजनीति को चलाने के लिए विचारधारा के स्तर पर प्रतिबद्ध हैं , कांग्रेस की पूर्व नेता, स्व इंदिरा गांधी ने उसी राजनीति को अपने प्रिय पुत्र संजय गाँधी के साथ मिलकर परवान चढाया था और देश ने इमरजेंसी के नरक को भोगा था . आज भी कांग्रेस में वंशवाद जिस गहराई के साथ जमा हुआ है ,वह फासिस्ट राजनीति का ही उदाहरण है . इसलिए कांग्रेस को बहुत बढ़ बढ़ कर बात करने की ज़रुरत नहीं है .. लेकिन विधानसभा में जो कुछ भी हुआ उसके लिए उसमें शामिल नेताओं की निंदा की जानी चाहिए . एक बार सत्ता में आ जाने के बाद इन नेताओं को लगने लगता है कि उन्हें सत्ता में बने रहने का निर्द्वंद अधिकार मिल गया है . और यही लोकतंत्र का सबसे बड़ा नुकसान है. कर्नाटक की सत्ता पर काबिज़ बी जे पी और उसके मुख्यमंत्री अपने को सत्ता का स्थायी दावेदार समाझने लगे हैं . इसीलिए शायद उन लोगों ने मनमानी का आचरण शुरू कर दिया . जिसकी वजह से उनकी अपनी पार्टी में भी मतभेद हो गए. बहरहाल यह हमारा विषय नहीं है कि किसी राजनीतिक पार्टी में आपसी गणित क्या है लेकिन जब उस गणित के चलते लोकशाही की संस्थाएं प्रभावित होती हैं तो चिंता होती है . इस बार लोक शाही को शर्मसार करने वालों में सबसे ज्यादा बी जे पी का हाथ है . उसने अध्यक्ष की मर्यादा का पार्टी हित में इस्तेमाल किया. वरना अध्यक्ष की तरफ से निर्दलीय विधायकों को दल बदल कानून के तहत अयोग्य घोषित करने का अधिकार कहाँ से आ गया था . अब सबके सामने यह सच्चाई आ चुकी है बी जे पी के टिकट पर चुन कर आये अध्यक्ष ने अपनी पार्टी की सरकार को बचाने के लिए वह काम किया जो उन्हें नहीं करना चाहिए था. दल बदल कानून के पैराग्राफ 2 में लिखा है कि अगर कोई सदस्य अपनी मर्ज़ी से पार्टी छोड़ दे या पार्टी के निर्देश के खिलाफ सदन में किसी प्रस्ताव पर वोट दे या पार्टी के निर्देश का पालन न करे ,तो उसे सदस्यता से हटाया जा सकता है . सवाल यह उठता है कि जब ऐसी कोई नौबत आई ही नहीं तो माननीय अध्यक्ष जी ने किस आधार पर बी जे पी के बागी सदस्यों की सदस्यता रद्द कर दी. हालांकि यह बात तो विचार के दायरे में आ सकती है लेकिन निर्दलीय विधायकों की सदस्यता रद्द कर देने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे तो किसी पार्टी के सदस्य ही नहीं है .यानी साफ़ हो जाता है कि कर्नाटक में बी जे पी ने " गद्दी के वास्ते कुछ भी करेगा " की मानसिकता के वशीभूत होकर काम किया है .लोक तंत्र में इस तरह के आचरण के लिए जगह नहीं है . बी जे पी के प्रवक्ता गण कहते फिर रहे हैं कि कांग्रेस ने राज्यपाल के पद और गरिमा का दुरुपयोग किया है. यह बात सच लगती है लेकिन इसकी वजह से बी जे पी को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह सत्ता से चिपके रहने के लिए विधान सभा में लोकशाही की बुनियादी अवधारणा का मखौल उडाये. वरना बिना किसी मत विभाजन के अध्यक्ष जी बी एस येदुरप्पा की सरकार को विजयी न घोषित कर देते. ध्वनि मत से विश्वास प्रस्ताव पास करवाने के मामले में बी जे पी वाले कह रहे हैं कि गोवा में भी तो ऐसा ही हुआ था. सवाल यह है कि अगर एक जगह गलत काम हो रहा है तो उसके हवाले से अपनी गलती को को छुपाने की कोशिश करना भी गलती है .इस में भी दो राय नहीं है कि राज्यपाल ने अपने पद का दुरुपयोग किया लेकिन उसको ठीक करने के अलग मंच उपलब्ध हैं , विधान सभा में मारपीट करना और अध्यक्ष के पद का राजनीतिक पक्ष पाट के लिए इस्तेमाल करना अक्षम्य है

Friday, March 5, 2010

लोकतंत्र को खारिज करने वालों की साज़िश से सावधान रहने की ज़रुरत

शेष नारायण सिंह


गोधरा में ट्रेन के एक डिब्बे में लगी आग के बाद जिस तरह से खून खराबा हुआ, उस से दुनिया भर में तकलीफ महसूस की गयी थी. उसके बाद से लोकतंत्र के औचित्य पर सवाल उठाने लगे थे . कई पुरस्कारों से सम्मानित लेखिका , अरुंधती रॉय ने पहला हमला किया था . उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए मुख्यमंत्री, नरेन्द्र मोदी के गोधरा के बाद के काम को निशाने में लेकर यह तर्क दिया था कि कल्याणकारी राज्य की स्थापना कर सकना लोकतंत्र के बूते की बात नहीं है .. यहाँ नरेंद्र मोदी को सही ठहराने का कोई इरादा नहीं है लेकिन उनके बहाने से पूरे लोकतंत्र को खारिज करने की कोशिश को भी रोके जाने की ज़रुरत है .. अरुंधती रॉय एक विद्वान् लेखिका मानी जाती हैं , उनका मीडिया प्रोफाइल बहुत ही ऊंचा है और उन्हें हम लोगों की तरह अपनी रोटी-पानी के लिए रोज़ संघर्ष नहीं करना पड़ता . उनके पास जुगाड़ है, कई साल तक के भोजन-भजन का इंतज़ाम है . लेकिन इस देश में आबादी का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिसे लोकतंत्र बहुत कुछ देता है. लोकतंत्र के बड़े बड़े ठेकेदार गरीब आदमी की रोटी-पानी की बात करते देखे गए हैं. आजकल भी सत्ताधारी पार्टी, राग ' आम आदमी ' में अपनी बात कह रही है लिहाज़ा लोक तंत्र के खिलाफ लाठी भांजने का वक़्त शायद अभी नहीं आया है . २००२ में जब अरुंधती रॉय का लोकतंत्र विरोधी लेख छपा था तो मुझे एक महात्मा जी का प्रवचन बहुत याद आया था जो मेरे कस्बे में वर्षों पहले पधारे थे . उन्होंने रामराज्य का ज़िक्र किया था और कहा था कि वर्तमान राज-काज बिलकुल बेकार है ,हमें रामराज्य के लिए प्रयास करना चाहिए जिस से चारों तरफ दूध-दही की नदियाँ बहेंगीं , लोग सुखी रहेंगें और कहीं कोई कष्ट नहीं होगा. महात्मा जी का प्रवचन ख़त्म हुआ , तम्बू उखड गया , वहां बिछी हुई दरी वगैरह हटा दी गयी. जो मजदूर इस काम में लगे थे उनको न्यूनतम मजदूरी मिली, उन लोगों ने दुकान वाले को पिछला बकाया अदा किया और नया उधार लेकर अपने घर चले गए.सूखी रोटी ,प्याज के साथ खाई और सो गए. महात्मा जी प्रवचन के आयोजकों के यहाँ पधारे , वहां दिव्य भोजन किया, भक्तों ने उनके चरण की सेवा की और वे सो गए.. उनके लिए तो रामराज्य के सुख का बंदोबस्त हो चुका था लेकिन उन मजदूरों के लिए रामराज्य अभी बहुत दूर था . उनका संघर्ष लम्बा चलेगा तब कहीं उन्हें रामराज्य के सुख का दर्शन होगा ..अरुंधती रॉय जैसे लोगों का लोकतंत्र के खिलाफ दिया गया प्रवचन उन्हीं महात्मा जी के प्रवचन जैसा है जो हकीकत से दूर रह कर अपने ख्याली पुलाव को वाताविकता की तरह स्वीकार करने का आग्रह करता नज़र आता है ..अरुंधती रॉय अपने उस आग्रह पर आज भी कायम हैं क्योंकि एक नामी पत्रिका में छपे अपने उस लेख को उन्होंने अपनी ताज़ा किताब में ज्यों का त्यों छाप दिया है. उनके अलावा भी कुछ चिंतकों ने लोकतंत्र के खिलाफ तर्क देना शुरू कर दिया है और एकाधिकारवादी पूंजी और गुंडों की राजनीतिक सफलता का उदाहरण दे कर वे लोकतंत्र के खिलाफ तर्क देने की कोशिश करते हैं. यह सच है कि सत्ता के सबसे ऊंचे मुकाम पर बैठे लोगों तक पूंजीवादी शक्ति के प्रतिनिधियों की पंहुच आसानी से हो जाती है , वे कई बार ऐसे फैसले भी करवा लेते हैं जो जनविरोधी होते हैं . यह भी सच है कि आजकल चुनाव जीतने वालों में ऐसे लोग भी शामिल हो जाते हैं जो अपराधी हैं या जिनका सामाजिक उत्थान से कोई लेना देना नहीं होता .कई बार यह अपराधी लोग विकास के लिए निर्धारित रक़म को अपने निजी स्वार्थ के लिए हड़प भी लेते हैं . इन अपराधियों, नेताओं, अफसरों और बड़ी पूंजी वालों के गठजोड़ का हवाला देकर भी लोकतंत्र के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है लेकिन इस सबके बावजूद अभी लोकतंत्र के खिलाफ सुनी जा रही खुसुर-फुसुर को समर्थन देना ठीक नहीं होगा . ज़रुरत इस बात की है कि सार्थक बहस की शुरुआत की जाए और लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ बन रहे माहौल को दबाने की कोशिश की जाए. लोक तंत्र के पक्ष में सबसे बड़ी बात तो यही है कि इस व्यवस्था में अपराधी और जनविरोधी टाइप लोगों को बेदखल करने के अवसर उपलब्ध हैं . दूसरी बात यह है कि जो लोग भी लोकतंत्र के खिलाफ माहौल बना रहे हैं उनके पास कोई वास्तविक विकल्प नहीं है. उनके पास विकल्प के नाम पर वही महात्मा जी वाला कार्यक्रम है . .

सच्ची बात यह है कि लोकतंत्र की अवधारणा किसी की कृपा से नहीं आई है . इसके लिए आम आदमी ने सैकड़ों वर्षों तक संघर्ष किया है .और अभी लोकशाही के सभी पक्ष सामने नहीं आये हैं . लोकतंत्र के बड़े केंद्र अमरीका में अभी लोकतंत्र की बुनियादी बातें भी नहीं आई हैं . चुनाव व्यवस्था शुरू होने के कई सौ वर्षों की परंपरा के बाद पिछले चुनाव में वहां यह सोचा गया कि क्या कोई काला यानी दलित आदमी राष्ट्रपति हो सकता है या कि कोई महिला सर्वोच्च पद पर पंहुच सकती है . अभी ५० साल पहले तक अमरीका में सभी नागरिकों को वोट देने का अधिकार नहीं था . उन्होंने अपने दलितों को चुनाव प्रणाली से बाहर रखा था, महिलाओं को भी बहुत देर से वोट देने का अधिकार मिला . इसी तरह से बाकी देशों एक लोकतंत्र में भी विकास की अलग अलग अवस्थाएं हैं ... लेकिन एक बात पक्की है कि जो कुछ भी हासिल होगा उसके लिए संघर्ष करना पडेगा.आज जो भी लोकतंत्र का स्वरुप है उसके विकास में एक लम्बा वक़्त लगा है इस में दो राय नहीं है कि लोकतंत्र की अभी बहुत सी संभावनाएं खुलना बाकी हैं .लोकशाही के जो बुनियादी सिद्धांत हैं वे फ्रांसीसी क्रान्ति के बराबरी, भाईचारा और स्वतंत्रता के नारों से विकसित हुए हैं . आज दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका है .ज़ाहिर है कि उसे हासिल करने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होकर ही कोशिश करनी पड़ेगी . उसके खिलाफ माहौल बना कर नहीं.

हमारे अपने लोकतंत्र में भी अभी बहुत सारी संभावनाएं हैं . सही बात यह है कि अभी तक दलितों और मुसलमानों को लोकशाही की मुख्यधारा में शामिल होने का मौक़ा नहीं मिला है.एक मायावती को मुख्यमंत्री पद मिला है लेकिन उसकी वजह से दलितों की मुक्ति की लड़ाई एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी है .. आज़ादी के साथ वर्षों बाद भी पिछड़ी और दलित महिलाओं को राजनीतिक सत्ता में भागीदारी दिलाने के लिए संघर्ष चल रहा है . पंचायतों में कुछ भागीदारी का काम हुआ है लेकिन मर्दवादी सोच के पुरुषों ने वहां भी स्त्री को सत्ता के बाहर रखने की सारे गोटें बिछा रखी हैं ..आजकल जो नक्सलवाद के खिलाफ सारी सत्ता जुटी हुई है , उस नक्सलवाद को शुरू होने से ही रोका जा सकता था .अगर दलितों और आदिवासियों को उनका हक दिया गया होता तो वे कभी भी वह राह न अपनाते . वरना आज वे लोग ही दिग्भ्रमित मार्क्सवादियों की राजनीतिक डिजाइन को पूरा करने के लिए आगे कर दिए गए हैं .वे अति वामपंथी आंतंकवादी सोच के लिए शील्ड का काम कर रहे हैं .. उनके खिलाफ तोप चलाने वाली सरकारों को चाहिए कि उनका इस्तेमाल करने वाले हिंसक वामपंथियों और उनका राजनीतिक लाभ लेने वाली जमातों को अलग थलग करें.

यह भी सच है कि राजनीतिक लोकतंत्र की सीमाएं हैं . वह पूरी तरह से कल्याणकारी निजाम नहीं कायम कर सकता लेकिन लोकतंत्र को कम करने के नतीजे भी भयानक होंगें . लोकतंत्र को कम करने का नतीजा यह होगा कि तानाशाही प्रवृत्तियाँ बढ़ेगी . इसलिए लोकतंत्र की मात्रा बढ़ा कर चाहे थोड़ी तकलीफ भी हो लेकिन उसको ही आगे किया जाना चाहिए और राजनीतिशास्त्र के बारे में शौकिया प्रवचन करने वाले महात्मा टाइप लोगों की बात को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए .