शेष नारायण सिंह
मुंबई में एक बार फिर आतंक का हमला हुआ. तीन भीड़ भरे मुकामों को निशाना बनाया गया . मकसद फिर वही था, आम आदमी के अंदर दहशत भर देना . मुंबई फिर अपने काम काज में लग गयी. आतंकवादी अपने मकसद में कामयाब नहीं हुए . उनके हिसाब में कुछ लोगों का क़त्ल और लिख दिया गया. सरकार ने अपना काम शुरू कर दिया और आम आदमी ने इस तरह से अपना काम करने का फैसला किया जैसे कुछ हुआ ही नहीं है. जिन लोगों की जान गयी है उनके परिवार वाले ज़िंदगी भर का दर्द अपने सीने में लेकर जिंदा रहेगें. जो घायल हुए हैं उनकी ज़िंदगी बिलकुल बदल जायेगी. वे आतंक को कभी भी माफ़ नहीं करेगें. पाकिस्तान की फौज और आई एस आई की तरफ से दावा किया जाता है कि भारत में जो लोग भी आतंक फैला रहे हैं, वे किसी अन्याय का बदला ले रहे होते हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि पाकिस्तान की एक बड़ी आबादी को भी यह बता दिया गया है कि भारत ने कभी कुछ नाइंसाफी की थी ,उसी को दुरुस्त करने के लिए जिया उल हक और परवेज़ मुशर्रफ जैसे फौजी तानाशाहों ने पाकिस्तान की गरीब जनता को आतंकवादी बना कर भारत में भेज दिया था . लेकिन हर आतंकी हमले के बाद यह साफ़ हो जाता है कि मौत के यह सौदागर किसी भी अन्याय के खिलाफ नहीं हैं .यह तो अन्याय का निजाम कायम करने के अभियान को चलाने वाले के हाथ की कठपुतली हैं .
मुंबई के दादर, झवेरी बाज़ार और ओपेरा हाउस में हुए धमाकों के पीछे छुपे इरादों की निंदा पूरी दुनिया में हो रही है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने इस हमले को अपराधी कारनामा बताया है और कहा है कि इसको किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता . इंग्लैण्ड, अमरीका, रूस आदि देशों के नेताओं ने भी मुंबई पर हुए आतंक के हमले की निंदा की है . भारत में भी इस हमले के बाद संतुलन दिख रहा है . आमतौर पर किसी भी आतंकी हमले को पाकिस्तान की साज़िश बता देने वाले मीडिया के उस वर्ग में भी संतुलन नज़र आ रहा है . मीडिया ने मुंबई के ताज़ा आतंक की विस्तार से रिपोर्ट की है लेकिन अभी तक आमतौर पर यही कहा जा रहा है कि हर उस संगठन और मंशा की जांच की जा रही है जो भारत को नुकसान पंहुचा सकते हों . महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और केंद्रीय गृहमंत्री ने साफ़ कह दिया है कि शक़ करने का कोई मतलब नहीं है . मामले की गहराई से जांच की जा रही है . अक्सर ऐसा होता है कि दक्षिण एशिया के इलाके में शान्ति बनाए रखने की कोशिशों को पटरी से उतारने के लिए इस तरह के हमले किये जाते हैं . अगर हमला करने वालों का यह उद्देश्य था तो वे पूरी तरह से नाकाम हो गए हैं . भारत और पाकिस्तान की सरकारों की तरफ से बयान आ गए हैं कि दोनों देशों के विदेश मंत्रालय के बीच जुलाई के अंत में होने वाली बातचीत पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. अमरीकी विदेश मंत्री , हिलेरी क्लिंटन की प्रस्तावित भारत यात्रा भी कार्यक्रम के अनुसार ही होगी. यानी कुछ निरीह लोगों की जान लेने के अलावा इस हमले ने कोई भी राजनीतिक मकसद नहीं हासिल किया है. उलटे ऐसा लगता है कि जब भी इस हमले के लिए ज़िम्मेदार लोगों की पहचान हो जायेगी , उनके समर्थकों के बीच भी उनकी निंदा होगी .
मुंबई पर बुधवार को हुए हमले का एक अहम पक्ष यह भी है कि पाकिस्तान को तुरंत ही ज़िम्मेदार बता देने वाले नेता भी इस बार शांत हैं और आतंक के खिलाफ माहौल बनाने की बात कर रहे हैं . इस बार ऐसा लग रहा है कि भारत और पाकिस्तान के सभ्य समाज के लोगों की तरह वहां की सरकारें भी एक ही तरीके से आतंक की कार्रवाई की निंदा कर रही हैं . इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमले में पाकिस्तानी फौज , आई एस आई या कुछ पाकिस्तानी जनरल शामिल हों . लेकिन लगता है कि पाकिस्तानी फौज के गुनाहों को इस बार पाकिस्तान की सरकार अपने सिर लेने को तैयार नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो इसे बहुत ही बड़ी बात के रूप में याद रखा जाएगा .ज़रुरत इस बात की है कि पाकिस्तानी फौज और उसके आतंक के निजाम को अलग थलग किया जाए . यह अजीब लग सकता है लेकिन सच यही है कि पाकिस्तान में हुकूमत सेना की ही चलती है .पहली बार ऐसा हो रहा है कि पाकिस्तान की तथाकथित सिविलियन सरकार अपनी ही फौज के किसी कारनामे को अपनाने को तैयार नहीं है. ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद पाकिस्तानी राष्ट्र और समाज में भी तूफ़ान आया हुआ है . लगता है कि अपनी बेचारगी को दुनिया के सामने रख कर पाकिस्तानी सरकार ने अपनी ही फौज़ को घेरने में शुरुआती सफलता हासिल की है . आगे के राजनीतिक घटनाक्रम में दुनिया का आतंक के प्रति रुख बदलने की क्षमता है . कोशिश की जानी चाहिए कि आतंक के सौदागर जहां भी हों उन्हें पकड़ा जाए और सज़ा दी जाए.
Friday, July 15, 2011
Thursday, July 14, 2011
ए राजा के खिलाफ कुछ भी नहीं सुनना चाहते थे प्रधानमंत्री ,गुरुदास कामत का संकेत
शेष नारायण सिंह
मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद नाराज़ मंत्रियों में वीरप्पा मोइली और श्रीकांत जेना को संभल गए लेकिन मुंबई के नेता गुरुदास कामत ने कांग्रेस आलाकमान को घेरने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है..वे खुद तो माफी मांग रहे हैं लेकिन उनके कुछ ख़ास अफसर एक अजीब मुहिम चला रहे हैं . दिल्ली के सरकारी गलियारों में आज एक चर्चा ज़ोरों पर है कि गुरुदास कामत को इसलिए डिमोट किया गया कि उन्होंने ए राजा के अधीन काम करते हुए तत्कालीन संचार मंत्री के काले कारनामों के बारे में एक चिठ्ठी प्रधान मंत्री को लिख कर भेज दी थी. जिसमें जो कुछ लिखा है बाद में वही सब कुछ सी ए जी की मार्फत पब्लिक डोमेन में आया था. उनके चेला टाइप अफसरों ने राजनीतिक हलकों में यह खबर कुछ पत्रकारों के ज़रिये चलाने की कोशिश की है. बताया जा रहा है कि ए राजा जब टू जी स्पेक्ट्रम में गड़बड़ी कर रहे थे तो गुरुदास कामत ने प्रधान मंत्री को सारी जानकारी एक पत्र लिख कर भेज दी थी. लेकिन उन्हें प्रधान मंत्री कार्यालय से यह सन्देश आया कि उस पत्र में लिखी गयी बातों को थोडा हल्का कर दें . खुसुर फुसुर अभियान में बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय के दबाव में उन्होंने पत्र को बदल भी दिया था. अभियान में जुड़े अफसरों की टोन यह है कि गुरुदास कामत जैसा पवित्र आत्मा भ्रष्टाचार को बर्दाश्त नहीं कर पाया इसलिए उन्होंने उन्होंने पत्र लिख दिया था लेकिन प्रधान मंत्री कार्यालय और कांग्रेस की टाप लीडरशिप के पास फुर्सत ही नहीं थी कि वह ए राजा के खिलाफ कुछ सुन सके. . इस गंभीर बात के बारे में जब कुछ जानकारी हासिल करने की कोशिश की गयी तो अजीब बातें सामने आयीं. पता चला कि कि गुरुदास कामत ने ए राजा की शिकायत तो प्रधानमंत्री से की थी लेकिन उनका मकसद भ्रष्ट्राचार का खात्मा नहीं था. टू जी स्पेक्ट्रम में गले तक डूबे हुए विनोद गोयनका नाम के व्यक्ति ने शुरू में गुरुदास कामत से ही संपर्क साधा था. शायद ऐसा इसलिए था कि गुरुदास कामत उन दिनों संचार मंत्रालय में ए राजा के मातहत राज्य मंत्री थे . लेकिन बाद में विनोद गोयनका ने सीधे ए राजा से सम्बन्ध बना लिया. बताया जा रहा है कि जब गुरुदास कामत ने उससे अपनी बात की तो उसने टका सा जवाब दे दिया और कामत को कुछ भी देने से इनकार कर दिया . इसकी शिकायत लेकर गुरुदास कामत महाराष्ट्र के एक बहुत बड़े नेता के पास भी गए. उन नेता जी के हस्तक्षेप के बाद कुछ सुलह सफाई हो गयी लेकिन विनोद गोयनका ने जो कुछ देने का प्रस्ताव किया वह बहुत कम था . गुरुदास कामत अपने को ए राजा से बड़ा नेता मानते थे . ए राजा की तुलना में उनको मिलने वाली रक़म बहुत कम थी. बात बढ़ गयी और पिछली फेरबदल में कामत को संचार मंत्रालय से हटा दिया गया. लेकिन जब उन्होंने इस बार के फेरबदल के पहले अपने उस पुराने पत्र का ज़िक्र करके दबाव बनाने की कोशिश की तो कांग्रेस आलाकमान को उनका यह तरीका बहुत नागवार गुज़रा और उनको बहुत ही मामूली विभाग देने का फैसला कर लिया गया. देखना है कि इस जानकारी के सार्वजनिक डोमेन में आने के बाद कांग्रेस नेतृत्व उनको वास्तव में दण्डित करता है या उनके उस पत्र के डरकर उन्हें फिर से सम्मानित करता है .
गुरुदास कामत के इस प्रचार अभियान के जुटे साथी बताते हैं कि जिस तरह से वित्त मंत्री के रूप में मोरारजी देसाई ने तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू की विदेश यात्रा के दौरान किये गए कुछ खर्चों पर आपत्ति दर्ज करवा कर ईमानदारी की एक मिसाल कायम की थी ,उसी तरह से गुरुदास कामत ने भी ईमानदारी की मिसाल कायम की है. लेकिन आर्थिक अपराध के जानकारों का कहना है कि अगर यह साबित हो गया कि ए राजा जब आपराध कर रहे थे ,उस वक़्त गुरुदास कामत को मालूम था कि अपराध हो रहा है और उन्होंने उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की तो उनको भी पकड़ा जा सकता है . वैसे भी राजा के खिलाफ जब से जांच शुरू हुई है उसके बाद भी गुरुदास कामत ने सी बी आई को इतनी अहम जानकारी नहीं दी तो उनकी नीयत पर सवाल उठेगें. सवाल उठता है कि राष्ट्रहित और जनहित की इतनी बड़ी जानकारी को उन्होंने सही एजेंसी के पास न पंहुचा कर अपनी पार्टी की टाप लीडरशिप पर दबाव बनाने के लिए इस्तेमाल करके अपना हित तो साधा है लेकिन क्या उन्होंने जनहित की अनदेखी नहीं की. यह देखना बभी दिलचस्प होगा कि क्या इस नई जानकारी के अफवाह के रूप में चलाये जाने के बाद सी बी आई इस सन्दर्भ में कोई कार्रवाई करेगी.
मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद नाराज़ मंत्रियों में वीरप्पा मोइली और श्रीकांत जेना को संभल गए लेकिन मुंबई के नेता गुरुदास कामत ने कांग्रेस आलाकमान को घेरने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है..वे खुद तो माफी मांग रहे हैं लेकिन उनके कुछ ख़ास अफसर एक अजीब मुहिम चला रहे हैं . दिल्ली के सरकारी गलियारों में आज एक चर्चा ज़ोरों पर है कि गुरुदास कामत को इसलिए डिमोट किया गया कि उन्होंने ए राजा के अधीन काम करते हुए तत्कालीन संचार मंत्री के काले कारनामों के बारे में एक चिठ्ठी प्रधान मंत्री को लिख कर भेज दी थी. जिसमें जो कुछ लिखा है बाद में वही सब कुछ सी ए जी की मार्फत पब्लिक डोमेन में आया था. उनके चेला टाइप अफसरों ने राजनीतिक हलकों में यह खबर कुछ पत्रकारों के ज़रिये चलाने की कोशिश की है. बताया जा रहा है कि ए राजा जब टू जी स्पेक्ट्रम में गड़बड़ी कर रहे थे तो गुरुदास कामत ने प्रधान मंत्री को सारी जानकारी एक पत्र लिख कर भेज दी थी. लेकिन उन्हें प्रधान मंत्री कार्यालय से यह सन्देश आया कि उस पत्र में लिखी गयी बातों को थोडा हल्का कर दें . खुसुर फुसुर अभियान में बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय के दबाव में उन्होंने पत्र को बदल भी दिया था. अभियान में जुड़े अफसरों की टोन यह है कि गुरुदास कामत जैसा पवित्र आत्मा भ्रष्टाचार को बर्दाश्त नहीं कर पाया इसलिए उन्होंने उन्होंने पत्र लिख दिया था लेकिन प्रधान मंत्री कार्यालय और कांग्रेस की टाप लीडरशिप के पास फुर्सत ही नहीं थी कि वह ए राजा के खिलाफ कुछ सुन सके. . इस गंभीर बात के बारे में जब कुछ जानकारी हासिल करने की कोशिश की गयी तो अजीब बातें सामने आयीं. पता चला कि कि गुरुदास कामत ने ए राजा की शिकायत तो प्रधानमंत्री से की थी लेकिन उनका मकसद भ्रष्ट्राचार का खात्मा नहीं था. टू जी स्पेक्ट्रम में गले तक डूबे हुए विनोद गोयनका नाम के व्यक्ति ने शुरू में गुरुदास कामत से ही संपर्क साधा था. शायद ऐसा इसलिए था कि गुरुदास कामत उन दिनों संचार मंत्रालय में ए राजा के मातहत राज्य मंत्री थे . लेकिन बाद में विनोद गोयनका ने सीधे ए राजा से सम्बन्ध बना लिया. बताया जा रहा है कि जब गुरुदास कामत ने उससे अपनी बात की तो उसने टका सा जवाब दे दिया और कामत को कुछ भी देने से इनकार कर दिया . इसकी शिकायत लेकर गुरुदास कामत महाराष्ट्र के एक बहुत बड़े नेता के पास भी गए. उन नेता जी के हस्तक्षेप के बाद कुछ सुलह सफाई हो गयी लेकिन विनोद गोयनका ने जो कुछ देने का प्रस्ताव किया वह बहुत कम था . गुरुदास कामत अपने को ए राजा से बड़ा नेता मानते थे . ए राजा की तुलना में उनको मिलने वाली रक़म बहुत कम थी. बात बढ़ गयी और पिछली फेरबदल में कामत को संचार मंत्रालय से हटा दिया गया. लेकिन जब उन्होंने इस बार के फेरबदल के पहले अपने उस पुराने पत्र का ज़िक्र करके दबाव बनाने की कोशिश की तो कांग्रेस आलाकमान को उनका यह तरीका बहुत नागवार गुज़रा और उनको बहुत ही मामूली विभाग देने का फैसला कर लिया गया. देखना है कि इस जानकारी के सार्वजनिक डोमेन में आने के बाद कांग्रेस नेतृत्व उनको वास्तव में दण्डित करता है या उनके उस पत्र के डरकर उन्हें फिर से सम्मानित करता है .
गुरुदास कामत के इस प्रचार अभियान के जुटे साथी बताते हैं कि जिस तरह से वित्त मंत्री के रूप में मोरारजी देसाई ने तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू की विदेश यात्रा के दौरान किये गए कुछ खर्चों पर आपत्ति दर्ज करवा कर ईमानदारी की एक मिसाल कायम की थी ,उसी तरह से गुरुदास कामत ने भी ईमानदारी की मिसाल कायम की है. लेकिन आर्थिक अपराध के जानकारों का कहना है कि अगर यह साबित हो गया कि ए राजा जब आपराध कर रहे थे ,उस वक़्त गुरुदास कामत को मालूम था कि अपराध हो रहा है और उन्होंने उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की तो उनको भी पकड़ा जा सकता है . वैसे भी राजा के खिलाफ जब से जांच शुरू हुई है उसके बाद भी गुरुदास कामत ने सी बी आई को इतनी अहम जानकारी नहीं दी तो उनकी नीयत पर सवाल उठेगें. सवाल उठता है कि राष्ट्रहित और जनहित की इतनी बड़ी जानकारी को उन्होंने सही एजेंसी के पास न पंहुचा कर अपनी पार्टी की टाप लीडरशिप पर दबाव बनाने के लिए इस्तेमाल करके अपना हित तो साधा है लेकिन क्या उन्होंने जनहित की अनदेखी नहीं की. यह देखना बभी दिलचस्प होगा कि क्या इस नई जानकारी के अफवाह के रूप में चलाये जाने के बाद सी बी आई इस सन्दर्भ में कोई कार्रवाई करेगी.
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Sunday, July 10, 2011
सैम पित्रोदा के साथ आविष्कार क्रान्ति की तरफ बढ़ने का वक़्त आ गया है .
शेष नारायण सिंह
सैम पित्रोदा ने एक नई बात कहना शुरू कर दिया है . उनकी बात को गंभीरता से लेने की ज़रुरत इसलिए है कि मेरे जैसे जिन लोगों ने १९८४ में उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया था,बाद में उन्हें पछताना पड़ा था. उन दिनों अपने देश में टेलीफोन होना स्टेटस सिम्बल माना जाता था. बहुत कम लोगों के घरों में टेलीफोन के कनेक्शन होते थे . टेलीफोन लगाने के लिए दरखास्त देने के कई साल बाद लोगों के नंबर आते थे. इंदिरा गाँधी का राज था और टेलीफोन का काम देखने वाला मंत्रालय ऐसे मंत्री के हवाले कर दिया जाता था जिसकी राजनीतिक हैसियत बहुत मामूली होती थी. . जिसको सज़ा देनी हो वही संचार मंत्री बनाया जाता था. सैम पित्रोदा उन दिनों अमरीका में बहुत नाम कमा चुके थे ,संचार के क्षेत्र में उनका बड़ा नाम था . बताते हैं कि उनके अंदर मातृभूमि के प्रति प्रेम इतना ज्यादा था कि उन्होंने अपना अमरीका का बहुत बड़ा कारोबार छोड़कर भारत में सूचना क्रान्ति की बुनियाद रखने की योजना बनायी .किसी परिचित के हवाले से तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी से मिले .इंदिरा जी ने उनकी बात सुनी और उनको लगभग टाल दिया . लेकिन उनका दिल रखने के लिए उन्हें राजीव गाँधी के पास भेज दिया . राजीव गाँधी उन दिनों राजनीति में शुरुआती प्रशिक्षण ले रहे थे . इंदिरा गाँधी के सामने सैम पित्रोदा ने जो प्रस्ताव रखा था ,उसी को उन्होंने राजीव गाँधी को सुना दिया . राजीव गाँधी इलेक्ट्रानिक गैजेट्स के बहुत शौक़ीन थे. उन्होंने सैम पित्रोदा की बात को समझा और उन्हें फिर इंदिरा गाँधी के सामने पेश किया . बेटे के कहने पर इंदिरा गाँधी ने कुछ धन की व्यवस्था कर दी और देश में संचार क्रान्ति की बुनियाद पड़ गयी . उस दौर में सब को मालूम था कि इंदिरा जी ने सैम सैम पित्रोदा को गंभीरता से नहीं लिया था लेकिन अपने बेटे की बात मान कर उनको कुछ काम दे दिया था. हालांकि यह सच है कि सैम पित्रोदा किसी काम की तलाश में नहीं थे ,वे अपने देश में संचार की व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहते थे. बहरहाल उसके बाद ही सी-डाट की शुरुआत हुई और टेलीफोन टेक्नालोजी के क्षेत्र में दुनिया के बड़े बड़े दिग्गज सैम पित्रोदा के ज्ञान का लोहा मानने लगे. राजीव गाँधी जब प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने सैम पित्रोदा को अपने आविष्कारों की दिशा में आगे बढ़ने के लिए खुली छूट दे दी और आज दुनिया जानती है कि सैम पित्रोदा के उसी प्रयास का नतीजा है कि संचार क्रान्ति आ चुकी है . संचार क्रान्ति की दुनिया में भारत अग्रणी देश है . दुनिया भर की कम्पनियां भारत में काम करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं . दुनिया भर के काल सेंटर , इन्फार्मेशन टेक्नालोजी के क्षेत्र में निर्यात सब उसी संचार क्रान्ति का नतीजा है . सैम पित्रोदा के आने के पहले टेलीफोन विभाग के बाहर लोग लाइन में खड़े होते थे और ट्रंककाल करने की लाइन लगती थी. आज सब की जेब में ऐसी मशीन रहती है कि दुनिया के किसी कोने में आसानी से बात हो जाती है . मेरे जैसे बहुत सारे लोगों ने अस्सी के दशक में सैम पित्रोदा के काम पर हो रहे खर्च को राजीव गांधी की सरकार के शौक़ की चीज़ माना था . बाद में हमने अपनी राय बदली और अब हम भी उसी संचार क्रान्ति का आनंद ले रहे हैं.
सैम पित्रोदा ने फिर आवाज़ दी है कि इस बार ज्ञान की क्रान्ति लाने की ज़रुरत है . जब तक बच्चे लीक से हट कर नई शिक्षा नहीं हासिल करेगें तब तक कुछ नहीं होने वाला है . शिक्षा के परंपरागत हथियारों को भूल कर नए हथियारों के ज़रिये ही ज्ञान के क्षेत्र में क्रान्ति लायी जा सकती है .उनकी कोशिश है कि मैकाले ने जिस तरह की शिक्षा की बात की थी उस से आविष्कार करने वाले दिमाग नहीं पैदा होगें . शिक्षा की तरकीबों में मौलिक बदलाव की ज़रुरत है . उसके बिना काम नहीं चलने वाला है .सैम पित्रोदा का पुराना रिकार्ड ऐसा है कि उनकी बात पर विश्वास करके लाभ होगा. इसलिए अब अपने देश को ऐसे नौजवानों का स्वागत करने को तैयार हो जाना चाहिए जिनका दिमाग आविष्कार की तरफ मुड़ चुका हो
सैम पित्रोदा ने एक नई बात कहना शुरू कर दिया है . उनकी बात को गंभीरता से लेने की ज़रुरत इसलिए है कि मेरे जैसे जिन लोगों ने १९८४ में उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया था,बाद में उन्हें पछताना पड़ा था. उन दिनों अपने देश में टेलीफोन होना स्टेटस सिम्बल माना जाता था. बहुत कम लोगों के घरों में टेलीफोन के कनेक्शन होते थे . टेलीफोन लगाने के लिए दरखास्त देने के कई साल बाद लोगों के नंबर आते थे. इंदिरा गाँधी का राज था और टेलीफोन का काम देखने वाला मंत्रालय ऐसे मंत्री के हवाले कर दिया जाता था जिसकी राजनीतिक हैसियत बहुत मामूली होती थी. . जिसको सज़ा देनी हो वही संचार मंत्री बनाया जाता था. सैम पित्रोदा उन दिनों अमरीका में बहुत नाम कमा चुके थे ,संचार के क्षेत्र में उनका बड़ा नाम था . बताते हैं कि उनके अंदर मातृभूमि के प्रति प्रेम इतना ज्यादा था कि उन्होंने अपना अमरीका का बहुत बड़ा कारोबार छोड़कर भारत में सूचना क्रान्ति की बुनियाद रखने की योजना बनायी .किसी परिचित के हवाले से तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी से मिले .इंदिरा जी ने उनकी बात सुनी और उनको लगभग टाल दिया . लेकिन उनका दिल रखने के लिए उन्हें राजीव गाँधी के पास भेज दिया . राजीव गाँधी उन दिनों राजनीति में शुरुआती प्रशिक्षण ले रहे थे . इंदिरा गाँधी के सामने सैम पित्रोदा ने जो प्रस्ताव रखा था ,उसी को उन्होंने राजीव गाँधी को सुना दिया . राजीव गाँधी इलेक्ट्रानिक गैजेट्स के बहुत शौक़ीन थे. उन्होंने सैम पित्रोदा की बात को समझा और उन्हें फिर इंदिरा गाँधी के सामने पेश किया . बेटे के कहने पर इंदिरा गाँधी ने कुछ धन की व्यवस्था कर दी और देश में संचार क्रान्ति की बुनियाद पड़ गयी . उस दौर में सब को मालूम था कि इंदिरा जी ने सैम सैम पित्रोदा को गंभीरता से नहीं लिया था लेकिन अपने बेटे की बात मान कर उनको कुछ काम दे दिया था. हालांकि यह सच है कि सैम पित्रोदा किसी काम की तलाश में नहीं थे ,वे अपने देश में संचार की व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहते थे. बहरहाल उसके बाद ही सी-डाट की शुरुआत हुई और टेलीफोन टेक्नालोजी के क्षेत्र में दुनिया के बड़े बड़े दिग्गज सैम पित्रोदा के ज्ञान का लोहा मानने लगे. राजीव गाँधी जब प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने सैम पित्रोदा को अपने आविष्कारों की दिशा में आगे बढ़ने के लिए खुली छूट दे दी और आज दुनिया जानती है कि सैम पित्रोदा के उसी प्रयास का नतीजा है कि संचार क्रान्ति आ चुकी है . संचार क्रान्ति की दुनिया में भारत अग्रणी देश है . दुनिया भर की कम्पनियां भारत में काम करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं . दुनिया भर के काल सेंटर , इन्फार्मेशन टेक्नालोजी के क्षेत्र में निर्यात सब उसी संचार क्रान्ति का नतीजा है . सैम पित्रोदा के आने के पहले टेलीफोन विभाग के बाहर लोग लाइन में खड़े होते थे और ट्रंककाल करने की लाइन लगती थी. आज सब की जेब में ऐसी मशीन रहती है कि दुनिया के किसी कोने में आसानी से बात हो जाती है . मेरे जैसे बहुत सारे लोगों ने अस्सी के दशक में सैम पित्रोदा के काम पर हो रहे खर्च को राजीव गांधी की सरकार के शौक़ की चीज़ माना था . बाद में हमने अपनी राय बदली और अब हम भी उसी संचार क्रान्ति का आनंद ले रहे हैं.
सैम पित्रोदा ने फिर आवाज़ दी है कि इस बार ज्ञान की क्रान्ति लाने की ज़रुरत है . जब तक बच्चे लीक से हट कर नई शिक्षा नहीं हासिल करेगें तब तक कुछ नहीं होने वाला है . शिक्षा के परंपरागत हथियारों को भूल कर नए हथियारों के ज़रिये ही ज्ञान के क्षेत्र में क्रान्ति लायी जा सकती है .उनकी कोशिश है कि मैकाले ने जिस तरह की शिक्षा की बात की थी उस से आविष्कार करने वाले दिमाग नहीं पैदा होगें . शिक्षा की तरकीबों में मौलिक बदलाव की ज़रुरत है . उसके बिना काम नहीं चलने वाला है .सैम पित्रोदा का पुराना रिकार्ड ऐसा है कि उनकी बात पर विश्वास करके लाभ होगा. इसलिए अब अपने देश को ऐसे नौजवानों का स्वागत करने को तैयार हो जाना चाहिए जिनका दिमाग आविष्कार की तरफ मुड़ चुका हो
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Saturday, July 9, 2011
पाक प्रधानमंत्री ने कहा -उनके मुल्क के अस्तित्व को ख़तरा
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान बुरी तरह से आतंकवाद के घेरे में फंस गया है.वहां के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी ने बुधवार को अपने मुल्क की परेशानी का बहुत ही साफ़ शब्दों में उल्लेख किया . बहुत ही दुखी मन से उन्होंने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ जो लड़ाई उनका देश लड़ रहा है, उसमें सफल होना बहुत ज़रूरी है . उन्होंने आगाह किया कि अगर पाकिस्तानी राष्ट्र के अस्तित्व को बचाना है तो सरकार और देश की जनता को इस लड़ाई में फतह हासिल करनी पड़ेगी. पाकिस्तानी प्रधान मंत्री क यह दर्द जायज़ है . बहुत तकलीफ होती है जब हम देखते हैं कि पाकिस्तान पूरी तरह से आजकल आतंकवाद की ज़द में है . भारत और पाकिस्तान की अंदरूनी हालात पर जब नज़र डालते हैं तो साफ़ नज़र आता है कि गलत राजनीतिक फैसलों के चलते राष्ट्रों की क्या फजीहत हो सकती है .भारत और पाकिस्तान एक ही दिन ब्रिटिश गुलामी से आज़ाद हुए थे.भारत ने सभी धर्मों को सम्मान देने की राजनीति को अपने संविधान की बुनियाद में डाल दिया . पाकिस्तान के संस्थापक,मुहम्मद अली जिन्नाह भी वही चाहते थे लेकिन वह नहीं हो सका.उनकी मृत्यु के बड़ा पाकिस्तान में ऐसे लोगों की सत्ता कायम हो गयी जो बहुत ही हलके लोग थे .आज आलम यह है कि भारत एक सुपरपावर बनने के रास्ते पर है और पाकिस्तान का प्रधानमंत्री स्वीकार कर रहा है कि जिस आतंकवाद को पाकिस्तानी हुक्मरान ने भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए शुरू किया और पाला पोसा उसी के चलते आज पाकिस्तानी राष्ट्र के सामने अस्तित्व का सवाल पैदा हो गया है . हालांकि जब पाकिस्तान के पूर्व फौजी तानाशाह,जनरल जिया उल हक ने आतंकवाद को जिहाद का नाम देने की कोशिश की थी.हो सकता है ऐसा रहा भी हो लेकिन आज तो यह कुछ लोगों का बाकायदा धंधा बन चुका है.पाकिस्तानी समाज में जिस तरह से रेडिकल तत्व हावी हुए हैं वह किसी भी सरकार के लिए मुसीबत बन सकते हैं . युसूफ रजा गीलानी अपने देश के शहर, मिंगोरा में आयोजित रेडिकल तत्वों को खत्म करने के राष्ट्रीय सेमिनार में भाषण कर रहे थे.उन्होंने दावा किया कि वे अपने देश से आतंकवाद को ख़त्म कर देगें.उनको भरोसा है कि उनके देश की जनता इस मुहिम में पाकिस्तान की सरकार को पूरी मदद करेगी. उनके हिसाब से पाकिस्तान आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है .पाकिस्तान की सरकार की नीयत पर बाकी दुनिया में भरोसा नहीं किया जा रहा है . इस बात का अंदाज़ इस सेमिनार में भी लग गया .पाकिस्तान में आतंकवाद के फलने फूलने में वहां की फौज और आई एस आई का बड़ा हाथ माना जाता है लेकिन इस सेमिनार में पाकिस्तानी फौज़ के मुखिया जनरल परवेज़ अशफाक कयानी ने भी भाषण किया . ज़ाहिर है कि प्रधान मंत्री गीलानी ने जो भी बातें कहीं वे अमरीका और भारत को नज़र में रख कर कहीं गयी थीं क्योंकि यही दो मुल्क पाकिस्तान से बार बार निवेदन कर रहे हैं कि है वह अपने देश से आतंकवाद का खात्मा करे. हालांकि यह भी उतना ही सच है कि न तो अमरीका और न ही भारत को यह विश्वास है कि पाकिस्तानी फौज आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर क़दम उठायेगी. कुछ संवेदन हीन लोग पाकिस्तानी आतंकवाद को इस्लामी आतंकवाद भी कहते हैं . यह बहुत ही गलत बात है क्योंकि आतंकवाद इस्लामी नहीं हो सकता. इस्लाम में आतंकवाद की कोई गुंजाइश नहीं है .वह स्वार्थी लोगों की तरफ से राजनीतिक फायदे के लिए किया जाने वाला काम है . मुलिम नौजवानों के शामिल होने की वजह से उसे 'इस्लामी आतंकवाद' नाम देने की कोशिश की जाती है . जो कि सरासर गलत है . अमरीकी अखबारों, भारतीय दक्षिणपंथी राजनेताओं और अमरीकी सरकार की तरफ से कोशिश होती है और उन्हें इस प्रचार में आंशिक सफलता भी मिलती है .
सच्चाई यह है कि अगर सही माहौल मिले तो मुसलमान आतंक को कभी भी राजनीतिक हथियार नहीं बनाएगा. जो अमरीका, पाकिस्तान और पाकिस्तानी मुसलमानों को लगभग पूरी तरह से आतंकवाद का केंद्र मानता है वही अमरीका भारत के मुसलमानों को आतंकवाद से बहुत दूर मानता है . यह देखना दिलचस्प होगा कि पिछले दिनों भारत में तैनात अमरीकी राजदूत डेविड मुलफोर्ड ने समय समय पर अपनी सरकार के पास जो गुप्त रिपोर्टें भेजी थीं ,उसमें उन्होंने साफ़ कहा था को भारत में पंद्रह करोड़ से ज्यादा मुसलमान हैं लेकिन वे अपने आप को हर तरह की आतंकवादी गतिविधियों से दूर रखते हैं . उन्होंने दावा किया कि भारत के मुसलमान अपने देश के जीवंत लोकतंत्र में पूरी तरह से शामिल हैं .साझा संस्कृति पर गर्व करते हैं और भारत के अल्पसंख्यक राष्ट्रवादी हैं. अमरीकी राजदूत का यह कथन किसी कूटनीतिक सभा में दिया भाषण नहीं है . यह विकीलीक्स के हवाले से दुनिया को मालूम हुआ है और यह उन गुप्त दस्तावजों का हिस्सा है जो प्रतिष्ठित अखबार ' हिन्दू 'के सहयोग से विकीलीक्स ने भारत में जारी किया था.डिस्पैच में लिखा है कि भारत के बहुसंख्यक मुसलमान उदारवादी राजनीति में विश्वास करते हैं और अपने देश के उद्योग और समाज में अच्छे मुकाम पर पंहुचने की कोशिश करते हैं .उन्होंने दावा किया कि बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम नौजवान मुख्य धारा में ही अपनी तरक्की के अवसर तलाशते हैं इसलिए यहाँ से आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के लिए रंगरूट नहीं मिल रहे हैं .डेविड मुलफोर्ड ने लिखा है कि भारत में भी इस्लाम में विश्वास करने वाले लोग कई समुदायों में बँटे हुए हैं लेकिन वे सभी राजनीति के सेकुलर धाराओं में हे एसक्रिया होते हैं . धार्मिक अपील वाले संगठनों को भारत में कोई भी समर्थन नहीं मिलता . वे हाशिये पर ही रहते हैं .जबकि भारत में सभी धर्मों के नौजवानों के हीरो आजकल मुस्लिम नौजवान ही हैं . मुलफोर्ड के डिस्पैच में शाहरुख खां ,आमिर खान और सलमान खान का ज़िक्र भी है जो सभी धर्मों के नौजवानों के प्रिय हैं.
अजीब बात है कि शुरू से की पाकिस्तान के साथ खड़े होने वाले अमरीका को अब पाकिस्तान पर भरोसा नहीं है जबकि अमरीका ने पाकिस्तान के बराबर साबित करने के चक्कर में हमेशा से ही भारतक अविरोध किया था . १९७१ के बंगलादेश मुक्ति संग्रामके दौरान तो पाकिस्तान की फौजी हुकूमत को बचाए रखने के लिए उसने भारत पर सातवें बेडे के हमले की योजना भी बना दी थी .लेकिन आज उसी अमरीका को भारत में जीवंत लोकतंत्र नज़र आ रहा है जबकि पाकिस्तान को वह आतंकवादी देश घोषित करने की योजना पर काम कर रहा है.
पाकिस्तान बुरी तरह से आतंकवाद के घेरे में फंस गया है.वहां के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी ने बुधवार को अपने मुल्क की परेशानी का बहुत ही साफ़ शब्दों में उल्लेख किया . बहुत ही दुखी मन से उन्होंने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ जो लड़ाई उनका देश लड़ रहा है, उसमें सफल होना बहुत ज़रूरी है . उन्होंने आगाह किया कि अगर पाकिस्तानी राष्ट्र के अस्तित्व को बचाना है तो सरकार और देश की जनता को इस लड़ाई में फतह हासिल करनी पड़ेगी. पाकिस्तानी प्रधान मंत्री क यह दर्द जायज़ है . बहुत तकलीफ होती है जब हम देखते हैं कि पाकिस्तान पूरी तरह से आजकल आतंकवाद की ज़द में है . भारत और पाकिस्तान की अंदरूनी हालात पर जब नज़र डालते हैं तो साफ़ नज़र आता है कि गलत राजनीतिक फैसलों के चलते राष्ट्रों की क्या फजीहत हो सकती है .भारत और पाकिस्तान एक ही दिन ब्रिटिश गुलामी से आज़ाद हुए थे.भारत ने सभी धर्मों को सम्मान देने की राजनीति को अपने संविधान की बुनियाद में डाल दिया . पाकिस्तान के संस्थापक,मुहम्मद अली जिन्नाह भी वही चाहते थे लेकिन वह नहीं हो सका.उनकी मृत्यु के बड़ा पाकिस्तान में ऐसे लोगों की सत्ता कायम हो गयी जो बहुत ही हलके लोग थे .आज आलम यह है कि भारत एक सुपरपावर बनने के रास्ते पर है और पाकिस्तान का प्रधानमंत्री स्वीकार कर रहा है कि जिस आतंकवाद को पाकिस्तानी हुक्मरान ने भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए शुरू किया और पाला पोसा उसी के चलते आज पाकिस्तानी राष्ट्र के सामने अस्तित्व का सवाल पैदा हो गया है . हालांकि जब पाकिस्तान के पूर्व फौजी तानाशाह,जनरल जिया उल हक ने आतंकवाद को जिहाद का नाम देने की कोशिश की थी.हो सकता है ऐसा रहा भी हो लेकिन आज तो यह कुछ लोगों का बाकायदा धंधा बन चुका है.पाकिस्तानी समाज में जिस तरह से रेडिकल तत्व हावी हुए हैं वह किसी भी सरकार के लिए मुसीबत बन सकते हैं . युसूफ रजा गीलानी अपने देश के शहर, मिंगोरा में आयोजित रेडिकल तत्वों को खत्म करने के राष्ट्रीय सेमिनार में भाषण कर रहे थे.उन्होंने दावा किया कि वे अपने देश से आतंकवाद को ख़त्म कर देगें.उनको भरोसा है कि उनके देश की जनता इस मुहिम में पाकिस्तान की सरकार को पूरी मदद करेगी. उनके हिसाब से पाकिस्तान आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है .पाकिस्तान की सरकार की नीयत पर बाकी दुनिया में भरोसा नहीं किया जा रहा है . इस बात का अंदाज़ इस सेमिनार में भी लग गया .पाकिस्तान में आतंकवाद के फलने फूलने में वहां की फौज और आई एस आई का बड़ा हाथ माना जाता है लेकिन इस सेमिनार में पाकिस्तानी फौज़ के मुखिया जनरल परवेज़ अशफाक कयानी ने भी भाषण किया . ज़ाहिर है कि प्रधान मंत्री गीलानी ने जो भी बातें कहीं वे अमरीका और भारत को नज़र में रख कर कहीं गयी थीं क्योंकि यही दो मुल्क पाकिस्तान से बार बार निवेदन कर रहे हैं कि है वह अपने देश से आतंकवाद का खात्मा करे. हालांकि यह भी उतना ही सच है कि न तो अमरीका और न ही भारत को यह विश्वास है कि पाकिस्तानी फौज आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर क़दम उठायेगी. कुछ संवेदन हीन लोग पाकिस्तानी आतंकवाद को इस्लामी आतंकवाद भी कहते हैं . यह बहुत ही गलत बात है क्योंकि आतंकवाद इस्लामी नहीं हो सकता. इस्लाम में आतंकवाद की कोई गुंजाइश नहीं है .वह स्वार्थी लोगों की तरफ से राजनीतिक फायदे के लिए किया जाने वाला काम है . मुलिम नौजवानों के शामिल होने की वजह से उसे 'इस्लामी आतंकवाद' नाम देने की कोशिश की जाती है . जो कि सरासर गलत है . अमरीकी अखबारों, भारतीय दक्षिणपंथी राजनेताओं और अमरीकी सरकार की तरफ से कोशिश होती है और उन्हें इस प्रचार में आंशिक सफलता भी मिलती है .
सच्चाई यह है कि अगर सही माहौल मिले तो मुसलमान आतंक को कभी भी राजनीतिक हथियार नहीं बनाएगा. जो अमरीका, पाकिस्तान और पाकिस्तानी मुसलमानों को लगभग पूरी तरह से आतंकवाद का केंद्र मानता है वही अमरीका भारत के मुसलमानों को आतंकवाद से बहुत दूर मानता है . यह देखना दिलचस्प होगा कि पिछले दिनों भारत में तैनात अमरीकी राजदूत डेविड मुलफोर्ड ने समय समय पर अपनी सरकार के पास जो गुप्त रिपोर्टें भेजी थीं ,उसमें उन्होंने साफ़ कहा था को भारत में पंद्रह करोड़ से ज्यादा मुसलमान हैं लेकिन वे अपने आप को हर तरह की आतंकवादी गतिविधियों से दूर रखते हैं . उन्होंने दावा किया कि भारत के मुसलमान अपने देश के जीवंत लोकतंत्र में पूरी तरह से शामिल हैं .साझा संस्कृति पर गर्व करते हैं और भारत के अल्पसंख्यक राष्ट्रवादी हैं. अमरीकी राजदूत का यह कथन किसी कूटनीतिक सभा में दिया भाषण नहीं है . यह विकीलीक्स के हवाले से दुनिया को मालूम हुआ है और यह उन गुप्त दस्तावजों का हिस्सा है जो प्रतिष्ठित अखबार ' हिन्दू 'के सहयोग से विकीलीक्स ने भारत में जारी किया था.डिस्पैच में लिखा है कि भारत के बहुसंख्यक मुसलमान उदारवादी राजनीति में विश्वास करते हैं और अपने देश के उद्योग और समाज में अच्छे मुकाम पर पंहुचने की कोशिश करते हैं .उन्होंने दावा किया कि बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम नौजवान मुख्य धारा में ही अपनी तरक्की के अवसर तलाशते हैं इसलिए यहाँ से आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के लिए रंगरूट नहीं मिल रहे हैं .डेविड मुलफोर्ड ने लिखा है कि भारत में भी इस्लाम में विश्वास करने वाले लोग कई समुदायों में बँटे हुए हैं लेकिन वे सभी राजनीति के सेकुलर धाराओं में हे एसक्रिया होते हैं . धार्मिक अपील वाले संगठनों को भारत में कोई भी समर्थन नहीं मिलता . वे हाशिये पर ही रहते हैं .जबकि भारत में सभी धर्मों के नौजवानों के हीरो आजकल मुस्लिम नौजवान ही हैं . मुलफोर्ड के डिस्पैच में शाहरुख खां ,आमिर खान और सलमान खान का ज़िक्र भी है जो सभी धर्मों के नौजवानों के प्रिय हैं.
अजीब बात है कि शुरू से की पाकिस्तान के साथ खड़े होने वाले अमरीका को अब पाकिस्तान पर भरोसा नहीं है जबकि अमरीका ने पाकिस्तान के बराबर साबित करने के चक्कर में हमेशा से ही भारतक अविरोध किया था . १९७१ के बंगलादेश मुक्ति संग्रामके दौरान तो पाकिस्तान की फौजी हुकूमत को बचाए रखने के लिए उसने भारत पर सातवें बेडे के हमले की योजना भी बना दी थी .लेकिन आज उसी अमरीका को भारत में जीवंत लोकतंत्र नज़र आ रहा है जबकि पाकिस्तान को वह आतंकवादी देश घोषित करने की योजना पर काम कर रहा है.
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शेष नारायण सिंह
Wednesday, July 6, 2011
इन्हें मंत्री बनाना ही गलत था
शेष नारायण सिंह
आज अखबारों में एक दिलचस्प खबर छपी है कि केंद्रीय मंत्री मुरली देवड़ा ने प्रधान मंत्री से कहा है कि उन्हें मंत्री पद से मुक्त कर दिया जाए .इस खबर को पढ़ते ही तुरंत दिमाग में एक बात आई कि मुरली देवड़ा को मंत्री बनाया ही क्यों गया . उनको उस मंत्रिमंडल में जगह क्यों दी गयी जिसमें कभी सरदार पटेल और मौलाना आज़ाद जैसे लोग हुआ करते थे . यह उम्मीद करना कि आज के ज़माने में उन महान नेताओं की तरह के लोग राजनीति में शामिल होंगें, बेमतलब है .लेकिन ऐसे लोगों का भी शामिल होना खलता है जिनको जनता के हित की बात सोचने का एक दिन का भी अनुभव न हो .राजनीति में पचास और साठ के दशक में ऐसे लोगों की भरमार थी जो आज़ादी की लड़ाई के सिपाही रह चुके थे लेकिन सत्तर का दशक आते आते सब गड़बड़ हो गया .दिल्ली में इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्री बनने के बाद उनके छोटे बेटे संजय गाँधी का राज आ गया था.देश की राजनीति में मनमानी का युग आ गया था . ज़मीन से जुड़े नेताओं को अपमानित किया जाने लगा था . संजय गाँधी के हुक्म से राज्यों के नेता तैनात होने लगे. जो भी संजय गाँधी या उनके चेलों की सेवा में हाज़िर हो गया उसको ही राजनीति में भर्ती कर लिया गया. इस चक्कर में बहुत सारे ऐसे लोग राजनीति में आ गए जिनको कायदे से जेलों में होना चाहिए था . वही लोग देश के भाग्यविधाता बन गए. उन लोगों ने ही देश में दलालों का एक वर्ग तैयार कर दिया . दलाली एक संस्कृति के रूप में पैदा हो चुकी थी . अस्सी के दशक की शुरुआत में अरुण नेहरू की सर परस्ती में इन्हीं दलालों ने मामूली लेकिन महत्वाकांक्षी व्यापारियों को बड़े उद्योगपति बनने के सपने दिखाए . मुरली देवड़ा और धीरूभाई अम्बानी उसी दौर में मुंबई में यार्न के मामूली व्यापारी के रूप में मुंबई में काम करते थे . दिल्ली का रास्ता इन्होने देख लिया था . दोनों साथ साथ रहते थे. अपने लिए भी बहुत सारे लाइसेंस लिए और बाकी लोगों को भी लाइसेंस दिलवाए . दोनों में दोस्ती खूब गाढ़ी थी. सुबह की जहाज से मुंबई से दिल्ली आते और शाम को वापस चले जाते . लाइसेंस का ज़माना था . डी जी टी डी के अफसरों को दे दिला कर काम करवाते और वापस चले जाते . अस्सी में जब इंदिरा गाँधी दुबारा सत्ता में आयीं तब तक यह टोली बहुत प्रभावी हो चुकी थी . धीरूभाई जो चाहते थे वही होता था.अगर किसी को शक़ हो तो बाम्बे डाइंग के नस्ली वाडिया या सिंथेटिक धागे के पुराने कारोबारी कपल मेहरा के वंशजों से पूछ ले. आज भी मुरली देवड़ा पूरी तरह से धीरूभाई के परिवार के प्रति प्रतिबद्ध हैं . जो सी ए जी की रिपोर्ट आई है वह पिछले ३० वर्षों के इस इतिहास की रोशनी में साफ़ हो जाती है .ज़ाहिर है कि जनता को लाभ पंहुचाने का मुरली देवड़ा को कोई तजुर्बा नहीं है , वे किसी औद्योगिक घराने को ही लाभ पंहुचा सकते हैं . इसलिए उन्हें किसी ऐसे मंत्रालय का चार्ज देने का औचित्य समझ में नहीं आया जो पेट्रोलियम जैसी अहम कमोडिटी का विभाग हो जिसकी वजह से महंगाई के बढ़ने पर सीधा असर पड़ता हो. उनके मित्र धीरूभाई अम्बानी का परिवार जिस विभाग की नीतियों से सीधे तौर पर लाभान्वित होता हो .सी ए जी की रिपोर्ट ने तो उनके कारनामों का पोस्ट मार्टम भर किया है . आज जनता त्राहि त्राहि कर रही है और कांग्रेस की सरकार महंगाई बढाने के लिए ज़िम्मेदार मंत्री और उनके साथियों पर कोई कार्रवाई करने की बात तक नहीं सोच रही है . अखबारों में वह बयान छपवा रहा है कि वह मंत्री पद छोड़ देना चाहता है . मुरली देवड़ा जैसे लोगों को मंत्री ही नहीं बनाया जाना चाहिए था .बहर हाल उम्मीद की जानी चाहिए कि मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद इस तरह के लोग फिर से मंत्रिपरिषद की शोभा न बनें .
आज अखबारों में एक दिलचस्प खबर छपी है कि केंद्रीय मंत्री मुरली देवड़ा ने प्रधान मंत्री से कहा है कि उन्हें मंत्री पद से मुक्त कर दिया जाए .इस खबर को पढ़ते ही तुरंत दिमाग में एक बात आई कि मुरली देवड़ा को मंत्री बनाया ही क्यों गया . उनको उस मंत्रिमंडल में जगह क्यों दी गयी जिसमें कभी सरदार पटेल और मौलाना आज़ाद जैसे लोग हुआ करते थे . यह उम्मीद करना कि आज के ज़माने में उन महान नेताओं की तरह के लोग राजनीति में शामिल होंगें, बेमतलब है .लेकिन ऐसे लोगों का भी शामिल होना खलता है जिनको जनता के हित की बात सोचने का एक दिन का भी अनुभव न हो .राजनीति में पचास और साठ के दशक में ऐसे लोगों की भरमार थी जो आज़ादी की लड़ाई के सिपाही रह चुके थे लेकिन सत्तर का दशक आते आते सब गड़बड़ हो गया .दिल्ली में इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्री बनने के बाद उनके छोटे बेटे संजय गाँधी का राज आ गया था.देश की राजनीति में मनमानी का युग आ गया था . ज़मीन से जुड़े नेताओं को अपमानित किया जाने लगा था . संजय गाँधी के हुक्म से राज्यों के नेता तैनात होने लगे. जो भी संजय गाँधी या उनके चेलों की सेवा में हाज़िर हो गया उसको ही राजनीति में भर्ती कर लिया गया. इस चक्कर में बहुत सारे ऐसे लोग राजनीति में आ गए जिनको कायदे से जेलों में होना चाहिए था . वही लोग देश के भाग्यविधाता बन गए. उन लोगों ने ही देश में दलालों का एक वर्ग तैयार कर दिया . दलाली एक संस्कृति के रूप में पैदा हो चुकी थी . अस्सी के दशक की शुरुआत में अरुण नेहरू की सर परस्ती में इन्हीं दलालों ने मामूली लेकिन महत्वाकांक्षी व्यापारियों को बड़े उद्योगपति बनने के सपने दिखाए . मुरली देवड़ा और धीरूभाई अम्बानी उसी दौर में मुंबई में यार्न के मामूली व्यापारी के रूप में मुंबई में काम करते थे . दिल्ली का रास्ता इन्होने देख लिया था . दोनों साथ साथ रहते थे. अपने लिए भी बहुत सारे लाइसेंस लिए और बाकी लोगों को भी लाइसेंस दिलवाए . दोनों में दोस्ती खूब गाढ़ी थी. सुबह की जहाज से मुंबई से दिल्ली आते और शाम को वापस चले जाते . लाइसेंस का ज़माना था . डी जी टी डी के अफसरों को दे दिला कर काम करवाते और वापस चले जाते . अस्सी में जब इंदिरा गाँधी दुबारा सत्ता में आयीं तब तक यह टोली बहुत प्रभावी हो चुकी थी . धीरूभाई जो चाहते थे वही होता था.अगर किसी को शक़ हो तो बाम्बे डाइंग के नस्ली वाडिया या सिंथेटिक धागे के पुराने कारोबारी कपल मेहरा के वंशजों से पूछ ले. आज भी मुरली देवड़ा पूरी तरह से धीरूभाई के परिवार के प्रति प्रतिबद्ध हैं . जो सी ए जी की रिपोर्ट आई है वह पिछले ३० वर्षों के इस इतिहास की रोशनी में साफ़ हो जाती है .ज़ाहिर है कि जनता को लाभ पंहुचाने का मुरली देवड़ा को कोई तजुर्बा नहीं है , वे किसी औद्योगिक घराने को ही लाभ पंहुचा सकते हैं . इसलिए उन्हें किसी ऐसे मंत्रालय का चार्ज देने का औचित्य समझ में नहीं आया जो पेट्रोलियम जैसी अहम कमोडिटी का विभाग हो जिसकी वजह से महंगाई के बढ़ने पर सीधा असर पड़ता हो. उनके मित्र धीरूभाई अम्बानी का परिवार जिस विभाग की नीतियों से सीधे तौर पर लाभान्वित होता हो .सी ए जी की रिपोर्ट ने तो उनके कारनामों का पोस्ट मार्टम भर किया है . आज जनता त्राहि त्राहि कर रही है और कांग्रेस की सरकार महंगाई बढाने के लिए ज़िम्मेदार मंत्री और उनके साथियों पर कोई कार्रवाई करने की बात तक नहीं सोच रही है . अखबारों में वह बयान छपवा रहा है कि वह मंत्री पद छोड़ देना चाहता है . मुरली देवड़ा जैसे लोगों को मंत्री ही नहीं बनाया जाना चाहिए था .बहर हाल उम्मीद की जानी चाहिए कि मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद इस तरह के लोग फिर से मंत्रिपरिषद की शोभा न बनें .
Tuesday, July 5, 2011
यू पी में २०१२ का युद्ध मायावती और बीजेपी के बीच होने की संभावना बढ़ी
शेष नारायण सिंह
राजनाथ सिंह को अपनी पार्टी का उत्तर प्रदेश में आला मालिक बनाकर बीजेपी ने उत्तरप्रदेश विधान सभा के चुनाव की तैयारियों को टाप गियर में डाल दिया है.कांग्रेस के दो सबसे ताक़तवर महासचिव पिछले कई महीने से उत्तर प्रदेश के बारे में ही चिंता करते पाए जा रहे हैं . ग्रेटर नोयडा के गाँव भट्टा और पारसौल में राहुल गाँधी का नाटकीय अंदाज़ मीडिया के लिए बहुत ही अच्छे विजुवल का मौक़ा था , उनके सबसे करीबी महासचिव दिग्विजय सिंह भी आजकल वही राग चला रहे हैं. दिग्विजय सिंह और राहुल गाँधी को उम्मीद है कि अगर किसी एक वर्ग का वोट अपने नाम मुक़म्मल तरीके से ले लिया जाए तो मुसलमानों के वोट कांग्रेस को मिल जायेगें . इसी रणनीति के तहत अब किसानों के एक बड़े वर्ग को साथ लेने की कोशिश चल रही है . अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट , गूजर और राजपूत किसानों में कांग्रेस की आंशिक पैठ बन गयी तो इस इलाके के प्रभावशाली मुसलमानों को कांग्रेस की तरफ खींचने की कोशिश के कुछ कांग्रेस के लिए उत्साहवर्धक नतीजे हो सकते हैं . इसके पहले दिग्विजय सिंह ने मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश को ठाकुरों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश की थी. उसी अभियान में उन्होंने अमर सिंह को भी इस्तेमाल करने की योजना बनाई थी लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली. राज्य के मज़बूत राजपूत कांग्रेसी सांसदों ने दिग्विजय सिंह को जमने नहीं दिया . जगदम्बिका पाल , संजय सिंह , हर्षवर्धन आदि ऐसे कांग्रेसी सांसद हैं जो अपने आपको दिग्विजय सिंह से बड़ा नेता मानते हैं . जब दिग्विजय सिंह को इस खेल का अंदाज़ लगा तो उन्होंने ठाकुरों वाले प्रोजेक्ट को तिलांजलि दे दी और अब मुस्लिम बहुल इलाकों में सभी जातियों के किसानों के हितचिंतन की पिच पर राहुल गाँधी को घुमा रहे हैं. भट्टा पारसौल और अलीगढ की सभा का मकसद यही है . लेकिन दिग्विजय सिंह जैसा मंजा हुआ खिलाड़ी यह कैसे भूल जाता है कि " किसान " नाम का कोई वोट बैंक नहीं होता. किसान आम तौर पर जातियों में बंटा होता है और जब वोट देने की बात आती है तो वह अपनी जाति के हिसाब से वोट देता है .इसलिए किसान को केंद्र में रख कर राजनीतिक अभियान चलाने का दिग्विजय सिंह का कार्यक्रम राहुल गाँधी को व्यस्त रखने से ज्यादा खुछ नहीं है .
उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य फिरोजाबाद लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव बहुत अजीब तरीके से बदल गया था . जब फिरोजबाद जैसी सीट पर मुलायम सिंह यादव की पुत्रवधू चुनाव हार गयी तो राजनीति के बड़े बड़े जानकार सन्न रह गए थे. लेकिन सच्चाई यह है कि माहौल बदल गया था . उस चुनाव में मुलायम सिंह यादव को शिकस्त देने के बाद कांग्रेस के हौसले भी बढ़ गए थे. उसे भी उत्तर प्रदेश की सीधी लड़ाई को त्रिकोणीय करने की रणनीति पर काम करने का मौक़ा मिल गया था . उन दिनों ऐसा लगता था कि बीजेपी ने राज्य में हार मान ली है और मायावती की ताक़त के सामने उसकी कोई औकात नहीं है . शायद इसी लिए बीजेपी ने कुछ मनोरंजक नेताओं को सामने करने का फैसला किया था . वरुण गाँधी जैसे लोग उसी योजना के तहत सामने लाये गए थे . दिल्ली के कुछ शहरी नेताओं को उत्तर प्रदेश में रणनीति संचालन का काम दिया गया . पूरा माहौल ऐसा था कि लगता था कि बीजेपी ने स्वीकार कर लिया है कि वह अब देश के सबसे बड़े राज्य में हाशिये पर ही रहेगी. कांग्रेस ने लोकसभा २००९ में कई राजपूतों को जिताया था तो वह राजपूतों को अपने साथ लाने की योजना पर काम कर रही थी. उम्मीद यह थी कि अगर कांग्रेस के जीतने की कोई उम्मीद बनेगी तो मुसलमान उसके साथ चला जाएगा. इस बात में दो राय नहीं है कि मुसलमानों के बीच में कांग्रेस की विश्वसनीयता बढ़ रही है . लेकिन मुसलमान किसी भी कीमत पर बीजेपी को नहीं जीतने देना चाहता .अगर कांग्रेस के साथ कोई और वोट बैंक न जुड़ा तो मुसलमान का बीजेपी को हराने की बजाय उसे जिताने में काम आ जायेगा . रायबरेली ,अमेठी और प्रतापगढ़ के अलावा उत्तर प्रदेश के किसी जिले में ठाकुर अब कांग्रेस के साथ नहीं है. यह बात बीजेपी के रणनीतिकारों की समझ में आ गयी है .राजनाथ सिंह को उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का पूरी तरह से इंचार्ज बनाने के पीछे पार्टी की मंशा यह है कि एक राष्ट्रीय स्तर के एक बड़े नेता के क़द का फायदा उठाया जाए. इस बीच मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को भी यू पी में लगा दिया गया है . हालांकि मायावती के सामने उनके टिक पाने की संभावना बहुत कम है लेकिन ज़मीन से जुडी एक महिला राजनेता की मौजूदगी से लाभ तो होगा ही.उधर मीडिया में मौजूद आर एस एस के कार्यकर्ताओं ने भी अपना काम शुरू कर दिया है और मायावती की सरकार के खिलाफ रोज़ ही कुछ न कुछ प्रमुखता से सुर्ख़ियों में मिल रहा है.राजनाथ सिंह को कमान सौंपने के बीजेपी के फैसले में यह भी निहित है कि जो तिकड़म की राजनीति करने वाले नेता यू पी में मुखिया बने बैठे थे अब वे आराम करेगें. प्रतिष्ठित अखबार हिन्दू ने लिखा है कि उत्तरप्रदेश में जितने भी बीजेपी नेता है लगभग सभी कभी न कभी वर्तमान मुख्यमंत्री मायावती के समर्थक रह चुके हैं . राजनाथ सिंह अकेले ऐसे बीजेपी नेता हैं जिनकी छवि मायावती के धुर विरोधी की है . ऐसी हालत में उनको वे वोट भी मिल सकते हैं जो मौजूदा सरकार को हराना चाहते हैं . जहां तक मायावती का सवाल है उत्तर प्रदेश में सबसे मज़बूत जनाधार उनका ही है . और अगर यह लगा कि उनको सबसे बड़ी चुनौती बीजेपी से मिल रही है तो मुसलमान थोक में मायावती के साथ चले जायेगें . उस हालत में कांग्रेस और मुलायम सिंह दोनों ही कमज़ोर पड़ेगें और उत्तर प्रदेश की लड़ाई पूरी तरह से मायावती बनाम बीजेपी हो जायेगी . बाकी लोग केवल हाशिये के खिलाड़ी के रूप में ही उत्तर प्रदेश चुनाव २०१२ में शामिल हो सकेंगें.
राजनाथ सिंह को अपनी पार्टी का उत्तर प्रदेश में आला मालिक बनाकर बीजेपी ने उत्तरप्रदेश विधान सभा के चुनाव की तैयारियों को टाप गियर में डाल दिया है.कांग्रेस के दो सबसे ताक़तवर महासचिव पिछले कई महीने से उत्तर प्रदेश के बारे में ही चिंता करते पाए जा रहे हैं . ग्रेटर नोयडा के गाँव भट्टा और पारसौल में राहुल गाँधी का नाटकीय अंदाज़ मीडिया के लिए बहुत ही अच्छे विजुवल का मौक़ा था , उनके सबसे करीबी महासचिव दिग्विजय सिंह भी आजकल वही राग चला रहे हैं. दिग्विजय सिंह और राहुल गाँधी को उम्मीद है कि अगर किसी एक वर्ग का वोट अपने नाम मुक़म्मल तरीके से ले लिया जाए तो मुसलमानों के वोट कांग्रेस को मिल जायेगें . इसी रणनीति के तहत अब किसानों के एक बड़े वर्ग को साथ लेने की कोशिश चल रही है . अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट , गूजर और राजपूत किसानों में कांग्रेस की आंशिक पैठ बन गयी तो इस इलाके के प्रभावशाली मुसलमानों को कांग्रेस की तरफ खींचने की कोशिश के कुछ कांग्रेस के लिए उत्साहवर्धक नतीजे हो सकते हैं . इसके पहले दिग्विजय सिंह ने मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश को ठाकुरों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश की थी. उसी अभियान में उन्होंने अमर सिंह को भी इस्तेमाल करने की योजना बनाई थी लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली. राज्य के मज़बूत राजपूत कांग्रेसी सांसदों ने दिग्विजय सिंह को जमने नहीं दिया . जगदम्बिका पाल , संजय सिंह , हर्षवर्धन आदि ऐसे कांग्रेसी सांसद हैं जो अपने आपको दिग्विजय सिंह से बड़ा नेता मानते हैं . जब दिग्विजय सिंह को इस खेल का अंदाज़ लगा तो उन्होंने ठाकुरों वाले प्रोजेक्ट को तिलांजलि दे दी और अब मुस्लिम बहुल इलाकों में सभी जातियों के किसानों के हितचिंतन की पिच पर राहुल गाँधी को घुमा रहे हैं. भट्टा पारसौल और अलीगढ की सभा का मकसद यही है . लेकिन दिग्विजय सिंह जैसा मंजा हुआ खिलाड़ी यह कैसे भूल जाता है कि " किसान " नाम का कोई वोट बैंक नहीं होता. किसान आम तौर पर जातियों में बंटा होता है और जब वोट देने की बात आती है तो वह अपनी जाति के हिसाब से वोट देता है .इसलिए किसान को केंद्र में रख कर राजनीतिक अभियान चलाने का दिग्विजय सिंह का कार्यक्रम राहुल गाँधी को व्यस्त रखने से ज्यादा खुछ नहीं है .
उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य फिरोजाबाद लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव बहुत अजीब तरीके से बदल गया था . जब फिरोजबाद जैसी सीट पर मुलायम सिंह यादव की पुत्रवधू चुनाव हार गयी तो राजनीति के बड़े बड़े जानकार सन्न रह गए थे. लेकिन सच्चाई यह है कि माहौल बदल गया था . उस चुनाव में मुलायम सिंह यादव को शिकस्त देने के बाद कांग्रेस के हौसले भी बढ़ गए थे. उसे भी उत्तर प्रदेश की सीधी लड़ाई को त्रिकोणीय करने की रणनीति पर काम करने का मौक़ा मिल गया था . उन दिनों ऐसा लगता था कि बीजेपी ने राज्य में हार मान ली है और मायावती की ताक़त के सामने उसकी कोई औकात नहीं है . शायद इसी लिए बीजेपी ने कुछ मनोरंजक नेताओं को सामने करने का फैसला किया था . वरुण गाँधी जैसे लोग उसी योजना के तहत सामने लाये गए थे . दिल्ली के कुछ शहरी नेताओं को उत्तर प्रदेश में रणनीति संचालन का काम दिया गया . पूरा माहौल ऐसा था कि लगता था कि बीजेपी ने स्वीकार कर लिया है कि वह अब देश के सबसे बड़े राज्य में हाशिये पर ही रहेगी. कांग्रेस ने लोकसभा २००९ में कई राजपूतों को जिताया था तो वह राजपूतों को अपने साथ लाने की योजना पर काम कर रही थी. उम्मीद यह थी कि अगर कांग्रेस के जीतने की कोई उम्मीद बनेगी तो मुसलमान उसके साथ चला जाएगा. इस बात में दो राय नहीं है कि मुसलमानों के बीच में कांग्रेस की विश्वसनीयता बढ़ रही है . लेकिन मुसलमान किसी भी कीमत पर बीजेपी को नहीं जीतने देना चाहता .अगर कांग्रेस के साथ कोई और वोट बैंक न जुड़ा तो मुसलमान का बीजेपी को हराने की बजाय उसे जिताने में काम आ जायेगा . रायबरेली ,अमेठी और प्रतापगढ़ के अलावा उत्तर प्रदेश के किसी जिले में ठाकुर अब कांग्रेस के साथ नहीं है. यह बात बीजेपी के रणनीतिकारों की समझ में आ गयी है .राजनाथ सिंह को उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का पूरी तरह से इंचार्ज बनाने के पीछे पार्टी की मंशा यह है कि एक राष्ट्रीय स्तर के एक बड़े नेता के क़द का फायदा उठाया जाए. इस बीच मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को भी यू पी में लगा दिया गया है . हालांकि मायावती के सामने उनके टिक पाने की संभावना बहुत कम है लेकिन ज़मीन से जुडी एक महिला राजनेता की मौजूदगी से लाभ तो होगा ही.उधर मीडिया में मौजूद आर एस एस के कार्यकर्ताओं ने भी अपना काम शुरू कर दिया है और मायावती की सरकार के खिलाफ रोज़ ही कुछ न कुछ प्रमुखता से सुर्ख़ियों में मिल रहा है.राजनाथ सिंह को कमान सौंपने के बीजेपी के फैसले में यह भी निहित है कि जो तिकड़म की राजनीति करने वाले नेता यू पी में मुखिया बने बैठे थे अब वे आराम करेगें. प्रतिष्ठित अखबार हिन्दू ने लिखा है कि उत्तरप्रदेश में जितने भी बीजेपी नेता है लगभग सभी कभी न कभी वर्तमान मुख्यमंत्री मायावती के समर्थक रह चुके हैं . राजनाथ सिंह अकेले ऐसे बीजेपी नेता हैं जिनकी छवि मायावती के धुर विरोधी की है . ऐसी हालत में उनको वे वोट भी मिल सकते हैं जो मौजूदा सरकार को हराना चाहते हैं . जहां तक मायावती का सवाल है उत्तर प्रदेश में सबसे मज़बूत जनाधार उनका ही है . और अगर यह लगा कि उनको सबसे बड़ी चुनौती बीजेपी से मिल रही है तो मुसलमान थोक में मायावती के साथ चले जायेगें . उस हालत में कांग्रेस और मुलायम सिंह दोनों ही कमज़ोर पड़ेगें और उत्तर प्रदेश की लड़ाई पूरी तरह से मायावती बनाम बीजेपी हो जायेगी . बाकी लोग केवल हाशिये के खिलाड़ी के रूप में ही उत्तर प्रदेश चुनाव २०१२ में शामिल हो सकेंगें.
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शेष नारायण सिंह
Monday, July 4, 2011
पाकिस्तान में जो लोकतंत्र की बात करेगा, मारा जाएगा
(दैनिक जागरण से साभार )
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तानी हुकूमत की शह पर एक और मानवाधिकार कार्यकर्ता को मौत के घाट उतार दिया है . बलोचिस्तान के जाफराबाद जिले में मीर रुस्तम बारी को डेरा अल्लाहयार इलाके में उनके घर के सामने ही मोटरसाइकिल सवाल बंदूकधारियों ने मार डाला .उनकी मौके पर ही मौत हो गयी. यह पाकिस्तान की तथाकथित सिविलियन हुकूमत के उस अभियान की एक कड़ी मात्र है जिसमें फौज के इशारे पर उन लोगों को मार दिया जाता है जो सरकार और फौज के लिए मुश्किल पैदा करने की कोशिश कर रहे होते हैं . मीर रुस्तम बारी अपने ही राज्य बलोचिस्तान में घर बार छोड़कर भागने को मजबूर हुए बुगती और मारी क़बीलों के लोगों के हक की लड़ाई लड़ रहे थे.ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में किसी को मार डालना उसी तरह से हो गया है जैसे किसी पार्क में टहलना हो. अभी पिछले हफ्ते पाकिस्तानी रेंजर्स ने कराची शहर के बीचोबीच उन्नीस साल के एक लड़के, सरफ़राज़ शाह को राह चलते मार डाला था . पाकिस्तानी रेंजर्स भारत के बी एस एफ की तरह का संगठन है जो सीमा पर तैनात रहता है लेकिन कभी कभी आतंरिक सुरक्षा के काम में भी लगाया जाता है . सरफराज शाह की हत्या को सबने देखा क्योंकि किसी वीडियो कैमरामैन ने उसकी फिल्म उतार ली थी और न्यूज़ चैनलों ने उसे सार्वजनिक कर दिया था. सरफ़राज़ शाह की हत्या मीर रुस्तम बारी से अलग तरह की हत्या है . इस नौजवान को तो रेंजर्स के सिपाहियों ने मज़ा लेने के लिए मार डाला था अ, कहीं कोई राजनीतिक मंशा नहीं थी. इसीलिये यह हत्या ज्यादा खतरनाक मानी जा रही है क्योंकि जिस समाज में तफरीह के लिए किसी राह चलते इंसान को मार डाला जाए उसका अधोपतन लगभग पूरी तरह से मुक़म्मल माना जाता है .पूरे पाकिस्तान ने टी वी चैनलों पर देखा कि किस तरह रेंजर्स की गोली का शिकार होकर वह नौजवान चिल्लाता रहा कि उसे अस्पताल पंहुचा दिया जाय लेकिन कोई नहीं आया. सरफ़राज़ शाह की हत्या पाकिस्तानी राष्ट्र और समाज के लिए एक खतरे की घंटी है . क्योंकि जो पाकिस्तानी फौज और आई एस आई अब तक उन लोगों को मार रही थी जो हुकूमत के लिए मुश्किलें पैदा कर रहे थे और उसने राह चलते लोगों को अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया है . पाकिस्तान में रहने वाले बुद्धिजीवियों का कहना है कि देश बहुत ही बड़े संकट के दौर से गुज़र रहा है . उनका दावा है कि यह संकट १९७१ के उस संकट से भी बड़ा है जब मुल्क का एक बड़ा हिस्सा अलग होकर स्वतंत्र बंगलादेश बन गया था .
पाकिस्तान के ताज़ा हालत के बारे में जो बात हैरानी की है वह यह कि लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करने वालों की लगभग रोज़ ही हो रही हत्याओं के बावजूद बाकी दुनिया में कहीं भी उसके विरोध में आवाज़ नहीं उठ रही है . जहां तक सभ्य समाज के लोगों की हत्या का सवाल है वह तो वहां रोज़ ही हो रही है. मीर रुस्तम बारी की ह्त्या के एकाध दिन पहले ही क्वेटा में प्रोफ़ेसर सबा दश्तियारी को मार डाला गया था . उसके कुछ दिन पहले खोजी पत्रकार सलीम शहजाद को मौत के घाट उतार दिया गया था. इन हत्याओं में जो बात उभर कर सामने आती है वह यह कि मारे गए सभी लोग उस बिरादरी से सम्बंधित हैं जो फौज के इशारे पर काम करने वाली अमरीकापरस्त सिविलियन हुकूमत की गैरज़िम्मेदार नीतियों से लोगों को आगाह कर रहे थे . इस बिरादरी के लोगों को ख़त्म कर देने का सिलसिला पिछले कुछ वर्षों से चल रहा है . हालांकि इस तरह से मारे गए लोगों की पूरी सूची तो नहीं बनायी जा सकती लेकिन कुछ ऐसे नाम जो मीडिया की नज़र में आये हैं वे किस्से की कई परतों को बयान कर देते हैं . पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर , सलमान तासीर की उनके ही सुरक्षा गार्ड के हाथों हुई हत्या को इस डिजाइन की एक अहम कड़ी के रूप में देखा जाता है . सलमान तासीर के बाद अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री शाहबाज़ भट्टी और पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग के के संयोजक नईम साबिर को मारा गया था. पाकिस्तान के मानवाधिकार संगठनों का दावा है कि जो लोग भी मारे जा रहे हैं लगभग सभी लोग अल कायदा के प्रभाव वाले सैनिक और आतंकवादी संगठनों के शिकार हो रहे हैं .प्रोफ़ेसर सबा दश्तियारी से जिहादी संगठन ख़ास तौर से नाराज़ थे क्योंकि उनके काम से नौजवानों में लोकतांत्रिक चेतना आती. वे छात्रों को लोकतंत्र के बारे में जागरूकता का सन्देश दे रहे थे. बलोचिस्तान में पाकिस्तानी फौज का डंडा बहुत ही ज़बर्दस्त तरीके से चल रहा है . ऐसा शायद इसलिए हो रहा है कि उस इलाके में ज़मीन के नीचे कच्चे के तेल बहुत बड़े ज़खीरों का पता चला है और सरकार उसे पूरी तरह से अपने कब्जे में रखना चाह रही है .वहां अक्सर निर्दोष बलोच युवकों को पकड़ कर उनको सेना के कब्जे में रखा जाता है और उन्हें हर किस्म की यातनाएं दी जाती हैं . आतंक फैलाने के उद्देश्य से ऐसे लोगों को मार दिया जाता है जो बिलकुल सीधे सादे लोग होते हैं . अभी पिछले दिनों बलोचिस्तान विश्वविद्यालय की एक महिला प्रोफ़ेसर ,नाज़िमा तालिब को भी गोली मार दी गयी थी.
एकाध को छोड़कर मारे गए ज़्यादातर लोग पाकिस्तानी समाज में चेतना फैलाने का काम कर रहे थे. कुछ को पाकिस्तानी सेना के लोगों ने सीधे तौर पर मार डाला था लेकिन कुछ को किसी आतंकवादी संगठन के लोगों ने मारा और ज़िम्मेदारी ली. जानकार बताते हैं कि पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन लगभग पूरी तरह से आई एस आई और फौज की कृपा से चलते हैं इसलिए वहां पर लोकतंत्र और मानवाधिकारों का जो भी खात्मा हो रहा है उसके लिए आई एस आई और फौज ही पूरी तरह से ज़िम्मेदार है.
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तानी हुकूमत की शह पर एक और मानवाधिकार कार्यकर्ता को मौत के घाट उतार दिया है . बलोचिस्तान के जाफराबाद जिले में मीर रुस्तम बारी को डेरा अल्लाहयार इलाके में उनके घर के सामने ही मोटरसाइकिल सवाल बंदूकधारियों ने मार डाला .उनकी मौके पर ही मौत हो गयी. यह पाकिस्तान की तथाकथित सिविलियन हुकूमत के उस अभियान की एक कड़ी मात्र है जिसमें फौज के इशारे पर उन लोगों को मार दिया जाता है जो सरकार और फौज के लिए मुश्किल पैदा करने की कोशिश कर रहे होते हैं . मीर रुस्तम बारी अपने ही राज्य बलोचिस्तान में घर बार छोड़कर भागने को मजबूर हुए बुगती और मारी क़बीलों के लोगों के हक की लड़ाई लड़ रहे थे.ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में किसी को मार डालना उसी तरह से हो गया है जैसे किसी पार्क में टहलना हो. अभी पिछले हफ्ते पाकिस्तानी रेंजर्स ने कराची शहर के बीचोबीच उन्नीस साल के एक लड़के, सरफ़राज़ शाह को राह चलते मार डाला था . पाकिस्तानी रेंजर्स भारत के बी एस एफ की तरह का संगठन है जो सीमा पर तैनात रहता है लेकिन कभी कभी आतंरिक सुरक्षा के काम में भी लगाया जाता है . सरफराज शाह की हत्या को सबने देखा क्योंकि किसी वीडियो कैमरामैन ने उसकी फिल्म उतार ली थी और न्यूज़ चैनलों ने उसे सार्वजनिक कर दिया था. सरफ़राज़ शाह की हत्या मीर रुस्तम बारी से अलग तरह की हत्या है . इस नौजवान को तो रेंजर्स के सिपाहियों ने मज़ा लेने के लिए मार डाला था अ, कहीं कोई राजनीतिक मंशा नहीं थी. इसीलिये यह हत्या ज्यादा खतरनाक मानी जा रही है क्योंकि जिस समाज में तफरीह के लिए किसी राह चलते इंसान को मार डाला जाए उसका अधोपतन लगभग पूरी तरह से मुक़म्मल माना जाता है .पूरे पाकिस्तान ने टी वी चैनलों पर देखा कि किस तरह रेंजर्स की गोली का शिकार होकर वह नौजवान चिल्लाता रहा कि उसे अस्पताल पंहुचा दिया जाय लेकिन कोई नहीं आया. सरफ़राज़ शाह की हत्या पाकिस्तानी राष्ट्र और समाज के लिए एक खतरे की घंटी है . क्योंकि जो पाकिस्तानी फौज और आई एस आई अब तक उन लोगों को मार रही थी जो हुकूमत के लिए मुश्किलें पैदा कर रहे थे और उसने राह चलते लोगों को अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया है . पाकिस्तान में रहने वाले बुद्धिजीवियों का कहना है कि देश बहुत ही बड़े संकट के दौर से गुज़र रहा है . उनका दावा है कि यह संकट १९७१ के उस संकट से भी बड़ा है जब मुल्क का एक बड़ा हिस्सा अलग होकर स्वतंत्र बंगलादेश बन गया था .
पाकिस्तान के ताज़ा हालत के बारे में जो बात हैरानी की है वह यह कि लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करने वालों की लगभग रोज़ ही हो रही हत्याओं के बावजूद बाकी दुनिया में कहीं भी उसके विरोध में आवाज़ नहीं उठ रही है . जहां तक सभ्य समाज के लोगों की हत्या का सवाल है वह तो वहां रोज़ ही हो रही है. मीर रुस्तम बारी की ह्त्या के एकाध दिन पहले ही क्वेटा में प्रोफ़ेसर सबा दश्तियारी को मार डाला गया था . उसके कुछ दिन पहले खोजी पत्रकार सलीम शहजाद को मौत के घाट उतार दिया गया था. इन हत्याओं में जो बात उभर कर सामने आती है वह यह कि मारे गए सभी लोग उस बिरादरी से सम्बंधित हैं जो फौज के इशारे पर काम करने वाली अमरीकापरस्त सिविलियन हुकूमत की गैरज़िम्मेदार नीतियों से लोगों को आगाह कर रहे थे . इस बिरादरी के लोगों को ख़त्म कर देने का सिलसिला पिछले कुछ वर्षों से चल रहा है . हालांकि इस तरह से मारे गए लोगों की पूरी सूची तो नहीं बनायी जा सकती लेकिन कुछ ऐसे नाम जो मीडिया की नज़र में आये हैं वे किस्से की कई परतों को बयान कर देते हैं . पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर , सलमान तासीर की उनके ही सुरक्षा गार्ड के हाथों हुई हत्या को इस डिजाइन की एक अहम कड़ी के रूप में देखा जाता है . सलमान तासीर के बाद अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री शाहबाज़ भट्टी और पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग के के संयोजक नईम साबिर को मारा गया था. पाकिस्तान के मानवाधिकार संगठनों का दावा है कि जो लोग भी मारे जा रहे हैं लगभग सभी लोग अल कायदा के प्रभाव वाले सैनिक और आतंकवादी संगठनों के शिकार हो रहे हैं .प्रोफ़ेसर सबा दश्तियारी से जिहादी संगठन ख़ास तौर से नाराज़ थे क्योंकि उनके काम से नौजवानों में लोकतांत्रिक चेतना आती. वे छात्रों को लोकतंत्र के बारे में जागरूकता का सन्देश दे रहे थे. बलोचिस्तान में पाकिस्तानी फौज का डंडा बहुत ही ज़बर्दस्त तरीके से चल रहा है . ऐसा शायद इसलिए हो रहा है कि उस इलाके में ज़मीन के नीचे कच्चे के तेल बहुत बड़े ज़खीरों का पता चला है और सरकार उसे पूरी तरह से अपने कब्जे में रखना चाह रही है .वहां अक्सर निर्दोष बलोच युवकों को पकड़ कर उनको सेना के कब्जे में रखा जाता है और उन्हें हर किस्म की यातनाएं दी जाती हैं . आतंक फैलाने के उद्देश्य से ऐसे लोगों को मार दिया जाता है जो बिलकुल सीधे सादे लोग होते हैं . अभी पिछले दिनों बलोचिस्तान विश्वविद्यालय की एक महिला प्रोफ़ेसर ,नाज़िमा तालिब को भी गोली मार दी गयी थी.
एकाध को छोड़कर मारे गए ज़्यादातर लोग पाकिस्तानी समाज में चेतना फैलाने का काम कर रहे थे. कुछ को पाकिस्तानी सेना के लोगों ने सीधे तौर पर मार डाला था लेकिन कुछ को किसी आतंकवादी संगठन के लोगों ने मारा और ज़िम्मेदारी ली. जानकार बताते हैं कि पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन लगभग पूरी तरह से आई एस आई और फौज की कृपा से चलते हैं इसलिए वहां पर लोकतंत्र और मानवाधिकारों का जो भी खात्मा हो रहा है उसके लिए आई एस आई और फौज ही पूरी तरह से ज़िम्मेदार है.
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Sunday, July 3, 2011
आदित्य कुमार की ज़ुबानी उनकी अपनी कहानी.
एक क्रांति ऐसी भी
पारुल अग्रवाल
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
.
बीबीसी की खास पेशकश सिटीज़न रिपोर्ट एक कोशिश है, समाज में बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे लोगों की कहानियां देश-दुनिया तक पहुंचाने की. ये वो लोग हैं जो दूसरों के लिए बदलाव की मिसाल बन गए हैं.
पेश है सिटीज़न रिपोर्टर आदित्य कुमार की ज़ुबानी उनकी अपनी कहानी.
'' मेरा नाम आदित्य कुमार है और मैं लखनऊ का रहने वाला हूं. भारत में अंग्रेज़ी को ऊँचे तबक़े की भाषा माना जाता है लेकिन नौकरियों में बढ़ती ज़रुरत के चलते मैने अंग्रेज़ी को आम आदमी तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया है.
अपने इस सफ़र में मैंने अपना हमसफ़र बनाया आम आदमी की सवारी साईकिल को.
15 साल पहले मैं रोज़ी-रोटी की तलाश में फ़र्रुख़ाबाद से लखनऊ आया और यहाँ आकर ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया.
शहर के हालत देख कर मुझे लगा कि अंग्रेज़ी भाषा सीखे बिना कम आमदनी वाले परिवारों के बच्चे तरक्की नहीं कर सकते.
'ऑनरोड अंग्रेज़ी शिक्षक'
सड़क पर क्लास लगाने का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ जो पिछले तीन साल से लगातार चल रहा है. अंग्रेज़ी सीखने की चाह रखने वाले बच्चों और नौजवानों को मैं नि: शुल्क पढ़ाता हूं.ऐसे में इन बच्चों तक पहुँचने के लिए मैंने साइकिल से लखनऊ की सड़कों और गलियों की ख़ाक छाननी शुरू कर दी.
यहां तक कि लोग मुझे अब 'निर्धनों का शिक्षक', 'साइकिल टीचर' और 'ऑनरोड अंग्रेज़ी शिक्षक' तक कहने लगे हैं.
ऐसी ही क्लास का हिस्सा बने अनूप कुमार कहते हैं, ''मैं आदित्य सर की नि: शुल्क कक्षा में पढ़ने जाता हूं. पैसे की तंगी के चलते मेरे लिए अंग्रेज़ी सीखना संभव न था लेकिन उनकी बदौलत आज मैं अंग्रेज़ी समढ पाता हूं और बात कर पाता हूं.''
'पिछड़ी जातियों का उद्धार'
फ़िलहाल मैं अपनी क्लास चौराहों और नुक्कडों पर चलाता हूँ लेकिन मेरी कोशिश है की मैं ज़्यादा से ज़्यादा इलाकों और झुग्गी झोपड़ियों तक पहुँच सकूं.
अंग्रेज़ी सिखाने के लिए मैंने ख़ास तरह का पाठ्यक्रम भी तैयार किया है.
कभी-कभी रोड पर क्लास लेने के कारण मुझे परेशानियों का सामना भी करना पड़ता है. इसलिए में अपना वीडियो कैमरा भी साथ रखता हूँ ताकि जो भी मेरी क्लास में शामिल हैं उनका रिकॉर्ड रख सकूं.
मेरा मानना है की पिछड़ी जातियों का उद्धार पढ़ने-लिखने और अंग्रेज़ी की जानकारी से ही हो सकता है. मेरा लक्ष्य बस यही है की एक दलित होने के नाते जो परेशानियां मैंने झेलीं उनका सामना किसी और को ना करना पड़े.'
( बी बी सी हिन्दी डाट काम से साभार )
पारुल अग्रवाल
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बीबीसी की खास पेशकश सिटीज़न रिपोर्ट एक कोशिश है, समाज में बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे लोगों की कहानियां देश-दुनिया तक पहुंचाने की. ये वो लोग हैं जो दूसरों के लिए बदलाव की मिसाल बन गए हैं.
पेश है सिटीज़न रिपोर्टर आदित्य कुमार की ज़ुबानी उनकी अपनी कहानी.
'' मेरा नाम आदित्य कुमार है और मैं लखनऊ का रहने वाला हूं. भारत में अंग्रेज़ी को ऊँचे तबक़े की भाषा माना जाता है लेकिन नौकरियों में बढ़ती ज़रुरत के चलते मैने अंग्रेज़ी को आम आदमी तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया है.
अपने इस सफ़र में मैंने अपना हमसफ़र बनाया आम आदमी की सवारी साईकिल को.
15 साल पहले मैं रोज़ी-रोटी की तलाश में फ़र्रुख़ाबाद से लखनऊ आया और यहाँ आकर ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया.
शहर के हालत देख कर मुझे लगा कि अंग्रेज़ी भाषा सीखे बिना कम आमदनी वाले परिवारों के बच्चे तरक्की नहीं कर सकते.
'ऑनरोड अंग्रेज़ी शिक्षक'
सड़क पर क्लास लगाने का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ जो पिछले तीन साल से लगातार चल रहा है. अंग्रेज़ी सीखने की चाह रखने वाले बच्चों और नौजवानों को मैं नि: शुल्क पढ़ाता हूं.ऐसे में इन बच्चों तक पहुँचने के लिए मैंने साइकिल से लखनऊ की सड़कों और गलियों की ख़ाक छाननी शुरू कर दी.
यहां तक कि लोग मुझे अब 'निर्धनों का शिक्षक', 'साइकिल टीचर' और 'ऑनरोड अंग्रेज़ी शिक्षक' तक कहने लगे हैं.
ऐसी ही क्लास का हिस्सा बने अनूप कुमार कहते हैं, ''मैं आदित्य सर की नि: शुल्क कक्षा में पढ़ने जाता हूं. पैसे की तंगी के चलते मेरे लिए अंग्रेज़ी सीखना संभव न था लेकिन उनकी बदौलत आज मैं अंग्रेज़ी समढ पाता हूं और बात कर पाता हूं.''
'पिछड़ी जातियों का उद्धार'
फ़िलहाल मैं अपनी क्लास चौराहों और नुक्कडों पर चलाता हूँ लेकिन मेरी कोशिश है की मैं ज़्यादा से ज़्यादा इलाकों और झुग्गी झोपड़ियों तक पहुँच सकूं.
अंग्रेज़ी सिखाने के लिए मैंने ख़ास तरह का पाठ्यक्रम भी तैयार किया है.
कभी-कभी रोड पर क्लास लेने के कारण मुझे परेशानियों का सामना भी करना पड़ता है. इसलिए में अपना वीडियो कैमरा भी साथ रखता हूँ ताकि जो भी मेरी क्लास में शामिल हैं उनका रिकॉर्ड रख सकूं.
मेरा मानना है की पिछड़ी जातियों का उद्धार पढ़ने-लिखने और अंग्रेज़ी की जानकारी से ही हो सकता है. मेरा लक्ष्य बस यही है की एक दलित होने के नाते जो परेशानियां मैंने झेलीं उनका सामना किसी और को ना करना पड़े.'
( बी बी सी हिन्दी डाट काम से साभार )
हर भ्रष्ट नेता मज़बूत लोकपाल के खिलाफ है
शेष नारायण सिंह
लोकपाल के मुद्दे पर सभी पार्टियां घिरती नज़र आ रही हैं. यह दुनिया जानती है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म कर देने के पक्ष में नहीं है . भ्रष्टाचार की कमाई से ही तो पार्टियों का खर्चा चलता है ,उसी से नेताओं की दाल रोटी का बंदोबस्त होता है . यह अलग बात है कि भ्रष्टाचार के नाम पर अन्य पार्टियों को घेरने की बात सभी करते रहते हैं .कांग्रेस ने साफ़ ऐलान कर ही दिया है कि वह प्रधानमंत्री को लोकपाल की जांच के दायरे में नहीं लाना चाहती. बीजेपी की कोशिश थी कि वह इसी मुद्दे पर प्रधानमंत्री को भ्रष्ट साबित करने की अपनी योजना को आगे बढाती लेकिन बीजेपी का दुर्भाग्य है कि उसकी पार्टी में मौजूद गुणी जनों की तरह कांग्रेस में भी कुछ उस्ताद मौजूद हैं जो बीजेपी को घेरने की योजना पर ही दिन रात काम करते हैं . लोकपाल के मामले में ताज़ा खेल बीजेपी की पोल खोलता नज़र आता है .कांग्रेस ने सर्भी पार्टियों की बैठक बुलाकर लोकपाल के मसौदे पर चर्चा करने की योजना बना दी जिसमें प्रधानमंत्री समेत सभी मुख्यमंत्रियों को लोकपाल की जांच के दायरे में लाने पर चर्चा की बात है. ज़ाहिर है कि बीजेपी सभी मुख्यमंत्रियों को लोकपाल के दायरे में नहीं ला सकती. अगर कहीं बीजेपी ने तय किया कि वह रणनीतिक कारणों से ही कुछ वक़्त के लिए मुख्यमंत्री को लोकपाल में लाने के बारे में सोच सकती है तो उनके मुख्यमंत्री नाराज़ हो जायेगें . इसका सीधा भावार्थ यह हुआ कि उनकी पार्टी टूट जायेगी. बी एस येदुरप्पा कभी नहीं मानेगें कि उनके भ्रष्टाचार की जांच किसी ऐसी एजेंसी से कराई जाय जो उनके अधीन न हो .बीजेपी के दिल्ली में रहने वाले सभी नेता जानते हैं कि बी एस येदुरप्पा की नज़र में दिल्ले में केवल अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी और राजनाथ सिंह बड़े नेता हैं .बाकी राष्ट्रीय नेताओं को वे बहुत मामूली नेता मानते हैं . उन्हें यह भी मालूम है कि कर्नाटक में बीजेपी की ताक़त बी एस येदुरप्पा की निजी ताक़त है . अगर वे पार्टी से अलग हो जाएँ तो राज्य में बीजेपी शून्य हो जायेगी. इसीलिये बीजेपी वाले पिछले कई दिनों से अपने प्रवक्ताओं के मुंह से कहलवा रहे हैं कि पहले सरकार यह बताये कि वह क्या चाहती है . पार्टी की मंशा यह लगती है कि अगर कांग्रेस ने कोई पोजीशन ले ली तो उसी की धज्ज़ियां उड़ाकर सर्वदलीय बैठक के संकट से बच जायेगें लेकिन कांग्रेस उनको यह अवसर नहीं दे रही है. बीजेपी ने इस संकट से बचने के लिए ही तय किया था कि वह सर्वदलीय बैठक का बहिष्कार करेगी लेकिन नीतीश कुमार और प्रकाश सिंह बादल ने दबाव डालकर ऐसा नहीं करने दिया . पता नहीं क्यों मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थकविहीन नेता, प्रकाश करात बीजेपी के सुर में सुर मिला रहे हैं .वे भी कह रहे हैं कि उन्हें भी सरकारी ड्राफ्ट चाहिए . खैर उनकी तो कोई औकात नहीं है लेकिन बीजेपी बुरी तरह से फंस गयी है . मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को बाहर रखने की उनकी नीति जब बहस के दायरे में आयेगी तो देश को पता लग जाएगा कि बीजेपी वाले भी कांग्रेस की तरह की भ्रष्ट हैं . इसलिए लोकपाल की संस्था को बहुत ही कमज़ोर कर देने के बारे में देश की दोनों की बड़ी पार्टियों में लगभग एक राय है लेकिन एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए दोनों की पार्टियों के वे प्रवक्ता , जो टी वी की कृपा से नेता बने हुए हैं,कुछ ऐसी बातें करते रहते हैं जिसका उनकी पार्टी को राजनीतिक फायदा होता है . उनका दुर्भाग्य यह है कि जिस टी वी ने उन्हें नेता बनाया है ,वही टी वी और मीडिया देश की जनता को भी सही खबर देता रहता है . अभी पंद्रह साल पहले एक ऐसा मामला आया था जिसमें सभी पार्टियों के नेता फंसे थे .जैन हवाला काण्ड के नाम से कुख्यात इस केस में कांग्रेस, बीजेपी , लोकदल, जनता दल सभी पार्टियों के बड़े नेता एक कश्मीरी संदिग्ध संगठन से रिश्वत लेने के आरोप में जांच के घेरे में आये थे लेकिन सब ने मिलजुल कर मामले को दफना दिया था . लगता है कि लोकपाल बिल के साथ भी वही करने की योजना इन नेताओं की है . लेकिन इस बार यह काम इतना आसान नहीं होगा . यह संभव है कि समाचार देने वाले बड़े संगठनों के कुछ मालिकों को यह नेता लोग अरदब में लेने में सफल हो जाएँ लेकिन वैकल्पिक मीडिया सबकी पोल खोलने की ताक़त रखता है और वह खोल भी देगा. देश की जनता को उम्मीद है कि एक ऐसा लोकपाल कानून बने जिसके बाद भ्रष्टाचार को लगाम देने का काम शुरू किया जा सके.
लोकपाल के मुद्दे पर सभी पार्टियां घिरती नज़र आ रही हैं. यह दुनिया जानती है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म कर देने के पक्ष में नहीं है . भ्रष्टाचार की कमाई से ही तो पार्टियों का खर्चा चलता है ,उसी से नेताओं की दाल रोटी का बंदोबस्त होता है . यह अलग बात है कि भ्रष्टाचार के नाम पर अन्य पार्टियों को घेरने की बात सभी करते रहते हैं .कांग्रेस ने साफ़ ऐलान कर ही दिया है कि वह प्रधानमंत्री को लोकपाल की जांच के दायरे में नहीं लाना चाहती. बीजेपी की कोशिश थी कि वह इसी मुद्दे पर प्रधानमंत्री को भ्रष्ट साबित करने की अपनी योजना को आगे बढाती लेकिन बीजेपी का दुर्भाग्य है कि उसकी पार्टी में मौजूद गुणी जनों की तरह कांग्रेस में भी कुछ उस्ताद मौजूद हैं जो बीजेपी को घेरने की योजना पर ही दिन रात काम करते हैं . लोकपाल के मामले में ताज़ा खेल बीजेपी की पोल खोलता नज़र आता है .कांग्रेस ने सर्भी पार्टियों की बैठक बुलाकर लोकपाल के मसौदे पर चर्चा करने की योजना बना दी जिसमें प्रधानमंत्री समेत सभी मुख्यमंत्रियों को लोकपाल की जांच के दायरे में लाने पर चर्चा की बात है. ज़ाहिर है कि बीजेपी सभी मुख्यमंत्रियों को लोकपाल के दायरे में नहीं ला सकती. अगर कहीं बीजेपी ने तय किया कि वह रणनीतिक कारणों से ही कुछ वक़्त के लिए मुख्यमंत्री को लोकपाल में लाने के बारे में सोच सकती है तो उनके मुख्यमंत्री नाराज़ हो जायेगें . इसका सीधा भावार्थ यह हुआ कि उनकी पार्टी टूट जायेगी. बी एस येदुरप्पा कभी नहीं मानेगें कि उनके भ्रष्टाचार की जांच किसी ऐसी एजेंसी से कराई जाय जो उनके अधीन न हो .बीजेपी के दिल्ली में रहने वाले सभी नेता जानते हैं कि बी एस येदुरप्पा की नज़र में दिल्ले में केवल अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी और राजनाथ सिंह बड़े नेता हैं .बाकी राष्ट्रीय नेताओं को वे बहुत मामूली नेता मानते हैं . उन्हें यह भी मालूम है कि कर्नाटक में बीजेपी की ताक़त बी एस येदुरप्पा की निजी ताक़त है . अगर वे पार्टी से अलग हो जाएँ तो राज्य में बीजेपी शून्य हो जायेगी. इसीलिये बीजेपी वाले पिछले कई दिनों से अपने प्रवक्ताओं के मुंह से कहलवा रहे हैं कि पहले सरकार यह बताये कि वह क्या चाहती है . पार्टी की मंशा यह लगती है कि अगर कांग्रेस ने कोई पोजीशन ले ली तो उसी की धज्ज़ियां उड़ाकर सर्वदलीय बैठक के संकट से बच जायेगें लेकिन कांग्रेस उनको यह अवसर नहीं दे रही है. बीजेपी ने इस संकट से बचने के लिए ही तय किया था कि वह सर्वदलीय बैठक का बहिष्कार करेगी लेकिन नीतीश कुमार और प्रकाश सिंह बादल ने दबाव डालकर ऐसा नहीं करने दिया . पता नहीं क्यों मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थकविहीन नेता, प्रकाश करात बीजेपी के सुर में सुर मिला रहे हैं .वे भी कह रहे हैं कि उन्हें भी सरकारी ड्राफ्ट चाहिए . खैर उनकी तो कोई औकात नहीं है लेकिन बीजेपी बुरी तरह से फंस गयी है . मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को बाहर रखने की उनकी नीति जब बहस के दायरे में आयेगी तो देश को पता लग जाएगा कि बीजेपी वाले भी कांग्रेस की तरह की भ्रष्ट हैं . इसलिए लोकपाल की संस्था को बहुत ही कमज़ोर कर देने के बारे में देश की दोनों की बड़ी पार्टियों में लगभग एक राय है लेकिन एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए दोनों की पार्टियों के वे प्रवक्ता , जो टी वी की कृपा से नेता बने हुए हैं,कुछ ऐसी बातें करते रहते हैं जिसका उनकी पार्टी को राजनीतिक फायदा होता है . उनका दुर्भाग्य यह है कि जिस टी वी ने उन्हें नेता बनाया है ,वही टी वी और मीडिया देश की जनता को भी सही खबर देता रहता है . अभी पंद्रह साल पहले एक ऐसा मामला आया था जिसमें सभी पार्टियों के नेता फंसे थे .जैन हवाला काण्ड के नाम से कुख्यात इस केस में कांग्रेस, बीजेपी , लोकदल, जनता दल सभी पार्टियों के बड़े नेता एक कश्मीरी संदिग्ध संगठन से रिश्वत लेने के आरोप में जांच के घेरे में आये थे लेकिन सब ने मिलजुल कर मामले को दफना दिया था . लगता है कि लोकपाल बिल के साथ भी वही करने की योजना इन नेताओं की है . लेकिन इस बार यह काम इतना आसान नहीं होगा . यह संभव है कि समाचार देने वाले बड़े संगठनों के कुछ मालिकों को यह नेता लोग अरदब में लेने में सफल हो जाएँ लेकिन वैकल्पिक मीडिया सबकी पोल खोलने की ताक़त रखता है और वह खोल भी देगा. देश की जनता को उम्मीद है कि एक ऐसा लोकपाल कानून बने जिसके बाद भ्रष्टाचार को लगाम देने का काम शुरू किया जा सके.
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शेष नारायण सिंह
Friday, July 1, 2011
नरेंद्र मोदी पर सबूत नष्ट करने का मुक़दमा दर्ज किया जाए
शेष नारायण सिंह
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वे सारे रिकार्ड नष्ट करवा दिए जिसकी बिना पर उन्हें सज़ा हो सकती थी. २७ फरवरी से ९ मार्च के पुलिस के वे सारे रिकार्ड जिनसे साबित हो जाता कि उन्होंने पुलिस को हिदायत दी थी कि बीजेपी, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल के लोगों को क़त्लो गारद करने की खुली छूट दे दो, अब नष्ट कर दिए गए हैं . इस सन्दर्भ में जब पुलिस के आला आधिकारियों से पूछा गया कि ऐसा क्यों हुआ तो उन्होंने बता दिया कि पुलिस विभाग में यह नियम है कि पांच साल बाद वे सारे "गैरज़रूरी" कागजात नष्ट कर दिए जाते हैं जिनका किसी भी "मुक़दमे में कोई इस्तेमाल न हो". यह हैरानी की बात है कि पुलिस के आला हाकिमों ने तय कर लिया कि वे सारे कागज़ जिन में ऐसे सबूत हैं जिस से मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को सज़ा मिल सकती हो , वे गैर ज़रूरी हैं और उनका किसी भी मुक़दमें में कोई इस्तेमाल नहीं है . जबकि अभे यूं सभी मामलों पर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच चल रही है .ज़ाहिर है यह कागज़ नरेंद्र मोदी के प्रयास से ही नष्ट किये गए होंगें . अगर नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री न होते तो उनके राज्य के पुलिस अफसरों ने ही उनके खिलाफ सबूत नष्ट करने का मुक़दमा दर्ज कर दिया होता और उन्हें तीन साल की सज़ा बामशक्कत करवा देते . लेकिन ऐसा नहीं होगा क्योंकि वहां मोदी का राज है और जो भी मोदी से कानून और संविधान की बात करेगा उसे सज़ा दी जायेगी .ठीक वैसी ही सज़ा जो आजकल आई पी एस अफसर संजीव भट्ट को दी जा रही है .जब उस वक़्त गाँधी नगर में तैनात आला पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर बताया था कि मुख्यमंत्री के आवास में उनकी मौजूदगी में हुई बैठक में नरेंद्र मोदी ने अफसरों को बता दिया था कि मुसलमानों को सबक सिखाना है और मुसलमानों को बचाने की कोई भी कोशिश नहीं की जानी चाहिए . हालांकि उनके इस हलफनामे को उस वक़्त मीटिंग में मौजूद एक बड़े अफसर ने गलत बताया है लेकिन परिस्थितिजन्य साक्ष्य ऐसे हैं कि किसी चाटुकार अफसर की बात को गंभीरता से लेने की कोई ज़रूरत नहीं है . दर असल मोदी ने उन सभी अफसरों को बहुत कमाई करवाई थी जिन्होंने मुसलमानों को सबक सिखाने के उनके प्रोजेक्ट में मदद की थी. जिन लोगों ने उनकी मनमानी में साथ नहीं दिया था या अपनी सही ड्यूटी करने के चक्कर में नरसंहार के काम में मोदी का हुकुम नहीं माना था उनको दण्डित किया गया था. संजीव भट्ट की श्रेणी में ही एक और अफसर का नाम सुर्ख़ियों में आया था जो २००२ में जामनगर नगर निगम का कमिश्नर था . उसने भी कहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट में हाज़िर होकर बयान देने के लिए तैयार है कि मोदी ने किस तरह से हत्याकांड की साज़िश रची और उसे अपनी मर्जी के अंजाम तक पंहुचाया . इस अफसर का भाई भी गुजरात पुलिस में बड़ा अधिकारी है और वह भी अदालत में बयान देना चाहता है .उसका दावा है कि उसके ऊपर नरेंद्र मोदी के कारिंदों और अफसरों ने किस तरह दबाव डाला .इन दोनों भाइयों को राज्य सरकार की ओर से परेशान किया जा रहा है. आई ए एस अफसर भाई को तो किसी मामूली अपराध में बुक करने जेल में डाल दिया गया है . इसके पहले हज़ारों लोग खुलकर मोदी की सच्चाई पब्लिक डोमेन में डाल चुके हैं. लेकिन कहीं कुछ नहीं हो रहा है . मोदी छुट्टा घूम रहे हैं . इस सारे प्रकरण में दिल्ली के राजनेताओं का रवैया बहुत ही चिंताजनक है . जहां तक बीजेपी का सवाल है ,उसके नेता तो मोदी को बचाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं . जैसे ही मोदी की कोई पोल खुलती है , यह लोग दिल्ली में ऐसा माहौल बना देते है कि जैसे मोदी को किसी साज़िश का शिकार बनाया जा रहा है . संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया था तो बीजेपी के मोदी गुट के एक बड़े नेता ने बयान दिया था कि जब भी मोदी के बारे में सुप्रीम कोर्ट में कोई सुनवाई होती है कुछ लोग झूठ को तथ्य बनाकर प्रचार करने लगते हैं . वैसे भी भीजेपी के आला नेता शुरू से ही गुजरात नरसंहार २००२ के हर तथ्य को ढंकते रहे हैं . मोदी की राजनीति के सहारे वे पूरे देश के लोगों बाँट कर भारत में राज करने के सपने देख रहे हैं.जिस पार्टी के मालिक, आर एस एस वालों ने महात्मा गाँधी को नहीं छोड़ा उनसे उम्मीद ही क्या की जा सकती है. इन अफसरों ने जो कुछ भी कहा था सब कुछ उन दस्तावेजों में था जिसे अब मोदी की सरकार ने नष्ट कर दिया है . ज़ाहिर है कि इन कागजों के ख़त्म हो जाने के बाद मोदी और उनके कारिंदे ईमानदार और संविधान के प्रति प्रतिबंद्ध अफसरों को झूठा साबित करने की कोशिश करेगें . उम्मीद केवल सुप्रीम कोर्ट से है . केंद्र सरकार और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी तो मोदी के साथ ही खड़े नज़र आते हैं .
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वे सारे रिकार्ड नष्ट करवा दिए जिसकी बिना पर उन्हें सज़ा हो सकती थी. २७ फरवरी से ९ मार्च के पुलिस के वे सारे रिकार्ड जिनसे साबित हो जाता कि उन्होंने पुलिस को हिदायत दी थी कि बीजेपी, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल के लोगों को क़त्लो गारद करने की खुली छूट दे दो, अब नष्ट कर दिए गए हैं . इस सन्दर्भ में जब पुलिस के आला आधिकारियों से पूछा गया कि ऐसा क्यों हुआ तो उन्होंने बता दिया कि पुलिस विभाग में यह नियम है कि पांच साल बाद वे सारे "गैरज़रूरी" कागजात नष्ट कर दिए जाते हैं जिनका किसी भी "मुक़दमे में कोई इस्तेमाल न हो". यह हैरानी की बात है कि पुलिस के आला हाकिमों ने तय कर लिया कि वे सारे कागज़ जिन में ऐसे सबूत हैं जिस से मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को सज़ा मिल सकती हो , वे गैर ज़रूरी हैं और उनका किसी भी मुक़दमें में कोई इस्तेमाल नहीं है . जबकि अभे यूं सभी मामलों पर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच चल रही है .ज़ाहिर है यह कागज़ नरेंद्र मोदी के प्रयास से ही नष्ट किये गए होंगें . अगर नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री न होते तो उनके राज्य के पुलिस अफसरों ने ही उनके खिलाफ सबूत नष्ट करने का मुक़दमा दर्ज कर दिया होता और उन्हें तीन साल की सज़ा बामशक्कत करवा देते . लेकिन ऐसा नहीं होगा क्योंकि वहां मोदी का राज है और जो भी मोदी से कानून और संविधान की बात करेगा उसे सज़ा दी जायेगी .ठीक वैसी ही सज़ा जो आजकल आई पी एस अफसर संजीव भट्ट को दी जा रही है .जब उस वक़्त गाँधी नगर में तैनात आला पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर बताया था कि मुख्यमंत्री के आवास में उनकी मौजूदगी में हुई बैठक में नरेंद्र मोदी ने अफसरों को बता दिया था कि मुसलमानों को सबक सिखाना है और मुसलमानों को बचाने की कोई भी कोशिश नहीं की जानी चाहिए . हालांकि उनके इस हलफनामे को उस वक़्त मीटिंग में मौजूद एक बड़े अफसर ने गलत बताया है लेकिन परिस्थितिजन्य साक्ष्य ऐसे हैं कि किसी चाटुकार अफसर की बात को गंभीरता से लेने की कोई ज़रूरत नहीं है . दर असल मोदी ने उन सभी अफसरों को बहुत कमाई करवाई थी जिन्होंने मुसलमानों को सबक सिखाने के उनके प्रोजेक्ट में मदद की थी. जिन लोगों ने उनकी मनमानी में साथ नहीं दिया था या अपनी सही ड्यूटी करने के चक्कर में नरसंहार के काम में मोदी का हुकुम नहीं माना था उनको दण्डित किया गया था. संजीव भट्ट की श्रेणी में ही एक और अफसर का नाम सुर्ख़ियों में आया था जो २००२ में जामनगर नगर निगम का कमिश्नर था . उसने भी कहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट में हाज़िर होकर बयान देने के लिए तैयार है कि मोदी ने किस तरह से हत्याकांड की साज़िश रची और उसे अपनी मर्जी के अंजाम तक पंहुचाया . इस अफसर का भाई भी गुजरात पुलिस में बड़ा अधिकारी है और वह भी अदालत में बयान देना चाहता है .उसका दावा है कि उसके ऊपर नरेंद्र मोदी के कारिंदों और अफसरों ने किस तरह दबाव डाला .इन दोनों भाइयों को राज्य सरकार की ओर से परेशान किया जा रहा है. आई ए एस अफसर भाई को तो किसी मामूली अपराध में बुक करने जेल में डाल दिया गया है . इसके पहले हज़ारों लोग खुलकर मोदी की सच्चाई पब्लिक डोमेन में डाल चुके हैं. लेकिन कहीं कुछ नहीं हो रहा है . मोदी छुट्टा घूम रहे हैं . इस सारे प्रकरण में दिल्ली के राजनेताओं का रवैया बहुत ही चिंताजनक है . जहां तक बीजेपी का सवाल है ,उसके नेता तो मोदी को बचाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं . जैसे ही मोदी की कोई पोल खुलती है , यह लोग दिल्ली में ऐसा माहौल बना देते है कि जैसे मोदी को किसी साज़िश का शिकार बनाया जा रहा है . संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया था तो बीजेपी के मोदी गुट के एक बड़े नेता ने बयान दिया था कि जब भी मोदी के बारे में सुप्रीम कोर्ट में कोई सुनवाई होती है कुछ लोग झूठ को तथ्य बनाकर प्रचार करने लगते हैं . वैसे भी भीजेपी के आला नेता शुरू से ही गुजरात नरसंहार २००२ के हर तथ्य को ढंकते रहे हैं . मोदी की राजनीति के सहारे वे पूरे देश के लोगों बाँट कर भारत में राज करने के सपने देख रहे हैं.जिस पार्टी के मालिक, आर एस एस वालों ने महात्मा गाँधी को नहीं छोड़ा उनसे उम्मीद ही क्या की जा सकती है. इन अफसरों ने जो कुछ भी कहा था सब कुछ उन दस्तावेजों में था जिसे अब मोदी की सरकार ने नष्ट कर दिया है . ज़ाहिर है कि इन कागजों के ख़त्म हो जाने के बाद मोदी और उनके कारिंदे ईमानदार और संविधान के प्रति प्रतिबंद्ध अफसरों को झूठा साबित करने की कोशिश करेगें . उम्मीद केवल सुप्रीम कोर्ट से है . केंद्र सरकार और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी तो मोदी के साथ ही खड़े नज़र आते हैं .
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Thursday, June 30, 2011
भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान के पीछे कहीं साम्प्रदायिकता की राजनीति तो नहीं
शेष नारायण सिंह
बहुत दिन बाद कुछ चुनिन्दा पत्रकारों से मुखातिब हुए मनमोहन सिंह ने अपनी बात बतायी. उनके मीडिया सलाहकार के पांच मित्र पत्रकारों के कान में उन्होंने कुछ बताया लेकिन जब देखा कि वहां से निकलकर वे संपादक लोग प्रेस कानफरेंस करने लगे हैं और प्रधान मंत्री की बात पर अपनी व्याख्या कर रहे हैं तो हडबडी में करीब नौ घंटे बाद प्रधानमंत्री कार्यालय की वेबसाईट पर सरकारी पक्ष भी रख दिया गया.उनके दफतर वालों की मेहनत से जारी की गयी ट्रान्सक्रिप्ट पर नज़र डालें तो साफ़ लगता है कि दिल्ली के सत्ता के गलियारों में तैर रही बहुत सारी कहानियों को खारिज करने के लिए प्रधानमंत्री ने इन पंज प्यारों को तलब किया था.उन्होंने एक बार फिर ऐलान किया कि वे कठपुतली प्रधानमंत्री नहीं हैं . राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने के अभियान को भी उन्होंने अपने तरीके से हैंडिल करने की कोशिश की . कांग्रेस के एक वर्ग की तरफ से चल रहे उस अभियान को भी उन्होंने दफन करने की कोशिश की जिसके तहत दिल्ली में यह कानाफूसी चल रही है कि सारे भ्रष्टाचार की जड़ में प्रधानमंत्री ही हैं . देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि अपने आप को बचाने के लिए ही वे प्रधानमंत्री पद को लोकपाल के घेरे में नहीं आने देना चाहते . लेकिन डॉ मनमोहन सिंह ने बहुत ही बारीकी से यह बात स्पष्ट कर दी कि दरअसल कांग्रेस का वह वर्ग प्रधानमंत्री को लोकपाल से बाहर रखने के चक्कर में है जो भावी प्रधानमंत्री की टोली में है. जहां तक उनका सवाल है , वे तो प्रधानमंत्री को लोकपाल की जांच में लाना चाहते हैं . राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनवाने की कोशिश में लगे नेताओं को उनके इस बयान का असर कम करने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ेगी. संपादकों से प्रधानमंत्री के संवाद की यह वे बातें हैं जो आम तौर पर सबकी समझ में आयीं और टेलिविज़न में काम करने वाले कुछ अफसर पत्रकारों ने इसे टी वी के ज़रिये पूरी दुनिया को बताया और सर्वज्ञ की मुद्रा में बहसों को संचालित किया . दिल्ली शहर में बुधवार को कई ऐसे पत्रकारों के दर्शन हुए जो कई वर्षों से प्रधानमंत्री और उनके मीडिया सलाहकार के ख़ास सहयोगी माने जाते थे लेकिन संवाद में नहीं बुलाये गए. उनके चहरे लटके हुए थे. जो लोग नहीं बुलाये गए थे उन्होंने अपने अपने चैनलों पर बाकायदा प्रचारित करवाया कि प्रधानमंत्री अपनी कोशिश में फेल हो गए हैं .इन बातों का कोई मतलब नहीं है , दिल्ली में यह हमेशा से ही होता रहा है .ज़्यादातर प्रधानमंत्री इन्हीं मुद्दों में घिरकर अपने आपको समाप्त करते रहे हैं .केवल जवाहरलाल नेहरू ऐसे व्यक्ति थे जिनको हल्की बातों में कभी नहीं घेरा जा सका.प्रधानमंत्री ने आर एस एस और बीजेपी की अगुवाई में शुरू किये गए उस अभियान को पकड़ने की कोशिश की जिसके बल पर हर बार आर एस एस ने देश की जनता को अपनी राजनीति का हिस्सा बनाने में सफलता पायी है . उन्होंने संसद, सी ए जी और मीडिया से अपील की उनकी सरकार को सबसे भ्रष्ट सरकार साबित करने की आर एस एस की कोशिश का हिस्सा न बनें और पूरी दुनिया के माहौल को नज़र में रख कर फैसले करें.उन्होंने कहा कि निहित स्वार्थ के लोग उनकी सरकार को लुंजपुंज सरकार साबित करने की फ़िराक़ में हैं और मीडिया उनको हवा दे रहा है. उन्होंने मीडिया से अपील की कृपया सच्चाई की परख के बाद ही अपनी ताक़त का इस्तेमाल सरकार के खिलाफ करें.
भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की आर एस एस और बीजेपी की कोशिश को पकड़कर प्रधानमंत्री ने निश्चित रूप से दक्षिणपंथी राजनीति को अर्दब में लेने की कोशिश की है .यह बात स्पष्ट कर देने की ज़रुरत है कि १९६७ से लेकर अबतक लगभग सभी सरकारें भ्रष्ट रही हैं . उन पर विस्तार से चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि सब को मालूम है कि टाप पर फैले भ्रष्टाचार का शिकार हर हाल में गरीब आदमी ही होता है और उसे मालूम है कि सरकार भ्रष्ट है . लेकिन भारत के समकालीन इतिहास में तीन बार केंद्रीय सरकार को भ्रष्ट साबित करके आर एस एस ने अपने आपको मज़बूत किया है. यह अलग बात है कि २००४ के चुनावों में कांग्रेस ने भी बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार को महाभ्रष्ट साबित करके एन डी ए की सरकार को पैदल किया था . लेकिन केंद्र की कांग्रेस सरकार को भ्रष्ट साबित करने की कोशिश के बाद हमेशा ही आर एस एस के हाथ सत्ता लगती रही है . इस विषय पर थोड़े विस्तार से चर्चा कर लेने से तस्वीर साफ़ होने में मदद मिलेगी. १९७४ में जब जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन शुरू हुआ तो उसमें बहुत कम संख्या में लोग शामिल थे लेकिन जब के एन गोविन्दाचार्य ने पटना में उनसे मुलाकात की और आर एस एस को उनके पीछे लगा दिया तो बात बदल गयी. राजनीति की सीमित समझ रखने वाली इंदिरा गाँधी ने थोक में गलतियाँ कीं और १९७७ में अर एस एस के सहयोग से केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बन गयी. महात्मा गाँधी की हत्या के आरोपों की काली छाया में जी रहे संगठन को जीवनदायिनी ऊर्जा मिल गयी.आर एस एस की ओर से बीजेपी में सक्रिय ,उस वक़्त के सबसे बड़े नेता, नानाजी देशमुख ने खुद तो मंत्री पद नहीं स्वीकार किया लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को कैबिनेट में अहम विभाग दिलवा दिया . जनता पार्टी की सरकार में आर एस एस के कई बड़े कार्यकर्ता बहुत ही ताक़तवर पदों पर पंहुच गए. बाद में समाजवादी चिन्तक और जनता पार्टी के नेता मधु लिमये ने इन लोगों को काबू में करने की कोशिश की लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी . आर एस एस वालों ने जनता पार्टी को तोड़ दिया और बीजेपी की स्थापना कर दी. लेकिन आर एस एस के नियंत्रण में एक बड़ी राजनीतिक पार्टी आ चुकी थी. आज के बीजेपी के सभी बड़े नेता उसी दौर में राजनीति में आये थे और आज उनके सामने ज़्यादातर पार्टियों के नेता बौने नज़र आते हैं .राजनाथ सिंह , सुषमा स्वराज, नरेंद्र मोदी, सुशील कुमार मोदी सब उसी दौर के युवक नेता हैं .दिलचस्प बात यह है कि केवल राजनीतिक लाभ के लिए भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाया गया था क्योंकि सत्ता में आने के बाद जनता पार्टी की सरकार अपनी पूर्ववर्ती कांग्रेस से भी ज्यादा भ्रष्ट साबित हुई .
दूसरी बार भ्रष्टाचार के खिलाफ जब आर एस एस ने अभियान चलाया तो मस्कट के रूप में राजीव गाँधी के वित्तमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को आगे किया गया . राजीव गाँधी की टीम में राजनीतिक रूप से निरक्षर लोगों का भारी जमावड़ा था . उन लोगों ने भी भ्रष्टाचार के मुद्दे को ठीक से नहीं संभाला और वी पी सिंह की कठपुतली सरकार बना दी गयी. उस सरकार का कंट्रोल पूरी तरह से आर एस एस के हाथ में था और बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा देने के लिए जितना योगदान वी पी सिंह ने किया उतना किसी ने नहीं किया . वी पी सिंह के अन्तःपुर में सक्रिय सभी बड़े नेता बाद में बीजेपी के नेता बन गए. अरुण नेहरू, आरिफ मुहम्मद खान और सतपाल मलिक का नाम प्रमुखता से वी पी सिंह के सलाहकारों में था . बाद में सभी बीजेपी में शामिल हो गए.बाबरी मस्जिद के मुद्दे को पूरी तरह से गरमाने के बाद भ्रष्टाचार और बोफर्स को भूल कर आर एस एस ने केंद्र में सत्ता स्थापित करने की रण नीति पर काम करना शुरू कर दिया था..
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश को लामबंद करके सत्ता हासिल करने के नुस्खे को आर एस एस ने बार बार आजमाया है.यह भी पक्की बात है कि उसके बाद सत्ता भी मिलती है . लेकिन इस बार लगता है कि मनमोहन सिंह उनकी इस योजना की हवा निकालने का मन बना चुके हैं . आर एस एस ने पहले तो अन्ना हजारे को आगे करने की कोशिश की लेकिन सोनिया गाँधी ने उनको अपना बना लिया .बीजेपी के नेता बहुत निराश हो गए .अन्ना हजारे का इस्तेमाल मनमोहन सिंह के खिलाफ तो हो रहा है लेकिन वे बीजेपी के राजसूय यज्ञ का हिस्सा बनने को तैयार नहीं हैं . इस खेल के फेल होने पर बीजेपी अध्यक्ष ,नितिन गडकरी ने योग के टीचर रामदेव को आगे किया लेकिन भ्रष्टाचार की हर विधा में गले तक डूबे रामदेव अब उनकी जान की मुसीबत बने हुए हैं . इन सारे नहलों पर बुधवार को चुनिन्दा और वफादार संपादकों को बुलाकर प्रधान मंत्री ने भारी दहला मारा और साफ़ संकेत दे दिया कि भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की मंशा को वे उजागर कर देंगें . ज़ाहिर है इस संकेत में यह भी निहित है कि वे पब्लिक डोमेन यह सूचना भी डाल देने वाले हैं कि भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर आर एस एस अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को चमकाने के फ़िराक़ में है . जानकार समझ गए हैं कि प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार को निहित स्वार्थों का एजेंडा साबित करने की कोशिश करके अपनी पार्टी के उन लोगों को भी धमकाने की कोशिश की है जो उनको राहुल गाँधी का नाम लेकर डराते रहते हैं . जहां तक बीजेपी का सवाल है उनको तो सौ फीसदी घेरे में लेने की योजना साफ़ नज़र आ रही है . जो भी हो अगले कुछ महीने साम्प्रदायिक राजनीति के विमर्श में इस्तेमाल होने वाले हैं . अगर प्रधानमंत्री ने देश की सेकुलर जमातों को अपना ,मकसद समझाने में सफलता हासिल कर ली तो एक बार बीजेपी फिर बैकफुट पर आ जायेगी
बहुत दिन बाद कुछ चुनिन्दा पत्रकारों से मुखातिब हुए मनमोहन सिंह ने अपनी बात बतायी. उनके मीडिया सलाहकार के पांच मित्र पत्रकारों के कान में उन्होंने कुछ बताया लेकिन जब देखा कि वहां से निकलकर वे संपादक लोग प्रेस कानफरेंस करने लगे हैं और प्रधान मंत्री की बात पर अपनी व्याख्या कर रहे हैं तो हडबडी में करीब नौ घंटे बाद प्रधानमंत्री कार्यालय की वेबसाईट पर सरकारी पक्ष भी रख दिया गया.उनके दफतर वालों की मेहनत से जारी की गयी ट्रान्सक्रिप्ट पर नज़र डालें तो साफ़ लगता है कि दिल्ली के सत्ता के गलियारों में तैर रही बहुत सारी कहानियों को खारिज करने के लिए प्रधानमंत्री ने इन पंज प्यारों को तलब किया था.उन्होंने एक बार फिर ऐलान किया कि वे कठपुतली प्रधानमंत्री नहीं हैं . राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने के अभियान को भी उन्होंने अपने तरीके से हैंडिल करने की कोशिश की . कांग्रेस के एक वर्ग की तरफ से चल रहे उस अभियान को भी उन्होंने दफन करने की कोशिश की जिसके तहत दिल्ली में यह कानाफूसी चल रही है कि सारे भ्रष्टाचार की जड़ में प्रधानमंत्री ही हैं . देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि अपने आप को बचाने के लिए ही वे प्रधानमंत्री पद को लोकपाल के घेरे में नहीं आने देना चाहते . लेकिन डॉ मनमोहन सिंह ने बहुत ही बारीकी से यह बात स्पष्ट कर दी कि दरअसल कांग्रेस का वह वर्ग प्रधानमंत्री को लोकपाल से बाहर रखने के चक्कर में है जो भावी प्रधानमंत्री की टोली में है. जहां तक उनका सवाल है , वे तो प्रधानमंत्री को लोकपाल की जांच में लाना चाहते हैं . राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनवाने की कोशिश में लगे नेताओं को उनके इस बयान का असर कम करने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ेगी. संपादकों से प्रधानमंत्री के संवाद की यह वे बातें हैं जो आम तौर पर सबकी समझ में आयीं और टेलिविज़न में काम करने वाले कुछ अफसर पत्रकारों ने इसे टी वी के ज़रिये पूरी दुनिया को बताया और सर्वज्ञ की मुद्रा में बहसों को संचालित किया . दिल्ली शहर में बुधवार को कई ऐसे पत्रकारों के दर्शन हुए जो कई वर्षों से प्रधानमंत्री और उनके मीडिया सलाहकार के ख़ास सहयोगी माने जाते थे लेकिन संवाद में नहीं बुलाये गए. उनके चहरे लटके हुए थे. जो लोग नहीं बुलाये गए थे उन्होंने अपने अपने चैनलों पर बाकायदा प्रचारित करवाया कि प्रधानमंत्री अपनी कोशिश में फेल हो गए हैं .इन बातों का कोई मतलब नहीं है , दिल्ली में यह हमेशा से ही होता रहा है .ज़्यादातर प्रधानमंत्री इन्हीं मुद्दों में घिरकर अपने आपको समाप्त करते रहे हैं .केवल जवाहरलाल नेहरू ऐसे व्यक्ति थे जिनको हल्की बातों में कभी नहीं घेरा जा सका.प्रधानमंत्री ने आर एस एस और बीजेपी की अगुवाई में शुरू किये गए उस अभियान को पकड़ने की कोशिश की जिसके बल पर हर बार आर एस एस ने देश की जनता को अपनी राजनीति का हिस्सा बनाने में सफलता पायी है . उन्होंने संसद, सी ए जी और मीडिया से अपील की उनकी सरकार को सबसे भ्रष्ट सरकार साबित करने की आर एस एस की कोशिश का हिस्सा न बनें और पूरी दुनिया के माहौल को नज़र में रख कर फैसले करें.उन्होंने कहा कि निहित स्वार्थ के लोग उनकी सरकार को लुंजपुंज सरकार साबित करने की फ़िराक़ में हैं और मीडिया उनको हवा दे रहा है. उन्होंने मीडिया से अपील की कृपया सच्चाई की परख के बाद ही अपनी ताक़त का इस्तेमाल सरकार के खिलाफ करें.
भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की आर एस एस और बीजेपी की कोशिश को पकड़कर प्रधानमंत्री ने निश्चित रूप से दक्षिणपंथी राजनीति को अर्दब में लेने की कोशिश की है .यह बात स्पष्ट कर देने की ज़रुरत है कि १९६७ से लेकर अबतक लगभग सभी सरकारें भ्रष्ट रही हैं . उन पर विस्तार से चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि सब को मालूम है कि टाप पर फैले भ्रष्टाचार का शिकार हर हाल में गरीब आदमी ही होता है और उसे मालूम है कि सरकार भ्रष्ट है . लेकिन भारत के समकालीन इतिहास में तीन बार केंद्रीय सरकार को भ्रष्ट साबित करके आर एस एस ने अपने आपको मज़बूत किया है. यह अलग बात है कि २००४ के चुनावों में कांग्रेस ने भी बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार को महाभ्रष्ट साबित करके एन डी ए की सरकार को पैदल किया था . लेकिन केंद्र की कांग्रेस सरकार को भ्रष्ट साबित करने की कोशिश के बाद हमेशा ही आर एस एस के हाथ सत्ता लगती रही है . इस विषय पर थोड़े विस्तार से चर्चा कर लेने से तस्वीर साफ़ होने में मदद मिलेगी. १९७४ में जब जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन शुरू हुआ तो उसमें बहुत कम संख्या में लोग शामिल थे लेकिन जब के एन गोविन्दाचार्य ने पटना में उनसे मुलाकात की और आर एस एस को उनके पीछे लगा दिया तो बात बदल गयी. राजनीति की सीमित समझ रखने वाली इंदिरा गाँधी ने थोक में गलतियाँ कीं और १९७७ में अर एस एस के सहयोग से केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बन गयी. महात्मा गाँधी की हत्या के आरोपों की काली छाया में जी रहे संगठन को जीवनदायिनी ऊर्जा मिल गयी.आर एस एस की ओर से बीजेपी में सक्रिय ,उस वक़्त के सबसे बड़े नेता, नानाजी देशमुख ने खुद तो मंत्री पद नहीं स्वीकार किया लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को कैबिनेट में अहम विभाग दिलवा दिया . जनता पार्टी की सरकार में आर एस एस के कई बड़े कार्यकर्ता बहुत ही ताक़तवर पदों पर पंहुच गए. बाद में समाजवादी चिन्तक और जनता पार्टी के नेता मधु लिमये ने इन लोगों को काबू में करने की कोशिश की लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी . आर एस एस वालों ने जनता पार्टी को तोड़ दिया और बीजेपी की स्थापना कर दी. लेकिन आर एस एस के नियंत्रण में एक बड़ी राजनीतिक पार्टी आ चुकी थी. आज के बीजेपी के सभी बड़े नेता उसी दौर में राजनीति में आये थे और आज उनके सामने ज़्यादातर पार्टियों के नेता बौने नज़र आते हैं .राजनाथ सिंह , सुषमा स्वराज, नरेंद्र मोदी, सुशील कुमार मोदी सब उसी दौर के युवक नेता हैं .दिलचस्प बात यह है कि केवल राजनीतिक लाभ के लिए भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाया गया था क्योंकि सत्ता में आने के बाद जनता पार्टी की सरकार अपनी पूर्ववर्ती कांग्रेस से भी ज्यादा भ्रष्ट साबित हुई .
दूसरी बार भ्रष्टाचार के खिलाफ जब आर एस एस ने अभियान चलाया तो मस्कट के रूप में राजीव गाँधी के वित्तमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को आगे किया गया . राजीव गाँधी की टीम में राजनीतिक रूप से निरक्षर लोगों का भारी जमावड़ा था . उन लोगों ने भी भ्रष्टाचार के मुद्दे को ठीक से नहीं संभाला और वी पी सिंह की कठपुतली सरकार बना दी गयी. उस सरकार का कंट्रोल पूरी तरह से आर एस एस के हाथ में था और बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा देने के लिए जितना योगदान वी पी सिंह ने किया उतना किसी ने नहीं किया . वी पी सिंह के अन्तःपुर में सक्रिय सभी बड़े नेता बाद में बीजेपी के नेता बन गए. अरुण नेहरू, आरिफ मुहम्मद खान और सतपाल मलिक का नाम प्रमुखता से वी पी सिंह के सलाहकारों में था . बाद में सभी बीजेपी में शामिल हो गए.बाबरी मस्जिद के मुद्दे को पूरी तरह से गरमाने के बाद भ्रष्टाचार और बोफर्स को भूल कर आर एस एस ने केंद्र में सत्ता स्थापित करने की रण नीति पर काम करना शुरू कर दिया था..
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश को लामबंद करके सत्ता हासिल करने के नुस्खे को आर एस एस ने बार बार आजमाया है.यह भी पक्की बात है कि उसके बाद सत्ता भी मिलती है . लेकिन इस बार लगता है कि मनमोहन सिंह उनकी इस योजना की हवा निकालने का मन बना चुके हैं . आर एस एस ने पहले तो अन्ना हजारे को आगे करने की कोशिश की लेकिन सोनिया गाँधी ने उनको अपना बना लिया .बीजेपी के नेता बहुत निराश हो गए .अन्ना हजारे का इस्तेमाल मनमोहन सिंह के खिलाफ तो हो रहा है लेकिन वे बीजेपी के राजसूय यज्ञ का हिस्सा बनने को तैयार नहीं हैं . इस खेल के फेल होने पर बीजेपी अध्यक्ष ,नितिन गडकरी ने योग के टीचर रामदेव को आगे किया लेकिन भ्रष्टाचार की हर विधा में गले तक डूबे रामदेव अब उनकी जान की मुसीबत बने हुए हैं . इन सारे नहलों पर बुधवार को चुनिन्दा और वफादार संपादकों को बुलाकर प्रधान मंत्री ने भारी दहला मारा और साफ़ संकेत दे दिया कि भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की मंशा को वे उजागर कर देंगें . ज़ाहिर है इस संकेत में यह भी निहित है कि वे पब्लिक डोमेन यह सूचना भी डाल देने वाले हैं कि भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर आर एस एस अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को चमकाने के फ़िराक़ में है . जानकार समझ गए हैं कि प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार को निहित स्वार्थों का एजेंडा साबित करने की कोशिश करके अपनी पार्टी के उन लोगों को भी धमकाने की कोशिश की है जो उनको राहुल गाँधी का नाम लेकर डराते रहते हैं . जहां तक बीजेपी का सवाल है उनको तो सौ फीसदी घेरे में लेने की योजना साफ़ नज़र आ रही है . जो भी हो अगले कुछ महीने साम्प्रदायिक राजनीति के विमर्श में इस्तेमाल होने वाले हैं . अगर प्रधानमंत्री ने देश की सेकुलर जमातों को अपना ,मकसद समझाने में सफलता हासिल कर ली तो एक बार बीजेपी फिर बैकफुट पर आ जायेगी
Tuesday, June 28, 2011
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को बदनाम करना मुसलमानों के खिलाफ साज़िश है
शेष नारायण सिंह
अल्पसंख्यकों के बारे में कांग्रेस पार्टी की सोच एक बार फिर बहस के दायरे में आ गयी है .एक तरफ तो कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की लाइन है जो मुसलमानों से सम्बंधित किसी भी मसले पर जो कुछ भी कहते हैं वह आम तौर पर मुसलमानों के हित में होता है और दूसरी तरफ केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ,सलमान खुर्शीद हैं जो मुसलमानों के हित की बात करते समय यह ध्यान रखते हैं कि दिल्ली की काकटेल सर्किट के उनके बीजेपी वाले दोस्त नाराज़ न हो जाएँ. दिग्विजय सिंह सरकार में नहीं हैं और उनके विचारों का विरोध कांग्रेस के ज़्यादातर नेता करते पाए जाते हैं . दिग्विजय सिंह के विचारों को वे कांग्रेसी गलत बताते हैं जो कांग्रेस में होते हुए भी हिंदुत्व की राजनीति के पोषक हैं .सलमान खुर्शीद की सोच वाले कांग्रेसी मंत्री भी इसी वर्ग में आते हैं . इन कांग्रेसियों की कोशिश रहती है कि दिग्विजय सिंह के बयान मीडिया में थोड़ी बहुत खलबली फैलाने से ज्यादा काम न आ सकें . लेकिन दिग्विजय सिंह देश के सेकुलर ढाँचे को बनाए रखने में अहम भूमिका निभा रहे हैं और वह देश की राजनीतिक शुचिता के लिए ज़रूरी है . उनके इस काम के लिए उन्हें दक्षिण पंथी हिन्दू और मुसलमानों के संगठन भला बुरा कहते रहते हैं .सलमान खुर्शीद के साथ ऐसा नहीं है. वे दिल्ली के उन अमीर उमरा की तरह हैं जो अपनी गद्दी बचाए रखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं .वे केंद्र सरकार के ज़िम्मेदार मंत्री हैं, कांग्रेस आलाकमान के भरोसेमंद सिपाही हैं और मुसलमानों के हित के लिए केंद्र में जो कुछ भी होता है, उसके प्रभारी हैं. उनकी बात वास्तव में भारत सरकार की बात होती है .पिछले दिनों उन्होंने चेन्नई के एक कालेज में भाषण दिया और कहा कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के खिलाफ सवाल उठाया जाना चाहिए . आपने फरमाया कि सच्चर कमेटी रिपोर्ट कलामे पाक नहीं है. हम भी मानते हैं कि कोई भी दस्तावेज़ पवित्र कुरान नहीं हो सकता. ज़ाहिर है उन्होंने किसी कमेटी की रिपोर्ट के साथ पवित्र कुरान का नाम लेकर गलती की है और उन्हें उसकी सजा मिलेगी . लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को हल्का करने की उनकी कोशिश को माफ़ नहीं किया जाना चाहिए . आज़ादी के साठ साल बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने जस्टिस राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी जिस की रिपोर्ट आने के बाद दुनिया को मालूम हुआ कि भारत में मुसलमानों की हालत कितनी खराब है . उसको बुनियादी दस्तावेज़ मान कर कई स्तर पर सरकार ने कुछ काम भी शुरू किया . शिक्षा के क्षेत्र में मुसलमानों के पिछड़ेपन को कम करने के लिए बहुत सारे वजीफों का ऐलान हुआ ,जिसकी ज़िम्मेदारी भी सलमान खुर्शीद के पास ही है . उनके एक ख़ास बन्दे ने एक दिन बताया था कि सलमान खुर्शीद अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री बनकर खुश नहीं हिं ,वे किसी मलाईदार विभाग में जाना चाहते हैं .इसीलिये इस तरह की बात कर रहे हैं जिस से उनको और कोई मंत्रालय मिल जाए.यह खेल उल्टा भी पड़ सकता है क्योंकि अगर उनके आलाकमान की समझ में यह बारीक चाल आ गयी तो सलमान साहब पैदल भी हो सकते हैं . वैसे भी उनकी राजनीतिक हसियत ऐसी नहीं है कि कांग्रेस उनको मह्त्व देने के लिए मजबूर हो सके.
जहां तक सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बारे में उनके ख्यालात की बात है वह बहुत ही गैर जिम्मेदाराना है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के प्रकाशित होने के पहले राजनेताओं का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस सरकारों पर मुसलमानों के तुष्टीकरण के आरोप लगता रहता था लेकिन अब ऐसा नहीं है. इस रिपोर्ट ने साफ़ कर दिया था कि केंद्र सरकार ने या राज्य सरकारों ने मुसलमानों को इस देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना रखा था. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बाद उनके कल्याण की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण पहल हुई है जिस से देश में बराबरी का निजाम कायम होने में मदद मिलेगी. बीजेपी और उसेक सहयोगी दलों की कोशिश है कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के खिलाफ अभियान चलाकर उसे बदनाम कर दें . उनके इस अभियान में सलमान खुर्शीद का बयान बहुत ही अहम भूमिका निभाएगा. ऐसी हालत में शक़ होता है कि कहीं सलमान साहब दिल्ली में रहने वाले बीजेपी के उन मित्रों की शह पर काम कर रहे हैं जिनसे उनकी मुलाक़ात रात की दावतों में होती है. देश के सभी इंसाफ़पसंद लोगों को चाहिए कि सलमान खुर्शीद की उस कोशिश को बेनकाब करें जिसके तहत वे सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को बदनाम करने की साज़िश का हिस्सा बन रहे हैं .
अल्पसंख्यकों के बारे में कांग्रेस पार्टी की सोच एक बार फिर बहस के दायरे में आ गयी है .एक तरफ तो कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की लाइन है जो मुसलमानों से सम्बंधित किसी भी मसले पर जो कुछ भी कहते हैं वह आम तौर पर मुसलमानों के हित में होता है और दूसरी तरफ केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ,सलमान खुर्शीद हैं जो मुसलमानों के हित की बात करते समय यह ध्यान रखते हैं कि दिल्ली की काकटेल सर्किट के उनके बीजेपी वाले दोस्त नाराज़ न हो जाएँ. दिग्विजय सिंह सरकार में नहीं हैं और उनके विचारों का विरोध कांग्रेस के ज़्यादातर नेता करते पाए जाते हैं . दिग्विजय सिंह के विचारों को वे कांग्रेसी गलत बताते हैं जो कांग्रेस में होते हुए भी हिंदुत्व की राजनीति के पोषक हैं .सलमान खुर्शीद की सोच वाले कांग्रेसी मंत्री भी इसी वर्ग में आते हैं . इन कांग्रेसियों की कोशिश रहती है कि दिग्विजय सिंह के बयान मीडिया में थोड़ी बहुत खलबली फैलाने से ज्यादा काम न आ सकें . लेकिन दिग्विजय सिंह देश के सेकुलर ढाँचे को बनाए रखने में अहम भूमिका निभा रहे हैं और वह देश की राजनीतिक शुचिता के लिए ज़रूरी है . उनके इस काम के लिए उन्हें दक्षिण पंथी हिन्दू और मुसलमानों के संगठन भला बुरा कहते रहते हैं .सलमान खुर्शीद के साथ ऐसा नहीं है. वे दिल्ली के उन अमीर उमरा की तरह हैं जो अपनी गद्दी बचाए रखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं .वे केंद्र सरकार के ज़िम्मेदार मंत्री हैं, कांग्रेस आलाकमान के भरोसेमंद सिपाही हैं और मुसलमानों के हित के लिए केंद्र में जो कुछ भी होता है, उसके प्रभारी हैं. उनकी बात वास्तव में भारत सरकार की बात होती है .पिछले दिनों उन्होंने चेन्नई के एक कालेज में भाषण दिया और कहा कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के खिलाफ सवाल उठाया जाना चाहिए . आपने फरमाया कि सच्चर कमेटी रिपोर्ट कलामे पाक नहीं है. हम भी मानते हैं कि कोई भी दस्तावेज़ पवित्र कुरान नहीं हो सकता. ज़ाहिर है उन्होंने किसी कमेटी की रिपोर्ट के साथ पवित्र कुरान का नाम लेकर गलती की है और उन्हें उसकी सजा मिलेगी . लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को हल्का करने की उनकी कोशिश को माफ़ नहीं किया जाना चाहिए . आज़ादी के साठ साल बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने जस्टिस राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी जिस की रिपोर्ट आने के बाद दुनिया को मालूम हुआ कि भारत में मुसलमानों की हालत कितनी खराब है . उसको बुनियादी दस्तावेज़ मान कर कई स्तर पर सरकार ने कुछ काम भी शुरू किया . शिक्षा के क्षेत्र में मुसलमानों के पिछड़ेपन को कम करने के लिए बहुत सारे वजीफों का ऐलान हुआ ,जिसकी ज़िम्मेदारी भी सलमान खुर्शीद के पास ही है . उनके एक ख़ास बन्दे ने एक दिन बताया था कि सलमान खुर्शीद अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री बनकर खुश नहीं हिं ,वे किसी मलाईदार विभाग में जाना चाहते हैं .इसीलिये इस तरह की बात कर रहे हैं जिस से उनको और कोई मंत्रालय मिल जाए.यह खेल उल्टा भी पड़ सकता है क्योंकि अगर उनके आलाकमान की समझ में यह बारीक चाल आ गयी तो सलमान साहब पैदल भी हो सकते हैं . वैसे भी उनकी राजनीतिक हसियत ऐसी नहीं है कि कांग्रेस उनको मह्त्व देने के लिए मजबूर हो सके.
जहां तक सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बारे में उनके ख्यालात की बात है वह बहुत ही गैर जिम्मेदाराना है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के प्रकाशित होने के पहले राजनेताओं का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस सरकारों पर मुसलमानों के तुष्टीकरण के आरोप लगता रहता था लेकिन अब ऐसा नहीं है. इस रिपोर्ट ने साफ़ कर दिया था कि केंद्र सरकार ने या राज्य सरकारों ने मुसलमानों को इस देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना रखा था. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बाद उनके कल्याण की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण पहल हुई है जिस से देश में बराबरी का निजाम कायम होने में मदद मिलेगी. बीजेपी और उसेक सहयोगी दलों की कोशिश है कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के खिलाफ अभियान चलाकर उसे बदनाम कर दें . उनके इस अभियान में सलमान खुर्शीद का बयान बहुत ही अहम भूमिका निभाएगा. ऐसी हालत में शक़ होता है कि कहीं सलमान साहब दिल्ली में रहने वाले बीजेपी के उन मित्रों की शह पर काम कर रहे हैं जिनसे उनकी मुलाक़ात रात की दावतों में होती है. देश के सभी इंसाफ़पसंद लोगों को चाहिए कि सलमान खुर्शीद की उस कोशिश को बेनकाब करें जिसके तहत वे सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को बदनाम करने की साज़िश का हिस्सा बन रहे हैं .
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