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Sunday, November 3, 2013

मुंबई का पृथ्वी थियेटर - जहां सपने अपनी मंजिल तलाशते हैं .




शेष नारायण सिंह

मैं जब भी मुंबई के पृथ्वी थियेटर जाता हूँ मुझे महान बुद्धिजीवी  जी पी देशपांडे की याद ज़रूर आ जाती है . शायद ऐसा इसलिए कि मुझे मालूम है कि इस थियेटर का उदघाटन उनके नाटक “उद्ध्वस्त धर्मशाला “ के मंचन से हुआ था . और जब वे इस नाटक के बाद दिल्ली वापस आये थे तो इसके बारे में बात की थी . विश्वविद्यालय की सड़क पर चलते हुए उन्होंने बताया था कि उन्हें कितनी खुशी हुई थी  . पी पी एच से निकल कर आते हुए उनसे मुलाक़ात  हुई थी . याद इसलिए अब तक बनी हुई है कि शब्द ‘उद्ध्वस्त धर्मशाला ‘ मुझे कहीं चिपक सा गया है . कभी इस अभिव्यक्ति को सुना नहीं था .कुछ लोग थे और उनके बीच जी पी देशपांडे . इस बार उनकी याद बहुत शिद्दत से आयी क्योंकि अभी कुछ दिन पहले उनका देहांत हो गया है . हो सकता है कि लोग पृथ्वी थियेटर को  पृथ्वीराज कपूर की याद में जानते हों लेकिन मेरे लिए यह एक निजी यादगार है . हालांकि पृथ्वीराज कपूर को भी मैं बहुत ही सम्मान से याद करता हूँ  लेकिन पृथ्वी पर आते ही मुझे जी पी डी की याद आ जाती है तो  क्या करूं ?
महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में लोग  औरंगजेब को नहीं जानते थे लेकिन जब मराठी थियेटर के सबसे ताक़तवर अभिनेता प्राभाकर पंशीकर ने  औरंगजेब की भूमिका में गाँव गाँव में घूमकर नाटक प्रस्तुत करना शुरू किया तो लोग उनकी शख्सियत से जोड़कर औरंगजेब का तसव्वुर करने लगे. लगभग ऐसा ही आलम  मुग़ल बादशाह अकबर का है . हमारी और हमारी पहले की  पीढ़ी के ज़्यादातर लोग अकबर का वही तसव्वुर करते हैं जो के. आसिफ की फिल्म ‘मुगले-आज़म ‘ में दिखाया गया है . बहुत ही भारी भरकम आवाज़ में भारत के शहंशाह मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर के डायलाग हमने सुने हैं . अकबर का नाम आते ही उन लोगों के सामने तस्वीर घूम जाती है जिसमें  मुगले आज़म की भूमिका में पृथ्वीराज  कपूर को देखा गया है .
पृथ्वीराज कपूर अपने ज़माने के बहुत बड़े  अभिनेता थे. उन्हीं की याद में उनके बच्चों ने पृथ्वी थियेटर की इमारत स्थापना की . उनकी इच्छा थी कि पृथ्वी थियेटर को एक स्थायी पता दिया जा सके. इस उद्देश्य से उन्होंने १९६२ में ही ज़मीन का इंतज़ाम कर लिया था लेकिन बिल्डिंग बनवा नहीं पाए. १९७२ में उनकी मृत्यु हो गयी .ज़मीन  की लीज़ खत्म हो गयी .उनके बेटे शशि कपूर और जेनिफर केंडल ने से लीज़ का नवीकरण करवाया और आज पृथ्वी थियेटर पृथ्वीराज कपूर के सम्मान के हिसाब से ही जाना जाता है . श्री पृथ्वीराज कपूर मेमोरियल ट्रस्ट एंड रिसर्च फाउन्डेशन नाम की संस्था इसका संचालन करती है . इसके मुख्य ट्रस्ट्री शशि कपूर हैं और उनके बच्चे इसका संचालन करते हैं. आज मुंबई के सांस्कृतिक कैलेण्डर में पृथ्वी थियेटर का स्थान बहुत बड़ा है .

जब १९७८ में जेनिफर केंडल और उनके पति , हिंदी फिल्मों के नामी अभिनेता शशि कपूर ने इस जगह पर पृथ्वी का काम शुरू किया तो इसका घोषित उद्देश्य हिंदी नाटकों को एक मुकाम देना था .लेकिन अब अंग्रेज़ी नाटक भी यहाँ होते हैं .जेनिफर केंडल खुद एक बहुत बड़ी अदाकारा थीं और अपने पिता की नाटक कंपनी शेक्स्पीयाराना में काम करती थीं. पृथ्वीराज कपूर ने पृथ्वी  थियेटर की स्थापना १९४४  में कर ली थी. सिनेमा की अपनी कमाई को वे पृथ्वी थियेटर के नाटकों में लगाते थे . अपने ज़माने में उन्होंने बहुत ही नामी नाटकों की प्रस्तुति की .शकुंतला ,गद्दार, आहुति, किसान, कलाकार कुछ ऐसे नाटक हैं जिनका हिंदी/उर्दू नाटकों के विकास में इतिहास में अहम योगदान है और इन सबको पृथ्वीराज कपूर ने ही प्रस्तुत किया था .थियेटर के प्रति उनके प्रेम को ध्यान में रख कर ही उनके बेटे और पुत्रवधू ने इस संस्थान को स्थापित किया था . मौजूदा पृथ्वी थियेटर का उदघाटन १९७८ में किया गया . पृथ्वी के मंच पर पहला नाटक “ उध्वस्त धर्मशाला “  खेला गया जिसको महान नाटककार ,शिक्षक और बुद्दिजीवी जी पी देशपांडे ने लिखा था . नाटक की दुनिया के बहुत बड़े अभिनेताओं , नसीरुद्दीन शाह  और ओम पूरी ने इसमें अभिनय किया था . पृथ्वी से मेरे निजी लगाव का भी यही कारण है .अब तो खैर जब भी मुंबई आता हूँ यहाँ टहलते हुए ही चला आता हूँ क्योंकि यह मेरे बच्चों के घर के बहुत पास है .पृथ्वी का दूसरा नाटक था बकरी , सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के इस नाटक को इप्टा की ओर से एम एस सथ्यू ने निर्देशित किया था . यह वह समय है जबकि मुंबई की नाटक की दुनिया में हिंदी नाटकों की कोई औकात नहीं थी लेकिन पृथ्वी ने एक मुकाम दे दिया और आज अपने सपनों को एक शक्ल देने के लिए मुंबई आने वाले बहुत सारे संघर्षशील कलाकार यहाँ दिख जाते हैं .पृथ्वी के पहले मुंबई में अंग्रेज़ी, मराठी और गुजराती नाटकों का बोलबाला हुआ करता था लेकिन पृथ्वी थियेटर की स्थापना के ३५ वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है . अब हिंदी के नाटकों की अपनी एक पहचान है और मुंबई के हर इलाके में आयोजित होते है .
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Friday, July 15, 2011

आतंक फैलाने वाले मौत के सौदागरों को बेनकाब करने की ज़रुरत

शेष नारायण सिंह

मुंबई में एक बार फिर आतंक का हमला हुआ. तीन भीड़ भरे मुकामों को निशाना बनाया गया . मकसद फिर वही था, आम आदमी के अंदर दहशत भर देना . मुंबई फिर अपने काम काज में लग गयी. आतंकवादी अपने मकसद में कामयाब नहीं हुए . उनके हिसाब में कुछ लोगों का क़त्ल और लिख दिया गया. सरकार ने अपना काम शुरू कर दिया और आम आदमी ने इस तरह से अपना काम करने का फैसला किया जैसे कुछ हुआ ही नहीं है. जिन लोगों की जान गयी है उनके परिवार वाले ज़िंदगी भर का दर्द अपने सीने में लेकर जिंदा रहेगें. जो घायल हुए हैं उनकी ज़िंदगी बिलकुल बदल जायेगी. वे आतंक को कभी भी माफ़ नहीं करेगें. पाकिस्तान की फौज और आई एस आई की तरफ से दावा किया जाता है कि भारत में जो लोग भी आतंक फैला रहे हैं, वे किसी अन्याय का बदला ले रहे होते हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि पाकिस्तान की एक बड़ी आबादी को भी यह बता दिया गया है कि भारत ने कभी कुछ नाइंसाफी की थी ,उसी को दुरुस्त करने के लिए जिया उल हक और परवेज़ मुशर्रफ जैसे फौजी तानाशाहों ने पाकिस्तान की गरीब जनता को आतंकवादी बना कर भारत में भेज दिया था . लेकिन हर आतंकी हमले के बाद यह साफ़ हो जाता है कि मौत के यह सौदागर किसी भी अन्याय के खिलाफ नहीं हैं .यह तो अन्याय का निजाम कायम करने के अभियान को चलाने वाले के हाथ की कठपुतली हैं .
मुंबई के दादर, झवेरी बाज़ार और ओपेरा हाउस में हुए धमाकों के पीछे छुपे इरादों की निंदा पूरी दुनिया में हो रही है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने इस हमले को अपराधी कारनामा बताया है और कहा है कि इसको किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता . इंग्लैण्ड, अमरीका, रूस आदि देशों के नेताओं ने भी मुंबई पर हुए आतंक के हमले की निंदा की है . भारत में भी इस हमले के बाद संतुलन दिख रहा है . आमतौर पर किसी भी आतंकी हमले को पाकिस्तान की साज़िश बता देने वाले मीडिया के उस वर्ग में भी संतुलन नज़र आ रहा है . मीडिया ने मुंबई के ताज़ा आतंक की विस्तार से रिपोर्ट की है लेकिन अभी तक आमतौर पर यही कहा जा रहा है कि हर उस संगठन और मंशा की जांच की जा रही है जो भारत को नुकसान पंहुचा सकते हों . महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और केंद्रीय गृहमंत्री ने साफ़ कह दिया है कि शक़ करने का कोई मतलब नहीं है . मामले की गहराई से जांच की जा रही है . अक्सर ऐसा होता है कि दक्षिण एशिया के इलाके में शान्ति बनाए रखने की कोशिशों को पटरी से उतारने के लिए इस तरह के हमले किये जाते हैं . अगर हमला करने वालों का यह उद्देश्य था तो वे पूरी तरह से नाकाम हो गए हैं . भारत और पाकिस्तान की सरकारों की तरफ से बयान आ गए हैं कि दोनों देशों के विदेश मंत्रालय के बीच जुलाई के अंत में होने वाली बातचीत पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. अमरीकी विदेश मंत्री , हिलेरी क्लिंटन की प्रस्तावित भारत यात्रा भी कार्यक्रम के अनुसार ही होगी. यानी कुछ निरीह लोगों की जान लेने के अलावा इस हमले ने कोई भी राजनीतिक मकसद नहीं हासिल किया है. उलटे ऐसा लगता है कि जब भी इस हमले के लिए ज़िम्मेदार लोगों की पहचान हो जायेगी , उनके समर्थकों के बीच भी उनकी निंदा होगी .

मुंबई पर बुधवार को हुए हमले का एक अहम पक्ष यह भी है कि पाकिस्तान को तुरंत ही ज़िम्मेदार बता देने वाले नेता भी इस बार शांत हैं और आतंक के खिलाफ माहौल बनाने की बात कर रहे हैं . इस बार ऐसा लग रहा है कि भारत और पाकिस्तान के सभ्य समाज के लोगों की तरह वहां की सरकारें भी एक ही तरीके से आतंक की कार्रवाई की निंदा कर रही हैं . इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमले में पाकिस्तानी फौज , आई एस आई या कुछ पाकिस्तानी जनरल शामिल हों . लेकिन लगता है कि पाकिस्तानी फौज के गुनाहों को इस बार पाकिस्तान की सरकार अपने सिर लेने को तैयार नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो इसे बहुत ही बड़ी बात के रूप में याद रखा जाएगा .ज़रुरत इस बात की है कि पाकिस्तानी फौज और उसके आतंक के निजाम को अलग थलग किया जाए . यह अजीब लग सकता है लेकिन सच यही है कि पाकिस्तान में हुकूमत सेना की ही चलती है .पहली बार ऐसा हो रहा है कि पाकिस्तान की तथाकथित सिविलियन सरकार अपनी ही फौज के किसी कारनामे को अपनाने को तैयार नहीं है. ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद पाकिस्तानी राष्ट्र और समाज में भी तूफ़ान आया हुआ है . लगता है कि अपनी बेचारगी को दुनिया के सामने रख कर पाकिस्तानी सरकार ने अपनी ही फौज़ को घेरने में शुरुआती सफलता हासिल की है . आगे के राजनीतिक घटनाक्रम में दुनिया का आतंक के प्रति रुख बदलने की क्षमता है . कोशिश की जानी चाहिए कि आतंक के सौदागर जहां भी हों उन्हें पकड़ा जाए और सज़ा दी जाए.

Thursday, November 11, 2010

मुंबई लक्ष्मी का नइहर है

शेष नारायण सिंह

जब २००४ में मुंबई में जाकर काम करने का प्रस्ताव मिला तो मेरी माँ दिल्ली में ही थीं. घर आकार मैं बताया कि नयी नौकरी मुंबई में मिल रही है . माताजी बहुत खुश हो गयीं और कहा कि भइया चले जाओ, मुंबई लक्ष्मी का नइहर है . सारा दलेद्दर भाग जाएगा. मुंबई चला गया , करीब दो साल तक ठोकर खाने के बाद पता चला कि जिस प्रोजेक्ट के लिए हमें लाया गया था उसे टाल दिया गया है . बहुत बड़ी कंपनी थी लेकिन काम के बिना कोई पैसा नहीं देता. बहरहाल वहां से थके हारे लौट कर फिर दिल्ली आ गए और अपनी दिल्ली में ही रोजी रोटी की तलाश में लग गए. लेकिन अपनी माई की बात मुझे हमेशा झकझोरती रहती थी . अगर मुंबई लक्ष्मी का नइहर है तो मैं क्यों बैरंग लौटा . इस बीच मुंबई में बहुत कुछ हुआ. अपने मुंबई प्रवास के दौरान मुझे अपने बचपन के कई साथी भी मिले जो वहां रोज़गार की तलाश में सत्तर के दशक में गए थे ,अब आराम से हैं . अब साल में कई बार मुंबई जाना होता है . मेरे बेटे की नौकरी वहीं है . अपने बचपन के साथियों से अब भी मिलना जुलना होता है . उनमें से एक पहलवान ने तो इस साल नए सिरे से कारोबार शुरू किया . पिछली बार उसने कहा था कि अपनी भी अजीब ज़िन्दगी है, लोग ६० साल की उम्र में रिटायर हो जाते हैं और हम हैं कि अभी फिर से नौकरी तलाश रहे हैं . लेकिन इस बार उसका कारोबार देख कर मज़ा आ गया. मेरी ही पृष्ठभूमि के लोग अब मुंबई में अरब पति हैं . तुर्रा यह कि किसी ने कोई बेईमानी नहीं की , अपनी मेहनत के बल पर जमे हुए हैं . अभी मेरा एक दोस्त शिक्षा विभाग से रिटायर हुआ. बड़े पद पर था .कल्याण के पास उल्लास नगर में रहता था , रोज़ दक्षिण मुंबई काम करने आता था . नौकरी में बहुत मुश्किल से काम चलता रहा लेकिन अब रिटायर होने पर पैसे वाला बन गया. इस बार मुझे भी एक दोस्त ने समझाया कि दिल्ली की माया छोडो ,मुंबई आ जाओ . अपनी उम्र के बहुत सारे लोगों ने रिटायर होने के बड़ा काम शुरू किया है और अब ज्यादा आराम से हैं . फिर लगा कि माई ने सही कहा था , मुंबई वास्तव में लक्ष्मी का नइहर है . अगर थोड़े धीरज के साथ काम करने का मन कोई भी बना ले तो मुंबई में उसे निराश नहीं होना पड़ेगा .

Tuesday, February 9, 2010

मुंबई की दौलत में मुसलमानों का ख़ून पसीना

शेष नारायण सिंह

अभी कल की बात है जब मुंबई में राहुल गाँधी ने मुंबई की लोकल ट्रेन से यात्रा की और पूरी दुनिया के सामने यह बात एक बार साबित हो गयी कि अगर हुकूमत चाहे तो किसी भी गुंडे को उसकी बिल में छुपने को मजबूर कर सकती है . शिवसेना के मुखिया, बाल ठाकरे ने धमकी दी थी कि उनकी जमात के लोग राहुल गाँधी का स्वागत काले झंडों से करेंगें . महाराष्ट्र के कांग्रेसी मुख्य मंत्री ने सरकार को चौकन्ना कर दिया और शिव सेना वालों की हिम्मत नहीं पड़ी कि कि वे कहीं भी उत्पात मचाएं. हम जैसे लोगों ने साफ़ कहा कि राहुल गाँधी की हिम्मत और राजनीतिक सोच की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने अपनी सरकार को शिवसेना की गुंडई पर लगाम लगाने के लिए तैयार किया ..लेकिन दो दिन बाद ही कांग्रेस के नेताओं ने उस भरोसे को चकनाचूर कर दिया . आज मुंबई की सडकों पर शिव सेना के कार्यकर्ता लाठी डंडे लेकर घूम रहे हैं और जहां चाह रहे हैं तोड़ फोड़ कर रहे हैं .पुलिस वाले चुपचाप खड़े नज़र आ रहे हैं और कुछ नहीं कर रहे हैं ... शिव सेना वाले शाहरुख खान के खिलाफ नारे लगा रहे हैं. और धमकी दे रहे हैं कि मुंबई में उनकी फिल्म रिलीज़ नहीं होने दी जायेगी. . उनकी फिल्म के निर्माता. करण जौहर ने मुख्य मंत्री और पुलिस कमिश्नर से मुलाक़ात की है और उन्हें भरोसा दिया गया है कि उनकी फिल्म जहां भी रिलीज़ होगी , वहां पुलिस का बंदोबस्त रहेगा.. उन पुलिस वालों की छुट्टियां रद्द कर दी गयी हैं जो छुट्टी पर गए हुए हैं .. ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है कि कि बहुत बड़ी आफत आ गयी है और सारी पुलिस शाहरुख खान की फिल्म दिखाने वाले सिनेमा हालों की सुरक्षा में लगा दी जायेगी.
महाराष्ट्र में जो कुछ भी वहां की सरकार कर रही है, उस से उसकी नीयत पर शक होता है .. जिस मुंबई पुलिस ने अभी दो दिन पहले राहुल गाँधी की मुंबई यात्रा के दौरान शिव सेना के अराजक लोगों को बिलों में घुसने को मजबूर कर दिया था, उसे क्या हो गया है .? ज़ाहिर है पुलिस अधिकारी अपने वे तरीके नहीं भूले होंगें जो उन्होंने राहुल गाँधी की सुरक्षा बंदोबस्त के दौरान इस्तेमाल किया था . कौन रोक रहा है . अब सबको मालूम है कि राहुल गाँधी की यात्रा के दौरान जिन लोगों पर शक था उन्हें पकड़ लिया गया था और ज़्यादा खूंखार शिव सैनिकों को माहिम पुलिस थाने में बैठा कर समझा दिया गया था कि अगर गड़बड़ी हुई तो हड्डियों का डिजाइन बदल दिया जाएगा.... ज़ाहिर है कि धौंस पट्टी से काम चलाने वाला आदमी कायर होता है ,इस लिए पुलिस की धुनाई के सामने सारी हेकड़ी धरी रह गयी थी और शिव सेना के उत्पाती लोग घरों से बाहर नहीं निकल सके थे .. . हमारा सवाल है कि मुंबई में आम आदमी को पुलिस की वहीं सुरक्षा क्यों नहीं मिल सकी जो एक स्वतंत्र देश के नागरिक का हक है .. क्या कारण है कि जब राहुल गांधी मुंबई आते हैं तो अशोक चह्वाण शिव सेना को औकात पर ला देते हैं और जब मुंबई में रहने वाले अन्य लोगों की सुरक्षा की बात आती है तो शिव सेना को उकसा देते हैं ..
इसका मतलब यह हुआ कि मुंबई में शिव सेना की बदमाशी में कांग्रेस की मिली भगत है . आज मुंबई पुलिस केबड़े अधिकारी और राज्य के मुख्य मंत्री का बयान आया है कि जिन थियेटरों में शाह रुख खान की फिल्म लगेगी वहां पुलिस तैनात रहेगी. क्या राहुल गांधी के लिए भी इसी तरह पुलिस लगाई गयी थी या शिव सैनकों का प्रिवेंटिव डिटेंशन किया गया था .. क्यों नहीं महाराष्ट्र की सरकार ऐसा उपाय करती कि शिव सेना की बदमाशी हमेशा के लिए ख़त्म हो जाए.. मुख्य मंत्री के ताज़ा रुख से तो नहीं लगता कि वे शिव सेना को काबू में करना चाहते हैं ...उनका रुख तो ऐसा है कि वे शिव सेना को जिंदा रखना चाहते हैं .. और उस का इस्तेमाल लोगों को परेशान करने के लिए करना चाहते हैं ..क्या राहुल गाँधी और उनकी पार्टी का आला कमान मुंबई में सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कोई क़दम उठाएगा या पिछले ४० साल से जिस तरह से उनके पूर्वजों ने शिव सेना को बढ़ावा दिया है , वे भी उसी लाइन पर लग जायेंगें ..यह राहुल गाँधी की परीक्षा की घड़ी है कि जिस तरह से उनकी पार्टी की सरकार ने उनकी सुरक्षा की थी क्या वही सुरक्षा आम आदमी को मिल पायेगी क्योंकि संविधान तो यही गारंटी करता है ..

एक बात और . क्या कांग्रेस धर्म निरपेक्षता को केवल चुनावी नारा मानती है या उसे राज काज के दिशा निदेशक सिद्धांत के रूप में मान्यता देती है . क्योंकि अगर मुंबई में शाह रुख खान को पाकिस्तान समर्थक कह कर किसी जमात के लोग अपमानित कर सकते हैं तो देश के बाकी मुसलमान नागरिकों की हिफाज़त की क्या उम्मीद की जाए ? शाह रुख खान निजी हैसियत में भी बड़े कलाकार हैं लेकिन उस से भी बड़ी बात यह है कि वे उस बाप के बेटे हैं जो खान अब्दुल गफ्फार खान की लाल कुर्ती टुकड़ी का वालंटियर था. इसी लाल कुर्ती टुकड़ी ने महात्मा गांधी के अगले दस्ते के रूप में काम किया था. . क्या राहुल गाँधी एक बार कोशिश करेंगें कि इस देश में रहने वाले देशप्रेमी मुसलमानों से सड़क छाप गुंडे देश प्रेम की सर्टिफिकेट मांगना बंद कर दें . गौर करने वाली बात यह है कि यह सर्टिफिकेट उस फ़िल्मी दुनिया में माँगी जा रही है जहां पिछली सदी में भी और आज भी मुसलमान कलाकारों की एक बड़ी जमात पूरे देश की वाह वाही की हक़दार रही है ... क्या कांग्रेसी नेता एक मिनट के लिए कल्पना करना चाहेंगें कि दिलीप कुमार, सोहराब मोदी, मधु बाला, मीना कुमारी, शाहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी,. नौशाद, के आसिफ, कमाल अमरोही, ताहिर हुसैन, ख्वाजा अहमद अब्बास, नूर जहां, कैफ़ी आजमी, शबाना आजमी, नसीरुद्दीन शाह ,जावेद अख्तर, सलीम खान, हेलेन, निम्मी आदि आदि के बिना हिन्दी सिनेमा का क्या हाल हुआ होता. जिस मुंबई की दौलत पर शिव सेना के मालिक इतराते फिरते हैं , उसमें इन मुसलमानों का ख़ून पसीना लगा है .. कांग्रेस को चाहिए कि फ़ौरन से पेश्तर मुंबई में शिव सेना पर लगाम लागाने की अपनी मंशा का ऐलान करे और उसे लागू करें वरना इस देश के लोग यह मानने लगेंगें कि कांग्रेस और शिव सेना के बीच नूरा कुश्ती चल रही है.

Saturday, February 6, 2010

राहुल गाँधी बोल्या----- मुंबई में मनमानी नहीं चलेगी

शेष नारायण सिंह


राहुल गांधी ने अपनी मुंबई यात्रा से साबित कर दिया है कि उनमें जन नेता बनने की वही ताकत है जो उनके पिताजी के नाना जवाहर लाल नेहरू में थी। जवाहरलाल नेहरू के बारे में बताते हैं कि वे भीड़ के अंदर बेखौफ घुस जाते थे। राहुल गांधी ने उससे भी बड़ा काम किया है। उन्होंने मुंबई में आतंक का पर्याय बन चुके ठाकरे परिवार और उनके समर्थकों को बता दिया है कि हुकूमत और राजनीतिक इच्छा शक्ति की मजबूती के सामने बंदर घुड़की की राजनीति की कोई औकात नहीं है।

शुक्रवार को मुंबई में राहुल गांधी उन इलाकों में घूमते रहे जो शिवसेना के गढ़ माने जाते हैं लेकिन शिवसेना के आला अधिकारी बाल ठाकरे के हुक्म के बावजूद कोई भी शिवसैनिक उनको काले झंडे दिखाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। अपनी मुंबई यात्रा के दौरान राहुल गांधी के व्यवहार से एक बात साफ हो गई है कि अब मुंबई में शिवसेना का फर्जी भौकाल खत्म होने के मुकाम पर पहुंच चुका है। सुरक्षा की परवाह न करते हुए राहुल गांधी ने उन इलाकों की यात्रा आम मुंबईकर की तरह की जहां शिवसेना और राज ठाकरे के लोगों की मनमानी चलती है। लेकिन राहुल गांधी ने साफ बता दिया कि अगर सरकार तय कर ले तो बड़ा से बड़ा गुंडा भी अपनी बिल में छुपने को मजबूर हो सकता है।

मुंबई में राहुल गांधी का कार्यक्रम एसपी.जी. की सुरक्षा हिसाब से बनाया गया था। सांताक्रज हवाई अड्डे पर उतरकर उन्हें हेलीकोप्टर से जुहू जाना था जहां कालेज के कुछ लडके -लड़कियों के बीच में उनका भाषण था। यहां तक तो राहुल गांधी ने सुरक्षा के हिसाब से काम किया। कालेज में भाषण के बाद राहुल गांधी को फिर हेलीकाप्टर से ही घाटकोपर की एक दलित बस्ती में जाना था लेकिन उन्होंने इस कार्यक्रम को अलग करके मुंबई की लोकल ट्रेन से वहां पहुंचने का फैसला किया। जुहू से अंधेरी रेलवे स्टेशन पहुंचे, वहां एटीएम से पैसा निकाला, फिर वहां से चर्चगेट की फास्ट लोकल पकड़ी। दादर में उतरे और पुल से स्टेशन पार किया जैसे आम आदमी करता है। दूसरी तरफ जाकर सेंट्रल रेलवे के दादर स्टेशन से घाटकोपर की ट्रेन पर बैठे और आम आदमियों से मिलते जुलते अपने कार्यक्रम में पहुंच गए। शिवसेना वाले अपने मालिक के हुक्म को पूरा नहीं कर पाए और शहर में कहीं भी काले झंडे नहीं दिखाए गये।

राहुल गांधी की हिम्मत के यह चार घंटे भारत में गुंडई की राजनीति के मुंह पर एक बड़ा तमाचा है। अजीब इत्तफाक है कि इस देश में गुंडों को राजनीतिक महत्व देने का काम राहुल गांधी के चाचा, स्व. संजय गांधी ने ही शुरू किया था। और अब गुंडों को राजनीति के हाशिए पर लाने का बिगुल भी नेहरू के वंशज राहुल गांधी ने ही फूंका है। जो लोग मुंबई का इतिहास भूगोल जानते हैं, उन्हें मालूम है कि अंधेरी से लोकल ट्रेन के जरिए घाटकोपर जाना अपने आप में एक कठिन काम है। जिन रास्तों से होकर ट्रेन गुजरती है वह सभी शिवसेना के प्रभाव के इलाके हैं और वहां कहीं भी,कोई भी आम आदमी राहुल गांधी के खिलाफ नहीं खड़ा हुआ। इससे यह बात साफ है कि मुंबई महानगर में भी कुछ कार्यकर्ताओं के अलावा बाल ठाकरे और राज ठाकरे के साथ कोई नहीं है।

हालांकि यह मानना भी नहीं ठीक होगा कि सुरक्षा एजेंसियों ने राहुल गांधी की हर संभव सुरक्षा का पक्का इंतजाम नहीं किया होगा लेकिन मुंबई में शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुकामी दादाओं के आतंक के साए में रह रहे लोगों का यह मुगालता जरूर टूटेगा कि शिवसेना वालों को कोई नहीं रोक सकता। राहुल गांधी की ताज़ा मुंबई यात्रा से यह संदेश जरूर जायेगा कि अगर हुकूमत तय कर ले तो कोई भी मनमानी नहीं कर सकता। पता चला है कि पुलिस ने शिवसेना के मुहल्ला लेवेल के नेताओं को ठीक तरीके से धमका दिया है और पुलिस की भाषा में धमकाए गए यह मुकामी दादा लोग आने वाले वक्त में जोर जबरदस्ती करने से पहले बार बार सोचेंगे। कुल मिलाकर राहुल गांधी ने शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के फर्जी भौकाल पर लगाम लगाकर आम मुंबईकर को यह भरोसा दिलाया है कि सभ्य समाज और बाकी राजनीतिक बिरादरी भविष्य में उसे शिवसेना छाप राजनीति के रहमोकरम पर नहीं छोड़ेगी।

Sunday, August 16, 2009

हमारी माटी में त्रिपाठी जैसे भी

6 दिसंबर 1992 के दिन जब आरएसएस की साजिश के चलते अयोध्या की ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था तो उसके मलबे के नीचे बहुत कुछ दब गया था। सुप्रीम कोर्ट का उत्तर प्रदेश सरकार के ऊपर से विश्वास चकनाचूर हो गया था, इंसानी रिश्तों के अर्थ बदलने लगे थे और पहली बार दंगा गांवों में फैल गया था।

हिंदुत्व के नाम पर आतंक की खेती करने वाली जमातों की पूरी कोशिश थी कि इस देश में मुसलमानों को अपमानित किया जाय उनकी देश प्रेम की भावना पर सवाल उठाया जाय। हर शहर में मुसलमान को घेरने की कोशिश की जा रही थी। मुंबई शहर में शिव सेना की वजह से मुसलमानों को बहुत मुश्किलें पेश आईं, बहुत सारे घर जला दिए गए, लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। बहुत सारे मामलों में तो मरे हुए लोगों की लाशें गायब कर दी गईं। दंगाइयों को मालूम था कि अगर मृतक की लाश गायब कर दी जाय तो उसके आश्रितों को मुआवज़ा नहीं मिलता।

बंबई दंगों में मारे गए बहुत से लोगों की लाशें भी नहीं मिली थीं। कहीं-कहीं तो पूरे परिवार तबाह हो गए थे और बच्चे अनाथ हो गए थे। बंबई और अन्य शहरों के दंगाइयों के खिलाफ पूरे देश में धर्मनिरपेक्ष सोच के लोग लामबंद हो गए थे। दंगा करने वालों के खिलाफ एक मौन आक्रोश था लेकिन नागरिकों का एक वर्ग ऐसा भी था जिनका आक्रोश मुखर था। बंबई में धर्मनिरपेक्ष बुद्घिजीवियों की खासी बड़ी संख्या है। असगर अली इंजीनियर राम पुनियानी, शबाना आजमी, सुमा जोसन, शुक्ला सेन कुछ ऐसे नाम हैं जो दंगे के खिलाफ जनमत बनाने में जुट गए। चिंतित नागरिकों की जमात में एक ऐसा आदमी था जो सरकारी अफसर था, दंगा पीडि़तों की मदद करना उसकी सरकारी ड्यूटी थी। वह भी दंगाइयों के हौसलों के सामने अपने आपको असहाय महसूस कर रहा था।

मुंबई दंगों के बाद किसी नेता की हिम्मत नहीं थी कि पीडि़तों के इलाकों में शक्ल दिखाने जा सके। सबको मालूम था कि उस वक्त की कांग्रेसी सरकार के दंगाइयों के नेता से बहुत अच्छे संबंध थे। सरकार की ध्वस्त हो चुकी साख के बीच किसी सरकारी अफसर का वहां पहुंचना और पीडि़त लोगों का विश्वास हासिल कर पाना बहुत ही कठिन काम था। ऐसे माहौल में महाराष्ट्र में तैनात आईएएस अधिकारी सतीश त्रिपाठी ने जब दंगा पीडि़त इलाकों का दौरा किया तो सन्न रह गए थे। दंगाइयों ने जिस तरह से मुसलमानों को तबाह किया था उसके बारे में सोच कर आज भी वे सिहर उठते हैं। त्रिपाठी ने देखा कि सरकारी कायदे कानून ऐसे हैं जिनकी सीमा में रहकर पीडि़तों की मदद नहीं की जा सकती।

उन्होंने एक गैर सरकारी संगठन बनाकर लोगों की मदद करने का फैसला किया और 'सेतु' नाम का संगठन बनाया। दंगे में मारे गए जिन लोगों की लाशों को गायब कर दिया था या जिनका अपहरण करके कहीं और ले जाकर मारा गया था और शव ठिकाने लगा दिया गया था उनके परिवार वालों को मदद दिलवाने के लिए सतीश त्रिपाठी ने दिल्ली तक लड़ाई लड़ी। उन्होंने सरकारी मशीनरी का पीडि़तों के पक्ष में इस्तेमाल करने का फैसला किया। साथ ही अपने स्वयंसेवी संगठन को भी सक्रिय कर दिया। उनके संगठन ने दंगों में अनाथ हुए 92 बच्चों की पढ़ाई लिखाई का जिम्मा लिया।

इनमें से कई बच्चे तो आत्मनिर्भर हो चुके हैं, अपनी रोजी रोटी कमा रहे हैं। बाकी पढ़ रहे हैं और आगे चलकर उनके भी कामकाज में लग जाने की संभावना है। सतीश त्रिपाठी अब सरकारी सेवा से रिटायर हो चुके हैं। सांप्रदायिक सद्भाव के बारे में उनकी सोच अन्य लोगों के लिए उदाहरण बन सकती है। मूलरूप से उत्तर प्रदेश के देवरिया के रहने वाले सतीश त्रिपाठी ने कलकत्ता विश्व विद्यालय से शिक्षा ग्रहण करके आईएएस में प्रवेश किया था। 37 साल की सेवा के बाद सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं अब वह काम पूरी मेहनत से कर रहे हैं जो वे हमेशा से ही करना चाहते थे। अब वे पूरा समय मुसलमानों की पक्षधरता में लगाते हैं।

दिसंबर 1992 के बाद जब सारी दुनिया बदल गई थी तो बहुत सारे लोगों की शख्सियत की पहचान हुई। बाद में उन्होंने महाराष्ट्र के औरंगाबाद और मालेगांव के पीडि़तों के साथ खड़े होकर उनकी मदद की, लापता लोगों को तलाशने में सरकारी ताकत का इस्तेमाल किया। सतीश त्रिपाठी की संस्था सेतु का सांप्रदायिक सदभाव का रिकॉर्ड अनुकरणीय है। इसीलिए उनकी संस्था को सन 2007 का राष्टï्रीय सांप्रदायिक सदभावना पुरस्कार दिया गया। यह पुरस्कार केंद्र सरकार की तरफ से सांप्रदायिकता के खिलाफ काम करने वालों को दिया जाता है। आजकल श्री त्रिपाठी मदरसों में पढऩे वाले गरीब मसुलमानों के बच्चों की शिक्षा के लिए काम कर रहे हैं। महाराष्ट्र में मदरसों की व्यवस्था बहुत ही अव्यवस्थित है। जो भी बच्चे वहां भरती होते हैं, उसमें मुश्किल से दो तीन फीसद बच्चे ही धार्मिक विषयों की उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं और समाज में सम्मानित होते हैं।

लेकिन 95 फीसद बच्चे मदरसे में चार पांच साल बिताकर ही वापस आ जाते हैं। तब तक उनकी उम्र 13-14 साल की हो चुकी होती है। ज़ाहिर है वे नए सिरे से पढ़ाई नहीं शुरू कर सकते और शिक्षा के अभाव में सही रोजगार नहीं मिलता। सतीश त्रिपाठी ने ऐसी स्कीम बनाई है कि इन बच्चों को उनके मदरसों में ही सर्वशिक्षा अभियान की योजना के तहत दीनी तालीम के अलावा अन्य विषयों की भी शिक्षा दी जाय। जब यह बच्चे मदरसों से निकलते हैं तो उनके पास पांचवी या छठवीं पास का ट्रांसफर सर्टिफिकेट होता है जो सरकार की ओर से मान्यता प्राप्त होता है और जिसकी बिना पर उन्हें छठवीं या सातवीं क्लास में प्रवेश मिल जाता है। इस तरीके से वे अपनी ही आयु वर्ग के बच्चों के साथ उच्च शिक्षा हासिल कर सकते हैं।

सतीश त्रिपाठी का यह काम आने वाली नस्लों को इज्ज़त से रोटी कमाने और सम्मान से जिंदा रहने का मौका देता है। इस तरह से शिक्षित नागरिक मदरसा की शिक्षा के कारण अच्छी उर्दू के जानकार होंगे। इनको धार्मिक मामलों की समझ होगी और नौकरी के लिए ज़रूरी शिक्षा भी उनके पास होगी जिसकी वजह से उन्हें समाज में सम्मान मिलेगा। समाज को सतीश त्रिपाठी जैसे लोगों पर गर्व करना चाहिए।