मिस्र के नगर शर्म-अल-शैख में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बीच हुई बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला था। दोनों देशों के नेता अपनी घोषित पोजीशन से हटने को तैय्यार नहीं थे। पाकिस्तान लगातार कंपोजि़ट डायलाग की बात करता रहा तो भारत का आग्रह था कि भारत के खिलाफ होने वाले आतंकवादी हमलों पर पाकिस्तान सही तरीके से विचार करे और अपने मुल्क में काम कर रहे आतंक के ढांचे का विनाश करे।
दोनों ही देशों पर अमरीका का दबाव था। भारत पर अमरीकी दबाव का असर कम पड़ता है लेकिन पाकिस्तान तो लगभग पूरी तरह से अमरीकी मदद पर ही निर्भर है। अमरीका डांट फटकार का पाकिस्तान से कुछ भी करवा सकता है लेकिन उसे एक सीमा से ज्यादा दबाने से सिविलियन सरकार के लिए बहुत मुश्किलें पेश आ सकती हैं। इसलिए शर्म-अल-शैख में भारत ने कंपोजिट डायलाग की बात मानने से इनकार कर दिया और अपने आपको किसी शर्त से मुक्त कर लिया। दोनों नेताओं की बातचीत के बाद जो बयान जारी किया गया उसके अनुसार अभी कोई कंपोजिट डायलाग नहीं होगा, दोनों देशों के विदेश सचिव आपस में मिलते जुलते रहेंगे और अपने विदेश मंत्रियों को बातचीत की जानकारी देते रहेंगे।
जब सही वक्त आएगा तो बातचीत शुरू की जाएगी। ज़ाहिर है कि भारत ने पाकिस्तान को झिटक दिया था और कंट्रोल अपने हाथ में ले लिया था कि जब भारत चाहेगा तो बातचीत होगी। पहले के भारतीय राजनीतिक कहते रहते थे कि भारत के खिलाफ होने वाले आतंक के नेटवर्क को जब तक पाकिस्तान खत्म नहीं करता, उससे कोई बातचीत नहीं होगी। शर्म-अल-शैख की यही उपलब्धि है कि वहां यह बात साफ कर दी गई कि आतंक और कंपोजिट डॉयलाग अलग-अलग बातें हैं, दोनों एक दूसरे पर निर्भर नहीं हैं। यानी भारत जब चाहे तब पाकिस्तान से बात करने को स्वतंत्र है, उस पर कोई पाबंदी नहीं है।
इस बातचीत के दौरान पाकिस्तानी खेमे ने भारतीय अधिकारियों को कथित रूप से एक पुलिंदा भी पकड़ा दिया था जिसमें बलूचिस्तान की आजादी की लड़ाई में भारत का हाथ होने की बात कही गई थी। यहां यह समझना जरूरी है कि शर्म-अल-शैख में दोनों पक्षों के बीच में किसी तरह की सहमति नहीं हुई थी बातचीत के बाद तय हुआ था कि फिर मौका लगा तो बातचीत की जायेगी। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गीलानी ने स्वदेश लौटकर अपनी यात्रा को बहुत सफल बताया और मीडिया में इस तरह का माहौल बनाया जैसे भारत विजय करके लौटे हों। पाकिस्तानी मीडिया भी उनकी रौ में बह गया लेकिन सच्चाई सबको मालूम थी। पाकिस्तानी फौज, आईएसआई पाकिस्तानी मीडिया, चीन, अमरीका और यूसुफ रजा गीलानी सबको मालूम था कि भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को एक इंच नहीं दिया है लेकिन सबकी अपनी मुकामी मजबूरियां होती हैं, सबने उसी तरह से बात करना शुरू कर दिया। भारत के मुख्य विपक्षी दल ने भी कहना शुरू कर दिया कि डा. मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शैख में सब कुछ लुटा दिया। भारत में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग अंतर्राष्टï्रीय मामलों की साफ समझ नहीं सकता। इस वर्ग के वरिष्ठ लोग सरकार की विदेश नीति संबंधी आलोचना मुख्य विपक्षी दल की राय को ध्यान में रखकर करते हैं। ज़ाहिर है कि पूरे देश में माहौल बन जाता है कि विपक्षी पार्टी के कुछ लोग जो कह रहे हैं, वही जनता का भी मत है। इस बार भी वही हुआ। पराश्रयी चिंतन पर आधारित मीडिया के मर्मज्ञों ने भारत-पाक रिश्तों पर राग बीजेपी में अलाप लेना शुरू कर दिया। उसी में तरह-तरह की रागिनियां गाई जाने लगीं।
बीजेपी की प्रिय रागिनी जो कमजोर प्रधानमंत्री की कथा पर आधारित है, एक बार फिर चर्चा में आ गई। बीजेपी के प्रवक्ताओं ने कहना शुरू कर दिया कि मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शैख में मनमानी की है और कांग्रेस पार्टी भी उनके साथ नहीं है, उन्होंने संसद को विश्वास में लिए बिना इतनी बड़ी बात कर दी वगैरह-वगैरह। यह बात दस दिनों तक चली और पूरे विपक्ष ने शर्म-अल-शेख में हुई बातचीत और कांग्रेस के ताथाकथित मतभेद पर अपनी सारी ताकत लगा दी। कांग्रेस पार्टी के लिए यह स्थिति बहुत ही अच्छी थी। केंद्रीय बजट पर बहस चल रही थी और मंहगाई का मुद्दा बहुत ही भयानक रुख ले चुका है।
सरकार दावा कर रही है कि मंहगाई की दर बिलकुल घट गई है, हालत बहुत सुधर गए हैं। सच्चाई यह है कि जब आम आदमी दुकान पर कुछ भी खरीदने जाता है तो मंहगाई का दानव उसे घेर लेता है। मंहगाई पूरी तरह से मध्यवर्ग की कमर तोड़ रही है। लेकिन विपक्षी पार्टियों ने इस मुद्दे पर संसद में बजट पर बहस के दौरान कोई सवाल नहीं उठाया। जितना महत्व सरकारी प्रधानमंत्री का है, उतना ही महत्व विपक्ष के नेता का भी है। लोकतंत्र में जनता उम्मीद करती है कि नेता विपक्षी दल उसकी तरफ से सरकार पर लगाम लगाए लेकिन दुर्भाग्य है कि इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। मुख्य विपक्ष के नेता वॉक आउट करते रहे, हल्ला मचाते रहे और कांग्रेस के भीतर की कलह के प्रहसन पर उल्टी सीधी टिप्पणी करते रहे।
बिना किसी संकोच कहा जा सकता है कि विपक्ष ने बजट पर हुई बहस के दौरान कोई रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका नहीं निभाई हां, अगर कोई राष्टï्रीय संकट होता, देश की एकता और अखंडता पर प्रश्न उठ रहे होते तो नून, तेल, लकड़ी की चर्चा को भूल जाना उचित था लेकिन ऐसी कोई बात नहीं थी। कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के जिस मतभेद की चर्चा की जा रही थी, उसका आम आदमी से कोई लेना देना नहीं है। वैसे भी दस दिन के हल्ले के बाद कांग्रेस ने स्पष्टï कर दिया कि वह पूरी तरह से प्रधानमंत्री के साथ है, यानी विपक्षी पार्टियों ने एक नॉन इश्यू पर अपनी ताकत बर्बाद की। ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने बजट और मंहगाई से विपक्ष का ध्यान बंटाने के लिए यह हालात जान बूझकर पैदा किया था और विपक्ष उस जाल में पूरी तरह उलझ गया। लेकिन इस सारी प्रक्रिया में लोकतंत्र और राजनीति का भारी नुकसान हुआ।
विपक्षी पार्टियों को चाहिए कि आगे इस तरह की स्थिति न आने दें। इस सारे गोरखधंधे में मीडिया की भूमिका पर भी गौर करने की जरूरत है। हमने शर्म-अल-शेख की दोनों प्रधान मंत्रियों की बातचीत के बात जारी की गई विज्ञप्ति को इस तरह से पेश किया जैसे वह किसी समझौते के बाद जारी किया गया घोषणा पत्र हो। ऐसा नहीं था, वह बातचीत की एक तरह से रिपोर्ट थी। उसमें जो सहमति हुई थी वह यह कि जब भी कभी दोनों विदेश सचिव मिलेंगे तो बातचीत करेंगे और अपने विदेश मंत्री को बता देंगे। हां आतंकवाद और कंपोजिट डॉयलाग को एक दूसरे से अलग कर दिया गया था। शर्म-अल-शेख से लौटकर कूटनीति और अंतर्राष्टï्रीय संबंधों के जानकार कद्दावर पत्रकारों ने अपने-अपने अखबारों में इसी तरह के विश्लेषण भी लिखे लेकिन जिन भाइयों की समझ में विज्ञप्ति की भाषा नहीं आई या कूटनीति की बारीकियां नहीं आईं, उन्होंने विपक्षी पार्टी के नेताओं के वक्तव्यों को आधार बनाकर राजनीतिक कूटनीतिक विश्लेषण लिख मारा।
विपक्ष की तो डयूटी है कि वह सरकार को कटघरे में खड़ा करे लेकिन मीडिया की डयूटी सच्चाई को बिना किसी लाग लपेट के बयान करना है। शर्म-अल-शेख वाले मामले में मीडिया का एक बड़ा वर्ग सच्चाई को पकडऩे में गफलत का शिकार हुआ है। कोशिश की जानी चाहिए कि ऐसे मौके दुबारा न आएं। जहां तक विपक्ष का सवाल है वह कांग्रेसी चाल का शिकार हुआ है, उन्हें भी आगे से संभल कर रहना होगा और कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को जनता के हित में काम करने को मजबूर करना होगा।