शेष नारायण सिंह
अंग्रेज़ी के अखबार द हिन्दू ने खोजी और जन पक्षधरता की पत्रकारिता का एक नया कारनामा अंजाम दिया है . अखबार ने छाप दिया है कि भोपाल के गैस पीड़ितों के साथ जो अन्याय हुआ है उसके लिए कांग्रेस और भी जे पी के नेता बराबर के ज़िम्मेदार हैं .भोपाल काण्ड के वक़्त यूनियन कार्बाइड कंपनी के अध्यक्ष , वारेन एंडरसन के मामले में एक नया आयाम सामने आ गया है . बी जे पी वाले भोपाल के बहाने एक और बोफोर्स की तलाश में हैं. सारी ज़िम्मेदारी राजीव गाँधी के मत्थे मढ़ देने के चक्कर में हैं जिस से सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को रक्षात्मक मुद्रा में लाया जा सके . लेकिन अब खेल बदल गया है . अब पता चाल है कि पार्टी के सबसे प्रभावशाली नेता, अरुण जेटली जब कानून मंत्री थे तो उन्होंने भी एंडरसन के बारे में वही कहा था जो कहने के आरोप में बी जे पी वाले कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करना चाहते हैं . आज देश के सबसे प्रतिष्ठित अखबार में छप गया है कि २५ सितम्बर को २००१ को कानून मंत्री के रूप में अरुण जेटली ने फ़ाइल में लिखा था कि एंडरसन को वापस बुला कर उन पर मुक़दमा चलाने का केस बहुत कमज़ोर है . जब यह नोट अरुण जेटली ने लिखा उस वक़्त उनके ऊपर कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्री पद की ज़िम्मेदारी थी . यही नहीं उस वक़्त देश के अटार्नी जनरल के पद पर देश के सर्वोच्च योग्यता वाले एक वकील, सोली सोराबजी विद्यमान थे. सोराबजी ने अपनी राय में लिखा था कि अब तक जुटाया गया साक्ष्य ऐसा नहीं है जिसके बल पर अमरीकी अदालतों में मामला जीता जा सके. अरुण जेटली के नोट में जो लिखा है उससे एंडरसन बिलकुल पाक साफ़ इंसान के रूप में सामने आता है . ज़ाहिर है आज बी जे पी राजीव गांधी के खिलाफ जो केस बना रही है , उसकी वह राय तब नहीं थी जब वह सरकार में थी. अरुण जेटली ने सरकारी फ़ाइल में लिखा है कि यह कोई मामला ही नहीं है कि मिस्टर एंडरसन ने कोई ऐसा काम किया जिस से गैस लीक हुई और जान माल की भारी क्षति हुई . श्री जेटली ने लिखा है कि कहीं भी कोई सबूत नहीं है कि मिस्टर एंडरसन को मालूम था कि प्लांट की डिजाइन में कहीं कोई दोष है या कहीं भी सुरक्षा की बुनियादी ज़रूरतों से समझौता किया गया है. कानून मंत्री, अरुण जेटली कहते हैं कि सारा मामला इस अवधारणा पर आधारित है कि कंपनी के अध्यक्ष होने के नाते एंडरसन को मालूम होना चाहिए कि उनकी भोपाल यूनिट में क्या गड़बड़ियां हैं . श्री जेटली के नोट में साफ़ लिखा है कि इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि अमरीका में मौजूद मुख्य कंपनी के अध्यक्ष ने भोपाल की फैक्टरी के रोज़ के काम काज में दखल दिया. उन्होंने कहा कि हालांकि केस बहुत कमज़ोर है लेकिन अगर मामले को आगे तक ले जाने की पालिसी बनायी जाती है तो केस दायर किया जा सकता है . ज़ाहिर हैं उस वक़्त की सरकार ने कानून के विद्वान् अपने मंत्री, अरुण जेटली की राय को जान लेने के बाद मामले को आगे नहीं बढ़ाया .
मौजूदा सरकार की भी यही राय है . उन्हें भी मालूम है कि केस बहुत कमज़ोर है लेकिन बी जे पी की ओर से मीडिया के ज़रिये शुरू किये गए अभियान से संभावित राजनीतिक नुकसान के डर से यू पी ए सरकार भी मामले चलाने का स्वांग करने के पक्ष में लगते हैं .वैसे भी बी जे पी ने इस मामले को अपनी टाप प्रायरिटी पर डाल दिया है . पता चला है कि संसद के मानसून सत्र में वे इस मामले पर भारी ताक़त के साथ जुटने वाले हैं . अब यह देखना दिलचस्प होगा कि एंडरसन के केस में राजीव गाँधी, अर्जुन सिंह वगैरह के साथ क्या अरुण जेटली को भी कटघरे में रखने की कोशिश की जायेगी क्योंकि अगर कांग्रेस ज़िम्मेदार है तो ठीक वही ज़िम्मेदारी अरुण जेटली पर भी बनती है .सरकार में मंत्री के रूप में तो अरुण जेटली ने बयान दिया ही था, निजी हैसियत में भी उन्होंने यूनियन कार्बाइड खरीदने वाली वाली कंपनी डाव केमिकल्स को कानूनी सलाह दी थी कि डाव को भोपाल गैस लीक मामले के किसी भी सिविल या क्रिमनल मुक़दमे में ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता..यह सलाह अरुण जेटली ने २००६ में दी थी जाब वे डाव केमिकल्स के एडवोकेट थे.
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राजनीतिक फायदे के लिए बी जे पी वाले भोपाल के पीड़ितों को राहत देने के काम में हाथ डालते हैं कि नहीं . इस में दो राय नहीं है कि १९८४ से लेकर अब तक जितनी भी सरकारें दिल्ली और भोपाल में आई हैं वे सब भोपाल के गैस पीड़ितों के गुनहगार हैं . लेकिन सबसे ज्यादा ज़िम्मेदारी कांगेस की है . अब यह साफ़ हो गया है कि बी जेपी का सबसे मज़बूत नेता भी उसमें शामिल था. अब यह भी पता है कि अमरीका परस्ती की अपनी नीति के कारण न तो , बी जे पी और न ही कांग्रेस भोपाल के पीड़ितों का पक्ष लेगी . ऐसी हालत में मीडिया की ज़िम्मेदारी है कि वह दोषियों को सामने लाये और सार्वजनिक रूप से कायल करे. प्रतिष्ठित अखबार हिन्दू ने बिगुल बजा दिया है , बाकी मीडिया संगठनों को भी कांग्रेस और बी जे पी के दोषी नेताओं के एकार्तूतों को सार्वजनिक डोमेन में लाने में मदद करनी चाहिये .
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Friday, June 25, 2010
Monday, November 2, 2009
घूस को घूस ही रहने दो कोई नाम न दो .
मधु कोडा की भ्रष्टाचार कथा की चर्चा चारों तरफ हो रही है. झारखण्ड के इस पूर्व मुख्यमंत्री की दौलत के बारे में जो लोग भी सुन रहे हैं, दांतों तले उंगली दबाने का अभिनय कर रहे हैं .दुनिया के कई देशों में उन्होंने पैसा लगा रखा है, हर बड़े शहर में मकान है, कहीं दूकान है तो कहीं फैक्ट्री है, सोना चांदी, हीरे जवाहरात का कोई हिसाब ही नहीं है, बैंकों में लॉकर हैं,विदेशी बैंकों में खाते हैं. बे ईमानी के रास्ते अर्जित की गयी मधु कोडा की इस संपत्ति का स्रोत सौ फीसदी राजनीतिक भर्ष्टाचार है क्योंकि राजनीति के अलावा , उसने और कोई काम ही नहीं किया. अब इस वर्णन में से मधु कोडा का नाम हटाकर पढने की कोशिश करते हैं. अपने मुल्क में ऐसे बहुत सारे नेता हैं जिनके पास इसी तरह की संपत्ति है और जिन्होंने उस संपत्ति को चोरी और घूसखोरी के ज़रिये इकठ्ठा किया है. लेकिन जब उनका नाम आता है तो मीडिया इतने चटखारे नहीं लेता ,शायद इस प्रवृत्ति में किसी तरह के वर्ग पूर्वाग्रह भी हों लेकिन यहाँ उन पूर्वाग्रहों की चर्चा करके घूसखोरी के निजाम के खिलाफ चल रही बहस को कमज़ोर करना ठीक नहीं है. मधु कोडा की कृपा से सार्वजनिक जीवन में घूस की भूमिका एक बार फिर फोकस में आई है तो उस पर गंभीर चर्चा की शुरुआत करने की कोशिश की जानी चाहिए. नेताओं
की घूस महिमा पर चर्चा अक्सर होती रहती है और कुछ दिन बाद ख़त्म हो जाती है. आज़ादी के बाद भी नेताओं के घूस पर चर्चा होती थी लेकिन उस चर्चा का समाज को यह फायदा होता था कि उस नेता के खिलाफ जनमत बनता तह और ज़्यादातर मामलों में वह नेता सज़ा पा जाता था और उसे सार्वजनिक जीवन से बाहर होना पड़ता था . जवाहरलाल नेहरु के पेट्रोलियम मंत्री , केशव देव मालवीय का ज़िक्र इस सन्दर्भ में अक्सर किया जाता है जिनके ऊपर मीडिया ने दस हज़ार रूपये की घूस का आरोप लगाया और उन्हें सरकार से बाहर होना पड़ा. लेकिन अब ऐसा नहीं होता . घूसखोर नेता मज़े से ऐश करता है और कहीं कुछ नहीं होता. इस लिस्ट में देश के वर्तमान नेताओं में से लगभग ९० प्रतिशत का नाम डाला जा सकता है . अब घूस को आमदनी बताया जाता है और डंके की चोट पर बा-हलफ ऐलान किया जाता है कि भाई, जब हम राजनीति में आये थे तो हमारे पास रोटी के पैसे नहीं थे लेकिन अब मेरे पास करोडों की संपत्ति है. सवाल पैदा होता है कि जांच एजेंसियों , अदालतों, और बाकी सरकारी तंत्र के बावजूद नेता कैसे इतनी रक़म इकट्ठी कर लेता है .और कहीं किसी को पता नहीं लगता. क्या समाज के बाकी वर्ग अपनी ड्यूटी सही तरीके से निभा रहे हैं. ? क्या सरकारी नौकर अपना काम सही तरीके से कर रहे हैं ? क्या पत्रकार अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं ? जवाब में बहुत हे एतेज़ आवाज़ में ' नहीं' कहा आ सकता है. अफसरों की घूस की संपत्ति का ज़िक्र रोज़ ही अखबारों में रहता है लेकिन उसका ज़िक्र तब होता है जब से बी आई या और कोई जांच एजेन्सी उन अफसरों को पकड़ लेती है. आम तौर पर इस देश के अफसर घूसखोर हैं इसलिए उनका ज़िक्र यहाँ करके वक़्त और कागज़ की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं हासिल होने वाला है .लेकिन घूस के इ स्दुनिया पर समाज को काबू करना होगा वरना एक राष्ट्र और समाज के रूप में अपनी तबाही को रोक पाना बिलकुल असंभव हो जाएगा. सत्ता को बेलगाम होने से अगर रोका न गया तो आनेवाली नस्लें हमें माफ़ नहीं करेंगीं. लेकिन कौन बांधेगा सत्ता के लगातार निरंकुश हो रहे इस घोडे को अनुशासन और ईमानदारी के खूंटे से . जवाब साफ़ है कि जिस जनता ने इस भ्रष्ट बे-ईमान अफसरों नेताओं को सत्ता दी है वही इन्हें लगाम लगा सकती है. देश से भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का एक ही तरीका है कि जनता इनके खिलाफ लामबंद हो , वह तय करे कि चोरी-घूसखोरी का राज नहीं चलने देंगें. लेकिन उस जनता को बतायेगा कौन ? इसी सवाल के जवाब में अपने देश के भविष्य को संवारने का मन्त्र छुपा है. जनता को जाने वाला और कोई नहीं , हमारी अपनी बिरादरी है. अगर पत्रकार चेत ले तो बे-ईमान नेता और अफसर पनाह माँगने लगें.अपनी ड्यूटी संविधान सम्मत तरीके से करने लगें और अगर घूस की गिजा पर मौज करने वाली यह बिरादरी घूस लेने से डरने लगे तो समाज में शान्ति और खुशहाली आने में बहुत देर नहीं लगेगी.लेकिन इस बिरादरी को अपना फ़र्ज़ सही तरीके से करना पड़ेगा.
दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसा नहीं हो रहा है. पत्रकार जिन अखबारों और टी वी चैनलों पर अपनी बात कह सकता है वह बड़े पूंजीपतियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष कब्जे में है . इस लिए मीडिया के परंपरागत माध्यमों से बहुत उम्मीद करना ठीक नहीं है.. वैसे भी पत्रकारों ने अजीब ख्याति हासिल कर ली है . इमर्जेंसी के ठीक बाद जब प्रेस पर बेजा कण्ट्रोल की बहस चली थी तो उस वक़्त की जनता पार्टी के नेता लाल कृष्ण अडवाणी ने एक बड़ी दिलचस्प बात कही थी. उन्होंने पत्रकारों से कहा कि आप से झुकने को कहा गया था लेकिन आप लोग तो रेंगने लगे थे. यह बात सभी पत्रकारों के लिए सच नहीं थी. कुलदीप नायर जैसे कुछ लोगों ने तानाशाही की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया था . आज भी कुछ पत्रकार ऐसे हैं जिन्होंने लक्ष्मी की ताक़त के सामने झुकने से मना कर दिया है लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि मीडिया में काम करने वालों की एक बड़ी जमात आजकल घूस का वर्णन करने के लिए कमाई शब्द का इस्तेमाल करने लगी है. बस यही गड़बड़ है .अगर मीडिया तय कर ले कि देशहित में काम करना है और नेता-बाबू गठजोड़ को घूस का राज नहीं कायम करने देना है तो आधी से ज्यादा लड़ाई अपने आप जीत ली जायेगी. अब यहीं पर इस बात की जांच कर लेना ज़रूरी है कि क्या मीडिया की जो वर्तमान दशा है उसमें इतनी निर्णायक लड़ाई की उम्मीद की जा सकती है.हालांकि यह बहुत शर्म की बात है लेकिन आज के मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसी नेता-बाबू गठजोड़ की कृपा से करोड़पति और अरबपति बन चुका है.. वह सच को छुपाने की बे-ईमानों की कोशिश का हिस्सा बन जाता है. मीडिया में घूसखोरी की वे ही घटनाएं रिपोर्ट होती हैं जिनकी जांच सरकार की एजेंसियाँ कर लेती हैं. इस देश में मीडिया ने बार बार सरकारों को जनहित में सच स्वीकार करने के लिए मजबूर किया है. इंडियन एक्सप्रेस की खोजी पत्रकारिता के वजह से ही उस वक़्त के महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री , ए आर अंतुले को जाना पड़ा था , बोफोर्स का भांडा भी मीडिया ने फोड़ा था और बंगारू लक्ष्मण की नोटों की गड्डियाँ संभालती छवि भी मीडिया की कृपा से ही आई थी . इन कुछ उदाहरणों से यह बात साफ़ है कि अगर मीडिया तय कर ले तो वह परिवर्तन का वाहक बन सकता है लेकिन उसके लिए हिम्मत और अपने पेशे के प्रति ईमानदारी की भावना चाहिए.. इन कुछ आदरणीय अपवादों के सहारे आज भी प्रेस की आजादी और उसकी ताक़त का मानदंड बनते हैं लेकिन आज देश में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग बे-ईमानी की चपेट में है.. राजनेताओं से पैसे लेना, उनके मन माफिक खबरें छापना, एक से लेकर दूसरे के खिलाफ खबर छापना, कुछ ऐसी बातें हैं जिन्होंने मीडिया को कटघरे में खडा कर दिया है. . किसी एक पत्रकार की बे-ईमानी का साधारणीकरण करके पूरे पेशे को घेरने वाले हर कोने में मिल जायेंगें. इसलिए मीडिया के जिम्मेदार लोगों को चाहिए कि वे इस तरह के लोगों की बात को गलत साबित करने के लिए पहल करें . इस पहल की शुरुआत अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा से की जा सकती है .लेकिन इस काम में उन लोगों की कोई भूमिका नहीं है जिन्होंने किसी सोसाइटी में मेम्बरशिप लेकर कहीं एक फ्लैट जुगाड़ लिया है.. पिछले दिनों भड़ास पर ऐसे कुछ ईमानदार लोगों ने अपनी संपत्ति की घोषणा की . मामूली आर्थिक ताक़त वाले इन पत्रकारों की पहल से कुछ नहीं होने वाला है . हाँ अगर यह लोग अपनी संपत्ति के साथ साथ उन लोगों की संपत्ति की भी घोषणा करवाएं जिनके तीन चार प्लाट हैं, दूकान है , कई कारें हैं , और शाई जीवन शैली है , तो बात बनेगी.. उसके बाद घूस और पत्रकारिता के गठजोड़ की कड़ी टूटेगी और अगर यह कड़ी टूटती है तो कोई भी मधु कोडा हिम्मत नहीं करेगा कि वह आम आदमी के धन की इतने बड़े पैमाने पर चोरी कर सके.. उत्तर प्रदेश के घूसखोर आई ए एस अफसरों की सूची आखिर उन्हीं की बिरादरी के लोगों ने प्रकाशित की थी. यह अलग बात है उसके बाद भी कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा. लेकिन जनता जागरूक हो रही है अगर उसे घूस की परिभाषा बताते हुए यह बता दिया जाए कि नेता-अफसर गिरोह द्बारा लिया गया वह पैसा जो आम आदमी की भलाई के लिए होता है जब वही भ्रष्ट तरीके से कोई और हड़प लेता है ,तो वह घूस हो जाता है . अगर यह बात जनता की समझ में आ गयी तो घूस के सिद्धांत पर चलने वाली सरकारों का बच रहना मुश्किल हो जाएगा. लेकिन उसके पहले जनता तक सच्चाई पंहुचाने वाले पत्रकारों को अपनी ड्यूटी सही तरीके से करनी पड़ेगी.
की घूस महिमा पर चर्चा अक्सर होती रहती है और कुछ दिन बाद ख़त्म हो जाती है. आज़ादी के बाद भी नेताओं के घूस पर चर्चा होती थी लेकिन उस चर्चा का समाज को यह फायदा होता था कि उस नेता के खिलाफ जनमत बनता तह और ज़्यादातर मामलों में वह नेता सज़ा पा जाता था और उसे सार्वजनिक जीवन से बाहर होना पड़ता था . जवाहरलाल नेहरु के पेट्रोलियम मंत्री , केशव देव मालवीय का ज़िक्र इस सन्दर्भ में अक्सर किया जाता है जिनके ऊपर मीडिया ने दस हज़ार रूपये की घूस का आरोप लगाया और उन्हें सरकार से बाहर होना पड़ा. लेकिन अब ऐसा नहीं होता . घूसखोर नेता मज़े से ऐश करता है और कहीं कुछ नहीं होता. इस लिस्ट में देश के वर्तमान नेताओं में से लगभग ९० प्रतिशत का नाम डाला जा सकता है . अब घूस को आमदनी बताया जाता है और डंके की चोट पर बा-हलफ ऐलान किया जाता है कि भाई, जब हम राजनीति में आये थे तो हमारे पास रोटी के पैसे नहीं थे लेकिन अब मेरे पास करोडों की संपत्ति है. सवाल पैदा होता है कि जांच एजेंसियों , अदालतों, और बाकी सरकारी तंत्र के बावजूद नेता कैसे इतनी रक़म इकट्ठी कर लेता है .और कहीं किसी को पता नहीं लगता. क्या समाज के बाकी वर्ग अपनी ड्यूटी सही तरीके से निभा रहे हैं. ? क्या सरकारी नौकर अपना काम सही तरीके से कर रहे हैं ? क्या पत्रकार अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं ? जवाब में बहुत हे एतेज़ आवाज़ में ' नहीं' कहा आ सकता है. अफसरों की घूस की संपत्ति का ज़िक्र रोज़ ही अखबारों में रहता है लेकिन उसका ज़िक्र तब होता है जब से बी आई या और कोई जांच एजेन्सी उन अफसरों को पकड़ लेती है. आम तौर पर इस देश के अफसर घूसखोर हैं इसलिए उनका ज़िक्र यहाँ करके वक़्त और कागज़ की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं हासिल होने वाला है .लेकिन घूस के इ स्दुनिया पर समाज को काबू करना होगा वरना एक राष्ट्र और समाज के रूप में अपनी तबाही को रोक पाना बिलकुल असंभव हो जाएगा. सत्ता को बेलगाम होने से अगर रोका न गया तो आनेवाली नस्लें हमें माफ़ नहीं करेंगीं. लेकिन कौन बांधेगा सत्ता के लगातार निरंकुश हो रहे इस घोडे को अनुशासन और ईमानदारी के खूंटे से . जवाब साफ़ है कि जिस जनता ने इस भ्रष्ट बे-ईमान अफसरों नेताओं को सत्ता दी है वही इन्हें लगाम लगा सकती है. देश से भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का एक ही तरीका है कि जनता इनके खिलाफ लामबंद हो , वह तय करे कि चोरी-घूसखोरी का राज नहीं चलने देंगें. लेकिन उस जनता को बतायेगा कौन ? इसी सवाल के जवाब में अपने देश के भविष्य को संवारने का मन्त्र छुपा है. जनता को जाने वाला और कोई नहीं , हमारी अपनी बिरादरी है. अगर पत्रकार चेत ले तो बे-ईमान नेता और अफसर पनाह माँगने लगें.अपनी ड्यूटी संविधान सम्मत तरीके से करने लगें और अगर घूस की गिजा पर मौज करने वाली यह बिरादरी घूस लेने से डरने लगे तो समाज में शान्ति और खुशहाली आने में बहुत देर नहीं लगेगी.लेकिन इस बिरादरी को अपना फ़र्ज़ सही तरीके से करना पड़ेगा.
दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसा नहीं हो रहा है. पत्रकार जिन अखबारों और टी वी चैनलों पर अपनी बात कह सकता है वह बड़े पूंजीपतियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष कब्जे में है . इस लिए मीडिया के परंपरागत माध्यमों से बहुत उम्मीद करना ठीक नहीं है.. वैसे भी पत्रकारों ने अजीब ख्याति हासिल कर ली है . इमर्जेंसी के ठीक बाद जब प्रेस पर बेजा कण्ट्रोल की बहस चली थी तो उस वक़्त की जनता पार्टी के नेता लाल कृष्ण अडवाणी ने एक बड़ी दिलचस्प बात कही थी. उन्होंने पत्रकारों से कहा कि आप से झुकने को कहा गया था लेकिन आप लोग तो रेंगने लगे थे. यह बात सभी पत्रकारों के लिए सच नहीं थी. कुलदीप नायर जैसे कुछ लोगों ने तानाशाही की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया था . आज भी कुछ पत्रकार ऐसे हैं जिन्होंने लक्ष्मी की ताक़त के सामने झुकने से मना कर दिया है लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि मीडिया में काम करने वालों की एक बड़ी जमात आजकल घूस का वर्णन करने के लिए कमाई शब्द का इस्तेमाल करने लगी है. बस यही गड़बड़ है .अगर मीडिया तय कर ले कि देशहित में काम करना है और नेता-बाबू गठजोड़ को घूस का राज नहीं कायम करने देना है तो आधी से ज्यादा लड़ाई अपने आप जीत ली जायेगी. अब यहीं पर इस बात की जांच कर लेना ज़रूरी है कि क्या मीडिया की जो वर्तमान दशा है उसमें इतनी निर्णायक लड़ाई की उम्मीद की जा सकती है.हालांकि यह बहुत शर्म की बात है लेकिन आज के मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसी नेता-बाबू गठजोड़ की कृपा से करोड़पति और अरबपति बन चुका है.. वह सच को छुपाने की बे-ईमानों की कोशिश का हिस्सा बन जाता है. मीडिया में घूसखोरी की वे ही घटनाएं रिपोर्ट होती हैं जिनकी जांच सरकार की एजेंसियाँ कर लेती हैं. इस देश में मीडिया ने बार बार सरकारों को जनहित में सच स्वीकार करने के लिए मजबूर किया है. इंडियन एक्सप्रेस की खोजी पत्रकारिता के वजह से ही उस वक़्त के महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री , ए आर अंतुले को जाना पड़ा था , बोफोर्स का भांडा भी मीडिया ने फोड़ा था और बंगारू लक्ष्मण की नोटों की गड्डियाँ संभालती छवि भी मीडिया की कृपा से ही आई थी . इन कुछ उदाहरणों से यह बात साफ़ है कि अगर मीडिया तय कर ले तो वह परिवर्तन का वाहक बन सकता है लेकिन उसके लिए हिम्मत और अपने पेशे के प्रति ईमानदारी की भावना चाहिए.. इन कुछ आदरणीय अपवादों के सहारे आज भी प्रेस की आजादी और उसकी ताक़त का मानदंड बनते हैं लेकिन आज देश में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग बे-ईमानी की चपेट में है.. राजनेताओं से पैसे लेना, उनके मन माफिक खबरें छापना, एक से लेकर दूसरे के खिलाफ खबर छापना, कुछ ऐसी बातें हैं जिन्होंने मीडिया को कटघरे में खडा कर दिया है. . किसी एक पत्रकार की बे-ईमानी का साधारणीकरण करके पूरे पेशे को घेरने वाले हर कोने में मिल जायेंगें. इसलिए मीडिया के जिम्मेदार लोगों को चाहिए कि वे इस तरह के लोगों की बात को गलत साबित करने के लिए पहल करें . इस पहल की शुरुआत अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा से की जा सकती है .लेकिन इस काम में उन लोगों की कोई भूमिका नहीं है जिन्होंने किसी सोसाइटी में मेम्बरशिप लेकर कहीं एक फ्लैट जुगाड़ लिया है.. पिछले दिनों भड़ास पर ऐसे कुछ ईमानदार लोगों ने अपनी संपत्ति की घोषणा की . मामूली आर्थिक ताक़त वाले इन पत्रकारों की पहल से कुछ नहीं होने वाला है . हाँ अगर यह लोग अपनी संपत्ति के साथ साथ उन लोगों की संपत्ति की भी घोषणा करवाएं जिनके तीन चार प्लाट हैं, दूकान है , कई कारें हैं , और शाई जीवन शैली है , तो बात बनेगी.. उसके बाद घूस और पत्रकारिता के गठजोड़ की कड़ी टूटेगी और अगर यह कड़ी टूटती है तो कोई भी मधु कोडा हिम्मत नहीं करेगा कि वह आम आदमी के धन की इतने बड़े पैमाने पर चोरी कर सके.. उत्तर प्रदेश के घूसखोर आई ए एस अफसरों की सूची आखिर उन्हीं की बिरादरी के लोगों ने प्रकाशित की थी. यह अलग बात है उसके बाद भी कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा. लेकिन जनता जागरूक हो रही है अगर उसे घूस की परिभाषा बताते हुए यह बता दिया जाए कि नेता-अफसर गिरोह द्बारा लिया गया वह पैसा जो आम आदमी की भलाई के लिए होता है जब वही भ्रष्ट तरीके से कोई और हड़प लेता है ,तो वह घूस हो जाता है . अगर यह बात जनता की समझ में आ गयी तो घूस के सिद्धांत पर चलने वाली सरकारों का बच रहना मुश्किल हो जाएगा. लेकिन उसके पहले जनता तक सच्चाई पंहुचाने वाले पत्रकारों को अपनी ड्यूटी सही तरीके से करनी पड़ेगी.
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Thursday, July 30, 2009
धर्मनिरपेक्षता के शहंशाह की शान सलामत रहेगी
उदयन शर्मा होते तो आज 61 वर्ष के होते। कई साल पहले वे यह दुनिया छोड़कर चले गए थे। जल्दी चले गए। होते तो खुश होते, देखते कि सांप्रदायिक ताकतें चौतरफा मुंह की खा रही हैं। इनके खिलाफ उदयन ने हर मोर्चे पर लड़ाइयां लड़ी थीं, और हर बार जीत हासिल की थी। उनको भरोसा था कि हिटलर हो या अमरीकी क्लू क्लाक्स क्लान हो, फ्रांका हो या कोई भी घमंडी तानाशाह हो हारता जरूर है। लेकिन क्या संयोग कि जब पंडित जी ने यह दुनिया छोड़ी तो इस देश में सांप्रदायिक ताकतों की हैसियत बहुत बढ़ी हुई थी, दिल्ली के तख्त के फैसले नागपुर से हो रहे थे।
यह उदयन के दम की ही बात थी कि पूरे विश्वास के साथ बताते थे कि यह टेंपरेरी दौर है, खतम हो जायेगा। खत्म हो गयी सांप्रदायिक ताकतों के फैसला लेने की सियाह रात लेकिन वह आदमी जिंदा नहीं है जिसने इसकी भविष्यवाणी की थी। उदयन शर्मा बेजोड़ इंसान थे, उनकी तरह का दूसरा कोई नहीं। आज कई साल बाद उनकी याद में कलम उठी है इस गरीब की। अब तक हिम्मत नहीं पड़ती थी। पंडितजी के बारे में उनके जाने के बाद बहुत कुछ पढ़ता और सुनता रहा हूं। इतने चाहने वाले हैं उस आदमी के। सोचकर अच्छा लगता है। आलोक तोमर भी है और सलीम अख्तर सिद्घीकी भी। उदयन शंकर भी हैं तो ननकऊ मल्लाह भी। बड़े से बड़ा आदमी और मामूली से मामूली आदमी, हर वर्ग में उदयन के चाहने वाले हैं। सबके अपने अनुभव हैं। मैं उदयन के चाहने वालों में सबसे ज्यादा आलोक तोमर को पसंद करता हूं।
आलोक ने बचपन में अपने आदर्श के रूप में उदयन को चुन लिया था, गांव में शायद मिडिल स्कूल के छात्र के रूप में। बड़े होने पर जब लिखना शुरू किया तो भाषाई खनक वही उदयन शर्मा वाली थी। उदयन शंकर की दीवानगी का आलम यह था कि मां बाप के दिए गए नाम को बदल दिया और उदयन बन गए। संतोष नायर भी हैं। अगर आज पंडित जी जिंदा होते तो मैं उनको बताता कि जन्म जन्मांतर का संबंध होता है क्योंकि संतोष पता नहीं कितने जन्मों से उनका बेटा है। नाम बहुत हैं उदयन शर्मा को चाहने वालों के, चाहूं तो गिनाता रहूं और धार नहीं टूटेगी।उदयन शर्मा के बारे में कई जगह पढ़ा है कि वे पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं मानते थे, मिशन मानते थे। हो सकता है सही हो, बस मेरी गुजारिश यह है कि उदयन शर्मा के व्यक्तित्व की विवेचना करने के लिए पुराने व्याकरण से काम नहीं चलेगा। उनको समझने के लिए जीवनी लिखने के नए व्याकरण की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि उदयन का जीवन किसी भी सांचे में फिट नहीं होता।
उदयन शर्मा की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष पत्रकार के रूप में की जाती है। बात सच भी है लेकिन उनके घनिष्ठतम सहयोगी और मित्र ने उनको एक बार बताया था कि वे धर्मनिरपेक्ष नहीं, प्रो-मुस्लिम पत्रकार हैं। इतने करीबी ने कहा है तो ठीक ही होगा। उदयन शर्मा एक ऐसे इंसान थे जो अपनी लड़ाई हमेशा लड़ते रहते थे, कोई भी मौका चूकते नहीं थे। धर्मनिरपेक्षता उनकी सोच का बुनियादी आधार था, जिससे वे कभी हिले नहीं। जब भी मौका लगा सांप्रदायिक ताकतों को शिकस्त देने की कोशिश की। रविवार के संपादक का पद संभाला तो चुनौतियां बहुत बड़ी थीं। उनके मित्र और बड़े पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने वह जगह खाली की थी।
ज़ाहिर है कि पाठकों की उम्मीदें बड़ी थीं। उदयन ने उसे हासिल किया रविवार को बुलंदियों पर पहुंचाया। उनकी चुनौती को और भी कठिन कर दिया संघ परिवार के नेताओं ने। 1984 के चुनाव में शून्य पर पहुंच गई पार्टी, बीज़ेपी ने हिन्दुत्व का नारा बुलंद किया। केंद्र और लखनऊ में कांग्रेस की सरकार थी लेकिन लीडरशिप ऐसी नहीं थी जोकि संघ के चक्रव्यूह की बारीकियां समझ सके। आर.एस.एस., विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, बीजेपी आदि संगठन धर्मनिरपेक्ष राजनीति और जीवन मूल्यों पर चौतरफा हमला बोल रहे थे। कांग्रेस में अरुण नेहरू और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे भाजपाई सोच वाले लोग थे और राजीव गांधी से वही करवा रहे थे जो नागपुर की फरमाइश होती थी।
उदयन शर्मा की धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई राजनीति की इस दगाबाजी की वजह से और मुश्किल हो गयी थी। जब रविवार छोड़कर उन्होंने हिंदी संडे ऑबज़र्वर का काम शुरू किया तो विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन चुके थे, उनको बीजेपी का समर्थन हासिल था और उदयन शर्मा पर तरह तरह के दबाव पड़ रहे थे। लेकिन उदयन शर्मा कभी हारते नहीं थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह और लालकृष्ण आडवाणी की संयुक्त ताकत से लोहा लिया और वित्त मंत्रालय के बड़े अफसरों की गिड़गिड़ाहट की परवाह न करते हुए विश्व हिंदू परिषद के इनकम टैक्स मामले पर खबर छापी।
जब आडवाणी ने सोमनाथ से रथ लेकर अयोध्या की तरफ कूच किया तो लोगों को लगने लगा था कि अब आर.एस.एस. को रोका नहीं जा सकता। दंगों का सिलसिला शुरू हो चुका था पंडित जी के संडे आब्ज़र्वर में लगातार खबरें छपती रहीं और जब ज्यादातर लोग आडवाणी की जय जयकार कर रहे थे तो उदयन के अखबार में सुर्खी लगी 'रावण रथी विरथ रघुबीराÓ। और इसी विरथ रघुबीर के सनातन धर्मी भक्तों के पक्षधर उदयन शर्मा ने $कलम को आराम नहीं दिया। हमेशा कहते रहे कि इस देश का बहुसंख्यक हिंदू धर्मनिरपेक्ष है, और संघप्रेमी हिंदू बहुत कम हैं। उनको विश्वास था कि यह देश दंगाइयों की राजनीति को मुंहतोड़ जवाब देगा।
बाबरी मस्जिद के विध्वंस के दिन उदयन शर्मा बहुत निराश थे, दुखी थे। पी.वी. नरसिंहराव को गरिया रहे थे। उनको शिकायत थी कि नरसिंह राव ने आर.एस.एस. की मदद की थी। अर्जुन सिंह, मानव संसाधन विकास मंत्री थे, उदयन की कोशिश थी कि अर्जुन सिंह इस्तीफा दें और नरसिंहराव को पैदल करें, क्योंकि उनको तुरंत सजा दी जानी चाहिए। यह नहीं हो सका। लेकिन उदयन शर्मा रुके नहीं। फिर चल पड़े अपने लक्ष्य की ओर। बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद आर.एस.एस. वालों ने मुसलमानों को अपमानित करने की योजना पर काम शुरू कर दिया था।
पंडित जी ने महात्मा गांधी की समाधि पर रामधुन का आयोजन करवा कर सांप्रदायिकता का जवाब दिया। देश का बड़ा से बड़ा आदमी आया और मदर टेरेसा आईं। शबनम हाशमी ने सहमत की ओर से वहीं राजघाट पर नौजवानों को शपथ दिलाई कि सांप्रदायिकता के खिलाफ जंग जारी रहेगी। इसके बाद पत्रकारिता, नौकरशाही और राजनीति में बैठे आर.एस.एस. के कारिंदों ने पंडित जी पर चौतरफा हमला बोला और उनको हाशिए पर लाने की कोशिश करते रहे। नफरत के सौदागरों के खिलाफ उदयन की लड़ाई कभी कमजोर नहीं पड़ी। अभिमन्यु को घेरकर मारने के बाद कौरव सेना विजयी नहीं होती, उसके बाद जयद्रथ वध होता है। आज जब सांप्रदायिकता के जयद्रथ का वध हो चुका है, कौरव सेना अपने घाव चाट रही है, उदयन शर्मा की बहुत याद आती है।
उदयन शर्मा ने पत्रकारिता की दुनियां में बुलंदियों पर झंडे गाड़े थे। डाकू फूलनदेवी का आतंक चंबल के बीहड़ों में फैल चुका था, अखबार वाले हिंदी फिल्मों की महिला डाकुओं की तर्ज पर फूलनदेवी को दस्यु सुंदरी लिखना शुरू कर चुके थे। उदयन शर्मा और फोटो पत्रकार जगदीश यादव ने बीहड़ों में फूलनदेवी को ढूंढ निकाला और उसकी तस्वीर रविवार में छाप दी। उसके बाद से फूलनदेवी के बारे में सही रिपोर्टिंग का सिलसिला शुरू हुआ। मुसलमानों के खिलाफ जब भी दंगाइयों के हमले हुए उदयन शर्मा हमेशा उनके पक्ष में खड़े रहे। दलितों के खिलाफ सवर्णों के आतंक की रिपोर्ट पाठ्यपुस्तकों का विषय बन चुकी है।
रिपोर्ट में ईमानदारी उदयन शर्मा का स्थाई भाव था।पत्रकारिता के टैलेंट की गजब की पहचान थी उदयन को। गली कूचों से लोगों को पकड़कर लाते थे और पत्रकार बना देते थे। किसी बैंक क्लर्क को तो किसी ट्यूटर को, किसी टाइपिस्ट को तो किसी मैनेजर को, सबको पत्रकार बना दिया। मेरे जैसे मामूली आदमी को संपादकीय लिखने वाला पत्रकार बना दिया। इस जमात के ज्यादातर लोग बाद में उनसे नाराज भी हुए लेकिन उस भले आदमी ने कभी किसी की मुखालिफत नहीं की। मैं भी नाराज हुआ था लेकिन मुझे पहले से भी अच्छी नौकरी दिलवा दी। मुझे पता ही नहीं था, 2005 में पता लगा कि उदयन की सिफारिश पर ही मुझे ब्यूरो चीफ बनाया गया था।
एक बार मुझसे कहा कि आर.एस.एस. के खिलाफ लिखने वाले हर आदमी को अपना दोस्त मानो उससे भाई की तरह व्यवहार करो क्योंकि असल में वही तुम्हारा हमसफर होगा। 1991 में कांग्रेस के टिकट पर वे लोकसभा का चुनाव लड़ गए थे, मध्यप्रदेश के भिंड चुनाव क्षेत्र से। सत्यदेव कटारे और रमाशंकर सिंह उनके सहयोगी थे लेकिन तमाम ऐसे लोग भी थे जो अंदर ही अंदर उनका विरोध कर रहे थे, उदयन शर्मा को सब कुछ मालूम था लेकिन किसी के खिलाफ कोई नाराजगी नहीं जाहिर की। राजीव गांधी खुद उनके चुनाव प्रचार में आए थे। पंडित जी चुनाव हार गए लेकिन भिंड नहीं हारे। जिन लोगों ने उनकी मुखालिफत की थी, वे भी दिल्ली आते थे तो वे खुद और उनकी पत्नी नीलिमा शर्मा, जो भी हो सकती थी, मदद करते थे। यह सिलसिला आज तक जारी है। उदयन शर्मा को एक मुहब्बत करने वाले इंसान के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।
उनकी पत्नी नीलिमा जी, दोनों बेटे डेनिस और छोटू उनके सबसे करीबी दोस्त थे, इन लोगों से वे आदतन मुहब्बत करते थे। इसी भावना को बढ़ाते जाते थे जिसमें परिवार मित्र-मंडली, मुसलमान और धर्मनिरपेक्ष सोच का हर इंसान शामिल हो जाता था उनके लिए पत्रकारिता मिशन नहीं कर्तव्य था और उसको उन्होंने बहुत ही बहादुरी से निभाया। पंडित जी धार्मिक नहीं थे लेकिन परिवार के बड़ों के आगे उनका सिर झुकता था।
इस महापुरुष के आगे मेरे जैसे मामूली आदमी का सिर हमेशा झुका रहेगा। अपनी बात को बे लौस और साफ साफ कहना उनकी फितरत थी। अगर आज जिंदा होते तो बहुत खुश होते क्योंकि बीजेपी की मौजूदा हार में उनकी शुरू की गई उस लड़ाई का भी योगदान है जो उन्होंने लगभग निहत्थे लड़ा था। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उनके दिल से जो कराह निकली थी, उसी का नतीजा है बीजेपी चुनाव तो हार ही गई है, विघटन के कगार पर भी खड़ी है।
यह उदयन के दम की ही बात थी कि पूरे विश्वास के साथ बताते थे कि यह टेंपरेरी दौर है, खतम हो जायेगा। खत्म हो गयी सांप्रदायिक ताकतों के फैसला लेने की सियाह रात लेकिन वह आदमी जिंदा नहीं है जिसने इसकी भविष्यवाणी की थी। उदयन शर्मा बेजोड़ इंसान थे, उनकी तरह का दूसरा कोई नहीं। आज कई साल बाद उनकी याद में कलम उठी है इस गरीब की। अब तक हिम्मत नहीं पड़ती थी। पंडितजी के बारे में उनके जाने के बाद बहुत कुछ पढ़ता और सुनता रहा हूं। इतने चाहने वाले हैं उस आदमी के। सोचकर अच्छा लगता है। आलोक तोमर भी है और सलीम अख्तर सिद्घीकी भी। उदयन शंकर भी हैं तो ननकऊ मल्लाह भी। बड़े से बड़ा आदमी और मामूली से मामूली आदमी, हर वर्ग में उदयन के चाहने वाले हैं। सबके अपने अनुभव हैं। मैं उदयन के चाहने वालों में सबसे ज्यादा आलोक तोमर को पसंद करता हूं।
आलोक ने बचपन में अपने आदर्श के रूप में उदयन को चुन लिया था, गांव में शायद मिडिल स्कूल के छात्र के रूप में। बड़े होने पर जब लिखना शुरू किया तो भाषाई खनक वही उदयन शर्मा वाली थी। उदयन शंकर की दीवानगी का आलम यह था कि मां बाप के दिए गए नाम को बदल दिया और उदयन बन गए। संतोष नायर भी हैं। अगर आज पंडित जी जिंदा होते तो मैं उनको बताता कि जन्म जन्मांतर का संबंध होता है क्योंकि संतोष पता नहीं कितने जन्मों से उनका बेटा है। नाम बहुत हैं उदयन शर्मा को चाहने वालों के, चाहूं तो गिनाता रहूं और धार नहीं टूटेगी।उदयन शर्मा के बारे में कई जगह पढ़ा है कि वे पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं मानते थे, मिशन मानते थे। हो सकता है सही हो, बस मेरी गुजारिश यह है कि उदयन शर्मा के व्यक्तित्व की विवेचना करने के लिए पुराने व्याकरण से काम नहीं चलेगा। उनको समझने के लिए जीवनी लिखने के नए व्याकरण की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि उदयन का जीवन किसी भी सांचे में फिट नहीं होता।
उदयन शर्मा की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष पत्रकार के रूप में की जाती है। बात सच भी है लेकिन उनके घनिष्ठतम सहयोगी और मित्र ने उनको एक बार बताया था कि वे धर्मनिरपेक्ष नहीं, प्रो-मुस्लिम पत्रकार हैं। इतने करीबी ने कहा है तो ठीक ही होगा। उदयन शर्मा एक ऐसे इंसान थे जो अपनी लड़ाई हमेशा लड़ते रहते थे, कोई भी मौका चूकते नहीं थे। धर्मनिरपेक्षता उनकी सोच का बुनियादी आधार था, जिससे वे कभी हिले नहीं। जब भी मौका लगा सांप्रदायिक ताकतों को शिकस्त देने की कोशिश की। रविवार के संपादक का पद संभाला तो चुनौतियां बहुत बड़ी थीं। उनके मित्र और बड़े पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने वह जगह खाली की थी।
ज़ाहिर है कि पाठकों की उम्मीदें बड़ी थीं। उदयन ने उसे हासिल किया रविवार को बुलंदियों पर पहुंचाया। उनकी चुनौती को और भी कठिन कर दिया संघ परिवार के नेताओं ने। 1984 के चुनाव में शून्य पर पहुंच गई पार्टी, बीज़ेपी ने हिन्दुत्व का नारा बुलंद किया। केंद्र और लखनऊ में कांग्रेस की सरकार थी लेकिन लीडरशिप ऐसी नहीं थी जोकि संघ के चक्रव्यूह की बारीकियां समझ सके। आर.एस.एस., विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, बीजेपी आदि संगठन धर्मनिरपेक्ष राजनीति और जीवन मूल्यों पर चौतरफा हमला बोल रहे थे। कांग्रेस में अरुण नेहरू और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे भाजपाई सोच वाले लोग थे और राजीव गांधी से वही करवा रहे थे जो नागपुर की फरमाइश होती थी।
उदयन शर्मा की धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई राजनीति की इस दगाबाजी की वजह से और मुश्किल हो गयी थी। जब रविवार छोड़कर उन्होंने हिंदी संडे ऑबज़र्वर का काम शुरू किया तो विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन चुके थे, उनको बीजेपी का समर्थन हासिल था और उदयन शर्मा पर तरह तरह के दबाव पड़ रहे थे। लेकिन उदयन शर्मा कभी हारते नहीं थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह और लालकृष्ण आडवाणी की संयुक्त ताकत से लोहा लिया और वित्त मंत्रालय के बड़े अफसरों की गिड़गिड़ाहट की परवाह न करते हुए विश्व हिंदू परिषद के इनकम टैक्स मामले पर खबर छापी।
जब आडवाणी ने सोमनाथ से रथ लेकर अयोध्या की तरफ कूच किया तो लोगों को लगने लगा था कि अब आर.एस.एस. को रोका नहीं जा सकता। दंगों का सिलसिला शुरू हो चुका था पंडित जी के संडे आब्ज़र्वर में लगातार खबरें छपती रहीं और जब ज्यादातर लोग आडवाणी की जय जयकार कर रहे थे तो उदयन के अखबार में सुर्खी लगी 'रावण रथी विरथ रघुबीराÓ। और इसी विरथ रघुबीर के सनातन धर्मी भक्तों के पक्षधर उदयन शर्मा ने $कलम को आराम नहीं दिया। हमेशा कहते रहे कि इस देश का बहुसंख्यक हिंदू धर्मनिरपेक्ष है, और संघप्रेमी हिंदू बहुत कम हैं। उनको विश्वास था कि यह देश दंगाइयों की राजनीति को मुंहतोड़ जवाब देगा।
बाबरी मस्जिद के विध्वंस के दिन उदयन शर्मा बहुत निराश थे, दुखी थे। पी.वी. नरसिंहराव को गरिया रहे थे। उनको शिकायत थी कि नरसिंह राव ने आर.एस.एस. की मदद की थी। अर्जुन सिंह, मानव संसाधन विकास मंत्री थे, उदयन की कोशिश थी कि अर्जुन सिंह इस्तीफा दें और नरसिंहराव को पैदल करें, क्योंकि उनको तुरंत सजा दी जानी चाहिए। यह नहीं हो सका। लेकिन उदयन शर्मा रुके नहीं। फिर चल पड़े अपने लक्ष्य की ओर। बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद आर.एस.एस. वालों ने मुसलमानों को अपमानित करने की योजना पर काम शुरू कर दिया था।
पंडित जी ने महात्मा गांधी की समाधि पर रामधुन का आयोजन करवा कर सांप्रदायिकता का जवाब दिया। देश का बड़ा से बड़ा आदमी आया और मदर टेरेसा आईं। शबनम हाशमी ने सहमत की ओर से वहीं राजघाट पर नौजवानों को शपथ दिलाई कि सांप्रदायिकता के खिलाफ जंग जारी रहेगी। इसके बाद पत्रकारिता, नौकरशाही और राजनीति में बैठे आर.एस.एस. के कारिंदों ने पंडित जी पर चौतरफा हमला बोला और उनको हाशिए पर लाने की कोशिश करते रहे। नफरत के सौदागरों के खिलाफ उदयन की लड़ाई कभी कमजोर नहीं पड़ी। अभिमन्यु को घेरकर मारने के बाद कौरव सेना विजयी नहीं होती, उसके बाद जयद्रथ वध होता है। आज जब सांप्रदायिकता के जयद्रथ का वध हो चुका है, कौरव सेना अपने घाव चाट रही है, उदयन शर्मा की बहुत याद आती है।
उदयन शर्मा ने पत्रकारिता की दुनियां में बुलंदियों पर झंडे गाड़े थे। डाकू फूलनदेवी का आतंक चंबल के बीहड़ों में फैल चुका था, अखबार वाले हिंदी फिल्मों की महिला डाकुओं की तर्ज पर फूलनदेवी को दस्यु सुंदरी लिखना शुरू कर चुके थे। उदयन शर्मा और फोटो पत्रकार जगदीश यादव ने बीहड़ों में फूलनदेवी को ढूंढ निकाला और उसकी तस्वीर रविवार में छाप दी। उसके बाद से फूलनदेवी के बारे में सही रिपोर्टिंग का सिलसिला शुरू हुआ। मुसलमानों के खिलाफ जब भी दंगाइयों के हमले हुए उदयन शर्मा हमेशा उनके पक्ष में खड़े रहे। दलितों के खिलाफ सवर्णों के आतंक की रिपोर्ट पाठ्यपुस्तकों का विषय बन चुकी है।
रिपोर्ट में ईमानदारी उदयन शर्मा का स्थाई भाव था।पत्रकारिता के टैलेंट की गजब की पहचान थी उदयन को। गली कूचों से लोगों को पकड़कर लाते थे और पत्रकार बना देते थे। किसी बैंक क्लर्क को तो किसी ट्यूटर को, किसी टाइपिस्ट को तो किसी मैनेजर को, सबको पत्रकार बना दिया। मेरे जैसे मामूली आदमी को संपादकीय लिखने वाला पत्रकार बना दिया। इस जमात के ज्यादातर लोग बाद में उनसे नाराज भी हुए लेकिन उस भले आदमी ने कभी किसी की मुखालिफत नहीं की। मैं भी नाराज हुआ था लेकिन मुझे पहले से भी अच्छी नौकरी दिलवा दी। मुझे पता ही नहीं था, 2005 में पता लगा कि उदयन की सिफारिश पर ही मुझे ब्यूरो चीफ बनाया गया था।
एक बार मुझसे कहा कि आर.एस.एस. के खिलाफ लिखने वाले हर आदमी को अपना दोस्त मानो उससे भाई की तरह व्यवहार करो क्योंकि असल में वही तुम्हारा हमसफर होगा। 1991 में कांग्रेस के टिकट पर वे लोकसभा का चुनाव लड़ गए थे, मध्यप्रदेश के भिंड चुनाव क्षेत्र से। सत्यदेव कटारे और रमाशंकर सिंह उनके सहयोगी थे लेकिन तमाम ऐसे लोग भी थे जो अंदर ही अंदर उनका विरोध कर रहे थे, उदयन शर्मा को सब कुछ मालूम था लेकिन किसी के खिलाफ कोई नाराजगी नहीं जाहिर की। राजीव गांधी खुद उनके चुनाव प्रचार में आए थे। पंडित जी चुनाव हार गए लेकिन भिंड नहीं हारे। जिन लोगों ने उनकी मुखालिफत की थी, वे भी दिल्ली आते थे तो वे खुद और उनकी पत्नी नीलिमा शर्मा, जो भी हो सकती थी, मदद करते थे। यह सिलसिला आज तक जारी है। उदयन शर्मा को एक मुहब्बत करने वाले इंसान के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।
उनकी पत्नी नीलिमा जी, दोनों बेटे डेनिस और छोटू उनके सबसे करीबी दोस्त थे, इन लोगों से वे आदतन मुहब्बत करते थे। इसी भावना को बढ़ाते जाते थे जिसमें परिवार मित्र-मंडली, मुसलमान और धर्मनिरपेक्ष सोच का हर इंसान शामिल हो जाता था उनके लिए पत्रकारिता मिशन नहीं कर्तव्य था और उसको उन्होंने बहुत ही बहादुरी से निभाया। पंडित जी धार्मिक नहीं थे लेकिन परिवार के बड़ों के आगे उनका सिर झुकता था।
इस महापुरुष के आगे मेरे जैसे मामूली आदमी का सिर हमेशा झुका रहेगा। अपनी बात को बे लौस और साफ साफ कहना उनकी फितरत थी। अगर आज जिंदा होते तो बहुत खुश होते क्योंकि बीजेपी की मौजूदा हार में उनकी शुरू की गई उस लड़ाई का भी योगदान है जो उन्होंने लगभग निहत्थे लड़ा था। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उनके दिल से जो कराह निकली थी, उसी का नतीजा है बीजेपी चुनाव तो हार ही गई है, विघटन के कगार पर भी खड़ी है।
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