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Saturday, June 8, 2013

कैलिफोर्निया में अमरीका और चीन की शिखर बैठक के भावार्थ


शेष नारायण सिंह 

सात और आठ जून को दुनिया के दो सबसे ताकतवर नेता मिल रहे हैं .चीन के जी जिनपिंग और अमरीका के बराक ओबामा कैलिफोर्निया के सनीलैंड्स में मिल रहे हैं . इन नेताओं की मुलाकात एक ऐसे माहौल में हो रही है जब दोनों देशों के बीच रिश्ते ढलान पर हैं .आर्थिक विकास की हवा पर सवार चीन अपनी क्षेत्रीय हैसियत को बढाने में लगा हुआ है . अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों की कमज़ोर पड़  रही अर्थव्यवस्था के चलते चीन के हौसले और भी बुलंद हैं . अमरीका को अब तक इस बात का गुमान था कि वह चीन के चारों तरफ के देशों में भारी मौजूदगी रखता है और उसके बल पर वह ज़रुरत पड़ने  पर चीन को घेर सकता है .हालांकि अमरीका का यह मुगालता  बंगलादेश की स्थापना के बाद ख़त्म हो गया था लेकिन वह  जापान, कोरिया, पाकिस्तान आदि देशों में अपनी मौजूदगी को अपनी ताक़त मानता रहा था . हालांकि १९७१ में पाक्सितान के बड़े भाई के रूप  में खड़े रहकर भी निक्सन और किसिंजर की टोली  पाकिस्तान को छिन्न भिन्न होने से बचा नहीं पायी थी . भारत ने हस्तक्षेप करके तत्कालीन पाकिस्तान के पूर्वी भाग की अवाम की आज़ादी को  सहारा दिया था और स्वतंत्र देश बंगलादेश  की स्थापना हो गयी थी . एशिया के इस हिस्से में अपनी ताकत के परखचे उड़ते देख अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अप्लीकेशन डाल  दी थी और उनको चेयरमैन माओत्सेतुंग ने हाजिरी बक्श दी थी  . अमरीका परस्त देश और राजनेता उसके बाद से ही दावा करते रहे हैं कि चीन और अमरीका के रिश्तों में सुधार हो रहा है लेकिन सच्चाई यह  है की पूरी दुनिया में हर तरफ अपनी दखलंदाजी करने वाले अमरीका के प्रभाव का दायरा बहुत ही तेज़ी से घट रहा है . ऐसी हालत में अमरीका के हित में है  कि वह  तेज़ी से विकास कर रहे चीन  से अपने सम्बन्ध सुधारे. वरना वह दिन दूर नहीं जब चीन आर्थिक विकास के साथ एक ऐसी सैनिक ताक़त की शक्ल अख्तियार कर लेगा  कि दुनिया भर में अपने को रक्षक के रूप में पेश करने वाले अमरीका की मुश्किलें बहुत बढ़ जायेगीं .
चीन को मालूम है की अब अमरीका और चीन के रिश्ते बहुत ही नाज़ुक दौर में पंहुच चुके हैं और अब एक ऐसे सम्बन्ध की ज़रुरत है जो दो महान देशों के बीच स्थापित किया जाता है. जानकार बताते हैं की दोनों देशों के नेताओं को कूटनीति के जो स्थापित मानदंड हैं उनसे अलग होकर कुछ करना पडेगा . इस सम्बन्ध में १९७२  का उदाहरण दिया जाता है जब अपने भारी मतभेदों को भुलाकर चीने के सबसे बड़े नेता  माओ के सामने रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंजर ने आपसी हितों के मुद्दे तलाशने की कोशिश की थी  . पिछले चालीस  वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है . चीन को मालूम है की वह अब एक महान आर्थिक ताक़त है और वह अमरीकी बाजार को  अस्थिर करने की शक्ति रखता है .चीन में  अब भी यह माना जाता है की जब भी अमरीका दोस्ती का हाथ बढाता है वह चीन को काबू में करने के चक्कर में  ज्यादा रहता है .लेकिन दोनों ही नेताओं, जी जिनपिंग और बराक ओबामा को मालूम है को दोस्ती की राह ही सही रहेगी क्योंकि और किसी रास्ते में तबाही ही तबाही है .
ओबामा को मालूम है की चीन को साथ लिए बिना ईरान, उत्तरी कोरिया और मौसम के बदलाव जैसे मुद्दों पर कोई सफलता नहीं मिलेगी . इसलिए सनीलैंड्स की मुलाक़ात से अमरीकी कूटनीति को धार मिलने की संभावना है .चीन  के हित में यह है की वह पूर्वी एशिया और अपने प्रभाव के अन्य इलाकों में अमरीका को यह भरोसा दिला सके कि  चीन उसको परेशान नहीं करेगा. चीन  के मौजूदा नेता  जी जिनपिंग ने एक साल की अपनी सत्ता के बाद यह साबित कर दिया है की घरेलू और विदेशी हर मामले में  उनकी ताकत को कम करके नहीं आंका जा सकता . आर्थिक बदलाव के बाद चीन के सरकारी कर्मचारियों में आयी भ्रष्टाचार की वारदातों  पर उन्होंने प्रभावी तरीके से कंट्रोल करने की कोशिश पर काम शुरू कर दिया है जापान को वे अक्सर धमकाते रहते हैं .इस तरह से चीनी राष्ट्रवाद की अनुभूति को भी शक्ति मिलती  है .अमरीका पंहुचने के  पहले वे मेक्सिको, कोस्टा रिका और त्रिनिदाद -टोबैगो होते हुए पंहुचे हैं यानी अमरीका को पता होना चाहिए कि  चीन भी अमरीका के बिलकुल पड़ोस तक असर रखता है .अगर अमरीका पूर्वी एशिया में असर रखता है तो चीन भी दक्षिण  अमरीका में एक ताक़त है। इस पृष्ठभूमि में दो बड़ी ताक़तों के नेताओं का  बेतकल्लुफ़ माहौल में मिलना दुनिया की राजनीति के लिए बड़ी घटना है . इसका असर आने वाले वर्षों में  सभी देशों पर पड़ने वाला है .

Thursday, May 2, 2013

जंग मगरिब में या कि मशरिक में ,उसका विरोध किया जाना चाहिए



 
 
शेष नारायण सिंह
 
 
लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना भारत के इलाक में घुस गयी है और करीब बीस किलोमीटर अंदर आकर अपने टेंट लगा दिए हैं . गाफिल पड़े भारतीय मिलिटरी इंटेलिजेंस वालों की तरफ से तरह तरह की व्याख्याएं सुनने को मिल रही है लेकिन सच्चाई यह है कि भारतीय सीमा में चीनी सैनिक जम गए हैं और ताज़ा जानकारी के मुताबिक वे वहाँ से हटने को तैयार नहीं हैं .जम्मू-कश्मीर में लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी सेक्टर में घुसे चीनी सैनिकों ने यहां अपना एक और तंबू गाड़ कर अस्थायी चौकी बना ली है.चीन के टेंट को हटाने की कूटनीतिक कोशिशें जारी हैं लेकिन  चीनी सेना फिलहाल पीछे हटने को तैयार नहीं है। दोनों पक्षों के बीच तीन बार फ्लैग मीटिंग होने के बावजूद चीन अपने रुख पर अड़ा हुआ है। इस मसले को बातचीत से सुलझाने की बजाय चीनी सैनिक भारतीय क्षेत्र में और भीतर तक बढ़ने की कोशिश में हैं। सूत्र बताते हैं कि घुसपैठ कर रहे चीनी  सैनिकों के पास आधुनिक हथियार  हैं और वे वापस जाने के लिए नहीं आये हैं . यू पी ए के मुख्य सहयोगी समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने लोक सभा में लद्दाख क्षेत्र में  चीनी  घुसपैठ के मुद्दे को बहुत जोर शोर से उठाया .उन्होंने कहा कि  डॉ राम मनोहर लोहिया ने आज़ादी के बाद ही जवाहर लाल नेहरू को चेतावनी  दे दी थी कि चीन के इरादों से चौकन्ना रहें लेकिन नेहरू ने उनकी बात को तवज्जो नहीं दी . और चीन से दोस्ती का राग जारी रखा . जब तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाइ भारत आये थे तब भी डॉ लोहिया ने उनकी मंशा पर नज़र रखने को कहा था लेकिन जवाहरलाल नेहरू उन दिनों पंचशील की बात पर अड़े हुए थे . जब १९६२ में चीन ने  हमला कर दिया तब नेहरू की आँखें खुलीं लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और चीन ने भारत को पीछे हटने को मजबूर कर दिया था . मौजूदा चीनी कार्रवाई के बारे में मुलायम सिंह यादव ने कहा कि सरकार इस मामले में हाथ में हाथ धरे बैठी है.उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार घुसपैठ की समस्या से निपटने में कायरों की तरह काम कर रही है.उन्होंने चीन को भारत का सबसे बड़ा दुश्मन बताया और कहा कि पाकिस्तान हमारा दुश्मन नहीं है .उन्होंने कहा कि हम कई वर्षों से  चेतावनी दे रहे हैं कि चीन ने हमारे क्षेत्र पर कब्जा करना शुरू कर दिया है. लेकिन सरकार है कि सुनने को तैयार नहीं है.”मुलायम सिंह यादव ने कहा सेना चीन को खदेड़ने के लिए तैयार है लेकिन सरकार की तरफ से इस मामले में भी ढिलाई बरती  जा रही है . मुलायम सिंह ने दावा किया  कि “ये सरकार कायर, अक्षम और बेकार है.” साथ ही उन्होंने खुर्शीद के चीन की यात्रा पर जाने के माले में भी सवाल उठाए. चीन के प्रधानमंत्री की अगले महीने होने वाली भारत यात्रा की तैयारियों के सिलसिले में खुर्शीद नौ मई को चीन जा रहे हैं.उन्होंने कहा कि जब चीन हमारे क्षेत्र में घुस रहा है क्या विदेश मंत्री चीन के दौरे पर भीख मांगने जा रहे हैं .मुलायम सिंह यादव ने सरकार से यह भी कहा कि जब सेना प्रमुख कह रहे हैं कि वे चीनियों को वापस खदेड़ने के लिए तैयार हैं तो  सरकार क्यों नहीं क़दम उठाती . मुलायम सिंह को यह पता होना चाहिए कि अगर सरकार फौज के ज़रिये सीमा की समस्या का हल निकालने की कोशिश करेगी तो युद्ध होगा और डॉ राम मनोहर लोहिया कभी भी युद्ध के पक्ष में नहीं थे. वे हमेशा शान्ति पूर्ण तरीके से ही समस्या का हल निकालने के पक्ष धर रहे . क्योंकि जंग मगरिब में या कि मशरिक में ,खून गरीब इंसान का ही बहता है . सत्ताधीश तो खून बहाने के बाद शान्ति समझौते करते नज़र आते हैं . १९६२ की लड़ाई के बाद भारत और चीन के सम्बन्ध बहुत बिगड गए थे . दोनों देशों के बीच में कूटनीतिक सम्बन्ध भी खत्म हो गए तह लेकिन जब अमरीका ने हेनरी कीसिंजर के दौर में चीन से  दोस्ती बढानी शुरू की तो  बाकी दुनिया में भी माहौल बदला और भारत ने चीन के साथ दोबारा १९७६ में कूटनीतिक सम्बन्ध कायम कर लिया लेकिन दोनों देशों के बीच जो चार हज़ार किलोमीटर की सीमा है उसमें जगह जगह पर विवाद के मौके पैदा होते रहते हैं . चीन के १९६२ के हमले के पचास साल बाद भी आज दोनों देशों के बीच सीमा का विवाद  कहीं से भी हल होता नज़र नहीं आता .सीमा के  इलाकों में कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां दोनों ही देश अपनी दावेदारी की बात करते  हैं. लद्दाख में  बहुत बड़े भारतीय भूभाग पर चीन का कब्जा है . वह उसको अपना बताता है और उसका दावा है कि बाकी लद्दाख भी उसी के पास होना चाहिए . अरुणाचल प्रदेश को भी चीन अपना बताता है और सारी दुनिया में कहता फिरता है कि भारत ने उसके इलाके पर कब्जा कर रखा है . अरुणाचल के विवाद की जड़ में पूर्वी भाग की करीब नौ सौ  किलोमीटर की सीमा पर झगडा है . करीब सौ साल पहले १९१४ में सर हेनरी मैकमोहन ने तिब्बत और ब्रिटेन के बीच इस विवाद को सुलझा देने का दावा किया था .तिब्बत  तब एक स्वतन्त्र देश हुआ करता था .आजकल तो चीन का कब्जे में है .जो सीमा रेखा तय हुई थी उसको ही आज मैकमोहन लाइन कहते हैं .जब ब्रिटेन और तिब्बत के बीच सीमा की बातचीत चल रही थी तो भारत तो पूरी तरह से ब्रिटेन के अधीन था .ज़ाहिर है कि उसका हित ब्रिटेन ही देख रहा था . और ब्रिटेन एक ताक़तवर साम्राज्य था इसलिए उस विवाद को सुलझाने में सर हेनरी मैकमोहन ने चीन को भी केवल आब्ज़र्वर की हैसियत ही दी थी ,उसको विचारविमर्श में शामिल नहीं किया था. मैकमोहन लाइन की एक खास बात यह भी है कि वह बहुत मोटी निब वाले कलम से मार्क की गयी थी जिसकी वजह से  गलती का मार्जिन १० किलोमीटर तक का है . ८९० किलोमीटर की सीमा में अगर १० किलोमीटर का गलती का मार्जिन है तो वह करीब ८९०० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को विवाद की ज़द में तुरंत ही स्थापित कर देता है .उत्तराखंड के इलाके में भी भारत और चीन का सीमा विवाद होता ही रहता है क्योंकि बहुत सारे इलाके ऐसे हैं जहां भारतीय और चीनी सैनिक पंहुच ही नहीं सकते . नतीजा यह होता है कि सेना के साथ काम करने वाले कुत्तों का इस्तेमाल ही अपनी सीमाओं को रेखांकित करने के लिए किया जाता है .भारत और चीन के बीच में कई बार ऐसे माहौल को देखा गया है जैसा कि आजकल बना हुआ है . एक बार तो १९८६ में ऐसा लगने लगा था कि उत्तरी तवांग जिले में फौजें भिड जायेगीं . भारत ने भी अपने करीब दो लाख सैनिक वहाँ भेज दिया था लेकिन बात संभल गयी . सच्चाई यह है कि दोनों देशों के बीच में १९६२ की लड़ाई के बाद बहुत ही तल्ख़ रिश्ते बन गए थे और १९६७ तक कभी कभार सीमा पर तैनात दोनों देशों के सैनिकों के बीच गोली भी चल जाया करती थी लेकिन १९६७ के बाद दोनों देशों के बीच एक भी गोली नहीं चली है . १९६२ की अपमानजनक हार के बाद भारत में चीन को लेकर बहुत चिंताएं हैं . चीन के साथ किसी तरह की  दोस्ती की बात को आगे बढ़ा पाना भारतीय राजनेताओं के लिए लगभग असंभव होता है .लेकिन दोनों देशों के बीच के झगडे को खत्म करने का एक ही तरीका है कि भारत और चीन यह बात स्वीकार कर लें कि जो जहां है वहीं ठीक है . भारत के बहुत बड़े भूभाग पर चीन का कब्जा है . कश्मीर और लद्दाख में कई जगहों पर चीन ने पाकिस्तान के साथ मिलकर भारतीय ज़मीन पर कब्जा कर रखा है . चीन दावा करता है कि अरुणाचल प्रदेश समेत एक बड़ा हिस्सा उसका है जिसपर भारत का  कब्जा है .ज़ाहिर है  कि दोनों ही  देश सैनिक ताक़त में बहुत मज़बूत हैं . दोनों ही परमाणु हथियार संपन्न देश हैं और आर्थिक ताक़त भी बन रहे हैं . न चीन भारत को हडका सकता है और न ही चीन भारत से डरने वाला है . ज़ाहिर है दोनों देशों के विवाद को हल करने में सेना का  कोई योगदान नहीं होगा . जो भी हल निकलेगा वह बातचीत से ही निकलेगा . और बातचीत में सहमति का सबसे मज़बूत आधार स्टेट्स को यानी यथास्थिति को बनाए रख कर समझौता करना ही हो सकता है . इस तरह का प्रस्ताव अस्सी के दशक में चीन के प्रधानमंत्री डेंग शाओपिंग दे भी  चुके हैं लेकिन भारत में यथास्थिति को बरकरार रख कर कोई समझौता करने वाली पार्टी और उसका नेता राजनीतिक रूप से समाप्त हो जाएगा . इन खतरों के बावजूद  2003 में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार ने पहल की और वाजपेयी सरकार ने यथास्थिति के सिद्धांत का पालन करते हुए शान्ति स्थापित करने की कोशिश शुरू की . चीन ने भी जो ज़मीन भारत के पास  है उसको भारत का मानने की  नीति पर काम करना शुरू कर दिया. दोनों देशों ने  इस काम के लिए विशेष दूतों की तैनाती की और बातचीत का सिलसिला चल पड़ा .अब तक इस सन्दर्भ में दो दर्ज़न से ज्यादा बैठकें हो चुकी हैं .२००५ में एक समझौता भी हुआ जिसमें संभावित अंतिम समझौते के दिशा निर्देश और राजनीतिक आयाम को शामिल किया गया है .इस समझौते में यह भी लिखा है कि आबादी का विस्थापन  नहीं होगा. इसका मतलब यह हुआ कि चीन तवांग जिले पर अपनी दावेदारी को भूलने को तैयार था. लेकिन बाद में सब कुछ बिगड गया . चीन ने मीडिया और अपने नेताओं के ज़रिये अजीबोगरीब बातें करना शुरू कर दिया और कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों के लिए अलग तरह  का वीजा देना शुरू कर दिया . जिसके कारण रिश्ते खराब होते गए . चीन ने सीमा के पास बहुत  ही अच्छी सड़कें बना ली हैं और भारत ने भी असम के आसपास अपनी सैनिक मौजूदगी को और पुख्ता किया है . दोनों देशों के बीच जो अविश्वास का माहौल बना है उसके चलते सब कुछ गडबड होने की दिशा में पिछले कई वर्षों से चल रहा है और लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी सेकटर में चीनी सैनिकों का आगे बढ़ कर अपने  टेंट लगा देना उन्हीं  बिगड़ते रिश्तों का एक नमूना है . लेकिन बिगड़ते रिश्तों को ठीक करने की कोशिश की जानी चाहिए ,उसके लिए हर तरह के प्रयास किये जाने चाहिए क्योंकि दोनों देशों के बीच अगर युद्ध की  स्थिति बनी तो खून तो गरीब आदमी का ही बहेगा .

Friday, November 4, 2011

चीन की सीमा पर तैनात होंगें एक लाख सैनिक

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, २ नवम्बर .देशी विदेशी मीडिया में चीन के भारत विरोधी रुख और पाकिस्तान से नई दोस्ती की कहानियां रोज़ ही नज़र आ रही हैं .हालांकि भारत की तरफ से बार बार यही कहा जा रहा है कि इन खबरों को भारत गंभीरता से नहीं लेता लेकिन भारतीय सेना की ताज़ी तैयारियों से लगता है कि भारत चीन की किसी भी पैंतरेबाजी को पूरी गंभीरता से लेता है और अगर ज़रूरत पड़ी तो भारतीय सेना चीन को सैनिक भाषा के व्याकरण में भी समझाने के लिए तैयार है . संकेत मिल रहे हैं कि अगले पांच वर्षों में भारत चीन की सीमा के साथ अपने इलाकों में करीब एक लाख सैनिक तैनात कर देगा.

बताया जाता है कि सीमा पर बड़ी सैनिक उपस्थिति का भारतीय सेना का यह प्रस्ताव अब रक्षा मंत्रालय के पास है . इमकान है कि इसे जल्दी ही कैबिनेट की मंजूरी के लिए भेज दिया जाये़या .चीन से १९६२ की लड़ाई के बाद चीन और भारत की सीमा पर इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों की तैनाती कभी नहीं हुई है .चीन के नए हुक्मरान पाकिस्तान से चीन की बढ़ रही दोस्ती के मद्दे नज़र भारत को अर्दब में लेने के चक्कर में भी बताये जाते हैं . लेकिन भारतीय कूटनीतिक बिरादरी इस बात को कोई महत्व नहीं देती. माना जाता है कि पाकिस्तान में अपनी सैनिक मौजूदगी को मुकम्मल करने के लिए चीन कभी कभी भारत विरोधी राग ज़रूर अलाप देता है लेकिन यह बात बिलकुल पक्की है कि पाकिस्तान को खुश करने के लिए चीन भारत जैसे परमाणु शक्ति संपन्न देश से फौजी पंगा नहीं लेगा.अगर पाकिस्तानी यह सोचते हैं तो वे बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं .१९६५ में पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खां यह गलती कर चुके हैं . उनको भरोसा था कि १९६५ में जब वे भारत पर हमला करेगें तो हिमालय के उस पार से चीन भी भारत पर हमला बोल देगा. इसी मुगालते में उन्होंने १९६५ की लड़ाई की शुरुआत की थी.लेकिन जब चीन से सांस भी नहीं ली तो बेचारे सन्न रह गए और उनकी फौज को भारतीय सेना ने दौड़ा दौड़ा कर पीटा.

इस नुकसान के बाद अयूब खां की गद्दी छिन गयी थी .उस के बाद बहुत दिनों तक पाकिस्तानी हुक्मरान चीन से बच कर रहते थे लेकिन मुशर्रफ के राज में फिर चीन से दोस्ती की पींग बढ़ने लगी . अब तो चीन बाकायदा पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में अपने फौजी ठिकाने बना रहा है . पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में भी चीन की खासी दखल है . इन सब बातों को ध्यान में रखकर भारतीय रक्षा मंत्रालय ने ६४ हज़ार करोड़ रूपये खर्च करके सेना के आधुनिकीकरण का प्रोजेक्ट तैयार किया है .

अंतर राष्ट्रीय कूटनीतिक हलकों को विश्वास है कि चीन भारत से खुद कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहता क्योंकि इससे उसके वे सपने पूरे नहीं हो सकेगें जिसके अनुसार चीन दुनिया की बड़ी आर्थिक ताक़त बनने के फ़िराक़ में है .लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वह पाकिस्तान को भारत के साथ युद्ध में फंसा सकता है . ज़ाहिर है इस तरह की छुपी चालों का न तो पता लगाया जा सकता है और न ही इनकी कोई काट पैदा की जा सकती है . शायद इसीलिये केंद्र सरकार की तरफ से भारतीय सेना को चीन की सीमा पर अपनी रक्षापंक्ति को मज़बूत करने का निर्देश दे दिया गया है .

Monday, November 30, 2009

राष्ट्रहित के लिए चीन की अगुवाई भी मंज़ूर

शेष नारायण सिंह

अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में आजकल सबसे अहम् मुद्दा जलवायु परिवर्तन का है. विकसित देशों क्व सघन औद्योगिक तंत्र की वजह से वहां प्रदूषण करने वाली गैसें बहुत ज्यादा निकलती हैं उनकी वजह से पूरी दुनिया को जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुक्सान को झेलना पड़ता है .. अमरीका सहित विकसित देशों की कोशिश है कि भारत और चीन सहित अन्य विकास शील देशों को इस बात पर राजी कर लिया जाए कि वे अपनी औद्योगीकरण की गति धीमी कर दें जिस से वातावरण पर पड़ने वाला उल्टा असर कम हो जाए.. लेकिन जिन विकासशील देशों में विकास की गति ऐसे मुकाम पर है जहां औद्योगीकारण की प्रक्रिया का तेज़ होना लाजिमी है, वे विकसित देशों की इस राजनीति से परेशान हैं . पिछले कई वर्षों से जलवायु परिवर्तन की कूटनीति दुनिया के देशों के आपसी संबंधों का प्रमुख मुद्दा बन चुकी है . लेकिन इस बार कोपेनहेगन में दिसंबर में होने वाले शिखर सम्मलेन में कुछ ऐसे प्रस्ताव आने की उम्मीद है जो आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन की राजनीति को प्रभावित करेंगें. . त्रिनिदाद में आयोजित राष्ट्रमंडल देशों के प्रमुखों की सभा में भी जलवायु परिवर्तन का मुद्दा छाया रहा. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और रानी एलिज़ाबेथ तो थे ही, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून भी जलवायु परिवर्तन के बुखार की ज़द में थे. फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी भी त्रिनिदाद की राजधानी पोर्ट ऑफ़ स्पेन पंहुचे हुए थे, हालांकि उनके वहां होने का कोई तुक नहीं था. . पश्चिमी यूरोप के देशों और अमरीका की कोशिश है कि भारत और चीन समेत उन विकासशील देशों को घेर कर औद्योगिक गैसों के उत्सर्जन के मामले में अपनी सुविधा के हिसाब से राजी कर लिए जाय . पोर्ट ऑफ़ स्पेन में इकठ्ठा हुए ज़्यादातर देश विकासशील माने जाते हैं , कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के अलावा सभी राष्ट्रमंडल देश औद्योगीकरण की दौड़ में पिछड़े हुए हैं . इसलिए उनको राजी करना ज्यादा आसान होगा. बाकी अन्य मंचों पर भी यह अभियान चल रहा है. कम विकसित देशों और अविकसित देशों को वातावरण की शुद्धता के महत्व के पाठ लगातार पढाये जा रहे हैं . विकसित देशों के इस अभियान का नेतृत्व , अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा कर रहे हैं.. उनकी कोशिश है कि भारत सहित उन देशों को अर्दब में लिया जाय जो कोपेनहेगन में औद्योगिक देशों की मर्जी के हिसाब से फैसले में अड़चन डाल सकते हैं . ओबामा की चीन यात्रा को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. . वहां जाकर उन्होंने जो ऊंची ऊंची बातें की हैं , उनको पूरा कर पाना बहुत ही मुश्किल है लेकिन चीनी नेताओं को खुश करने की गरज से ओबामा महोदय थोडा बहुत हांकने से भी नहीं सकुचाये.

बहरहाल चीज़ें बहुत आसान नहीं हैं . राष्ट्रमंडल देशों के प्रमुखों की सभा में भारत के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने साफ़ कह दिया कि ऐसी कोई भी बात वे मानने को तैयार नहीं होंगें जो न्यायसंगत न हो . उन्होंने साफ़ कहा कि भारत प्रदूषण करने वाली गैसों में कमी करने के ऐसे किसी भी दस्तावेज़ पर दस्तख़त करने को तैयार है जिसके लक्ष्य महत्वाकांक्षी हों लेकिन शर्त यह है कि उसकी बुनियाद में सबके प्रति न्याय की भावना हो., जो संतुलित हो और जो हर बात को विस्तार से स्पष्ट करता हो. . भारत की कोशिश है कि एक ऐसा समझौता हो जाए जो वैधानिक रूप से सभी पक्षों को बाध्य करता हो. डा. मनमोहन सिंह ने कहा कि आजकल विकसित देश यह कोशिश कर रहे हैं कि कोपेनहेगन में अगर कानूनी दस्तावेज़ पर दस्तखत नहीं हो सके तो एक राजनीतिक प्रस्ताव से काम चला लिया जाएगा. भारत ने कहा कि अभी बहुत समय है और इस समय का इस्तेमाल एक सही और न्यायपूर्ण प्रस्ताव पर सहमति बनाने के लिए किया जाना चाहिए.. उन्होंने कहा कि कोपेनहेगन में जो कुछ भी हासिल किया जाए उसको बाली एक्शन प्लान के मापदंड के अनुसार ही होना चाहिए.. डा. सिंह ने कहा कि बहुपक्षीय समझौते के लिए निर्धारित एजेंडा बहुत ही स्पष्ट है और उसको घुमाफिरा कर कुछ ख़ास वर्गों के हित में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए.

पश्चिमी देशों की कोशिश है कि वे एक ऐसा ड्राफ्ट जारी कर दें जो कोपेनहेगन में चर्चा का आधार बन जाए और सारी बहस उसी के इर्द गिर्द घूमती रहे. खबर है कि इस ड्राफ्ट में वह सब कुछ है जो विकसित देश चाहते हैं . यह ड्राफ्ट १ दिसंबर को डेनमार्क की तरफ से जारी किया जाएगा. लेकिन इसकी भनक चीन को लग गयी है और उसने एक ऐसा डाक्यूमेंट तैयार कर लिया है जिसमें उन बातों का उल्लेख किया जा रहा है, जिसके नीचे आकर भारत,चीन , दक्षिण अफ्रीका और ब्राज़ील कोई समझौता नहीं करेंगें. . वे चार मुद्दे इस ड्राफ्ट में बहुत ही प्रमुखता से बताये गए हैं .वे चार मुद्दे हैं. पहला - यह चारों देश कभी भी गैसों के उत्सर्जन के बारे में ऐसे किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेंगें जो कानूनी तौर पर बाध्यकारी हो ., उत्सर्जन के ऐसे किसी प्रस्ताव को नहीं मानेगें जिसके लिए माकूल मुआवज़े का प्रावाधन न हो , अपने देश के औद्योगिक उत्सर्जन पर किसी तरह की जांच या निरीक्षण नहीं मंज़ूर होगा और जलवायु परिवर्तन को किसी तरह के व्यापारिक अवरोध के हथियार के रूप के रूप में इस्तेमाल होने देंगें. , भारत के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश भी इस चर्चा में शामिल हैं . उन्होंने बताया कि जब चीन के प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ ने शुक्रवार को उन्हें बताया तो उन्होंने उनसे सहमति ज़ाहिर की और कहा कि यह ड्राफ्ट बातचीत शुरू करने के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है . उन्होंने कहा कि चीन ने इस दिशा में एक सक्रिय, सकारात्मक अगुवाई शुरू कर दी है और भारत उस का समर्थन करेगा. .

अमरीका की यात्रा पर गए भारत के प्रधान मंत्री को सामरिक साझेदार के रूप में राजी करने में ओबामा का शायद यह भी उद्देश्य रहा हो कि भारत को कोपेनहेगन में भी अपनी तरफ मोड़ लेंगें तो चीन को दबाना आसान हो जाएगा. लेकिन लगता है कि ऐसा होने नहीं जा रहा है . क्योंकि भारत अपने राष्ट्रीय हित को अमरीका की खुशी के लिए बलिदान नहीं करने वाला है. यह अलग बात है कि सामरिक साझेदारी के आलाप के शुरू होते ही भारत ने परमाणु मसले पर इरान के खिलाफ वोट देकर अपनी वफादारी और मंशा का सबूत दे दिया है .लेकिन जलवायु वाले मुद्दे पर ऐसा नहीं लगता कि भारत अपनी आने वाली पीढ़ियों से दगा करेगा और अमरीका की जी हुजूरी करेगा भारत ने तो एक तरह से ऐलान कर दिया है कि अपने परमपरागत दुश्मन, चीन के साथ मिलकर भी वह राष्ट्रहित के मुद्दों को उठाएगा.