Friday, November 29, 2013

इरान के साथ परमाणु समझौता पश्चिम एशिया की शांति की तरफ एक अहम क़दम है



शेष नारायण सिंह

पश्चिम एशिया के कुछ देशों की तरह इरान को भी काबू में करने की अमरीकी विदेशनीति की योजना को अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अलविदा कह दिया है और इरान के साथ परमाणु मसले पर जिनेवा में सुरक्षा परिषद के सभी स्थायी सदस्यों और जर्मनी के विदेश मंत्रियों के बीच एक समझौता हो गया है .रविवार आधी रात के बात सभी संबद्ध पक्षों ने समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया .अमरीका ,फ्रांस,चीन रूस,ब्रिटेन और जर्मनी के साथ इरान के  इस समझौते ने पश्चिम एशिया की राजनीति को एक नई राह पर डाल दिया है . अमरीका की सरकार और समाज में मौजूद इजरायल के एजेंट और तेल अवीव की इजरायली सरकार इस डील से बहुत नाराज़ हैं .जबकि इरान की सरकार ने इस सौदे का स्वागत किया है .इरान की ओर से बातचीत में शामिल उनके विदेशमंत्री , मुहम्मद जवाद ज़रीफ़ ने कहा कि इस समझौते के बाद एक ऐसी समस्या से जान छुड़ाने का मौक़ा मिलेगा जिसमें पड़ना ही नहीं चाहिए था. समझौते  के बारे में तरह तरह की व्याख्याएं की जा रही हैं लेकिन सच्ची बात यह है कि जहां इरान की नीयत पर अमरीका सहित उसके समर्थक देश वर्षों से शक करते रहे हैं ,आज उनके बीच एक समझौता हो गया है . समझौते के बाद इरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा कि इस समझौते में इरान के परमाणु संवर्धन कार्यक्रम जारी रखने के अधिकार को मान्यता  दी गयी है .उन्होंने कहा कि जिसको जो जी चाहे मतलब निकालने दीजिए लेकिन समझौते में साफ़ लिखा  है कि इरान का परमाणु संवर्धन कार्यक्रम चलता रहेगा लेकिन अमरीकी विदेशमंत्री जान एफ केरी ने कहा कि कि ऐसा नहीं हैं .इरान के परमाणु कार्यक्रम को बतौर अधिकार मान्यता नहीं दी गयी है .उनको आपसी बातचीत के बाद ही परमाणु कार्यक्रम जारी रखने का अधिकार है . जिनेवा में जिस समझौते पर दस्तखत हुए हैं वह अंतरिम समझौता  है जो जून तक के लिए मान्य है . इस बीच अमरीका और उसके साथियों को इरान के साथ एक स्थायी इंतजाम करना पडेगा .अगर ज़रूरी हुआ तो मौजूदा समझौते  को कुछ और समय दिया जा सकता है .बहरहाल अमरीका और इरान दोनों ही देशों को अपने लोगों के बीच समझौते तो स्वीकार्य बनाना है इसलिए उसकी अपने हिसाब से राजनीतिक व्याख्या की जाएगी. बाकी दुनिया को इसमें केवल यह रूचि है कि अमरीकी जिद के चलते जो तनाव की स्थिति बनी हुई थी फिलहाल उस पर एक विराम लग गया है .और शान्ति की संभावना बढ़ गयी है .अमरीकी राष्ट्रपति  बराक ओबामा का दावा है कि इस समझौते के बाद दुनिया अधिक सुरक्षित हो जायेगी .अब इस बात की जांच की जा सकती है कि इरान का परमाणु कार्यक्रम  शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही जारी रख सकेगा ,उससे हथियार नहीं बनाए जा सकेगें .
इस समझौते से भारत को भी कुछ उम्मीदें हैं . सरकारी तौर पर बताया  गया है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज अज़ीज़ और इरान के विदेश मंत्री मुहम्मद जवाद ज़रीफ़ के बीच तेहरान में हुई बात चीत से पता चला है कि इरान से पाकिस्तान के रास्ते भारत आने वाले पाइपलाइन के प्रोजेक्ट पर फ़ौरन काम शुरू हो जाएगा . अमरीकी अड़चन के कारण इसपर काम नहीं हो रहा था. इस पाइपलाइन से इरान के पेट्रोलियम उत्पाद  भारत पंहुचने में सुविधा होगी और भारत को बहुत बड़ी बचत होगी. पाकिस्तान की चरमराती अर्थव्यवस्था को भी बहुत मदद मिलेगी .हालांकि पाकिस्तान के पास पाइपलाइन बनाने के लिए धन की कमी है और उसने इरान से दो अरब अमरीकी डालर का कर्ज माँगा है लेकिन एक बार राजनीतिक परेशानियों के हट जाने के बाद यह समस्या भी आसान हो जायेगी .
इरान के साथ अमरीका और अन्य देशों के समझौते का जश्न पश्चिमी दुनिया में मनाया जा रहा है लेकिन इस समझौते से एक तरह से परमाणु हथियारों की दुनिया में अपना दबदबा बनाए रखने की सुरक्षा परिषद के स्थायी देशों की मंशा ही सबसे स्थाई कारण नज़र आती है .अब अमरीका और उसके साथी देशों की समझ में आ गया है  कि इरान को दौन्दियाया नहीं जा सकता और शान्ति की तरफ केवल कूटनीतिक बातचीत के सहारे ही  चला जा सकता  है . इजरायल के दबाव में पिछले कई वर्षों से इरान पर पश्चिमी देशों की तरफ से लगाई गयी पाबंदियां भी के देश के हौसले को नहीं रोक पाईं . बहर हाल आखीर में उनकी समझ में आ  गया कि इरान से बातचीत करने का सही तरीका यह है कि उसको रियाया न समझा जाए ,उसके साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत की जाए . अब अमरीका और उसके साथी देशों की कोशिश यही होनी चाहिए कि इस अंतरिम समझौते को स्थायी रूप देने के उपाय करें . हालांकि यह बहुत आसान नहीं होगा . सभी देश इस  चक्कर में हैं कि इरान से रास्ता खुलने के बाद ज्यादा से ज्यादा लाभ लिया जाये होगा लेकिन फिलहाल तो अमरीका को उस धन को इरान को वापस देना है जो उसने पाबंदियों के बहाने दुनिया के कई देशों की बैंकों में ज़ब्त करवा रखा है .
मौजूदा समझौते के बाद इरान का परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम जारी रहेगा .दस्तावेज़ में लिखा  है कि शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए आपसी परिभाषा के आधार पर परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम चलाया जाएगा . इरान की इस बात को संपन्न देश नज़रंदाज़ नहीं कर सके कि संपन्न दुनिया में बिजली की बड़ी ज़रूरत परमाणु संयत्रों से ही पूरी की जाती है और  समझौते में शामिल सभी देशो के अलावा अर्जेंटीना,ब्राजील, भारत,जापान ,नीदरलैंड्स ,उत्तरी कोरिया ,इजरायल और पाकिस्तान के पास भी पार्माणु संवर्धन के कार्यक्रम चल रहे  हैं . इरान ने वचन दिया है कि वह समझौते के छः महीनों में यूरेनियम का पांच प्रतिशत से ज्यादा का संवर्धन नहीं करेगा  या ३.५ प्रतिशत संवर्धन वाला जो उसका भण्डार है उसमें कोई वृद्धि नहीं करेगा . ३.५ प्रतिशत के संवर्धन पर ही बिजली पैदा की जा सकती है जबकि हथियार बनाने के लिए ९० प्रतिशत संवर्धन की ज़रूरत पड़ती है .इरान ने समझौते में पूरा सहयोग किया है . उसने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को अपने परमाणु ठिकानों की जाँच करने का पूरा अधिकार देने का वचन दिया है .इसके बदले में  अमरीका ,फ्रांस ,चीन, रूस, जर्मनी और ब्रिटेन ने इरान को वादा किया है कि वह उसके तेल पर लगाई गयी पाबंदियों ढील देगें . इरान से पेट्रोल के निर्यात पर जो पाबंदी लगी हुई है वह भी दुरुस्त की जायेगी . सुरक्षा परिषद में भी इरान के खिलाफ कोई पाबंदी  का प्रस्ताव नहीं लाया जाएगा . ओबामा की सरकार भी  इरान पर पाबंदियां लगाने या उसकी धमकी देने से बाज़ आयेगी. यह पाबंदियां इरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए लगाई  गयी थीं. वह तो कहीं रुका नहीं अलबत्ता इरान की जनता ने सारी तकलीफें झेलीं .अमरीका में कुछ लोग यह दावा कर रहे हैं कि पाबंदियों के चलते ही इरान की हुकूमत बातचीत करने पर राजी हुई है लेकिन उनकी बात बिलकुल गलत है . इरान ने अपनी शर्तों पर बातचीत का रुख अपनाया है . जिस परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए सारी पाबंदियां लगाई जा  रही थीं वह अब पूरा सफल  कार्यक्रम  है और नए समझौते में उसको बाकायदा मान्यता दी गयी है .

अमरीका में इस समझौते के खिलाफ इजरायली लाबी की तरफ से किलेबंदी  शुरू हो गयी है . लेकिन  राष्ट्रपति बराक ओबामा भी उनको सस्ते नहीं छोड़ रहे हैं . उन्होंने कहा कि बड़ी बड़ी बातें करना राजनीतिक लिहाज़ से तो ठीक लग सकता है लेकिन राष्ट्र की सुरक्षा के मुद्दे पर अमरीकी कांग्रेस और सेनेट के नेताओं को ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए .उन्होने कहा कि कूटनीतिक तरीकों से दुनिया की  सुरक्षा का बंदोबस्त करने की कोशिश को खत्म नहीं किया जाना चाहिए . अमरीका में हथियारों और इजरायली लाबी के लोगों की कोशिश है कि पश्चिम एशिया में शान्ति न पैदा हो लेकिन ओबामा की सरकार भी इस बात पर आमादा है कि शान्ति हर कीमत पर लानी है . अमरीकी विदेशमंत्री जान एफ केरी  भी समझौते के लिए जिनेवा में मौजूद थे और अब वे वाशिंगटन में हैं और अमरीकी संसद के सदस्यों से बातचीत का सिलसिला शुरू कर चुके हैं . छुट्टियों के बाद ९ दिसंबर को कांग्रेस का सत्र फिर से शुरू होगा और उसी दिन से ओबामा सरकार के अधिकारी काम पर लग जायेगें .इस समझौते के रास्ते में सबसे बड़ा अडंगा अमेरिकन इजरायल पब्लिक अफेयर्स कमेटी  नाम की इजरायली लाबी, की तरफ से आने वाला है . यह अमरीका में इजरायली हितों की सबसे ताक़तवर लाबी है . अब इनको यह तो मालूम ही है कि बराक ओबामा जब समझौता कर आये हैं तो उसको पलटा तो नहीं  जा सकता लेकिन यह ज़रूर निश्चित किया जा सकता है कि उसमें भारी अडचने पैदा की जाएँ . इस काम पर  यह लाबी लग चुकी है और कोशिश की जा रही है कि संसद की तरफ से ऐसी शर्तें लगवा  दें कि बात गड़बड़ा जाये. लेकिन अमरीकी सरकार इस लाबी को भी औकात  बताने के मूड में है .बराक ओबामा भी कुछ ऐसा कर गुजरना चाहते हैं जिस से  उनको आने वाली सदियों में याद किया जाए . वे अमरीकी लाबी समूहों को बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे हैं क्योंकि उनको अब फिर से राष्ट्रपति पद के चुनाव का मैदान में नहीं उतरना है. इसलिए वे इस लाबी की उन कोशिशों को धता बता रहे हैं जिसमें मांग की जा रही है कि अगर इरान की तरफ से समझौते की शर्तों को लागू करने में कोई ढील बरती गयी तो और भी सख्त पाबंदियां लगा दी जाएँ .लेकिन ओबामा की सरकार का मानना है कि अब तक पाबंदियां लगाकर देख लिया है .आने वाले वक़्त में भी पाबंदियों के नतीजे शान्ति और सुरक्षा के हित में  नहीं होंगें .
अब समझौता हो गया है और सब को अपने हिसाब से अपनी जनता को समझाना है . इरान के नेता कह रहे हैं कि इस से तेल के निर्यात का मौक़ा मिलेगा और ज़ब्त धन वापस मिलेगा .जबकि साउदी अरब की सरकार ने उम्मीद जताई है कि अभी तो यह शुरुआत है , बाद में इरान के परमाणु कार्यक्रम को काबू में किया जा  सकेगा .बहरहाल एक अहम समझौता हो गया है और अब सुरक्षा और शान्ति का व्याकरण में एक नई इबारत लिख दी गयी  है .
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Wednesday, November 27, 2013

Airport privatisation: another scam in the making?

Shesh Narain Singh
The government of India has decided to hand over some airports built from public funds to the corporate sector. The government is going ahead with the plan although the department related Parliamentary Standing Committee on Transport, Tourism and Culture has put certain objections and they have been assured that the government will not do so.
A very senior officer in the Government of India informs that despite having given a solemn assurance to the parliamentary committee, the Ministry of Civil Aviation is going ahead and is in the process of inviting tenders to hand over the airports. For this purpose the government had set up a task force under the planning commission and three inter ministerial groups. These committees had recommended the development and operation of several metro, non-metro, greenfield and non-operational airports by private persons as the AAI finances are limited and there is need to tap revenue potential from ‘non-aeronautical services’ which Airports Authority of India will not be able to do due to its own constraints.
Sitaram Yechury is the chairman of the Standing Committee and all the important political parties including Congress and the BJP are represented on it. In its report, the committee does not agree with the government and has taken strong objection to the government’s decision. It has asked the government to take appropriate action to ensure that the loot of public funds is stopped herewith. The committee has cautioned the government to ensure that the Airports Authority of India ( AAI ) is not made a scapegoat and is allowed to function to perform its duty for the public good and is not compelled to work for the benefit of any private organization. The committee was unanimous in this.
The recommendations are direct and have put the government in a spot. The Committee does not agree with the Task Force and the Ministry that AAI will not be able to harness the potential for ‘non-aeronautical revenues’ from car parking, cargo facilities, hotels, passenger amenities, shopping etc. “due to its inherent constraints”. The report says that the Committee was neither informed specifically about those constraints, nor about the efforts made by the Government to enable AAI to overcome them. The Government has invested several thousand crores in modernizing these airports and now it is proposed to hand them over to private corporations. The Committee has recommend that instead of privatizing services at these airports, their management should be retained by AAI and a subsidiary of AAI or a Special Purpose Vehicle (SPV) can be formed for managing these airports. At the first instance AAI be allowed to operate the airports at Chennai and Kolkata and other non-metro airports for a few years.
The Committee was dismayed that instead of strengthening the AAI by giving it much needed financial and administrative autonomy to enable it to take its own decisions without being influenced by either the Ministry or the Planning Commission, a decision was taken to give the countries airports on platter to private parties. The report of the Committee says there is no logic behind privatizing all these airports after spending tax payers’ money for modernizing these airports. Public utilities created using public funds cannot be given to private parties for commercial considerations.
Officers of the Civil Aviation ministry submitted during the hearings that commercial space in the terminal buildings of both Chennai and Kolkata airports could not be utilized to generate revenue from the available huge space in terminal buildings. Entire blame for this has been laid on the Airports Authority of India and the Ministry had nothing to show for the efforts made by it to help AAI achieve this target. The Committee has noted the argument that large number of sub-optimal service contracts being awarded by AAI could also be eliminated if the operation and maintenance of the entire airport is granted to a single PPP concessionaire. The Committee does not agree with the government that AAI itself cannot be allowed to adopt a ‘single-agency model’ which the Ministry/Planning Commission is visualizing under the PPP mode.
The Committee is of the view that construction, operation and maintenance of airports should remain with Airports Authority of India. It should be empowered to take decisions to generate resources rather than handing over the core activities of the airports newly constructed with public money to the private players. The Committee has expressed its surprise on the unusual haste being shown in the process of privatization right from the constitution of Task Force, constitution of three Inter-Ministerial Groups (IMGs) one after another, placing the matter before Cabinet and obtaining its clearance, process of pre-bidding, etc.
The Standing Committee has recommended that AAI may be permitted to manage and operate all its airports, including the loss-making ones, with a rider that there should be time bound delivery of world class passenger services in a more efficient and transparent manner, matching with those being rendered by private airport operators.
The standing committee of the parliament is a powerful body but their recommendations are not binding. They have power only to recommend. When the committee system was introduced for the functioning of parliament it was assumed that the deliberations in the committee shall be deemed as good as the deliberations in the main chamber of the parliament but over the many years the shine of the standing committee is not the same as it used to be . The chairman of the committee Sitaram Yechury has expressed the hope that after his report the government will take appropriate action in the public and national interest.

Saturday, November 16, 2013

नरेंद्र मोदी का इतिहासबोध भी सरदार पटेल को आर एस एस का हमदर्द नहीं बना सकता



शेष नारायण सिंह 

आजकल आर एस एस / बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी की राजनीति को इतिहाससम्मत बनाने के काम में जुटे हुए है . इस चक्कर में वे बहुत ऊलजलूल काम कर रहे हैं . अभी गुजरात में किसी भाषण में उन्होंने कह दिया कि उनकी पार्टी के संस्थापक डॉ श्यामा  प्रसाद मुखर्जी १९३० में स्विट्ज़रलैंड में मर गए थे जबकि इतिहास का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु १९५३ में कश्मीर में हुई थी. पटना के भाषण में उन्होंने कह दिया कि सिकंदर गंगा नदी तक आया  था. या कि तक्षशिला बिहार में था . मोदी जी की इन गलतियों का कारण यह है कि वे या इतिहास की सही जानकारी नहीं रखते और उनका दिमाग इस बात की कोशिश करता रहता है कि अपनी पार्टी को भी इतिहास की महान परंपरा से जोड़ने में सफलता हासिल करें .उनके ऊपर इस बात का दबाव है कि वे आज़ादी की लड़ाई के कुछ महानायकों के साथ अपनी पार्टी को भी जोड़ें . इस चक्कर में कभी वह मौलाना आज़ाद का नाम लेते हैं, कभी बाल गंगाधर तिलक का नाम लेते हैं लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि यह सभी महान लोग आर एस एस में कभी नहीं रहे जबकि आज़ादी की लड़ाई के सारे महान नायक कांग्रेस में रह चुके हैं . मोदी  केवल एक प्वाइंट पर भारी पड़ते हैं कि कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व इंदिरा गांधी के परिवार के अलावा किसी का नाम नहीं लेता जबकि १९२० से १९५०  तक का कांग्रेस का इतिहास ऐसा है कि उस पर कोई भी गर्व कर सकता है और उसी  कालखंड का आर एस एस का इतिहास ऐसा है जिसे कोई भी गौरवशाली व्यक्ति अपना कहने में संकोच करेगा क्योंकि उसी दौर में भी महात्मा गांधी की हत्या हुई थी.

आज़ादी की लड़ाई के  नायकों को अपनाने की कोशिश आर एस एस और उसके मातहत संगठन अक्सर करते रहते हैं .२००९ में जब महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज की रचना के सौ साल पूरे हुए तो आर.एस.एस. वालों ने एक बार फिर योग्य पूर्वजों की तलाश का काम शुरू कर दिया था. उस किताब के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में सेमीनार आदि आयोजित किये गए . करीब ३३ साल पहले महात्मा गांधी को अपनाने की कोशिश के नाकाम रहने के बाद उस प्रोजेक्ट को दफन कर दिया गया था लेकिन पता नहीं क्यों एक बार फिर महात्मा गांधी को अपनाने की जुगत चालू कर दी गयी थी. आर एस एस ने इस बार महात्मा गांधी के व्यक्तित्व पर नहीं उनके सिद्धांतों का अनुयायी होने की योजना शुरू किया है . हिंद स्वराज को अपनाने की स्कीम उसी रणनीति का हिस्सा है .।

आर एस एस की समस्या यह है कि उनके पास ऐसा कोई हीरो नहीं है जिसने भारत की आजादी में संघर्ष किया हो। एक वी.डी.सावरकर को आजादी की लड़ाई का हीरो बनाने की कोशिश की गई . जब संघ परिवार की केंद्र में सरकार बनी तो सावरकर की तस्वीर संसद के सेंट्रल हाल में लगाने में सफलता भी मिल गई लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि 1910 तक के सावरकर और ब्रिटिश साम्राज्य से माफी मांगकर आजाद हुए सावरकर में बहुत फर्क है और पब्लिक तो सब जानती है। सावरकर को राष्ट्रीय हीरो बनाने की बीजेपी की कोशिश मुंह के बल गिरी। इस अभियान का नुकसान  हुआ क्योंकि जो लोग नहीं भी जानते थेउन्हें भी पता लग गया कि वी.डी. सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी और ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा करने की शपथ ली थी।1980 में अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधी को अपनाने की कोशिश शुरू की थी लेकिन गांधी के हत्यारों और संघ परिवार के संबंधों को लेकर मुश्किल सवाल पूछे जाने लगे तो योजना को छोड़ दिया  गया और कई साल तक महात्मा गांधी का नाम नहीं लिया। क्योंकि हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिएतो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहेंतो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदूमुसलमानपारसीईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैंएक देशीएक-मुल्की हैंवे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।" ज़ाहिर है यह आर एस एस बीजेपी की राजनीति के लिए कोई फायदे की बात नहीं है .
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत कीउससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अलीसरदार पटेलमौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया। लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना जैसे लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। महात्मा गांधी के १९२० के आंदोलन के बाद ही वी डी सावरकर की किताब “ हिंदुत्व “ को आधार बनाकर आर एस एस की स्थापना भी हुई.

बीच में कोशिश की गई कि आर.एस.एस. के संस्थापक डॉ के बी हेडगेवार के बारे में प्रचार किया जाय कि वे भी आजादी की लड़ाई में जेल गए थे लेकिन मामला चला नहीं। उल्टेजनता को पता लग गया कि वे जंगलात महकमे के किसी विवाद में जेल गए थे जिसे आर एस एस वाले अब वन सत्याग्रह नाम देते हैं . वन सत्याग्रह शब्द को सच भी मान लें तो आर.एस.एस. भी यह दावा कभी नहीं करता कि उसके संस्थापक १९२५ के बाद आजादी के किसी कार्यक्रम में संघर्ष का हिस्सा बने थे. हाँ कलकत्ता में कांग्रेस के सदस्य के रूप में वे शायद आज़ादी के संघर्ष में शामिल हुए रहे हों .। वन सत्याग्रह वाली बात को साबित करने के लिए आर एस एस की ओर से दिल्ली के किसी कालेज में काम करने वाले एक मास्टर साहेब की किताब का ज़िक्र किया जाता है . वे लोग बहुत जोर देकर बताते हैं कि कि वह किताब केन्द्र सरकार के प्रकाशन विभाग ने छापी है . हो सकता है कि सरकार ने किताब छापी हो लेकिन उस किताब का सोर्स क्या है इसपर कोई बात नहीं करता . 1940 में संघ के मुखिया बनने के बाद एम एस गोलवलकर भी घूमघाम तो करते रहे लेकिन एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में जब पूरा देश गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में शामिल था तो न तो आर.एस.एस. के प्रमुख एम एस गोलवलकर को कोई तकलीफ हुई और न ही मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिनाह को। दोनों जेल से बाहर की आजादी का सुख भोगते रहे।

जब संसद में सावरकर की तस्वीर लगाने के मामले पर एन.डी.ए. सरकार की पूरी तरह से दुर्दशा हो गई तो सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश शुरू की गई ,जो आज तक चल रही है .  सरदार पटेल को अपनाने की आर.एस.एस. की हिम्मत की दाद देनी पडे़गी क्योंकि आर.एस.एस. को अपमानित करने वालों की अगर कोई लिस्ट बने तो उसमें सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर आएगा। सरदार पटेल ने ही महात्मा गांधी की हत्या वाले केस में आर.एस.एस. पर पाबंदी लगाई थी और उसके मुखिया गोलवलकर को गिरफ्तार करवाया था। जब हत्या में गोलवलकर का रोल सिद्ध नहीं हो सका तो उन्हें छोड़ दिया जाना चाहिए था लेकिन सरदार पटेल ने कहा कि तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक वह अंडरटेकिंग न दें। सरदार पटेल ने लिखित अंडरटेकिंग लेकर गोलवलकर को जेल से रिहा होने दिया था . सरदार पटेल  की एक दूसरी शर्त थी कि रिहाई के पहले आर एस एस का  एक लिखित संविधान भी बनाया जाए.संविधान बन भी गया लेकिन उसका इस्तेमाल केवाल अपने प्रमुख  की रिहाई मात्र था.वह कभी लागू नहीं हुआ. उस संविधान में लिखा गया है कि संघ वाले किसी तरह ही राजनीति में शामिल नहीं हो सकेंगे। उसके बाद राजनीति करने के लिए 1951 में जनसंघ की स्थापना हुई। १९७७ में भारतीय जनसंघ का  जनता पार्टी में विलय हुआ और उसी जनता पार्टी को तोड़कर बाद में भारतीय जनता पार्टी बनी जिसको आज लोग बीजेपी के नाम से जानते हैं ..

अपने को आज़ादी की लड़ाई से जोड़ने की कोशिश करने का काम पिछले दिनों बीजेपी और  आर एस एस की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी को सौंपा गया .नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले तो सरदार पटेल को अपना साबित करने का अभियान चालू किया और उन्हें गुजराती तक कह डाला जबकि सरदार पटेल को किसी एक भौगोलिक सीमा में बांधना असंभव है . वे तो सारे देश के नेता थे.  सरदार पटेल को अपना सकना नरेंद्र मोदी के लिए बहुत मुश्किल साबित होने वाला है क्योंकि नरेंद्र मोदी की छवि एक ऐसे व्यक्ति की  है जिसके राज में २००२ में हज़ारों मुसलमानों को निर्दयता पूर्वक क़त्ल कर दिया गया था  और सरकार ने राजधर्म नहीं निभाया था. जबकि सरदार पटेल ने देश के विभाजन के बाद के हुए खून खराबे में लोगों को मुसलमानों की जान बचाने के लिए प्रेरित किया था . सरदार धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर थे .केन्द्र सरकार के गृहमंत्री के रूप में सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)

सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। भारत के गृहमंत्री के साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बेटी भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओंसिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ. ज़ाहिर है कि इस राजनीतिक सोच के मालिक सरदार पटेल के जीवन में ऐसे सैकड़ों काम होंगें जो नरेंद्र मोदी या उनकी राजनीति के हित के साधन के लिए किसी काम के नहीं होगें . इसलिए आर एस एस की सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश भी सफल  नहीं होने वाली है .ऐसी हालत में बेहतर यही होगा कि नरेंद्र मोदी समेत आर एस एस के बाकी लोग इतिहास को स्वीकार कर लें और उसे बदलने की कोशिश न करें .

Sunday, November 10, 2013

जवाहर लाल नेहरू के शिष्य थे डॉ राम मनोहर लोहिया

 
शेष नारायण सिंह 

आजकल देश के दो सबसे बड़े राज्यों में डॉ राम मनोहर लोहिया के अनुयायियों की सरकार है . उत्तर प्रदेश और बिहार के समाजवादी मुख्यमंत्रियों की सरकारें दावा करती पायी जाती हैं कि वे ही समाजवादी राजनीति के झंडाबरदार हैं . समाजवादी राजनीति ने इस देश को बहुत सारे चिन्तक दिए हैं . १९३६ में जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई थी तो उसके सदस्यों में  ई एम एस नम्बूदिरीपाद , डॉ राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव , जयप्रकाश नारायण जैसे चिन्तक शामिल थे. कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी वास्तव में कांग्रेस का ही हिस्सा थी .इस वर्ग को कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में जवाहर लाल का ग्रुप माना जाता था . यह अलग बात है कि इस में शामिल सभी नेता जवाहर लाल नेहरू से किसी मायने में कम नहीं थे.अपने देश में  समाजवादी राजनीति को स्थापित करने का श्रेय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं को ही जाता है .
समाजवादी नेताओं में डॉ राम मनोहर लोहिया का मुकाम सबसे ऊंचा था. आज़ादी के  बाद कांग्रेस की सत्ता जब आम आदमी की हित साधक संस्था के रूप में अपनी पहचान गँवा बैठी तो डॉ लोहिया ने कांग्रेस की हर उस नीति का विरोध  किया जो  जनविरोधी थी . दो आम चुनावों के बाद जब उनको लगा कि कांग्रेस की सत्ता जड़ पकडती जा  रही है तो उन्होंने गैर कांग्रेस वाद का राजनीतिक सिद्धांत दिया और आर एस एस से सम्बद्ध राजनीतिक पार्टी ,भारतीय जनसंघ तक को साथ लेने में संकोच नहीं किया. इस रणनीति का असर भी हुआ और १९६७ के आम चुनाव के बाद उत्तर और पूर्वी भारत के  कई राज्यों से कांग्रेस की सत्ता बेदखल कर दी गयी. १९६७ की संविद सरकारें डॉ लोहिया की राजनीति की सफलता और उनकी राजनीतिक समझ की वैज्ञानिकता   का सबूत हैं .डॉ लोहिया की छवि आमतौर पर कांग्रेस विरोधी राजनेता की है. उन्होंने आज़ादी के बाद से कांग्रेस की पूंजीवादी नीतियों को ज़बरदस्त विरोध भी किया और जीवन के अंत तक कांग्रेस विरोध की राजनीति ही किया .
डॉ राम मनोहर लोहिया हमेशा से ही कांग्रेस विरोधी नहीं थे. डॉ लोहिया कभी महात्मा गांधी के बाद की पीढी के सबसे बड़े नेता के  शिष्य भी थे. डॉ लोहिया के सबसे बड़े अनुयायी और आज के समाजवादियों के शलाकापुरुष स्व मधु लिमये ने अपनी एक किताब में साफ़ लिखा है कि डॉ राम  मनोहर लोहिया  शुरू से लेकर आज़ादी मिलने  तक जवाहर लाल नेहरू के बहुत करीबी व्यक्ति थे. भारत की विदेश नीति को मूल रूप से जवाहर लाल नेहरू ने डिजाइन किया था .  भारत के समकालीन इतिहास का हर विद्यार्थी जनता है कि  विदेश नीति की जवाहर लाल की जो भी सोच थी उसमें डॉ राम मनोहर लोहिया का बहुत बड़ा योगदान था. जवाहर लाल नेहरू ने हर मंच पर लोहिया की तारीफ़ की और उनकी राय को महत्व दिया

हमारी पीढी के  लोगों के लिए यह सोच पाना बहुत मुश्किल है कि डॉ राम मनोहर लोहिया जैसा स्वतंत्रचेता व्यक्ति किसी का शिष्य हो सकता है .लेकिन जब डॉ लोहिया के सबसे प्रभावशाली अनुयायी ने अपनी एक अहम  किताब में लिखा है तो उसे मान लेने में कोई संकोच नहीं किया जाना चाहिए . जिस लेख का हवाला यहाँ लिया जा  रहा है कि वह मधु लिमये की किताब ," म्यूज़िंग्स ऑन करेंट प्राब्लम्स एंड पास्ट इवेंट्स ( १९८८) " में छपा हुआ है .  

मधु जी ने लिखा  है कि डॉ  लोहिया को कांग्रेस में शामिल करने का श्रेय सेठ जमनालाल बजाज को जाता है जो डॉ लोहिया के पिता जी के परिचित थे. जमनालाल बजाज उन दिनों कांग्रेस के  कोषाध्यक्ष भी थे. उन्होंने ही डॉ लोहिया को महात्मा गांधी से मिलवाया था और महात्मा जी ने जवाहर लाल नेहरू से राम मनोहर लोहिया को लखनऊ कांग्रेस के समय १९३६ में मिलवाया. . महात्मा गांधी के सुझाव पर उस साल जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया था. वे ताज़ा ताज़ा जेल से छूट कर आये थे. लोहिया से उनकी मुलाक़ात कांग्रेस अध्यक्ष के टेंट में ही हुई. . उन्होंने डॉ लोहिया को समाजवादी  चिंतन धारा का उभरता हुआ सितारा कह कर संबोधित किया . . उन्होंने पूछा कि कि क्या लोहिया ने उनके अध्यक्षीय भाषण को पढ़ा है . डॉ लोहिया ने जवाब दिया कि वह एक नोबुल स्पीच है . इस तरह के विशेषण के प्रयोग से नेहरू चौंक  गए और बहुत खुश हुए . डॉ लोहिया ने कहा कि  कांग्रेस अध्यक्ष के रूप  में आपके सपने बहुत ही अच्छे हैं और लगता है कि आप कांग्रेस आन्दोलन में एक नया जीवन फूंकने के लिए तैयार हैं.इस समय डॉ लोहिया की उम्र केवल २६ साल की थी. कहते हैं कि इस मुलाक़ात के बाद जवाहर लाल नेहरू ने डॉ राम मनोहर लोहिया को अपना बहुत ही करीबी मानना शुरू कर दिया था. . लोहिया वास्तव में  जवाहर लाल नेहरू के बहुत बड़े प्रशंसक थे. लोहिया महात्मा गांधी के बहुत बड़े भक्त थे लेकिन गांधी के बाद उनके सम्मान के  हक़दार जवाहर लाल नेहरू ही थे. 
जवाहर लाल नेहरू  भी उन  नौजवानों से बहुत प्रभावित रहते थे जो विदेशी विश्वविद्यालाओं से शिक्षा ले कर आये थे . शायद इसीलिए उन्होंने डॉ लोहिया  को सम्मान देना शुरू किया था लेकिन बाद में वे  उनकी कुशाग्रबुद्धि से बहुत प्रभावित हुए थे. उन्होंने कहा कि राम मनोहर में वह शक्ति  है कि वे किसी भी विषय पर घंटों बात कर सकते थे  और तुर्रा यह कि बातचीत लगातार दिलचस्प बनी रहेगी. . नेहरू ने डॉ लोहिया को आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी के विदेश विभाग का इंचार्ज बनाने का प्रस्ताव किया,जिसको वे  कांग्रेस के मुख्यालय में ही स्थापित करना चाहते थे. और लोहिया ने उस काम को तुरंत स्वीकार कर लिया . उन दिनों कांग्रेस का मुख्यालय इलाहाबाद में होता था .आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी के विदेशी मामलों के सेक्रेटरी के रूप में डॉ लोहिया ने पूरी दुनिया के प्रगतिशील आन्दोलनों से संपर्क कायम किया . एक बुलेटिन भी निकालना शुरू किया और भारत की भावी विदेशनीति के बारे में कई पम्फलेट निकाले.. डॉ लोहिया के एक कम्युनिस्ट साथी ने कहा था कि जवाहर लाल के नए संगठन में डॉ लोहिया का काम आउटस्टैंडिंग था और डॉ लोहिया भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के पहले विदेशमंत्री थे. लोहिया ने जवाहर लाल नेहरू  की आत्म कथा का  एक रिव्यू लिखा था जिसमें उन्होंने बताया कि  नेहरू ने दो दशकों में भारत की लड़ाई के हर मुकाम पर अपनी छाप छोडी है. जवाहर लाल ने समय की आत्मा को पहचान लिया है और उसको विकसित किया . दूसरे विश्व युद्ध  के पहले लिखी गयी इस पुस्तकसमीक्षा में हमारे समकालीन इतिहास की दो महान विभूतियों की सोच के बारे समझ को विकसित करने में सहयोग मिलता है .डॉ  लोहिया ने लिखा कि कि उनकी नज़र में जवाहर लाल का जीवन एक आदर्श  जीवन था. उन्होंने तय किया कि वे देश के लिए तकलीफ उठायेगें और उसे खुशी खुशी उठाया. . जवाहर लाल  ने एक ऐसा जीवन जीने का फैसला किया जिसका प्रगति पर हमेशा विश्वास  बना रहा.. वे उन्हें एक ऐसा आदमी मानते थे जो उनकी गिरफ्तारी के लिए आई हुई पुलिस की गाडी देख कर भी मुस्कुरा देते थे और पुलिस लाठीचार्ज के दौरान दोनों तरफ की क्रूरता को भी देखने की  क्षमता  रखते थे.. लोहिया के अनुसार जवाहर लाल के  जीवन को दो शब्दों में व्यक्त किया जा सकता  है ------ प्रयास और सौंदर्य 
कांग्रेस मुख्यालय में अपने काम से लोहिया बहुत जल्दी ऊब गए . वे एक सोशलिस्ट और एक कांग्रेस नेता के रूप में  देश के अलग अलग हिस्सों में जाकर काम करना चाहते थे . उन्होंने छोड़ने की पेशकश की लेकिन आचार्य जे बी कृपलानी ने कहा कि जब तक नेहरू यूरोप से नहीं वापस आते तब तक छोड़ना ठीक नहीं होगा. . जवाहर लाल की निजी ज़िन्दगी में उन दिनों बहुत परेशानी थी. उनकी पत्नी कमला नेहरू बहुत बीमार थीं और उनका विदेश में इलाज़ चला था. बाद में उनकी मृत्यु भी हो गयी थी.  यूरोप से आने के बाद जवाहर लाल ने  लोहिया  को कांग्रेस मुख्यालय के काम से छुट्टी तो दे दी लेकिन वे हमेशा डॉ राम मनोहर लोहिया को एक महान व्यक्ति और कुशाग्रबुद्धि नौजवान मानते  रहे. १९४० में अमेरिकन इंस्टीटयूट आफ पैसिफिक रिलेशंस ने जवाहर लाल से कहा कि वे कृपया किसी ऐसे भारतीय विद्वान का चुनाव कर दें जिसका स्तर बहुत ऊंचा हो ,जो पूर्वी एशिया के आर्थिक और राजनीतिक संबंधों के बारे में बहुत ही भरोसे के साथ लिख सकता हो तो जवाहर लाल नेहरू के दिमाग में केवल एक नाम  आया और वह नाम डॉ लोहिया का था. लेकिन उन्होंने चिट्ठी में लिखा है  कि अगर डॉ राम मनोहर लिखने के लिए तैयार हो जाएँ  तो उनसे अच्छा कोई नहीं है .

लखनऊ कांग्रेस के बाद डॉ लोहिया और जवाहर लाल नेहरू में सम्बन्ध बहुत अच्छे हो गए थे. . लखनऊ कांग्रेस के बाद कांग्रेस में पुरातनपंथी सोच वालों से नेहरू का भारी विवाद हुआ. नेहरू विरोधी कांग्रेस के हर मंच पर  बहुमत में थे.  अति वामपंथी रुझान के कांग्रेस सदस्य नेहरू की खूब आलोचना करते थे . इनमें कुछ लोग महात्मा गांधी की आलोचना भी करते रहते थे .सुभाष चन्द्र बोस , एम एन रॉय और अन्य कम्युनिस्टों के अनुयायियों की नज़र में महात्मा गांधी की सोच बिलकुल बेकार की थी . . इस दौर में जब महात्मा गांधी का विरोध करना वामपंथियों के लिए फैशन था, डॉ लोहिया ने महात्मा गांधी के नेतृत्व के बारे में जवाहरलाल नेहरू के मूल्यांकन को सही माना . १९३९ में जब कांग्रेस अध्यक्ष पद  के चुनाव के वक़्त कांग्रेस की टूट  का ख़तरा पैदा हो  गया तो डॉ राम मनोहर लोहिया ने कई लेख लिखे और आग्रह किया कि कांग्रेस को टूट से बचाना राष्ट्रहित में था. . उन्होंने कहा कि आज़ादी की लड़ाई की सफलता के लिए महात्मा गांधी  नेतृत्व एक ज़रूरी शर्त है .  उन दिनों गांधी के विरोधी वैकल्पिक नेतृत्व की बात करते थे . जवाहर लाल और लोहिया ने इस सोच को गलत बताया और इसे नाकाम करने के लिए काम किया  .

नेहरू और लोहिया में मतभेद के लक्षण पहली बार दूसरे विश्वयुद्ध के समय नज़र आने शुरू हुए .लोहिया की अगुवाई में  कांग्रेस के विदेश विभाग ने एक परचा तैयार किया था जिसमें लोहिया ने कहा कि दुनिया को चार वर्गों में  बांटा जा सकता है .पहले में पूंजीपति, फासिस्ट और साम्राज्यवादी ताकतें. दूसरे में वे देश जो साम्राज्य वादियों की प्रजा देश हैं और उनसे  छुटकारा चाहते हैं ,तीसरा वर्ग रूस के साथियों का है  जिसके साथ जो आम तौर पर समाजवादी हैं और चौथा वर्ग वह है जो साम्राज्यवादियों , पूंजीवादियों और फासिस्टों के शोषण का शिकार होने के लिए अभिशप्त हैं .बस इसी सोच में नेहरू और लोहिया के विवाद की बुनियाद है . यूरोप के पूंजीवादी देशों के वामपंथी  अरब देशों और पूर्वी एशिया के संघर्षों को भी फासिस्टों का  समर्थक मानते थे . जवाहर लाल की रुझान इन यूरोपियन वामपंथियों के साथ थी .  बहर हाल यहाँ से विवाद शुरू हुआ तो वह आखिर तक गया और दुनिया जानती  है कि बाद के वर्षों में डॉ राम मनोहर लोहिया ने नेहरू की आर्थिक नीतियों की धज्जियां बार बार उड़ाईं और आखिर में उनकी पार्टी के खिलाफ जो आन्दोलन सफल हुए उन सब की बुनियाद में डॉ लोहिया की राजनीतिक आर्थिक सोच वाला दर्शनशास्त्र ही स्थायी भाव  के रूप में मौजूद रहा. लेकिन इसके बाद भी मधु लिमये की उस बात में बहुत दम है कि डॉ राम मनोहर लोहिया और जवाहर लाल नेहरू ने इस देश में गरीब आदमी की पक्षधरता की  राजनीति की बुनियाद डाली थी. 

Monday, November 4, 2013

नार्वे में हिटलर का एजेंट क्विजलिन दुनिया भर में देशद्रोह का समानार्थी माना जाता है .



शेष नारायण सिंह

नार्वे के  चुनाव कवरेज के दौरान वहाँ के इतिहास के बहुत सारे पक्ष समझ में आये . बहुत लोगों से दोस्ती हुई , नेताओं को करें से देखने का मौक़ा मिला और ऐसे लोगों से मुलाक़ात हुई जो जिंदादिली को प्रेरित करते हैं .ऐसी ही एक मित्र हैं इल्जा मेरी ढल . पेशे से आर्किटेक्ट हैं  . वे जब पैदा  हुईं तो जर्मन कब्जा खतम हो चुका था . जर्मन कब्जा शुरू होने पर उनके पिता अमरीका में आराम की ज़िंदगी बिता रहे थे लेकिन जब उन्होंने सुना कि उनके मुल्क नार्वे पर जर्मन सेना ने कब्जा कर रखा है   तो वे अपने  देश आ गए . सिविल इंजीनियर के रूप में अमरीका में  काम करते थे  लेकिन ओस्लो वापस आकर जर्मन कब्जे के खिलाफ आंदोलन में शामिल हो गए . बहुत यातनाएं झेलीं और उसी संघर्ष एक दौरान एक बहादुर साथी से शादी की . वह उम्र में उनसे बहुत छोटी थीं लेकिन लड़ाई में साथ साथ थीं . जब जर्मन सेना चली गयी तो हिटलर को तबाह करने के लिए जुटे हुए नार्वेजियन लोगों को किले के पास समुद्र के किनारे अस्थायी बैरक बना कर बसाया गया. नार्वे के मौसम को जो लोग जानते हैं उनको मालूम है कि कि बिना सही हीटिंग वाले घर में रहना कितना मुश्किल होता है लेकिन अपने देश को तानाशाही से आज़ाद कराने वालों का  हौसला इतना ज़बरदस्त था कि इन्होने कभी परवाह नहीं की. कुछ  वर्षों के अंदर ही तहस नहस कर दिए गए ओस्लो शहर में फिर से ज़िंदगी आ गयी और शहर बस गया . इल्जा बताती हैं कि शुरू में जिस घर में यह लोग रहते थे उसमें ज़रा सा भी पानी तुरंत बर्फ बन जाता था .नार्वे पर यह मुसीबात हिटलर ने डाली थी लेकिन उसका एजेंट विद्कुन क्विजलिन था . इस अधम को नार्वे क्या पूरी दुनिया का सभ्य समाज कभी भी माफ नहीं करेगा .

विद्कुन क्विजलिन नाजी इतिहास का एक ऐसा सितारा है जिसका नाम किसी को गाली देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है .नाजी तानाशाह हिटलर ने उसको पाल रखा था और नार्वे के लोगों को उसकी मार्फ़त ही नाजी आतंकवाद का सबक सिखाया था . जब हिटलर ने नार्वे पर कब्जा किया तो उसने इसी विद्कुन क्विजलिन को वहाँ का शासक बना दिया था . विद्कुन क्विजलिन  नार्वे की राजनीति में सक्रिय बहुत ही महत्वाकांक्षी राजनेता था लेकिन हिटलर के एजेंट के रूप में उसने अपने लोगों पर तरह तरह के अत्याचार किये और हिटलर की मनमानी का वाहक बना . यह भी सच है कि नाजियों की मनमानी को नार्वे की अवाम ने कभी स्वीकार नहीं किया लेकिन नार्वे की जनता के संघर्ष और विद्कुन क्विजलिन की तबाही एक ऐसा उदाहरण है जिसको बाद की दुनिया में इस बात का संकेत देने के लिए इस्तेमाल किया जायेगा कि अपने देश की तबाही के लिए किसी फासिस्ट तानाशाह का साथ नहीं देना चाहिए . विद्कुन क्विजलिन की कमीनगी ओस्लो शहर के हर कोने में नज़र आती है लेकिन आम तौर पर उसका ज़िक्र नहीं किया जाता . उसका घर आज होलोकास्ट म्यूज़ियम है और लोग उसके नाम पार थूकते हैं


इसी सितम्बर २०१३ में ओस्लो की यात्रा के दौरान  नार्वे के लोगों की जिंदादिली और उनकी इंसानियत के बहुत सारे किस्से मैं बयान करता रहा हूँ लेकिन जब किसी कौम पर हिटलर नाजिल होता है ,और उसी कौम के किसी महत्वाकांक्षी नेता को पकड़कर गद्दार बनाता है और  इंसानी ज़िंदगी को अँधेरे से भर देने की कोशिश करता है तो सभ्य लोगों की नार्वेजी कौम किस तरह से मुकाबला करती है ,  उसको समझने के लिए विद्कुन क्विजलिन  के कैरेक्टर को समझना ज़रूरी है . विद्कुन क्विजलिन  को तबाह करने और  हिटलर का मुकाबला करने के लिए  नार्वेजियन अवाम ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था . उस संघर्ष ने  इतिहास में नार्वेजी अवाम की बहादुरी को एक संगमील के रूप में स्थापित कर दिया है .जब नाजी जर्मन सेना ने नार्वे पर हमला किया तो यह क्विजलिन हिटलर से जा मिला और तख्ता पलट करके नार्वे की सत्ता हथिया ली. क्विजलिन वहाँ हिटलर के एजेंट के रूप में ही काम करता रहा .उसने सत्ता तो जर्मन सेना के आगमन के साथ ही १९४० में हथिया लिया था लेकिन हिटलर ने उसे बाकायदा मिनिस्टर प्रेसीडेंट बनाकार १९४२ में स्थापित किया . विद्कुन क्विजलिन  ने हिटलर के कुख्यात फाइनल सालुशन को लागू किया . हिटलर की तबाही के बाद विद्कुन क्विजलिन  पर मुकादमा चला और वह देशद्रोह का दोषी पाया गया . ओस्लो के एकरहुस किले में उसको फायरिंग स्क्वाड के सामने खडा करके गोली मारकर सज़ा दी गयी .

विद्कुन क्विजलिन कोई मामूली आदमी नहीं था . वह बहादुर था और नार्वे की सेना का भरोसेमंद अफसर था .अपनी सरकार की ओर से वह रूस भी गया था और नार्वे के हेलसिंकी दूतावास में भी उच्च पद पर काम कर चुका था . नार्वेजी समाज में उसकी इज्ज़त थी . एक बार तो नार्वे के सबसे सम्मानित व्यक्ति फ्रिदोफ़ नानसेन ने ही उसको सम्मान देकर यूक्रेन की राजधानी भेजा था . नानसेन  वह व्यक्ति हैं जो नार्वे के सबसे प्रिय खेल , स्कीइंग के बहुत बड़े नाम हैं और जिनको १९२२ का नोबेल शान्ति पुरस्कार मिल चुका है और जो आधुनिक नार्वे के संस्थापकों में माने जाते हैं . नानसेन की दोस्ती का विद्कुन क्विजलिन  ने बहुत जगहों पर फायदा उठाया . मई १९३० में नानसेन की मृत्यु के बाद उसने अखबारों में नानसेन के बाद की राजनीति की रूपरेखा लिखी और नार्वे के लोगों  को बताने की  कोशिश की कि किस तरह से नानसेन के सपनों का नार्वे बनाया जा सकता है  . लेकिन जब उनको अग्रेरियन  सरकार में रक्षा मंत्री बनने का मौका लगा तो नानसेन की विचारधारा को भूलकर वहाँ जा लगे. हर फासिस्ट तानाशाह की तरह विद्कुन क्विजलिन भी कम्युनिस्टों से नफरत करते थे . उसने कम्युनिस्टों से नफरत के कारण ही १९३३ में एक पार्टी बनायी और उसी राष्ट्रवादी पार्टी के साथियों को हिटलर की नार्वे योजना का हिस्सा बना दिया . उसकी नई पार्टी का नाम नैशनल समलिंग था और इसका नारा राष्ट्रीय एकता था. उसने प्रधानमंत्री पर सीधा हमला किया और नार्वे के सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में पहचान बनायी . पूरे नार्वे में जहां भी वह जाता था उसकी जयजयकार होती थी  क्योंकि एक अलोकप्रिय प्रधानमंत्री को हटाने की बात को वह बहुत ही प्रभावशाली तरीके से कह रहा था . क्विजलिन की पार्टी भी जर्मनी की नाजी पार्टी की तरह एक व्यक्ति की अथारिटी को स्थापित करने की बात करती थी. उसने नारा दिया कि राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर एक नेता को समर्थन दिया जाए . ओस्लो के संभ्रांत वर्ग का समर्थन क्विजलिन को ज़बरदस्त तरीके से मिल रहा था और यह शक जताया का रहा था कि पूंजीपति वर्ग उसे बड़े पैमाने पर समर्थन दे रहे हैं क्योंकि उसके प्रचार में भारी धन खर्च होता साफ़ नज़र आ रहा था .
चुनाव के बाद साफ़ हो गया कि जितना प्रचार था क्विजलिन की पार्टी उतनी लोकप्रिय नहीं थी और उसके बाद उसने अपने तरीके के राष्ट्रीय समाजवाद की स्थापना के लिए काम शुरू किया .चुनाव में मिली असफलता के बाद क्विजलिन  बहुत गुस्से में रहता था . उसने अपने आपको विदेशी फासिस्ट पार्टियों के दोस्त के रूप में पेश करना शुरू किया . दिसंबर १९३४ में वह  अंतर्राष्ट्रीय फासिस्ट सम्मेलन में भी गया .वहाँ उसकी मुलाक़ात जर्मनी की नाजी पार्टी के नेताओं से हुई. १९३६ के चुनाव में उसको नार्वे के हिटलर के रूप में पहचान मिल चुकी थी . यही वह समय है जब हिटलर को पूरी दुनिया के राष्ट्रवादी लोग सम्मान की दृष्टि से देखते थे . भारत में भी राष्ट्रवादी विचारधारा वाले हिटलर की तारीफ़ में किताबें उसी दौर में लिखते पाए गए थे .
१९३६ के चुनाव में भी क्विजलिन की पार्टी बुरी तरह से हार गयी , खिसियाकर  उसने चुनाव के खिलाफ राजनीतिक बयान देना शुरू कर दिया . इस बीच १९३९ तक यूरोप में युद्ध की दस्तक सुनायी पड़ने लगी थी . उसने नारा दिया कि बोल्शेविज़्म और यहूदी राज से बचने के लिए नार्वे को हिटलर का साथ देना चाहिए .हिटलर ने क्विजलिन की पार्टी को खूब धन दिया और नार्वे में उसको अपने प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने की कोशिश शुरू कर दी .जर्मनी से धन मिलने के बाद क्विजलिन को भरोसा  हो गया कि आने वाले समय में वही देश का नेतृत्व करेगा .जब उसको बताया जाता कि उसकी पार्टी के पास तो कोई एम पी नहीं  है ,वह हंस कर टाल जाता .
१४ दिसंबर १९३९ को क्विजलिन ने जर्मनी जाकर हिटलर से मुलाक़ात की . हिटलर ने क्विजलिन की योजनाओं को गंभीरता से नहीं लिया लिए लेकिन उसको लगा कि आदमी काम का है . १८ दिसंबर को फिर दोनों  मिले और क्विजलिन को हिटलर के सहयोगी के रूप में भर्ती कर लिया गया .उसके बाद पूरे यूरोप में राजनीतिक गतिविधियां हिटलर के पक्ष  या विपक्ष में घूमती रहीं . ९ अप्रैल १९४० के दिन सुबह नार्वे के ऊपर जर्मन हमला हुआ , नार्वे के राजा और प्रधानमंत्री ने शहर छोड़ दिया था . उसी दिन  क्विजलिन ने नार्वे की एक नई सरकार बनायी और ९ अप्रैल को उसी सरकार ने जर्मन सेना का स्वागत भी कर लिया .लेकिन हिटलर ने देखा  कि क्विजलिन के खिलाफ लगभग सारा नार्वे है तो उसने उसे धोखा दे दिया और अपनी फौज के अधिकारियों के हाथ में सत्ता दे दी . क्विजलिन को बेईज्ज़त भी किया गया लेकिन बाद में उसको साथ लेकर जर्मन सेना ने काम शूरू किया . नार्वे के राजा ने हिटलर का कोई सहयोग नहीं किया . और उन्होंने अपनी प्रजा का आवाहन किया कि वह जर्मन कब्जे के खिलाफ  संघर्ष करे .
इस बीच १ फरवरी १९४२ के दिन क्विजलिन को जर्मनी ने मिनिस्टर प्रेसीडेंट बना दिया और  नार्वे की सत्ता उसको सौंप दी. लेकिन नार्वे की जनता ने उसको कभी स्वीकार नहीं किया उसका विरोध होता रहा. जर्मन सेना भी उसे कठपुतली की तरह नचाती रही और जब १९४५ में जर्मन सेना नार्वे छोड़कर भागी तो क्विजलिन तबाह हो चुका था.उसको गिरफ्तार किया गया ,उसके ऊपर मुकादमा चला और सुप्रीम  कोर्ट तक अपील की गयी . उसे दोषी पाया गया और समुद्र के किनारे स्थिति एकरहुस किले में फायरिंग स्क्वाड के सामने खड़े करके भून दिया गया .  उसकी पत्नी मारिया जीवित रहीं, १९८० में  उनकी  मृत्यु प्राकृतिक रूप से हुई . क्विजलिन  को राष्ट्रद्रोह के पर्याय के रूप में उसे इतिहास याद रखेगा . नार्वे के सहनशील समाज ने उसकी सकारात्मक  व्याख्या करने की कोशिश भी की है  लेकिन उसने नार्वे पर जो मुसीबत बरपा की थी और जिस तरह से नार्वे के लोगों ने उससे मुकाबला किया वह संघर्ष के इतिहास में अमर रहेगा 

Sunday, November 3, 2013

मुंबई का पृथ्वी थियेटर - जहां सपने अपनी मंजिल तलाशते हैं .




शेष नारायण सिंह

मैं जब भी मुंबई के पृथ्वी थियेटर जाता हूँ मुझे महान बुद्धिजीवी  जी पी देशपांडे की याद ज़रूर आ जाती है . शायद ऐसा इसलिए कि मुझे मालूम है कि इस थियेटर का उदघाटन उनके नाटक “उद्ध्वस्त धर्मशाला “ के मंचन से हुआ था . और जब वे इस नाटक के बाद दिल्ली वापस आये थे तो इसके बारे में बात की थी . विश्वविद्यालय की सड़क पर चलते हुए उन्होंने बताया था कि उन्हें कितनी खुशी हुई थी  . पी पी एच से निकल कर आते हुए उनसे मुलाक़ात  हुई थी . याद इसलिए अब तक बनी हुई है कि शब्द ‘उद्ध्वस्त धर्मशाला ‘ मुझे कहीं चिपक सा गया है . कभी इस अभिव्यक्ति को सुना नहीं था .कुछ लोग थे और उनके बीच जी पी देशपांडे . इस बार उनकी याद बहुत शिद्दत से आयी क्योंकि अभी कुछ दिन पहले उनका देहांत हो गया है . हो सकता है कि लोग पृथ्वी थियेटर को  पृथ्वीराज कपूर की याद में जानते हों लेकिन मेरे लिए यह एक निजी यादगार है . हालांकि पृथ्वीराज कपूर को भी मैं बहुत ही सम्मान से याद करता हूँ  लेकिन पृथ्वी पर आते ही मुझे जी पी डी की याद आ जाती है तो  क्या करूं ?
महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में लोग  औरंगजेब को नहीं जानते थे लेकिन जब मराठी थियेटर के सबसे ताक़तवर अभिनेता प्राभाकर पंशीकर ने  औरंगजेब की भूमिका में गाँव गाँव में घूमकर नाटक प्रस्तुत करना शुरू किया तो लोग उनकी शख्सियत से जोड़कर औरंगजेब का तसव्वुर करने लगे. लगभग ऐसा ही आलम  मुग़ल बादशाह अकबर का है . हमारी और हमारी पहले की  पीढ़ी के ज़्यादातर लोग अकबर का वही तसव्वुर करते हैं जो के. आसिफ की फिल्म ‘मुगले-आज़म ‘ में दिखाया गया है . बहुत ही भारी भरकम आवाज़ में भारत के शहंशाह मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर के डायलाग हमने सुने हैं . अकबर का नाम आते ही उन लोगों के सामने तस्वीर घूम जाती है जिसमें  मुगले आज़म की भूमिका में पृथ्वीराज  कपूर को देखा गया है .
पृथ्वीराज कपूर अपने ज़माने के बहुत बड़े  अभिनेता थे. उन्हीं की याद में उनके बच्चों ने पृथ्वी थियेटर की इमारत स्थापना की . उनकी इच्छा थी कि पृथ्वी थियेटर को एक स्थायी पता दिया जा सके. इस उद्देश्य से उन्होंने १९६२ में ही ज़मीन का इंतज़ाम कर लिया था लेकिन बिल्डिंग बनवा नहीं पाए. १९७२ में उनकी मृत्यु हो गयी .ज़मीन  की लीज़ खत्म हो गयी .उनके बेटे शशि कपूर और जेनिफर केंडल ने से लीज़ का नवीकरण करवाया और आज पृथ्वी थियेटर पृथ्वीराज कपूर के सम्मान के हिसाब से ही जाना जाता है . श्री पृथ्वीराज कपूर मेमोरियल ट्रस्ट एंड रिसर्च फाउन्डेशन नाम की संस्था इसका संचालन करती है . इसके मुख्य ट्रस्ट्री शशि कपूर हैं और उनके बच्चे इसका संचालन करते हैं. आज मुंबई के सांस्कृतिक कैलेण्डर में पृथ्वी थियेटर का स्थान बहुत बड़ा है .

जब १९७८ में जेनिफर केंडल और उनके पति , हिंदी फिल्मों के नामी अभिनेता शशि कपूर ने इस जगह पर पृथ्वी का काम शुरू किया तो इसका घोषित उद्देश्य हिंदी नाटकों को एक मुकाम देना था .लेकिन अब अंग्रेज़ी नाटक भी यहाँ होते हैं .जेनिफर केंडल खुद एक बहुत बड़ी अदाकारा थीं और अपने पिता की नाटक कंपनी शेक्स्पीयाराना में काम करती थीं. पृथ्वीराज कपूर ने पृथ्वी  थियेटर की स्थापना १९४४  में कर ली थी. सिनेमा की अपनी कमाई को वे पृथ्वी थियेटर के नाटकों में लगाते थे . अपने ज़माने में उन्होंने बहुत ही नामी नाटकों की प्रस्तुति की .शकुंतला ,गद्दार, आहुति, किसान, कलाकार कुछ ऐसे नाटक हैं जिनका हिंदी/उर्दू नाटकों के विकास में इतिहास में अहम योगदान है और इन सबको पृथ्वीराज कपूर ने ही प्रस्तुत किया था .थियेटर के प्रति उनके प्रेम को ध्यान में रख कर ही उनके बेटे और पुत्रवधू ने इस संस्थान को स्थापित किया था . मौजूदा पृथ्वी थियेटर का उदघाटन १९७८ में किया गया . पृथ्वी के मंच पर पहला नाटक “ उध्वस्त धर्मशाला “  खेला गया जिसको महान नाटककार ,शिक्षक और बुद्दिजीवी जी पी देशपांडे ने लिखा था . नाटक की दुनिया के बहुत बड़े अभिनेताओं , नसीरुद्दीन शाह  और ओम पूरी ने इसमें अभिनय किया था . पृथ्वी से मेरे निजी लगाव का भी यही कारण है .अब तो खैर जब भी मुंबई आता हूँ यहाँ टहलते हुए ही चला आता हूँ क्योंकि यह मेरे बच्चों के घर के बहुत पास है .पृथ्वी का दूसरा नाटक था बकरी , सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के इस नाटक को इप्टा की ओर से एम एस सथ्यू ने निर्देशित किया था . यह वह समय है जबकि मुंबई की नाटक की दुनिया में हिंदी नाटकों की कोई औकात नहीं थी लेकिन पृथ्वी ने एक मुकाम दे दिया और आज अपने सपनों को एक शक्ल देने के लिए मुंबई आने वाले बहुत सारे संघर्षशील कलाकार यहाँ दिख जाते हैं .पृथ्वी के पहले मुंबई में अंग्रेज़ी, मराठी और गुजराती नाटकों का बोलबाला हुआ करता था लेकिन पृथ्वी थियेटर की स्थापना के ३५ वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है . अब हिंदी के नाटकों की अपनी एक पहचान है और मुंबई के हर इलाके में आयोजित होते है .
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Saturday, November 2, 2013

बस्तर संभाग में नरेंद्र मोदी को कोई नहीं जानता,यहाँ रमन सिंह बीजेपी के सबसे बड़े नेता हैं


शेष नारायण सिंह 

जगदलपुर, २७ अक्टूबर . छत्तीसगढ़ विधान सभा के चुनावो के बाद रायपुर में बनने वाली सरकार के गठन में बस्तर संभाग की १२ सीटों का महत्व सबसे ज़्यादा है . बाकी इलाके में तो कांग्रेस और बीजेपी की स्थिति लगभग बराबर ही रहती है . पिछली विधान सभा में बस्तर संभाग की बीजेपी की ११ सीटों के कारण ही रमन सिंह दुबारा मुख्यमंत्री बन सके थे  . लेकिन  बस्तर क्षेत्र में रहने वाला हर इंसान जानता है कि इस बार बीजेपी की ११ सीटें नहीं आ रही है . यहाँ तक कि बीजेपी के कार्यकर्ता भी जानते हैं कि उनकी पार्टी की हालत इस बार उतनी अच्छी नहीं है जितनी पिछली बार थी. पिछली बार बस्तर में लखमा कवासी इकलौते कांग्रेसी उम्मीदवार थे जो कोंटा से विजयी रहे थे. कांग्रेसी उम्मीद कर रहे थे कि जीरम घाटी में मारे गए महेंद्र कर्मा के परिवार के किसी उम्मीदवार को टिकट दे देने से उसे सहानुभूति का लाभ मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं है .उसी तरह दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेता समझ रहे हैं कि नरेंद्र मोदी की आक्रामक हिंदू नेता की छवि का लाभ पार्टी को मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं है .कई इलाकों में तो लोगों ने नरेंद्र मोदी का नाम भी नहीं सुन रखा है .इस इलाके में बीजेपी का एक ही नेता है और उसका नाम है रमन सिंह .

बस्तर संभाग में २००८ के चुनाव में  ११ सीटें जीतकर रमन सिंह ने सरकार बना ली थी. यहाँ के हर जानकार ने बताया कि इस इलाके में आदिवासियों और सतनामियों के बीच कांग्रेस नेता अजीत जोगी की पहचान  है और  बीजेपी की ११ सीटों  की जीत में अजीत जोगी की खासी भूमिका थी क्योंकि उन्होंने अपने आपको बड़ा नेता साबित करने के लिए अपने विरोधी गुट के कांग्रेसी उम्मीदवारों के खिलाफ काम किया था . लेकिन इस बार ऐसा नहीं है . इस बार अजीत जोगी कांग्रेस के उम्मीदवारों के खिलाफ काम नहीं कर रहे हैं . बस्तर संभाग की ११ सीटें रिज़र्व हैं जबकि जगदलपुर की सीट सामान्य है . यहाँ से कांग्रेस ने शामू कश्यप को उम्मीदवार बनाया है . कांग्रेस के एक बहुत ही ज़िम्मेदार नेता ने बताया कि यह कांग्रेस आलाकमान की चूक है . शामू कश्यप महरा जाति के हैं .उनकी जाति के लोगों की बहुत वर्षों से मांग है कि उनको अनुसूचित जनजाति का दरजा दिया जाए लेकिन अनुसूचित जनजाति के लोग इस मांग का विरोध कर रहे हैं . उनको डर है कि अगर महरा जाति को  अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा मिल गया तो वे सारे लाभ हथिया लेगें क्योंकि महरा जाति के लोग अपेक्षाकृत चालाक बताए जाते हैं . गाँवों में जो भी छोटे मोटे कारोबार हैं सब इनके पास ही हैं . कांग्रेस को उम्मीद है कि महरा जाति के करीब दो लाख वोट उनको एकतरफा मिल जायेगें लेकिन इस गणित से बीस लाख के करीब मुरिया,गोंड,राउत और घसिया आदिवासी नाराज़ भी हो सकते हैं .बताते हैं कि  कांग्रेस की इस राजनीतिक अनुभवहीनता का लाभ उठाने के लिए बीजेपी ने अपने वनवासी कल्याण परिषद वालों के ज़रिये बहुसंख्यक आदिवासियों को सचेत करना शुरू कर दिया है . ऐसी हालत में जगदलपुर के मौजूदा विधायक संतोष बाफना को लाभ मिलने की स्थति पैदा हो गयी है .यहाँ कांग्रेस और बीजेपी दोनों को ही बागियों का सामना करना पड़  रहा है . बीजेपी के राजाराम तोडेम स्वाभिमान मंच से लड़ रहे हैं तो सेठिया समाज के राम केसरी कांग्रेस से नाराज़ होकर बागी हो गए हैं इस इलाके में सेठिया समाज के वोटों की खासी संख्या है .ज़ाहिर है कि यह बीजेपी को फायदा पंहुचा सकते हैं .

इस बार बस्तर सम्भाग की दो सीटों पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार मजबूती से लड़ रहे हैं . कोंटा में अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के अध्यक्ष ,मनीष  कुंजाम मज़बूत हैं जबकि उनकी पुरानी सीट दंतेवाड़ा में उनकी पार्टी के उम्मीदवार बोमड़ा राम कवासी की हालत बहुत अच्छी है . दंतेवाडा सीट इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यहाँ से कांग्रेस ने महेंद्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा को टिकट दिया है . कांग्रेस ने उम्मीद की थी कि महेंद्र कर्मा की जिस तरह से माओवादियों ने जीरम घाटी में ह्त्या की थी उससे सहानुभूति  मिलेगी लेकिन दंतेवाड़ा में ऐसा कुछ नहीं दिखता.  देवती कर्मा से किसी को सहानुभूति नहीं है . उनके दो बेटे इलाके में ऐसी ख्याति अर्जित कर चुके  हैं जिसके बाद किसी को भी सहानुभूति नहीं मिलती. उनका एक बेटा अभी भी नगर पंचायत का अध्यक्ष है जबकि दूसरा जिला पंचायत का भूतपूर्व अध्यक्ष है. दोनों ने ही इलाके के लोगों को बहुत परेशान कर रखा है . सलवा जुडूम के हीरो के रूप में भी महेंद्र कर्मा की  पहचान थी जिसके कारण आदिवासी इलाकों  में उन्हें बीजेपी के एजेंट के रूप में पहचाना जाता है . आम आदिवासी महेंद्र कर्मा को नापसंद करता है  हालांकि केन्द्र सरकार और उनेक सहयोगी उन्हें बस्तर का शेर बनाकर पेश करने की कोशिश करते हैं . दंतेवाड़ा से महेंद्र कर्मा २००८ में खुद कांग्रेस उम्मीदवार थे और तीसरे नंबर पर रहे थे . यहाँ कम्युनिस्ट पार्टी दूसरे नंबर पर थी . उस बार यहाँ के उम्मीदवार मनीष कुंजाम थे . कम्युनिट पार्टी के प्रचार में दिन रात एक कर रहे पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य सी आर बख्शी ने बताया कि उनका उम्मीदवार गैर आर एस एस समुदाय में बहुत लोकप्रिय है .यहाँ की लड़ाई अभी शुद्ध रूप से सी पी आई और बीजेपी के बीच है . दिल्ली में कांग्रेस के एक बड़े नेता ने भी बताया कि दंतेवाड़ा में सी पी आई का उम्मीदवार बहुत मजबूत है .

कोंटा सीट पर  सी पी आई के मनीष कुंजाम खुद उम्मीदवार हैं . उनकी इज्ज़त सभी वर्गों में है . जब माओवादियों ने सुकमा के कलेक्टर अलेक्स पाल मेनन का अपहरण कर लिया था  तो उनकी रिहाई के लिए जो कोशिशें हुई थीं उनमें मनीष कुंजाम ने जो भूमिका निभाई थी उसकी सभी सराहना करते हैं . माओवादियों के बीच भी उनकी इज्ज़त है . आदिवासी समुदाय उनके साथ है लेकिन एक शंका यह जतायी जा रही है कि रमन सिंह की सरकार कम्युनिस्ट उम्मीदवारों को नहीं जीतने देगी चाहे उसे कांग्रेस के पक्ष में ही बीजेपी के अपने वोट ट्रांसफर करना पड़े. बस्तर सम्भाग से इकलौते कांग्रेसी एम एल ए , कवासी लखमा भी कोंटा में उम्मीदवार हैं . लेकिन उनकी हालत खस्ता बतायी जा रही है . यह सीट सी पी आई को मिल सकती है .

बीजेपी के बस्तर क्षेत्र के विधायकों के खिलाफ जनरल माहौल है .चित्रकोट के बीजेपी उम्मीदवार बैदूराम कश्यप हैं जो विधायक भी हैं . यह कभी भी अपने क्षेत्र में नहीं गए. इनके क्षेत्र की सबसे बड़ी पंचायत कूकानार है , इसमें करीब आठ हज़ार वोट हैं . बस्तर के हिसाब से यह बहुत बड़ा वोट बैंक है .बीजेपी की जीत में इस इलाके का भारी योगदान रहता  है  लेकिन चुनाव जीतने के बार बैदूराम यहाँ एक बार भी नहीं गए. कूकानार में उनके खिलाफ सभी लोग हैं और उनको हराने के लिए वोट करने वाले हैं . उनका विरोध उनकी ही पार्टी के लच्छूराम कश्यप कर रहे हैं . लच्छूराम अभी जिला पंचायत के अध्यक्ष है और बीजेपी के टिकट के मज़बूत दावेद्दार थे . उन्होने बताया कि अगर इस बार भी बैदूराम जीत गए तो वह जड़ पकड़ लेगें और जिले में उनकी जो राजनीतिक हैसियत है वह खत्म हो जायेगी . हालांकि कांग्रेस उम्मीदवार के खिलाफ भी बागी उम्मीदवार हैं लेकिन कांग्रेस का उम्मीदवार दीपक बैज नया खिलाड़ी है और बैदूराम पर भारी पड़ रहा है.

कांकेर विधानसभा क्षेत्र में बीजेपी ने अपनी विधायक सुमित्रा मारकोले की जगह पर संजय कोडोपी को टिकट दिया है। बीजेपी  कार्यकर्ताओं में नाराज़गी है. संजय कोडोपी बहुत ही अलोकप्रिय है  और पार्टी में  बगावत के कारण उनके पाँव नहीं जम पा रहे हैं।  कांग्रेस के शंकर धुर्वा उम्मीदवार हैं और उनके परिवार की इज़ज़त है।  बीजेपी के कार्यकर्ता भी कहते देखे गए कि श्यामा धुर्वा की जो गुडविल है शंकर को उसका लाभ मिल सकता है। 

अंतागढ़ में बीजेपी के उम्मीदवार विक्रम उसेंडी हैं।  इंकमबेंसी की असली मार झेल  रहे हैं।  पिछले पांच साल के उनके काम से नाराज़ लोगों की बड़ी संख्या है। उनसे नाराज़ होकर उनकी पार्टी के ही प्रभावशाली नेता , भोजराज नाग निर्दलीय लड़ रहे हैं। लेकिन  विक्रम उसेंडी के पास भी साधनों की कोई कमी नहीं है।  उन्होंने भोजराज नाग नाम के एक और उम्मीदवार को खड़ा कर दिया है।  पिछले बार विक्रम उसेंडी १०९ वोट से जीते थे।  ज़ाहिर है कि उनका मुक़ाबला मुश्किल है।  कांग्रेस के उम्मीदवार मंतूराम पवार इलाक़े में सम्मानित व्यक्ति है और उसको मंत्री जी की दुर्दशा का लाभ मिल रहा है। इसी क्षेत्र में ढाका से १९५० के दशक में आये हुए शरणार्थियों की बस्ती भी है।  नामशूद्र जाति के यह लोग अविभाजित बंगाल में दलित वर्ग के माने जाते थे ।  लेकिन यहाँ उनको दलित नहीं माना जा रहा है। उनकी बहुत दिनों से मांग है कि उन्हें अनुसूचित वर्ग में रखा जाए।  लेकिन केंद्र की सरकार इस बात को हमेशा से टाल रही है।  इस बार विक्रम उसेंडी ने उनको भरोसा दिला दिया है कि उनको अनुसूचित जाति की श्रेणी में वे करवा देगें। उनकी बात पर पंखाजोर के इस इलाक़े में सही माना जा रहा है।  इस बात की सम्भावना है कि विक्रम उसेंडी को यह सारे  वोट मिल जायेगें।  अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस उम्मीदवार की सारी अच्छाई का बावजूद भी यह सीट बीजेपी के हाथ लगेगी क्योंकि नामशूद्रों के यहाँ क़रीब आठ हज़ार वोट हैं।  और जहां १०९ वोट से हारजीत का फैसला हो रहा हो वहाँ आठ हज़ार वोटों का बहुत अधिक महत्व है।  

केशकाल बस्तर सम्भाग की एक अन्य महत्वपूर्ण सीट है।  जहां बीजेपी के विधायक सेवक राम नेताम फिर मैदान में हैं।  पांच साल का उनका कार्यकाल आलोचना का विषय है ।  उनके खिलाफ अजीत जोगी का बन्दा संतराम नेताम कांग्रेस की तरफ से उमीदवार है।  संतराम को बाहरी माना जा रहा है लेकिन सेवकराम निष्क्रिय रहे हैं इसलिए संतराम की स्थिति मज़बूत है।  यहाँ कांग्रेस की अगर हार हुयी तो उसमें स्वाभिमान मंच के उम्मीदवार  का भारी योगदान होगा क्योंकि वह यहाँ बीजेपी की मदद कर रहा है और कांग्रेस के वोट काट रहा है।  

बीजापुर में कांग्रेस ने विक्रम मंडावी को उतारा है लेकिन उनको टिकट मिलने से बहुत सारे कांग्रेसी नाराज़ हैं।  ज़िला पंचायत की अध्यक्ष और कांग्रेस की नेता , नीना रावतिया भी टिकटार्थी थीं और अब कांग्रेसी उम्मीदवार का विरोध कर रही हैं। इस टिकट से नाराज़ कुछ लोगों ने बीजेपी भी ज्वाइन कर लिया है। यहाँ बीजेपी के उमीदवार महेश गागड़ा हैं। ।  राजाराम तोड़ेम भी यहाँ से बीजेपी का टिकर मांग रहे थे।  लेकिन अब नाराज़ हैं और स्वाभिमान मंच में शामिल हो गए हैं।  वे जगदल पुर से पर्चा भर चुके हैं और वहाँ बीजेपी के संतोष बाफना की लड़ाई को कठिन बना रहे हैं। 

भानु प्रतापपुर में बीजेपी विधायक ब्रह्मानंद नेताम को टिकट काट दिया गया है।  उनकी जगह पर नौजवान सतीश लाठिया लड़ रहे हैं।  बीजेपी के कई नेता उनके खिलाफ हैं।  ब्रह्मानंद भी विरोध में काम कर रहे हैं लेकिन बीजेपी के रायपुर के नेताओं को उम्मीद है कि बात बन जायेगी  .  बीजेपी नेता रुक्मिणी ठाकुर तो लाठिया को हारने का मन बना चुकी हैं।  कांग्रेस के उम्मीदवार मनोज मंडावी हैं।  यहाँ कांग्रेस बहुत मज़बूत नहीं है इसलिए उनके खिलाफ भितरघात का ख़तरा नहीं है. बस्तर सम्भाग के जितने बीजेपी नेताओं से बात हुयी सबी इस  सीट पर कांग्रेस की जीत की बात करते पाये गए। 

कोंडागांव बीजेपी की मज़बूत सीट है।  वहाँ से पूर्व सांसद मनकूराम सोढ़ी के बेटे शंकर सोढ़ी  निर्दलीय उम्मीदवार हैं और कांग्रेसी उम्मीदवार मोहन मरकाम की लड़ाई को बहुत कठिन बना रहे हैं।  पिछली बार भी मोहन मरकाम अच्छा लड़े थे और बहुत मामूली अंतर से हारे थे।  लेकिन इस बार शंकर सोढ़ी के कारण वर्त्तमान विधायक लता उसेंडी की स्थिति मज़बूत है।  आज की हालत अगर  चुनाव के दिन तक बनी रही तो यह सीट बीजेपी की हो जायेगी लेकिन अगर शंकर सोढ़ी मान गए तो कांग्रेस के खाते में जा सकती है।  केंद्रीय कांग्रेस नेताओं ने बताया कि शंकर सोढ़ी  को लोकसभा लड़ने के लिए कहा जा रहा है।  अगर यह सम्भव हुआ तो यहाँ से कांग्रेस की जीत की सम्भावना बहुत अधिक हो जायेगी।  

नारायणपुर में मंत्री केदार कश्यप बहुत मज़बूत हैं।  रमन सिंह सरकार में मंत्री हैं।  आदिवासी विभाग के मंत्री हैं , बहुत संपन्न हैं और कांग्रेसी उम्मीदवार , चन्दन कश्यप पर बहुत भारी पड़ रहे हैं। जबकि बस्तर विधानसभा क्षेत्र दोनों पार्टियों में भितरघात है।  बीजेपी विधायक सुभाऊ कश्यप के खिलाफ कांग्रेस ने डॉ लखेश्वर  बघेल को टिकट दिया है  जो मज़बूत माने जा रहे हैं।  
बस्तर सम्भाग में राहुल गांधी या नरेन्द्र मोदी का कहीं भी कोई ज़िक्र नहीं है। सारा चुनाव आदिवासियों  के मुक़ामी मुद्दों पर लड़ा जा रहा है।  पूरे क्षेत्र में नरेद्र मोदी का कोई पोस्टर नहीं दिखा  जबकि कांग्रेसियों ने जगह राहुल गांधी, सोनिया गांधी और डॉ मनमोहन सिंह के पोस्टर लगा ऱखे हैं।  यहाँ रमन सिंह नरेंद्र मोदी से बड़े नेता के रूप में जाने जाते हैं। 

Thursday, October 31, 2013

मधु लिमये ने सरदार पटेल को धर्मनिरपेक्षता का महान प्रणेता बताया था

ek puraana lekha






शेष  नारायण सिंह 

मधु लिमये होते तो ९० साल के हो गए होते . मुझे मधु  जी के करीब आने का मौक़ा १९७७ में मिला था जब वे लोक सभा के लिए चुनकर दिल्ली  आये थे. लेकिन उसके बाद दुआ सलाम तो होती रही लेकिन अपनी रोजी रोटी की लड़ाई में मैं बहुत व्यस्त हो गया. . जब आर एस एस ने  बाबरी मस्जिद के मामले को गरमाया तो पता नहीं कब मधु जी से मिलना जुलना लगभग रोज़ ही का सिलसिला बन गया .  इन दिनों वे सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके थे और लगभग पूरा समय लिखने में लगा रहे थे. बाबरी मस्जिद के बारे में आर एस एस और बीजेपी वाले उन दिनों सरदार पटेल के हवाले से अपनी बात कहते पाए जाते थे. हुम लोग भी दबे रहते थे क्योंकि सरदार पटेल को कांग्रेसियों का एक वर्ग भी साम्प्रदायिक बताने की कोशिश करता रहता था. उन्हीं दिनों मधु लिमये ने मुझे बताया था कि सरदार पटेल किसी भी तरह से हिन्दू साम्प्रदायिक नहीं थे. 
 दिसंबर १९४९ में  फैजाबाद के तत्कालीन कलेक्टर के के नायर की साज़िश के बाद बाबरी मस्जिद में भगवान् राम की मूर्तियाँ रख दी गयी थीं . केंद्र सरकार बहुत चिंतित थी . ९ जनवरी १९५० के दिन  देश के गृह मंत्री ने रूप में सरदार पटेल ने उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त को लिखा था. पत्र में साफ़ लिखा है कि " मैं समझता हूँ कि इस मामले दोनों सम्प्रदायों के बीच आपसी समझदारी से हल किया जाना चाहिए . इस तरह के मामलों में शक्ति के प्रयोग का कोई सवाल नहीं पैदा होता... मुझे यकीन है कि इस मामले को इतना गंभीर मामला नहीं बनने देना चाहिए और वर्तमान अनुचित विवादों को शान्ति पूर्ण तरीकों से सुलझाया जाना चाहिए ." 

मधु जी ने बताया कि सरदार पटेल इतने व्यावहारिक थे किउन्होने मामले के भावनात्मक आयामों  को समझा और इसमें मुसलमानों की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता पर जोर दिया . उसी दौर में मधु लिमये ने बताया था कि बीजेपी किसी भी हालत में सरदार पटेल को जवाहर लाल नेहरू का विरोधी नहीं साबित कर सकती क्योंकि महात्मा जी से सरदार की जो अंतिम बात हुई थी उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि जवाहर ;लाल से मिल जुल कर काम कारण है . सरदार पटेल एन महात्मा जी की अंतिम इच्छा को हमेशा ही सम्मान दिया ..

मधु लिमये हर बार कहा करते थे कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था . धर्मनिरपेक्षता  भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा राजनेताओं को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..

धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"

महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी . महात्मा गाँधी के दो बहुत बड़े अनुयायी जवाहर लाल नेहरू और  कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने धर्मनिरपेक्षता को इस देश के मिजाज़ से बिलकुल मिलाकर राष्ट्र की बुनियाद रखी.

मधु जी बताया करते थे कि कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" 

सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता।
बाद में  इन चर्चाओं के दौरान हुई  बहुत  सारी बातों को मधु लिमये ने अपनी किताब ," सरदार पटेल: सुव्यवस्थित राज्य के प्रणेता " में विस्तार से लिखी भी हैं . १९९४ में जब मैंने इस किताब की समीक्षा लिखी तो मधु जी बहुत खुश हुए थे और उन्होंने संसद के पुस्तकालय से मेरे लेख की फोटोकापी लाकर मुझे दी और कहा कि सरदार पटेल के बारे के जो लेख तुमने लिखा है वह बहुत  अच्छा है . मैं अपने लेखन के बारे में उनके उस बयान को अपनी यादों की सबसे बड़ी धरोहर मानता हूँ जो उस महान व्यक्ति ने मुझे उत्साहित करने के लिए दिया था