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Monday, November 4, 2013

नार्वे में हिटलर का एजेंट क्विजलिन दुनिया भर में देशद्रोह का समानार्थी माना जाता है .



शेष नारायण सिंह

नार्वे के  चुनाव कवरेज के दौरान वहाँ के इतिहास के बहुत सारे पक्ष समझ में आये . बहुत लोगों से दोस्ती हुई , नेताओं को करें से देखने का मौक़ा मिला और ऐसे लोगों से मुलाक़ात हुई जो जिंदादिली को प्रेरित करते हैं .ऐसी ही एक मित्र हैं इल्जा मेरी ढल . पेशे से आर्किटेक्ट हैं  . वे जब पैदा  हुईं तो जर्मन कब्जा खतम हो चुका था . जर्मन कब्जा शुरू होने पर उनके पिता अमरीका में आराम की ज़िंदगी बिता रहे थे लेकिन जब उन्होंने सुना कि उनके मुल्क नार्वे पर जर्मन सेना ने कब्जा कर रखा है   तो वे अपने  देश आ गए . सिविल इंजीनियर के रूप में अमरीका में  काम करते थे  लेकिन ओस्लो वापस आकर जर्मन कब्जे के खिलाफ आंदोलन में शामिल हो गए . बहुत यातनाएं झेलीं और उसी संघर्ष एक दौरान एक बहादुर साथी से शादी की . वह उम्र में उनसे बहुत छोटी थीं लेकिन लड़ाई में साथ साथ थीं . जब जर्मन सेना चली गयी तो हिटलर को तबाह करने के लिए जुटे हुए नार्वेजियन लोगों को किले के पास समुद्र के किनारे अस्थायी बैरक बना कर बसाया गया. नार्वे के मौसम को जो लोग जानते हैं उनको मालूम है कि कि बिना सही हीटिंग वाले घर में रहना कितना मुश्किल होता है लेकिन अपने देश को तानाशाही से आज़ाद कराने वालों का  हौसला इतना ज़बरदस्त था कि इन्होने कभी परवाह नहीं की. कुछ  वर्षों के अंदर ही तहस नहस कर दिए गए ओस्लो शहर में फिर से ज़िंदगी आ गयी और शहर बस गया . इल्जा बताती हैं कि शुरू में जिस घर में यह लोग रहते थे उसमें ज़रा सा भी पानी तुरंत बर्फ बन जाता था .नार्वे पर यह मुसीबात हिटलर ने डाली थी लेकिन उसका एजेंट विद्कुन क्विजलिन था . इस अधम को नार्वे क्या पूरी दुनिया का सभ्य समाज कभी भी माफ नहीं करेगा .

विद्कुन क्विजलिन नाजी इतिहास का एक ऐसा सितारा है जिसका नाम किसी को गाली देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है .नाजी तानाशाह हिटलर ने उसको पाल रखा था और नार्वे के लोगों को उसकी मार्फ़त ही नाजी आतंकवाद का सबक सिखाया था . जब हिटलर ने नार्वे पर कब्जा किया तो उसने इसी विद्कुन क्विजलिन को वहाँ का शासक बना दिया था . विद्कुन क्विजलिन  नार्वे की राजनीति में सक्रिय बहुत ही महत्वाकांक्षी राजनेता था लेकिन हिटलर के एजेंट के रूप में उसने अपने लोगों पर तरह तरह के अत्याचार किये और हिटलर की मनमानी का वाहक बना . यह भी सच है कि नाजियों की मनमानी को नार्वे की अवाम ने कभी स्वीकार नहीं किया लेकिन नार्वे की जनता के संघर्ष और विद्कुन क्विजलिन की तबाही एक ऐसा उदाहरण है जिसको बाद की दुनिया में इस बात का संकेत देने के लिए इस्तेमाल किया जायेगा कि अपने देश की तबाही के लिए किसी फासिस्ट तानाशाह का साथ नहीं देना चाहिए . विद्कुन क्विजलिन की कमीनगी ओस्लो शहर के हर कोने में नज़र आती है लेकिन आम तौर पर उसका ज़िक्र नहीं किया जाता . उसका घर आज होलोकास्ट म्यूज़ियम है और लोग उसके नाम पार थूकते हैं


इसी सितम्बर २०१३ में ओस्लो की यात्रा के दौरान  नार्वे के लोगों की जिंदादिली और उनकी इंसानियत के बहुत सारे किस्से मैं बयान करता रहा हूँ लेकिन जब किसी कौम पर हिटलर नाजिल होता है ,और उसी कौम के किसी महत्वाकांक्षी नेता को पकड़कर गद्दार बनाता है और  इंसानी ज़िंदगी को अँधेरे से भर देने की कोशिश करता है तो सभ्य लोगों की नार्वेजी कौम किस तरह से मुकाबला करती है ,  उसको समझने के लिए विद्कुन क्विजलिन  के कैरेक्टर को समझना ज़रूरी है . विद्कुन क्विजलिन  को तबाह करने और  हिटलर का मुकाबला करने के लिए  नार्वेजियन अवाम ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था . उस संघर्ष ने  इतिहास में नार्वेजी अवाम की बहादुरी को एक संगमील के रूप में स्थापित कर दिया है .जब नाजी जर्मन सेना ने नार्वे पर हमला किया तो यह क्विजलिन हिटलर से जा मिला और तख्ता पलट करके नार्वे की सत्ता हथिया ली. क्विजलिन वहाँ हिटलर के एजेंट के रूप में ही काम करता रहा .उसने सत्ता तो जर्मन सेना के आगमन के साथ ही १९४० में हथिया लिया था लेकिन हिटलर ने उसे बाकायदा मिनिस्टर प्रेसीडेंट बनाकार १९४२ में स्थापित किया . विद्कुन क्विजलिन  ने हिटलर के कुख्यात फाइनल सालुशन को लागू किया . हिटलर की तबाही के बाद विद्कुन क्विजलिन  पर मुकादमा चला और वह देशद्रोह का दोषी पाया गया . ओस्लो के एकरहुस किले में उसको फायरिंग स्क्वाड के सामने खडा करके गोली मारकर सज़ा दी गयी .

विद्कुन क्विजलिन कोई मामूली आदमी नहीं था . वह बहादुर था और नार्वे की सेना का भरोसेमंद अफसर था .अपनी सरकार की ओर से वह रूस भी गया था और नार्वे के हेलसिंकी दूतावास में भी उच्च पद पर काम कर चुका था . नार्वेजी समाज में उसकी इज्ज़त थी . एक बार तो नार्वे के सबसे सम्मानित व्यक्ति फ्रिदोफ़ नानसेन ने ही उसको सम्मान देकर यूक्रेन की राजधानी भेजा था . नानसेन  वह व्यक्ति हैं जो नार्वे के सबसे प्रिय खेल , स्कीइंग के बहुत बड़े नाम हैं और जिनको १९२२ का नोबेल शान्ति पुरस्कार मिल चुका है और जो आधुनिक नार्वे के संस्थापकों में माने जाते हैं . नानसेन की दोस्ती का विद्कुन क्विजलिन  ने बहुत जगहों पर फायदा उठाया . मई १९३० में नानसेन की मृत्यु के बाद उसने अखबारों में नानसेन के बाद की राजनीति की रूपरेखा लिखी और नार्वे के लोगों  को बताने की  कोशिश की कि किस तरह से नानसेन के सपनों का नार्वे बनाया जा सकता है  . लेकिन जब उनको अग्रेरियन  सरकार में रक्षा मंत्री बनने का मौका लगा तो नानसेन की विचारधारा को भूलकर वहाँ जा लगे. हर फासिस्ट तानाशाह की तरह विद्कुन क्विजलिन भी कम्युनिस्टों से नफरत करते थे . उसने कम्युनिस्टों से नफरत के कारण ही १९३३ में एक पार्टी बनायी और उसी राष्ट्रवादी पार्टी के साथियों को हिटलर की नार्वे योजना का हिस्सा बना दिया . उसकी नई पार्टी का नाम नैशनल समलिंग था और इसका नारा राष्ट्रीय एकता था. उसने प्रधानमंत्री पर सीधा हमला किया और नार्वे के सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में पहचान बनायी . पूरे नार्वे में जहां भी वह जाता था उसकी जयजयकार होती थी  क्योंकि एक अलोकप्रिय प्रधानमंत्री को हटाने की बात को वह बहुत ही प्रभावशाली तरीके से कह रहा था . क्विजलिन की पार्टी भी जर्मनी की नाजी पार्टी की तरह एक व्यक्ति की अथारिटी को स्थापित करने की बात करती थी. उसने नारा दिया कि राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर एक नेता को समर्थन दिया जाए . ओस्लो के संभ्रांत वर्ग का समर्थन क्विजलिन को ज़बरदस्त तरीके से मिल रहा था और यह शक जताया का रहा था कि पूंजीपति वर्ग उसे बड़े पैमाने पर समर्थन दे रहे हैं क्योंकि उसके प्रचार में भारी धन खर्च होता साफ़ नज़र आ रहा था .
चुनाव के बाद साफ़ हो गया कि जितना प्रचार था क्विजलिन की पार्टी उतनी लोकप्रिय नहीं थी और उसके बाद उसने अपने तरीके के राष्ट्रीय समाजवाद की स्थापना के लिए काम शुरू किया .चुनाव में मिली असफलता के बाद क्विजलिन  बहुत गुस्से में रहता था . उसने अपने आपको विदेशी फासिस्ट पार्टियों के दोस्त के रूप में पेश करना शुरू किया . दिसंबर १९३४ में वह  अंतर्राष्ट्रीय फासिस्ट सम्मेलन में भी गया .वहाँ उसकी मुलाक़ात जर्मनी की नाजी पार्टी के नेताओं से हुई. १९३६ के चुनाव में उसको नार्वे के हिटलर के रूप में पहचान मिल चुकी थी . यही वह समय है जब हिटलर को पूरी दुनिया के राष्ट्रवादी लोग सम्मान की दृष्टि से देखते थे . भारत में भी राष्ट्रवादी विचारधारा वाले हिटलर की तारीफ़ में किताबें उसी दौर में लिखते पाए गए थे .
१९३६ के चुनाव में भी क्विजलिन की पार्टी बुरी तरह से हार गयी , खिसियाकर  उसने चुनाव के खिलाफ राजनीतिक बयान देना शुरू कर दिया . इस बीच १९३९ तक यूरोप में युद्ध की दस्तक सुनायी पड़ने लगी थी . उसने नारा दिया कि बोल्शेविज़्म और यहूदी राज से बचने के लिए नार्वे को हिटलर का साथ देना चाहिए .हिटलर ने क्विजलिन की पार्टी को खूब धन दिया और नार्वे में उसको अपने प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने की कोशिश शुरू कर दी .जर्मनी से धन मिलने के बाद क्विजलिन को भरोसा  हो गया कि आने वाले समय में वही देश का नेतृत्व करेगा .जब उसको बताया जाता कि उसकी पार्टी के पास तो कोई एम पी नहीं  है ,वह हंस कर टाल जाता .
१४ दिसंबर १९३९ को क्विजलिन ने जर्मनी जाकर हिटलर से मुलाक़ात की . हिटलर ने क्विजलिन की योजनाओं को गंभीरता से नहीं लिया लिए लेकिन उसको लगा कि आदमी काम का है . १८ दिसंबर को फिर दोनों  मिले और क्विजलिन को हिटलर के सहयोगी के रूप में भर्ती कर लिया गया .उसके बाद पूरे यूरोप में राजनीतिक गतिविधियां हिटलर के पक्ष  या विपक्ष में घूमती रहीं . ९ अप्रैल १९४० के दिन सुबह नार्वे के ऊपर जर्मन हमला हुआ , नार्वे के राजा और प्रधानमंत्री ने शहर छोड़ दिया था . उसी दिन  क्विजलिन ने नार्वे की एक नई सरकार बनायी और ९ अप्रैल को उसी सरकार ने जर्मन सेना का स्वागत भी कर लिया .लेकिन हिटलर ने देखा  कि क्विजलिन के खिलाफ लगभग सारा नार्वे है तो उसने उसे धोखा दे दिया और अपनी फौज के अधिकारियों के हाथ में सत्ता दे दी . क्विजलिन को बेईज्ज़त भी किया गया लेकिन बाद में उसको साथ लेकर जर्मन सेना ने काम शूरू किया . नार्वे के राजा ने हिटलर का कोई सहयोग नहीं किया . और उन्होंने अपनी प्रजा का आवाहन किया कि वह जर्मन कब्जे के खिलाफ  संघर्ष करे .
इस बीच १ फरवरी १९४२ के दिन क्विजलिन को जर्मनी ने मिनिस्टर प्रेसीडेंट बना दिया और  नार्वे की सत्ता उसको सौंप दी. लेकिन नार्वे की जनता ने उसको कभी स्वीकार नहीं किया उसका विरोध होता रहा. जर्मन सेना भी उसे कठपुतली की तरह नचाती रही और जब १९४५ में जर्मन सेना नार्वे छोड़कर भागी तो क्विजलिन तबाह हो चुका था.उसको गिरफ्तार किया गया ,उसके ऊपर मुकादमा चला और सुप्रीम  कोर्ट तक अपील की गयी . उसे दोषी पाया गया और समुद्र के किनारे स्थिति एकरहुस किले में फायरिंग स्क्वाड के सामने खड़े करके भून दिया गया .  उसकी पत्नी मारिया जीवित रहीं, १९८० में  उनकी  मृत्यु प्राकृतिक रूप से हुई . क्विजलिन  को राष्ट्रद्रोह के पर्याय के रूप में उसे इतिहास याद रखेगा . नार्वे के सहनशील समाज ने उसकी सकारात्मक  व्याख्या करने की कोशिश भी की है  लेकिन उसने नार्वे पर जो मुसीबत बरपा की थी और जिस तरह से नार्वे के लोगों ने उससे मुकाबला किया वह संघर्ष के इतिहास में अमर रहेगा 

Saturday, January 12, 2013

अकबरुद्दीन ओवैसी को देशद्रोह की सज़ा मिलनी चाहिए





शेष नारायण सिंह   

आंध्र प्रदेश के एम एल ए अकबरुद्दीन ओवैसी को आखिर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया .उसे बहुत पहले  गिरफ्तार हो जाना चाहिए था लेकिन आन्ध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार उसको पकड़ने या उस पर आपराधिक मुक़दमा  चलाने से बच रही थी. इसका सीधा कारण  यह लगता है कि कांग्रेस को अकबरुद्दीन ओवैसी की पार्टी का केन्द्र और राज्य में समर्थन मिलता है .जिन लोगों ने अकबरुद्दीन ओवैसी के भाषण सुने हैं वे उसे पागल कहने में संकोच करेगें . वह पागलपन की हदें भी पार कर गया है .अब तक होता यह रहा है कि जिस तरह के भाषण यह अकबरुदीन देता  है वे पब्लिक डोमेन में नहीं आते थे . नतीजा यह होता था कि आम तौर पर लोगों तक बात पंहुचती नहीं थी लेकिन अब सोशल मीडिया के प्रचार प्रसार के कारण हर बात सब तक पंहुच रही है. यू ट्यूब पर जिसने भी उसके भाषणों को सुना है वह उसे  भारत का दुश्मन ही मानेगा . अपने ताज़ा भाषण में इस अकबरुद्दीन ओवैसी ने राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक आचरण की सभी सीमाएं लांघ दी हैं जब यह हिंदू देवी  देवताओं  और भारतीय  राष्ट्र के खिलाफ अभियान छेड़ता है . अदालतों के आदेश के बाद पुलिस ने उसके खिलाफ ताजीरात हिंद ( आईपीसी ) की धारा 153ए (दो समुदायों के बीच धर्मभाषावंश और जन्म स्थाने के आधार पर दुश्मनी पैदा करना। जो सद्भाव के कार्य में बाधा है), 295ए (किसी के धर्म और धार्मिक विश्वास के अपमान के द्वारा किसी भी वर्ग के आक्रोश व धार्मिक भावनाओं को जानबूझ कर भड़काना) और धारा 121 (भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छोड़ना या युद्ध छेड़ने का प्रयास या युद्ध के लिए उकसाने का प्रयास) के तहत मुक़दमा दर्ज किया है . उसके खिलाफ मुक़दमा दर्ज करके कार्रवाई की जानी चाहिए और उसको ऐसी सज़ा दी जानी चाहिए जिस से आने वाले वक़्त में कोई भी सिरफिरा यह हिम्मत न कर सके कि वह इस तरह से भारत राष्ट्र के खिलाफ कोई भी गैर जिम्मेदार बयान देकर बच सकता  है.

अकबरुद्दीन के गैर ज़िम्मेदार भाषण की बातें गिनाकर उस जैसे आदमी को किसी तरह का सम्मान देने की  ज़रूरत नहीं है लेकिन इतना पक्का है कि यह आदमी गरीब और अनपढ़ मुसलमानों का समर्थन लेने के लिए के लिए धर्म का इस्तेमाल करता है और धर्म का इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ जाता है और अन्य धर्मों का अपमान करने लगता है . उसके बाद अपनी रौ में वह आगे बढ़ जाता है और राष्ट्र के खिलाफ ज़हर उगलने लगता है . सरकार का कर्त्तव्य था कि इसके खिलाफ आज के कई साल पहले कानून के हिसाब से कार्रवाई की जाती और इसे इसकी औकात बता दी जाती लेकिन सरकार ने अपना काम नहीं किया और इसको लगा कि यह कुछ भी करके पार पा जाएगा . नतीजा यह  हुआ कि ज़हर फ़ैलाने का इसका  काम चलता  रहा. अकबरुद्दीन ओवैसी के भाषण को सुनकर कोई भी यह बता देगा कि यह पूरी तरह से डरा हुआ इंसान है . वह बात तो उसकी गिरफ्तारी के बाद साबित भी हो गयी जब उसने गिरफ्तारी से बचने के लिए बीमारी का बहाना बनाया और अपने जाहिल समर्थकों को तोड़ फोड के लिए उकसाया . हाँ सरकारों  और राजनीतिक पार्टियों का रवैया गैर ज़िम्मेदार  रहा . जहां कांग्रेस उसे वोट बैंक की राजनीति का हथियार मानती रही वहीं बीजेपी उसको मुस्लिम तोगडिया मानकर उस पर हमले करती रही . दोनों ही बातें गलत हैं .  इस देश का मुसलमान आम तौर पर अकबरुद्दीन जैसे पागल के कहने पर वोट नहीं देता . जहां तक हैदराबाद के कुछ इलाकों का सवाल है , वहाँ पर अकबरुद्दीन की तीन पीढ़ियों ने मुसलमानों के एक बड़े वर्ग को शिक्षित नहीं होने दिया है ,उनको पुरातनपंथी तरीके से सोचने को मजबूर कर दिया है और आज वे लोग अकबरुद्दीन के परिवार के आगे नहीं सोच पाते .अकबरुद्दीन ओवैसी ने जिन्दगी में कुछ  भी हासिल नहीं किया . अपने सांसद  पिता के प्रभाव के तहत वह  शहर के कुछ स्कूलों में पढ़ने के बाद डाकटरी की पढाई के लिए गुलबर्गा गया था लेकिन दो साल के अंदर  ही वहाँ से भाग खड़ा हुआ और तब से अब तक हैदराबाद शहर में बदमाशी और प्रापर्टी की हेराफेरी का धंधा करता है . ज़ाहिर है उस से किसी जिम्मेदार आचरण की उम्मीद नहीं की जा सकती है .सरकार को चाहिए था कि उसको उसकी सही जगह यानी जेल में बंद रखते  लेकिन ऐसा नहीं हुआ  क्योंकि सरकार भी हैदराबाद के पुराने शहर में रहने वाले लोगों  की सही देखभाल नहीं की है और उनको आधुनिक शिक्षा  नहीं दी है  . नतीजा  यह है कि अकबरुद्दीन आज उन लोगों की जहालत को कवर बनाकर राजनीति कर  रहा है और देश किंकर्तव्य विमूढ़ होकर देख रहा है .  

अपने राष्ट्र के लिए संतोष की जो बात है वह यह है  कि अकबरुद्दीन ओवैसी के ज़हरीले और भारत विरोधी भाषण के पब्लिक डोमेन में  आने के बाद बुद्धिजीवियों के एक  बहुत बड़े वर्ग ने उसकी निंदा की . अकबरुद्दीन ने अपने ताज़ा भाषण में हिन्दुस्तान के भविष्य को चुनौती  दी है और धर्म निरपेक्ष बिरादरी के एक बड़े वर्ग के लोग उसकी तुलना प्रवीण तोगडिया या नरेंद्र मोदी से कर रहे हैं .  मोदी के खिलाफ गुजरात में अभियान चला रही शबनम हाशमी ने अकबरुद्दीन ओवैसी के खिलाफ दिल्ली  के किसी थाने  में रिपोट दर्ज करवा दी है और उसके खिलाफ मुक़दमे की तैयारी कर रही हैं. उनके अलावा  जामिया मिलिया के  वाइस चांसलर नजीब जंग और असगर अली इंजीनियर ने भी  इस अकबरुद्दीन ओवैसी की निंदा की हो . मुसलमानों के एक बड़े वर्ग के लोग इस ओवैसी के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं .लेकिन बहुत सारे लोग यह मांग करते पाए जा रहे हैं कि अगर तोगडिया पर कार्रवाई नहीं की जा रही  है तो अकबरुद्दीन पर क्यों कार्रवाई की जाय . जबकि सच्चाई यह है कि तोगडिया के हर बयान के खिलाफ इस देश  की सेकुलर बिरादरी के लोग ऐलानियाँ हमला बोलते हैं वह चाहे जिस मंच से  मुसलमानों के खिलाफ धार्मिक बयान दे . लेकिन अकबरुद्दीन ने तो हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को भारी ठेस पंहुचाया है , भगवान राम के लिए गाली की भाषा का इस्तेमाल किया है और उनकी माँ कौशल्या के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जिसे कभी भी माफ नहीं किया जा सकता . उसने इस तरह की बात की है जैसे हिन्दुस्तान केवल हिंदुओं का है और हिंदुओं के हवाले से उसने हिन्दुस्तान की शान में गुस्ताखी और बदतमीजी  की है .उसने  भारत की हैसियत को चैलेंज किया है . ज़रूरी यह था कि भारत सरकार या आंध्र प्रदेश  की सरकार ने उसको उसकी औकात बता दी होती लेकिन ऐसा नहीं हुआ . १९४७ में जब  भारत आज़ाद हुआ  तो इस अकबरुद्दीन की पार्टी,इत्तेहादुल मुसलमीन  का मुखिया एक कासिम रिजवी हुआ करता था .कुख्यात रजाकार, इसी संगठन के मातहत काम करते थे . कासिम  रिज़वी ने तिकड़म करके निजाम के दीवान ,नवाब छतारी की छुट्टी करवा दी और उनकी जगह पर मीर  लायक  अली नाम के एक व्यापारी   को तैनात करवा दिया . बस इसी फैसले के बाद निजाम की मुसीबतों  का सिलसिला शुरू हुआ जो बहुत बाद तक चला...मीर लायकअली हैदराबाद  के  थे ,मुहम्मद अली  जिन्ना के कृपापात्र थे और पाकिस्तान की तरफ से संयुक्तराष्ट्र जाने वाले प्रतिनिधि मंडल के सदस्य रह चुके थे... इसके बाद हैदराबाद में  रिज़वी की तूती बोलने लगी थी  .निजाम के प्रतिनिधि के रूप में  उसने दिल्ली की यात्रा भी की. जब उसकी मुलाक़ात सरदार पटेल से हुई तो वह बहुत ही ऊंची किस्म की डींग मार रहा था. उसने सरदार पटेल से कहा कि उसके साथी अपना मकसद हासिल करने के लिए अंत तक लड़ेंगें .ठीक इसी अकबरुद्दीन की तरह जिसके जवाब में सरदार पटेल ने कहा कि अगर आप आत्महत्या करना चाहते हैं तो आपको कोई  कैसे रोक सकता है .अपनी  बीमारी  के बावजूद  सरदार  पटेल  ने बातचीत  की और साफ़  कह  दिया  कि यह रिज़वी अगर   फ़ौरन  काबू  में न  किया गया  तो  निजाम और हैदराबाद के लिए  बहुत  ही मुश्किल  पेश  आ  सकती  है . आज भी ज़रूरत इस बात की है कि सरदार पटेल की तरह की मजबूती सरकार दिखाए और इस अकबरुद्दीन को उसकी औकात बतायी जाए जैसा कि सरदार पटेल ने इसके पूर्वज कासिम रिजवी को बतायी थी .

यह अकबरुद्दीन ओवैसी  किसी भी सूरत में मुसलमानों का नुमाइंदा नहीं  हो सकता . अगर यह  मुसलमानों का  नुमाइंदा मान लिया  गया तो बहुत बुरा होगा क्योंकि इस देश ने जिन मुसलमानों को अपना नुमाइंदा माना है वे अलग किस्म के लोग होते हैं. मुसलमानों ने कभी भी भारत विरोधियों को अपना नेता नहीं माना . मुसलमानो के बड़े बुद्धिजीवियों ने भी हमेशा अपने भारत की पक्षधरता दिखाई 1930 में जब इलाहाबाद में संपन्न हुए मुस्लिम लीग के सम्मेलन में डा. मुहम्मद इकबाल ने अलग मुस्लिम राज्य की बात की तो दारुल उलूम के विख्यात कानूनविद मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने उसकी मुखालिफत की थी.1857 में आज़ादी की लड़ाई में मुसलमान , हाजी इमादुल्ला के नेतृत्व में इकट्ठा हुए थे . हाजी इमादुल्ला तो 1857 में मक्का चले गए थे. उनके दो प्रमुख अनुयायियों मौलाना मुहम्मद कासिम नानौतवी और मौलाना रशीद अहमद गंगोही ने देवबंद में दारुल उलूम की स्थापना करने वालों की अगुवाई की थी . जब 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई तो दारुल उलूम के प्रमुख मौलाना रशीद अहमद गंगोही थे। उन्होंने फतवा दिया कि शाह अब्दुल अज़ीज़ का फतवा है कि भारत दारुल हर्ब है। इसलिए मुसलमानों का फर्ज है कि अंग्रेजों को भारत से निकाल बाहर करें।  उनकी प्रेरणा से बड़ी संख्या में मुसलमानों ने कांग्रेस की सदस्यता ली और आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये।

आज़ादी की इसी लड़ाई के बाद जो भारत राष्ट्र बना है उसको चुनौती देने वाले इस अकबरुद्दीन जैसे कायर के खिलाफ सबसे पहले आवाज़ मुसलमानों की तरफ से उठनी चाहिए और अगर ऐसा न हुआ तो उन लोगों के लिए बहुत मुश्किल पेश आयेगी जो  इस देश और इसकी धर्मनिरपेक्षता से बेपनाह मुहब्बत करते हैं .