शेष नारायण सिंह
होली के दिन मुझे अपने गाँव की बहुत याद आती है .सुलतान पुर जिले में मेरा बहुत छोटा सा गाँव है . उसका नाम कहीं भी सरकारी रिकॉर्ड में नहीं है . सरकारी रिकॉर्ड में पड़ोस के गाँव का नाम है . मेरा गाँव उसी का अटैचमेंट है.. मेरे बचपन में होली एक ऐसा त्यौहार था जब सारा गाँव साथ साथ हो जाता था. बाकी तो कोई त्यौहार इस रुतबे का नहीं होता था. हाँ अपनी बेटियों की शादी में पूरा गाँव एक साथ खड़ा रहता था..जब मैंने अपने गाँव के बाहर की दुनिया देखनी शुरू की तब मुझे लगने लगा था कि हमारा गाँव गरीब आदमियों का गाँव था. सन ६१ की जनगणना में मैं लेखपाल के साथ गेरू लेकर जुटा था. तब कुल २६ परिवार थे मेरे गाँव में .मैंने हर घर के सामने, जो भी लेखपाल जी ने बताया था,उसे गेरू से लिखा था.. . अब तो शायद ८० परिवार होंगें. खेत उतना ही . आबादी की ज़मीन उतनी ही . लेकिन जनसँख्या चार गुनी हो गयी है .. उन्ही २६ परिवारों के लोग होली के दिन ऐसे हो जाते थे जैसे एक ही घर के हों...मेरे गाँव में कई जातियों के लोग रहते थे. ब्राह्मणों की दो उप जातियां थीं,पाण्डेय और मिश्र ..ठाकुरों की पांच उपजातियां थीं, चौहान , गौतम ,बैस, परिहार और राजकुमार . नाऊ, कहार और दलितों के भी परिवार थे . .पूरे गाँव के लोग एक दूसरे के भाई, बहन , काकी, काका, बाबा, आजी, भौजी जैसे रिश्तों में बंधे थे . कई साल बाद मेरी समझ में यह बात आई कि यह सारे रिश्ते माने मनाये के थे . कहीं भी रिश्तेदारी का कोई आ़धार नहीं था.. गाँव में मेरे सबसे प्रिय थे हमारे फूफा. वे दलित थे, ससुराल में रहते थे, दूलम नाम था उनका. उनकी पत्नी गाँव के ज्यादातर लोगों की फुआ थीं. बूढ़े लोग उनका नाम लेते थे .. होली के दिन मिलने वाले कटहल की सब्जी और दाल की पूरी की याद आज भी मुझे होली के दिन अपने गाँव में जाने के लिए बेचैन कर देती है . मेरे गाँव में पढ़े लिखे लोग नहीं थे . केवल एक ग्रेजुएट थे पूरे गाँव में . बाद में उन्होंने पी एच डी तक की पढाई की . स्कूल जाने वाले सभी बच्चे उन्हीं डॉ श्रीराज सिंह को ही आदर्श मानते थे.
१९६७ में आई हरित क्रान्ति के साथ मेरे गाँव में लोगों के सन्दर्भ बदलना शुरू हुए. कुछ लोगों ने किसी तरह से कुछ पैसा कौड़ी इकठ्ठा करके औरों की ज़मीन खरीदना शुरू कर दिया . गरीबी का मजाक उड़ना शुरू हो गया और इंसानी रिश्ते हैसियत से जोड़ कर देखे जाने लगे. . मेरे गाँव के लोग कहा करते थे कि हमारे गाँव में कभी पुलिस नहीं आई थी. लेकिन ज़मीन की खरीद के साथ शुरू हुई बे-ईमानी के चलते फौजदारी हुई , सर फूटे, मुक़दमे बाज़ी शुरू हुई. और मेरा गाँव तरह तरह के टुकड़ों में विभाजित हो गया. . कुछ साल बाद गाँव के ही एक बुज़ुर्ग का क़त्ल हुआ . फिर गाँव के लोग कई खेमों में दुश्मन बन कर बँट गए . कुछ साल पहले जब मैं अपने गाँव गया था तो लगा कि कहीं और आ गया हूँ. मेरे आस्था के सारे केंद्र ढह गए हैं . लोग होली मिलने की रस्म अदायगी करते हैं . ज़्यादातर परिवारों के नौजवान किसी बड़े शहर में चले गए हैं . कुछ लड़कों ने पढ़ाई कर ली है लेकिन खेती में काम करना नहीं चाहते और बेरोजगार हैं . मेरे गाँव की तहसील पहले कादीपुर हुआ करती थी , नदी पार कर के जाना होता था . लेकिन अब तहसील ३ किलोमीटर दूर लम्भुआ बाज़ार में है. . मेरे गाँव के कुछ हों हरा लडके अब तहसील में दलाली कारते हैं . कुछ नौजवानों का थाने की दलाली का अच्छा कारोबार चल रहा है .. मेरा गाँव अब मेरे बचपन का गाँव नहीं है .लेकिन यहान दूर देश में बैठे मैं अपने उसी गाँव की याद करता रहता हूँ जो मेरे बचपन की हर याद से जुडा हुआ है .. जिसमें मेरी माँ का रोल सबसे ज्यादा स्थायी है . मेरी माँ जौनपुर शहर से लगे हुए एक गाँव के बहुत ही संपन्न किसान kee बेटी थीं, . मेरे नाना के खेत में तम्बाकू और चमेली की कैश क्रॉप उगाई जाती थी. और इस सदी की शुरुआत में वे मालदार किसान थे. १९३७ में उन्होंने अपनी बेटी की शादी अवध के एक मामूली ज़मींदार परिवार में कर दिया था . मेरे पिता के परिवार में शिक्षा को कायथ कारिन्दा का काम माना जाता था और जब मेरे माता- पिता की शादी के १४ साल बाद ज़मींदारी का उन्मूलन हो गया तब लगा कि सब कुछ लुट गया . सारा अपराध उसी गंधिया का माना जाता था , बाद में वही गंधिया मेरा देवता बना और आज मैं मानता हूँ कि अगर महात्मा गाँधी न पैदा हुए होते तो भारत ही एक न होता . मेरी माँ ने महात्मा गांधी को कभी गाली नहीं दी.लेकिन उसी वक़्त मेरी माँ को एहसास हो गया किशिक्षा होती तो गरीबी का वह खूंखार रूप न देखना पड़ता जो उसने जीवन भर झेला. बहरहाल अब मेरे गाँव में पहले जैसा कुछ नहीं है लेकिन हर होली के दिन मुझे अपने गाँव की याद बहुत आती है . क्या करूँ मैं ? ज़ाहिर है उस अपनेपन को याद करके पछताने के सिवा मेरे पास कोई रास्ता नहीं है .
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Monday, March 1, 2010
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