यह पोस्ट शैशव से साभार ले रहा हूँ . लगता है कि मेरी माँ की बहादुरी की कहानी है . या शायद सबकी माँ इतनी ही बहादुर होती होंगीं.
लछमिनिया : एक बहादुर नारी को प्रणाम
मुश्किल से छ: बरस का नत्थू अपना पट्टी-खड़िया भरा बस्ता छोड़कर पाठशाला से निकल पड़ा । अपने बाप के गाँव से करीब २०-२२ किलोमीटर दूर ननिहाल के लिए,पैदल,निपट अकेले । कुछ दिनों पहले उसके नाना बहुत चिरौरी-मिन्नत के बाद उसे और उसकी माँ को नत्थू के मामा चुन्नू के ब्याह में शामिल करने के लिए विदा करा पाये थे । सौभाग्य से उसके ननिहाल की एक महिला की शादी रास्ते के एक गाँव में हुई थी । उसने अकेले नत्थू को ’वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो’ की तर्ज पर आते देखा तो अपने घर ले आई । रात अपने घर रक्खा । अगले दिन अपने पति के साथ नत्थू को उसके ननिहाल भेजा। करीब बयालिस साल बाद आज नत्थू सोच कर बता रहा था ,’ यदि वे मौसी ननिहाल की जगह मुझे बाप के गाँव वापिस भेज देती तो मेरी कहानी बिलकुल अलग होती ।’
पति द्वारा मार-पीट और उत्पीड़न से तंग आ कर नत्थू की माँ लछमिनिया पहले भी एक बार मायके आ गई थी। भाइयों ने अपने बहनोई से बातचीत करके तब उन्हें वापिस भेजा था । नत्थू का छोटा भाई लाल बहादुर तब पैदा हुआ था। पति की दरिन्दगी जारी रही तो लछमिनिया लाल बहादुर को ले कर अंतिम तौर पर निकल आई। नत्थू से मिलने जातीं अकेले । उस वक्त उत्पीड़न होता तो एक बार उन्होंने पुलिस को शिकायत कर दी । पुलिस ने नत्थू के बाप को हिदायत कि लछमिनिया नत्थू से मिलने जब भी आये तब यदि उसने बदतमीजी की तो उसे पीटा जाएगा।
बहरहाल , नत्थू बाप के घर से जो ननिहाल आया तो अंतिम तौर पर आया । लछमिनिया खेत में मजूरी करने के बाद,खेत में पड़े अनाज के दाने इकट्ठा करती,खेत में बचे आलू-प्याज इकट्ठा कर लेती। मुट्ठी भर अनाज भी इकट्ठा होते ही उसे जन्ते पर पीस कर बच्चों को लिट्टी बना कर देती । बैल-गाय के गोबर से निकले अन्न को भी लछमिनिया एकत्र करती।
लछमिनिया की गोद में खेले उसके छोटे भाई चुन्नू ने बड़ी बहन का पूरा साथ दिया । चुन्नू टेलर मास्टर हैं । चुन्नू ने भान्जों को सिलाई सिखाई । जूनियर हाई स्कूल की पढ़ाई के बाद नत्थू ने कहा कि वह माँ की मेहनत और तपस्या को और नहीं देख पायेगा इसलिए पढ़ाई छोड़कर पूरा वक्त सिलाई में लग जायेगा। चुन्नू और लछमिनिया ने उसे समझाया कि उसे पढ़ाई जारी रखनी चाहिए।
नत्थू ने सिलाई करते हुए दो एम.ए (अंग्रेजी व भाषा विज्ञान),बी.एड. तथा तेलुगु में डिप्लोमा किया। विश्वविद्यालय परिसर के निकट जगत बन्धु टेलर में जब वह काम माँगने गया तो टेलर मास्टर को उसने नहीं बताया कि वह विश्वविद्यालय में पढ़ता भी है । वहाँ उसे सिलाई का चालीस प्रतिशत बतौर मजदूरी मिलता। हिन्दी और अंग्रेजी के नत्थू के अक्षर मोतियों की तरह सुन्दर हैं ।
नत्थू बरसों मेरा रूम-पार्टनर रहा। उसकी प्रेरणा से न सिर्फ़ उसके छोटे भाई लाल बहादुर ने उच्च शिक्षा हासिल की अपितु गाँव के टुणटुणी और भैय्यालाल ने भी एम.ए और बी.एड किया। चारों सरकारी स्कूलों में शिक्षक हैं ।
टुणटुणी के साथ एक मजेदार प्रसंग घटित हुआ। टुणटुणी से गाँव के शिक्षक कमला सिंह स्कूल में अक्सर कहते,’ कुल चमार पढ़े लगिहं त हर के जोती? ’ संयोग था कि पड़ोस के जौनपुर जिले के राज कॉलेज में जहाँ टुणटुणी शिक्षक है कमला सिंह का पौत्र दाखिले के लिए गया और अपने गाँव के टुणटुणी से मिला । टुणटुणी ने उससे कहा ,’सब ठाकुर पढ़े लगिहें त हर के जोतवाई ?’ पोते ने अपने दादाजी को जाकर यह बताया। कमला सिंह ने टु्णटुणी से मिलकर लज्जित स्वर में कहा, ’अबहिं तक याद रखले हउव्वा !’
चार दिन पहले लछमिनिया गुजर गईं । नत्थू हिमाचल प्रदेश से केन्द्रीय विद्यालय से आ गया था। लाल बहादुर शहर के इन्टरमीडियट कॉलेज में अध्यापक है। दोनों बच्चों की नौकरी लगने के बाद लछमिनिया के आराम के दिन आये। टोले भर के बच्चे इस दादी को घेरे रहते । उन्हें लछमिनिया दादी कुछ न कुछ देतीं । गांव के कुत्ते भी उनसे स्नेह और भोजन पाते। उनके गुजरने की बात का अहसास मानो उन्हें भी हो गया था। गंगा घाट पर मिट्टी गई उसके पहलेचुन्नू के दरवाजे पर अहसानमन्दी के साथ यह गोल भी जुटी रही।
नत्थू का बचपन का मित्र और सहपाठी रामजनम हमारे संगठन से जुड़ा और अब पूर्णकालिक कार्यकर्ता है।
रामजनम शोक प्रकट करने नत्थू के मामा के घर पहुँचा तो दोनों मित्रों में प्रेमपूर्ण नोंक-झोंक हुई :
रामजनम – माई क तेरही करल कौन जरूरी हव ?
नत्थू - तूं अपने बाउ क तेरही काहे कइल ? हिम्मत हो त अपने घर में बाबा साहब क चित्र टँगा के दिखावा !
आज चौथे दिन नत्थू ने पिण्डा पारने का कर्म काण्ड किया तब मैं मौजूद था । यह कर्म काण्ड पूरा कराया दो नाउओं ने । लाल बहादुर ने उन्हें उनके मन माफ़िक पैसे दिए। नाऊ जैसी जजमानी करने वाले हजामत के लिए ठाकुरों के दरवाजे पर रोज जाते हैं ,पिछड़ों के यहाँ हफ़्ते में एक दिन और दलित नाऊ के दरवाजे पर जाते हैं । बहरहाल इस कर्म काण्ड के लिए इनारे के किनारे बने सार्वजनिक मण्डप में नाऊ आए थे।
नत्थू के स्कूल में प्राचार्य के दफ़्तर में गांधी को रेल से नीचे धकिया कर गिराने की तसवीर लगी थी। वह तसवीर हटा दी गई। नत्थू ने लड़कर पाँच मिनट में वह चित्र वापस लगवाया ।
Showing posts with label जौनपुर. Show all posts
Showing posts with label जौनपुर. Show all posts
Tuesday, May 18, 2010
Monday, March 1, 2010
मेरा गाँव , जो होली के दिन ज़रूर याद आता है
शेष नारायण सिंह
होली के दिन मुझे अपने गाँव की बहुत याद आती है .सुलतान पुर जिले में मेरा बहुत छोटा सा गाँव है . उसका नाम कहीं भी सरकारी रिकॉर्ड में नहीं है . सरकारी रिकॉर्ड में पड़ोस के गाँव का नाम है . मेरा गाँव उसी का अटैचमेंट है.. मेरे बचपन में होली एक ऐसा त्यौहार था जब सारा गाँव साथ साथ हो जाता था. बाकी तो कोई त्यौहार इस रुतबे का नहीं होता था. हाँ अपनी बेटियों की शादी में पूरा गाँव एक साथ खड़ा रहता था..जब मैंने अपने गाँव के बाहर की दुनिया देखनी शुरू की तब मुझे लगने लगा था कि हमारा गाँव गरीब आदमियों का गाँव था. सन ६१ की जनगणना में मैं लेखपाल के साथ गेरू लेकर जुटा था. तब कुल २६ परिवार थे मेरे गाँव में .मैंने हर घर के सामने, जो भी लेखपाल जी ने बताया था,उसे गेरू से लिखा था.. . अब तो शायद ८० परिवार होंगें. खेत उतना ही . आबादी की ज़मीन उतनी ही . लेकिन जनसँख्या चार गुनी हो गयी है .. उन्ही २६ परिवारों के लोग होली के दिन ऐसे हो जाते थे जैसे एक ही घर के हों...मेरे गाँव में कई जातियों के लोग रहते थे. ब्राह्मणों की दो उप जातियां थीं,पाण्डेय और मिश्र ..ठाकुरों की पांच उपजातियां थीं, चौहान , गौतम ,बैस, परिहार और राजकुमार . नाऊ, कहार और दलितों के भी परिवार थे . .पूरे गाँव के लोग एक दूसरे के भाई, बहन , काकी, काका, बाबा, आजी, भौजी जैसे रिश्तों में बंधे थे . कई साल बाद मेरी समझ में यह बात आई कि यह सारे रिश्ते माने मनाये के थे . कहीं भी रिश्तेदारी का कोई आ़धार नहीं था.. गाँव में मेरे सबसे प्रिय थे हमारे फूफा. वे दलित थे, ससुराल में रहते थे, दूलम नाम था उनका. उनकी पत्नी गाँव के ज्यादातर लोगों की फुआ थीं. बूढ़े लोग उनका नाम लेते थे .. होली के दिन मिलने वाले कटहल की सब्जी और दाल की पूरी की याद आज भी मुझे होली के दिन अपने गाँव में जाने के लिए बेचैन कर देती है . मेरे गाँव में पढ़े लिखे लोग नहीं थे . केवल एक ग्रेजुएट थे पूरे गाँव में . बाद में उन्होंने पी एच डी तक की पढाई की . स्कूल जाने वाले सभी बच्चे उन्हीं डॉ श्रीराज सिंह को ही आदर्श मानते थे.
१९६७ में आई हरित क्रान्ति के साथ मेरे गाँव में लोगों के सन्दर्भ बदलना शुरू हुए. कुछ लोगों ने किसी तरह से कुछ पैसा कौड़ी इकठ्ठा करके औरों की ज़मीन खरीदना शुरू कर दिया . गरीबी का मजाक उड़ना शुरू हो गया और इंसानी रिश्ते हैसियत से जोड़ कर देखे जाने लगे. . मेरे गाँव के लोग कहा करते थे कि हमारे गाँव में कभी पुलिस नहीं आई थी. लेकिन ज़मीन की खरीद के साथ शुरू हुई बे-ईमानी के चलते फौजदारी हुई , सर फूटे, मुक़दमे बाज़ी शुरू हुई. और मेरा गाँव तरह तरह के टुकड़ों में विभाजित हो गया. . कुछ साल बाद गाँव के ही एक बुज़ुर्ग का क़त्ल हुआ . फिर गाँव के लोग कई खेमों में दुश्मन बन कर बँट गए . कुछ साल पहले जब मैं अपने गाँव गया था तो लगा कि कहीं और आ गया हूँ. मेरे आस्था के सारे केंद्र ढह गए हैं . लोग होली मिलने की रस्म अदायगी करते हैं . ज़्यादातर परिवारों के नौजवान किसी बड़े शहर में चले गए हैं . कुछ लड़कों ने पढ़ाई कर ली है लेकिन खेती में काम करना नहीं चाहते और बेरोजगार हैं . मेरे गाँव की तहसील पहले कादीपुर हुआ करती थी , नदी पार कर के जाना होता था . लेकिन अब तहसील ३ किलोमीटर दूर लम्भुआ बाज़ार में है. . मेरे गाँव के कुछ हों हरा लडके अब तहसील में दलाली कारते हैं . कुछ नौजवानों का थाने की दलाली का अच्छा कारोबार चल रहा है .. मेरा गाँव अब मेरे बचपन का गाँव नहीं है .लेकिन यहान दूर देश में बैठे मैं अपने उसी गाँव की याद करता रहता हूँ जो मेरे बचपन की हर याद से जुडा हुआ है .. जिसमें मेरी माँ का रोल सबसे ज्यादा स्थायी है . मेरी माँ जौनपुर शहर से लगे हुए एक गाँव के बहुत ही संपन्न किसान kee बेटी थीं, . मेरे नाना के खेत में तम्बाकू और चमेली की कैश क्रॉप उगाई जाती थी. और इस सदी की शुरुआत में वे मालदार किसान थे. १९३७ में उन्होंने अपनी बेटी की शादी अवध के एक मामूली ज़मींदार परिवार में कर दिया था . मेरे पिता के परिवार में शिक्षा को कायथ कारिन्दा का काम माना जाता था और जब मेरे माता- पिता की शादी के १४ साल बाद ज़मींदारी का उन्मूलन हो गया तब लगा कि सब कुछ लुट गया . सारा अपराध उसी गंधिया का माना जाता था , बाद में वही गंधिया मेरा देवता बना और आज मैं मानता हूँ कि अगर महात्मा गाँधी न पैदा हुए होते तो भारत ही एक न होता . मेरी माँ ने महात्मा गांधी को कभी गाली नहीं दी.लेकिन उसी वक़्त मेरी माँ को एहसास हो गया किशिक्षा होती तो गरीबी का वह खूंखार रूप न देखना पड़ता जो उसने जीवन भर झेला. बहरहाल अब मेरे गाँव में पहले जैसा कुछ नहीं है लेकिन हर होली के दिन मुझे अपने गाँव की याद बहुत आती है . क्या करूँ मैं ? ज़ाहिर है उस अपनेपन को याद करके पछताने के सिवा मेरे पास कोई रास्ता नहीं है .
होली के दिन मुझे अपने गाँव की बहुत याद आती है .सुलतान पुर जिले में मेरा बहुत छोटा सा गाँव है . उसका नाम कहीं भी सरकारी रिकॉर्ड में नहीं है . सरकारी रिकॉर्ड में पड़ोस के गाँव का नाम है . मेरा गाँव उसी का अटैचमेंट है.. मेरे बचपन में होली एक ऐसा त्यौहार था जब सारा गाँव साथ साथ हो जाता था. बाकी तो कोई त्यौहार इस रुतबे का नहीं होता था. हाँ अपनी बेटियों की शादी में पूरा गाँव एक साथ खड़ा रहता था..जब मैंने अपने गाँव के बाहर की दुनिया देखनी शुरू की तब मुझे लगने लगा था कि हमारा गाँव गरीब आदमियों का गाँव था. सन ६१ की जनगणना में मैं लेखपाल के साथ गेरू लेकर जुटा था. तब कुल २६ परिवार थे मेरे गाँव में .मैंने हर घर के सामने, जो भी लेखपाल जी ने बताया था,उसे गेरू से लिखा था.. . अब तो शायद ८० परिवार होंगें. खेत उतना ही . आबादी की ज़मीन उतनी ही . लेकिन जनसँख्या चार गुनी हो गयी है .. उन्ही २६ परिवारों के लोग होली के दिन ऐसे हो जाते थे जैसे एक ही घर के हों...मेरे गाँव में कई जातियों के लोग रहते थे. ब्राह्मणों की दो उप जातियां थीं,पाण्डेय और मिश्र ..ठाकुरों की पांच उपजातियां थीं, चौहान , गौतम ,बैस, परिहार और राजकुमार . नाऊ, कहार और दलितों के भी परिवार थे . .पूरे गाँव के लोग एक दूसरे के भाई, बहन , काकी, काका, बाबा, आजी, भौजी जैसे रिश्तों में बंधे थे . कई साल बाद मेरी समझ में यह बात आई कि यह सारे रिश्ते माने मनाये के थे . कहीं भी रिश्तेदारी का कोई आ़धार नहीं था.. गाँव में मेरे सबसे प्रिय थे हमारे फूफा. वे दलित थे, ससुराल में रहते थे, दूलम नाम था उनका. उनकी पत्नी गाँव के ज्यादातर लोगों की फुआ थीं. बूढ़े लोग उनका नाम लेते थे .. होली के दिन मिलने वाले कटहल की सब्जी और दाल की पूरी की याद आज भी मुझे होली के दिन अपने गाँव में जाने के लिए बेचैन कर देती है . मेरे गाँव में पढ़े लिखे लोग नहीं थे . केवल एक ग्रेजुएट थे पूरे गाँव में . बाद में उन्होंने पी एच डी तक की पढाई की . स्कूल जाने वाले सभी बच्चे उन्हीं डॉ श्रीराज सिंह को ही आदर्श मानते थे.
१९६७ में आई हरित क्रान्ति के साथ मेरे गाँव में लोगों के सन्दर्भ बदलना शुरू हुए. कुछ लोगों ने किसी तरह से कुछ पैसा कौड़ी इकठ्ठा करके औरों की ज़मीन खरीदना शुरू कर दिया . गरीबी का मजाक उड़ना शुरू हो गया और इंसानी रिश्ते हैसियत से जोड़ कर देखे जाने लगे. . मेरे गाँव के लोग कहा करते थे कि हमारे गाँव में कभी पुलिस नहीं आई थी. लेकिन ज़मीन की खरीद के साथ शुरू हुई बे-ईमानी के चलते फौजदारी हुई , सर फूटे, मुक़दमे बाज़ी शुरू हुई. और मेरा गाँव तरह तरह के टुकड़ों में विभाजित हो गया. . कुछ साल बाद गाँव के ही एक बुज़ुर्ग का क़त्ल हुआ . फिर गाँव के लोग कई खेमों में दुश्मन बन कर बँट गए . कुछ साल पहले जब मैं अपने गाँव गया था तो लगा कि कहीं और आ गया हूँ. मेरे आस्था के सारे केंद्र ढह गए हैं . लोग होली मिलने की रस्म अदायगी करते हैं . ज़्यादातर परिवारों के नौजवान किसी बड़े शहर में चले गए हैं . कुछ लड़कों ने पढ़ाई कर ली है लेकिन खेती में काम करना नहीं चाहते और बेरोजगार हैं . मेरे गाँव की तहसील पहले कादीपुर हुआ करती थी , नदी पार कर के जाना होता था . लेकिन अब तहसील ३ किलोमीटर दूर लम्भुआ बाज़ार में है. . मेरे गाँव के कुछ हों हरा लडके अब तहसील में दलाली कारते हैं . कुछ नौजवानों का थाने की दलाली का अच्छा कारोबार चल रहा है .. मेरा गाँव अब मेरे बचपन का गाँव नहीं है .लेकिन यहान दूर देश में बैठे मैं अपने उसी गाँव की याद करता रहता हूँ जो मेरे बचपन की हर याद से जुडा हुआ है .. जिसमें मेरी माँ का रोल सबसे ज्यादा स्थायी है . मेरी माँ जौनपुर शहर से लगे हुए एक गाँव के बहुत ही संपन्न किसान kee बेटी थीं, . मेरे नाना के खेत में तम्बाकू और चमेली की कैश क्रॉप उगाई जाती थी. और इस सदी की शुरुआत में वे मालदार किसान थे. १९३७ में उन्होंने अपनी बेटी की शादी अवध के एक मामूली ज़मींदार परिवार में कर दिया था . मेरे पिता के परिवार में शिक्षा को कायथ कारिन्दा का काम माना जाता था और जब मेरे माता- पिता की शादी के १४ साल बाद ज़मींदारी का उन्मूलन हो गया तब लगा कि सब कुछ लुट गया . सारा अपराध उसी गंधिया का माना जाता था , बाद में वही गंधिया मेरा देवता बना और आज मैं मानता हूँ कि अगर महात्मा गाँधी न पैदा हुए होते तो भारत ही एक न होता . मेरी माँ ने महात्मा गांधी को कभी गाली नहीं दी.लेकिन उसी वक़्त मेरी माँ को एहसास हो गया किशिक्षा होती तो गरीबी का वह खूंखार रूप न देखना पड़ता जो उसने जीवन भर झेला. बहरहाल अब मेरे गाँव में पहले जैसा कुछ नहीं है लेकिन हर होली के दिन मुझे अपने गाँव की याद बहुत आती है . क्या करूँ मैं ? ज़ाहिर है उस अपनेपन को याद करके पछताने के सिवा मेरे पास कोई रास्ता नहीं है .
Labels:
.सुलतान पुर,
जौनपुर,
महात्मा गाँधी.शेष नारायण सिंह
Subscribe to:
Posts (Atom)