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Tuesday, October 5, 2010

चुनाव में पेड न्यूज़ के चलते लोकशाही पर ही मुसीबत आ सकती है

शेष नारायण सिंह

सोमवार को सभी पार्टियों के नेताओं के साथ मुख्य चुनाव आयुक्त ने नयी दिल्ली में बैठक की और उनसे पैसा लेकर खबर लिखने और प्रकाशित करने की समस्या पर बात की. लगभग सभी पार्टियों की राय थी कि चुनाव आयोग ने जो खर्च पर सीमा बाँध दी है उसकी वजह से पेड न्यूज़ का सहारा लेना पड़ रहा है. नेताओं ने कहा कि जुलूस, पोस्टर,भोंपू और अखबारों में विज्ञापन पर लगे प्रतिबन्ध की वजह से सभी पार्टियां अपनी बात पंहुचाने के लिए कोई न कोई रास्ता तलाशती हैं और पेड न्यूज़ उसमें से एक है . नेताओं ने इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए चुनाव आयोग से आग्रह तो किया लेकिन यह भी सुझाव दिया कि इस से बचने का सबसे महत्वपूर्ण तरीका यह होगा अकी चुनाव आयोग प्रचार के पुराने तरीकों पर लगी पाबंदी पर एक बार और नज़र डाले और यह जांच करे कि क्या पुराने तरीकों की बहाली से हालात सुधारे जा सकते हैं .बी जे पी के प्रतिनिधि ने कहा कि पेड न्यूज़ की वजह से निष्पक्ष चुनाव की अवधारणा को ज़बरदस्त चुनौती मिल रही है और इसे फ़ौरन रोका जाना चाहिए . बी जे पी के इस सुझाव का सभी पार्टियों ने समर्थन किया . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बासुदेव आचार्य कि पेड न्यूज़ को भ्रष्ट आचरण की लिस्ट में डाल देना चाहिए जिस से अगर कोई पेड न्यूज़ के बाद चुनाव जीतता है तो उसका चुनाव रद्द किया जा सके. लेकिन उन्होंने कहा कि इस सारे खेल में पत्रकारों की सुरक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए और सज़ा का भागीदार मालिकों को ही बनाया जाना चाहिए क्योंकि पेड न्यूज़ में पैसा मीडिया संस्थानों के मालिक ही खाते हैं ,पत्रकार नहीं . उनका कहना था कि अगर यह सुनिश्चित न किया गया तो हर केस में बलि का बकरा पत्रकार ही बनाया जाएगा. बी जे पी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों पर उठ रहे सवालों की बाकायदा जांच करने का आग्रह किया और कहा कि कुछ ऐसा किया जाना चाहिए जिससे इन मशीनों में पड़े वोटों का कोई कागजी रिकार्ड भी बन जाय जिस से मन में उठ रही शंकाओं को शांत किया जा सके. चुनाव में धन की बढ़ रही भूमिका पर भी चिंता जताई गयी और चुनाव आयोग से निवेदन किया गया कि इस पर भी उनकी पूरा ध्यान जाना कहिये . मुद्दा राजनीति के अपराधीकरण का भी उठा लेकिन कोई भी पार्टी अपराधियों को चुनाव लड़ाने के बारे में संभावित सख्ती से सहमत नहीं थी . चुनाव आयोग समेत देश के सभी ठीक सोचने वाले लोगों में आमतौर पर एक राय है कि राजनीति के अपराधीकरण के ज़हर को ख़त्म करने के लिए पार्टियों को ही आगे आना पडेगा लेकिन अभी इस मसले पर राजनीतिक आम राय कायम होने में वक़्त लगेगा. राजनीति के अपराधीकरण के बाद सबसे बड़ा ज़हर मीडिया संस्थानों की पैसे लेकर खबर लिखने की प्रवृत्ति है. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि पेड़ न्यूज़ की वजह से लोकशाही की बुनियाद पर ही हमला हो रहा है. पिछले चुनावों में यह बात बहुत ज्यादा चर्चा में रही. नतीजा यह हुआ कि एक ही पेज पर उसी क्षेत्र के तीन तीन उम्मीदवारों की जीत की मुकम्मल भविष्यवाणी की खबरें छपी देखी गयीं. दिल्ली विधान सभा चुनाव के दौरान एक दिन एक बहुत बड़े अखबार में खबर थी कि मुख्य मंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ कोई राजीव जी पक्के तौर पर जीत रहे हैं .खुशी हुई कि चलो स्थापित सत्ता की एक बड़ी पैरोकार की हार से सत्ताधारियों को कुछ सबक मिलेगा. ढूंढ कर राजीव जी को तलाशा . एक राष्ट्रीय पार्टी के उम्मीदवार थे. अपनी जीत के प्रति वे खुद आश्वस्त नहीं थे बल्कि वे अपनी हार को निश्चित मान रहे थे .मैंने कहा कि अखबार में तो छपा है . उन्होंने कहा कि यह तो मैं आपके लिए भी छपवा दूंगा अगर आप सही रक़म अखबार के दफ्तर में जमा करवा दें . कई लोगों से इसका जिक्र किया. सबके पास ऐसी ही कहानियाँ थीं. उसके बाद तो दुनिया जान गयी कि पेड न्यूज़ का ग्रहण मीडिया को लग चुका है और वह लोकशाही के लिए दीमक का काम कर रहा है . अपने जीवन काल में प्रभाष जोशी ने पेड न्यूज़ के मामले पर बहुत काम किया था और जनमत बनाने की कोशिश की थी लेकिन जल्दी चले गए. अब भी बहुत सारे पत्रकार इस समस्या से चिंतित हैं और कोई राष्ट निकालने की कोशिश चल रही है . वरिष्ठ पत्रकार ,प्रनंजोय गुहा ठाकुरता इस सन्दर्भ में एक अभियान चला रहे हैं . उम्मीद की जानी चाहिये कि बहुत जल्दी पेड न्यूज़ की मुसीबत से भी लोकतंत्र को छुटकारा मिलेगा

Friday, March 12, 2010

सज्जन और मोदी के दरवाज़े न्याय की दस्तक

शेष नारायण सिंह


लोकतंत्र की ताक़त को कम करके आंकने वालों के उत्साह को बढाने के लिए वक़्त ने एक साथ दो अवसर प्रस्तुत कर दिया. लोकतंत्र की उपयोगिता पर सवाल उठा रहे लोग इस बात से परेशान थे कि राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ लोग अपनी मनमानी करते हैं और लोकतंत्र की संस्थाएं उनका कुछ नहीं बिगाड़ पातीं . जिसका नतीजा यह होता है कि आम आदमी के साथ अन्याय हो जाता है .जबकि आम आदमी को न्याय दिला सकना ही लोकशाही की सबसे पहली शर्त है . लेकिन जिस तरह से कानून ने सिख दंगों के अभियुक्त सज्जन कुमार को घेरा है उस से लोकशाही की संस्थाओं पर एक बार फिर भरोसा बढ़ा है. जिन लोगों ने १ नवम्बर से ३ नवम्बर १९८४ की दिल्ली देखी है , उन्हें उस वक़्त के दिल्ली के कांग्रेस के नेताओं को इंसान मानने में भी दिक्क़त होती है . अर्जुन दास, हरिकिशन लाल भगत,ललित माकन, सज्जन कुमार , जगदीश टाइटलर कुछ ऐसे नाम हैं जिनको सुनकर भी मेरे जैसे लोग बहुत साल बाद तक कांप जाते थे . दंगों के बाद कुलदीप नैय्यर , रोमेश थापर, श्रीमती धर्मा कुमार जैसे लोगों लोगों के नेतृत्व में शुरू हुए गैरसरकारी राहत के काम में शामिल होने के बाद त्रिलोक पुरी, मादी पुर , पंजाबी बाग़ , पश्चिम विहार , सफदरजंग इन्क्लेव आदि मुहल्लों में जो मरघट की शान्ति देखी गयी थी, वह आज भी बहुत तकलीफ दे जाती है . लेकिन उस आतंक के सूत्रधार कांग्रेसी नेता बहुत दिनों तक ऐश करते रहे. भगत, अर्जुन दास, ललित माकन आदि तो मर गए लेकिन कानून की ताक़त का अनुभव करने के लिए अभी कुछ लोग बचे हैं , सज्जन कुमार उसी खेप के एक कांग्रेसी हैं. जिस तरह से उनके चारों तरफ कानून का घेरा बन रहा है ,उस से लगता है कि लोकशाही की संस्थाएं अपना काम कर रही हैं. सज्जन कुमार को बहुत लोगों ने भीड़ को उकसाते देखा था लेकिन ज़्यादातर लोग कन्नी काट गए. बहरहाल आज लोकतंत्र की प्रमुख संस्था ,न्यायपालिका अपना काम कर रही है और यह सुकून की बात है .


सज्जन कुमार से ज्यादा खूंखार मनमानी के एक और उदाहरण हैं , श्री नरेंद्र मोदी . उनके बारे में कहा जाता है कि फरवरी २००२ के गुजरात नरसंहार की स्क्रिप्ट उनकी निगरानी में ही लिखी गयी थी . लेकिन उन्होंने कहीं भी अपने क़दमों के निशान नहीं छोड़े थे , इसलिए कानून उनका कुछ भी नहीं बिगाड पा रहा था. अब खबर आई है कि लोकशाही के प्रमुख स्तम्भ , सुप्रीम कोर्ट ने मोदी के दरवाज़े पर भी कानून की ताक़त की दस्तक दिलवा दी है .उस वक़्त तक लोकसभा के सदस्य रहे, एहसान जाफरी को उनके ही घर में जिंदा जला डालने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने , स्वर्गीय एहसान जाफरी की पत्नी, ज़किया जाफरी की अर्जी पर सुनवाई के दौरान एस आई टी को आदेश दिया है कि नरेंद्र मोदी को समन भेज कर बुलाया जाए और उनसे पूछताछ की जाए. इस मामले में दर्ज एफ आई आर में नरेंद्र मोदी का नाम नहीं है . इसका मतलब यह हुआ कि उन्हें अभियुक्त के रूप में नहीं बुलाया जा सकता , उन्हें बतौर गवाह पेश होना है . हाँ अगर तफ्तीश के दौरान जांच अधिकारी को लगा कि अपराध में उनके शामिल होने के कुछ कारण हैं तो उनसे मुलजिम ( मुज़रिम नहीं ) के तौर पूछताछ की जा सकती है .


सवाल यह नहीं है कि मोदी या सज्जन कुमार जैसे लोगो को सज़ा क्या होगी. उनकी दोनों की पार्टियां देश की राजनीतिक सत्ता के सबसे महत्व पूर्ण संगठन हैं . दुर्भाग्य यह है कि दोनों ही लोगों की पार्टियां उनको बचाने की पूरी कोशिश कर रही हैं.लेकिन लोकशाही के समर्थकों के लिए संतोष का विषय यह है कि कानून की सर्वोच्चता का अनुभव सज्जन कुमार और मोदी जैसों को भी हो रहा है और यही लोकतंत्र के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क है .राजनीतिक नेताओं के अपराध को न्याय की परिधि में लाने का जो काम लोकशाही की संस्थाएं कर रही हैं ,वह निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है . ज़ाहिर है लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का भी इसमें कम योगदान नहीं है .. १९८६ के बाद जब बी जे पी ने आक्रामक हिंदुत्व को राजनीतिक हथियार के रूप में अपनाने का फैसला किया तब से ही देश में राजनीतिक बाबाओं का भारी आतंक था . आर एस एस के संगठनों ने इन बाबाओं का पूरा राजनीतिक इस्तेमाल किया और देश की धर्मपरायण जनता को अपने साथ राजनीतिक रूप से इकठ्ठा करने के लिए इन बाबाओं को आगे भी किया. उन दिनों आज की तरह न्यूज़ चैनल नहीं होते थे .. टेलीविज़न सरकारी था और बाबा लोगों के बारे में जो भी अखबारों में छपता था, सीधे सादे लोग विश्वास करते थे . लेकिन आजकल पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से मीडिया ने बाबाओं को घेरा है और न्याय की सीमा में लाने की कोशिश की है , वह भी काबिले-तारीफ़ है . मीडिया का यह काम लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करता है... वह लोकतंत्र के हित में है .. उम्मीद की जानी चाइये कि आने वाले वक़्त बी जे पी जैसी पार्टियां भी अपने राजनीतिक कार्य में बाबापंथी का धंधा करने वालों को दूर रखेंगें . क्योंकि इन्हें इस्तेमाल करने में ख़तरा यह रहेगा कि पता नहीं कब नए युग का कौन सा मीडिया सारी पोल पट्टी खोल दे. . सेक्स के धंधे में लगे हुए बाबाओं को अब शायद ही राजनीति में जगह मिल पायेगी. इस लिए अरुंधती रॉय टाइप लोगों को लोकशाही के खिलाफ लाठी भांजने से बाज़ आना चाहिये

Friday, November 27, 2009

राजनीति की सर्वोच्चता के बिना लोकशाही संभव नहीं

शेष नारायण सिंह

केंद्र सरकार ने एक ऐसी स्कीम बनायी है जिसके हिसाब से अब मंत्रियों के काम काज की समीक्षा की जायेगी.. कैबिनेट सचिवालय की ओर से एक कागज़ तैयार किया गया है जिसके अनुसार अब सभी मंत्रियों के काम की ग्रेडिंग की जायगी और उसके आधार पर उन्हें नंबर दिए जायेंगें. रिजल्ट फ्रेमवर्क डाक्यूमेंट नाम की इस योजना का उद्देश्य मंत्रियों को अनुशासन में रखना और उन्हें अच्छे काम के लिए उत्साहित करना बताया गया है. आजकल राजनेताओं के बारे में जनता की राय बहुत अच्छी नहीं होती इसलिए उनको सज़ा देने की इच्छा लगभग हर आदमी में रहती है. इस तरह की नकेल लगेगी तो जनता को खुशी होगी . इस योजना के सफल या असफल होने के बारे में बहस करने को कोई मतलब नहीं है .लेकिन इतना तय है कि अगर यह योजना लागू हो गयी तो अपने देश की सत्ता को चला रही नौकरशाही के हाथ एक ऐसा हथियार लग जाएगा जिसे इस्तेमाल करने की धमकी दे कर अफसर लोग नेताओं को हड्काने का काम करेंगे . अगर ऐसा हुआ तो यह लोकशाही के सपने के मुंह पर एक ज़ोरदार थप्पड़ होगा. यह एक फैसला आज़ादी की लड़ाई की मूल भावना को पलट देने की ताक़त रखता है...

इस बात में दो राय नहीं है कि आज के हमारे नेता अपनी विश्वसनीयता गँवा चुके हैं लेकिन उनके ऊपर नौकरशाही की सलीब लादना ठीक नहीं होगा... सच्ची बात यह है कि कैबिनेट सचिवालय की ओर आया हुआ प्रस्ताव बहुत ही साधारण सी भाषा में है . अगर हल्ला गुल्ला शुरू हो गया तो नौकरशाही के शीर्ष पर बैठे लोग साफ़ कह देंगें कि शासन व्यवस्था के सुधार के लिए एक कोशिश की जा रही थी . अगर जनमत इसके खिलाफ है तो प्रताव पर आगे काम नहीं किया जाएगा. लेकिन अगर यह प्रस्ताव आगे बढ़ गया तो हमेशा के लिए कार्यपालिका के ऊपर नौकरशाही के दबदबे का इंतज़ाम हो जाएगा. इसलिए इस देश के राजनीतिक नेता वर्ग को चाहिए कि इस तरह से लगाम लगाने की कोशिश को फ़ौरन रोकें और अपने आप को दुरुस्त करने के लिए कोशिश शुरू कर लें वरना एक बार अगर अफसरशाही का शिकंजा कस गया तो बचने की सारी संभावनाएं हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेंगी... अभी शायद नेताओं को यह खेल समझ में नहीं आ रहा है लेकिन अगर ऐसा हो गया तो उसकी भयानकता का अंदाज़ लगा पाना मुश्किल होगा. ट्रेलर के तौर पर उत्तर प्रदेश सरकार के काम काज के बारे में जानकारी लेना ठीक होगा . वहां एक दौर ऐसा आया जब राजनीतिक प्रबंधन के कारण अपराधियों को मंत्री बनाने का सिलसिला शुरू हो गया . आज आलम यह है कि वहां अफसर जो चाहता है, वही होता है और सम्बंधित मंत्री को अपने ही विभाग के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए या तो अपने विभाग के प्रमुख सच्चिव से पूछना पड़ता है और या मुख्य मंत्री के दफ्तर में उसके विभाग के इंचार्ज सचिव से पूछना पड़ता है. जहां तक फैसले लेने की बात है, वह तो पूरी तरह से अफसरों के हाथ में ही है . वे सीधे मुख्य मंत्री को रिपोर्ट करते हैं . राजनीतिक शक्ति के इस क्षरण के लिए राजनीतिक नेता ही ज़िम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने अपनी उस शक्ति का सही इस्तेमाल नहीं किया जो उनको लोकतंत्र की वजह से मिली हुई थी. यह वही उत्तर प्रदेश है जहां साठ के दशक मे बहुत बड़े एक अफसर को कैबिनेट के एक मंत्री ने इस लिए सज़ा दे दी थी कि उसने एक ब्लाक प्रमुख के लिये अपशब्दों का प्रयोग कर दिया था. उस वक़्त के मुख्य मंत्री स्वर्गीय चन्द्रभानु गुप्त ने कार्रवाई की सख्ती को कम करने की कोशिश की थी लेकिन आज़ादीकी लड़ाई में शामिल रह चुके राजनेताओं का जलवा ऐसा था कि बात राजनीतिक बॉस की ही चली ..

इसलिए राजनीतिक नेताओं पर नौकरशाही की लगाम लगाने की कोशिश की मुखालिफत की जानी चाहिए.. राजनीति में शामिल होने वाला व्यक्ति सब कुछ छोड़कर वहां जाता था लेकिन आजकल तो यह धंधा हो गया है इसके लिए भी राजनीतिक कमिसार के रूप में विकसित हो रहे कुछ अफसर ही ज़िम्मेदार हैं जो राजनीतिक ताक़त के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति को साध लेते हैं और फिर सत्ता को अपने इशारों पर घुमाते हैं .. आज़ादी की लड़ाई का इथोस ऐसा था कि मान लिया गया था कि जो व्यक्ति कैबिनेट दर्जे का मंत्री बनाया जाएगा वह अप्रमेय होगा, उसे किसी की सर्टिफिकेट की ज़रुरत नहीं होगी. वह लोकशक्ति का प्रतिनधि होगा और लोकराज की व्यवस्था में सबसे ऊपर विराजमान होगा. उसकी ख्याति कस्तूरी जैसी होगी जसके बारे में किसी को बताने की ज़रुरत नहीं होगी. उसका यश स्वयमेव विख्यात होगा. लोकनीति के निर्धारण की उसकी क्षमता अद्वितीय होगी .और वह लोकशक्ति का सच्चा प्रतिनिधि होगा. सरकारी नौकर उसकी नीतियों को निर्धारित करने में कोई भूमिका नहीं निभाएगा . वह केवल मंत्री का आदेश पाकर उसे लागू करने का काम करेगा. यह इस देश का दुर्भाग्य है कि हम एक देश के रूप में इस तरह की अप्रमेय योग्यता वाले सौ पचास लोगभी राजनीति के क्षेत्र तक नहीं पंहुचा सकते. इसीलिए संविधान में व्यवस्था थी कि प्रधान मंत्री जब तक संतुष्ट रहेगा तभी तक कोई मंत्री अपने पद पर बना रह सकता है .लेकिन यहाँ तो हालात बिलकुल अलग हैं. केंद्रीय मंत्रिमंडल में कुछ ऐसे मंत्री भी हैं जिनको प्रधान मंत्री किसी भी सूरत में अपने साथ नहीं रखना चाहते लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के चलते उन्हें झेल रहे हैं . इसी का फायदा उठाकर नौकरशाही ने अपनी चाल चल दी है . देखना यह है कि क्या इस देश में पीछे रास्ते से एक बार फिर से नौकरशाही की हुकूमत कायम हो जायेगी .. अगर राजनीतिक नेता संभले नहीं तो यह खतरा जितना आज है उतना कभी नहीं था. .हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि राजनेता को जनता चुनती है और वहीं जनता पर राज करने क अधिकारी होता है . उसके अधिकार को कुचलने की हर कोशिश का विरोध किया जाना चाहिए.