शेष नारायण सिंह
इस बार लखनऊ यात्रा दिलचस्प रही. मेरे संपादकजी ने सुझाया कि मुद्राराक्षस से भी मुलाक़ात हो सकती है . ३५ साल का बाइस्कोप याद की नज़रों में घूम गया . दिल्ली के श्रीराम सेंटर में १९७६ में मैं मुद्राराक्षस को पहली बार देखा था . वे मेकअप में थे.गोगोल का नाटक " इन्स्पेक्टर जनरल " ले कर आये थे. चाटुकार राजनीति और नौकरशाही पर भारी व्यंग्य था . नाम दिया था ' आला अफसर '. उन दिनों ' आला अफसर ' शीर्षक खूब माकूल लग रहा था. इमरजेंसी लग चुकी थी . इंदिरा गाँधी और उस वक़्त के युवराज संजय गांधी का आतंक राजधानी के हर कोने में देखा जा सकता था . लोकतंत्र में लोक के प्रतिनिधि सांसदों का भीगी बिल्ली बनने का प्रोजेक्ट शुरू हो चुका था .नौकरशाही अपनी मनमानी के नए तरीकों पार काम शुरू कर चुकी थी. दिल्ली नगर निगम के कमिश्नर बहादुर राम टमटा, दिल्ली विकास प्राधिकारण के मुखिया जगमोहन और दिल्ली पुलिस में भिंडर नाम के एक पुलिस वाले का आतंक था . सभी आला अफसर थे, मुद्राराक्षस के 'आला अफसर' की करतूतें श्रोता वर्ग में बैठे दिल्ली वालों को भोगा हुआ यथार्थ लग रही थीं . मुराद यह कि 'आला अफसर' की याद ऐसी थी जिसको कि भुलाना आसान नहीं है. नौटंकी शैली में पेश की गयी इस प्रस्तुति में मुद्राराक्षस ने ' चाँद सा एक मुखड़ा पहलू में हो' वाले गाने की कपाल क्रिया की थी. वह बहुत ही आला थी. मुद्रा जी की ऊंचाई तो दुनिया जानती है , किसी भी पैमाने से उन्हें लम्बा नहीं कहा जा सकता लेकिन उनके साथ जो बल्लो भाई थे वे छः फीट से भी ज्यादा लम्बे थे. जब दोनों बा आवाज़े बुलंद, " चाँद सा के मुखड़ा पहलू में हो ,इसके आगे हमें नहीं आता है " की टेर लगाते थे तो लगता था कि हर तरह के पल्प साहित्य और संस्कृति के खिलाफ मोर्चा खोलने का आवाहन किया जा रहा हो.
मुद्रा राक्षस का यह तसव्वुर लेकर मैं अपने संपादक श्री के साथ नाका हिंडोला से रानी गंज चौराहे की तरफ बढ़ा. संपादक जी का जो ड्राइवर उनको पहले लेकर मुद्रा जी के यहाँ आया रहा होगा ,आज वह नहीं था . ज़ाहिर है नए ड्राइवर को जगह के बारे में जानकारी नहीं थी.हमारे पास घर का नंबर नहीं था और मोहल्ले का नाम नहीं था. बस संपादक जी की ऊह का पाथेय लेकर हम चल पड़े थे.. संपादक जी ने एक ऐसा मोड़ याद कर लिया था जिस पर मुड़ जाने पर मुद्राराक्षस का घर आ जाता है . लेकिन कुछ चूक हो गयी .कोई दूसरा मोड़ ले लिया गया . उसी मोड़ की घुमरी परैया में हम घूमते रहे. संपादक जी की प्रतिभा का मैं लोहा तब मान गया जब दो एक बार परिक्रमा करने के बाद वे आखिर में मुद्रा जी के घर के सामने प्रकट हो गए.
इतनी परेड के बाद मुद्राराक्षस से जो मुलाक़ात हुई वह मेरे जीवन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है . करीब एक घंटे हम उनके साथ रहे. बहुत सारे विषयों पर बातें हुईं. आजकल इस्लाम में हदीस के मह्त्व या उस से जुड़े हुए विषयों पर कोई किताब लिखने की योजना पर काम रहे हैं . धर्म की बात शुरू हो गयी तो बताया कि सभी धर्म को मानने वालों के अपने अपने सम्प्रदाय हैं , सब के ईश्वर हैं ,सब का सामाजिक तंत्र है . एक बार उन्होंने सुझाव दिया था कि अनीश्वर वादियों का एक सम्प्रदाय क्यों न बनाया जाए. लेकिन बात इस पर आकर अंटक गयी कि वहां भी उस सम्प्रदाय के कर्ता धर्ता द्वारा अपने आपको ईश्वर घोषित कर देने के खतरे बने हुए रहते हैं . प्रभाकर का ज़िक्र आया जो अपने आप को अनीश्वरवादियों का ईश्वर घोषित ही कर चुके थे. उन्होंने कहा कि आम तौर पर धर्म हिंसा की बात ज़रूर करता है . मैंने कहा कि हिन्दू धर्म में तो हिंसा नहीं है . आप ने फट जवाब दिया कि हिन्दू धर्म के मूल में ऋग्वेद है और उसकी कई ऋचाओं में विरोधी को मार डालने की बात कही गयी है . इसलिए धर्म के सहारे शान्ति की उम्मीद करने का को मतलब नहीं है .
मुद्राराक्षस से बात चीत के दौरान साफ़ समझ में आ रहा था कि वे हिन्दी साहित्य और भाषा की मठाधीशी परम्परा से बहुत दुखी हैं. कहने लगे कि यह तो बड़ा अच्छा हुआ कि सुभाष राय के संपादकत्व में हिन्दी का सही दिशा में कुछ काम हो रहा है . हालांकि यह भी कहते पाए गए कि डर लगता है कि कहीं यह बंद न हो जाए . मुद्राराक्षस का इस बात का बहुत बुरा मानते हैं कि आजकल हिन्दी आलोचना को ब्लैकमेल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है . उन्होंने नाम लेकर बताया कि किस तरह से आलोचक शिरोमणि महोदय अपने चेलों को प्रमोट करने के लिए आलोचना का इस्तेमाल करते हैं . शिष्टाचार का तकाज़ा है कि यहाँ इन ब्लैकमेलर जी का नाम न छापा जाए. मुद्राराक्षस को मालूम है कि अपने चेलों को स्थापित करने के लिए प्रकाशकों को धमकाया भी जाता है . हिन्दी की प्रेमचंद वाली पत्रिका के मठाधीश के प्रति तो उनकी वाणी मधुर थी लेकिन चेले पालने की उनकी तन्मयता के बारे में उन्होंने उसी कबीरपंथी ईमानदारी के साथ बात की.
पिछले दिनों हिन्दी पखवाड़े के दौरान लखनऊ के एक सरकारी हिन्दी कार्यक्रम में हुई चर्चा की भी बात हुई. वहां उनको एक सरकारी अफसर टाइप जीव मिल गए थे जिन्होंने मुद्रा जी को बताया कि वे हिन्दी का पुण्यस्मरण करने के लिए इकट्ठा हुए हैं. जब इस अफसर को याद दिलाया गया कि पुण्यस्मरण को मृत लोगों का किया जाता है तो वे बेचारे अफसर बगलें झांकते नज़र आये. मुद्रा जी मानते हैं कि हिन्दी क्षेत्र में आज हिन्दी की जो दुर्दशा है उसके लिए हिन्दी वालों के साथ साथ सरकारी अफसरों की हिन्दी नवाजी की लालसा भी बहुत हद तक ज़िम्मेदार है . भाषा के वर्गीकरण के बारे में भी वे दुखी थे. अवधी, ब्रज भाषा और भोजपुरी में लिखे गए हिन्दी के श्रेष्ठतम साहित्य को हिन्दी जगत अपना तो बताता है लेकिन इन भाषाओं को बोली कह कर हिन्दी का बहुत नुकसान करता है . तुलसीदास के रामचरित मानस की बात भी हुई . कहने लगे कि तुलसीदास के दृष्टिकोण से असहमत हुआ जा सकता है लेकिन उनकी काव्यशक्ति का सम्मान तो करना ही पडेगा. जब मैंने कहा कि विषय की भी अपनी अपील है तो कहने लगे कि उस विषय पर उसी काल में और उसके बाद बहुत कुछ लिखा गया लेकिन किसी को भी वह रुतबा नहीं मिला जो तुलसी की काव्यशक्ति की वजह से उनको मिला है .मुलाक़ात के अंत में मुझे अपनी कुछ किताबें दीं और हम वापस चल पड़े.
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Sunday, October 9, 2011
Monday, March 1, 2010
मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा!
कवि ,लेखक और चिन्तक अरविन्द चतुर्वेद का यह शाहकार मुझे इतना अच्छा लगा कि मन ने कहा , हाय हसन ,हम न हुए. बिना उनको बताये, इसे अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ. देखें क्या होता है .
http://yaarkahani.blogspot.com/2010/02/blog-post_28.html
अरविंद चतुर्वेद
सृष्टि की सर्वोत्तम रचना होकर भी पुरूष रंगों के मामले में प्रकृति से कई हाथ पीछे है। प्रकृति हमसे कहीं ज्यादा रंगीन है। उसके खजाने में रंग ही रंग हैं। आदमी ने रंगों के आचरण का पहला पाठ भी प्रकृति से ही पढ़ा होगा। यानी रंगों की पाठशाला में प्रकृति की भूमिका शिक्षक की है और पुरूष की महज एक छात्र की। भांति-भांति के पशु-पक्षी हमसे ज्यादा रंग-बिरंगे हैं और तितलियां तो खैर उड़ते-थिरकते रंग ही हैं। हालांकि ये सब न फैशन शो लगाते हैं और न कैटवाक करते हैं। इसकी जरूरत हमें पड़ती है, क्योंकि जैसे-जैसे आदमी के भीतर के रंग गायब होते जाते हैं, वैसे-वैसे वह बाहर ही बाहर रंग तलाशने लगता है। मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा! लेकिन यह जरा दार्शनिक किस्म की बात हो गई, इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं।
फिर भी होली का त्यौहार है- रंगों का उत्सव, तो भीतरी रंग के लिए कबीर को याद करना ही पड़ेगा- लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल/ लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल। ऐसी सम्पूर्ण रंगीनी क्यों नहीं है हमारे मिजाज में? पहले थी लेकिन आज क्यों नहीं है। एक तरफ तो आदमी के भीतर के रंग सूखते जा रहे हैं और दूसरी ओर वे राजनीति और साम्प्रदायिकता के शिकार होते गए हैं। एक सम्प्रदाय हरे रंग का दीवाना है तो दूसरा केशरिया रंग ले उड़ा है। जिसे दोनों सम्प्रदायों की राजनीति करते हुए अपनी रोटी सेंकनी है, वह दुरंगा हो गया है। एक मोहतरमा तो नीले रंग पर कब्जा जमाकर नीलिमा ही बन बैठी हैं। इस बदरंग परिदृश्य में भीतर के रंग सूखगें नहीं तो क्या होगा?
हाय, कहां हो नीलांजना! होली का त्यौहार है और तुम उदास खोई-खोई-सी बैठी हो? वेलेंटाइल डे जैसे प्रेम दिवस को पानी पी-पीकर कोसने वाले संस्कृति के वीर बांकुड़े होली के हास-उल्लास, रंग-उमंग और रस रंग को बनाए रखने के लिए क्या कर रहे हैं? राग फाग गाते हुए, अबीर गुलाल उड़ाते हाथों में रंग पिचकारी लिए सबको रंगों में सराबोर कर देने के लिए क्या उनकी टोलियां सड़कों पर निकलेंगी? उनके मन में वेलेंटाइन के प्रति केवल घृणा भरी है, विद्वेष और उन्माद ही भरा है या होलिकोत्सव के लिए वह राग-अनुराग भी है, जो सबको प्रेम के रंग में सराबोर कर दे! कहीं उनकी होली की तैयारी क्यों नहीं है, जो ढोल-मंजीरा बजाते हुए फाग गा सकते हैं। अधिक से अधिक यही होगा कि होली पर फिल्मों के गाने बजेंगे-होली आई रे कन्हाई या फिर रंग बरसे, भीजे चुनर वाली..., थोड़ा हुल्लड़ होगा, कुछ लोग रंग में भंग करेंगे और होली की जैसे-तैसे रस्म अदा कर दी जाएगी। सच्चाई तो यह है कि दूसरे लोकोत्सवों और तीज-त्यौहारों की तरह होली पर भी हमारी पकड़ ढीली पड़ती जा रही है।
दरअसल, रंगों का त्यौहार होली हो या दूसरे लोकोत्सव हों, सभी प्रकृति के सहचार में उपजी संस्कृति के ही अंग हैं। चूंकि आज हम प्रकृति विरोधी हो गए हैं इसलिए तीज-त्यौहारों की संस्कृति भी हमसे गाहे बगाहे छूटती जा रही है। गांवों के विनाश की कीमत पर जिस शहरी संस्कृति का हमने विकास किया है, उसमें प्रकृति का तो कोई स्थान है नहीं, लिहाजा हमारे तीज-त्यौहार या तो उसमें अनफिट हो जाते हैं या फिर उनका स्वरूप विकृत हो जाता है। हम जितने बड़े शहर में रहते हैं, तीज-त्यौहारों से हमारी दूरी भी उतनी ही बढ़ जाती है। उसकी आत्मा, उसका मन, जीवन के राग, उमंग, उल्लास सभी उससे विदा ले लेते हैं। आदमी महज एक कामकाजी मशीन बनकर रह जाता है और त्यौहार प्रकृति की छांह से अनाथ होकर आदमी के लिए आनंदोत्सव के बजाय पीड़ादायक अनुभूति बन जाते हैं। लाखों की भीड़ में जहां आदमी इतना अकेला हो गया है कि एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी को पहचानता तक नहीं, जहां लोक ही नहीं बसता, वहां लोकोत्सव कैसे जीवित रह सकते हैं? आज हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों की सभ्य सड़कों पर होली मनाने वाले अलमस्तों की टोली ढोलक-मंजीरे की ताल पर रंग-गुलाल उड़ाते, फाग गाते, नाचते-झूमते निकले और सबको रंग-उमंग से सराबोर कर दे! हां, यह जरूर है कि महानगरों की उन बस्तियों में जहां आज भी गांवों का बचा-खुचा हस्तक्षेप है, तीज-त्यौहार के मौके पर एक चहल-पहल हो जाया करती है। दिल्ली-मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों में ये इलाके शहर सीमांत पर या पुरानी बस्तियों के रूप में हैं। वरना शहरीकरण की प्रक्रिया में पनपी अपदूषण की संस्कृति में लोक उत्सव और लोकगीतों की जगह ही कहां है। भौतिकता में ऊभचूभ करती शहरी संस्कृति में हर चीज उत्पादन और खरीद-फरोख्त के दायरे में है, सो इस उत्पादक और बाजार मनोवृत्ति की छाया में तीज-त्यौहारों का रूप भी बदला और विकृत हुआ है। होली में प्राकृतिक रंगों की जगह वार्निश, रासायनिक रंग, पिचकारियों के स्थान पर रंग भरे गुब्बारे फें क कर दूसरे को रंग देना और लोकरंग में सराबोर फाग के रसिया की जगह शोर भरे फिल्मी गानों के कैसेट पर फूहड़ ढंग से कूल्हे लचकाकर उछल-कूद करते युवक - आम शहरी होली की यही तस्वीर है। असल में प्रकृति की सहचारिता को छोड़कर भौतिकता का बीमार आदमी जो इकतरफा खेल खेल रहा है, उसमें लोकजीवन की उष्मा और आत्मा को बचाया ही नहीं जा सकता। महानगरों की बात छोड़ भी दें तो लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, कानपुर, पटना, रांची, जबलपुर जैसे मंझोले दर्जे के शहरों में भी गांवों के लोक जीवन का हस्तक्षेप दिन-प्रतिदिन तेजी से घटता गया है। इन शहरों का स्वभाव भी ग्रामोन्मुखी न होकर महानगरोन्मुखी होता गया है। इसीलिए इन शहरों में भी दस बरस पहले होली के राग-रंग में जो स्वाभाविता और अंतरंगता दिखाई पड़ती थी, उसकी जगह अब फूहड़ कृत्रिमता और प्रदर्शनप्रियता की झलक मिलती है। चूंकि त्यौहार सामाजिकता की अभिव्यक्ति होते हैं और शहर में आदमी का सामाजिक होना आधुनिकता के लिहाज से पिछड़ापन है, इसलिए होली जैसे उन्मुक्तता और उमंग के उत्सव में असामाजिकता का शहरों में भयानक ढंग से प्रवेश हुआ है। शायद होली ही हमारा एक ऐसा पर्व है जिसमें स्त्रियों की भागीदारी सबसे कम होती है। विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थाओं में होली के चार-पांच दिन पहले से ही लड़कियों का आना बंद हो जाता है। यह त्यौहार उनके लिए आक्रामक होता है। होली के अवसर पर स्त्रियों के अंगों का बखान करने वाले जिस तरह के द्विअर्थी गीत-संगीत के कैसेट नंगी भाषा में सार्वजनिक तौर पर पेश किए जाते हैं, वे इस हद तक स्त्री विरोधी होते हैं कि उन्हें सुनने और झेलने का साहस कोई स्त्री जुटा ही नहीं सकती। क्या हम होलिकात्सव में आई विकृतियों को दूसरे प्रदूषणों की तरह ही दूर करने की चिंता के साथ एक स्वस्थ सुंदर जीवन-पर्यावरण रचने का सांस्कृतिक पराक्रम नहीं दिखा सकते? तनी हुई रस्सी पर नट-खेल की अभ्यासी हमारी कसी हुई दिनचर्या के तनाव को ढीला कर हमें उन्मुक्त और अनौपचारिक बनाकर राग-अनुराग और उमंग-उल्लास से भर देने वाला रंगोत्सव दस्तक दे रहा है। आइए, सारी कुंठाएं मिटाकर हम इसका स्वागत करें और अपने को इसके योग्य बनाएं।
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अरविंद चतुर्वेद
सृष्टि की सर्वोत्तम रचना होकर भी पुरूष रंगों के मामले में प्रकृति से कई हाथ पीछे है। प्रकृति हमसे कहीं ज्यादा रंगीन है। उसके खजाने में रंग ही रंग हैं। आदमी ने रंगों के आचरण का पहला पाठ भी प्रकृति से ही पढ़ा होगा। यानी रंगों की पाठशाला में प्रकृति की भूमिका शिक्षक की है और पुरूष की महज एक छात्र की। भांति-भांति के पशु-पक्षी हमसे ज्यादा रंग-बिरंगे हैं और तितलियां तो खैर उड़ते-थिरकते रंग ही हैं। हालांकि ये सब न फैशन शो लगाते हैं और न कैटवाक करते हैं। इसकी जरूरत हमें पड़ती है, क्योंकि जैसे-जैसे आदमी के भीतर के रंग गायब होते जाते हैं, वैसे-वैसे वह बाहर ही बाहर रंग तलाशने लगता है। मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा! लेकिन यह जरा दार्शनिक किस्म की बात हो गई, इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं।
फिर भी होली का त्यौहार है- रंगों का उत्सव, तो भीतरी रंग के लिए कबीर को याद करना ही पड़ेगा- लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल/ लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल। ऐसी सम्पूर्ण रंगीनी क्यों नहीं है हमारे मिजाज में? पहले थी लेकिन आज क्यों नहीं है। एक तरफ तो आदमी के भीतर के रंग सूखते जा रहे हैं और दूसरी ओर वे राजनीति और साम्प्रदायिकता के शिकार होते गए हैं। एक सम्प्रदाय हरे रंग का दीवाना है तो दूसरा केशरिया रंग ले उड़ा है। जिसे दोनों सम्प्रदायों की राजनीति करते हुए अपनी रोटी सेंकनी है, वह दुरंगा हो गया है। एक मोहतरमा तो नीले रंग पर कब्जा जमाकर नीलिमा ही बन बैठी हैं। इस बदरंग परिदृश्य में भीतर के रंग सूखगें नहीं तो क्या होगा?
हाय, कहां हो नीलांजना! होली का त्यौहार है और तुम उदास खोई-खोई-सी बैठी हो? वेलेंटाइल डे जैसे प्रेम दिवस को पानी पी-पीकर कोसने वाले संस्कृति के वीर बांकुड़े होली के हास-उल्लास, रंग-उमंग और रस रंग को बनाए रखने के लिए क्या कर रहे हैं? राग फाग गाते हुए, अबीर गुलाल उड़ाते हाथों में रंग पिचकारी लिए सबको रंगों में सराबोर कर देने के लिए क्या उनकी टोलियां सड़कों पर निकलेंगी? उनके मन में वेलेंटाइन के प्रति केवल घृणा भरी है, विद्वेष और उन्माद ही भरा है या होलिकोत्सव के लिए वह राग-अनुराग भी है, जो सबको प्रेम के रंग में सराबोर कर दे! कहीं उनकी होली की तैयारी क्यों नहीं है, जो ढोल-मंजीरा बजाते हुए फाग गा सकते हैं। अधिक से अधिक यही होगा कि होली पर फिल्मों के गाने बजेंगे-होली आई रे कन्हाई या फिर रंग बरसे, भीजे चुनर वाली..., थोड़ा हुल्लड़ होगा, कुछ लोग रंग में भंग करेंगे और होली की जैसे-तैसे रस्म अदा कर दी जाएगी। सच्चाई तो यह है कि दूसरे लोकोत्सवों और तीज-त्यौहारों की तरह होली पर भी हमारी पकड़ ढीली पड़ती जा रही है।
दरअसल, रंगों का त्यौहार होली हो या दूसरे लोकोत्सव हों, सभी प्रकृति के सहचार में उपजी संस्कृति के ही अंग हैं। चूंकि आज हम प्रकृति विरोधी हो गए हैं इसलिए तीज-त्यौहारों की संस्कृति भी हमसे गाहे बगाहे छूटती जा रही है। गांवों के विनाश की कीमत पर जिस शहरी संस्कृति का हमने विकास किया है, उसमें प्रकृति का तो कोई स्थान है नहीं, लिहाजा हमारे तीज-त्यौहार या तो उसमें अनफिट हो जाते हैं या फिर उनका स्वरूप विकृत हो जाता है। हम जितने बड़े शहर में रहते हैं, तीज-त्यौहारों से हमारी दूरी भी उतनी ही बढ़ जाती है। उसकी आत्मा, उसका मन, जीवन के राग, उमंग, उल्लास सभी उससे विदा ले लेते हैं। आदमी महज एक कामकाजी मशीन बनकर रह जाता है और त्यौहार प्रकृति की छांह से अनाथ होकर आदमी के लिए आनंदोत्सव के बजाय पीड़ादायक अनुभूति बन जाते हैं। लाखों की भीड़ में जहां आदमी इतना अकेला हो गया है कि एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी को पहचानता तक नहीं, जहां लोक ही नहीं बसता, वहां लोकोत्सव कैसे जीवित रह सकते हैं? आज हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों की सभ्य सड़कों पर होली मनाने वाले अलमस्तों की टोली ढोलक-मंजीरे की ताल पर रंग-गुलाल उड़ाते, फाग गाते, नाचते-झूमते निकले और सबको रंग-उमंग से सराबोर कर दे! हां, यह जरूर है कि महानगरों की उन बस्तियों में जहां आज भी गांवों का बचा-खुचा हस्तक्षेप है, तीज-त्यौहार के मौके पर एक चहल-पहल हो जाया करती है। दिल्ली-मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों में ये इलाके शहर सीमांत पर या पुरानी बस्तियों के रूप में हैं। वरना शहरीकरण की प्रक्रिया में पनपी अपदूषण की संस्कृति में लोक उत्सव और लोकगीतों की जगह ही कहां है। भौतिकता में ऊभचूभ करती शहरी संस्कृति में हर चीज उत्पादन और खरीद-फरोख्त के दायरे में है, सो इस उत्पादक और बाजार मनोवृत्ति की छाया में तीज-त्यौहारों का रूप भी बदला और विकृत हुआ है। होली में प्राकृतिक रंगों की जगह वार्निश, रासायनिक रंग, पिचकारियों के स्थान पर रंग भरे गुब्बारे फें क कर दूसरे को रंग देना और लोकरंग में सराबोर फाग के रसिया की जगह शोर भरे फिल्मी गानों के कैसेट पर फूहड़ ढंग से कूल्हे लचकाकर उछल-कूद करते युवक - आम शहरी होली की यही तस्वीर है। असल में प्रकृति की सहचारिता को छोड़कर भौतिकता का बीमार आदमी जो इकतरफा खेल खेल रहा है, उसमें लोकजीवन की उष्मा और आत्मा को बचाया ही नहीं जा सकता। महानगरों की बात छोड़ भी दें तो लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, कानपुर, पटना, रांची, जबलपुर जैसे मंझोले दर्जे के शहरों में भी गांवों के लोक जीवन का हस्तक्षेप दिन-प्रतिदिन तेजी से घटता गया है। इन शहरों का स्वभाव भी ग्रामोन्मुखी न होकर महानगरोन्मुखी होता गया है। इसीलिए इन शहरों में भी दस बरस पहले होली के राग-रंग में जो स्वाभाविता और अंतरंगता दिखाई पड़ती थी, उसकी जगह अब फूहड़ कृत्रिमता और प्रदर्शनप्रियता की झलक मिलती है। चूंकि त्यौहार सामाजिकता की अभिव्यक्ति होते हैं और शहर में आदमी का सामाजिक होना आधुनिकता के लिहाज से पिछड़ापन है, इसलिए होली जैसे उन्मुक्तता और उमंग के उत्सव में असामाजिकता का शहरों में भयानक ढंग से प्रवेश हुआ है। शायद होली ही हमारा एक ऐसा पर्व है जिसमें स्त्रियों की भागीदारी सबसे कम होती है। विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थाओं में होली के चार-पांच दिन पहले से ही लड़कियों का आना बंद हो जाता है। यह त्यौहार उनके लिए आक्रामक होता है। होली के अवसर पर स्त्रियों के अंगों का बखान करने वाले जिस तरह के द्विअर्थी गीत-संगीत के कैसेट नंगी भाषा में सार्वजनिक तौर पर पेश किए जाते हैं, वे इस हद तक स्त्री विरोधी होते हैं कि उन्हें सुनने और झेलने का साहस कोई स्त्री जुटा ही नहीं सकती। क्या हम होलिकात्सव में आई विकृतियों को दूसरे प्रदूषणों की तरह ही दूर करने की चिंता के साथ एक स्वस्थ सुंदर जीवन-पर्यावरण रचने का सांस्कृतिक पराक्रम नहीं दिखा सकते? तनी हुई रस्सी पर नट-खेल की अभ्यासी हमारी कसी हुई दिनचर्या के तनाव को ढीला कर हमें उन्मुक्त और अनौपचारिक बनाकर राग-अनुराग और उमंग-उल्लास से भर देने वाला रंगोत्सव दस्तक दे रहा है। आइए, सारी कुंठाएं मिटाकर हम इसका स्वागत करें और अपने को इसके योग्य बनाएं।
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