Showing posts with label बनारस. Show all posts
Showing posts with label बनारस. Show all posts

Friday, December 17, 2010

इस बार पिंजर के निदेशक ने बनारस का मैदान लिया है

शेष नारायण सिंह

प्रोफ़ेसर काशी नाथ सिंह हिन्दी के बेहतरीन लेखक हैं . ज़रुरत से ज्यादा ईमानदार हैं और लेखन में अपने गाँव जीयनपुर की माटी की खुशबू के पुट देने से बाज नहीं आते. हिन्दी साहित्य के बहुत बड़े भाई के सबसे छोटे भाई हैं . उनके भईया का नाम दुनिया भर में इज्ज़त से लिया जाता है. और स्कूल से लेकर आज तक हमेशा अपने भइया से उनकी तुलना होती रही है .उनके भइया को उनकी कोई भी कहानी पसंद नहीं आई , अपना मोर्चा जैसा कालजयी उपन्यास भी नहीं . यह अलग बात है कि उस उपन्यास का नाम दुनिया भर में है . कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है ' साठ और सत्तर के दशक की छात्र राजनीति पर लिखा गया वह सबसे अच्छा उपन्यास है . काशीनाथ सिंह फरमाते हैं कि शायद ही उनकी कोई ऐसी कहानी हो जो भइया को पसंद हो लेकिन ऐसा संस्मरण और कथा-रिपोर्ताज भी शायद ही हो जो उन्हें नापसंद हो . शायद इसीलिये काशीनाथ सिंह जैसा समर्थ लेखक कहानी से संस्मरण और फिर संस्मरण से कथा रिपोर्ताज की तरफ गया . उनके भइया भी कोई लल्लू पंजू नहीं , हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष , डॉ नामवर सिंह हैं . नामवर सिंह ने काशी में आठ आने रोज़ पर भी ज़िंदगी बसर की है और इतना ही खर्च करके हिन्दी साहित्य को बहुत बड़ा योगदान दिया है. काशीनाथ सिंह ने बताया है कि उनके भईया ने ज़िंदगी में बहुत कम समझौते किये हैं , हम यह भी जानते हैं कि उनके भइया की आदर्शवादी जिद के कारण परिवार को और काशीनाथ सिंह को बहुत कुछ झेलना पड़ा . काशीनाथ सिंह के लिए तो सबसे बड़ी मुसीबत यही थी कि जाने अनजाने वे जीवन भर नामवर सिंह के बरक्स नापे जाते रहे .जो लोग नामवर सिंह को जानते हैं , उन्हें मालूम है कि किसी भी सभा सोसाइटी में नामवर सिंह का ज़िक्र आ जाने के बाद बाकी कार्यवाही उनके इर्द गिर्द ही घूमती रहती है . मैं यह बात १९७६ से देख रहा हूँ . नामवर सिंह का विरोध करने पर मैंने कुछ लोगों को पिटते भी देखा है . इमरजेंसी के तुरंत बाद ३५ फिरोजशाह रोड , नयी दिल्ली में एक सम्मलेन हुआ था . उस वक़्त की एक बड़ी पत्रिका के सम्पादक का एक चेला मय लाव लश्कर मुंबई से दिल्ली पंहुचा था. बहुत कुछ पैसा कौड़ी बटोर रखा था उसने और नामवर सिंह के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश कर रहा था . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने उस धतेंगड़ की विधिवत पिटाई कर दी थी . पीटने वालों में वे लोग भी थे जो आज के बहुत बड़े कवि और लेखक हैं .उस पहलवान को दो चार ठूंसा मैंने भी लगाया था , . बाद में जब मैंने भाई लोगों से पूछा कि जे एन यू की परंपरा तो बहस की है , इस बेचारे को शारीरिक कष्ट क्यों दिया जा रहा है , तो आज के एक बड़े कवि ने बताया कि भैंस के आगे बीन बजाने की स्वतंत्रता तो सब को है लेकिन उसको समझा सकना हमेशा से असंभव रहा है .इसलिए अगर पशुनुमा साहित्यकार को कुछ समझाना हो तो यही विधि समीचीन मानी गयी है .

मुराद यह है कि काशीनाथ सिंह इस तरह के नामवर इंसान के छोटे भाई हैं . आज भी जब नामवर सिंह उनको "काशीनाथ जी" कहते हैं तो आम तौर पर काशी कहे जाने वाले बाबू साहेब असहज हो जाते हैं. आम तौर पर लेखकों को कुछ भी लिखते समय आलोचक की दहशत नहीं होती लेकिन काशीनाथ सिंह को तो कुछ लिखना शुरू करने से पहले से ही देश के सबसे बड़े आलोचक का आतंक रहता है . एक तो बाघ दुसरे बन्दूक बांधे. लेकिन इन्हीं हालात में डॉ काशीनाथ सिंह ने हिन्दी को बेहतरीन साहित्य दिया है .' घोआस' जैसा नाटक, 'आलोचना भी रचना है ' जैसी समीक्षा ,'अपना मोर्चा 'और ' काशी का अस्सी 'जैसा उपन्यास डॉ काशीनाथ सिंह ने इन्हीं परिस्थितियों में लिखा है. 'अपना मोर्चा ' विश्व साहित्य में अपना मुकाम बना चुका है . और अब पता चला है कि उनके उपन्यास " काशी का अस्सी " को आधार बनाकर एक फिल्म बन रही है . इस फिल्म का निर्माण हिन्दी सिनेमा के चाणक्य , डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी कर रहे हैं .अपने नामी धारावाहिक " चाणक्य " की वजह से दुनिया भर में पहचाने जाने वाले डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने जब अमृता प्रीतम की कहानी के आधार पर फिल्म ' पिंजर ' बनाई थी तो भारत और पाकिस्तान के बँटवारे के दौरान पंजाब में दर्द का जो तांडव हुआ था ,वह सिनेमा के परदे पर जिंदा हो उठा था . छत्तोआनी और रत्तोवाल नाम के गावों के हवाले से जो भी दुनिया ने देखा था , उस से लोग सिहर उठे थे . जिन लोगों ने भारत-पाकिस्तान के विभाजन को नहीं देखा उनकी समझ में कुछ बात आई थी और जिन्होंने देखा था उनका दर्द फिर से ताज़ा हो गया था. मैंने उस फिल्म को अपनी पत्नी के साथ सिनेमा हाल में जाकर देखा था,. मेरी पत्नी फिल्म की वस्तुपरक सच्चाई से सिहर उठी थीं .बाद में मैंने कई ऐसी बुज़ुर्ग महिलाओं के साथ भी फिल्म " पिंजर " को देखा जो १९४७ में १५ से २५ साल के बीच की उम्र की रही होंगीं . उन लोगों के भी आंसू रोके नहीं रुक रहे थे . फिल्म बहुत ही रियल थी. लेकिन उसे व्यापारिक सफलता नहीं मिली.

" पिंजर " का बाक्स आफिस पर धूम न मचा पाना मेरे लिए एक पहेली थी . मैंने बार बार फिल्म के माध्यम को समझने वालों से इसके बारे में पूछा .किसी के पास कोई जवाब नहीं था . अब जाकर बात समझ में आई जब मैं यह सवाल डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी से ही पूछ दिया . उनका कहना है शायद अवसाद को बहुत देर तक झेल पाना इंसानी प्रकृति में नहीं है .दूसरी बात यह कि फिल्म के विज़ुअल कला पक्ष को बहुत ही आथेंटिक बनाने के चक्कर में पूरी फिल्म में धूसर रंग ही हावी रहा .तीसरी बात जो उन्होंने बतायी वह यह कि फिल्म लम्बी हो गयी, तीन घंटे तक दर्द के बीच रहना बहुत कठिन काम है . मुझे लगता है कि डॉ साहब की बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ . ऐतिहासिक फिल्म बनाना ही बहुत रिस्की सौदा है और उसमें दर्द को ईमानदारी से प्रस्तुत करके तो शायद आग से खेलने जैसा है , लेकिन अपने चाणक्य जी ने वह खेल कर दिखाया उनकी आर्थिक स्थिति तो शायद इस फिल्म के बाद खासी पतली हो गयी. लेकिन उन्होंने हिन्दी सिनेमा को एक ऐसी फिल्म दे दी जो आने वाली पीढ़ियों के लिए सन्दर्भ विन्दु का काम करेगी,.

पता चला है कि डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने काशी नाथ सिंह के उपन्यास " काशी के अस्सी " के आधार पर फिल्म बनाने का मंसूबा बना लिया है . पिछली गलतियों से बचना तो इंसान का स्वभाव है . कहानी के पात्रों के साथ ईमानदारी के लिए विख्यात डॉ द्विवेदी से उम्मीद की जानी चाहिए कि बनारस की ज़िंदगी की बारीक समझ पर आधारित काशीनाथ सिंह के उपन्यास के डॉ गया सिंह , उपाध्याय जी , केदार , उप्धाइन वगैरह पूरी दुनिया के सामने नज़र आयेगें . हालांकि इस कथानक में भी दर्द की बहुत सारी गठरियाँ हैं लेकिन बनारसी मस्ती भी है . अवसाद को " पिंजर " का स्थायी भाव बना कर हाथ जला चुके चाणक्य से उम्मीद की जानी चाहिये कि इस बार वे मस्ती को ही कहानी का स्थायी भाव बनायेगें , दर्द का छौंक ही रहेगा . व्यापारिक सफलता की बात तो हम नहीं कर सकते , क्योंकि वह विधा अपनी समझ में नहीं आती लेकिन चाणक्य और पिंजर के हर फ्रेम को देखने के बाद यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी के एक बेहतरीन उपन्यास पर आधारित एक बहुत अच्छी फिल्म बाज़ार में आने वाली है . इस उपन्यास में बनारसी गालियाँ भी हैं लेकिन मुझे भरोसा है कि यह गालियाँ फिल्म में वैसी ही लगेगीं जैसी शादी ब्याह के अवसर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में गाये जाने वाले मंगल गीत .

Monday, March 1, 2010

मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा!

कवि ,लेखक और चिन्तक अरविन्द चतुर्वेद का यह शाहकार मुझे इतना अच्छा लगा कि मन ने कहा , हाय हसन ,हम न हुए. बिना उनको बताये, इसे अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ. देखें क्या होता है .
http://yaarkahani.blogspot.com/2010/02/blog-post_28.html


अरविंद चतुर्वेद


सृष्टि की सर्वोत्तम रचना होकर भी पुरूष रंगों के मामले में प्रकृति से कई हाथ पीछे है। प्रकृति हमसे कहीं ज्यादा रंगीन है। उसके खजाने में रंग ही रंग हैं। आदमी ने रंगों के आचरण का पहला पाठ भी प्रकृति से ही पढ़ा होगा। यानी रंगों की पाठशाला में प्रकृति की भूमिका शिक्षक की है और पुरूष की महज एक छात्र की। भांति-भांति के पशु-पक्षी हमसे ज्यादा रंग-बिरंगे हैं और तितलियां तो खैर उड़ते-थिरकते रंग ही हैं। हालांकि ये सब न फैशन शो लगाते हैं और न कैटवाक करते हैं। इसकी जरूरत हमें पड़ती है, क्योंकि जैसे-जैसे आदमी के भीतर के रंग गायब होते जाते हैं, वैसे-वैसे वह बाहर ही बाहर रंग तलाशने लगता है। मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा! लेकिन यह जरा दार्शनिक किस्म की बात हो गई, इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं।
फिर भी होली का त्यौहार है- रंगों का उत्सव, तो भीतरी रंग के लिए कबीर को याद करना ही पड़ेगा- लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल/ लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल। ऐसी सम्पूर्ण रंगीनी क्यों नहीं है हमारे मिजाज में? पहले थी लेकिन आज क्यों नहीं है। एक तरफ तो आदमी के भीतर के रंग सूखते जा रहे हैं और दूसरी ओर वे राजनीति और साम्प्रदायिकता के शिकार होते गए हैं। एक सम्प्रदाय हरे रंग का दीवाना है तो दूसरा केशरिया रंग ले उड़ा है। जिसे दोनों सम्प्रदायों की राजनीति करते हुए अपनी रोटी सेंकनी है, वह दुरंगा हो गया है। एक मोहतरमा तो नीले रंग पर कब्जा जमाकर नीलिमा ही बन बैठी हैं। इस बदरंग परिदृश्य में भीतर के रंग सूखगें नहीं तो क्या होगा?
हाय, कहां हो नीलांजना! होली का त्यौहार है और तुम उदास खोई-खोई-सी बैठी हो? वेलेंटाइल डे जैसे प्रेम दिवस को पानी पी-पीकर कोसने वाले संस्कृति के वीर बांकुड़े होली के हास-उल्लास, रंग-उमंग और रस रंग को बनाए रखने के लिए क्या कर रहे हैं? राग फाग गाते हुए, अबीर गुलाल उड़ाते हाथों में रंग पिचकारी लिए सबको रंगों में सराबोर कर देने के लिए क्या उनकी टोलियां सड़कों पर निकलेंगी? उनके मन में वेलेंटाइन के प्रति केवल घृणा भरी है, विद्वेष और उन्माद ही भरा है या होलिकोत्सव के लिए वह राग-अनुराग भी है, जो सबको प्रेम के रंग में सराबोर कर दे! कहीं उनकी होली की तैयारी क्यों नहीं है, जो ढोल-मंजीरा बजाते हुए फाग गा सकते हैं। अधिक से अधिक यही होगा कि होली पर फिल्मों के गाने बजेंगे-होली आई रे कन्हाई या फिर रंग बरसे, भीजे चुनर वाली..., थोड़ा हुल्लड़ होगा, कुछ लोग रंग में भंग करेंगे और होली की जैसे-तैसे रस्म अदा कर दी जाएगी। सच्चाई तो यह है कि दूसरे लोकोत्सवों और तीज-त्यौहारों की तरह होली पर भी हमारी पकड़ ढीली पड़ती जा रही है।
दरअसल, रंगों का त्यौहार होली हो या दूसरे लोकोत्सव हों, सभी प्रकृति के सहचार में उपजी संस्कृति के ही अंग हैं। चूंकि आज हम प्रकृति विरोधी हो गए हैं इसलिए तीज-त्यौहारों की संस्कृति भी हमसे गाहे बगाहे छूटती जा रही है। गांवों के विनाश की कीमत पर जिस शहरी संस्कृति का हमने विकास किया है, उसमें प्रकृति का तो कोई स्थान है नहीं, लिहाजा हमारे तीज-त्यौहार या तो उसमें अनफिट हो जाते हैं या फिर उनका स्वरूप विकृत हो जाता है। हम जितने बड़े शहर में रहते हैं, तीज-त्यौहारों से हमारी दूरी भी उतनी ही बढ़ जाती है। उसकी आत्मा, उसका मन, जीवन के राग, उमंग, उल्लास सभी उससे विदा ले लेते हैं। आदमी महज एक कामकाजी मशीन बनकर रह जाता है और त्यौहार प्रकृति की छांह से अनाथ होकर आदमी के लिए आनंदोत्सव के बजाय पीड़ादायक अनुभूति बन जाते हैं। लाखों की भीड़ में जहां आदमी इतना अकेला हो गया है कि एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी को पहचानता तक नहीं, जहां लोक ही नहीं बसता, वहां लोकोत्सव कैसे जीवित रह सकते हैं? आज हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों की सभ्य सड़कों पर होली मनाने वाले अलमस्तों की टोली ढोलक-मंजीरे की ताल पर रंग-गुलाल उड़ाते, फाग गाते, नाचते-झूमते निकले और सबको रंग-उमंग से सराबोर कर दे! हां, यह जरूर है कि महानगरों की उन बस्तियों में जहां आज भी गांवों का बचा-खुचा हस्तक्षेप है, तीज-त्यौहार के मौके पर एक चहल-पहल हो जाया करती है। दिल्ली-मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों में ये इलाके शहर सीमांत पर या पुरानी बस्तियों के रूप में हैं। वरना शहरीकरण की प्रक्रिया में पनपी अपदूषण की संस्कृति में लोक उत्सव और लोकगीतों की जगह ही कहां है। भौतिकता में ऊभचूभ करती शहरी संस्कृति में हर चीज उत्पादन और खरीद-फरोख्त के दायरे में है, सो इस उत्पादक और बाजार मनोवृत्ति की छाया में तीज-त्यौहारों का रूप भी बदला और विकृत हुआ है। होली में प्राकृतिक रंगों की जगह वार्निश, रासायनिक रंग, पिचकारियों के स्थान पर रंग भरे गुब्बारे फें क कर दूसरे को रंग देना और लोकरंग में सराबोर फाग के रसिया की जगह शोर भरे फिल्मी गानों के कैसेट पर फूहड़ ढंग से कूल्हे लचकाकर उछल-कूद करते युवक - आम शहरी होली की यही तस्वीर है। असल में प्रकृति की सहचारिता को छोड़कर भौतिकता का बीमार आदमी जो इकतरफा खेल खेल रहा है, उसमें लोकजीवन की उष्मा और आत्मा को बचाया ही नहीं जा सकता। महानगरों की बात छोड़ भी दें तो लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, कानपुर, पटना, रांची, जबलपुर जैसे मंझोले दर्जे के शहरों में भी गांवों के लोक जीवन का हस्तक्षेप दिन-प्रतिदिन तेजी से घटता गया है। इन शहरों का स्वभाव भी ग्रामोन्मुखी न होकर महानगरोन्मुखी होता गया है। इसीलिए इन शहरों में भी दस बरस पहले होली के राग-रंग में जो स्वाभाविता और अंतरंगता दिखाई पड़ती थी, उसकी जगह अब फूहड़ कृत्रिमता और प्रदर्शनप्रियता की झलक मिलती है। चूंकि त्यौहार सामाजिकता की अभिव्यक्ति होते हैं और शहर में आदमी का सामाजिक होना आधुनिकता के लिहाज से पिछड़ापन है, इसलिए होली जैसे उन्मुक्तता और उमंग के उत्सव में असामाजिकता का शहरों में भयानक ढंग से प्रवेश हुआ है। शायद होली ही हमारा एक ऐसा पर्व है जिसमें स्त्रियों की भागीदारी सबसे कम होती है। विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थाओं में होली के चार-पांच दिन पहले से ही लड़कियों का आना बंद हो जाता है। यह त्यौहार उनके लिए आक्रामक होता है। होली के अवसर पर स्त्रियों के अंगों का बखान करने वाले जिस तरह के द्विअर्थी गीत-संगीत के कैसेट नंगी भाषा में सार्वजनिक तौर पर पेश किए जाते हैं, वे इस हद तक स्त्री विरोधी होते हैं कि उन्हें सुनने और झेलने का साहस कोई स्त्री जुटा ही नहीं सकती। क्या हम होलिकात्सव में आई विकृतियों को दूसरे प्रदूषणों की तरह ही दूर करने की चिंता के साथ एक स्वस्थ सुंदर जीवन-पर्यावरण रचने का सांस्कृतिक पराक्रम नहीं दिखा सकते? तनी हुई रस्सी पर नट-खेल की अभ्यासी हमारी कसी हुई दिनचर्या के तनाव को ढीला कर हमें उन्मुक्त और अनौपचारिक बनाकर राग-अनुराग और उमंग-उल्लास से भर देने वाला रंगोत्सव दस्तक दे रहा है। आइए, सारी कुंठाएं मिटाकर हम इसका स्वागत करें और अपने को इसके योग्य बनाएं।