शेष नारायण सिंह
ठीक ६८ साल पहले महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों के कह दिया था कि बहुत हुआ अब आप लोगों की किसी बात का विश्वास नहीं है . आप लोग अपना झोला झंडी उठाइये और भारत का पिंड छोडिये. पूरे देश में आजादी का बिगुल बज गया था. एक ख़ास वर्ग के लोगों के बीच आज जिन नेताओं का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है उनमें से बहुत सारे लोग उन दिनों अंग्रेजों के झंडाबरदार थे लेकिन महात्मा गाँधी की समझ में बात आ गयी थी कि अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए अब किसी मुरव्वत की गुंजाइश नहीं थी, उन्हें भगाने के लिए साफ़ साफ़ कहना पड़ेगा. और उन्होंने ८ अगस्त १९४२ के दिन बम्बई में हुई कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में फैसल ले लिया. उसी रात कांग्रेस कमेटी के सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए. भारत छोडो आन्दोलन की याद में उन महान नेताओं को याद कर लेना ज़रूरी है जो आज़ादी के इस महायज्ञ में महात्मा जी के साथ खड़े थे. अंग्रेजों ने आज़ादी के लिए कर रही पार्टी के सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था. . आज ६८ साल बाद की बात अलग है लेकिन १९४२ में अंग्रेजों ने हर उस आदमी को सबक सिखाने का फैसला कर लिया था जो भारत की आज़ादी के पक्ष में था. ब्रिटेन की वार कैबिनेट ने जून में ही वायसरॉय को अधिकार दे दिया था कि वह जैसा भी चाहे , कांग्रेसी नेताओं के साथ वैसा व्यवहार कर सकते हैं .. वायसरॉय इस चक्कर में था कि वह भारत छोडो आन्दोलन के प्रस्ताव के पास होते ही महात्मा जी और पूरी कांग्रेस कार्यसमिति को गिरफ्तार कर ले. लेकिन तय यह हुआ कि जब आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी इस प्रातव को मंजूरी दे तब सभी नेताओं को पकड़ा जाए . उनकी मूल योजना थी कि गाँधी जी को देश से बाहर ले जाकर को अदन में नज़रबंद किया जाए और बाकी नेताओं को न्यासालैंड में रखा जाए . लेकिन बाद में मन बदल दिया गया और महात्मा गाँधी को पुणे के आगा खां पैलेस में और कांग्रेस के बाकी नेताओं को अहमदनगर जेल में रखा गया. ९ अगस्त की सुबह पांच बजे सभी नेताओं को सोते से जगाकर पकड़ लिया गया. एक विशेष ट्रेन से सबको पूना ले जाया गया ,जहां महात्मा जी और उनके साथियों को उतार दिया गया. बाकी नेता अहमदनगर जेल ले जाए गए. सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद, पट्टाभि सीतारामैय्या और हरेकृष्ण महताब को अलग कमरे मिले थे. जवाहरलाल नेहरू के कमरे में डॉ सैयाद महमूद थे. शंकर राव देव और प्रफुल्ल चन्द्र घोष एक कमरे में थे. आचार्य कृपलानी , गोविन्द बल्लभ पन्त, आचार्य नरेंद्र देव और आसफ अली को एक साथ रखा गया था. डॉ राजेन्द्र प्रसाद बीमार थे इसलिए आ नहीं सके थे . उन्हें गिरफ्तार करके बिहार में ही रखा गया था. भूलाभाई देसाई और चितरंजन दस को गिरफ्तार नहीं किया गया था क्योंकि इन लोगों ने अपने आपको भारत छोडो आन्दोलन से अलग कर लिया था. तो यह है फेहरिस्त उन महानायकों की जिन्होंने हमें आज़ादी दिलवाई. और अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया.
यह सब हुआ इसलिए कि कांग्रेस ने १४ जुलाई १९४२ के दिन एक प्रस्ताव पास किया था कि अगर अँगरेज़ भारत नहीं छोड़ते तो पूरे देश में आन्दोलन चलेगा . कांग्रेस के इस प्रस्ताव से अंग्रेजों के वफादार लोगों के बीच हडकंप मच गया. मुहम्मद अली जिन्ना ने बयान दिया कि आन्दोलन शुरू करने का कांग्रेस का ताज़ा फैसला सही नहीं है . यह मुसलमानों के हितों की अनदेखी करता है . हिन्दू महासभा के नेता, वी डी सावरकर ने अपने समर्थकों से कहा कि कांग्रेस के आन्दोलन का विरोध करें. उधर अँगरेज़ सरकार ने भी पूरी तैयारी कर ली थी . ८ अगस्त को सभी सरकारी विभागों के नाम आदेश जारी कर दिया कि कांग्रेस का आन्दोलन गैरकानूनी है . सरकारी विभागों को चाहिए कि आन्दोलन को हर हाल में कुचल दें. आल इण्डिया कांगेस कमेटी की बैठक ७ अगस्त को मुंबई में हुई जहां तय किया गया कि अहिंसक तरीके से पूरे देश में आन्दोलन चलाया जाएगा. आन्दोलन के नेतृत्व का ज़िम्मा गाँधी जी को सौंपा गया. लेकिन यह भी अनुमान था कि गाँधी जी तो गिरफ्तार हो जायेगें ,. ऐसी सूरत में यह तय किया गया कि हो सकता है कि सभी नेता गिरफ्तार हो जाएँ तो हर व्यक्ति जो इस आन्दोलन के साथ है , वह अहिंसक तरीके से अपना काम करता रहेगा. महत्मा गाँधी ने अपील की कि हिन्दू और मुसलमान के बीच जो नफरत पैदा करने की कोशिश की गयी है उसे भूल जाओ और सभी लोग भारतीय बन कर संघर्ष करो. हमारा झगडा अँगरेज़ जनता से नहीं है . हम तो अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद का विरोध कर रहे हैं.. सत्याग्रह में किसी तरह की धोखेबाजी या असत्य के लिए कोई जगह नहीं है. उन्होंने सब को बताया कि आज से अपने आप को आज़ाद समझो. आबादी के एक हिस्से को अँगरेज़ भरमाने में सफल हो गए थे लेकिन गाँधी की आंधी के सामने कोई नहीं टिक सका और देश आज़ाद हो गया
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Sunday, August 8, 2010
Wednesday, August 12, 2009
पूरी दुनिया में है गांधी का सम्मान
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्टï कर दिया है कि ऐसा कोई दिशा निर्देश नहीं जारी किया जा सकता जिसके तहत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सम्मान करना अनिवार्य किया जा सके। माननीय न्यायालय ने यह टिप्पणी एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान की। कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर प्रार्थना की थी कि उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री को चेताया जाय कि महात्मा गांधी का सम्मान किया जाना चाहिए।
मायावती की पार्टी में महात्मा गांधी की इज्जत करने की रिवाज नहीं है इसलिए पिछले दिनों उन्होंने महात्मा जी को नाटकबाज कह दिया था। उनकी इस बात का याचिका कर्ताओं ने बुरा माना और फरियाद लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि इस देश में और बाकी दुनिया में महात्मा गांधी का सम्मान इसलिए नहीं किया जाता कि उसके लिए कानून है या किसी कोर्ट का आदेश है। महात्मा जी का सम्मान करने वाले अपनी अंतरात्मा की प्रेरणा से उनका सम्मान करते हैं।
याचिका कर्ताओं की यह उम्मीद कि गांधी जी का सम्मान सभी करें, बेमतलब है। जिसके मन में उनके प्रति सम्मान का भाव होगा वह उनका सम्मान करेगा और जिसके मन में नहीं होगा, वह सम्मान नहीं करेगा। लाठी के जोर पर या भीख मांगकर सम्मान पाना बहुत बड़ा असम्मान है और इस बारे में सरकारी फरमान न जारी करके माननीय न्यायालय ने बहुत बड़ा और अच्छा काम किया है।
जहां तक महात्मा गांधी के सम्मान की बात है, पूरी दुनिया में उनके प्रशंसक और भक्त फैले हुए हैं। महात्मा जी के सम्मान का आलम तो यह है कि वे जाति, धर्म, संप्रदाय, देशकाल सबके परे समग्र विश्व में पूजे जाते हैं। वे किसी जाति विशेष के नेता नहीं हैं। हां यह भी सही है कि भारत में ही एक बड़ा वर्ग उनको सम्मान नहीं करता बल्कि नफरत करता है। इसी वर्ग और राजनीतिक विचारधारा के एक व्यक्ति ने 30 जनवरी 1948 के दिन गोली मारकर महात्मा जी की हत्या कर दी थी। उसके वैचारिक साथी और कुछ साधारण लोग उस हत्यारे को सिरफिरा कहते हैं लेकिन महात्मा गांधी की हत्या किसी सिरफिरे का काम नहीं था।
वह उस वक्त की एक राजनीतिक विचारधारा के एक प्रमुख व्यक्ति का काम था। उनका हत्यारा कोई सड़क छाप व्यक्ति नहीं था, वह हिंदू महासभा का नेता था और 'अग्रणी' नाम के उनके अखबार का संपादक था। गांधी जी की हत्या के आरोप में उसके बहुत सारे साथी गिरफ्तार भी हुए थे। ज़ाहिर है कि गांधीजी की हत्या करने वाला व्यक्ति भी महात्मा गांधी का सम्मान नहीं करता था और उसके वे साथी भी जो आजादी मिलने में गांधी जी के योगदान को कमतर करके आंकते हैं। यह सारे लोग भी महात्मा गांधी का सम्मान नहीं करते। जिन लोगों ने 1920 से लेकर 1947 तक महात्मा गांधी को जेल की यात्राएं करवाईं, वे भी उनको सम्मान नहीं करते थे।
भारत के कम्युनिस्ट नेता भी महात्मा गांधी के खिलाफ थे। उनका आरोप था कि देश में जो राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था, उसे मजदूर और किसान वर्ग के हितों के खिलाफ इस्तेमाल करने में महात्मा गांधी का खास योगदान था। कम्युनिस्ट बिरादरी भी महात्मा गांधी के सम्मान से परहेज करती थी। जमींदारों और देशी राजाओं ने भी गांधी जी को नफरत की नजर से ही देखा था, अपनी ज़मींदारी छिनने के लिए वे उन्हें ही जिम्मेदार मानते थे। इसलिए यह उम्मीद करना कि सभी लोग महात्मा जी की इज्जत करेंगे, बेमानी है। लेकिन एक बात और भी सच है, वह यह कि महात्मा गांधी से नफरत करने वाली सभी जमातें बाद में उनकी प्रशंसक बन गईं। जो कम्युनिस्ट हमेशा कहते रहते थे कि महात्मा गांधी ने एक जनांदोलन को पूंजीपतियों के हवाले कर दिया था, वही अब उनकी विचारधारा की तारीफ करने के बहाने ढूंढते पाये जाते हैं। अब उन्हें महात्मा गांधी की सांप्रदायिक सदभाव संबंधी सोच में सदगुण नजर आने लगे है।
आर.एस.एस. के ज्यादातर विचारक महात्मा गांधी के विरोधी रहे थे लेकिन 1980 में बीजेपी ने गांधीवादी समाजवाद के सिद्घांत का प्रतिपादन करके इस बात को ऐलानिया स्वीकार कर लिया कि महात्मा गांधी का सम्मान किया जाना चाहिए। जिन अंग्रेजों ने महात्मा जी को उनके जीवनकाल में अपमान की नजर से देखा, उनको जेल में बंद किया, टे्रन से बाहर फेंका उन्हीं के वंशज अब दक्षिण अफ्रीका और इंगलैंड के हर शहर में उनकी मूर्तियां लगवाते फिर रहे हैं। यह सब कहने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि आप किसी को मजबूर नहीं कर सकते कि वह किसी व्यक्ति का सम्मान करे। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का सम्मान किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को यह निर्देश भी दे देना चाहिए कि भविष्य में भी कोई सरकार यह कानून न बनाए जिसके तहत किसी का सम्मान करना अनिवार्य कर दिया जाय क्योंकि इस बात का खतरा बना हुआ है कि उत्तरप्रदेश में जनता के पैसे बन रही मूर्तियों की इज्जत करने के लिए कोई नियम न बन जाय।
बहरहाल मायावती के नाटकबाज कहने से महात्मा गांधी का सम्मान कम नहीं होता, नाथूराम गोडसे के गोली मारने से महात्मा गांधी का सम्मान कम नहीं होता और चर्चिल के नंगा फकीर कहने से महात्मा गांधी का सम्मान कम नहीं होता। गांधी जो को जिसने भी अपमानित किया, पता नहीं गुमनामी के किए गढढे में होगा लेकिन महात्मा गांधी की शान पूरी दुनिया में बनी हुई है, उनको सम्मान भीख में नहीं मिला और न ही किसी ने लाठी के जोर पर महात्मा गांधी को सम्मानित करवाया।
जहां तक कानून बनाकर जबरदस्ती सम्मान उगाहने की बात है, उसके बारे में कुछ लोगों का जिक्र करना सही होगा। हिटलर, सद्दाम हुसैन, किम इल सुंग, फ्रांको, च्यांग काई शेक आदि कुछ ऐसा राजनेता हैं जिन्होंने कानून और आतंक के जरिए अपना सम्मान करवाने की कोशिश की लेकिन इनकी ताकत कम होते ही जनता ने इनकी औकात बता दी। सद्दाम हुसैन की मूर्तिंयों पर तो इराकी जनता को जूते बरसाते पूरी दुनिया ने देखा है। ठीक यही हाल अन्य तानाशाहों का भी हुआ था जिन्होंने अपनी ही मूर्तियां देश के कोने कोने में बनवाई थीं और लोगों को मजबूर किया था कि उनका सम्मान करें। जहां तक महात्मा गांधी का सवाल है, उनके जीवन काल में उनकी कोई मूर्ति नहीं बनी थी लेकिन आज दुनिया के हर प्रमुख शहर में उनकी मूर्तियां हैं और लोग उन्हें सम्मान करते हैं। मायावती के नाटकबाज कहने से महात्मा गांधी की महानता में कोई कमी नहीं आती। गांधी जी के प्रशंसकों को इतिहास की न्याय क्षमता पर भरोसा करके शांत बैठे रहना चाहिए। उनके सम्मान में कहीं कोई कमी नहीं आएगी।
मायावती की पार्टी में महात्मा गांधी की इज्जत करने की रिवाज नहीं है इसलिए पिछले दिनों उन्होंने महात्मा जी को नाटकबाज कह दिया था। उनकी इस बात का याचिका कर्ताओं ने बुरा माना और फरियाद लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि इस देश में और बाकी दुनिया में महात्मा गांधी का सम्मान इसलिए नहीं किया जाता कि उसके लिए कानून है या किसी कोर्ट का आदेश है। महात्मा जी का सम्मान करने वाले अपनी अंतरात्मा की प्रेरणा से उनका सम्मान करते हैं।
याचिका कर्ताओं की यह उम्मीद कि गांधी जी का सम्मान सभी करें, बेमतलब है। जिसके मन में उनके प्रति सम्मान का भाव होगा वह उनका सम्मान करेगा और जिसके मन में नहीं होगा, वह सम्मान नहीं करेगा। लाठी के जोर पर या भीख मांगकर सम्मान पाना बहुत बड़ा असम्मान है और इस बारे में सरकारी फरमान न जारी करके माननीय न्यायालय ने बहुत बड़ा और अच्छा काम किया है।
जहां तक महात्मा गांधी के सम्मान की बात है, पूरी दुनिया में उनके प्रशंसक और भक्त फैले हुए हैं। महात्मा जी के सम्मान का आलम तो यह है कि वे जाति, धर्म, संप्रदाय, देशकाल सबके परे समग्र विश्व में पूजे जाते हैं। वे किसी जाति विशेष के नेता नहीं हैं। हां यह भी सही है कि भारत में ही एक बड़ा वर्ग उनको सम्मान नहीं करता बल्कि नफरत करता है। इसी वर्ग और राजनीतिक विचारधारा के एक व्यक्ति ने 30 जनवरी 1948 के दिन गोली मारकर महात्मा जी की हत्या कर दी थी। उसके वैचारिक साथी और कुछ साधारण लोग उस हत्यारे को सिरफिरा कहते हैं लेकिन महात्मा गांधी की हत्या किसी सिरफिरे का काम नहीं था।
वह उस वक्त की एक राजनीतिक विचारधारा के एक प्रमुख व्यक्ति का काम था। उनका हत्यारा कोई सड़क छाप व्यक्ति नहीं था, वह हिंदू महासभा का नेता था और 'अग्रणी' नाम के उनके अखबार का संपादक था। गांधी जी की हत्या के आरोप में उसके बहुत सारे साथी गिरफ्तार भी हुए थे। ज़ाहिर है कि गांधीजी की हत्या करने वाला व्यक्ति भी महात्मा गांधी का सम्मान नहीं करता था और उसके वे साथी भी जो आजादी मिलने में गांधी जी के योगदान को कमतर करके आंकते हैं। यह सारे लोग भी महात्मा गांधी का सम्मान नहीं करते। जिन लोगों ने 1920 से लेकर 1947 तक महात्मा गांधी को जेल की यात्राएं करवाईं, वे भी उनको सम्मान नहीं करते थे।
भारत के कम्युनिस्ट नेता भी महात्मा गांधी के खिलाफ थे। उनका आरोप था कि देश में जो राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था, उसे मजदूर और किसान वर्ग के हितों के खिलाफ इस्तेमाल करने में महात्मा गांधी का खास योगदान था। कम्युनिस्ट बिरादरी भी महात्मा गांधी के सम्मान से परहेज करती थी। जमींदारों और देशी राजाओं ने भी गांधी जी को नफरत की नजर से ही देखा था, अपनी ज़मींदारी छिनने के लिए वे उन्हें ही जिम्मेदार मानते थे। इसलिए यह उम्मीद करना कि सभी लोग महात्मा जी की इज्जत करेंगे, बेमानी है। लेकिन एक बात और भी सच है, वह यह कि महात्मा गांधी से नफरत करने वाली सभी जमातें बाद में उनकी प्रशंसक बन गईं। जो कम्युनिस्ट हमेशा कहते रहते थे कि महात्मा गांधी ने एक जनांदोलन को पूंजीपतियों के हवाले कर दिया था, वही अब उनकी विचारधारा की तारीफ करने के बहाने ढूंढते पाये जाते हैं। अब उन्हें महात्मा गांधी की सांप्रदायिक सदभाव संबंधी सोच में सदगुण नजर आने लगे है।
आर.एस.एस. के ज्यादातर विचारक महात्मा गांधी के विरोधी रहे थे लेकिन 1980 में बीजेपी ने गांधीवादी समाजवाद के सिद्घांत का प्रतिपादन करके इस बात को ऐलानिया स्वीकार कर लिया कि महात्मा गांधी का सम्मान किया जाना चाहिए। जिन अंग्रेजों ने महात्मा जी को उनके जीवनकाल में अपमान की नजर से देखा, उनको जेल में बंद किया, टे्रन से बाहर फेंका उन्हीं के वंशज अब दक्षिण अफ्रीका और इंगलैंड के हर शहर में उनकी मूर्तियां लगवाते फिर रहे हैं। यह सब कहने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि आप किसी को मजबूर नहीं कर सकते कि वह किसी व्यक्ति का सम्मान करे। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का सम्मान किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को यह निर्देश भी दे देना चाहिए कि भविष्य में भी कोई सरकार यह कानून न बनाए जिसके तहत किसी का सम्मान करना अनिवार्य कर दिया जाय क्योंकि इस बात का खतरा बना हुआ है कि उत्तरप्रदेश में जनता के पैसे बन रही मूर्तियों की इज्जत करने के लिए कोई नियम न बन जाय।
बहरहाल मायावती के नाटकबाज कहने से महात्मा गांधी का सम्मान कम नहीं होता, नाथूराम गोडसे के गोली मारने से महात्मा गांधी का सम्मान कम नहीं होता और चर्चिल के नंगा फकीर कहने से महात्मा गांधी का सम्मान कम नहीं होता। गांधी जो को जिसने भी अपमानित किया, पता नहीं गुमनामी के किए गढढे में होगा लेकिन महात्मा गांधी की शान पूरी दुनिया में बनी हुई है, उनको सम्मान भीख में नहीं मिला और न ही किसी ने लाठी के जोर पर महात्मा गांधी को सम्मानित करवाया।
जहां तक कानून बनाकर जबरदस्ती सम्मान उगाहने की बात है, उसके बारे में कुछ लोगों का जिक्र करना सही होगा। हिटलर, सद्दाम हुसैन, किम इल सुंग, फ्रांको, च्यांग काई शेक आदि कुछ ऐसा राजनेता हैं जिन्होंने कानून और आतंक के जरिए अपना सम्मान करवाने की कोशिश की लेकिन इनकी ताकत कम होते ही जनता ने इनकी औकात बता दी। सद्दाम हुसैन की मूर्तिंयों पर तो इराकी जनता को जूते बरसाते पूरी दुनिया ने देखा है। ठीक यही हाल अन्य तानाशाहों का भी हुआ था जिन्होंने अपनी ही मूर्तियां देश के कोने कोने में बनवाई थीं और लोगों को मजबूर किया था कि उनका सम्मान करें। जहां तक महात्मा गांधी का सवाल है, उनके जीवन काल में उनकी कोई मूर्ति नहीं बनी थी लेकिन आज दुनिया के हर प्रमुख शहर में उनकी मूर्तियां हैं और लोग उन्हें सम्मान करते हैं। मायावती के नाटकबाज कहने से महात्मा गांधी की महानता में कोई कमी नहीं आती। गांधी जी के प्रशंसकों को इतिहास की न्याय क्षमता पर भरोसा करके शांत बैठे रहना चाहिए। उनके सम्मान में कहीं कोई कमी नहीं आएगी।
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