तीसरे दौर के मतदान के बाद यह बात बिलकुल साफ हो गई है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में मतदाता का कोई उत्साह नहीं है। वोट प्रतिशत ऐसा है जिसको देखकर किसी तरह की लहर की बात तो दूर, बुनियादी रुचि की कमी लगती है।
वैसे गर्मी के मौसम में जब भी चुनाव होता है, अपेक्षाकृत कम लोग बूथ तक जाने की ज़हमत उठाते हैं। देश की अगली सरकार को चुनने के लिए आधी से भी कम आबादी की शिरकत चिंता का विषय है। वास्तव में लोकतंत्र की सफलता की बुनियादी शर्त है कि उसमें अधिक से अधिक लोग शामिल हों और अगर ऐसा न हुआ तो दिन ब दिन लोकशाही की ता$कत कम होती जायगी।
इस बार चुनाव प्रक्रिया में कम लोगों के शामिल होने पर चिंता की बात इस लिए भी है कि चुनाव आयोग ने पूरे देश में अखबार, रेडियो और टेलीविज़न के जरिये अभियान चला रखा था। संदेश यह था कि ज्यादा से ज्यादा लोग वोट देने पहुंचें। चुनाव आयोग के विज्ञापनों में वोट न देने वालों को लगभग फटकारा तक गया था कि वोट ना देने वाले लोग अपनी महत्वपूर्ण डयूटी से किनारा कर लेते है। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।
कई गैर सरकारी संगठनों ने भी नागरिकों से अपील की थी कि वोट देना राष्ट्ररीय कर्तव्य है लेकिन बड़ी संख्या में लोगों ने उनकी इस भावना की परवाह नहीं की। आर एस एस के पराने मुखिया को बदल दिया गया है, जो नए महानुभाव आए हैं उन्होंने भी आते ही नारा दिया कि अधिक से अधिक हिंदुओं को वोट देना चाहिए। उनको मुग़ालता है कि उनकी पार्टी को ही वोट देगा। भारत में रहने वाले आम हिन्दू की मानसिकता की इससे गलत समझ हो ही नहीं सकती।
इस देश में रहने वाला हिंदू आमतौर पर सहनशील है क्योंकि अगर वह सहनशील न होता तो जनसंघ हिंदू महासभा और भारतीय जनता पार्टी आजादी के 50 साल बाद तक हाशिए पर न बैठे रहते। इस देश के हिन्दू ने महात्मा गांधी और जवाहर लाल नहरू में हमेशा विश्वास किया और अगर 1980 में दुबारा सत्ता में आने के बाद इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी ने साफ्ट हिंदुत्व की आर एस एस वाली लाइन को न अपना लिया होता तो आर एस एस के हिन्दुत्व वाले मंसूबे कभी न पूरे होते।
इंदिरा गांधी के बाद कांग्रेस का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में चला गया जिनकी राजनीति की समझ पर ही सवालिया निशान लगा हुआ था। राजीव गांधी के शासन के दौरान पब्लिक स्कूल टाइप ऐसे लोग कांग्रेस के नीति नियामक बन गये जो दूर तक भी राष्ट्रहित की बात सोच ही नहीं सकते थे। लेकिन उन्होंने इस देश की एकता की भावना का बहुत नुकसान किया और देश में हिन्दुत्ववादी शक्तियों के विकास के लिए जगह मिल गई। राजीव गांधी की मंडली के ज्यादातर लोग कहीं गायब हो गए है लेकिन देश के मत्थे हलकी राजनीतिक सोच की विरासत मढ़ गये हैं।
देश में मुख्यधारा की सभी पार्टियां भी हल्की राजनीतिक सोच की बीमारी की चपेट में हैं। इसीलिए अब नताओं की सभा में वैसी भीड़ नहीं जुटती जैसी महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी की सभाओं में जुटती थी। अब भीड़ जुटाने के लिए किसी हेमा मालिनी, संजय दत्त, सलमान खां, या अज़हरूद्दीन की तलाश की जाती है।
इन लोगों को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती है लेकिन उसका राजनीतिक दिशा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और इसीलिए चुनाव के प्रति लोगों की रुचि घट रही है और मतदान का प्रतिशत लगातार कम हो रहा है।
Wednesday, June 24, 2009
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