Thursday, August 21, 2014

धर्मनिरपेक्षता की राजनीति पर संकट के बादल



शेष नारायण सिंह  

बीजेपी में हमारे एक मित्र हैं . उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा कि जब उनको किसी को  गाली देनी होती है तो वे उसे धर्मनिरपेक्ष कह देते हैं . मुझे अजीब लगा .वे भारत राष्ट्र को और  भारत के संविधान को अपनी नासमझी की ज़द में ले रहे थे क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है . संसद में उनकी पार्टी के एक नेता ने जिस तरह से धर्मनिरपेक्षता को समझाया उससे अब समझ में आ गया है कि यह मेरे उन मित्र की निजी राय नहीं है , यह उनकी पार्टी की राय है . उसके बाद बीजेपी/ आर एस एस के कुछ विचारक टाइप लोगों को टेलिविज़न पर बहस करते सुना और साफ़ देखा कि वे लोग  धर्मनिरपेक्ष आचरण में विश्वास करने वालों को ' सेकुलरिस्ट ' कह रहे थे और उस शब्द को अपमानजनक सन्दर्भ के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे . बात समझ में आ गयी कि अब यह लोग सब कुछ बदल डालेगें क्योंकि जब ३१ प्रतिशत वोटों के सहारे जीतकर आये हुए लोग आज़ादी की लड़ाई की विरासत को बदल डालने की मंसूबाबंदी कर रहे हो तो भारत को एक राष्ट्र के रूप में चौकन्ना हो जाने की ज़रुरत है .

भारत एक संविधान के अनुसार चलता है . यह बात प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बादनरेंद्र मोदी ने भी स्वीकार किया है और उस संविधान की प्रस्तावना में ही लिखा है की भारतएक धर्मनिरपेक्ष देश है . प्रस्तावना में लिखा है कि ," हमभारत के लोगभारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्नसमाजवादीधर्म निरपेक्षलोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्यायविचारअभिव्यक्ति,विश्वासधर्म और उपासना की स्वतंत्रताप्रतिष्ठा और अवसर की समताप्राप्त करने के लिएतथा उन सब मेंव्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख २६ नवम्बर १९४९ को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृतअधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं. ।" इस तरह के संविधान के हिसाब से देश को चलाने का संकल्प लेकर चल रहे देश की संसद में उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाके से आये एक सदस्य ने जिस तरह की बातें  की और सरकार की तरफ से किसी भी ज़िम्मेदार  व्यक्ति ने उसको समझाया नहीं ,यह इस बात का सबूत है कि देश बहुत ही खतरनाक रास्ते पर चल पडा है . सबसे तकलीफ की बात यह है कि साम्प्रदायिकता के इन अलंबरदारों को सही तरीके से रोका नहीं गया . कांग्रेस में भी ऐसे लोग हैं जो राजीव गांधी और संजय गांधी युग की देन हैं और जो साफ्ट हिंदुत्व की राजनीति के पैरोकार हैं . ऐसी सूरत में हिन्दू साम्प्रदायिकता का जवाब देने के लिए लोकसभा में वे लोग खड़े हो गए तो मुस्लिम साम्प्रदायिकता के  समर्थक हैं. इस देश में मौजूद एक बहुत बड़ी जमात धर्मनिरपेक्ष है और उस जमात को अपने राष्ट्र को उसी तरीके से चलाने का हक है जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान तय हो गया था. देश की सबसे बड़ी पार्टी आज बीजेपी  है लेकिन उन दिनों कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी . महात्मा गांधी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे और मुहम्मद अली जिन्ना ने एडी चोटी का जोर लगा दिया कि कांग्रेस को हिन्दुओं की पार्टी के रूप में प्रतिष्ठापित कर दें लेकिन नहीं कर पाए . महात्मा जी और उनके  उत्तराधिकारियो ने कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनाए रखा .आज देश में बीजेपी का राज  है लेकिन क्या बीजेपी धर्मनिरपेक्षता के संविधान  में बताये गए बुनियादी सिद्धांत के खिलाफ जा सकती है . उसके कुछ नेता यह कहते देखे गए हैं की देश ने बीजेपी को अपनी मर्जी से राज करने के अधिकार दिया है लेकिन यह बात बीजेपी के हर नेता को साफ तौर पर पता होनी चाहिए की उनको सत्ता इसलिए मिली है कि वे नौजवानों को रोज़गार दें, भ्रष्टाचार खत्म करें और देश का विकास करें . उनके जनादेश में यह भी समाहित है कि वे यह सारे काम संविधान के दायरे में रहकर ही करें , उनको संविधान या आज़ादी की लड़ाई का ईथास बदलने का  मैंडेट नहीं मिला है .
ज़ाहिर है कि धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है .
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए अति आवश्यक है।  आजादी की लड़ाई का उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है।  गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
महात्मा गांधी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी शासकों को भारत के आम आदमी की ताक़त का अंदाज़ लग गया । आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने कांग्रेस से नाराज़ जिन्ना जैसे  लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। बाद में कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। आजकल आर एस एस और बीजेपी के बड़े नेता यह बताने की कोशिश करते हैं की सरदार पटेल हिन्दू राष्ट्रवादी थे . लेकिन यह सरासर गलत  है . भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 16दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)।
सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।सरदार अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और सरदार पटेल की बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, "इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं  . लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था। उसके बाद कांग्रेस में भी बहुत बड़े नेता ऐसे  हुए जो निजी बातचीत में  मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की नसीहत देते पाए जाते हैं . दर असल वंशवाद के चक्कर में कांग्रेस वह रही ही नहीं जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान रही थी . नेहरू युग में तो कांग्रेस ने कभी भी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत से समझौता नहीं किया लेकिन   इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी अपने छोटे बेटे की राजनीतिक समझ को महत्त्व  देने लगी थीं . नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस भी हिंदूवादी पार्टी के रूप में पहचान बनाने की दिशा में  चल पडी . बाद में राजीव हांधी के युग में तो सब कुछ गड़बड़ हो गया .
कांग्रेस का राजीव गांधी युग पार्टी को एक कारपोरेट संस्था की तरह चलाने के लिए जाना जाएगा . इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी कहते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी  जानकारी नहीं थी। उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। सोनिया गांधी के राज में साम्प्रदायिक राजनीति के  सामने कांग्रेसी डरे सहमे नज़र आते थे . एक दिग्विजय सिंह हैं जो धर्मनिरपेक्षता  का झंडा अब भी बुलंद रखते  हैं लेकिन कुछ लोग कांग्रेस में भी एसे हैं जो दिग्विजय सिंह जैसे लोगों को हाशिये पर रखने पर आमादा हैं . कई बार तो लगता है कि बहुत सारे कांग्रेसी भी धर्मनिरपेक्षता  के खिलाफ काम कर रहे हैं . और जब आर एस एस और उसके मातहत संगठनों ने धर्म निरपेक्षता को चुनौती देने का बीड़ा उठाया है तो  कांग्रेस पार्टी भी अगर उनके अरदब में आ गयी तो देश से धर्मनिरपेक्षता  की राजनीति की विदाई भी हो सकती है .

Tuesday, July 15, 2014

अमरीकी गलतियों के कारण पश्चिम एशिया में जंग के हालात


शेष नारायण सिंह

पश्चिम एशिया में अमरीकी विदेशनीति की धज्जियां उड़ रही हैं . करीब सौ साल पहले इसी सरज़मीन पर अमरीका ने एक बड़ी ताक़त बनने के सपने को शक्ल देना शुरू किया था और कोल्ड वार के बाद यह साबित हो गया था कि अमरीका ही दुनिया का सबसे ताक़तवर मुल्क है. सोवियत रूस टूट गया था और उसके साथ रहने वाले ज़्यादातर देशों ने अमरीका को साथी मान लिया था . लेकिन बाद में तस्वीर बदली. चीन ने अमरीका को चुनौती देने की तैयारी कर ली और आज चीन एक बड़ी ताक़त  है  अमरीका अपनी एशिया नीति में चीन की हैसियत को नज़रंदाज़ करने की हिम्मत नहीं कर सकता है. अमरीका के मौजूदा राष्ट्रपति बराक ओबामा की विदेशनीति में अमरीकी हितों के हवाले से हर उस मान्यता को दरकिनार करने के आरोप लग रहे हैं जिनके लिए कथित रूप से अमरीका अपने को दुनिया का  चौकीदार मानता रहा है . बराक ओबामा की विदेशनीति अब मानवाधिकारों या लोकतंत्रीय राजनीति की  संरक्षक के रूप में नहीं जानी जाती , अब वह पूरी तरह से अमरीकी हितों की बात करती है. यह भी सच है की राष्ट्रपति के रूप में बराक ओबामा ने मानवाधिकारों की बात बार बार की है , कुछ इलाकों में उनकी रक्षा भी की है लेकिन यह भी सच है कि पश्चिम एशिया और अरब दुनिया में अमरीकी नीतियों की मौकापरस्ती के चलते आज मानवाधिकारों और लोकतंत्र की मान्यताओं का सबसे ज़्यादा नुक्सान हो रहा है . अमरीकी नीतियों की लुकाछिपी का ही नतीजा है कि आज इजरायल और फिलिस्तीन के बीच एक खूनी संघर्ष की शुरुआत की इबारत लिखी जा रही है. वेस्ट बैंक में तीन इजरायली किशोर बच्चों के कथित अपहरण और हत्या के बाद इस इलाके में मारकाट शुरू हो गयी है . ताज़ा वारदात में फिलिस्तीनी डाक्टरों ने बताया कि कम से कम २३ लोगों की जान गयी है . बताया गया है की हमास और इस्लामिक जेहाद वालों के खिलाफ इजरायल ने अभियान छेड़ रखा है और उसी का नतीजा  है कि इस इलाके में शान्ति की संभावनाओं पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लग गया है . इजरायल ने झगड़े को बढाने के साफ़ संकेत दे दिए हैं . इजरायल में १५०० रिज़र्व सैनिकों को तैनात कर दिया है और अगर ज़रूरत पड़ी तो ४०,००० और रिजर्व  सैनिकों को तैनात कर दिया जाएगा . इजरायली सेना ने यह भी कहा  है कि उनके ठिकानों पर मिसाइलों से लगातार हमले हो रहे हैं.  गज़ा से करीब ८० मिसाइल दागे गए जो काफी अन्दर तक  पंहुचने में सफल रहे .
दुनिया जानती है कि इजरायल पश्चिम एशिया में अमरीकी मंसूबों का सबसे भरोसेमंद लठैत  है और उसकी सेवाओं के लिए अमरीका ने उसे इस खित्ते के इस्लामी  शासकों पर नाजिल कर रखा है .बराक ओबामा के दोस्त और दुश्मन , सभी अमरीकी राष्ट्रपति को विदेशनीति के ऐसे जानकार के रूप में पेश करते हैं जिसकी नज़र हमेशा सच्चाई पर  रहती  है. यहाँ सच्चाई का मतलब न्याय नहीं है . ओबामा की सच्चाई का मतलब यह है कि घोषित नीतियों से चाहे जितनी पलटी मारनी पड़े , लेकिन अमरीकी फायदे के अलावा और कोई  बात नहीं की जायेगी . अरब दुनिया की राजनीति में उनकी इस शख्सियत को आजकल बार  बार देखने  का मौक़ा लग रहा है . इसी जून के अंतिम सप्ताह में मिस्र के दौरे पर आये अमरीकी विदेश मंत्री जॉन केरी मिस्र के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति , अब्दुल फतह अल सीसी  के साथ  मुस्कराते हुए फोटो खिंचा रहे थे .अब्दुल फतह अल-सीसी को अमरीका तानाशाह कहता रहा है . अमरीकी हुकूमत की तरफ से उनकी एक ऐसे व्यक्ति के रूप में शिनाख्त की गयी थी जो मुस्लिम ब्रदरहुड में अपने विरोधियों को साज़िश करके मरवा  डालता है . यह व्यक्ति अल जजीरा के उन तीन पत्रकारों का गुनाहगार भी है जिनको जेल की सज़ा सुना दी गयी है . जॉन केरी फोटो खिंचाकर लौटे ही थे  कि पत्रकारों को सज़ा  का हुक्म हो गया . अमरीका ने मिस्र के इस कारनामे  की निंदा की लेकिन उसी दिन मिस्र को करीब ५८ करोड़ डालर की सैनिक सहायता भी मुहैया करवा दी. यह शुद्ध रूप से मतलबी विदेशनीति है क्योंकि अमरीका को इसमें अपना लाभ नज़र आता है .
बराक ओबामा अपने दूसरे कार्यकाल में पश्चिम एशिया में तरह तरह के अजूबे  करते रहे हैं . वियतनाम के बाद अमरीका ने अफगानिस्तान और इराक में सैनिक हस्तक्षेप बड़े पैमाने पर किया था . जब बुश बाप बेटों ने इराक और अफगानिस्तान में  सेना की धौंस मारने की कोशिश की थी तो उनके शुभचिंतकों ने उनको चेतावनी दी थी कि संभल कर रहना , कहीं वियतमान न हो जाए. खैर , अभी तक वियतनाम तो नहीं हुआ है लेकिन अभी दोनों ही देशों में अमरीकी गलतियों का सिलसिला ख़त्म भी तो नहीं हुआ  है .अफगानिस्तान में वर्षों का हामिद करज़ई का शासन ख़त्म होने को है . अमरीकी सुरक्षा के तहत वहां राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए हैं . दूसरे दौर की गिनती हो चुकी  है . पहले राउंड के बाद कोई फैसला नहीं  हो सका था . उसके बाद अब्दुल्ला अब्दुल्ला  और अशरफ गनी के बीच दूसरे राउंड का चुनाव हो चुका है . औपचारिक रूप से नतीजे घोषित नहीं हुए हैं लेकिन संकेत साफ़ आ चुके हैं  . आम तौर पर माना जा रहा है कि पख्तूनों के समर्थन से चुनाव लड़ रहे अशरफ गनी ने बेईमानी करके ताजिकों के समर्थन वाले अब्दुल्ला अब्दुल्ला को हरा दिया है  . इस बीच नतीजों के संकेत आने के बाद अब्दुल्ला के समर्थकों ने दबाव बनाना शुरू कर दिया है  कि आप अपने आपको निर्वाचित घोषित कर दीजिये . अगर ऐसा हुआ तो साफ़ माना जाएगा कि अफगानिस्तान के दो टुकड़े होने वाले हैं . अभी कोई नहीं जानत्ता कि अफगानिस्तान का राष्ट्रपति कौन होगा---- अब्दुल्ला या अशरफ गनी . या कहीं दोनों ही राष्ट्रपति न बन जाएँ . अमरीका की मनमानी नीतियों की  कृपा से ही आज अफगानिस्तान एक अशान्ति का क्षेत्र है . एक ऐसा क्षेत्र जहां अमरीका की कृपा से अल कायदा का जन्म हुआ , जहां पाकिस्तानी सेना ने तालिबान की स्थापना की और जिसके संघर्ष में शामिल  मुजाहिदीन ने आसपास के इलाकों में आतंक का माहौल  बना रखा है . आज इस अशांति से अमरीका को सबसे बड़ा खतरा  है . यह ख़तरा हमेशा से ही था लेकिन अमरीकी हुक्मरान को यह दिखता नहीं था .उनको लगता  था कि पश्चिम और दक्षिण एशिया की अशांति अमरीका नहीं पंहुचेगी लेकिन जब ११ सितम्बर को न्यूयार्क में हमला हो गया तब से अमरीकी विदेश नीति तरह तरह के कुलांचे भरती नज़र आ रही है .
अफगानिस्तान की तरह ही अमरीकी विदेशनीति ने इराक में अशान्ति का माहौल बना रखा है . अमरीका का हुक्म मानने से इनकार करने वाले तत्कालीन इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को सबक सिखाने के लिए अमरीका ने सामूहिक नरसंहार के  हथियारों की फर्जी बोगी के ज़रिये इराक पर हमला किया था . दिमाग से थोड़े कमज़ोर अमरीकी राष्ट्रपति बुश जूनियर और उनके साथी ब्रिटेन के राष्ट्रपति टोनी ब्लेयर ने इराक को तबाह करने की योजना बनाई थी . आज अमरीकी विदेशनीति वहीं दजला और फरात  नदियों के दोआब में बुरी तरह से पिट रही है . अमरीका की पश्चिम एशिया नीति में कभी भी कोई स्थिरता नहीं रही है लेकिन बेचारे बराक ओबामा की मुश्किल बहुत ही अजीब है . आजकल वे इराक में राज कर रहे प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी को नहीं संभाल पा रहे हैं . अमरीका अब उन पर भरोसा नहीं करता. लेकिन उनके लिए ३०० अमरीकी सैनिक सलाहकार भेज दिए गए . संकेत यह है कि अमरीका मलिकी के साथ है जबकि ऐसा नहीं है .इससे इराक के अल्पसंख्यक सुन्नी नेताओं में खासी नाराज़गी  है . ऐसा लगता है कि इस्लामिक स्टेट नाम के आतंकी संगठन के खिलाफ और किसी स्वीकार्य नेता को इराक में न तलाश पाने की कुंठा के चलते ओबामा अल मलिकी को ही समर्थन करने की सोच रहे हैं . इस  चक्कर में वे अपने परंपरागत दुश्मन इरान और सीरिया  के राष्ट्रपति बशर अल असद के साथ हाथ मिलाते नज़र आ  रहे हैं .अमरीका ने इरान से सैनिक सहयोग मांग लिया है जबकि बशर अल असद ने अमरीकी सलाह से इराक के अन्दर उन इलाकों पर लड़ाकू विमानों से बमबारी करवाई है जो इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के सुन्नी  लड़ाकों के कब्जे में है. अब दूसरा विरोधाभास देखिये . अमरीकी राष्ट्रपति ने अपनी संसद से ५० करोड़ डालर की सैनिक सहायता उन ज़िम्मेदार सुन्नी मिलिसिया के लिए माँगी है जो सीरिया में बशर अल असद की सरकार के खिलाफ लड़ रहे हैं.   देखा यह गया है  कि सीरिया और इरान के बारे में अमरीका बिलकुल कन्फ्यूज़न का शिकार है .इजरायल, साउदी अरब आदि के दबाव में वह इरान और लेबनान में एक आचरण करता  है जबकि इराक की ज़मीनी सच्चाई की रोशनी में वह शिया हुक्मरानों के करीब जाने की कोशिश  करता नज़र  आता  है . कोई भी साफ़ दिशा कहीं से भी नज़र नहीं आती है .
आजकल तो अमरीकी विदेशनीति के आयोजक और संचालक मुंगेरीलालों को एक और  हसीन सपना आ रहा है . वे इरान के साथ किसी ऐसे समझौते के सपने देख रहे हैं  जिसके बाद इरान के परमाणु कार्यक्रम को भी काबू में किया जा सकेगा . अगर ऐसा हुआ तो अमरीका और इरान के बाच ३५ साल से चली आ रही दुश्मनी ख़त्म हो जायेगी . अब इनको कौन बताये कि जो इरान हर तरह की अमरीकी पाबंदियों को झेलता रहा , अमरीका के हर तरह के दबाव को झेलता रहा और उन दिनों के अमरीकी  चेला सद्दाम हुसैन के हमले  झेलता रहा और अमरीका के सामने कभी नहीं झुका , वह इरान आज जबकि उसका पलड़ा भारी  है , वह अमरीका की मूर्खतापूर्ण विदेशनीति को डूबने से बचा सकता  है तो वह अपने परमाणु कार्यक्रम जो अमरीका की मर्जी से चलाने पर राजी हो जाएगा. अमरीकी विदेशनीति के संचालकों को यह नहीं दख रहा है कि  अगर इरान से बहुत अधिक दोस्ती बढ़ाने की कोशिश की गयी तो इजरायल को कैसा लगेगा या कि साउदी अरब को कैसा लगेगा .
आज भी पश्चिम एशिया में अमरीका के सबसे करीबी दोस्तों में इजरायल के अलावा जार्डन, संयुक्त अरब अमीरात और तुर्की शामिल हैं . इसके अलावा क़तर , बहरीन, ओमान, लेबनान और कुवैत भी अमरीका के दोस्तों में शुमार किये जाते हैं . इस्लामिक स्टेट आफ इराक और सीरिया को काबू में करने के लिए अमरीका को साउदी अरब की मदद भी मिल सकती है क्योंकि वह भी आजकल अल कायदा से बहुत खफा है . ज़ाहिर है की अगर इन साथियों के इर्द गिर्द अमरीका कोई योजना बनाता है तो शायद इस्लामिक स्टेट आफ इराक और सीरिया को काबू में किया जा सके. इस मुहिम में उसको इरान और  सीरिया के राष्ट्पति की मदद भी मिल सकती है लेकिन अब वक़्त आ गया  है कि अमरीका अपनी उस आदत से बाज़ आ गए जिसमें सब कुछ उसकी मर्जी से ही होता रहा है . पश्चिम एशिया में आज अमरीका मुसीबत के  घेरे में है उसे समझदारी से काम लेना पडेगा .

Thursday, June 12, 2014

आतंकवाद के भस्मासुर की चपेट में पाकिस्तानी राष्ट्र


शेष नारायण सिंह 


पाकिस्तान  के कराची हवाई अड्डे पर हमलों का  सिलसिला लगातार जारी  है. तहरीके तालिबान पाकिस्तान ने  हमलों की ज़िम्मेदारी ली है।  इन हमलों  के बाद आत्नकवाद की राजनीति में एक नया अध्याय जुड़ गया है।  जब पाकिस्तान के तत्कालीन  फौजी तानाशाह जनरल ज़िया उल हक़ ने आतंकवाद को विदेशनीति   का बुनियादी आधार बनाने का  खतरनाक खेल खेलना  शुरू किया तो दुनिया  शान्तिप्रिय लोगों ने उनको आगाह किया  था कि  आतंकवाद को कभी भी राजनीति का हथियार नहीं बनाना चाहिए।  लेकिन जनरल  जिया  अपनी ज़िद पर अड़े रहे।  भारत के कश्मीर और पंजाब में उन्होंने फ़ौज़ की मदद से आतंकवादियों को झोंकना शुरू कर दिया।  अफगानिस्तान में भी अमरीकी मदद से उन्होंने आतंकवादियों  पैमाने पर तैनाती की।  इस इलाक़े की मौजूदा तबाही का कारण यही है कि  जनरल  जिया का आतंकवाद अपनी जड़ें  जमा चुका है। 
पाकिस्तानी आतंकवाद की सबसे नई बात यह है कि  पहली बार पाकिस्तानी फ़ौज़ और आई यस आई के खिलाफ इस बार उनके द्वारा पैदा किया गया आतंकवाद ही मैदान में है।  पहली बार पाकिस्तानी इस्टैब्लिशमेंट के खिलाफ तालिबान के लड़ाकू हमला कर रहे हैं।  इसलिए जो   आतंकवाद भारत को नुक्सान पंहुचाने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज़ ने तैयार किया था वह अब उनके ही सर की मुसीबत बन चुका है।  भारत में भस्मासुर की जो अवधारणा बताई जाती है ,वह पाकिस्तान में सफल होती   नज़र आ रही है।  अस्सी  के दशक में पाकिस्तान  अमरीका की कठपुतली के रूप में भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाने का काम करता था।  यह  बात हमेशा से ही मालूम थी कि  अमरीका तब से भारत का विरोधी हो गया था जब से अमरीका की मर्ज़ी के खिलाफ जवाहरलाल  नेहरू ने निर्गुट आन्दोलन  की स्थापना की थी।  क़रीब तीन साल पहले अमरीका की जे एफ के लाइब्रेरी में नेहरू-केनेडी पत्रव्यवहार को सार्वजनिक किये जाने के बाद कुछ ऐसे तथ्य सामने आये हैं जिनसे पता चलता है कि अमरीका ने भारत की मुसीबत  के वक़्त कोई मदद नहीं की थी.  भारत के  ऊपर जब १९६२ में चीन का हमला हुआ था तो वह नवस्वतंत्र भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी . उस वक़्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीका से मदद माँगी भी थी लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने कोई भी सहारा नहीं दिया  और नेहरू की चिट्ठियों का जवाब तक नहीं दिया था . इसके बाद इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्री बनने के बाद लिंडन जॉनसन  ने भारत का अमरीकी कूटनीति के हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन इंदिरा गाँधी ने अपने राष्ट्रहित को महत्व दिया और अमरीका के हित से ज्यादा महत्व अपने हित को दिया और गुट निरपेक्ष आन्दोलन की नेता के रूप में भारत की इज़्ज़त बढ़ाई . हालांकि अमरीका की  यह हमेशा से कोशिश रही है कि वह एशिया की  राजनीति में भारत का अमरीकी हित में इस्तेमाल करे लेकिन भारतीय विदेशनीति के नियामक अमरीकी राष्ट्रहित के प्रोजेक्ट में अपने आप को पुर्जा बनाने को तैयार नहीं थे .
पिछले साठ वर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका ने भारत को हमेशा  की नीचा दिखाने की कोशिश की  है . १९४८ में जब कश्मीर मामला संयुक्तराष्ट्र में गया था तो तेज़ी से सुपर पावर बन रहे अमरीका ने भारत के खिलाफ काम किया था .  १९६५ में जब कश्मीर में घुसपैठ कराके उस वक़्त के पाकिस्तानी तानाशाह , जनरल अय्यूब  ने भारत पर हमला किया था तो उनकी सेना के पास जो भी हथियार थे सब अमरीका ने ही उपलब्ध करवाया था . उस लड़ाई में जिन पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने रौंदा था, वे सभी अमरीका की खैरात के रूप में पाकिस्तान  की झोली में आये थे. पाकिस्तानी सेना के हार जाने के बाद अमरीका ने भारत पर दबाव बनाया था कि वह अपने कब्जे वाले पाकिस्तानी इलाकों को छोड़ दे  . १९७१ की बंगलादेश की  मुक्ति की लड़ाई में भी अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने  तानाशाह याहया खां के बड़े भाई के रूप में काम किया था और भारत  को धमकाने के लिए अमरीकी सेना के सातवें बेडे को बंगाल की खाड़ी में तैनात कर दिया था . उस वक़्त के अमरीकी विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर ने उस दौर में पाकिस्तान की तरफ से पूरी दुनिया  में पैरवी की थी. संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के खिलाफ काम किया था . जब भी भारत ने परमाणु परीक्षण किया अमरीका को तकलीफ हुई . भारत ने बार बार पूरी दुनिया से अपील की कि बिजली पैदा करने के लिए उसे परमाणु शक्ति का विकास करने दिया जाय लेकिन अमरीका ने शान्ति पूर्ण परमाणु के प्रयोग की कोशिश के बाद भारत के ऊपर तरह तरह की पाबंदियां लगाईं. उसकी हमेशा कोशिश रही कि वह भारत और पाकिस्तान को बराबर की हैसियत वाला मुल्क बना कर रखे लेकिन ऐसा करने में वह सफल नहीं रहा .आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है , वह सब अमरीका की कृपा से की गयी पाकिस्तानी  दखलंदाजी की वजह से ही है . कश्मीर में जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का पैसा लगा है . पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तान की  फौज की कृपा से ही शुरू हुआ था . 

आज हम देखते हैं कि  अमरीका ने जिस पाकिस्तानी आतंकवाद का ज़रिये भारत की एकता पर प्राक्सी हमला किया था  पाकिस्तान  ही मुसीबत बन गया है. पाकिस्तानी  फ़ौज़ और राजनेताओं को चाहिए कि वे अपने देश की सुरक्षा को सबसे ऊपर  रखें और भारत की मदद से आतंकवाद के खात्मे के लिए योजना बनाएं वरना एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान  अस्तित्व खतरे में पड़  जाएगा।

Tuesday, June 10, 2014

प्रधानमंत्री के चुनावी नारों को राष्ट्रपति के अभिभाषण में शामिल किया गया .




शेष नारायण सिंह

 संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में राष्ट्रपति के अभिभाषण के साथ ही सोलहवीं  लोकसभा का विधवत आगाज़ हो गया. मानी हुयी बात है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण में उनकी सरकार की नीतियों और योजनाओं का ज़िक्र होता है  लेकिन आज का राष्ट्रपति का अभिभाषण इस बात  के लिए ख़ास तौर पर याद रखा जाएगा कि उसमें मौजूदा प्रधानमंत्री के उन भाषणों के अंश भी थे जिनको उन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान नारों की शक्ल में इस्तेमाल किया था  सबको मालूम है कि राष्ट्रपति हर काम मंत्रिमंडल की सलाह से करते हैं  ,उनके सार्वजनिक भाषण भी सरकार की तरफ से लिखे जाते हैं , उनके हर भाषण में सरकार की नीतियों का ही उल्लेख होता है लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि राष्ट्रपति महोदय अपने भाषण में सत्ताधारी पार्टी के चुनावी नारों का बड़े विस्तार से उल्लेख करें . आज का भाषण इस सन्दर्भ में बहुत ही उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव भाषणों के कई नारों का अपने भाषण में इस्तेमाल किया .
आज के भाषण में जो सबसे प्रमुख बात समझ में आई वह  यह कि महिलाओं को संसद और विधानमंडलों में ३३ प्रतिशत आरक्षण की बीजेपी और कांग्रेस की करीब बीस साल से चल रही योजना  को लागू किया जा सकेगा . इसका कारण यह है कि बीजेपी की सरकार किसी भी ऐसी पार्टी के सहयोग की मुहताज नहीं है जो आम तौर पर महिलाओं के आरक्षण की बात शुरू होने पर हंगामा करते थे .  समर्थन की बात  तो दूर इस तरह  की विचारधारा  के लोग लोकसभा के सदस्य भी नहीं हैं . कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही इस मामले पर एकमत  रहे हैं . आज राष्ट्रपति जी ने महिलाओं के लिए जिन सकारात्मक बातों का उल्लेख किया उसमें से एक यह भी है . ज़ाहिर है कि दशकों से ठन्डे बसते में पडी यह योजना  मानसून सत्र में ही लागू की जा सकती है . महिलाओं के लिए अभिभाषण में और भी अहम् बाते  कही गयी हैं जिनपर सबकी नज़र रहेगी . मसलन महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा पर काबू  करने की जिस  मंशा की बात की गयी है अगर वह  लागू हो गयी तो भारत दुनिया के सभ्य देशों की सूची में काफी ऊपर पंहुंच जायेगा .

अपने अभिभाषण में केंद्र सरकार की पांच साल की योजनाओं का ज़िक्र तो राष्ट्रपति जी ने किया ही , कई बार उन्होंने ऐसी योजनाओं का ज़िक्र भी किया जिनके पूरा होने में दस साल से भी ज़्यादा समय लग सकता है . मूल रूप से बड़े उद्योगों के ज़रिये रोज़गार सृजन करने की सम्भावनाओं का लगभग हर योजना में उल्लेख था . खेती में निबेश को बढ़ावा देने की बात थी तो रेलवे के  विकास के बारे में उनकी रूपरेखा से बिलकुल साफ़ लग रहा था कि अब रेलवे में बड़े पैमाने पर तथाकथित पी पी पी माडल के ज़रिये निजीकरण की शुरुआत होने वाली है . पानी की सुरक्षा और उसकी व्यवस्था के बारे में मौजूदा सरकार बहुत गंभीर है और प्रधानमंत्री सिंचाई योजना लाने की मंशा का ऐलान भी बाकायदा किया गया  . शिक्षा के क्षेत्र में प्रधानमन्त्री के हुनर विकास योजना  को प्रमुखता से लागू करने की बात भी की गयी. उन्होंने प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना ,सेना में समान रैंक ,सामान पेंशन योजना ,प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के लिए नीति,सुरक्षाबलों के लिए आधुनिक ,सागरमाला प्रोजेक्ट ,नेशनल मिशन ऑफ हिमालय ,हर परिवार को पक्का घरशौंचालय, १००  नए शहर, पूर्वोत्तर और पहाड़ी राज्यों में रेल नेटवर्क,हाई स्पीड ट्रेन , काला धन लाने के लिए एसआईटी , स्वच्छ भारत मिशन आदि बहुत सारे नारों का उल्लेख किया जो कि मौजूदा सरकार की योजनाओं  का हिस्सा हैं . हर हाथ को हुनर , हर खेत को पानी का जो बीजेपी या उसकी पूर्ववर्ती जनसंघ का पुराना ऩारा  है उसको भी अपने भाषण में शामिल किया
सरकारी हिसाब किताब का डिजिटाइजेशन,बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम , कश्मीरी पंडितों को घाटी में लौटाने की योजना, राज्य और केंद्र का टीम इंडिया की अवधारणा आदि ऐसी योजनायें हैं जिनपर पूरे देश की नज़र रहेगी .

एक भारत , श्रेष्ठ भारत , प्रधानमंत्री का प्रिय चुनावी नारा था जो राष्ट्रपति जी के भाषण में इस्तेमाल हुआ .  यह अलग बात है कि इस नारे  को नीति के स्तर पर कैसे लागू किया जाएगा ,इसके बारे में सही योजना का  उल्लेख नहीं किया गया . कुल मिलाकर राष्ट्रपति का अभिभाषण उन सभी वायदों से भरा हुआ था . देखना दिलचस्प होगा कि इनमें से कितनों को मौजूदा सरकार लागू कर पाती है .

संसदीय लोकतंत्र में सरकार से कम नहीं है विपक्ष की ज़िम्मेदारी





शेष नारायण सिंह 


कांग्रेस पार्टी ने राज्यसभा में गुलाम नबी आज़ाद को नेता और आनंद शर्मा को उपनेता तैनात कर दिया है .सबको मालूम है कि अगर राज्यसभा के साठ से भी अधिक कांग्रेसी सांसदों की राय ली गयी होती तो इन दोनों में से कोई न चुना जाता .ज़ाहिर है दिल्ली शहर के जनपथ और तुगलक लेन के साकिनों की मेहरबानी से यह हुआ है .इस तैनाती के साथ ही लगता है कि कांग्रेस ने  एक संगठन के रूप में अपनी जिजीविषा को भी तिलांजलि दे दी है. और एक संगठन के रूप में  संघर्षशील जनता के प्रतिनिधि के रूप में देश की राजनीति में बने रहने की इच्छा को अलविदा कह दिया है . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के अभियान के दौरान अक्सर कहा करते थे कि देश को कांग्रेसमुक्त भारत चाहिए .ऐसा लगता  है कि प्रधानमंत्री की उस इच्छा को पूरा करने में कांग्रेस का मौजूदा  नेतृत्व भी अपना योगदान कर रहा है . इन दो महानुभावों के बारे में इस तरह की टिप्पणी का मतलब यह कतई नहीं है कि यह बताया जाए कि किसी भी संघर्ष में इनकी कहीं कोई भूमिका नहीं है . यह भी बताना उद्देश्य नहीं  है कि पी वी नरसिम्हा राव समेत दिल्ली के ताक़तवर कांग्रेसियों के ख़ास शिष्य के रूप में गुलाम नबी आज़ाद ने लोकसभा में भी प्रवेश पा लिया था . यह भी बताने की ज़रुरत नहीं है कि अपने राज्य ,जम्मू कश्मीर की राजनीति में उनका केवल योगदान यह है कि दिल्ली दरबार के प्रतिनिधि के रूप में वहां  वे मुख्यमंत्री रहे हैं . जहां तक जनसमर्थन की बात है , वह वहां भी नहीं रहा  है क्योंकि इस बार के लोकसभा चुनाव में पराजित होकर आये हैं . यहाँ इस विषय पर चर्चा करना  भी ठीक नहीं होगा कि आनंद शर्मा का देश की राजनीति में सबसे बड़ा योगदान कभी इंदिरा गांधी और कभी राजीव गांधी का कृपापात्र बने रहने के सिवा कुछ नहीं है . यह भी कहने की ज़रुरत नहीं है कि युवक कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में आनंद शर्मा ने ही देश के कांग्रेस से सहानुभूति रखने वाले नौजवानों को दरबारगीरी की संस्कृति का महत्त्व समझाया था .
कांग्रेस पार्टी का कौन नेता हो या कौन डस्टबिन में फेंक दिया जाए यह उनका अपना मामला है  लेकिन कांग्रेस पार्टी देश की आज़ादी की लड़ाई की विरासत का निशान है ,यह बात किसी भी कांग्रेसी को नहीं भूलना चाहिए .समझ में नहीं  आता कि जब डॉ मनमोहन सिंह  पिछले दस साल से राज्यसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता थे तो उनको हटाने की क्या ज़रूरत थी. कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के इर्दगिर्द गणेश परिक्रमा करने वाले कांग्रेस नेताओं के समूह ने पिछले दस वर्षों से हमेशा यह कोशिश की है कि कांग्रेस या यू पी ए सरकार की हर सफलता के लिए सोनिया गांधी या राहुल गांधी की तारीफ़ की जाए और अगर कहीं कोई विफलता  हो तो उसका ठीकरा डॉ मनमोहन सिंह के सर मढ़ दिया जाए.  यहाँ यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि  डॉ मनमोहन सिंह दस वर्षों तक प्राक्सी प्रधानमंत्री ही रहे हैं. पहले कांग्रेस अध्यक्ष की बात पूरी तरह से मानी जाती थी ,बाद में पार्टी के उपाध्यक्ष जी नानसेंस आदि के संबोधनों से मनमोहन सरकार के फैसलों को विभूषित किया करते थे.. तो जब किसी प्राक्सी को ही राज्यसभा में नेता बनाया जाना था तो डॉ मनमोहन सिंह में क्या कमी थी.
कांग्रेस पार्टी के आलाकमान को शायद यह समझ में नहीं आ रहा है कि उनकी पार्टी किसी परिवार की पार्टी नहीं है . यहाँ आज़ादी की लड़ाई में कांग्रेस की भूमिका का ज़िक्र करके बात को ऐतिहासिक सन्दर्भ देने की भी मंशा नहीं है. बस यह याद दिला देना है की संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका सरकारी पक्ष से कम नहीं होती, कई बार तो ज़्यादा  ही होती है . १९७१ में इंदिरा गांधी भारी बहुमत से जीतकर आयी थीं और  विपक्ष में संख्या के लिहाज़ से बहुत सांसद थे लेकिन उन सांसदों में  देशहित का भाव सर्वोच्च था . उन सब को मालूम था कि वे आने वाले समय में सरकार में नहीं शामिल होने वाले थे क्योंकि देश में कभी गैरकांग्रेसी सरकार ही नहीं बनी थी . उनको मालूम था कि उनकी राजनीति मूलरूप से सरकार पर नज़र रखने की राजनीति ही थी लेकिन उस दौर में  इंदिरा गांधी की कोई भी जनविरोधी नीति संसद में चुनौती से बच नहीं सकी. तत्कालीन प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी की मारुति फैकटरी  और उससे जुड़ी भ्रष्टाचार की गाथाएँ देश के बड़े भाग में लोगों को मालूम थीं . पांडिचेरी लाइसेंस घोटाला की हर जानकारी जनता तक पंहुंच रही थी. यह यह समझ लेना ज़रूरी है कि उन दिनों २४ घंटे का टेलिविज़न नहीं था , मात्र कुछ अखबार थे जिनकी वजह से सारी जानकारी जनता तक पंहुचती थी.१९७७ में भी विपक्ष की भूमिका किसी से कम नहीं थी. इंदिरा गांधी खुद चुनाव हार गयी थीं . कांग्रेस पार्टी के हौसले पस्त थे लेकिन कुछ ही दिनों में विपक्ष ने सरकार के हर काम को पब्लिक स्क्रूटिनी के दायरे में डाल दिया .सब ठीक हो गया और मोरारजी देसाई की सरकार में काम करने वाले भ्रष्ट मंत्रियों की ज़िंदगी दुश्वार हो गयी क्योंकि सरकार के हर काम पर कांग्रेसी विपक्ष की नज़र थी . राजीव गांधी भी जब लोकसभा में विपक्ष के नेता थे तो विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को माकूल विपक्ष मिला और जब राजा ने खुद ही यह साबित कर दिया कि राजकाज के मामले में वी पी सिंह बहुत ही लचर थे तो उनको हटाकर अस्थायी ही सही  , एक नया और राजनीतिज्ञ प्रधानमंत्री देश को दे दिया . जानकार बताते हैं की अगर उन दिनों चंद्र्शेखर जी को प्रधानमंत्री न बनाया गया  होता तो वी पी सिंह की सरकार की कमज़ोर राजनीतिक कुशलता के चलते, कश्मीर और पंजाब में आई एस आई  की कृपा से चल रहा आतंकवाद देश की अस्मिता पर भारी पड़ जाता .
 सबको मालूम है कि लोकसभा में बीजेपी का स्पष्ट बहुमत है और राज्यसभा में ही उनकी नीतियों की सही निगरानी  होगी .ऐसी स्थिति में  कांग्रेस आलाकमान ने अपनी पिछली टुकड़ी के वफादार टाइप नेताओं को राज्यसभा का चार्ज देकर देश के लोकतंत्र के साथ न्याय नहीं किया है .  जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव का संचालन किया है उसके कारण देश के संसदीय लोकतंत्र के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है .लगता है कि सब कुछ राष्ट्रपति प्रणाली की तरफ बढ़ रहा है . ऐसी हालत  में मुख्य विपक्षी दल की तरफ से कमजोरी का संकेत देना राष्ट्रहित में नहीं है .

चीन से सम्बन्ध सुधारने की सकारात्मक पहल फिर शुरू , लेकिन रास्ते बहुत ही मुश्किल हैं



शेष नारायण सिंह 

चीन के विदेशमंत्री की नई दिल्ली यात्रा संपन्न हो गयी . जैसा कि सब को मालूम है कुछ खास हासिल नहीं हुआ. होना भी नहीं था क्योंकि दोनों देशों के आपसी रिश्तों में खटास इतनी ज़्यादा है कि मामूली बातचीत से कुछ हासिल होने वाला नहीं है .गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार चीन की यात्रा की थी और वे उसके विकास से बहुत प्रभावित बताये जाते हैं . लेकिन यह भी सच है कि दोनों देशों के बीच में विवादित मामलों का बहुत बड़ा पहाड़ भी है . यह उम्मीद करना कि विवादों पर चर्चा संभव हो पायेगी ,अभी बहुत जल्दबाजी होगी . लेकिन कभी एक दूसरे के दुशमन रहे दो देशों के बीच अगर बातचीत होती रहे तो कूटनीति की दुनिया में वह भी बहुत बड़ी  बात होती है . इस यात्रा में चीनी विदेशमंत्री मूल रूप से  इस उद्देश्य से  आ रहे हैं की दोनों देश इस बात का  ऐलान कर सकें कि नई हुकूमत में पहले से बेहतर तरीके से संवाद किया जायेगा, दोनों के बीच व्यापार के अवसर हैं,उनको सही परिप्रेक्ष्य में रखा जाएगा. इस यात्रा के नियोजकों को भी मालूम था कि  तिब्बत, पनबिजली योजनायें , ब्रह्मपुत्र विवाद आदि से सम्बंधित मुद्दों पर सांकेतिक भाषा में भी ज़िक्र नहीं होगा . लोकसभा चुनाव के दौरान अरुणाचल प्रदेश के बारे में दिए गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों का भूलकर भी ज़िक्र नहीं किया जाएगा .. प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में प्रवासी तिब्बत सरकार के प्रधानमंत्री लोबसांग सांगे एक सम्मानित अतिथि के रूप में शामिल हुए थे .  विदेश मंत्रालय के आला अधिकारियों को  मालूम है कि चीन ने इस बात का बुरा माना था . ज़ाहिर है इस विषय को भी बातचीत में शामिल नहीं किया गया  .
मूल रूप से इस यात्रा को पड़ोसियों से अच्छे सम्बन्ध बनाने की दिशा में उठाया गया एक क़दम माना जा रहा  है . अपने पदग्रहण समारोह में दक्षेश देशों के शासकों को बुलाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी शुरुआत कर दी है . हमको मालूम है कि भारतीय जनता पार्टी की विदेशनीति में पड़ोसी देशों से रिश्तों को सुधारने की लालसा बहुत ही प्रमुख होती  है . जब अटल बिहारी वाजपेयी १९७७ में विदेशमंत्री बने तो उन्होंने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने को अपनी प्राथमिकता बताया . सांकृतिक आदानप्रदान शुरू हुआ . भारत से पान के पत्तों का निर्यात शुरू हुआ , बहुत बड़े पैमाने पर बांस का भी  निर्यात किया गया . इमरजेंसी ख़त्म होने पर जब जेल से रिहा हुए तो अपने पहले  ही सार्वजनिक भाषण में अटल बिहारी  वाजपयी ने  फैज़ अहमद फैज़ की शायरी को अपना बड़ा संबल बताया और कहा कि फैज़ का वह शेर  " कूए यार से निकले तो सूए दार चले " उन्हें जेल में बहुत अच्छा लगता था . नतीजा यह हुआ कि फैज़ भी आये और इकबाल बानो भी आयीं , मुन्नी बेगम भी आयीं . लेकिन उसी दौर में भारत की लाख विरोध के बावजूद भी तत्कालीन पाकिस्तानी तानाशाह जनरल ज़िया उल हक  ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को फांसी दे दी, और भारत से दुश्मनी की फौजी संस्कृति की शुरुआत कर दी . उसी दौर में यह हाफ़िज़ सईद उनका धार्मिक सलाहकार तैनात हुआ था और हम जानते हैं कि एक हाफ़िज़ सईद ने दोनों देशो के बीच दुश्मनी का जो माहौल तैयार किया है उससे इस इलाके में शान्ति को सबसे बड़ा खतरा  है . दोबारा जब अटल जी प्रधानमंत्री के रूप में
सत्ता में आये तो पाकिस्तान से रिश्ते   सुधारने के लिए बस पर बैठकर लाहौर गए और सबको मालूम है कि शान्ति की बात तो दूर वहां पाकिस्तानी फौजें कारगिल में भारत के खिलाफ हमला कर चुकी थीं. वह तो हमारी फौजों ने इज्ज़त बचा ली वरना कारगिल में भारी मुश्किल पैदा हो चुकी थी . पाकिस्तान से दोस्ती बढाने के लिए नरेंद्र मोदी ने ज़रूरी पहल तो कर दी है लेकिन सबको पता है कि वहां के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की हैसियत पाकिस्तानी भारत नीति में लगभग नगण्य होती है . सारे फैसले फौज और आई एस आई करती है .
इस पृष्ठभूमि  में चीन से सकारात्मक संवाद की शुरुआत अच्छी बात है लेकिन रास्ता बहुत बड़े बीहड़ों से होकर गुज़रता है .इसलिए संवाद का लक्ष्य ही हासिल हो जाए तो बहुत अच्छा माना जायेगा लेकिन दुर्भाग्य यह है कि शुरू में ब्रितानी साम्राज्यवाद और बाद में अमरीकी साम्राज्यवाद का शिकार रहे इस इलाके में विदेशी शक्तियों का बहुत ही नाजायज़ प्रभाव रहता है . ब्रिटेन और अमरीका के बाद आजकल चीन इस इलाके में अपना प्रभुत्व स्थापित करने की फ़िराक में है चीनी विदेशमंत्री वांग यी की यात्रा इस इलाके में शान्ति और सुलह का माहौल बनाए रखने के लिए बहुत अहम क़दम है लेकिन चीन के प्रभुत्वकामी हुक्मरानों की मंशा के मद्देनज़र उसके साथ रिश्ते सुधारने के चक्कर में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए . हमें इतिहास का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि जो इतिहास को ध्यान में नहीं रखते वे खुद ही एक दुखद इतिहास बनने का खतरा मोल लेते हैं . चीन से अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने हर कोशिश की थी लेकिन सब कुछ बहुत जल्दी  ही चीनी विस्तारवाद का शिकार हो गया. आठ फरवरी १९६० को जब राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने संसद को दोनों सदनों को बजट सत्र की शुरुआत के वक़्त संबोधित किया तो उसमें साफ़ चिंता  जताई गयी कि चीन भारतीय सीमा पर अपने सैनिक झोंक रहा है . हालांकि चीनी हमला वास्तव  में १९६२ में हुआ लेकिन १९६० में ही मामला इतना गंभीर हो चुका था कि राष्ट्रपति को अपने संबोधन में इस मद्दे को मुख्य विषय बनाना पडा.
मौजूदा यात्रा केवल जान पहचान बढाने वाली यात्रा के रूप में देखी जा रही है और २०१५ तक १०० अरब डालर का आपसी व्यापार वाला लक्ष्य हासिल  करने की दिशा में एक ज़रूरी क़दम  मानी जा रही है . ब्राज़ील में, ब्रिक्स ( ब्राजील ,भारत, चीन रूस और दक्षिण अफ्रीका ) सम्मलेन के दौरान  होने वाली  शासनाध्यक्षों की मुलाक़ात के सन्दर्भ में भी यह यात्रा महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति जी जिनपिंग की मुलाक़ात होगी .  ज़ाहिर है चीनी विदेशमंत्री की इस यात्रा से ब्रिक्स में बातचीत करने के कुछ बिंदु निकाले जा रहे हैं .इस्सके अलावा इस यात्रा से बहुत उम्मीद करना जल्दबाजी होगी .

Sunday, June 8, 2014

औरतों को तालीम की ताक़त दो ,वरना इन्साफ नहीं होगा



शेष नारायण सिंह

देश के हर कोने से महिलाओं पर हो रहे अत्याचार की ख़बरें आ रही हैं।  अभी खबर आयी है कि  मुंबई के पास कल्याण में एक मर्द ने सरकारी बस में यात्रा कर रही एक महिला को इतना पीटा कि  वह बेहोश हो गयी।  उसको बचाने के लिए बस की कंडक्टर आई तो उसको भी मारा पीटा।  बस में  ने उनकी वहशत का कोई जवाब  नहीं  दिया।  उत्तर प्रदेश से  बलात्कार की ख़बरें कई ज़िलों से आ रही हैं।  मध्य प्रदेश और राजस्थान में महिलाओं के साथ अत्याचार की इतनी ख़बरें आती हैं कि  जब किसी दिन घटना की सूचना नहीं आती तो लगता है कि  वही समाचार  का विषय है। आज दिल्ली के अखबारों में खबर है  कि  किसी नराधम ने एक तीन साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया। उत्तर प्रदेश से लड़कियों से हैवानियत की जितनी भी रिपोर्टें आ रही हैं उनमें ज़्यादातर ऐसी बच्चियों को शिकार बनाया गया है जो शाम ढले शौच के लिए घर से बाहर खेतों में  जा रही थीं . यानी अगर उनके घर में शौच की सुविधा होती , शौचालय बनाने की सरकारी स्कीम के तहत शौचालय बनवा दिए गए होते तो बड़ी संख्या में लड़कियों को बलात्कार जैसी जघन्य पाशविकता का शिकार होने से बचाया जा सकता था. केंद्र सरकार के संगठन , राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन( एन एस एस ओ ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के गाँवों में रहने वाली साठ फीसदी आबादी के पास घर में या घर के पास शौचालय नहीं है . केंद्र सरकार की तरफ से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन लागू किया गया है .ग्रामीण आबादी के लिये अप्रैल, 2005 में शुरू किया गया . इस कार्यक्रम में महिलाओं और उनके स्वास्थ्य में सुधार को सबसे ज़्यादा प्राथमिकता दी गयी है . एक बड़ी धनराशि महिलाओं की सुविधा को ध्यान में रखकर शौचालयों के लिए रिज़र्व कर दी गयी थी. देश के अठारह राज्यों के लिए इस स्कीम में ख़ास इंतज़ाम किये गए थे . अरुणाचल प्रदेश,असमबिहारछत्तीसगढ़हिमाचल प्रदेशझारखंडजम्मू कश्मीरमणिपुरमिजोरममेघालयमध्य प्रदेश,नागालैण्डउड़ीसाराजस्थानसिक्किमत्रिपुराउत्तराखंड एवं उत्तर प्रदेश में केंद्र सरकार की और से अब तक शौचालय के नाम पर बड़ी रक़म दी जा चुकी है लेकिन गैरजिम्मेदार राज्य सरकारों ने इस दिशा में कोई ख़ास काम नहीं किया. मन कहता है की काश सरकारों ने अपने ज़िम्मेदारी निभाई होती तो आज  उन बच्चियों को बलात्कार जैसे भयानक अपराध से बचाया जा सका होता.

 

लेकिन यहीं पर दूसरा सवाल पैदा होता है . क्या वे लड़कियां जो अकेले देखी जायेगीं उनको बलात्कार का शिकार बनाया जायेगा. बार बार सवाल पैदा होता है कि लड़कियों के प्रति समाज का रवैया इतना वहशियाना क्यों है। दिसंबर २०१३ में हुए दिल्ली गैंग रेप कांड के बाद समाज के हर वर्ग में गुस्सा था.  अजीब बात है कि बलात्कार जैसे अपराध के बाद शुरू हुए आंदोलन से वह बातें निकल कर नहीं आईं जो महिलाओं को राजनीतिक ताक़त  देतीं  और उनके सशक्तीकरण की बात को आगे बढ़ातीं . गैंग रेप का शिकार हुई लडकी के साथ हमदर्दी वाला जो आंदोलन शुरू हुआ था उसमें बहुत कुछ ऐसा था जो कि व्यवस्था बदल देने की क्षमता रखता था लेकिन बीच में पता नहीं कब अपना राजनीतिक एजेंडा चलाने वाली राजनीतिक पार्टियों ने आंदोलन को हाइजैक कर लिया और केन्द्र सरकार ,दिल्ली  सरकार और इन सरकारों को चलाने वाली राजनीतिक पार्टी फोकस में आ गयी . कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की कोशिश में लगी हुई पार्टियों ने आंदोलन को दिशाहीन और हिंसक बना दिया . इस दिशाहीनता का नतीजा या हुआ  कि महिलाओं के सशक्तीकरण के मुख्य मुद्दों से राजनीतिक विमर्श को पूरी तरह से भटका दिया गया  .  बच्चियों और महिलाओं के प्रति समाज के रवैय्ये को  बदल डालने का जो अवसर मिला था  उसको गँवा दिया गया।   अब ज़रूरी है कि कानून में ऐसे इंतजामात किये जाएँ कि अपराधी को मिलने वाली सज़ा को देख कर भविष्य में किसी भी पुरुष की हिम्मत न पड़े कि बलात्कार के बारे में सोच भी सके.  उस समाज के खिलाफ सभ्य समाज को लामबंद होने की ज़रूरत है जो लडकी को इस्तेमाल की वस्तु साबित करता है  और उसके साथ होने वाले बलात्कार को भी अपनी शान में गुस्ताखी मान कर सारा काम करता है . हमें एक ऐसा समाज  चाहिए जिसमें लडकी के साथ बलात्कार करने वालों और उनकी मानसिकता की हिफाज़त करने वालों के खिलाफ लामबंद होने की इच्छा हो और ताक़त हो. 

 चारों तरफ महिलाओं के प्रति अत्याचार की ख़बरें हैं।  किसी दिन के अखबारों पर नज़र डालें तो बलात्कार के कम से कम दस मामले ऐसे हैं जिनकी खबर छपी है . ये ऐसे मामले हैं जिनको पुलिस थानों में बाकायदा रिपोर्ट किया गया है . इन बलात्कारों से भी ज्यादा अपमानजनक बहुत सारे  विज्ञापन हैं जो अखबारों और टेलिविज़न चैनलों पर चलाये जा रहे हैं .महिलाओं को उपभोग की चीज़ साबित करने की कोशिश करने वाली इस मानसिकता के खिलाफ जंग  छेड़ने की ज़रूरत है जिसमें लडकी को संपत्ति मानते हैं . इसी मानसिकता के चलते इस देश में लड़कियों को दूसरे दरजे का इंसान माना जाता है और उनकी इज्ज़त को मर्दानी इज्ज़त से जोड़कर देखा जाता है . लडकी की इज्ज़त की रक्षा करना समाज का कर्त्तव्य माना जाता है . यह गलत है . पुरुष कौन होता है लडकी की रक्षा करने वाला . ऐसी शिक्षा और माहौल बनाया जाना चाहिए जिसमें लड़की खुद को अपनी रक्षक माने . लड़की के रक्षक के रूप में पुरुष को पेश करने की  मानसिकता को जब तक खत्म नहीं किया जाएगा तह तक कुछ भी बद्लेगा नहीं. जो पुरुष समाज अपने आप को महिला की इज्ज़त का रखवाला मानता है वही पुरुष समाज अपने आपको यह अधिकार भी दे देता है कि वह महिला के  यौन जीवन का संरक्षक  और उसका उपभोक्ता है . इस मानसिकता को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया जाना चाहिए .मर्दवादी सोच से एक समाज के रूप में लड़ने की ज़रूरत है . और यह लड़ाई केवल वे लोग कर सकते हैं जो लड़की और लड़के को बराबर का  इंसान मानें और उसी सोच को जीवन के हर क्षेत्र में उतारें .  कमज़ोर को मारकर बहादुरी दिखाने वाले जब तक अपने कायराना काम को शौर्य बताते रहेगें तब तक इस देश में बलात्कार करने वालों के हौसलों को तोड़ पाना संभव नहीं होगा. अब तक का भारतीय समाज  का इतिहास ऐसा है जहां औरत को कमज़ोर बनाने के सैकड़ों संस्कार मौजूद हैं . स्कूलों में भी कायरता को शौर्य बताने वाले पाठ्यक्रमों की कमी  नहीं है .इन पाठ्यक्रमों को खत्म करने की ज़रूरत है . सरकारी स्कूलों के स्थान पर देश में कई जगह ऐसे स्कूल खुल गए हैं,जहां मर्दाना शौर्य की वाहवाही की शिक्षा दी जाती है . वहाँ औरत को एक ऐसी वस्तु की रूप में सम्मानित करने की सीख दी जाती है .इस समाज में औरत का सम्मान पुरुष के सम्मान से जुड़ा हुआ है . इस मानसिकता के खिलाफ एकजुट  होकर उसे ख़त्म करने की ज़रूरत है . अगर हम एक समाज के रूप में अपने आपको बराबरी की बुनियाद पर नहीं स्थापित कर सके तो जो पुरुष अपने आपको महिला का रक्षक बनाता फिरता है वह उसके साथ ज़बरदस्ती करने में भी संकोच नहीं करेगा. शिक्षा और समाज की बुनियाद में ही यह भर देने की ज़रूरत है कि पुरुष और स्त्री बराबर है और कोई किसी का रक्षक नहीं है. सब अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं. बिना बुनियादी बदलाव के बलात्कार को हटाने की कोशिश वैसी  ही है जैसे किसी घाव पर मलहम लगाना . हमें ऐसे एंटी बायोटिक की तलाश करनी है जो शरीर में ऐसी शक्ति पैदा करे कि घाव होने की नौबत ही न आये. कहीं कोई बलात्कार ही न हो . उसके लिए सबसे ज़रूरी बात यह है कि महिला और पुरुष के बीच बराबरी को सामाजिक विकास की आवश्यक शर्त माना जाए.

इस बात की भी ज़रुरत है कि लड़कियों की तालीम को हर परिवार ,हर बिरादरी सबसे बड़ी प्राथमिकता बनाये और उनकी शिक्षा के लिए ज़रूरी पहल की जाए . जहां तक मुसलामानों की बात है केंद्र सरकार के पंद्रह सूत्र प्रोग्राम में लड़कियों की तालीम पर पूरा जोर दिया गया  है . मौजूदा  सरकार के प्रधानमंत्री ने कई बार कहा है कि पिछली सरकार की जो अच्छी बातें हैं उनको लागू किया जाएगा. सबको मालूम है की सच्चर कमेटी की रिपोर्ट और प्रधानमंत्री का पंद्रह सूत्री प्रोग्राम अल्पसंख्यकों के हवाले से पिछली सरकार के बहुत ही अच्छे प्रोग्राम हैं , मौजूदा सरकार अगर उनको लागू करती है जो लड़कियों का इम्पावरमेंट तालीम के ज़रिये होगा और अगर सही तरीके से महिलाओं को अवसर दिए गए तो बलात्कार जैसे अपराध बिलकुल कम हो जायेगें . या यह भी हो सकता है कि नई सरकार को इन दस्तावेजों से एतराज़ हो क्योंकि इनका फोकस मुस्लिम ख़वातीन पर ज़्यादा है तो उनको अपनी कोई नई स्कीम लानी चाहिए . लेकिन जो भी करना हो फ़ौरन करना पडेगा क्योंकि इस दिशा में जो काम आज से साठ साल पहले  होने चाहिए थे उन्हें अब शुरू करना है . अगर और देरी हुई तो बहुत देर हो जायेगी .

यू पी में बलात्कार की शिकार महिला जज भी ,सरकार की असंवेदनशीलता बरकरार

शेष नारायण सिंह 


उत्तर प्रदेश में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार लगातार चर्चा में हैं .  बदायूं में पिछड़ी जाति की दो लड़कियों के साथ बलात्कार ,बहुत ही जघन्य तरीके से की गयी उनकी हत्या और उस हत्या के ज़रिये आतंक फैलाने की अपराधियों की मंशा , मानवता के इतिहास के उन नीचतम कार्यों में दर्ज होगी जिसको याद करके आने वाली  नस्लें हमारी पीढी के शासकों के नाम पर थूकेगीं.  उत्तर प्रदेश की राजनीति और प्रशासन में एक ख़ास जाति के लोगों का दबदबा  है और उसी दबदबे के चलते इस जाति में अपराधी प्रवृत्ति के लोग आतंक फैला चुके हैं . आतंक के इस राज में देखा गया है कि पुलिस के कर्मचारी भी अपराधियों के साथ मिलकर वारदात को अंजाम दे रहे हैं . यह अक्षम्य है . बदायूं की घटना में पुलिस वाले भी शामिल थे . इस वारदात को मीडिया में खासी जगह मिल गयी.  शायद इसका कारण  यह था कि बहुत दिनों तक  उत्तर प्रदेश पर मीडिया का फोकस चुनाव की सरगर्मी के कारण रहा था और जब चुनाव से जुडी खबरें ख़त्म हो गयीं तो राजकाज में ज़िम्मेदारी से जुडी एक खबर को मीडिया ने अपनी ज़द में ले लिया और बलात्कार और ह्त्या की वे घटनाएं खबर बनने लगीं जो उत्तर प्रदेश में आमतौर पर रूटीन की घटनाएं बताकर टाल दी जाती हैं .
बदायूं की घटना के अलावा भी बहुत सी घटनाएं रोज़ ही उत्तर प्रदेश में हो रही हैं .बदायूं के बलात्कार और ह्त्या की घटना पर अपनी प्रतिक्रिया में उत्तर प्रदेश पुलिस के एक बहुत बड़े अफसर ने दावा किया कि राज्य में अभी प्रतिदिन बलात्कार की चौदह घटनाएं होती हैं . उनका कहना  था कि राज्य बहुत बड़ा  है , आबादी बहुत है , इसलिए अगर उत्तर प्रदेश में प्रतिदिन बलात्कार की बाईस घटनाएं हों तो अनुपात सही बैठेगा . इस गैरजिम्मेदार पुलिस अफसर की आपराधिक स्वीकारोक्ति को किस श्रेणी में रखा जाय यह बात समझ के बिकुल परे है. लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री भी कुछ कम  नहीं हैं . राज्य के हर कोने से आ रही बलात्कार  की घटनाओं और बिजली की कटौती से मचे हाहाकार के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव , मीडिया से मुखातिब हुए और जो ज्ञान उन्होंने दिया वह राजकाज के किसी भी जानकार की समझ में आने वाला नहीं हैं . उन्होने कहा कि ," मैंने बार बार कहा  है कि ऐसी घटनाएं केवल उत्तर प्रदेश में नहीं हो रही हैं . बंगलूरू में भी ऐसी  ही एक घटना हुयी , मध्यप्रदेश में एक बड़े मंत्री के रिश्तेदार की चेन उनके घर के सामने ही छीन ली गयी " मुख्यमंत्री ने सवाल उठाया कि क्या मीडिया ने उन खबरों को दिखाया . मुख्यमंत्री जी के इन सवालों का क्या जवाब हो सकता  है . सवाल उठता है कि अगर अन्य राज्यों में अपराध की घटनाएं हो रही हैं तो क्या उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री को अपराध को बढ़ावा देने और उनपर काबू करने की कोशिश न करने का लाइसेंस मिल जाता है .
 उत्तर प्रदेश सरकार और उसके मुख्यमंत्री उस घटना के बारे में क्या कहेगें जो अभी अलीगढ से रिपोर्ट हुई है जिसमें अलीगढ की एक महिला  जज के अति सुरक्षित घर में घुसकर दो बदमाशों ने  बलात्कार की कोशिश की ,उनको कोई ज़हरीला पदार्थ पिलाया और जज साहिबा को मारा पीटा.अलीगढ़ में जहां वारदात हुई है वह राज्य सरकार की  सुरक्षा पुलिस ,पी ए सी की २४ घंटे की सुरक्षा का क्षेत्र हैं . जजेज कम्पाउंड नाम  की कालोनी में महिला जज का यह घर और उसमें रहने वाली बड़ी न्यायिक अधिकारी की इज्ज़त भी जब अपराधियों  से  महफूज़ नहीं है तो राज्य के गरीब आदमियों की बच्चियों का कौन रक्षक होगा .  
अभी दो साल पहले पूरे बहुमत के साथ राज्य में सरकार बनाने वाले राज्य के मुख्यमंत्री को शासन करने की ज़रुरत से दो चार होना पडेगा, हुकूमत का इक़बाल बुलंद करना पडेगा , अपराधी चाहे जिस जाति या धर्म का हो उसके मन में कानून की ताक़त का अहसास करना पड़ेगा और अगर ऐसा नहीं हो सका तो हुकूमत को अपने अस्तित्व के बारे में भी गंभीरता से सोचना पडेगा क्योंकि जब राजकाज ही सही तरीके से नहीं चला सकते तो स्पष्ट बहुमत को जनता वैसे ही अल्पमत में बदल सकती है जिस तरह से लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की पार्टी की राजनीतिक ताक़त को तबाह करके किया है .मुख्यमंत्री जी को हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि केंद्र में अब एक ऐसी सरकार है जो उनकी पार्टी या उसके नेताओं की किसी तरह से भी रक्षा नहीं करने वाली है ,बल्कि उनकी सरकार की कोई भी बड़ी गलती उनकी सरकार को अस्तित्व के संकट में डाल सकती है ..

प्रॉपर्टी माफिया के शिकार लोगों के प्रति सरकार की ज़िम्मेदारी




शेष नारायण सिंह 

मुंबई में संपन्न लोगों की हाउसिंग सोसाइटी ,कैम्पा  कोला बिल्डिंग के गिराये जाने के मुंबई महानगर निगम के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका को सर्वोच्च न्यायलय से खारिज़ कर दिया और इस तरह से उस बिल्डिंग में रहने वाले लोगों की उम्मीदें समाप्त  हो गयी हैं।  उनको मालूम है कि  उनके घर अब बच पायेगें।  मुंबई के वर्ली इलाक़े में  यह आवासीय बिल्डिंग स्थित है। यह गैरकानूनी तरीके से बनायी गयी इमारत  है।  यहां रहने वालों का आरोप है बिल्डर ने उनको अँधेरे में रख कर उनसे गलत वायदा करके इस बिल्डिंग की बुकिंग की और महंगे दामों पर घर बनाकर दे दिया।  सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को नहीं मंज़ूर किया कि  उनको कुछ भी मालूम नहीं था।  अब इस बहुत क़ीमती   मकानों  वाली बिल्डिंग का गिराया जाना  निश्चित माना जा रहा है।  

मुंबई की कैम्पा कोला सोसाइटी के विवाद के सन्दर्भ से देश में हर बड़े शहर में पैदा होने वाले उस माफिया  के बारे में  चर्चा शुरू हो जानी चाहिए जो हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन को बहुत ही बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं  . हर बड़े शहर में ऐसे लोगों की बहुत बड़ी संख्या देखी जा  सकती है जो सरकार की मान्यताप्राप्त योजनाओं के दायरे से बाहर लोगों को मकान दिलवाने के सपने दिखाते  हैं।  इनकी कोशिश यह होती है कि  मध्य वर्ग को मान्यताप्राप्त इलाक़ों के बाहर  अपेक्षाकृत कम दाम वाले मकान दिलाने के नाम पर अपने जाल में फंसा लें।  देश के बड़े शहरों में इस तरह के लालच का शिकार  हुए लोगों  की बहुत बड़ी आबादी है।  दिल्ली में तो योजनाबद्ध तरीके से बसी हुयी कालोनियों के  बाहर रहने वालों की  संख्या बहुत अधिक है।  होता यह है कि  सरकार द्वारा अधिग्रहीत ज़मीनों पर कालोनी काटकर गरीब आदमियों को घर का सपना दिखाया जाता है।  कोशिश   होती है कि  जल्दी से जल्दी लोगों को वहां बसा दिया जाए और उनका नाम वोटर लिस्ट में डलवा दिया जाये. यह कालोनियां ऐसी होती हैं जहां कोई सुविधा नहीं होती. शुरू में जनरेटर से बिजली दी जाती है।  सीवेज की लाइन नहीं होती।  घर के आसपास ही सोक पिट बनवा दिए जाते हैं।  पीने के पानी का इंतज़ाम नहीं होता इसलिए कच्ची बोरिंग करवा दी जाती है।  ज़मीन का हर वर्ग फुट एक निश्चित कीमत दे रहा होता है इसलिए सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए कोई भी जगह नहीं छोड़ी जाती।  नतीजा यह होता है एक अनधिकृत स्लम बस्ती तैयार हो जाती है।  यहां की आबादी अन्य इलाक़ों से बहुत ज़्यादा होती है इसलिए यहां वोट भी बहुत ज़्यादा होते हैं।  नतीजा यह होता है कि  इतनी बड़ी संख्या में  वोट लेने के लिए सभी पार्टियों के नेता इन बस्तियों को नियमित कराने के वायदे करते  रहते हैं।  अक्सर देखा गया है कि  चुनाव के दौरान इस तरह की बस्तियों को अधिकृत करने के वायदे किये जाते हैं और जब चुनाव ख़त्म होता है  तो इन बस्तियों को नियमित कर दिया जाता है।  यह बहुत ही ज़हरीला सर्किल है और इस तरह की बस्तियों के चलते ही बहुत से काम होते हैं  जो सभ्य समाजों में नहीं होने चाहिए।    

ऐसी कालोनियों से समाज और मानवता का बहुत नुक्सान होता है। सबसे बड़ा नुक्सान तो  स्वास्थय सेवाओं के क्षेत्र में होता है।  इन बस्तियों में स्वास्थय की कोई सुविधा नहीं होती. उलटे बीमारी बढ़ाने की सारे इंतज़ाम मौजूद  रहते हैं.   अनधिकृत होने के कारण यहां सीवर लाइन नहीं होती और खुली नालियां बजबजाती रहती हैं।  पीने का पानी भी साफ़ नहीं होता।  शौच आदि की कोई सुविधा नहीं होती. शुरू में यह  कालोनियां किसी भी  म्युनिसिपल रिकार्ड आदि में नहीं होती इसलिए यहां रहने वाले लोगों के बारे में  कोई भी  सांख्यिकीय जानकारी नहीं उपलब्ध की जा सकती।  इसके अलावा यहां  रियल एस्टेट माफिया के लोग नेताओं के एजेंट के रूप में काम करते हैं।  आजकल तो एक नया  हो गया है।  प्रॉपर्टी के काम में लगे हुए बहुत सारे लोग बड़े  शहरों में चुनाव जीत रहे हैं।  प्रॉपर्टी के धंधे में  अपनाई  गयी बहुत सारी तरकीबों   राजनीति में भी अपनाते हैं। 



मुंबई की  हाउसिंग सोसाइटी ,कैम्पा  कोला के सर्वोच्च न्यायालय में आये केस के  हवाले से केंद्र में  सत्ता में आयी नरेंद्र मोदी सरकार को शहरी विकास के एक अहम मुद्दे पर  गौर करना बहुत ज़रूरी है।  नरेंद्र मोदी ने  प्रधानमंत्री बनने के पहले देश को  भरोसा दिलाया था कि  वे देश भर में एक सौ नए शहर बसाकर देश के औद्योगिक विकास की गति को तेज़ी देगें।  उनके सतर्क रहना चाहिए कि  इन नए शहरों में भी  रीयल  एस्टेट माफिया उनकी योजनाओं  को बेकार साबित करने की साज़िश में न जुट जाये.  ध्यान रखना होगा कि  रीयल  एस्टेट माफिया के पास आजकल बहुत सारी आर्थिक और राजनीतिक ताक़त  गयी है। कैम्प कोला सोसाइटी में समाज के सबसे धनी वर्ग के लोग रहते  हैं लेकिन देश की ज़्यादातर गैरकानूनी इमारतों  में बहुत गरीब लोग रहते हैं।  आज का फैसला इस बात  की चेतावनी है कि  सरकार को प्रॉपर्टी  माफिया से संभलकर रहना होगा। 

Sunday, April 20, 2014

अस्सी के संतो ,असंतों और घोंघाबसंतों की तमन्ना है कि नरेंद्र मोदी का मुकाबला ज़बरदस्त हो



शेष नारायण सिंह

बनारस के अस्सी  घाट की पप्पू की चाय की  दूकान एक बार फिर चर्चा में है . पता चला है कि बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार , नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी के प्रस्तावक के रूप में पप्पू को भी जिला निर्वाचन अधिकारी के सामने पेश किया जायेगा. पप्पू की चाय की दूकान  का ऐतिहासिक ,भौगोलिक और राजनीतिक महत्त्व है . अपने उपन्यास ' काशी का अस्सी ' में काशी नाथ सिंह ने पप्पू की दूकान को अमर कर दिया है " काशी का अस्सी " को आधार बनाकर एक फिल्म भी बन चुकी है . इस फिल्म का निर्माण लखनऊ के किसी व्यापारी ने किया है .डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी इस फिल्म के निदेशक हैं .नामी धारावाहिक " चाणक्य " की वजह से दुनिया भर में पहचाने जाने वाले डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने जब अमृता प्रीतम की कहानी के आधार पर फिल्म पिंजर बनाई थी तो भारत और पाकिस्तान के बँटवारे के दौरान पंजाब में दर्द का जो तांडव हुआ था ,वह सिनेमा के परदे पर जिंदा हो उठा था . छत्तोआनी और रत्तोवाल नाम के गावों के हवाले से जो भी दुनिया ने पिंजर फिल्म में देखा था उस से लोग सिहर उठे थे . जिन लोगों ने भारत-पाकिस्तान के विभाजन को नहीं देखा उनकी समझ में कुछ बात आई थी और जिन्होंने देखा था उनका दर्द फिर से ताज़ा हो गया था. मैंने कई ऐसी बुज़ुर्ग महिलाओं के साथ भी फिल्म " पिंजर " को देखा जो १९४७ में १५ से २५ साल के बीच की उम्र की रही होंगीं . उन लोगों के भी आंसू रोके नहीं रुक रहे थे . फिल्म बहुत ही रियल थी. लेकिन उसे व्यापारिक सफलता नहीं मिली. 

काशी नाथ सिंह का उपन्यास " काशी का अस्सी "  पप्पू की दूकान के आस पास ही  मंडराता रहता है  .बताते हैं कि शहर बनारस के दक्खिनी छोर पर गंगा किनारे बसा ऐतिहासिक मोहल्ला अस्सी. है . अस्सी चौराहे पर भीड़ भाड वाली  चाय की एक दुकान है . इस दूकान पर रात दिन बहसों में उलझते ,लड़ते- झगड़ते कुछ स्वनामधन्य अखाडिये बैठकबाज़ विराजमान रहते हैं . न कभी उनकी बहसें ख़त्म होती  हैं , न सुबह शाम . कभी प्रगतिशील और लिबरल राजनीतिक सोच वालों के केंद्र रहे इसी अस्सी को केंद्र बनाकर इस बार नरेंद्र मोदी की पार्टी वाले वाराणसी का अभियान चला रहे हैं . इस अभियान में
 वाराणसी में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल को  मोदी के समर्थक भगा देने के चक्कर में हैं . अरविन्द केजरीवाल जहां भी जा रहे हैं बीजेपी कार्यकर्ता उनके  ऊपर पत्थर ,टमाटर आदि फेंक रहे हैं .  इन कार्यकर्ताओं के इस कार्यक्रम के चलते केजरीवाल का नाम देश के सभी टी वी चैनलों और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में छाया हुआ है . हालांकि सच्चाई यह है कि बनारस की ज़मीन पर अभी केजरीवाल का कोई नाम नहीं है . बनारस में रहने वाले और पप्पू की दूकान को राजनीतिक समझ की प्रयोगशाला मानने वाले एक गुनी से बात हुयी तो पता चला कि अरविन्द केजरीवाल के साथ आये हुए लोग भी बनारस में अजनबी ही हैं . वाराणसी के पत्रकारों से चर्चा करने पर पता चला है कि नरेंद्र मोदी का मीडिया प्रोफाइल इतना बड़ा है कि उनकी हार के बारे में सोचना भी अजीब लगता है लेकिन यह असंभव भी नहीं है . समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के मज़बूत उम्मीदवार है . समाजवादी पार्टी ने एक मंत्री को चुनाव में उतार दिया है . पूरे सरकारी तामझाम के साथ यह मंत्री चुनाव लड़ रहा है . जानकारों की राय है कि ज्यों ज्यों चुनाव आगे बढेगा ,अरविन्द केजरीवाल की टीम को अंदाज़ लग जाएगा कि मीडिया में चाहे जितना प्रचार कर लें लेकिन बनारस की ज़मीन पर उनके लिए मुश्किलें पेश आयेगीं और आती ही रहेगीं . अभी  यह प्रचार कर दिया गया है कि मुसलमानों का  वोट थोक में अरविन्द केजरीवाल को मिल रहा है . इसके कारण बीजेपी के रणनीतिकारों में खुशी है . उनको मालूम है की अगर बीजेपी विरोधियों के वोट बिखरते हैं तो नरेंद्र मोदी की लड़ाई बहुत आसान हो जायेगी
लेकिन  यह अभी बहुत जल्दी का आकलन है . काशी में कई दशक से पत्रकारिता कर रहे एक वरिष्ट पत्रकार ने बताया कि वाराणसी में नरेंद्र मोदी को सही चुनौती केवल अजय राय  ही दे सकते  हैं .वाराणसी के अलग अलग चुनावों में अजय राय बड़े बड़े महारथियों को हरा चुके हैं . बनारस के कवि, व्योमेश शुक्ल बताते हैं कि ओम प्रकाश राजभर, ऊदल,  सोनेलाल पटेल आदि कुछ ऐसे लोग हैं जिनको अजय राय ने हराया है . जिस तरह से अरविन्द  केजरीवाल को हर चौराहे पर नरेंद्र मोदी के समर्थक अपमानित कर रहे हैं , उनकी हिम्मत नहीं पड़ेगी कि अजय राय के समर्थकों के खिलाफ हाथ उठायें . अजय  राय के  बारे  में कहा जाता है कि उनको वाराणसी में हरा पाना  बहुत मुश्किल है . एक बार तो किसी उपचुनाव में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री , मायावती ने अपने २३ मंत्रियों को वाराणसी में  चुनाव प्रचार के काम में लगा दिया था लेकिन अजय राय निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत गए थे. वाराणसी में यह चर्चा है कि अगर मुलायम सिंह यादव अमेठी और रायबरेली की तर्ज़ पर वाराणसी में भी अपना उम्मीदवार हटा  लें तो मोदी की काशी की लड़ाई बहुत ही मुश्किल हो जायेगी . आज़मगढ़ से अपना परचा दखिल करके आज़मगढ़ और वाराणसी कमिश्नरी में मुलायम सिंह  यादव ने बीजेपी उम्मीदवारों की जीत की संभावना  को बहुत ही सीमित तो पहले ही कर दिया है .
बहरहाल इस चुनाव में हार जीत चाहे जिसकी हो , काशी वालों को डर है कि कहीं बनारस न  हार जाए  . यहाँ भलमनसाहत की एक परम्परा रही है . १८०९ में पहली बार यहाँ एक बहुत बड़ा साम्प्रदायिक दंगा हुआ था .अंग्रेजों का राज था और कई महीनों तक खून खराबा चलता रहा था . लाट भैरो नाम के  इस साम्प्रदायिक बवाल से हर बनारसी डरता रहा है . बनारस के पुराने प्रमियों से बात करके पता चलता है की पिछली पीढ़ियाँ आने वाली पीढ़ियों को साम्प्रदायिक  दहशत से आगाह कराती रहती हैं . यहाँ  के लोगों को मालूम है कि चुनावों की तैयारियों में मुज़फ्फरनगर के दंगों का कितना योगदान रहा है . ख़तरा यह है कि राजनेता बिरादरी चुनाव जीतेने के लिए कहीं वैसा ही कुछ यहाँ न कर बैठे . बाकी भारत की तरह राजनीतिक  बिरादरी को बनारस में भी शक की निगाह से देखा जाता है और यह माना जाता है कि नेता  अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं .पिछले कुछ दिनों से पप्पू की चाय की दूकान पर जिस तरह की राजनीतिक  चर्चा चल रही है उस से साफ़ है कि इस बार का चुनाव बिलकुल वैसा नहीं होगा जैसा होना चाहिए,जैसा आम तौर पर बनारस में चुनावों में होता है .
आम बनारसी की इच्छा  है कि चुनाव में मुख्य मुकाबले में ऐसा एक व्यक्ति ज़रूर होना चाहिए जिसको बनारस से मुहब्बत हो , जो बनारस की इज्ज़त और शान बचाए रखने के लिए चुनाव में हार जाना भी ठीक समझे. बनारस वास्तव में गरीब लोगों का शहर है . हालांकि यहाँ संपन्न लोगों की भी खासी संख्या है लेकिन शहर के मिजाज़ का स्थाई भाव गरीबी ही है . यहाँ गरीबी को भी धकिया कर मज़ा लेने की परम्परा है . कमर में गमछा, कंधे पर लंगोट औरर बदन पर जनेऊ डाले अपने आप में मस्त रहने वाले लोगों का यह शहर किसी की परवाह नहीं करता.  कहते हैं कि लंगोट और जनेऊ तो आजकल कमज़ोर पड़ गए हैं लेकिन गमछा अभी भी बनारसी यूनीफार्म का अहम हिस्सा है . बिना किसी की परवाह किये मस्ती में घूमना इस शहर का पहचान पत्र है . अस्सी घाट की ज़िंदगी को केंद्र में रख कर लिखा गया काशी नाथ सिंह का उपन्यास  और उसकी शुरुआत के कुछ पन्ने बनारस की ज़िंदगी का सब कुछ बयान कर देते हैं लेकिन उन सारे शब्दों का प्रयोग एक पत्रकार  के लेख में नहीं किया जा सकता . वास्तव में अस्सी बनारस का  मुहल्ला नहीं है ,अस्सी वास्तव में " अष्टाध्यायी " है और बनारस उसका भाष्य . पिछले पचास वर्षों से 'पूंजीवाद ' से पगलाए अमरीकी यहाँ आते हैं और चाहते हैं कि दुनिया इसकी टीका हो जाए ..मगर चाहने से क्या होता है ?
 इसी बनारस की पहचान की हिफाज़त के  लिए गंगा के किनारे से तरह तरह की आवाजें आ रही हैं . लोगों की इच्छा है की मुख्य मुकाबले में कम से कम एक बनारसी ज़रूर हो . सबको मालूम है कि  नरेंद्र मोदी तो हटने वाले नहीं हैं क्योंकि उनको प्रधानमंत्री पद के  लिए अभियान चलाना है . इसलिए लोग उम्मीद कर रहे हैं कि अरविन्द केजरीवाल की हट  जाएँ क्योंकि वे बनारस में नरेंद्र मोदी के खिलाफ प्रचार करके , किसी गली मोहल्ले में थोडा बहुत पिट पिटा कर केवल ख़बरों में बने रह सकते हैं लेकिन बनारस के हर मोड़ पर वे मोदी वालों का रोक नहीं पायेगें .  मोदी और केजरीवाल को इस  बात की परवाह नहीं रहेगी कि बनारस की इज्जत बचती है कि  धूल में मिल जाती है . इसलिए अस्सी मोहल्ले के आस पास मंडराने वाले संत , असंत और घोंघाबसंतों की तमन्ना है कि मुकाबला नरेंद्र मोदी का ज़बरदस्त हो लेकिन उनके खिलाफ कोई बनारसी ही मैदान ले. इस सन्दर्भ में मैंने एक  बुढऊ कासीनाथ से बात की . वे इन्भरसीटी में मास्टर थे , कहानियां-फहानियाँ लिखते थे  और अपने दो चार बकलोल दोस्तों के साथ  मारवाड़ी सेवा संघ के चौतरे पर अखबार बिछाकर उसपर लाई दाना फैलाकर ,एक पुडिया नमक के  साथ भकोसते रहते थे  . पिछले  दिनों इन महोदय के बारे में प्रचार कर  दिया  गया था कि यह मोदी के पक्ष में चले गए थे लेकिन वह खबर झूठ फैलाने वालों की बिरादरी का आविष्कार मात्र थी. वे  डंके की चोट पर नरेंद्र मोदी को हराना चाहते हैं और उनकी  नज़र में कांग्रेसी उम्मीदवार अजय राय मोदी को एक भारी चुनौती  दे सकता है . काशी नाथ सिंह बार बार यह कहा  है की नरेंद्र मोदी को  खांटी बनारसी चुनौती मिलनी चाहिए और वह इसी अस्सी की सरज़मीन से मिलेगी . उन्होने मुझे  भरोसा दिलाया कि बनारस में अस्सी के बाहर भी तरह की चर्चा सुनने में आ रही है .

Friday, April 18, 2014

पूंजीवादी निजाम से भी खूंखार अर्थव्यवस्था का वादा , कांग्रेसी घोषणा पत्र में धन्नासेठों की मनमानी का पुख्ता इंतज़ाम


शेष नारायण सिंह 

27 मार्च का लेख 


.कांग्रेस पार्टी ने पूरे जोशो खरोश के साथ अपना चुनाव घोषणापत्र जारी कर दिया . हर बार की तरह इस बार भी कुछ वैसे ही वायदे किये  गए जिनको पूरा कर पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होता है .लेकिन इस बार कांग्रेस के  घोषणा पत्र में वचन दिया गया है कि देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से इकनामिक फ्रीडम के आर्थिक दर्शन की बुनियाद पर डाल दिया जाएगा . कांग्रेस पार्टी ने जो घोषणा पत्र जारी किया है उसके आधार पर अगर अर्थव्यवस्था का प्रबंधन किया गया तो आर्थिक गतिविधियों पर जो थोडा बहुत सार्वजनिक कंट्रोल बना हुआ है वह भी पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा . इकनामिक फ्रीडम की सर्वमान्य परिभाषा में बताया गया है कि यह किसी भी देश में आर्थिक  सम्पन्नता हासिल करने का वह तरीका है जिसमें किसी सरकार या किसी आर्थिक अथारिटी को कोई हस्तक्षेप न हो . व्यक्तियों को अपनी निजी संपत्ति, मानव संसाधन और श्रम का संरक्षण करने की असीमित  आज़ादी होती है . पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में इकानामिक फ्रीडम के तत्व होते हैं .अगर उसमें सविल लिबर्टी के तत्व डाल दिए जाएँ तो वह पूरी तरह से स्वतंत्र हो जायेगें और  इकनामिक फ्रीडम की श्रेणी में आ जायेगें . ध्यान में रखना चाहिए कि बीजेपी के नेता , नरेंद्र मोदी भी इस देश में इक्नामिक फ्रीडम की अवधारणा के समर्थक हैं और उनको इस क्षेत्र में दिया जाने वाला देश सर्वोच्च पुरस्कार भी मिल चुका है . दिलचस्प बात यह है कि यह पुरस्कार उनको  राजीव गांधी फाउन्डेशन की और से दिया गया था जिसकी अध्यक्ष कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी हैं . जानकार बताते हैं कि अर्थव्यवस्था के दार्शनिक आधार के बारे में कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही मनमोहन सिंह के आर्थिक चिंतन को सही मानते हैं .

कांग्रेस के घोषणा पत्र में वे सारी बातें समाहित कर ली गयी हैं जो अगर लागू हो गयीं तो इस देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से आर्थिक मनमानी के निजाम के अधीन हो जायेगी . कांग्रेस के घोषणा पत्र को मोटे तौर पर पंद्रह सूत्रों में पिरोया गया है .. इसमें स्वास्थ्य ,पेंशन ,आवास का अधिकार , सम्मान का अधिकार , उद्यमित्ता का अधिकार आदि को शामिल किया गया है .. महिलाओं के अधिकार , सुरक्षा आदि से सम्बंधित जो पारंपरिक बातें हैं वह  महत्वपूर्ण  हैं लेकिन जो बातें देश की अर्थव्यवस्था को निरंकुश पूंजी के हाथ में देने वाली हैं उनका अब तक शासक वर्गों की किसी  राजनीतिक पार्टी ने विरोध नहीं किया है . विकास दर और अन्य आंकड़ों के बीच में जो बातें देश की अर्थव्यवस्था को आम आदमी की पंहुच के बाहर ले जाने वाली हैं उनको बहुत ही करीने से बीच में डाल दिया गया है  कांग्रेस के घोषणा पत्र में लिखा है की " हम एक ऐसी खुली हुई और कम्पटीशन वाली अर्थव्यवस्था को प्रमोट करेगें जिसमें  घरेलू और दुनिया भर के  पूंजीपति और आम आदमी एक दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा कर सकेगें ." इसका भावार्थ यह हुआ कि देश की अर्थव्यवस्था को बिलकुल स्वतंत्र छोड़ दिया जाएगा  जिसमें उद्योग लगाने के लिए बैंक से क़र्ज़ लेकर आया हुआ कुशल और प्रशिक्षित इंजीनियर , देश का सबसे धनी उद्योगपति और अमरीका या यूरोप की बड़ी से बड़ी कंपनी  समान अवसर के साथ एक दुसरे का मुकाबला  कर सकेगें . सरकार की तरफ से किसी को कोई विशेष सुविधा या अवसर नहीं दिया जाएगा . आसानी से समझा जा सकता है कि यह प्रबंधन क्या गुल खिलायेगा. कृषि क्षेत्र  में भी भारी  निवेश की बात की गयी है लेकिन खेती से होने वाली पैदावार को भी कारपोरेट तरीके से करने पर जोर दिया जाएगा और धीरे धीरे देश कारपोरेट खेती की तरफ अग्रसर होगा . कांग्रेस का तर्क है कि ऐसा करने से खेती से मिलने वाली पैदावार बढ़ेगी . लेकिन इकनामिक फ्रीडम का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा क्योंकि किसान के हाथों में जो अभी खेती के उत्पादन के साधन का नियंत्रण  है वह कारपोरेट हाथों में चला जायेगा क्योंकि किसान इस देश के  बड़े औद्योगिक घरानों और दुनिया भर के कृषि धन्नासेठों से मुकाबला नहीं कर सकेगा .
बड़े औद्योगिक घरानों को अभी सबसे ज़्यादा परेशानी मजदूरों को उचित मजदूरी देने में होती है और कर्मचारियों की तनखाह एक बड़ा बोझ होता है . कई बार तो ऐसा होता है कि कारखाने में कोई काम नहीं होता और कर्मचारियों को तनखाह देना पड़ता है .इसको दुरुस्त करने के लिए देश और विदेश के उद्योगपति पिछले कई वर्षों से  कोशिश कर रहे हैं . उसको श्रम कानून में सुधार का नाम दिया जाता रहा है . कांग्रेस के घोषणा पत्र में इस बार इस समस्या का हल भी निकाल दिया गया है . घोषणा पत्र में लिखा है कि ऐसी लाछीली श्रमनीति बनाई जिससे औद्द्योगिक उत्पादान की प्रतिस्पर्धा बनी रहे और भारतीय उत्पादन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कम्पटीशन बना रहे . इसका अर्थ यह ऐसे श्रम कानून बनाए  जायेगें जिसके बल पर उद्योगपति जब चाहे कर्मचारियों और मजदूरों को काम पर रखें या जब चाहें अलग कर दें . कांग्रेस के घोषणापत्र में बाकी बातें वही हैं जो कांग्रेस पिछले दस वर्षों से करती रही है . लेकिन अगर कांग्रेस सत्ता में आयी तो उनके घोषणा पत्र में ऐसी व्यवस्था है कि साधारण पूंजीवादी निजाम से आगे बढ़ कर इकनामिक फ्रीडम वाला निजाम कायम कर दिया जाएगा .