शेष नारायण सिंह
दिल्ली में राजेन्द्र नाम की दो संस्थाएं हैं जिनके पास कुछ देर बैठने से दिमाग की वैचारिक स्तर की बैटरी चार्ज हो जाती है . राजेन्द्र शर्मा में तानाशाही के लक्षण बहुत ज्यादा हैं . दिल्ली के आस पास रहने वाला कोई भी पढ़ा लिखा आदमी बता देगा कि सत्तर के दशक का तानाशाह कौन है . लेकिन विचारों की स्पष्टता लाजवाब है और अपना मतलब उसी से है . राजेन्द्र प्रसाद नाम की दूसरी संस्था के बारे में जानकार बताते हैं कि तानाशाह वह भी है लेकिन बात छुपी हुई रहती है , पाब्लिक डोमेन में नहीं है . बहरहाल अपनी समस्या यह है कि ज़्यादा पढ़े लिखे न होने के कारण अक्सर ही ब्लैंक हो जाते हैं , समझ में नहीं आता कि क्या करें . ऐसी सूरत में इन दो संस्थाओं में से किसी एक के पास एकाध घंटे बैठ लेते हैं ,इन लोगों को पता भी नहीं चलता और अपन तरोताज़ा हो कर निकल पड़ते हैं . ऐसी ही एक सुबह पिछले हफ्ते दिल्ली में राजेन्द्र प्रसाद के पास बैठे थे कि एक झोंका आया और सामने से पाकिस्तानी टेलिविज़न की सबसे ज़्यादा चर्चित और नामवर अदाकारा प्रकट हुईं . मेरे बिलकुल सामने सानिया सईद मौजूद थीं . जिन लोगों को पाकिस्तानी टेलिविज़न के बारे में मामूली सा भी अंदाज़ है उन्हें मालूम है कि सानिया सईद का क्या मतलब है . हिन्दुस्तानी टेलिविज़न में उस टक्कर की कोई स्टार नहीं है . तुलसी का रोल कुछ दिन तक कर चुकी अभिनेत्री स्मृति ईरानी में वह संभावना थी लेकिन वे राजनीति में चली गयीं और अब टी वी की दुनिया से दूर जा चुकी हैं .
सानिया सईद आजकल भारत आयी हुई हैं . जो लोग नहीं जानते उनके लिए यह जानना ज़रूरी है कि सानिया सईद कौन हैं . पाकिस्तानी टेलिविज़न में वे अभिनेत्री , निदेशक, प्रोड्यूसर और एंकर के रूप में जानी जाती हैं . समकालीन टेलिविज़न में उनके टक्कर की भारत और पाकिस्तान में कोई कलाकार नहीं है . बताया जाता है कि दस साल की उम्र में उन्होंने अभिनय शुरू कर दिया था . जब सानिया से पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उन्हें याद नहीं कि कब उन्होंने अभिनय शुरू किया था . क्योंकि उनके घर में थियेटर का माहौल था ,उनके माता पिता दिल्ली की अदब की उस परम्परा से ताल्लुक रखते हैं जिसे दिल्ली की तहजीब कहा जाता है. ऐसे माहौल में सानिया ने अपने बचपन में एक्टिंग कब शुरू की किसी को नहीं मालूम . सानिया ने बताया कि उन्होंने जब औपचारिक रूप से काम करना शुरू किया उसके पहले वे थियेटर को अपने बचपन के किसी खिलौने की तरह जानने लगी थीं .
सानिया का बचपन पाकिस्तान में जिया उल हक की तानाशाही के दौर में बीत रहा था. उनके पिता मंसूर सईद पाकिस्तान में तानाशाही निजाम के राजनीतिक दर्शन को हर मुकाम पर चुनौती दे रहे थे . राजनीतिक बिरादरी बहुत बड़े पैमाने पर जिया उल हक के सामने घुटने टेक चुकी थी , सांस्कृतिक तरीकों का इस्तेमाल मुल्लापन्थी राजनीति को ललकार रहा था ,भाई मंसूर उस तूफ़ान के हरावल दस्ते में शामिल थे और उसी दौर में उनकी यह बच्ची बड़ी हो रही थी. अपने इंतकाल के पहले उनसे जब दिल्ली में मेरी मुलाकात हुई थी तो उन्होंने गर्व से बताया था कि उन दिनों उनको पाकिस्तान में सानिया सईद के वालिद के रूप में पहचाना जाता है .
दिल्ली में मुलाक़ात के करीब तीन दिन बाद सानिया सईद से मुंबई में अचानक मुलाक़ात हो गयी. वर्सोवा के अपनी ममेरी बहन के फ़्लैट में फर्श पर बैठकर जब उसने मुझसे बात की तो मुझे लगा कि भाई मंसूर और आबिदा हाशमी सईद की यह बेटी उनके मिशन को आगे ले जा रही है . जो बातें सानिया ने मुझे नहीं बताईं और जिनको पाकिस्तान का कोई भी इन्सान जानता है और भारत में जो भी टेलिविज़न और नाटक के जानकार हैं ,उन सबको मालूम है , उसे बताना ज़रूरी है .सानिया ने पाकिस्तान के हर ज्वलंत मुद्दे पर अपने अभिनय के ज़रिये हस्तक्षेप किया है . परिवार नियोजन जैसे मुद्दे पर पाकिस्तानी टी वी पर जिस कार्यक्रम ने तूफ़ान मचाया था उसकी मुख्य कलाकार सानिया सईद ही थीं . जब कार्यक्रम बानाने वालों ने उनसे कहा कि मामला परिवार नियोजन का है और ऐसी बहुत सारी बातों का उल्लेख होगा जिनको पाकिस्तानी समाज में बहुत बोल्ड माना जाता है इसलिए उन्हें चाहिए कि वे अपने माता पिता से परमिशन ले लें तो सानिया ने कहा कि उनके पैरेंट्स को उनपर पूरा भरोसा है वे उनसे बात तो ज़रूर करेगीं लेकिन परमिशन जैसी कोई चीज़ उनके पालन पोषण में नहीं डाली गयी है . उनको हर हाल में सही फैसले लेने की तमीज सिखाई गयी है .बहरहाल उन्होंने इस प्रोग्राम में काम किया और आहट नाम का यह कार्यक्रम पाकिस्तानी टी वी का बहुत महतवपूर्ण कार्यक्रम है .यह कार्यक्रम आज से बीस से भी ज्यादा साल पहले बना था और आज तक इसकी धमक पाकिस्तानी क्रिएटिविटी की गलियारों में महसूस की जाती है .उसके बाद सितारा और मेहरुन्निसा आया जिसकी भी के टी वी प्रोग्रामिंग में संगमील की हैसियत है . सानिया सईद ने यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की पढाई की है .शायद इसीलिएय जब वे किसी भी पात्र को परदे पर पेश करती हीं या नाताक में उसका रोल करती हैं तो लगता है कि सानिया नाम की अभिनेत्री कहीं चली गयी है ,उनके रोम रोम में उसी पात्र का बसेरा हो जाता है . सानिया कम्युनिस्ट माता पिता की बेटी हैं और यह उनके हर रोल में साफ़ नज़र आता है . कहीं नहीं लगता कि वे उपदेश दे रही हैं . उनका झुमका जान वाला रोल हर पाकिस्तानी को याद है . झुमका जान एक पारंपरिक रक्कासा थीं लेकिन उन्होंने औरत के रूप में अपनी ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जिया . पाकिस्तान के उस समाज में भी जहां कट्टरपंथियों की ही चलती है उस समाज में भी सानिया की झुमका जान एक सशक्त स्टेटमेंट के रूप में देखी गयीं , रोल को इस अभिनेत्री ने जिस तरह से किया उस से कहीं नहीं लगा कि वे झुमका जान की लिए कहीं से सहानुभूति मांग रही हैं . झुमका जान की असल ज़िंदगी की मजबूरियों को भी सानिया ने जो बुलंदी दी उसे देख कर किसी को भी औरत होने पर गर्व हो सकता है .
सानिया के बारे में कोई भी पाकिस्तानी आपको बता देगा वे वही करती हैं जिसमें उनको विश्वास होता है . अपने आस पास के कलाकारों से मीलों ऊपर सानिया की मौजूदगी पक्के तौर पर सुनिश्चित हो चुकी है और आज वे समकालीन दक्षिण एशियाई टेलिविज़न की सबसे महान कलाकार हैं .उनके कुछ प्रोग्रामों के नाम दे दे रहे हैं ,कहीं हाथ लग जाए तो देख कर ही अंदाज़ लग सकेगा कि सानिया सईद कितनी बड़ी कलाकार हैं . नाटक—तलाश, चुप दरिया, बिला उनवान . सीरियल----- सितारा और मेहरुन्निसा, जेबुन्निसा ,आहट, आंसू, एक मुहब्बत सौ अफ़साने, कहानियां, शायद के बहार आये, और ज़िंदगी बदलती है ,खामोशियाँ,झुमका जान आदि. साने के तीन टी वी शो ऐसे हैं जिसको हमेशा याद रखा जाएगा उनके नाम हैं , सहर होने को है , हवा के नाम और माँ .
सानिया सईद के परिवार के बारे में जब तक ज़िक्र न किया जाए समकालीन भारतीय की समझ में ही नहीं आएगा कि आज बुड्ढा यह क्या लिखने बैठ गया . उनके पिता मंसूर सईद ने भारत में छात्र राजनीति को दिशा दी थी लेकिन अपनी जिस कजिन से इश्क करते थे उनके माता पिता १९४७ में कराची पाकिस्तान जा बसे थे . आप शादी करने के लिए पाकिस्तान गए थे. भाई मंसूर ने जब दिल्ली विश्वविद्यालय में नाम लिखाया तो स्टूडेंट फेडरेशन के सदस्य बने और आस पास के लोगों को पक्का यक़ीन हो गया कि बस अब इंक़लाब आने में बहुत कम अरसा रह गया है . यह अलग बात है कि भाई मंसूर को ऐसा कोई मुगालता नहीं था . भाई मंसूर ने कभी किसी को धोखा नहीं दिया . अपनी बचपन की दोस्त और अपनी रिश्ते की चचेरी बहन से जब वे शादी करने कराची गए तो किस को उम्मीद थी कि दोनों मुल्कों के बीच लड़ाई शुरू हो जायेगी . लेकिन लड़ाई शुरू हुई और वे वापस नहीं आ सके . लेकिन दिल्ली में उनके चाहने वालों का आलम यह था कि वे भाई मंसूर का अभी तक इंतज़ार कर रहे हैं लेकिन वे वहाँ चले जा चुके हैं हैं जहां से कोई नहीं आता .
दिल्ली और कराची में बाएं बाजू की राजनीतिक सोच को इज्ज़त दिलाने में भाई मंसूर का बहुत बड़ा योगदान है . उन्होंने बाएं बाजू की राजनीति करने वालों को पाकिस्तान के खूंखार जनरल जिया उल हक से पंगा लेने की तमीज सिखाई थी.
जब मंसूर सईद पाकिस्तान गए तो वहीं के हो गए लेकिन थे वे असली दिल्ली वाले. उनके दादा मौलाना अहमद सईद देहलवी ने1919 में अब्दुल मोहसिन सज्जाद , क़ाज़ी हुसैन अहमद , और अब्दुल बारी फिरंगीमहली के साथ मिल कर जमीअत उलमा -ए - हिंद की स्थापना की थी. जो लोग बीसवीं सदी भारत के इतिहास को जानते हैं ,उन्हें मालूम है की जमियत उलेमा ए हिंद ने महात्मा गाँधी के १९२० के आन्दोलन को इतनी ताक़त दे दी थी की अंग्रेज़ी साम्राज्य के बुनियाद हिल गयी थी और अंग्रेजों ने पूरी शिद्दत से भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने के अपने प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था. जमीअत उस समय के उलमा की संस्था थी . खिलाफत तहरीक के समर्थन का सवाल जमीअत और कांग्रेस को करीब लाया . जमीअत ने हिंदुस्तान भर में मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और खुले रूप से पाकिस्तान की मांग का विरोध किया . मौलाना साहेब कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण लीडरों में माने जाते थे , मौलाना अहमद सईद के इन्तेकाल पर पंडित नेहरु ने कहा था की आखरी दिल्ली वाला चला गया , उनकी शव यात्रा में जवाहरलाल नेहरू बिना जूतों के साथ साथ चले थे.
भाई मंसूर इन्हीं मौलाना अहमद सईद के पोते थे. दिल्ली में अपने कॉलेज के दिनों में वे वामपंथी छात्र आन्दोलन से जुड़े , . उन दिनों दिल्ली में वामपंथी छात्र आन्दोलन में सांस्कृतिक गतिविधियों पर ज्यादा जोर था और इसी दौरान मंसूर सईद ने मशहूर जर्मन नाटककार ब्रेख्त के नाटकों का अनुवाद हिन्दुस्तानी में किया , जो बहुत बार खेला गया .अपनी पूरी ज़िंदगी में मंसूर सईद ने हार नहीं मानी हालांकि बार बार ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हुईं कि लोगों को लगता था कि वे हार गए हैं . लेकिन वे हमेशा जीत की तरफ बढ़ते रहे. जेम्स बांड फिल्मों में शुरुआती दौर में जेम्स बांड का रोल करने वाले ब्रिटिश अभिनेता , शान कोनरी और भाई मंसूर की शक्ल मिलती जुलती थी. जब कोई इस बात की तरह संकेत करता तो मंसूर सईद फरमाते थे , Yes, Sean Connery tries to look like me . सानिया सईद उन्हीं मंसूर सईद की बेटी हैं ..