Monday, April 30, 2012

मधु लिमये ने सरदार पटेल को धर्मनिरपेक्षता का महान प्रणेता बताया था


( १-०५-१९२२ को मधु लिमये का जन्म हुआ था )  



शेष  नारायण सिंह 

मधु लिमये होते तो ९० साल के हो गए होते . मुझे मधु  जी के करीब आने का मौक़ा १९७७ में मिला था जब वे लोक सभा के लिए चुनकर दिल्ली  आये थे. लेकिन उसके बाद दुआ सलाम तो होती रही लेकिन अपनी रोजी रोटी की लड़ाई में मैं बहुत व्यस्त हो गया. . जब आर एस एस ने  बाबरी मस्जिद के मामले को गरमाया तो पता नहीं कब मधु जी से मिलना जुलना लगभग रोज़ ही का सिलसिला बन गया .  इन दिनों वे सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके थे और लगभग पूरा समय लिखने में लगा रहे थे. बाबरी मस्जिद के बारे में आर एस एस और बीजेपी वाले उन दिनों सरदार पटेल के हवाले से अपनी बात कहते पाए जाते थे. हुम लोग भी दबे रहते थे क्योंकि सरदार पटेल को कांग्रेसियों का एक वर्ग भी साम्प्रदायिक बताने की कोशिश करता रहता था. उन्हीं दिनों मधु लिमये ने मुझे बताया था कि सरदार पटेल किसी भी तरह से हिन्दू साम्प्रदायिक नहीं थे. 
 दिसंबर १९४९ में  फैजाबाद के तत्कालीन कलेक्टर के के नायर की साज़िश के बाद बाबरी मस्जिद में भगवान् राम की मूर्तियाँ रख दी गयी थीं . केंद्र सरकार बहुत चिंतित थी . ९ जनवरी १९५० के दिन  देश के गृह मंत्री ने रूप में सरदार पटेल ने उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त को लिखा था. पत्र में साफ़ लिखा है कि " मैं समझता हूँ कि इस मामले दोनों सम्प्रदायों के बीच आपसी समझदारी से हल किया जाना चाहिए . इस तरह के मामलों में शक्ति के प्रयोग का कोई सवाल नहीं पैदा होता... मुझे यकीन है कि इस मामले को इतना गंभीर मामला नहीं बनने देना चाहिए और वर्तमान अनुचित विवादों को शान्ति पूर्ण तरीकों से सुलझाया जाना चाहिए ." 

मधु जी ने बताया कि सरदार पटेल इतने व्यावहारिक थे किउन्होने मामले के भावनात्मक आयामों  को समझा और इसमें मुसलमानों की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता पर जोर दिया . उसी दौर में मधु लिमये ने बताया था कि बीजेपी किसी भी हालत में सरदार पटेल को जवाहर लाल नेहरू का विरोधी नहीं साबित कर सकती क्योंकि महात्मा जी से सरदार की जो अंतिम बात हुई थी उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि जवाहर ;लाल से मिल जुल कर काम कारण है . सरदार पटेल एन महात्मा जी की अंतिम इच्छा को हमेशा ही सम्मान दिया ..

मधु लिमये हर बार कहा करते थे कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था . धर्मनिरपेक्षता  भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा राजनेताओं को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..

धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"

महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी . महात्मा गाँधी के दो बहुत बड़े अनुयायी जवाहर लाल नेहरू और  कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने धर्मनिरपेक्षता को इस देश के मिजाज़ से बिलकुल मिलाकर राष्ट्र की बुनियाद रखी.

मधु जी बताया करते थे कि कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" 

सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता।
बाद में  इन चर्चाओं के दौरान हुई  बहुत  सारी बातों को मधु लिमये ने अपनी किताब ," सरदार पटेल: सुव्यवस्थित राज्य के प्रणेता " में विस्तार से लिखी भी हैं . १९९४ में जब मैंने इस किताब की समीक्षा लिखी तो मधु जी बहुत खुश हुए थे और उन्होंने संसद के पुस्तकालय से मेरे लेख की फोटोकापी लाकर मुझे दी और कहा कि सरदार पटेल के बारे के जो लेख तुमने लिखा है वह बहुत  अच्छा है . मैं अपने लेखन के बारे में उनके उस बयान को अपनी यादों की सबसे बड़ी धरोहर मानता हूँ जो उस महान व्यक्ति ने मुझे उत्साहित करने के लिए दिया था .

अखिलेश यादव को मायावती जैसा साबित करने के चक्कर में हैं दिल्ली दरबार के कुछ पत्रकार


 

शेष नारायण सिंह 

करीब डेढ़ महीने पहले उत्तर प्रदेश में नई सरकार ने शपथ ली थी. इन पैंतालीस दिनों में  बहुत कुछ बदला है . लेकिन अजीब बात है कि उस परिवर्तन के बारे में कुछ भी लिखा नहीं जा  रहा है . दिल्ली के सत्ता के गलियारों में जहां कहीं भी एकाध लोग यह कहते पाए जाते हैं कि उत्तर प्रदेश में हालात पहले से बेहतर हैं , उन्हें फ़ौरन नकलेल लगाने  की कोशिश की जाती है .उन्हें डांट दिया जाता है कि सरकार की चापलूसी करने की ज़रुरत नहीं है . पत्रकार के रूप में हमारा कर्त्तव्य है कि हम सरकारों के खिलाफ लिखते  रहें, उनको हमेशा  चौकन्ना रहने के लिए मजबूर करते रहें. यह उपदेश देने वालों में वे लोग भी शामिल होते हैं जो राहुल गांधी के दलित प्रेम के बारे में टेलिविज़न पर  राग दरबारी में राहुल रासो गाया करते थे. दिल्ली में एक अजीब माहौल बन रहा है कि  उत्तर प्रदेश की मौजूदा  सरकार के खिलाफ कुछ न कुछ लिखना ज़रूरी है  वरना निष्पक्ष पत्रकार के रूप में पहचान नहीं बन पायेगी. यहाँ  इस विषय पर बात नहीं की जायेगी कि राहुल  गांधी की छींक को भी खबर बनाकर अभिभूत होने वालों और अखिलेश यादव के राजनीतिक  निर्णयों को मामूली बताने वालों की मानसिकता क्या है .अभी डेढ़ महीने पहले उत्तर प्रदेश की जनता ने इस मानसिकता  वालों को उनकी औकात बता दी थी और राजनीति के जनवादीकरण की मिसाल पेश की थी.  दिल्ली में एक ऐसा वर्ग है  जो लगातार कोशिश कर रहा है कि उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार को राज्य की पिछली सरकार के खांचे से बाहर ही न आने दिया जाए. दोनों सरकारों की तुलना ऐसे बिन्दुओं पर की जाए जिनपर डेढ़ महीने में कोई बदलाव हो ही नहीं सकता . मसलन अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने के साथ साथ  ही  टेलिविज़न चैनलों पर  हाहाकार मच गया था कि राज्य में अपराध बढ़ रहा है . अब सब को मालूम है कि जिस राज्य में अपराध और राजनीति में चोली दामन का साथ है वहां बिजली के स्विच ऑन  या ऑफ़ करने से अपराध पर रोक नहीं लग जायेगी. उन मुद्दों पर चर्चा होने ही नहीं दी जा रही है जहां मौलिक परिवर्तन हो रहे हैं .   इसके साथ ही एक और कोशिश हो रही है कि अगर कोई पत्रकार अखिलेश यादव की सकारात्मक बातों का उल्लेख करता है तो उसे  हड़का कर यह बता दिया जाये कि भाई अखिलेश यादव की तारीफ़ करोगे तो पत्रकारिता की कसौटी पर खरे नहीं उतरोगे. ऐसे माहौल में राज्य में पिछले ४५ दिनों की राजनीति का सही आकलन करना बहुत पेचीदा काम हो गया है लेकिन आकलन होना ज़रूरी है क्योंकि दिल्ली में बैठे अकबर रोड या अशोक रोड वाली पार्टियों के  कृपापात्र पत्रकारों के नागपाश से तो राजनीतिक  विश्लेषण को बाहर लाना ही पड़ेगा. इस काम को करने के लिए उन नौजवान पत्रकारों को भी आगे झोंकना ठीक नहीं होगा जो अभी पत्रकारिता में अपनी रोज़ी रोटी तलाश करने के लिए मजबूर हैं और उनके अखबार में शीर्ष  पदों  पर  वही लोग विद्यमान हैं जो अपनी सोच  को ही राजनीतिक विश्लेषण बना कर पेश कर देते हैं . उत्तर प्रदेश सरकार और उसके मुख्यमंत्री के काम काज की जांच परख के लिए किसी ऐसे विश्लेषक की ज़रुरत है  जिसे दिल्ली के सत्ताधीश पत्रकार मजबूर न कर सकें  और जिसे वेब पोर्टल की वैकल्पिक मीडिया की दुनिया में सर पर कफ़न बाँध कर घूम रहे नौजवान पत्रकार, अपना बंदा मानते हों .  वैकल्पिक मीडिया के उन्हीं सूरमाओं की  सदिच्छा  के पाथेय के साथ यह विश्लेषण करने की कोशिश की जा रही है .

डेढ़ महीने पहले सत्ता में आई सरकार ने बहुत कुछ बदलने की शुरुआत की है .  सबसे महत्वपूर्ण तो यह कि लखनऊ में एकाधिकारवादी सत्ता  का पर्याय बन चुके पंचम तल के आतंक को कम किया है .पिछली सरकार में सब कुछ पंचम तल से ही तय होता था और उसमें किसी से भी राय सलाह नहीं ली जाती थी. मुख्य मंत्री का सीधा संवाद केवल एक अफसर से था और उसको भी केवल हुक्म सुनाया जाता था . उसकी ड्यूटी थी  कि वह मुख्य मंत्री के हुक्म का पालन करवाए. बताते हैं कि हुक्म का पालन करवाने के चक्कर में वह अफसर जिलों में तैनात आई ए एस और आई पी एस  अफसरों को  भद्दी भद्दी गालियाँ भी  देता था. जब मुझे यह पता लगा तो मैं सन्न रह गया था क्योंकि आई ए एस या आई पी एस में भर्ती होना कोई हंसी खेल नहीं है . वैसे भी इन सेवाओं में आते वक़्त नौजवान केवल संविधान को लागू करने की शपथ लेता है और उसके अनुसार ही काम करने की क़सम के साथ सरकार में प्रवेश करता है . उसे गाली देने का हक किसी को नहीं है . लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उसे अपनी गरिमा का रक्षा खुद ही करनी चाहिए . अगर उसने गाली खाकर प्रतिरोध नहीं किया तो वह भी अपनी हालत के लिए जिम्मेवार है . हो सकता  है कि रिश्वत की गिज़ा  के चक्कर में वह  फजीहत झेल रहा हो . क्योंकि उसी लखनऊ में ऐसे बहुत सारे अफसर हैं जो अपनी गरिमा के साथ राज्य सरकार की सेवा कर रहे हैं . किसी भी पंचम तल वाले की बेअदबी के मोहताज  नहीं है .पिछले डेढ़ महीने में यह परिवर्तन आया है . अब कोई भी कलेक्टर या पुलिस कप्तान , पंचम तल के किसी अफसर की गाली नहीं खा  रहा है . यह बड़ा  परिवर्तन है . इसी से जुड़ा हुआ एक और परिवर्तन भी पता चल रहा है कि ट्रांसफर पोस्टिंग का धंधा भी बंद हो चुका है . पिछले पांच वर्षों के दौरान जिन लोगों ने यू पी पर नज़र रखा है  उन्हें मालूम है कि किसी भी मलाईदार तैनाती के लिए  तत्कालीन पंचम  तल के किसी एजेंट के पास रक़म  पंहुचा कर ही अफसर  चैन की साँस लेता था. किसी भी सरकार की नीतियों को लागू करने का काम अफसरों का   ही होता है. अगर वे ही घूस की ज़िंदगी जी रहे हों  तो जनहित का काम कर पाना उनके बूते की बात नहीं है. अगर कोई  सरकार अफसरों को भय मुक्त माहौल में काम करने की सुविधा दे रही है तो उत्तर प्रदेश की समकालीन हालात में यह भी अपने आप में बड़ी उपलब्धि है . 
पिछले डेढ़ महीने में एक और संकेत बिकुल साफ़ नज़र आ  रहा है . पंचम तल का आतंक खतम होने के साथ ही  लखनऊ में सत्ता का विकेंद्रीकरण हो रहा  है . अब  किसी भी विभाग में हो रही गड़बड़ियों के लिए सम्बंधित मंत्री की आलोचना हो रही है .इसका मतलब यह है कि अब मंत्री लोग अपने विभागों की फाइलें निपटा रहे हैं और फैसले ले रहे हैं.उत्तर प्रदेश के बाहर वालों को यह बात अजीब लग सकती है लेकिन सच्चाई यह है कि मायावती की सरकार में हर फैसला मुख्यमंत्री के दफ्तर में ही  होता था.  किसी भी मंत्री  की औकात नहीं थी कि वह कोई फैसला ले ले . मंत्रियों को उनके विभाग के फैसले की जानकारी तक नहीं दी जाती थी. हाँ कुछ मंत्री पंचम तल तक अपना  रसूख बनाये रहते थे तो उन्हें अपने विभाग के फैसलों के बारे में अखबारों में छपने के पहले पता लग जाता था.   मायावती के राज में पंचम तल पर जो बहुत सारे अफसर तैनात थे उन के बीच  सरकार के विभाग  बाँट दिए गए थे और वे ही फैसले लेते थे . मंत्री बेचारे को तो अखबारों के ज़रिये ही पता लगता था  या अगर उसने अपने विभाग के प्रमुख सचिव की कृपा अर्जित कर  रखी थी तो उसे अखबारों में जाने के पहले  खबर का पता लग जाता था. आज स्थिति बिलकुल अलग है . हर विभाग का मंत्री अपने फैसले ले रहा है लेकिन इसका मतलब यह बिलकुल नहीं कि मुख्य मंत्री के अधिकार में किसी तरह की कमी आई है .
नौकरशाही को उसकी सही जगह पर लाने की जो कोशिश मौजूदा मुख्यमंत्री ने की है उसके नतीजे अभी  आना शुरू नहीं हुए हैं. लेकिन यह तय है कि नौकरशाही को उसकी ज़िम्मेदारी  निभाने के लिए जो स्पेस चाहिए  वह बहुत दिन बाद मिलना शुरू हो गया है. उत्तर प्रदेश से मुहब्बत करने वालों को उम्मीद हो गयी है कि अब  सरकारी अफसर भी अपना काम नियमानुसार करेगें और अपने मातहत अफसरों को अपना काम करने देगें. 

पिछले पंद्रह वर्षों में जो भी मुख्यमंत्री आया है उसने गौतम बुद्ध नगर जिले के नॉएडा और ग्रेटर नॉएडा का खूब आर्थिक दोहन किया है .मायावती के राज में यह काम खुद माननीय मुख्यमंत्री या उनके भाई साहेब की सरपरस्ती में होता था . मुलायम सिंह यादव के राज में यह  काम उनके बहुत करीबी  नेता और बाबू साहेब के नाम से  विख्यात उनकी पार्टी के महामंत्री जी किया करते  थे.  बीजेपी के सत्ता में रहने पर तो कई ऐसे केंद्र थे जहां से  गौतम बुद्ध नगर जिले की आर्थिक घेराबंदी की जाती थी.  अखिलेश यादव की सरकार आने के साथ  ही इलाके में एक अफवाह फैल गयी कि अब गौतम बुद्ध नगर जिले का काम समाजवादी पार्टी के महामंत्री , प्रोफ़ेसर राम गोपाल यादव देखेगें . दिल्ली में रहकर उत्तर प्रदेश या समाजवादी पार्टी की बीट कवर करने वाले पत्रकारों को मालूम है कि राजनीतिक शब्दावली में राम गोपाल यादव  होने के क्या मतलब है . सबको मालूम है  कि वे कभी भी एक पैसे की हेराफेरी नहीं होने देगें . बहुत लोगों को यह भी मालूम है कि जब  मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री रहते   बाबू साहेब का लूट युग चल रहा था तो रामगोपाल यादव चुप रहते थे लेकिन कभी भी उस तंत्र को अपने करीब नहीं आने दिया . जानकार बताते हैं कि बाबू साहेब को पार्टी से निकालने का सख्त फैसला भी राम गोपाल यादव की प्रेरणा से ही  लिया गया था. जो भी हो , इस अफवाह का फायदा यह हो रहा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश  के भूमाफिया के लोग आजकल डरे हुए हैं और उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि अखिलेश  यादव सरकार में किस तरह से लूट तंत्र वाली पुरानी व्यवस्था को कायम किया जाए. सबको मालूम है कि राम गोपाल यादव इस खेल को कभी नहीं होने देगें.ज़ाहिर है अपनी छवि को सही तरीके से पेश करने में अखिलेश यादव को इस स्थिति का निश्चित फायदा होगा.
 
अखिलेश यादव ने जो पिछले डेढ़ महीने में सबसे अहम काम किया है वह यह है कि उन्होंने आबादी के लोकतन्त्रीकरण  की कोशिश  शुरू कर दी है . मायावती के राज में ऐसा माहौल बना दिया गया था कि  मुख्यमंत्री तक कोई भी नहीं पंहुच सकता .अगर कोई उनसे मिलने की  कोशिश करता तो उसे भगा दिया  जाता था  . मुख्य मंत्री और आम आदमी के बीच  बहुत ही भारी डिस्कनेक्ट था .चुनावी विश्लेषणों के दौरान यह बात कई बार चर्चा  में आई भी कि इसी डिस्कनेक्ट के कारण मायावती चुनाव हार गयी थीं. हो सकता  यह सच भी लेकिन   मायावती की आम आदमी से दूरी बनाए रखने की नीति के कारण आम आदमी  की सत्ता से किसी तरह की भागीदारी ख़त्म हो गयी थी. अब वह सब कुछ इतिहास है . अब महीने में दो बार मुख्यमंत्री अपने घर पर मेला लगाकर लोगों से मिलेगें. इसका फायदा यह होगा कि नौकरशाही पर राजनीतिक  सत्ता की हनक  बनी रहेगी और सरकारी अफसर मनमानी नहीं कर सकेगा . उसको मालूम है कि  पीड़ित इंसान मुख्यमंत्री के पास पंहुच जाएगा  और मुख्यमंत्री की नाराज़गी का भावार्थ उत्तर प्रदेश  के सरकारी अफसरों से ज्यादा कोई नहीं समझ  सकता .  उन्होंने पिछले पांच वर्षों में उसको बाकायदा झेला है . ज़ाहिर है कि राज्य में शासन का लोकतंत्रीकरण एक बड़ी शुरुआत है और इसके चलते ही अपराध भी ख़त्म होगें और भ्रष्टाचार भी ख़त्म होगा. पिछले डेढ़ महीने के सरकारी फैसलों पर नज़र डालें तो साफ़ लग जाएगा कि  उत्तर प्रदेश की सरकार ने इस काम को करने का संकल्प लिया है. इसलिए किसी जिले में होने वाली अपराध की घटना को  मुख्यमंत्री की असफलता के रूप में पेश  करना जल्दबाजी होगी . लोकतंत्र  में लाजिम है कि अपराध खत्म करने का  एक संस्थागत ढांचा बनाया जाया. अब तक की प्रगति से  तो यही लगता है कि मौजूदा मुख्य मंत्री उसी ढाँचे की तलाश में है . 

Sunday, April 29, 2012

मीडिया को पूंजीवादी ताक़तों का एजेंट नहीं बनना चाहिए --अतुल अनजान



शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,२८ अप्रैल.अपना एकछत्र राज कायम करने के लिए साम्राज्यवादी ताक़तें हर सीमा पार कर रही हैं . संसदीय लोकतंत्र की सीमाएं पार की जा रही हैं और संसदीय लोकशाही की संस्थाओं को बदनाम किया जा रहा है . पूंजीवाद की एजेंट ताक़तों की कोशिश है कि संसदीय लोकतंत्र की हर सम्माननीय संस्था को बदनाम किया जाए और लोकतंत्र को दफ़न करके ऐसी सत्ता व्यवस्था कायम की जाए जिस से साम्राज्यवादी विस्तारवादी शक्तियों को देश की सत्ता को तैनात करने में आसानी हो क्योंकि वही सत्ता तो इन ताकतों की चाकर सत्ता के रूप में काम कर सकेगी . दुर्भाग्य की बात यह है कि इस सारे काम में मीडिया की भूमिका पूंजीवादी ताक़तों के मुनीम की हो गयी है . अगर इस पर अवाम की तरफ से फ़ौरन रोक न लगाई गयी  तो देश के लोकतंत्र के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा  भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सेक्रेटरी अतुल कुमार अंजान ने आज यह बातें समाजवादी नेता स्व.गौरीशंकर राय की याद में आयोजित एक समारोह में कहीं . 

गौरी शंकर राय स्मृति समिति वालों की ओर से आज यहाँ आयोजित एक समारोह में पिछली  सदी के राजनीतिक इतिहास पर ज़ोरदार चर्चा हुई. गौरी शंकर राय की याद में उनके पुराने साथी और समाजवादी विचारक सगीर अहमद ने  स्वर्गीय राय के समर्थकों को इकठ्ठा किया था. बहुत बड़ी संख्या में लोग आये. आज़ाद हिंद फौज के कप्तान अब्बास अली आये तो जवाहर लाल नेहरू   विश्वविद्यालय के  आनंद कुमार आये. समाजवादी पार्टी के रेवती रमण सिंह आये तो किसी छोटे राज्य के एक राज्यपाल भी अपने फौजी सहायक के साथ मौजूद थे. कांग्रेस के हरिकेश बहादुर भी थे और जे डी ( यू ) के महामंत्री के सी त्यागी भी . बहर हाल भारी भीड़ के बीच लगभग  दिन भर चले कार्यक्रम में गौरी शंकर राय के करीब ५० साल के राजनीतिक जीवन के बहाने राजनीतिक मूल्यों पर चर्चा हुई और समाजवादी  लेखक मस्त राम कपूर  और कम्युनिस्ट नेता अतुल कुमार अनजान ने राजनीति के बुनियादी सवालों पर बात शुरू कर दी. ज़्यादातर नेता तो स्वर्गीय गौरी शंकर राय के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते  रहे लेकिन अतुल अनजान की  शुरुआत के बाद बहस राजनीति और मीडिया की भूमिका पर केंदित हो गयी. अतुल अनजान ने कहा कि  आज पूंजीवादी ताक़तों के एजेंट खूब सक्रिय हैं . मीडिया संगठनों पर उन्होंने लगभग पूरी तरह  से क़ब्ज़ा कर लिया है . कुछ गिने चुने अखबार बचे  हैं जो अभी भी आम आदमी के सवालों को उठा रहे हैं .योजनाबद्ध तरीके से प्रचार किया जा रहा है  कि समाजवाद का अब कोई मतलब नहीं रह गया है .मार्क्सवादी राजनीति अब  बेमतलब हो गयी है . दुर्भाग्य यह है कि पूंजीवादियों के कंट्रोल में चल रहे मीडिया घरानों में काम करने वाले लोग अपनी समझ को मालिक की मर्ज़ी के  हिसाब से ढाल कर काम कर रहे हैं . और किसी सेठ  के मुनीम की तरह काम कर रहे हैं , अजीब बात है कि  मोटी तनखाहें उठा रहे पत्रकार  टी आर पी की बात कर रहे हैं और कारोबार बढाने की बात करके उसे ही नई पत्रकारिता का व्याकरण बता रहे हैं . राजनीतिक बिरादरी के लोगों को  चोर और बेईमान के रूप में पेश करके राजनीति की परम्परा को बदलने की सजिश भी साथ साथ चल  रही है . भ्रष्ट राजनेता के हवाले  से पूरी राजनीतिक जमात को नाकारा साबित करने  की कोशिशभी इसी साज़िश का हिस्सा है .  
स्वर्गीय गौरी शंकर राय ने पूंजीवादी साम्राज्यवादी  राजनीतिक शक्तियों को बेनकाब करने के लिए आजीवन काम किया . अतुल अनजान ने कहा उनको याद करके आज यह संकल्प लिया जाना चाहिए कि हर तरफ जनवादी ताक़तों को कमज़ोर करने की जो कोशिश चल रही है उसे नाकाम किया जाए .  

Saturday, April 28, 2012

अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय मुसलमानों के कल्याण के प्रति इतना लापरवाह क्यों है ?




शेष नारायण सिंह 


पिछले दो वर्षों से केंद्र सरकार रक्षात्मक मुद्रा में है . सही बात यह है कि जब यू पी ए -एक  की सरकार को ६० से अधिक वामपंथी लोक सभा सदस्यों का एकमुश्त समर्थन हासिल था तो सरकार की स्थिरता पर कभी भी सवालिया निशान नहीं लगे. दरअसल  वाम मोर्चे के बाहर से मिल रहे समर्थन के कारण सरकार में अन्य सहयोगी दलों के  लोगों को मंत्री बनाकर ज्यादा लोगों को संतुष्ट रखा जा सका था. लेकिन अमरीका से परमाणु समझौता करने के चक्कर में सरकार ने वामपंथी दलों से दुश्मनी कर ली . वामपंथी समर्थन ख़त्म हो गया और उसके बदले में ममता बनर्जी और डी एम के जैसी पार्टियों के सहारे सरकार चलाने की मजबूरी हाथ आई .तमिलनाडु में विधानसभा  चुनाव में बुरी तरह से हारने के पहले डी एम के ने यू पी ए -दो को मनमानी के आधार पर ताने रखा था  . आजकल ममता बनर्जी की तरफ से  मनमोहन सिंह सरकार को अक्सर  धमकी मिलती रहती हैं . नतीजा यह है कि सरकार के बहुत सारे फैसले अखबारों में विवाद बन जाने के बाद ही लिए जा रहे हैं .ज़ाहिर है सरकार  स्थिर नहीं है और दिल्ली शहर में घूम रहे राजनीति के पंडित हमेशा ही सरकार के पतन की बात करते रहते हैं . 
अपने आप को मज़बूत करने के लिए भी सरकार ने कोई बहुत अच्छे काम नहीं किये हैं .संसद की ज़्यादातर स्थायी समितियों की रिपोर्टों में सरकार की छीछालेदर हो रही है . यह अलग बात है कि वह बातें मीडिया के ज़रिये आम जनता तक नहीं पंहुच रही हैं . शायद इसका मुख्य कारण यह है कि हमारी  पत्रकार बिरादरी राजनीतिक रिपोर्टिंग करने के लिए अब संसद को राजनीति का केंद्र नहीं मानती. वह पार्टियों के दफ्तरों से ही राजनीतिक रिपोर्टिंग करने में आपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ  लेती है . टेलिविज़न की खबरों के दबदबे के बाद देखा गया है कि बड़े नेताओं ,राजनीतिक पार्टियों के दफ्तरों और खबरें प्लांट करने वाले लोगों के सहारे ही आजकल राजनीतिक रिपोर्टिंग हो रही है . संसद की रिपोर्टिंग ज़्यादातर सदन में हो रही कार्यवाही तक  सीमित है . इसके अलावा संसद से जो रिपोर्टिंग हो रही है वह राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की बाईट लेने में होती है और अकसर उनसे उन मुद्दों पर बात की जाती है जो बाहर राजनीतिक विवाद का विषय बन चुके होते हैं .  जब से संसद की कार्यवाही में बाधा डालने का रिवाज़ शुरू हुआ है  तब से संसद के दोनों सदनों में  हुए हल्ले गुल्ले को ही  संसद का काम मान लिया जा रहा है . यह एक बड़ी गलती हो रही है .जब से कमेटी सिस्टम लागू हुआ है ,संसद के काम का एक बड़ा हिस्सा कमेटियों की बैठक में अंजाम दिया जाता है . जो सांसद  लोकसभा या राज्यसभा में लगे टी वी कैमरों के सामने शोरगुल कर रहे होते हैं वे ही संसदीय समितियों में गंभीर चर्चा कर रहे होते हैं . . ज़्यादातर समितियों में सरकार  के कामकाज के तरीकों की समीक्षा की जाती है और सरकार को आड़े हाथों लिया जाता है . इन कमेटियों में सभी पार्टियों के सदस्य होते हैं . और यहाँ बहुमत की मनमानी नहीं चलती.  संसद की स्थायी समितियों में  तो लगभग सभी फैसले सर्वसम्मति से लिए जाते हैं. कुछ फैसले जो सर्वसम्मति से नहीं लिए जाते ,उनमें सदस्य अपनी अलग राय दे सकते हैं . उनकी राय भी रिपोर्ट का हिस्सा होती है . 
ऐसी ही एक रिपोर्ट हाथ लगी है जिसमें अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के काम काज की धज्ज़ियाँ उडाई गयी हैं . सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता से सम्बंधित कमेटी ने अल्पसंख्यकों के लिए किये जा रहे काम में सम्बंधित मंत्रालय को गाफिल पाया है . बी एस पी के सांसद दारा सिंह चौहान की अध्यक्षता वाली समिति की बीसवीं रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकार ने  मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए बजट में मिली हुई रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया और पैसे वापस भी करने पड़े.  कमेटी की रिपोर्ट में लिखा गया है कि कमेटी इस  बात से बहुत नाराज़ है कि २०१०-११ के साल में अल्पसंख्यक मंत्रालय ने ५८७ करोड़ सत्तर लाख की वह रक़म लौटा दी  जो घनी अल्पसंख्यक आबादी के विकास के लिए मिले थे. हद तो तब हो गयी जब मुस्लिम बच्चों के वजीफे के लिए मिली हुई रक़म  वापस कर दी गयी.  यह रक़म संसद ने दी थी और सरकार ने इसे इसलिए वापस कर दिया कि वह इन स्कीमों में ज़रूरी काम नहीं तलाश पायी. यह सरकारी बाबूतंत्र के नाकारापन का नतीजा है .,  प्री मैट्रिक वजीफों के मद   में  मिले हुए धन में से ३३ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए , मेरिट वजीफों के लिए मिली हुई रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए और पोस्ट मैट्रिक वजीफों के लिए मिली हुयेर रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए . इसका मतलब  यह हुआ कि सभी पार्टियों के प्रतिनिधित्व वाली  संसद ने तो सरकार को मुसलमानों के विकास के लिए पैसा दिया था लेकिन सरकार ने उसका सही इस्तेमाल नहीं किया . इस के बारे में सरकार का कहना  है कि उनके पास  अल्पसंख्यक आबादी वाले जिलों से प्रस्ताव नहीं आये इसलिए उन्होंने संसद से मिली रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया . संसद की स्थायी समिति ने इस बात पर सख्त नाराज़गी जताई है और कहा है कि वजीफों वाली गलती बहुत बड़ी है और उसको दुरुस्त करने के लिए सरकार को काम करना चाहिए . बजट में वजीफों की घोषणा हो जाने  के बाद सरकार को चाहिए कि उसके लिए ज़रूरी प्रचार प्रसार आदि करे जिससे जनता भी अपने जिले या राज्य के अधिकारियों पर दबाव बना सके और अल्पसंख्यकों के विकास के लिए मिली हुई रक़म  सही तरीके से इस्तेमाल हो सके. 
कमेटी के सदस्य इस बात पर विश्वास करने को तैयार नहीं थे कि अल्पसंख्यक मंत्रालय में  काम करने के लिए लोग नहीं मिल  रहे हैं . खाली पड़े पदों के बारे में सरकार के जवाब से कमेटी को सख्त नाराज़गी है .जहाँ उर्दू पढ़े लोगों को कहीं नौकरियाँ नहीं मिल  रही हैं , वहीं केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मंत्रालय ने कमेटी को बताया है  कि सहायक  निदेशक ( उर्दू ) ,अनुवादक ( उर्दू) और टाइपिस्ट ( उर्दू ) की खाली जगहें नहीं भरी जा सकीं. सरकार की तरफ से बताया गया कि वे पूरी कोशिश  कर रहे हैं कि यह खाली जगह भर दिए जाएँ लेकिन सफल नहीं हो रहे हैं . यह बात कमेटी के सदस्यों के गले नहीं उतरी , सही बात यह है कि सरकार के इस तर्क पर कोई भी विश्वास नहीं करेगा. कमेटी ने सख्ती से कहा है कि  जो पद खाली पड़े हैं  उनको मीडिया के ज़रिये प्रचारित किया जाए तो  देश में  उर्दू जानने वालों की इतनी कमी नहीं है  कि लोग केंद्र सरकार में नौकरी के लिए मना कर देगें.  

कमेटी की रिपोर्ट में लिखा है कि सच्चर  कमेटी की रिपोर्ट को लागू करने का फैसला तो सरकार ने कर लिया है लेकिन उसको लागू करने की दिशा में गंभीरता से काम नहीं हो रहा है .वजीफों के बारे में तो कुछ काम हुआ भी है लेकिन सच्चर कमेटी की बाकी सिफारिशों को टाला जा रहा है.सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को अगर सही तरीके से लागू कर दिया जाए तो अल्पसंख्यक समुदाय का बहुत फायदा होगा. कमेटी ने अल्पसंख्यक मंत्रालय को सख्त हिदायत दी है कि सच्चर कमेटी को गंभीरता से लें और उसको लागू करने के लिए सार्थक प्रयास करें.
मुसलमानों के कल्याण के लिए प्रधान मंत्री ने १५ सूत्री कार्यक्रम  की घोषणा की थी. इसको लागू करने में भी सरकार का  रवैया गैरजिम्मेदार रहा है . १५ सूत्री कार्यक्रम पर नज़र रखने के लिए कुछ कमेटियां बनी है  जिनकी बैठक ही समय समय पर नहीं होती . शिकायत मिली है  कि जब बैठक होती भी है तो लोकसभा और राज्यसभा के वे सदस्य जो इन कमेटियों के मेंबर हैं , उन्हें  इत्तिला ही नहीं की जाती . मंत्रालय के सेक्रेटरी ने अपनी पेशी के दौरान यह बात स्वीकार किया कि उनको इस सम्बन्ध में सदस्यों से मिली शिकायत की जानकारी है . 

संसद की स्थायी समिति ने पाया कि २७ जनवरी २०१० के दिन एक योजना शुरू की गयी थी जिसके तहत अल्पसंख्यक महिलाओं में नेतृत्व क्षमता का विकास किया जाना था . जिस से उन महिलाओं का आत्म विश्वास बढे और वे सरकार के विभागों , बैंकों आदि  में जाकर बात चीत कर सकें.यह काम गैर सरकारी संगठनों के ज़रिये होना था .इस मद में २००९-१० में ८ करोड़ और १०१०-११ में १५ करोड़ रूपये का प्रावधान भी किया  गया था .  कमेटी को इस बात पर बहुत ही रंज है कि दो साल पहले शुरू हुई  योजना पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया . जब सरकार से जवाब माँगा गया तो उनका जवाब बिलकुल टालू था . उनका कहना था कि उनको ऐसे संगठन ही नहीं मिले जिनके ज़रिये यह काम करवाया जा सके. कमेटी के सदस्यों और अन्य सांसदों ने अफ़सोस ज़ाहिर किया कि अल्पसंख्यक मंत्रालय काम काम एक  बहुत  ही काबिल मंत्री को दिया गया है लेकिन फिर भी सरकारी  बाबूतंत्र ने अपना काम सही ढंग से नहीं किया .

Friday, April 27, 2012

मुसलमानों के विकास के लिए मिली रक़म को वापस कर देती है सरकार

शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली, २५ अप्रैल.मुसलमानों के विकास के मुद्दे पर सरकार का रवैया शुद्ध रूप से गैरजिम्मेदारी का ही है . सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता से सम्बंधित कमेटी ने अल्पसंख्यकों के लिए किये जा रहे काम में सम्बंधित मंत्रालय को गाफिल पाया है .इस रिपोर्ट में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के काम काज की धज्ज़ियाँ उडाई गयी हैं . बी एस पी के सांसद दारा सिंह चौहान की अध्यक्षता वाली समिति की बीसवीं रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकार ने मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए बजट में मिली हुई रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया और पैसे वापस भी करने पड़े. कमेटी की रिपोर्ट में लिखा गया है कि कमेटी इस बात से बहुत नाराज़ है कि २०१०-११ के साल में अल्पसंख्यक मंत्रालय ने ५८७ करोड़ सत्तर लाख की वह रक़म लौटा दी जो घनी अल्पसंख्यक आबादी के विकास के लिए मिले थे. हद तो तब हो गयी जब मुस्लिम बच्चों के वजीफे के लिए मिली हुई रक़म वापस कर दी गयी. यह रक़म संसद ने दी थी और सरकार ने इसे इसलिए वापस कर दिया कि वह इन स्कीमों में ज़रूरी काम नहीं तलाश पायी. यह सरकारी बाबूतंत्र के नाकारापन का नतीजा है ., प्री मैट्रिक वजीफों के मद में मिले हुए धन में से ३३ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए , मेरिट वजीफों के लिए मिली हुई रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए और पोस्ट मैट्रिक वजीफों के लिए मिली हुयेर रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए . इसका मतलब यह हुआ कि सभी पार्टियों के प्रतिनिधित्व वाली संसद ने तो सरकार को मुसलमानों के विकास के लिए पैसा दिया था लेकिन सरकार ने उसका सही इस्तेमाल नहीं किया . इस के बारे में सरकार का कहना है कि उनके पास अल्पसंख्यक आबादी वाले जिलों से प्रस्ताव नहीं आये इसलिए उन्होंने संसद से मिली रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया . संसद की स्थायी समिति ने इस बात पर सख्त नाराज़गी जताई है और कहा है कि वजीफों वाली गलती बहुत बड़ी है और उसको दुरुस्त करने के लिए सरकार को काम करना चाहिए . बजट में वजीफों की घोषणा हो जाने के बाद सरकार को चाहिए कि उसके लिए ज़रूरी प्रचार प्रसार आदि करे जिससे जनता भी अपने जिले या राज्य के अधिकारियों पर दबाव बना सके और अल्पसंख्यकों के विकास के लिए मिली हुई रक़म सही तरीके से इस्तेमाल हो सके. कमेटी के सदस्य इस बात पर विश्वास करने को तैयार नहीं थे कि अल्पसंख्यक मंत्रालय में काम करने के लिए लोग नहीं मिल रहे हैं . खाली पड़े पदों के बारे में सरकार के जवाब से कमेटी को सख्त नाराज़गी है .जहाँ उर्दू पढ़े लोगों को कहीं नौकरियाँ नहीं मिल रही हैं , वहीं केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मंत्रालय ने कमेटी को बताया है कि सहायक निदेशक ( उर्दू ) ,अनुवादक ( उर्दू) और टाइपिस्ट ( उर्दू ) की खाली जगहें नहीं भरी जा सकीं. सरकार की तरफ से बताया गया कि वे पूरी कोशिश कर रहे हैं कि यह खाली जगह भर दिए जाएँ लेकिन सफल नहीं हो रहे हैं . यह बात कमेटी के सदस्यों के गले नहीं उतरी , सही बात यह है कि सरकार के इस तर्क पर कोई भी विश्वास नहीं करेगा. कमेटी ने सख्ती से कहा है कि जो पद खाली पड़े हैं उनको मीडिया के ज़रिये प्रचारित किया जाए तो देश में उर्दू जानने वालों की इतनी कमी नहीं है कि लोग केंद्र सरकार में नौकरी के लिए मना कर देगें. कमेटी की रिपोर्ट में लिखा है कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लागू करने का फैसला तो सरकार ने कर लिया है लेकिन उसको लागू करने की दिशा में गंभीरता से काम नहीं हो रहा है .वजीफों के बारे में तो कुछ काम हुआ भी है लेकिन सच्चर कमेटी की बाकी सिफारिशों को टाला जा रहा है.सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को अगर सही तरीके से लागू कर दिया जाए तो अल्पसंख्यक समुदाय का बहुत फायदा होगा. कमेटी ने अल्पसंख्यक मंत्रालय को सख्त हिदायत दी है कि सच्चर कमेटी को गंभीरता से लें और उसको लागू करने के लिए सार्थक प्रयास करें. मुसलमानों के कल्याण के लिए प्रधान मंत्री ने १५ सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की थी. इसको लागू करने में भी सरकार का रवैया गैरजिम्मेदार रहा है . १५ सूत्री कार्यक्रम पर नज़र रखने के लिए कुछ कमेटियां बनी है जिनकी बैठक ही समय समय पर नहीं होती . शिकायत मिली है कि जब बैठक होती भी है तो लोकसभा और राज्यसभा के वे सदस्य जो इन कमेटियों के मेंबर हैं , उन्हें इत्तिला ही नहीं की जाती . मंत्रालय के सेक्रेटरी ने अपनी पेशी के दौरान यह बात स्वीकार किया कि उनको इस सम्बन्ध में सदस्यों से मिली शिकायत की जानकारी है . संसद की स्थायी समिति ने पाया कि २७ जनवरी २०१० के दिन एक योजना शुरू की गयी थी जिसके तहत अल्पसंख्यक महिलाओं में नेतृत्व क्षमता का विकास किया जाना था . जिस से उन महिलाओं का आत्म विश्वास बढे और वे सरकार के विभागों , बैंकों आदि में जाकर बात चीत कर सकें.यह काम गैर सरकारी संगठनों के ज़रिये होना था .इस मद में २००९-१० में ८ करोड़ और १०१०-११ में १५ करोड़ रूपये का प्रावधान भी किया गया था . कमेटी को इस बात पर बहुत ही रंज है कि दो साल पहले शुरू हुई योजना पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया . जब सरकार से जवाब माँगा गया तो उनका जवाब बिलकुल टालू था . उनका कहना था कि उनको ऐसे संगठन ही नहीं मिले जिनके ज़रिये यह काम करवाया जा सके. कमेटी के सदस्यों और अन्य सांसदों ने अफ़सोस ज़ाहिर किया कि अल्पसंख्यक मंत्रालय काम काम एक बहुत ही काबिल मंत्री को दिया गया है लेकिन फिर भी सरकारी बाबूतंत्र ने अपना काम सही ढंग से नहीं किया .

Friday, April 20, 2012

संसद की याचिका समिति के पास संकटमोचक होने की शक्ति होती है

शेष नारायण सिंह

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. इस लोकतंत्र का सबसे बड़ा निशान भारत की संसद है . एक अजीब बात है कि संसद के काम काज के बारे में बहुत लोगों को मालूम ही नहीं रहता . अपनी संसद में कमेटी सिस्टम लागू है . बहुत सारी समितियां हैं . जिनका काम संसद के काम और उसकी प्रभाव को मज़बूत करना है . पिछले दिनों अन्ना हजारे के भूख हड़ताल एक दौरान ऐसे कई अवसर आये जब सरकार या सा मीडिया ने अन्ना हजारे की टीम की तरफ से बनाए गए लोकपाल बिल को संसद की स्थायी समिति के विचार के लिए भेजने की बात की गयी तो अन्ना के साथी भड़क उठते थे. उनको लगता था कि सरकार उस विषय को टालने के लिए बिल को स्थायी समिति के पास भेज रही थी लेकिन जब इस विषय पर चर्चा हुई तो पता लगा कि स्थायी समिति के पास कितनी ताक़त होती है .

संसद की स्थायी समितियों का इतिहास बहुत पुराना नहीं है . संसद के प्रति सरकार की ज्यादा जवाबदेही सुनिश्चित करने के उद्देश्य से संसद में कमेटी सिस्टम की व्यवस्था लागू की गयी. १९८९ में पहली बार तीन कमेटियां बनायी गयीं. मकसद यह था कि किसी भी बिल के संसद में पेश होने से पहले उसकी विधिवत विवेचना की जाये और जब सभी पार्टियों की सदस्यता वाली समिति उसे मंजूरी दे तब संसद के सामने मामले को विचार के लिए प्रस्तुत किया जाए. इन कमेटियों का मुख्य काम सरकार के कामकाज की गंभीर विवेचना करना और संसद के प्रति सम्बंधित मंत्रालय कोपूरी तरह से जवाबदेह बनाना है . ,सम्बंधित मंत्रालय या विभाग की बजट मांगों पर पहले स्थायी समिति में चर्चा होती है और वहां पर जानकारों की राय तक ली जा सकती है .उस विभाग से सम्बंधित बिल भी सबसे पहले उस मंत्रालय की स्थायी समिति के पास जाता है . कमेटी का लाभ यह है कि सदन में पेश होने के पहले बिल की पूरी तरह से जांच हो चुकी होती है और हर पार्टी उसमें अपना राजनीतिक योगदान कर चुकी होती है . ऐसा नहीं हो सकता कि सरकार वहां मनमानी कर ले क्योंकि कमेटी का गठन ही सरकार को ज्यादा ज़िम्मेदार ठहराने के लिए किया जाता है .सभी पार्टियों के सदस्य इन कमेटियों के सदस्य होते हैं इसलिए सरकार के काम काज की इनकी बैठकों में बाकायदा जांच की जाती है . स्थायी समिति के पास इतनी ताक़त होती है कि किसी भी सरकारी बिल को रद्दी की टोकरी में भी डाल सकती और सरकार को निर्देश दे सकती है कि वह बिल को दुबारा बना कर लाये.

इसी तरह से संसद में और भी बहुत सारी समितियां हैं जिनके बारे में विद्धिवत जानकारी नहीं है. राज्य सभा के डिप्टी चेयरमैन , के रहमान खां ने एक मुलाक़ात में बताया कि संसद की याचिका समिति के पास भी बहुत ताक़त होती है . उन्होंने बताया कि याचिका समिति यानी पेटीशन कमेटी के पास देश भर किसी भी मसले पर जांच करने का अधिकार है . उन्होंने कहा कि याचिका समिति के पास वह ताक़त भी होती है कि अगर उसका इस्तेमाल ठीक से किया जाए तो लोग अदालतों में पी आई एल ( जनहित याचिका ) दाखिल करना भूल जायेगें.उन्होंने बताया कि संसद के दोनों ही सदनों की अपनी याचिका समिति है और दोनों के पास एक जैसे ही अधिकार हैं . याचिका समित में कोई भी मामला विचार के लिए याचिका के रूप में भेजा जा सकता है . संसद सदस्यों के पास तो यह अधिकार होता ही है ,देश का कोई भी नागरिक याचिका समिति के सामने अपनी फारियाद पेश कर सकता है .

संसद के समक्ष याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार काफी पहले से रहा है और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। संसद के नियमों के तहत देश के सभी नागरिकों को याचिका देने का अधिकार है लेकिन उसके लिए कुछ शर्ते हैं . इन शर्तों को पूरा कने वाली कोई भी याचिका संसद में विचार के लिए स्वीकार की जा सकती है .मसलन , ऐसे किसी मामले में याचिका नहीं दी जा सकती जो किसी विधेयक का विषय हो और संसद के विचाराधीन हो . इसके अलावा भारत सरकार से संबंधित जनहित के किसी भी विषय पर याचिका लाई जा सकती है .हाँ , जो मामले न्यायालय में विचाराधीन हों या जिनके लिए केन्द्र सरकार द्वारा बनाए गए कानून या नियम के हिसाब से याचिका कर्ता को सहूलियत मिल सकती हो, उन विषयों पर याचिका समिति में अर्जी नहीं दी जा सकती.ज़ाहिर है जहां नियम क़ानून को तोड़कर कोई ऐसा काम किया जा रहा हो वहां याचिका समिति संकटमोचक का काम करती है . मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि जिन मामलों में आम तौर पर लोग पी आई एल करते हैं उन मामलों में याचिका समिति में दरखास्त दी जा सकती है . के रहमान खां ने बताया कि याचिका समिति वास्तव में आम आदमी के लिए ज्यादा उपयोगी है . क्योंकि यहाँ कोई खर्च नहीं होता और किसी तरह का वकील वगैरह नहीं करना होता.संसद को भेजी जाने वाली याचिका या तो किसी भी सदन के महासचिव के पास सीधे भेजी जा सकती है या किसी संसद सदस्य से प्रतिहस्ताक्षरित करवा कर याचिकाकर्ता की ओर से संसद में पेश किया जा सकता हाई . याचिका समिति के पास जो भी याचिका पंहुचेगी उसकी जाँच अवश्य की जाती है .याचिका समिति की सिफारिशें संसद के सम्बंधित सदन के सामने एक रिपोर्ट के रूप में पेश की जाती है . रिपोर्ट की कापी जिस मंत्रालय या विभाग से सम्बंधित मामला होता है ,उसके पास कार्रवाई के लिए भेजा जाता है .यह ज़रूरी है कि सरकार का विभाग याचिका समिति की रिपोर्ट पर जो भी कार्रवाई करेगा ,उसके बारे में याचिका समिति को बाकायदा जानकारी देगा . अगर तुरंत कोई कार्रवाई नहीं हो सकती तो विभाग का अधिकारी याचिका समिति के सचिव को बताएगा कि वह रिपोर्ट पर क्या कार्रवाई करने की योजना बना रहा है .यह सूचना याचिका समिति के सचिव की ओर से समिति के सामने विचार के लिए पेश की जायेगी . अगर कार्रवायी से समिति संतुष्ट नहीं है तो सरकार के मंत्रालय या विभाग को संतोषजनक काम करने को कहेगी . यानी इस समिति के पास इतनी ताक़त है जो केंद्र सरकार जैसे मज़बूत संगठन को न्याय करने के लिए बाध्य कर सकती है . अगर याचिका समिति इस बात से संतुष्ट है कि सरकार की तरफ से ज़िम्मेदारी से काम नहीं किया जा रहा है तो सरकार के लिए संसद में मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है .इसका मतलब यह हुआ कि अगर कोई मामला एक बार याचिका समिति के सामने आ गया तो वह उस पर तब तक निगरानी रखेगी जब तक कि समस्या का हल न निकल आये.
इस तरह से हम देखते हैं कि संसद की याचिका समिति के पास ऐसे पावर हैं जिनके चलते हमारी लोकतंत्रीय व्यवस्था को और भी मज़बूत बनाया जा सकता है और लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की जा सकती है .

नैशनल म्यूज़ियम को धन्नासेठों को सौंपने के चक्कर में है सरकार

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली ,१८ अप्रैल. संस्कृति मंत्रालय के एक और संगठन का घपला संसद की नज़र में आया है . नैशनल म्यूज़ियम हमारे इतिहास का एक खजाना है लेकिन उसके रखरखाव और प्रबंधन के काम में सरकार ने बहुत ही गैरज़िम्मेदार तरीका अपना रखा है. संस्कृति मंत्रालय के काम पर नज़र रखने वाली संसद की स्थायी समिति ने अपने १६७वीं रिपोर्ट में लिखा है कि नैशनल म्यूज़ियम में बहुत सारे पद खाली पड़े हैं . सरकारी पदों पर भर्ती के नियम इतने टेढ़े हैं कि किसी को भर्ती कर पाना लगभग असंभव है. सरकारी नियम यह है कि अगर कोई पद एक साल तक खाली रह जाए तो वह खत्म हो जाता है और सरकार में नए पद का सृजन बहुत कठिन काम है संसद की स्थायी समिति को लगता है कि अगर ऐसे ही हालात रहे तो नैशनल म्यूज़ियम में कुछ समय बाद कोई भी सरकारी कर्मचारी नहीं रह जाएगा और सरकार को बहाना मिल जाएगा कि नैशनल म्यूज़ियम जैसी राष्ट्रीय महत्व की संस्था किसी प्राइवेट कंपनी को दे दी जाए. कमेटी ने सरकार को ताकीद की है कि इस तरह की साज़िशनुमा कार्रवाई को रोके और नैशनल म्यूज़ियम में खाली पड़े पदों पर फ़ौरन उपयुक्त लोगों की भर्ती करे. राज्यसभा के सदस्य सीताराम येचुरी इस कमेटी के अध्यक्ष हैं . इसके सदस्यों में दोनों ही सदनों के सांसद शामिल हैं .

परिवहन,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय पर नज़र रखने के लिए संसद की स्थायी समिति की नैशनल म्यूज़ियम के बारे में रिपोर्ट को पिछले साल मार्च में संसद के दोनों सदनों में पेश किया था . लेकिन अभी तक रिपोर्ट में दिए गए सुझावों पर सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की है . कमेटी की रिपोर्ट में नैशनल म्यूज़ियम में चारों तरफ फैले अनर्थ का खुलासा है और इतने अहम संस्थान को सर्वनाश से बचाने के लिए बहुत से महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए हैं लेकिन सरकार ने कोई क़दम नहीं उठाया है . रिपोर्ट पर नज़र डालने से समझ में आ जाता है कि नैशनल म्यूज़ियम भारी कुप्रबंध का शिकार है .यहाँ २६ गैलरियां हैं जिनमें से ७ गैलरियां पिछले कई साल से बंद हैं .नैशनल म्यूज़ियम के पास बड़ा सा भवन है लेकिन कर्मचारियों की कमी के कारण ज़्यादातर गैलरियां बंद कर दी गयी हैं .नैशनल म्यूज़ियम के भवन की देखभाल का काम सी पी डब्ल्यू डी वालों के पास है लेकिन उनका रवैया भी गैरजिम्मेदार है .कमेटी ने सुझाव दिया है कि सी पी डब्ल्यू डी में एक ऐसा सेक्शन बनाया जाना चाहिए जो शुद्ध रूप से देश भर के म्यूजियमों के निर्माण और देखभाल का काम करे.
नैशनल म्यूज़ियम की सिक्योरिटी का हालत तो बहुत ही चिंताजनक है . बहुत सारी चोरी की घटनाएं हुई हैं . बहुत सारे मामलों की जांच हो रही है . कुछ मामलों में नैशनल म्यूज़ियम के कर्मचारियों का हाथ भी पाया गया है .इसलिए कुछ मामले सरकार के सतर्कता विभाग के पास भी विचारधीन हैं . संस्कृति विभाग के सचिव ने बताया कि वे चोरी और सरकारी कर्मचारियों की हेराफेरी से परेशान हैं और उन्होंने इस सम्बन्ध में सी बी आई को चिट्ठी भी लिखी है .नैशनल म्यूज़ियम के पास २ लाख से भी ज्यादा कलाकृतियाँ हैं जिनमें से केवल १५, ६८१ को प्रदर्शित किया गया है यानी कुल कलाकृतियों का केवल करीब ७ प्रतिशत ही प्रदर्शित किया गया है .
नैशनल म्यूज़ियम में २००३ के बाद से कलाकृतियों का वेरीफिकेशन नहीं किया गया है. कमेटी को शक़ है कि इतने लम्बे अंतराल के बाद कुछ कलाकृतियाँ गायब हो गयी होगीं. नैशनल म्यूज़ियम के प्रबंधन की तरफ से इसका जो कारण बताया गया वह भी इस संस्था के निजीकरण की तरफ संकेत करता है . बताया गया कि स्टाफ नहीं है इसलिये कलाकृतियों का वेरीफिकेशन नहीं हो सका. नैशनल म्यूज़ियम के संकलन में ऐसी कलाकृतियाँ हैं जिनकी बड़ी संख्या बहुत ही दुर्लभ कलाकृति की श्रेणी में आती है . लेकिन कमेटी के लोग सन्न रह गए जब उन्हें पता चला कि कला के इस ज़खीरे को संभालने की दिशा में कोई काम नहीं हुआ है. आई टी के क्षेत्र में इतनी तरक्की हो गयी है कि लेकिन नैशनल म्यूज़ियम में विज्ञान की प्रगति का कोई इस्तेमाल नहीं हुआ है . कमेटी ने सुझाव दिया है कि नैशनल म्यूज़ियम की कलाकृतियों को डिज़िटाइज किया जाए और उसे इंटरनेट पर उपलब्ध कारवाने की कोशिश की जाए. नैशनल म्यूज़ियम में भर्ती के सख्त नियमों के चलते वर्षों तक महानिदेशक का पद खाली पड़ा रहा . उसके पहले भी आई ए एस वालों ने अपने साथियों को वहां टाइम पास करने का बार बार मौक़ा दिया. कमेटी ने सख्ती से आदेश दिया है कि फ़ौरन से पेशतर नैशनल म्यूज़ियम में एक ऐसे व्यक्ति को महानिदेशक बनाया जाए जो संग्रहालयों के काम काज को जानता हो . यानी नौकरशाही के चंगुल से नैशनल म्यूज़ियम को मुक्त कराने की दिशा में भी संसद की स्थायी समिति ने पहल कर दी है .

अपनी पेशी के दौरान संस्कृति विभाग के सचिव् ने कहा था कि मंत्रालय ने गोस्वामी कमेटी की रिपोर्ट के लागू करने की दिशा में कुछ काम किया है लेकिन अभी बहुत काम होना बाकी है .कमेटी ने सुझाव दिया है कि गोस्वामी कमेटी की रिपोर्ट को गंभीरता से लिया जाए और दिल्ली के नैशनल म्यूज़ियम के अलावा देश के बाकी महत्वपूर्ण संस्थाओं को भी वही महत्व दिया जाए जिस से देश के ऐतिहासिक गौरव की चीज़ों को संभाल कर रखा जा सके. कमेटी ने कहा है कि संस्कृति मंत्रालय इतना महत्वपूर्ण है कि कई बार इसे प्रधान मंत्री के अधीन ही रखा जाता रहा है .कमेटी को इस बात पर ताज्जुब है कि इस के बावजूद भी संस्कृति मंत्रालय की संस्थाओं को ज़रूरी इज्ज़त नहीं दी जा रही है कमेटी ने उम्मीद जताई है कि सरकार के उच्चतम स्तर पर फौरी कार्रवाई की जायेगी और नैशनल म्यूज़ियम जैसे राष्ट्रीय महत्व के संस्थान को स्वार्थी लोगों के हाथों जाने से बचा लिया जाएगा.

Tuesday, April 17, 2012

देश की आतंरिक सुरक्षा और कुछ गैरजिम्मेदार मुख्यमंत्री

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, १६ अप्रैल. आतंरिक सुरक्षा पर मुख्य मंत्रियों के सम्मलेन में प्रधान मंत्री ने स्वीकार किया है कि देश की आतंरिक सुरक्षा की हालत बहुत ठीक नहीं है . उन्होंने कहा कि वामपंथी आतंकवाद सबसे खतरनाक है . देश की आतंरिक सुरक्षा को सबसे ज्यादा ख़तरा वामपंथी आतंकवाद से ही है. प्रधान मंत्री की मौजूदगी में गृह मंत्री ने दावा किया कि पिछले एक साल में हिंसक घटनाएं तो कम हुई हैं लेकिन आतंकवादियों का विस्तार हो रहा है . अब वे पहले से ज्यादा भूभाग पर सफलता पूर्वक काम चला रहे हैं. राज्य सरकारों को इस संकट से निपटने के लिए सभी उपाय करना चाहिए . केंद्र सरकार ने एक बार फिर साफ़ कर दिया कि राज्यों की आतंरिक सुरक्षा हर हाल में राज्यों का काम है . केंद्र की भूमिका उनको सुविधाएं देने और पुलिस व्यवस्था को आधुनिक बनाने में उनकी कोशिश को मज़बूत करना है प्रधान मंत्री के इस बयान से साफ़ लगा कि वे कुछ राज्यों के मुख्य मंत्रियों की उस शंका को संबोधित कर रहे है जिसमें राज्यों के कार्य क्षेत्र में केंद्र के हस्तक्षेप का विरोध किया गया है .

नई दिल्ली में आज आयोजित आन्तरिक सुरक्षा पर मुख्य मंत्रियों के सम्मलेन में वामपंथी आतंकवाद के कारण पैदा हो रही समस्याओं पर सारा ध्यान लगा रहा .आज के एजेंडा में सीमापार से आने वाले आतंकवादियों को काबू में करने की रणनीति पर विस्तार से चर्चा हुई लेकिन इस बात पर चिंता जताई गयी कि अब पाकिस्तानी आतंकवादी खुद काम न करके भारतीय नागरिकों को ही आतक के काम में इस्तेमाल कर रहे हैं .पी चिदंबरम ने कहा कि आतंक के इस नए मोड्यूल से सुरक्षा की चिंताएं बढ़ गयी हैं .. वामपंथी आतंकवाद भी आज की चर्चा का बहुत ही अहम मुद्दा रहा .. आपराधिक न्याय व्यस्था को ठीक करने की बात की गयी . एजेंडा की घोषणा करते हुए केंद्रीय गृह सचिव ने कहा कि हालांकि न्याय का प्रशासन गृह मंत्रालय का विषय नहीं है लेकिन सरकार की कोशिश होगी कि इस दिशा में में मुख्य मंत्रियो के सम्मलेन में चर्चा हो और आपराधिक जांच की प्रक्रिया को गतिशील बनाने की कोशिश की जाये.. सीमा पार से आने वाले आतंकवाद को काबू में करने के लिए समुद्र तट और अंतर राष्ट्रीय सीमा पर चौकसी की बात को भी प्रमुखता से विचार विमर्श के दायरे में लिया गया .
गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि हालांकि २०११ में आतंकवादी हिंसा के घटनाएं कम हुई हैं लेकिन यह बहुत संतुष्ट होने की बात नहीं है क्योंकि वामपंथी आतंकवाद के एजदें और ज्यादा राज्यों में फैल रही हैं . सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि आतंकवादियों के पास जो हथियार है आतंकवादियों की मारक क्षमता बहुत ज्यादा बढ़ रही है . २०११ में जम्मू कश्मीर में आतंकी कमज़ोर पड़े हैं . उत्तर पूर्व में भी उनको काबू करने की कोशिश की गयी है लेकिन वामपंथी आत्नाक्वाद अभी भी चुनौती बना हुआ है . नीतिगत गत रूप से फैसला लिया गया है कि आतंक के जो संगठन और मोड्यूल हैं उनको ही तबाह किया जाए. . इस दिशा में बहुत अच्छी प्रगति भी हुई है .लेकिन चिंता की बात यह है कि रोज़ नए नए रस्ते खुल रहे हैं . नेपाल और बंगलादेश के रास्ते भी अब आतंकवादी बड़ी संख्या में प्रवेश करने लगे है . उन्होंने इस बात पर चिंता जाहिर की कि कई बार ऐसा होता है कि आतंक के चक्कर में गिरफ्तार लोगों को बचाने के लिए कुछ समूह आगे आ जाते है . आतंकवादियों एक पक्ष में भी मानवधिकार की बातें की जाती हैं उन्होंने संतोष जताया कि सरकार के तरफ से भी लोकत्रांत्रिक तरीकों से ही हालत को सुलझाने की कोशिश की जाती है . इस मामले में केंद्र और राज्य सरकारों में कोई मतभेद नहीं है .
गृह मंत्री ने अपने भाषण में वामपंथी आतंकवाद का उल्लेख कई बार किया और कहा कि दो राज्यों की कानून व्यवस्था को तो वामपंथी आतंकवादी बुरी तरह चुनौती दे रहे हैं जबकि ३राज्यों में ख़तरा बढ़ रहा है . इन राज्यों को हर तरह का सहयोग किया जाएगा . उन्होंने बताया कि असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में भी माओवादियों से ख़तरा पैदा हो गया है . इस पर काबू करने की हर कोशिश की जायेगी. .
गृह मंत्री ने इस बात पर भी चिंता जताई कि कुछ राज्य आतंकवाद से लड़ने के लिए बनायी जाने वाली ढांचागत सुविधाओं को बनाने में कोताही बरत रहे हैं . उन्होंने कहा कि पिछले साल इस मद में जो रक़म मिली थी उसमें से ३०० करोड़ रूपये वापस कर दिए गये थे. सरकार की तरफ से हर स्तर पर अपील की गयी कि आतंकवाद से लड़ने के लिए जो भी ज़रूरी हो , किया जाए.

Sunday, April 15, 2012

मुलायम सिंह यादव को मालूम है वे ही यू पी के मुसलमानों के नेता हैं, और कोई नहीं

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, १४ अप्रैल. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के कामकाज में किसी तरह का दखल नहीं देना चाहते. राज्य में समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के एक महीने बाद आज एक ख़ास मुलाक़ात में मुलायम सिंह यादव ने साफ़ कहा कि वे राज्य सरकार के काम काज में किसी तरह की दखलंदाज़ी नहीं करेगें.जब उन्हें याद दिलाया गया कि दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम के दबाव में फैसले लेकर उन्होंने राज्य सरकार के ऊपर दबाव डाला है तो उन्होंने कहा कि वे किसी के दबाव में फैसले नहीं लेते . जहां तक इमाम से बातचीत का सवाल है उनके दरवाज़े सब के लिए खुले हैं . किसी भी समुदाय के महत्वपूर्ण व्यक्ति से बात करना सरकारी नहीं राजनीतिक काम है और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रूप में वे काम करते रहेगें.जहां तक सरकारी काम का सवाल है उन्होंने पार्टी के कार्यकर्ताओं को बता दिया है कि राज्य सरकार के किसी काम को वे प्रभावित नहीं करेगें. किसी भी सरकारी काम के लिए उन्हें मुख्यमंत्री या राज्य सरकार के सम्बंधित मंत्रियों से ही संपर्क करना पडेगा. बात चीत से साफ़ लगा कि वे मुसलामानों के कल्याण के लिए खुद चिंतित हैं और उन्हें मालूम है कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने उनकी बात पर विश्वास करके ही उनकी पार्टी को वोट दिया है. राज्य में व्यापक मुस्लिम समर्थन उनको इसलिए मिला है कि मुसलमान उनकी बातों पर भरोसा करते हैं .उसके लिए मुस्लिम समुदाय के किसी भी नेता से ज्यादा वे खुद ज़िम्मेदार हैं

मुसलमानों के साथ हुए पिछली सरकार के शासन काल के अन्याय के लेकर वे बहुत चिंतित नज़र आये. उन्होंने कहा कि इस समुदाय के साथ जो भी अन्याय हुआ है राज्य सरकार उसे ठीक करने के लिए काम कर रही है. सरकार को वे राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में राजनीतिक समर्थन पूरी तरह से देते रहेगें.उन्होंने कहा कि हालांकि कोई काम ऐसा नहीं किया जाएगा जिस से लगे कि पिछली सरकार के साथ बदले की भावना से काम किया जा रहा है लेकिन पिछली सरकार से जो गलतियाँ हुई हैं उनको सुधारने की पूरी कोशिश की जायेगी. उन्होंने कहा कि पिछली सरकार ने ठीक से काम नहीं किया . कहने लगे कि उत्तर प्रदेश की पिछ्ली सरकार ने केंद्र सरकार के योजना आयोग से एक मद में ५० करोड़ रूपये की मांग की थी जबकि उसी काम के लिए गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार ने अरबों रूपये की योजना बनाकर केंद्र सरकार के पास भेजा और मंज़ूर करा लिया . इस तरह से ठीक से प्रस्ताव तैयार करवा कर सही अफसरों को लगाकर जहां नरेंद्र मोदी करोड़ों रूपये ले जाने में सफल रहे . उत्तर प्रदेश की पिछली सरकार ने केंद्र से अपना हक भी ठीक से नहीं लिया . उन्होंने कहा कि मुख्य मंत्री से उन्होंने कहा है कि केंद्र से सहायता लेने के लिए जो भी प्रस्ताव भेजा जाए उसे बिलकुल दुरुस्त होना चाहिए जिस से राज्य सरकार के हित में काम किय जाय .जहां तक मुसलमानों की बात है उनके घोषणा पत्र में स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया गया है कि मुसलमानों के कल्याण को प्राथमिकता दी जायेगी और वचन को पूरा किया जाएगा. जब एक निर्दलीय संसद सदस्य को उनकी पार्टी में शामिल होने की बात की गयी तो उन्होंने साफ़ कहा कि वे हमारी पार्टी में नहीं हैं. उन्होंने वहां मौजूद लोक सभा सदस्य से भी कहा कि आपने अपने संसदीय इलाके में मुझसे जो भी वायदे करवाए थे उन्हें मुख्य मंत्रीसे मिल कर पूरा करवा लीजिये . और अगर ज़रूरी हो तो मैं भी बात कर सकता हूँ .

Saturday, April 14, 2012

अंबेडकर के नाम पर धंधा करने वाले कभी भी जाति का विनाश नहीं होने देगें

शेष नारायण सिंह

पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डा. बीआर अंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था. उनको विश्वास था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। दर असल डॉ बी आर अंबेडकर उन पांच ऐसे लोगों में हैं जिन्होंने भारत के बीसवीं सदी, के इतिहास की दशा तय की. जाति के विनाश के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाली उनकी किताब,The Annihilation of caste , ने हर तरह की राजनीतिक सोच को प्रभावित किया. है..आज सभी पार्टियां डॉ अंबेडकर के नाम की रट लगाती हैं लेकिन उनकी बुनियादी सोच से बहुत बड़ी संख्या में लोग अनभिज्ञ हैं.सच्चाई यह है कि पश्चिम और दक्षिण भारत में सामाजिक परिवर्तन के जो भी आन्दोलन चले हैं उसमें इस किताब का बड़ा योगदान है. यह काम महाराष्ट्र में उन्नीसवीं सदी में ज्योतिबा फुले ने शुरू किया था . उनके बाद के क्रांतिकारी सोच के नेताओं ने उनसे बहुत कुछ सीखा .. डॉ अंबेडकर ने महात्मा फुले की शिक्षा संबंधी सोच को परिवर्तन की राजनीति के केंद्र में रख कर काम किया और आने वाली नस्लों को जाति के विनाश के रूप में एक ऐसा गुरु मन्त्र दिया जो सही मायनों में परिवर्तन का वाहक बनेगा. डॉ अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ शुरू किये गए ज्योतिबा फुले के अभियान को एक अंतर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य दिया.

The Annihilation of caste में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जोअंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन उत्तर प्रदेश में जो सरकार पांच साल राज करके अभी एक महीने पहले विदा हुई है वह अंबेडकर के समर्थकों और उनके अनुयायियों की ही थी. राज्य की मुख्यमंत्री और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया था और सत्ता के केंद्र तक पंहुचे थे .इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली मायावती सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिया क्या कदम उठाया .

उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री की पिछले बीस वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है। दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। हर जाति का भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई हैं और उन कमेटियों को मायावती की राजनीति पार्टी का कोई बड़ा नेता संभाल रहा है। डाक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।
एक अजीब बात यह भी है कि मायावती सरकार के कई मंत्रियों को यह भी नहीं मालूम था कि अंबेडकर के मुख्य राजनीतिक विचार क्या हैं उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब का नाम क्या है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता मार्क्स के सिद्धांतों को न जानता हो, या दास कैपिटल नाम की किताब के बारे में जानकारी न रखता हो। उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ता, काफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है।
इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन भी है . इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डा- अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते है हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डाक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का था, लेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही है, लोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे है, यह अलग बात है।
इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।
अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी. ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिनअंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।
तकलीफ तब होती है जब उसके अनुयायियों की सरकार में भी उनकी विचारधारा को नजर अंदाज किया जा रहा है। सारी दुनिया के समाज शास्त्री मानते हैं कि जाति प्रथा भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास में सबसे बड़ा रोड़ा है है, और उनके विनाश के लिए अंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है . जब कांशी राम ने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था तो अंबेडकर के दर्शन शास्त्र को समझने वालों को उम्मीद थी कि जब अंबेडकर वादियों को सत्ता में भागीदारी मिलेगी तो सब कुछ बदल जाएगा ,जताई प्रथा के विनाश के लिए ज़रूरी क़दम उठा लिए जायेगें लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पांच साल तक पूर्ण बहुमत वाली सत्ता का आनंद लेने वाली मायावती जाति संस्था को ख़त्म करना तो दूर उसको बनाए रखने और मज़बूत करने के लिए एडी चोटी का जोर लगा दिया .लगता है कि अंबेडकर जयंती या उनके निर्वाण दिवस पर फूल चढाते हुए फोटो खिंचाने वाले लोगों के सहारे जाति प्रथा का विनाश नहीं किया जा सकता. वे चाहे नेता हों या अंबेडकर के नाम पर दलित लेखन का धंधा करने वाले लोग. जाति का विनाश करने के लिए उन्हीं लोगों को आगे आना होगा जो जातिप्रथा के सबसे बड़े शिकार हैं .

Friday, April 13, 2012

क्या साहित्य,संगीत और कला की केंद्रीय अकादमियां किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं ?

शेष नारायण सिंह

एक सवाल हर दौर में उठता रहा है कि क्या अपने देश में रहने वालों की बेहतर ज़िंदगी के लिए शिक्षा और संस्कृति का विकास बहुत ज़रूरी शर्त है . क्योंकि चौतरफा विकास के लिए और एक अच्छे समाज की स्थापना के लिए शिक्षा और संस्कृति की बेहतरी बहुत ज़रूरी है . १९८८ में बनी हक्सर कमेटी ने भी यह सवाल बहुत ही संजीदगी से उठाया था. हक्सर कमेटी एक ताक़तवर कमेटी थी जिसे केंद्र सरकार ने बनाया था और उसे ज़िम्मा दिया गया था कि वह साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के काम काज पर नज़र डाले और यह देखे कि क्या यह संस्थाएं अपना काम ठीक से कर रही हैं. क्या उन्हें जो ज़िम्मा दिया गया था उसे वे ज़िम्मेदारी से निभा रही हैं . हक्सर कमेटी की रिपोर्ट को लागू करना सरकार की ज़िम्मेदारी थी लेकिन जब बीस साल बाद संसद की एक कमेटी ने उस रिपोर्ट के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश की तो पता चला कि केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाले संस्कृति मंत्रालय ने उस रिपोर्ट पर कार्रवाई करने के बारे में कभी सोचा ही नहीं . और जब सीताराम येचुरी की अध्यक्षता वाली इस कमेटी ने फ़ाइल तलब की तो जवाब आया कि मंत्रालय पूरी गंभीरता से फ़ाइल की तलाश कर रहा है . यानी हालात यह थे कि रिपोर्ट आने के बाद फ़ाइल ही गायब हो गयी थी और किसी को कहीं कुछ पता नहीं था. कहीं से तलाश कार जब रिपोर्ट हाथ आई तो संस्कृति मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति इतनी प्रभावित हुई कि उसने यह तय किया कि अब साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के काम काज के बारे में कोई जांच नहीं की जायेगी. हक्सर कमेटी की रिपोर्ट इतनी विस्तृत है कि अगर उसके ऊपर की गयी सरकारी कार्रवाई की समीक्षा कर ली जाए तो भी बहुत कल्याण हो जाएगा. लेकिन जाब कार्रवाई के बारे में सरकारी अफसरों से पूछा गया तो हालात और भी बदतर नज़र आये. पता चला कि सरकार ने कोई काम ही नहीं किया है . रिपोर्ट के ऊपर जो भी टिप्पणी साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से मिली थी उसी को अपनी तरफ से संसदीय कमेटी के पास भेज दिया गया है . उन टिप्पणियों पर सरकार की तरफ से कोई कमेन्ट नहीं किया गया.है हक्सर कमेटी की रिपोर्ट पर विधिवत काम करने के बाद संसद की स्थायी सामिति ने सुझाव दिया है कि सरकार को ऐसा उपाय करना चाहिए कि जिस से साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्वायत्तता तो सुरक्षित रहे लेकिन स्वायत्तता के नाम सरकारी धन का दुरुपयोग न हो और यह संस्थाएं वह काम ज़रूर करें जो करने के इए इनकी स्थापना की गयी थी .

आजादी के बाद स्वतंत्र भारत के निर्माताओं ने बहुत ही लगन से देश की संस्कृति की निगहबान संस्थाओं,साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना की थी. उन्होंने सोचा था कि स्वतंत्र भारत में संस्कृति और विकास की धारा साथ साथ चलेगी क्योंकि संस्कृति और विकास के दूसरे के पूरक होते हैं लेकिन लगता है कि ऐसा हो नहीं सका है . संस्कृति मंत्रालय के मामलों पर नज़र रखने के लिए बनायी गयी संसद की स्थायी समिति की ताज़ा रिपोर्ट में इस बात पर अफ़सोस ज़ाहिर किया गया है और संस्कृति मंत्रालय की नौकरशाही के कामकाज के तरीकों पर गंभीर सवाल उठाये गए हैं . रिपोर्ट पर नज़र डालने से साफ़ लगता है कि सरकार असहाय है और साहित्य संगीत और कला की राष्ट्रीय संस्थाओं में मनमानी का राज है .

यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से सम्बंधित संसद की स्थायी समिति ने साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के कामकाज के तरीके पर चर्चा करने का काम अपने जिम्मे लिया . चारों तरफ से शिकायतें मिल रही थीं कि यह संस्थाएं अपना काम ठीक से नहीं कर रही थीं .शुरुआती दौर में ही पता लग गया कि इसी काम के लिए १९८८ में पी एन हक्सर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया था . स्थायी समिति ने पाया कि हक्सर कमेटी की रिपोर्ट बहुत ही व्यापक थी और उस कमेटी ने जो सिफारिशें की थीं अगर वे लागू कर दी गयी होतीं तो इन संस्थाओं में बहुत ही महत्वपूर्ण परिवर्तन हो चुके होते.इसलिए फिर से सारी जांच दुबारा करने की ज़रूरत नहीं है . कमेटी की राय थी कि हक्सर कमेटी के बारे में सरकार ने जो भी कार्यवाही की हो , वह देखने से पता लग जाएगा कि असली हालात क्या हैं . संस्कृति मंत्रालय से यह रिपोर्ट तलब कर ली गयी लेकिन कमेटी के सदस्य दंग रह गए जब उन्हें सरकार की तरफ से बताया गया कि हक्सर कमेटी की सिफारिशों के बारे में जो कार्रवाई की गई है उसकी फ़ाइल कहीं गायब हो गयी है और संस्कृति मंत्रालय बहुत ही मेहनत से उस फ़ाइल को तलाशने की कोशिश कर रहा है . कमेटी का कहना है कि हक्सर कमेटी को लागू करने के लिए सरकार ने कोई गंभीर कोशिश नहीं की थी.

संस्कृति मंत्रालय का काम देखने वाली संसद की स्थायी समिति एक महत्वपूर्ण कमेटी है . इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इतनी अहम कमेटी की रिपोर्ट को लागू करना तो दूर की बात है सरकार ने अभी तक इस पर विचार भी नहीं किया है .लगता है कि सरकार ने हक्सर कमेटी की सिफारिशों को लागू करने के बारे में कोई गंभीरता नहीं दिखाई वरना इतनी महत्वपूर्ण रिपोर्ट के गायब हो जाने का क्या मतलब है .मंत्रालय ने इस रिपोर्ट के बारे में जो कार्रवाई रिपोर्ट दाखिल किया है वह बहुत ही निराशाजनक है. अकादमियों से जो भी टिप्पणियां मिली थीं उसी को मंत्रालय ने अपनी कार्रवाई रिपोर्ट बताकर संसद की कमेटी के पास भेज दिया है .उस टिप्पणी पर अपनी तरफ से कुछ लिखने तक की जहमत नहीं उठायी है .इससे साफ़ लगता है कि मंत्रालय या तो असहाय है या संस्कृति के इन प्रमुख केन्दों में किसी तरह का सुधार करने की इच्छा ही नहीं रखता .यह सारी अकादमियां स्वायत्त हैं और लगता है कि इन संस्थाओं में बैठे हुए मठाधीश सत्ता के गलियारों में अपनी पंहुच का फायदा उठाकर संस्कृति मंत्रालय के अफसरों की परवाह ही नहीं करते. संसद की कमेटी ने साफ़ कहा है कि इन संस्थाओं की स्वायत्तता पर किसी तरह की आंच नहीं आनी चाहिए लेकिन स्वायत्तता की आड़ में बैठ कर राष्ट्रीय संसाधनों को बरबाद होने से बचाने के लिए सब कुछ किया जाना चाहिये .जहां तक संस्कृति मंत्रालय और उसकी अकादमियों का सवाल है संसद की स्थायी समिति ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि उनके काम काज के तरीकों में जिम्मेदारी का तत्व बिलकुल नहीं है .कमेटी ने कहा है कि वह किसी भी हालत में साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पर सरकारी कंट्रोल के खिलाफ है लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि संसद ने किसी भी स्वायत्त संस्था के काम के लिए जो धन मंज़ूर किया है उसका हिसाब किताब तो देना ही पडेगा .

कमेटी ने सरकार को साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की मौजूदा दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार बताया है और कहा है कि सरकार को चाहिए था अकी वह अपने देश की सांकृतिक और साहित्यिक धरोहर को संभालने वाली संस्थाओं को ज्यादा ज़िम्मेदारी से चलाती .यह ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है जब कि जीवन मूल्यों में हर स्तर पर बदलाव हो रहे हैं .ऐसे दौर में हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की फिर से स्थापना की ज़रुरत है .संस्कृति और साहित्य की संस्थाओं को इस बदले युग में ज्यादा सक्रिय होना पड़ेगा क्योंकि आम आदमी ,ख़ास कार नौजवान अगर अपनी सांस्कृतिक धरोहर और मूल्यों के प्रति संवेदन शील होंगेब तो आर्थिक विकास और परिवर्तन की गति के साथ चल सकेगें और देश को भूख से बचाने वाले आर्थिक विकास के साथ साथ दिमाग और दिल की भूख को शांत करने वाले संस्कृति और साहित्य को भी विकास की गति मिल सकेगी.

Thursday, April 12, 2012

ज्योतिबा फुले की गुलामगीरी कोई मामूली किताब नहीं , क्रान्तिकारी परिवर्तन का दस्तावेज़ है

महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज की शताब्दी के वर्ष में कई स्तरों पर उस किताब की चर्चा हुई .उसी दौर में मैंने यह लेख लिखा था . आज महात्मा फुले के जन्मदिन के अवसर पर इसे फिर पोस्ट करके मुझे हार्दिक खुशी हो रही है.

शेष नारायण सिंह


दरअसल हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्‍स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्‍स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्‍स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़‍िक्र करना ज़रूरी है।
1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्‍स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।
महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।
महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्धांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।
महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़‍िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्‍य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।
महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।
स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया।
महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।