शेष नारायण सिंह
देश की राजनीति स्थिति बहुत ही गड़बड़झाले से गुज़र रही है.कांग्रेस की ढिलाई और हालात पर पकड़ के कमज़ोर होने की वजह से अगर आज चुनाव हो जाएँ तो उनकी हार लगभग पक्की मानी जा रही है .यह बात बहुत सारे कांग्रेसियों को भी पता है . बीजेपी वालों को यह बात सबसे ज्यादा मालूम है . शायद इसी वजह से जेपीसी के नाम पर वे सरकार को घेरे में लेना चाहते हैं . वैसे इस बात में दो राय नहीं है कि 2010 मेंअपने देश में भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड तोड़े गए हैं . भ्रष्टाचार और घूस की रक़म को इनकम मानने का रिवाज़ तो बहुत पहले से शुरू हो चुका है लेकिन घूसखोर थोडा संभलकर रहता था, भले आदमियों की नज़र बचाकर रहता था . लेकिन जब से संजय गाँधी ने अपराधियों को राजनीति में इज्ज़त देना शुरू किया, घूस को गाली मानने वालों की संख्या में भारी कमी आई थी . लेकिन भ्रष्टाचार को सम्मान का दर्ज़ा कभी नहीं मिला. पिछले बीस वर्षों में जब से केंद्र में गठबंधन सरकार की परंपरा शुरू हुई है , भ्रष्टाचार और घूस को इज्ज़त हासिल होने लगी है . घूसखोर आदमी अपने आप को सम्मान का हक़दार मानने लगा है. राजनीति में शामिल लोगों की आमदनी कई गुना बढ़ गयी है और भ्रष्ट होना अपमानजनक नहीं रह गया है . जब तक बीजेपी वाले विपक्ष में थे , माना जाता था कि यह ईमानदार लोगों की जमात है . लेकिन कई राज्यों में और केंद्र में 6 साल तक सरकार में रह चुकी बीजेपी भी अब बाकायदा भ्रष्ट मानी जाने लगी है. बीजेपी में फैले भ्रष्टाचार को उनके बड़े नेता कांग्रेसीकरण कहते हैं और उपदेश देते हैं कि पार्टी को कांग्रेसीकरण की बीमारी से बचायें .यह अलग बात है कि बीजेपी को भ्रष्टाचार की आदत से बचा पाने की हैसियत अब किसी की नहीं है . वह अब विधिवत भ्रष्ट हो चुकी है और वह जब भी सत्ता में होगी भ्रष्टाचार में लिप्त पायी जायेगी . लेकिन भ्रष्टाचार की इस भूलभुलैया में भी सन 2010 का मुकाम बहुत ऊंचा है . इस साल देश में आर्थिक भ्रष्टाचार के सारे पुराने रिकार्ड टूट गए हैं . कामनवेल्थ खेलों में सुरेश कलमाड़ी के नेतृत्व में जमकर लूट मची है . शुरू में बीजेपी ने जांच के लिए बहुत जोर भी मारा लेकिन जब जांच के शुरुआती दौर में ही बीजेपी के कुछ नेताओं का गला फंसने लगा तो मामला ढीला पड़ गया . अब तो लगता है कि कांग्रेस ही कामनवेल्थ के घूस को उघाड़ने में ज्यादा रूचि ले रही है .ऐसा शायद इसलिए कि उनका तो केवल एक मोहरा ,सुरेश कलमाड़ी मारा जाएगा जबकि बीजेपी के कई बड़े नेता कामनवेल्थ के घूस की ज़द में आ जायेगें. सुरेश कलमाड़ी को राजनीतिक रूप से ख़त्म करके देश के सत्ताधारी वंश का कुछ नहीं बिगड़ेगा . २जी स्पेक्ट्रम के घोटाले की जांच में अब बीजेपी और कांग्रेस के शामिल होने की जांच का काम शुरू हो गया है . ज़ाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही इस जांच से जो भी दोषी होगा ,दुनिया के सामने आ जाएगा. शायद इसीलिये मध्यवाधि चुनाव को लक्ष्य बनाकर बीजेपी वाले जेपीसी जांच की बात को आगे बढ़ा रहे हैं .उन्हें उम्मीद है कि जेपीसी जांच के दौरान रोज़ ही मीडिया में अपने लोगों की मदद से कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाया जा सकेगा .और उसका असर सीधे चुनाव प्रचार पर पड़ेगा. कुल मिलाकर हालात ऐसे बन रहे हैं कि देश की सत्ता की राजनीति रसातल की तरफ बढ़ रही है. दोनों ही मुख्य पार्टियां बुरी तरह से भ्रष्टाचार में डूबी हुई हैं .
कांग्रेस पार्टी की राजनीति में सारी ताक़त राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने के अभियान में झोंकी जा रही है . महात्मा गाँधी और सरदार पटेल की कांग्रेस के परखचे उड़ रहे हैं . समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्धांत पता नहीं कहाँ दफन हो गए हैं . आलाकमान कल्चर हावी है और सुप्रीम नेता से असहमत होने का रिवाज़ ही ख़त्म हो गया है . राजनीतिक जागरूकता के बुनियादी ढाँचे में कहीं कुछ भी निवेश नहीं हो रहा है . ठोस बातों की कहीं भी कोई बात नहीं हो रही है . पार्टी के बड़े नेता चापलूसी के सारे रिकार्ड तोड़ रहे हैं और आजादी के बुनियादी सिद्धातों की कोई परवाह न करते हुए अमरीकी पूंजीवाद के कारिंदे के रूप में देश की छवि बन रही है . बीजेपी में भी हालात बहुत खराब हैं . कई गुटों में बंटी हुई पार्टी में किसी तरह का अनुशासन नहीं है . नागपुर की ताक़त से पार्टी के अध्यक्ष बने एक मामूली नेता को कोई भी इज्ज़त देने को तैयार नहीं है . वह नेता भी अपने अधिकार को बढाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहा है . एक न्यूज़ चैनल को इंटरव्यू देकर पार्टी अध्यक्ष ने अपनी ताक़त को दिखाने की कोशिश की है . उन्होंने साफ कह दिया है कि लाल कृष्ण आडवाणी अब उनकी पार्टी की तरफ से प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार नहीं रहेगें . भला बताइये ,2009 के लोकसभा चुनावों में पूरे देश में भावी प्रधानमंत्री का अभिनय करते हुए व्यक्ति को एक इंटरव्यू देकर खारिज कर देना कहाँ का राजनीतिक इंसाफ़ है . दिलचस्प बात यह है कि अपने आपको प्रधान मंत्री पद की दावेदारी से दूर रख कर अध्यक्ष ने आडवाणी गुट के की कई नेताओं का नाम आगे कर दिया है. ज़ाहिर है उनके दिमाग में भी आडवानी गुट में फूट डालकर उनकी ताक़त को कमज़ोर करने की रणनीति काम कर रही है .ऐसी हालात में देश की राजनीति में तिकड़मबाजों और जुगाड़बाजों का बोलबाला चारों तरफ बढ़ चुका है . अब तक बीजेपी वाले नीरा राडिया के हवाले से कांग्रेस को खींचने की कोशिश कर रहे थे लेकिन अब लगता है कि नीरा राडिया के बीजेपी के बड़े नेताओं से ज्यादा करीबी संबंध रह चुके हैं . कुल मिलाकर हालात ऐसे बन गए हैं कि अब कोई चमत्कार ही देश की राजनीति की आबरू बचा सकता है
Friday, December 31, 2010
Thursday, December 30, 2010
सरकार बचाने के लिए समझौते कहाँ तक जायज़ हैं
शेष नारायण सिंह
एम जे अकबर हमारे दौर के बेहतरीन पत्रकार हैं. उन्होंने जब से एक बड़े ग्रुप को मुखिया के तौर पार ज्वाइन किया है ,उस मीडिया ग्रुप की विश्वसनीयता बढ़ गयी है .उनके पहले उस मीडिया संगठन को मूलरूप से राडियाबाज़ी के काम में लिप्त माना जाता था. उसके पुराने मुखिया का नाम दिल्ली के सत्ता के गलियारों में एक ऐसे महारथी के रूप में जाना जाता था जो सरकार से कोई भी काम करवा सकता था .सरकार चाहे जिस पार्टी की हो .उन्होंने सोनिया गाँधी और सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ अभद्र और अमर्यादित टिप्पणी करके अपनी नौकरी बचाने में सफलता पायी थी. उन्हें अजेय माना जाता ता . उनका बेटा देश का नामी वकील माना जाता था और उसकी आमदनी बहुत ज्यादा थी. बताते हैं कि वह जिसपर खुश हो जाता है उसे करोड़ों की कार आदि उपहार स्वरुप दे देता है . लेकिन उसके पिता की ख्याति पत्रकार के रूप में नहीं , सत्ता के प्रबंधक के रूप में ज्यादा हो गयी थी . लोगों की समझ में नहीं आता था कि इतने बड़े ग्रूप के मालिक के सामने क्या मजबूरी थी कि इस तरह के एक गैरपत्रकार को ढो रहे थे हालांकि अरुण पुरी की ख्याति एक खरे पत्रकार की है . जो भी हो,देर आयद दुरुस्त आयद. अब एम जे अकबर मैदान में हैं और इंडिया टुडे में वही पुरानी पत्रकारिता की हनक नज़र आने लगी है .अब लोगों की समझ में आने लगा है कि इस मीडिया ग्रुप में अभी भी बहुत धार बाकी है .मेरी समझ में तो यही नहीं आता था कि अंग्रेज़ी के जो तीन चैनल साथ साथ आये थे,उसमें इस ग्रुप का चैनल सबसे पीछे क्यों था . अब जब एक बार फिर इस ग्रुप के अंग्रेज़ी चैनल ने विश्वसनीयता हासिल करना शुरू किया है तो समझ में आता है कि वही मुख्य अधिकारी और उसकी ख्याति ही ज़िम्मेदार रहे होगें. अब उम्मीद की जानी चाहिए कि नए नए शब्द इंडिया टुडे के ज़खीरे से निकल कर आयेगें क्योंकि अकबर के दौर में सन्डे मैगजीन में बहुत सारे शब्द प्रयोग होते थे जिनका राजनीतिक अर्थ होता था और वे समकालीन राजनीतिक माहौल को काफी हद तक परिभाषित करते थे. इस बार इंडिया टुडे के नए अंक में वह काम हुआ है . radialougue शब्द अंग्रेज़ी राजनीतिक शब्दावली के हाथ लगा है जो आज के राजनीतिक आचरण के सन्दर्भ में बहुत सारी बातों को स्पष्ट करता है . अपने इसी सम्पादकीय में अकबर ने मनमोहन सिंह को मोबाइल फोन से लगी चोट का ज़िक्र किया है जिसने उनकी अच्छी प्रसिद्धि को बुरी तरह से प्रभावित किया है .इस सम्पादकीय में बहुत ही सफाई से कह दिया गया है कि अपनी सरकार बचाए रखने के चक्कर में डॉ मनमोहन सिंह ए राजा और उसके आकाओं , करूणानिधि परिवार द्वारा की जा रही सरकारी खजाने की लूट को नज़रंदाज़ करते रहे. जबकि प्रधानमंत्री इसे रोक सकते थे और उन्हें इस लूट को रोकना चाहिए था .लेकिन उन्होंने नहीं रोका . ज़ाहिर है इस गलती का खामियाजा डॉ मनमोहन सिंह को बहुत दिन तक भोगना पड़ेगा . हमें मालूम है कि जब कांगेस के कुछ बड़े नेताओं को नीरा राडिया और करूणानिधि परिवार की ए राजा की मार्फत चल रही लूट का जिक्र किया गया था तो उन लोगों ने बताया था कि गठबंधन सरकार चलाने के लिए कुछ समझौते करने पड़ते हैं . यही बात बीजेपी वाले कहते थे जब उनकी सरकार में शामिल लोगों की बे-ईमानी और भ्रष्टाचार के बारे में कहीं जाती थी . उस दौरान तो इसे एक नाम भी दे दिया गया था. बीजेपी के बड़े नेता इसे तब आपद्धर्म कहते थे. चाहे कांग्रेस हो या बीजेपी , सत्ता में बने रहने के लिए जनहित और राष्ट्रहित से समझौता करने का अधिकार किसी को नहीं दिया जाना चाहिये . दुर्भाग्य यह है कि सत्ता में बने रहने की लालच में बड़े नेता यह गलती करते रहते हैं . ताज़ा मामला पश्चिम बंगाल का है जहां 33 वर्षों की कम्युनिस्ट सरकार अपनी अंतिम साँसे ले रही है . वहां उन लोगों की सत्ता आने वाली है जो इमरजेंसी के दौरान छात्र परिषद् के नेता हुआ करते थे . इस बात से किसी राजनीतिक विश्लेषक को कोई एतराज़ नहीं हो सकता है लेकिन तृणमूल काग्रेस की गाली गलौज वाली भाषा का इस्तेमाल करके जब देश का गृहमंत्री किसी राज्य के मुख्यमंत्री की पार्टी को संबोधित करता है तो साफ़ नज़र आने लगता है कि सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस एक बार फिर वैसे ही समझौते कर रही है जिस तरह के समझौते करूणानिधि की पारिवारिक पार्टी की मनमानी के दौरान किया गया था . पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री ने कांग्रेस के नेता और गृहमंत्री को हर्मद शब्द का अर्थ बताकर अच्छा काम किया है क्योंकि हो सकता है कि गृहमंत्री को मालूम ही न रहा हो कि जिस हर्मद शब्द को उन्होंने तृणमूल कांग्रेस की चिट्ठी से नक़ल किया है वह वास्ताव में गाली है . और अगर नामी पत्रकार एम जे अकबर की बात मानें तो कह सकते हैं कि गृहमंत्री गाली देने से बच सकते थे और उन्हें बचना चाहिए था . वरना वे भी वही गलती करते पकडे जायेगें जो अपनी सरकार बचाने के लिए मनमोहन सिंह ने की थी
एम जे अकबर हमारे दौर के बेहतरीन पत्रकार हैं. उन्होंने जब से एक बड़े ग्रुप को मुखिया के तौर पार ज्वाइन किया है ,उस मीडिया ग्रुप की विश्वसनीयता बढ़ गयी है .उनके पहले उस मीडिया संगठन को मूलरूप से राडियाबाज़ी के काम में लिप्त माना जाता था. उसके पुराने मुखिया का नाम दिल्ली के सत्ता के गलियारों में एक ऐसे महारथी के रूप में जाना जाता था जो सरकार से कोई भी काम करवा सकता था .सरकार चाहे जिस पार्टी की हो .उन्होंने सोनिया गाँधी और सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ अभद्र और अमर्यादित टिप्पणी करके अपनी नौकरी बचाने में सफलता पायी थी. उन्हें अजेय माना जाता ता . उनका बेटा देश का नामी वकील माना जाता था और उसकी आमदनी बहुत ज्यादा थी. बताते हैं कि वह जिसपर खुश हो जाता है उसे करोड़ों की कार आदि उपहार स्वरुप दे देता है . लेकिन उसके पिता की ख्याति पत्रकार के रूप में नहीं , सत्ता के प्रबंधक के रूप में ज्यादा हो गयी थी . लोगों की समझ में नहीं आता था कि इतने बड़े ग्रूप के मालिक के सामने क्या मजबूरी थी कि इस तरह के एक गैरपत्रकार को ढो रहे थे हालांकि अरुण पुरी की ख्याति एक खरे पत्रकार की है . जो भी हो,देर आयद दुरुस्त आयद. अब एम जे अकबर मैदान में हैं और इंडिया टुडे में वही पुरानी पत्रकारिता की हनक नज़र आने लगी है .अब लोगों की समझ में आने लगा है कि इस मीडिया ग्रुप में अभी भी बहुत धार बाकी है .मेरी समझ में तो यही नहीं आता था कि अंग्रेज़ी के जो तीन चैनल साथ साथ आये थे,उसमें इस ग्रुप का चैनल सबसे पीछे क्यों था . अब जब एक बार फिर इस ग्रुप के अंग्रेज़ी चैनल ने विश्वसनीयता हासिल करना शुरू किया है तो समझ में आता है कि वही मुख्य अधिकारी और उसकी ख्याति ही ज़िम्मेदार रहे होगें. अब उम्मीद की जानी चाहिए कि नए नए शब्द इंडिया टुडे के ज़खीरे से निकल कर आयेगें क्योंकि अकबर के दौर में सन्डे मैगजीन में बहुत सारे शब्द प्रयोग होते थे जिनका राजनीतिक अर्थ होता था और वे समकालीन राजनीतिक माहौल को काफी हद तक परिभाषित करते थे. इस बार इंडिया टुडे के नए अंक में वह काम हुआ है . radialougue शब्द अंग्रेज़ी राजनीतिक शब्दावली के हाथ लगा है जो आज के राजनीतिक आचरण के सन्दर्भ में बहुत सारी बातों को स्पष्ट करता है . अपने इसी सम्पादकीय में अकबर ने मनमोहन सिंह को मोबाइल फोन से लगी चोट का ज़िक्र किया है जिसने उनकी अच्छी प्रसिद्धि को बुरी तरह से प्रभावित किया है .इस सम्पादकीय में बहुत ही सफाई से कह दिया गया है कि अपनी सरकार बचाए रखने के चक्कर में डॉ मनमोहन सिंह ए राजा और उसके आकाओं , करूणानिधि परिवार द्वारा की जा रही सरकारी खजाने की लूट को नज़रंदाज़ करते रहे. जबकि प्रधानमंत्री इसे रोक सकते थे और उन्हें इस लूट को रोकना चाहिए था .लेकिन उन्होंने नहीं रोका . ज़ाहिर है इस गलती का खामियाजा डॉ मनमोहन सिंह को बहुत दिन तक भोगना पड़ेगा . हमें मालूम है कि जब कांगेस के कुछ बड़े नेताओं को नीरा राडिया और करूणानिधि परिवार की ए राजा की मार्फत चल रही लूट का जिक्र किया गया था तो उन लोगों ने बताया था कि गठबंधन सरकार चलाने के लिए कुछ समझौते करने पड़ते हैं . यही बात बीजेपी वाले कहते थे जब उनकी सरकार में शामिल लोगों की बे-ईमानी और भ्रष्टाचार के बारे में कहीं जाती थी . उस दौरान तो इसे एक नाम भी दे दिया गया था. बीजेपी के बड़े नेता इसे तब आपद्धर्म कहते थे. चाहे कांग्रेस हो या बीजेपी , सत्ता में बने रहने के लिए जनहित और राष्ट्रहित से समझौता करने का अधिकार किसी को नहीं दिया जाना चाहिये . दुर्भाग्य यह है कि सत्ता में बने रहने की लालच में बड़े नेता यह गलती करते रहते हैं . ताज़ा मामला पश्चिम बंगाल का है जहां 33 वर्षों की कम्युनिस्ट सरकार अपनी अंतिम साँसे ले रही है . वहां उन लोगों की सत्ता आने वाली है जो इमरजेंसी के दौरान छात्र परिषद् के नेता हुआ करते थे . इस बात से किसी राजनीतिक विश्लेषक को कोई एतराज़ नहीं हो सकता है लेकिन तृणमूल काग्रेस की गाली गलौज वाली भाषा का इस्तेमाल करके जब देश का गृहमंत्री किसी राज्य के मुख्यमंत्री की पार्टी को संबोधित करता है तो साफ़ नज़र आने लगता है कि सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस एक बार फिर वैसे ही समझौते कर रही है जिस तरह के समझौते करूणानिधि की पारिवारिक पार्टी की मनमानी के दौरान किया गया था . पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री ने कांग्रेस के नेता और गृहमंत्री को हर्मद शब्द का अर्थ बताकर अच्छा काम किया है क्योंकि हो सकता है कि गृहमंत्री को मालूम ही न रहा हो कि जिस हर्मद शब्द को उन्होंने तृणमूल कांग्रेस की चिट्ठी से नक़ल किया है वह वास्ताव में गाली है . और अगर नामी पत्रकार एम जे अकबर की बात मानें तो कह सकते हैं कि गृहमंत्री गाली देने से बच सकते थे और उन्हें बचना चाहिए था . वरना वे भी वही गलती करते पकडे जायेगें जो अपनी सरकार बचाने के लिए मनमोहन सिंह ने की थी
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Tuesday, December 28, 2010
तब तक बोलने के लिए कोई बचा ही नहीं था
मार्टिन नीमोलर (1892-1984
पहले वो आए साम्यवादियों के लिए
और मैं चुप रहा क्योंकि मैं साम्यवादी नहीं था
फिर वो आए मजदूर संघियों के लिए
और मैं चुप रहा क्योंकि मैं मजदूर संघी नहीं था
फिर वो यहूदियों के लिए आए
और मैं चुप रहा क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
फिर वो आए मेरे लिए
और तब तक बोलने के लिए कोई बचा ही नहीं था
पहले वो आए साम्यवादियों के लिए
और मैं चुप रहा क्योंकि मैं साम्यवादी नहीं था
फिर वो आए मजदूर संघियों के लिए
और मैं चुप रहा क्योंकि मैं मजदूर संघी नहीं था
फिर वो यहूदियों के लिए आए
और मैं चुप रहा क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
फिर वो आए मेरे लिए
और तब तक बोलने के लिए कोई बचा ही नहीं था
राडिया के जाल में फंसी बीजेपी को बचाने के लिए तैयार नहीं हैं मुरली मनोहर जोशी
शेष नारायण सिंह
राडिया की कृपा से २ जी स्पेक्ट्रम के इंद्रधनुष में रोज़ ही नए रंग हावी होने लगे हैं . राडिया के ताज़ा शिकार पूर्व उड्डयन मंत्री ,अनंत कुमार बन गए हैं .यह अलग बात है कि राडिया जी के मूल मित्र वही हैं लेकिन उनके कारनामों के बारे में जानकारी बाद में पब्लिक के सामने आई. खैर अब तो सारा मामला खुल चुका है . जब राडिया के एक पूर्व मित्र का दावा सार्वजनिक हुआ कि अनंत कुमार जी ने राडिया देवी को मंत्रिमंडल के गुप्त दस्तावेज़ भी थमा दिए थे, तो बीजेपी में उनके मित्रों की हालात देखने लायक थी. बेचारों ने घबडाहट में ऐसे बयान दे दिए जो अनंत कुमार पर लगे आरोपों को पुष्ट करते थे. मसलन , अनंत जी के मित्र और बीजेपी के एक आला नेता ने कहा कि अनंत कुमार ने राडिया को कोई ज़मीन नहीं अलाट की . हम भी जानते हैं कि पर्यटन और नागरिक उड्डयन मंत्री ,ज़मीन अलाट नहीं करता ,वह तो ज़मीन को अलाट करवाने में मदद करता है . उन नेता जी बताया कि गृहमंत्री लाल कृष्ण अडवाणी ने किसी ऐसे ट्रस्ट की बिल्डिंग का शिलान्यास नहीं किया जिसकी अध्यक्ष नीरा राडिया हैं . हाँ किसी स्वामी के किसी मठ का शिलान्यास करने वे ज़रूर गए थे . ठीक है. बहुत सारे संगठन ऐसे होते हैं जिसका मालिक उसका अध्यक्ष नहीं होता. उन नेता जी से जनता की अपील यह है कि बस इतना बता दें कि इन स्वामी जी से अनंत जी और राडिया जी के क्या सम्बन्ध हैं . कुल मिलाकर राडिया जी के सारे खेल के केंद्र में अब अनंत कुमार जी ही मौजूद पाए जा रहे हैं . २ जी स्पेक्ट्रम का पूरा केस राडिया के इर्द गिर्द ही बुना गया था . अब जब ए राजा और अनंत कुमार एक ही अखाड़े के पहलवान के रूप में पहचाने जाने लगे हैं तो जो हमला ए राजा पर होगा ,वह निश्चित रूप से अनंत कुमार को लपेटे में लेगा . कुल मिलाकर बीजेपी की उस कोशिश में ब्रेक लग गया है जिसके तहत वे यू पी ए को घेरने के चक्कर में थे .जो कुछ कसर बाकी रह गयी थी उसे संसद भवन के अन्दर एक प्रेस कानफरेंस करके डॉ मुरली मनोहर जोशी ने पूरी कर दी और जेपीसी की मांग की हवा निकाल दी. उन्होंने बीजेपी को जो सबसे बड़ी चोट दी ,वह थी एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ रूपये के २ स्पेक्ट्रम घोटाले की हेडलाइन ही बदल दी. उन्होंने बाआवाज़ेबुलंद बताया कि यह घाटा एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ रूपये का भी हो सकता है और सत्तावन हज़ार करोड़ रूपये का भी हो सकता है . उसकी जांच की जायेगी और जांच पी ए सी ही करेगी. दूसरी बात जो सबसे दिलचस्प है वह यह कि पी ए सी का काम केवल हिसाब किताब की जांच करना नहीं है ,डॉ जोशी ने बताया कि पी ए सी के पास पूरी टेलीकाम पालिसी की जांच करने का अधिकार है .उन्होंने साफ़ कहा कि अगर ज़रूरी हुआ तो एन डी ए के शासन काल के दौरान हुए काम की जांच भी की जा सकती है. ज़ाहिर है कि इस लपेट में अरुण शोरी और प्रमोद महाजन का काम भी आ जाएगा और जब राडिया वहां भी सक्रिय थीं, तो हेराफेरी ज़रूर हुई होगी.जेपीसी के पक्ष में जो तर्क दिए जा रहे थे उनमें एक यह भी था कि प्रधान मंत्री और मंत्रियों से पूछ ताछ करने का वही सबसे अच्छा फोरम है . डॉ जोशी ने साफ़ कह दिया कि प्रधान मंत्री ने तो चिट्ठी लिख कर पी ए सी के सामने हाज़िर होने का अपना प्रस्ताव भेज ही दिया है ,पी ए सी के अधिकार में है कि अगर वह चाहे तो मंत्रियों को भी तलब कर सकती है . डॉ जोशी की पत्रकार वार्ता में मौजूद कुछ पत्रकारों ने जब पूछा कि क्या वे प्रधान मंत्री को समन करने जा रहे हैं तो उन्होंने लगभग झिडकते हुए कहा कि समन करने का कोई मतलब ही नहीं है क्योंकि अब तो प्रधान मंत्री ने खुद ही हाज़िर होने की पेशकश कर दी है . यानी बीजेपी की वह इच्छा बी पूरी नहीं होने वाली है जिसमें वे प्रधान मंत्री को समन भेजकर तलब करने वाले थे. डॉ जोशी के बयानों से साफ़ है कि पी ए सी उन सभी बिन्दुओं की जांच कर सकती है जिनके लिए पी ए सी के गठन की बात की जा रही है . जानकार बताते हैं कि पी ए सी के पास जेपीसी से ज्यादा ताक़त है क्योंकि उसका अध्यक्ष विपक्ष का होता है जबकि जेपीसी का अध्यक्ष सत्ताधारी पार्टी का ही होगा.
बीजेपी के सिर राडिया के चक्कर में दूसरी मुसीबत भी आने वाली है .केंद्र में राज्यमंत्री वी नारायणसामी ने ने कहा कि " केंद्र सरकार इस बात की जांच करेगी कि क्या अनंत कुमार ने एन डी ए के शासनकाल के दौरान नागर उड्डयन मंत्री रहते हुए नीरा राडिया को किसी फैसले के बारे में जानकारी दी थी. अगर ऐसा किया है तो सरकारी जानकारियों को इस तरह सार्वजनिक कार्य राजद्रोह की श्रेणी में आता है."यानी अब मामला उलट कर बीजेपी के ही दरवाज़े पर पंहुच गया है और राडिया के चक्कर में फंस चुकी बीजेपी की कोशिश है कि किसी तरह इन राडिया जी से जान छूटे . इन कोशिशों को भारी झटका लगा है . जहां तक प्रोफ़ेसर मुरली मनोहर जोशी का सवाल है ,उनको वह दर्द नहीं भूला होगा जब आडवाणी गुट के लोगों ने डॉ जोशी को बीजेपी अध्यक्ष के रूप में चैन से नहीं बैठने दिया था. आज भी अगर बीजेपी को राजनीतिक फायदा होगा तो उसका लाभ दिल्ली में बैठे बीजेपी वालों को होगा जो आडवाणी गुट के बड़े नेता हैं . ज़ाहिर है जोशी जी भी इन लोगों के फायदे के लिए कोई भी गलत काम नहीं करेगें .वैसे भी वे आम तौर पर राजनीति लाभ के लिए उलटे सीधे काम नहीं करते.
राडिया की कृपा से २ जी स्पेक्ट्रम के इंद्रधनुष में रोज़ ही नए रंग हावी होने लगे हैं . राडिया के ताज़ा शिकार पूर्व उड्डयन मंत्री ,अनंत कुमार बन गए हैं .यह अलग बात है कि राडिया जी के मूल मित्र वही हैं लेकिन उनके कारनामों के बारे में जानकारी बाद में पब्लिक के सामने आई. खैर अब तो सारा मामला खुल चुका है . जब राडिया के एक पूर्व मित्र का दावा सार्वजनिक हुआ कि अनंत कुमार जी ने राडिया देवी को मंत्रिमंडल के गुप्त दस्तावेज़ भी थमा दिए थे, तो बीजेपी में उनके मित्रों की हालात देखने लायक थी. बेचारों ने घबडाहट में ऐसे बयान दे दिए जो अनंत कुमार पर लगे आरोपों को पुष्ट करते थे. मसलन , अनंत जी के मित्र और बीजेपी के एक आला नेता ने कहा कि अनंत कुमार ने राडिया को कोई ज़मीन नहीं अलाट की . हम भी जानते हैं कि पर्यटन और नागरिक उड्डयन मंत्री ,ज़मीन अलाट नहीं करता ,वह तो ज़मीन को अलाट करवाने में मदद करता है . उन नेता जी बताया कि गृहमंत्री लाल कृष्ण अडवाणी ने किसी ऐसे ट्रस्ट की बिल्डिंग का शिलान्यास नहीं किया जिसकी अध्यक्ष नीरा राडिया हैं . हाँ किसी स्वामी के किसी मठ का शिलान्यास करने वे ज़रूर गए थे . ठीक है. बहुत सारे संगठन ऐसे होते हैं जिसका मालिक उसका अध्यक्ष नहीं होता. उन नेता जी से जनता की अपील यह है कि बस इतना बता दें कि इन स्वामी जी से अनंत जी और राडिया जी के क्या सम्बन्ध हैं . कुल मिलाकर राडिया जी के सारे खेल के केंद्र में अब अनंत कुमार जी ही मौजूद पाए जा रहे हैं . २ जी स्पेक्ट्रम का पूरा केस राडिया के इर्द गिर्द ही बुना गया था . अब जब ए राजा और अनंत कुमार एक ही अखाड़े के पहलवान के रूप में पहचाने जाने लगे हैं तो जो हमला ए राजा पर होगा ,वह निश्चित रूप से अनंत कुमार को लपेटे में लेगा . कुल मिलाकर बीजेपी की उस कोशिश में ब्रेक लग गया है जिसके तहत वे यू पी ए को घेरने के चक्कर में थे .जो कुछ कसर बाकी रह गयी थी उसे संसद भवन के अन्दर एक प्रेस कानफरेंस करके डॉ मुरली मनोहर जोशी ने पूरी कर दी और जेपीसी की मांग की हवा निकाल दी. उन्होंने बीजेपी को जो सबसे बड़ी चोट दी ,वह थी एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ रूपये के २ स्पेक्ट्रम घोटाले की हेडलाइन ही बदल दी. उन्होंने बाआवाज़ेबुलंद बताया कि यह घाटा एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ रूपये का भी हो सकता है और सत्तावन हज़ार करोड़ रूपये का भी हो सकता है . उसकी जांच की जायेगी और जांच पी ए सी ही करेगी. दूसरी बात जो सबसे दिलचस्प है वह यह कि पी ए सी का काम केवल हिसाब किताब की जांच करना नहीं है ,डॉ जोशी ने बताया कि पी ए सी के पास पूरी टेलीकाम पालिसी की जांच करने का अधिकार है .उन्होंने साफ़ कहा कि अगर ज़रूरी हुआ तो एन डी ए के शासन काल के दौरान हुए काम की जांच भी की जा सकती है. ज़ाहिर है कि इस लपेट में अरुण शोरी और प्रमोद महाजन का काम भी आ जाएगा और जब राडिया वहां भी सक्रिय थीं, तो हेराफेरी ज़रूर हुई होगी.जेपीसी के पक्ष में जो तर्क दिए जा रहे थे उनमें एक यह भी था कि प्रधान मंत्री और मंत्रियों से पूछ ताछ करने का वही सबसे अच्छा फोरम है . डॉ जोशी ने साफ़ कह दिया कि प्रधान मंत्री ने तो चिट्ठी लिख कर पी ए सी के सामने हाज़िर होने का अपना प्रस्ताव भेज ही दिया है ,पी ए सी के अधिकार में है कि अगर वह चाहे तो मंत्रियों को भी तलब कर सकती है . डॉ जोशी की पत्रकार वार्ता में मौजूद कुछ पत्रकारों ने जब पूछा कि क्या वे प्रधान मंत्री को समन करने जा रहे हैं तो उन्होंने लगभग झिडकते हुए कहा कि समन करने का कोई मतलब ही नहीं है क्योंकि अब तो प्रधान मंत्री ने खुद ही हाज़िर होने की पेशकश कर दी है . यानी बीजेपी की वह इच्छा बी पूरी नहीं होने वाली है जिसमें वे प्रधान मंत्री को समन भेजकर तलब करने वाले थे. डॉ जोशी के बयानों से साफ़ है कि पी ए सी उन सभी बिन्दुओं की जांच कर सकती है जिनके लिए पी ए सी के गठन की बात की जा रही है . जानकार बताते हैं कि पी ए सी के पास जेपीसी से ज्यादा ताक़त है क्योंकि उसका अध्यक्ष विपक्ष का होता है जबकि जेपीसी का अध्यक्ष सत्ताधारी पार्टी का ही होगा.
बीजेपी के सिर राडिया के चक्कर में दूसरी मुसीबत भी आने वाली है .केंद्र में राज्यमंत्री वी नारायणसामी ने ने कहा कि " केंद्र सरकार इस बात की जांच करेगी कि क्या अनंत कुमार ने एन डी ए के शासनकाल के दौरान नागर उड्डयन मंत्री रहते हुए नीरा राडिया को किसी फैसले के बारे में जानकारी दी थी. अगर ऐसा किया है तो सरकारी जानकारियों को इस तरह सार्वजनिक कार्य राजद्रोह की श्रेणी में आता है."यानी अब मामला उलट कर बीजेपी के ही दरवाज़े पर पंहुच गया है और राडिया के चक्कर में फंस चुकी बीजेपी की कोशिश है कि किसी तरह इन राडिया जी से जान छूटे . इन कोशिशों को भारी झटका लगा है . जहां तक प्रोफ़ेसर मुरली मनोहर जोशी का सवाल है ,उनको वह दर्द नहीं भूला होगा जब आडवाणी गुट के लोगों ने डॉ जोशी को बीजेपी अध्यक्ष के रूप में चैन से नहीं बैठने दिया था. आज भी अगर बीजेपी को राजनीतिक फायदा होगा तो उसका लाभ दिल्ली में बैठे बीजेपी वालों को होगा जो आडवाणी गुट के बड़े नेता हैं . ज़ाहिर है जोशी जी भी इन लोगों के फायदे के लिए कोई भी गलत काम नहीं करेगें .वैसे भी वे आम तौर पर राजनीति लाभ के लिए उलटे सीधे काम नहीं करते.
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शेष नारायण सिंह
Monday, December 27, 2010
कर्नाटक में पंचायतों के चुनाव दादाओं के शक्तिपरीक्षण के मंच नहीं हैं
शेष नारायण सिंह
कर्नाटक में पंचायत चुनाव चल रहे हैं . दो दौर में पूरे राज्य में चुनाव होने हैं .पहले दौर का चुनाव् 26 दिसंबर को पूरा हो गया . अनुमान है कि करीब 70 प्रतिशत वोट पड़े हैं . अगला दौर 31 दिसंबर के लिए तय है . बंगलोर ,चित्रदुर्ग, रामनगरम, कोलार,चिकबल्लापुर शिमोगा,टुन्कूर,बीदर,बेल्लारी,रायचूर और यादगिर जिलो में चुनाव का काम पूरा हो गया है . छिटपुट हिंसा की खबरें हैं. कुछ जिलों में दो चार जगहों पर फिर से वोट डाले जायेगें ,चिकबल्लापुर के सोरब तालुका के दो गावों में लोगों ने चुनाव का बहिष्कार किया और कहा कि विकास के काम में उनके इलाके की उपेक्षा की गयी है ,इसलिए वे लोग वोट नहीं देगें, और चुनाव का बहिष्कार करेगें. कर्नाटक में पंचायत चुनाव देखना एक अलग तरह का अनुभव है . उत्तर प्रदेश में जिस दादागीरी के दर्शन होते हैं , वह इस राज्य में कहीं नहीं नज़र आता .बंगलोर के पड़ोसी जिले,रामनगरम के मगडी तालुक के कुछ गाँवों में चुनाव प्रक्रिया को करीब से देखने का मौका मिला. उत्तर प्रदेश या अन्य उत्तरी राज्यों में चुनाव की रिपोर्टिंग करने वाले इंसान के लिए यह बिलकुल नया अनुभव था . जब बंगलोर शहर से निकल कर ग्रामीण इलाकों में जाने का मन बनाया तो लोगों से पूछा कि कार में जाने के लिए सरकारी परमिशन लेने का क्या तरीका है . किसी की समझ में ही नहीं आया कि परमिशन का क्या मतलब है . लोगों ने बताया कि आप जाइए और जहां भी मन कहे कार पार्क कीजिये और चुनाव का फर्स्ट हैण्ड अनुभव लीजिये .तुरंत समझ में आ गया कि कर्नाटक में पंचायत चुनाव की रंगत अपने यू पी से बिलकुल अलग है . देहाती इलाकों में कार ले जाने के लिए किसी तरह की परमीशन के निजाम का न होना अपने आप में एक बड़ा संकेत करता है . समझ में आ गया कि यहाँ अभी बूथ कैप्चरिंग की कला का विकास नहीं हुआ है . बंगलोर शहर से करीब 60 किलोमीटर दूर रामनगरम जिले के कुछ बूथों पर जाकर देखने से पता चला कि यहाँ चुनाव बूथ पर किसी तरह की बदमाशी नहीं होती. इस मौके पर भी अपना उत्तर प्रदेश याद आया. गाँवों में जाकर देखा तो पता चला कि ज़्यादातर लोग वोट डालने गए हुए हैं . घर पर बहुत कम लोग हैं . अधिकारियों से बात की तो पता चला कि चुनाव के दौरान वाहनों पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं होता . सत्तर के दशक तक तो अपने राज्यों में भी यही होता था. लेकिन अब वहां सब कुछ बदल गया है . इसका मतलब यह नहीं है कि चुनाव को यहाँ की जनता कम गंभीरता से लेती है . बंगलोर और रामनगरम के जिन इलाकों में जाने का मौक़ा लगा वहां चुनाव में कांटे का मुकाबला है .बीजेपी के मुकाबले ,जनता दल एस और कांग्रेस पार्टी की ताक़त है . कई गाँवों में साफ़ नज़र आया कि जाति या धर्म का प्रभाव यहाँ उतना नहीं है जितना कि उत्तर भारत के राज्यों में साफ़ नज़र आता है . हाँ मतदाता को घूस देने की परम्परा वही उत्तर भारत वाली है . सरजापुर के डी मुनियालप्पा ने आरोप लगाया कि पुलिस के लोग इस तरह से काम कर रहे हैं कि लगता है कि वे सत्ताधारी पार्टी के एजेंट हैं .दलित नेता , अदूर प्रकाश ने बताय कि मतदान के पहले वाली रात को कांग्रेस और बीजेपी वालों ने गाँवों में जाकर मतदाताओं को घूस देने की कोशिश की ,उन्हें रूपये, शराब और गोश्त देकर वोट खरीदने की कोशिश की .इसका मतलब यह हुआ कि जनता जागरूक है और कर्नाटक में पंचायत चुनावों में अभी उत्तर भारतीय सामंती सोच के हावी होने का उतना ख़तरा नहीं . इसका कारण शायद यह है कि इन क्षेत्रों में शिक्षा का विकास ग्रामीण अंचल में बहुत पहले से है. मैसूर के इलाके में शुक्रवार को चुनाव होने हैं और वहां के प्रचार पर नज़र डालने से पता चलता है कि यहाँ पंचायत चुनावों में भी बाकायदा मुद्दों पर चर्चा हो रही है . मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा खुद बीजेपी के चुनाव अभियान की अगुवाई कर रहे हैं . 23 दिसंबर को मुंबई से बंगलोर जाने वाली उद्यान एक्सप्रेस में उनसे मुलाक़ात हो गयी. शायद यादगीर जिले में प्रचार कर के लौट रहे थे. ट्रेन में किसी मुख्यमंत्री को यात्रा करते देखे मुझे 36 साल से ज्यादा हो गए थे . थोडा अजीब लगा लेकिन जब बात हुई तो दिल्ली में उनको लेकर चल रही राजनीति को उन्होंने चर्चा की ज़द में आने के पहले ही टाल दिया जबकि पंचायत चुनावों की बारीकियों पर बात चीत करने को उत्सुक दिखे. कांग्रेस और जनता दल एस की तरफ से भी बड़े नेता चुनाव प्रचार कर रहे हैं और राज्य को प्रभावी नेतृत्व दे पाने में नाकाम रहने के कारण बीजेपी को हराने की अपील कर रहे हैं . कुल मिलाकर कर्नाटक का पंचायत चुनाव लोकतंत्र की जीवन्तता का नमूना है , अपने उत्तर प्रदेश की तरह मुकामी दादाओं की शक्ति परीक्षण का मंच नहीं है .
कर्नाटक में पंचायत चुनाव चल रहे हैं . दो दौर में पूरे राज्य में चुनाव होने हैं .पहले दौर का चुनाव् 26 दिसंबर को पूरा हो गया . अनुमान है कि करीब 70 प्रतिशत वोट पड़े हैं . अगला दौर 31 दिसंबर के लिए तय है . बंगलोर ,चित्रदुर्ग, रामनगरम, कोलार,चिकबल्लापुर शिमोगा,टुन्कूर,बीदर,बेल्लारी,रायचूर और यादगिर जिलो में चुनाव का काम पूरा हो गया है . छिटपुट हिंसा की खबरें हैं. कुछ जिलों में दो चार जगहों पर फिर से वोट डाले जायेगें ,चिकबल्लापुर के सोरब तालुका के दो गावों में लोगों ने चुनाव का बहिष्कार किया और कहा कि विकास के काम में उनके इलाके की उपेक्षा की गयी है ,इसलिए वे लोग वोट नहीं देगें, और चुनाव का बहिष्कार करेगें. कर्नाटक में पंचायत चुनाव देखना एक अलग तरह का अनुभव है . उत्तर प्रदेश में जिस दादागीरी के दर्शन होते हैं , वह इस राज्य में कहीं नहीं नज़र आता .बंगलोर के पड़ोसी जिले,रामनगरम के मगडी तालुक के कुछ गाँवों में चुनाव प्रक्रिया को करीब से देखने का मौका मिला. उत्तर प्रदेश या अन्य उत्तरी राज्यों में चुनाव की रिपोर्टिंग करने वाले इंसान के लिए यह बिलकुल नया अनुभव था . जब बंगलोर शहर से निकल कर ग्रामीण इलाकों में जाने का मन बनाया तो लोगों से पूछा कि कार में जाने के लिए सरकारी परमिशन लेने का क्या तरीका है . किसी की समझ में ही नहीं आया कि परमिशन का क्या मतलब है . लोगों ने बताया कि आप जाइए और जहां भी मन कहे कार पार्क कीजिये और चुनाव का फर्स्ट हैण्ड अनुभव लीजिये .तुरंत समझ में आ गया कि कर्नाटक में पंचायत चुनाव की रंगत अपने यू पी से बिलकुल अलग है . देहाती इलाकों में कार ले जाने के लिए किसी तरह की परमीशन के निजाम का न होना अपने आप में एक बड़ा संकेत करता है . समझ में आ गया कि यहाँ अभी बूथ कैप्चरिंग की कला का विकास नहीं हुआ है . बंगलोर शहर से करीब 60 किलोमीटर दूर रामनगरम जिले के कुछ बूथों पर जाकर देखने से पता चला कि यहाँ चुनाव बूथ पर किसी तरह की बदमाशी नहीं होती. इस मौके पर भी अपना उत्तर प्रदेश याद आया. गाँवों में जाकर देखा तो पता चला कि ज़्यादातर लोग वोट डालने गए हुए हैं . घर पर बहुत कम लोग हैं . अधिकारियों से बात की तो पता चला कि चुनाव के दौरान वाहनों पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं होता . सत्तर के दशक तक तो अपने राज्यों में भी यही होता था. लेकिन अब वहां सब कुछ बदल गया है . इसका मतलब यह नहीं है कि चुनाव को यहाँ की जनता कम गंभीरता से लेती है . बंगलोर और रामनगरम के जिन इलाकों में जाने का मौक़ा लगा वहां चुनाव में कांटे का मुकाबला है .बीजेपी के मुकाबले ,जनता दल एस और कांग्रेस पार्टी की ताक़त है . कई गाँवों में साफ़ नज़र आया कि जाति या धर्म का प्रभाव यहाँ उतना नहीं है जितना कि उत्तर भारत के राज्यों में साफ़ नज़र आता है . हाँ मतदाता को घूस देने की परम्परा वही उत्तर भारत वाली है . सरजापुर के डी मुनियालप्पा ने आरोप लगाया कि पुलिस के लोग इस तरह से काम कर रहे हैं कि लगता है कि वे सत्ताधारी पार्टी के एजेंट हैं .दलित नेता , अदूर प्रकाश ने बताय कि मतदान के पहले वाली रात को कांग्रेस और बीजेपी वालों ने गाँवों में जाकर मतदाताओं को घूस देने की कोशिश की ,उन्हें रूपये, शराब और गोश्त देकर वोट खरीदने की कोशिश की .इसका मतलब यह हुआ कि जनता जागरूक है और कर्नाटक में पंचायत चुनावों में अभी उत्तर भारतीय सामंती सोच के हावी होने का उतना ख़तरा नहीं . इसका कारण शायद यह है कि इन क्षेत्रों में शिक्षा का विकास ग्रामीण अंचल में बहुत पहले से है. मैसूर के इलाके में शुक्रवार को चुनाव होने हैं और वहां के प्रचार पर नज़र डालने से पता चलता है कि यहाँ पंचायत चुनावों में भी बाकायदा मुद्दों पर चर्चा हो रही है . मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा खुद बीजेपी के चुनाव अभियान की अगुवाई कर रहे हैं . 23 दिसंबर को मुंबई से बंगलोर जाने वाली उद्यान एक्सप्रेस में उनसे मुलाक़ात हो गयी. शायद यादगीर जिले में प्रचार कर के लौट रहे थे. ट्रेन में किसी मुख्यमंत्री को यात्रा करते देखे मुझे 36 साल से ज्यादा हो गए थे . थोडा अजीब लगा लेकिन जब बात हुई तो दिल्ली में उनको लेकर चल रही राजनीति को उन्होंने चर्चा की ज़द में आने के पहले ही टाल दिया जबकि पंचायत चुनावों की बारीकियों पर बात चीत करने को उत्सुक दिखे. कांग्रेस और जनता दल एस की तरफ से भी बड़े नेता चुनाव प्रचार कर रहे हैं और राज्य को प्रभावी नेतृत्व दे पाने में नाकाम रहने के कारण बीजेपी को हराने की अपील कर रहे हैं . कुल मिलाकर कर्नाटक का पंचायत चुनाव लोकतंत्र की जीवन्तता का नमूना है , अपने उत्तर प्रदेश की तरह मुकामी दादाओं की शक्ति परीक्षण का मंच नहीं है .
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शेष नारायण सिंह
राडियागेट के दौरान पत्रकार तो बुलंद हुए हैं, दलालों का कवच उतर गया
शेष नारायण सिंह
पिछले दिनों पत्रकारिता के संकट पर बहुत बहस मुबाहसे हुए .पत्रकार का अभिनय करने वाले राडिया के कुछ कारिंदे दलाली करते हुए पकडे गए,तो ऐसी हाय तौबा मची कि पत्रकारिता पर ही संकट आ गया है .वास्तव में ऐसा नहीं था. मीडिया कंपनियों में बहुत बड़े पदों पर बैठे लोग अपनी और अपनी कंपनी की आर्थिक तरक्की के लिए काम कर रहे थे. ,उनका कवर ख़त्म हो गया क्योंकि वे वास्तव में पत्रकार नहीं धंधेबाज़ थे. पत्रकारिता उनका कवच थी. उनके पतन से बहुत दुखी होने की ज़रुरत न तब थी और न अब है . पत्रकार तो अपने काम पर जमे हुए थे . पत्रकारिता पर कोई संकट नहीं था. वेबपत्रकारिता ने अपना काम बखूबी किया और ऐसा कुछ भी छुप न सका जो पब्लिक इंटरेस्ट में था. नीरा राडिया जैसी पत्रकारफरोश कवर के लिए दौड़ती देखी गयी. देश के दो सबसे बड़े औद्योगिक घरानों का हित साधन करने वाली देवी जो सरकारें बना बिगाड़ सकती थी, बहुत बेचारी हो गयी . और उसकी दुर्दशा के लिए जिम्मेवार केवल पत्रकार थे.उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में नैतिकता के सबसे बड़े लठैत रतन टाटा अपनी आबरू बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के सामने गिडगिडाते नज़र आये और दुनिया को पता लग गया कि वे भी अम्बानी ग्रुप ही तरह की काम करते हैं .यू पी ए सरकार की जीवनदायी शक्ति बने एम करूणानिधि के चेले, ए राजा ,चोरकटई के बादशाह बन गए . कांग्रेस पार्टी के बड़े बड़े सूरमा निहायत ही बौने दिखने लगे. पूरी दुनिया जान गयी कि नैतिकता का स्वांग करने वाले बीजेपी के बड़े नेता भी राडिया की चेलाही करते थे . यह सारा काम पत्रकारिता ने किया . इसलिए वह दौर मनोरंजक लग रहा था जब लोग पत्रकारिता के पतन पर दुःख व्यक्त कर रहे थे .पत्रकारिता का कोई पतन नहीं हुआ था . पतन उन लोगों का हुआ था जो पत्रकारिता के कवर में और कोई धंधा कर रहे थे.पत्रकार तो अपना काम कर रहा था . अगर धन्धेबाज़ मालिक ने पत्रकार की बात नहीं naheen सुनी तो वह अपनी खबर भड़ास ,हस्तक्षेप जनतंत्र अदि के सहारे दुनिया के सामने रख रहा था. मुझे मालूम है कि उस दौर में बड़ी पूंजी में मौजूद राडिया के चेलों ने वेब मीडिया के इस माध्यम को खरीदने की कोशिश की थी लेकिन यह दीवाने बिकने को तैयार नहीं थे. आज भारतीय पत्रकारिता का सिर दुनिया के सामने ऊंचा इसी वजह से है कि वेब मीडिया के इन अभिमन्यु पत्रकारों ने हिम्मत नहीं छोडी. एक और दिलचस्प बात हुई कि यह अभिमन्यु हालांकि चक्रव्यूह तोडना नहीं जानते थे लेकिन इनके साथ आलोक तोमर, विनोद मेहता , एन राम जैसे कुछ ऐसे भीष्म पितामह थे जो शर शैया पर जाने को तैयार नहीं थे. आलोक तोमर तो कैंसर के साथ साथ कौरव रूप में कमान संभाले राडिया की सेना से भी मुकाबला कर रहे थे . इन्हीं भीष्म पितामहों की वजह से रादिया की अठारह अक्षौहिणी सेना के बहादुरों में से कोई भी जयद्रथ नहीं बन सका . आज अगर बरखा दत्त, प्रभु चावला , वीर संघवी जैसे व्यापारियों के प्रतिनधि पत्रकारिता वाली पोशाक पहन कर काम करते हुए बेनकाब हुए हैं, तो उसमें एन राम ,विनोद मेहता और आलोक तोमर का भी हाथ है . आने वाली पीढियां जब भड़ास के यशवंत को प्रणाम करेगीं तो इन भीष्म पितामहों के नाम के सामने भी सिर झुकायेंगी .इन लोगों ने पत्रकारिता को नरक में जाने से बचाया है .
पिछले दिनों पत्रकारिता के संकट पर बहुत बहस मुबाहसे हुए .पत्रकार का अभिनय करने वाले राडिया के कुछ कारिंदे दलाली करते हुए पकडे गए,तो ऐसी हाय तौबा मची कि पत्रकारिता पर ही संकट आ गया है .वास्तव में ऐसा नहीं था. मीडिया कंपनियों में बहुत बड़े पदों पर बैठे लोग अपनी और अपनी कंपनी की आर्थिक तरक्की के लिए काम कर रहे थे. ,उनका कवर ख़त्म हो गया क्योंकि वे वास्तव में पत्रकार नहीं धंधेबाज़ थे. पत्रकारिता उनका कवच थी. उनके पतन से बहुत दुखी होने की ज़रुरत न तब थी और न अब है . पत्रकार तो अपने काम पर जमे हुए थे . पत्रकारिता पर कोई संकट नहीं था. वेबपत्रकारिता ने अपना काम बखूबी किया और ऐसा कुछ भी छुप न सका जो पब्लिक इंटरेस्ट में था. नीरा राडिया जैसी पत्रकारफरोश कवर के लिए दौड़ती देखी गयी. देश के दो सबसे बड़े औद्योगिक घरानों का हित साधन करने वाली देवी जो सरकारें बना बिगाड़ सकती थी, बहुत बेचारी हो गयी . और उसकी दुर्दशा के लिए जिम्मेवार केवल पत्रकार थे.उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में नैतिकता के सबसे बड़े लठैत रतन टाटा अपनी आबरू बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के सामने गिडगिडाते नज़र आये और दुनिया को पता लग गया कि वे भी अम्बानी ग्रुप ही तरह की काम करते हैं .यू पी ए सरकार की जीवनदायी शक्ति बने एम करूणानिधि के चेले, ए राजा ,चोरकटई के बादशाह बन गए . कांग्रेस पार्टी के बड़े बड़े सूरमा निहायत ही बौने दिखने लगे. पूरी दुनिया जान गयी कि नैतिकता का स्वांग करने वाले बीजेपी के बड़े नेता भी राडिया की चेलाही करते थे . यह सारा काम पत्रकारिता ने किया . इसलिए वह दौर मनोरंजक लग रहा था जब लोग पत्रकारिता के पतन पर दुःख व्यक्त कर रहे थे .पत्रकारिता का कोई पतन नहीं हुआ था . पतन उन लोगों का हुआ था जो पत्रकारिता के कवर में और कोई धंधा कर रहे थे.पत्रकार तो अपना काम कर रहा था . अगर धन्धेबाज़ मालिक ने पत्रकार की बात नहीं naheen सुनी तो वह अपनी खबर भड़ास ,हस्तक्षेप जनतंत्र अदि के सहारे दुनिया के सामने रख रहा था. मुझे मालूम है कि उस दौर में बड़ी पूंजी में मौजूद राडिया के चेलों ने वेब मीडिया के इस माध्यम को खरीदने की कोशिश की थी लेकिन यह दीवाने बिकने को तैयार नहीं थे. आज भारतीय पत्रकारिता का सिर दुनिया के सामने ऊंचा इसी वजह से है कि वेब मीडिया के इन अभिमन्यु पत्रकारों ने हिम्मत नहीं छोडी. एक और दिलचस्प बात हुई कि यह अभिमन्यु हालांकि चक्रव्यूह तोडना नहीं जानते थे लेकिन इनके साथ आलोक तोमर, विनोद मेहता , एन राम जैसे कुछ ऐसे भीष्म पितामह थे जो शर शैया पर जाने को तैयार नहीं थे. आलोक तोमर तो कैंसर के साथ साथ कौरव रूप में कमान संभाले राडिया की सेना से भी मुकाबला कर रहे थे . इन्हीं भीष्म पितामहों की वजह से रादिया की अठारह अक्षौहिणी सेना के बहादुरों में से कोई भी जयद्रथ नहीं बन सका . आज अगर बरखा दत्त, प्रभु चावला , वीर संघवी जैसे व्यापारियों के प्रतिनधि पत्रकारिता वाली पोशाक पहन कर काम करते हुए बेनकाब हुए हैं, तो उसमें एन राम ,विनोद मेहता और आलोक तोमर का भी हाथ है . आने वाली पीढियां जब भड़ास के यशवंत को प्रणाम करेगीं तो इन भीष्म पितामहों के नाम के सामने भी सिर झुकायेंगी .इन लोगों ने पत्रकारिता को नरक में जाने से बचाया है .
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Saturday, December 25, 2010
डॉ बिनायक सेन को सज़ा देने के लिए हुकूमत ने किया पुलिस का इस्तेमाल
शेष नारायण सिंह
छत्तीसगढ़ में रायपुर की एक अदालत ने मानवाधिकार नेता , डॉ. बिनायक सेन को आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी. पुलिस ने डॉ सेन पर कुछ मनगढ़ंत आरोप लगाए हैं लेकिन उनपर असली मामला यह है कि उन्होंने छत्तीसगढ़ रियासत के शासकों की भैंस खोल ली है . बिनायक सेन बहुत बड़े डाक्टर हैं, बच्चों की बीमारियों के इलाज़ के जानकार हैं . किसी भी बड़े शहर में क्लिनिक खोल लेते तो करोड़ों कमाते और मौज करते . शासक वर्गों को कोई एतराज़ न होता .छतीसगढ़ का ठाकुर भी बुरा न मानता लेकिन उन्हें पता नहीं क्या भूत सवार हुआ कि वे पढ़ाई लिखाई पूरी करके छत्तीसगढ़ पंहुच गए और गरीब आदमियों की मदद करने लगे. अगर उन्हें गरीब आदमियों की मदद करनी थी तो छत्तीसगढ़ के बाबू साहेब से मिलते और सलवा जुडूम टाइप किसी सामजिक संगठन में भर्ती हो जाते. गरीब आदमी की मदद भी होती और शासक वर्ग के लोग खुश भी होते . लेकिन उन्होंने राजा के खिलाफ जाने का रास्ता चुना और असली गरीब आदमियों के पक्षधर बन गए . केसरिया रंग के झंडे के नीचे काम करने वाले छत्तीसगढ़ के राजा को यह बात पसंद नहीं आई और जब उनकी चाकर पुलिस ने फर्जी आरोप पत्र दाखिल करके उन्हें जेल में भर्ती करवा दिया है तो देश भर में लोकतंत्र और नागरिक आज़ादी की बात करने वाले आग बबूला हो गए हैं और अनाप शनाप बक रहे हैं . दिल्ली हाई कोर्ट में पूर्व मुख्य न्यायाधीश , राजेन्द्र सच्चर कहते हैं कि न्याय नहीं हुआ . मुझे ताज्जुब है कि जस्टिस सच्चर इस तरह की गैर ज़िम्मेदार बात क्यों कर रहे हैं . उनके स्वर्गीय पिता जी , स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ,भीमसेन सच्चर ने तो सत्ता के मद में पागल लोगों की कारस्तानियों को बहुत करीब से देखा है . वे आज़ादी के बाद भारतीय पंजाब के मुख्य मंत्री थे . आज का दिल्ली , हरियाणा , हिमाचल प्रदेश और भारतीय पंजाब तब एक सूबा था . स्व भीमसेन सच्चर उसी राज्य के मुख्य मंत्री थे और जब उनको 1975 में लोकतंत्र की रक्षा की बीमारी लगी तो जेल में ठूंस दिए गए . उनपर इमरजेंसी की मार पड़ गयी थी . जब वे जेल के अन्दर बंद करने के लिए ले जाए जा रहे थे तो उन्होंने जेल के गेट पर लगी शिलापट्टिका को पढ़ा . लिखा था " इस जेल का शिलान्यास पंजाब के मुख्य मंत्री ,श्री भीमसेन सच्चर के कर कमलों से संपन्न हुआ. " मुस्कराए और आगे बढ़ गए . तो जब उन आज़ादी के दीवानों को जिनकी वजह से इमरजेंसी की देवी प्रधान मंत्री बनी थीं ,भी जेल में ठूंसा जा सकता है तो डॉ बिनायक सेन की क्या औकात है . उनका तो छत्तीस गढ़ के बाबू या उनके दिल्ली वाले आकाओं पर कोई एहसान नहीं है , उनको जेल में बंद करने में कितना वक़्त लगेगा . यहाँ यह भी समझने की गलती नहीं करनी चाहिए कि बिनायक सेन को जेल में ठूंसने वाली सरकार और स्व भीमसेन सच्चर को जेल में बंद करने वाली सरकार की विचारधारा अलग थी . ऐसा कुछ नहीं था . दोनों ही शासक वर्गों के हित साधक हैं और दोनों ही गरीब आदमी को केवल मजदूरी करने का हक देने के पक्ष धर हैं . ऐसी मजदूरी जिसमें मेहनत की असली कीमत न मिले . डॉ बिनायक सेन की गलती यह है कि उन्होंने अपने आपको उन गरीब आदमियों के साथ खड़ा कर दिया जिनका शोषण शासक वर्गों के लोग कर रहे थे और डॉ सेन ने उनको जागरूक बनाने की कोशिश की . इसके पहले इसी गलती में जयप्रकाश नारायण को जेल की हवा खानी पड़ी थी.महात्मा गाँधी और उनके सभी साथियों को 1920 से 1945 तक बार बार जेल जाना पड़ा था .उनका भी जुर्म वही था जो बिनायक सेन का है यानी गरीब आदमी को उसके हक की बात बताना.. शासकवर्ग शोषित पीड़ित जनता के जागरण को कभी बर्दाश्त नहीं करता . जो भी उन्हें जागरूक बनाने की कोशिश करेगा , वह मारा जायेगा. वह महात्मा गाँधी भी हो सकता है , जयप्रकाश नारायण हो सकता है , या बिनायक सेन हो सकता है . एक बात और. अगर महात्मा गाँधी के साथ पूरा देश न खड़ा हुआ , तो आज उनकी कहानी का कोई नामलेवा न होता . जेपी के साथ भी देश का नौजवान खड़ा हो गया तो सत्ता के मद में पागल लोग हार गए . अगर हुजूम न बना होता तो सब को मालूम है कि इमरजेंसी की देवी ने हर उस आदमी को जेल में बंद कर दिया था जो जयप्रकाश नारायण को सही मानता था . अगर सब उनके साथ न आ गए होते तो जेपी के साथ साथ हर उस आदमी की मौत की खबर जेल से ही आती जो लोकतंत्र और नागरिक आज़ादी को सही मानते थे. डॉ बिनायक सेन के केस में भी यही होने वाला है. अगर लोकशाही की पक्षधर जमातें ऐलानियाँ उनके साथ न खडी हो गयीं तो सब का वही हाल होगा जो बिनायक सेन का हुआ है .बिनायक सेन के दुश्मन छत्तीस गढ़ के राजा हैं लेकिन उनके साथी हर राज्य में हैं , कहीं वे कांग्रेस पार्टी में हैं तो कहीं बीजेपी में लेकिन हैं सभी लोकतंत्र की मान्यताओं के दुश्मन . इसलिए ज़रुरत इस बात की है कि देश भर में वे लोग मैदान ले लें जो नागरिक आज़ादी और जनवाद को सही मानते हैं . वरना आज जो लोग बिनायक सेन का घर जलाने पंहुचे हैं वे कल मेरे और आपके दरवाज़े भी आयेगें और हमारे साथ खड़ा होने के लिए कोई नहीं होगा .
छत्तीसगढ़ में रायपुर की एक अदालत ने मानवाधिकार नेता , डॉ. बिनायक सेन को आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी. पुलिस ने डॉ सेन पर कुछ मनगढ़ंत आरोप लगाए हैं लेकिन उनपर असली मामला यह है कि उन्होंने छत्तीसगढ़ रियासत के शासकों की भैंस खोल ली है . बिनायक सेन बहुत बड़े डाक्टर हैं, बच्चों की बीमारियों के इलाज़ के जानकार हैं . किसी भी बड़े शहर में क्लिनिक खोल लेते तो करोड़ों कमाते और मौज करते . शासक वर्गों को कोई एतराज़ न होता .छतीसगढ़ का ठाकुर भी बुरा न मानता लेकिन उन्हें पता नहीं क्या भूत सवार हुआ कि वे पढ़ाई लिखाई पूरी करके छत्तीसगढ़ पंहुच गए और गरीब आदमियों की मदद करने लगे. अगर उन्हें गरीब आदमियों की मदद करनी थी तो छत्तीसगढ़ के बाबू साहेब से मिलते और सलवा जुडूम टाइप किसी सामजिक संगठन में भर्ती हो जाते. गरीब आदमी की मदद भी होती और शासक वर्ग के लोग खुश भी होते . लेकिन उन्होंने राजा के खिलाफ जाने का रास्ता चुना और असली गरीब आदमियों के पक्षधर बन गए . केसरिया रंग के झंडे के नीचे काम करने वाले छत्तीसगढ़ के राजा को यह बात पसंद नहीं आई और जब उनकी चाकर पुलिस ने फर्जी आरोप पत्र दाखिल करके उन्हें जेल में भर्ती करवा दिया है तो देश भर में लोकतंत्र और नागरिक आज़ादी की बात करने वाले आग बबूला हो गए हैं और अनाप शनाप बक रहे हैं . दिल्ली हाई कोर्ट में पूर्व मुख्य न्यायाधीश , राजेन्द्र सच्चर कहते हैं कि न्याय नहीं हुआ . मुझे ताज्जुब है कि जस्टिस सच्चर इस तरह की गैर ज़िम्मेदार बात क्यों कर रहे हैं . उनके स्वर्गीय पिता जी , स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ,भीमसेन सच्चर ने तो सत्ता के मद में पागल लोगों की कारस्तानियों को बहुत करीब से देखा है . वे आज़ादी के बाद भारतीय पंजाब के मुख्य मंत्री थे . आज का दिल्ली , हरियाणा , हिमाचल प्रदेश और भारतीय पंजाब तब एक सूबा था . स्व भीमसेन सच्चर उसी राज्य के मुख्य मंत्री थे और जब उनको 1975 में लोकतंत्र की रक्षा की बीमारी लगी तो जेल में ठूंस दिए गए . उनपर इमरजेंसी की मार पड़ गयी थी . जब वे जेल के अन्दर बंद करने के लिए ले जाए जा रहे थे तो उन्होंने जेल के गेट पर लगी शिलापट्टिका को पढ़ा . लिखा था " इस जेल का शिलान्यास पंजाब के मुख्य मंत्री ,श्री भीमसेन सच्चर के कर कमलों से संपन्न हुआ. " मुस्कराए और आगे बढ़ गए . तो जब उन आज़ादी के दीवानों को जिनकी वजह से इमरजेंसी की देवी प्रधान मंत्री बनी थीं ,भी जेल में ठूंसा जा सकता है तो डॉ बिनायक सेन की क्या औकात है . उनका तो छत्तीस गढ़ के बाबू या उनके दिल्ली वाले आकाओं पर कोई एहसान नहीं है , उनको जेल में बंद करने में कितना वक़्त लगेगा . यहाँ यह भी समझने की गलती नहीं करनी चाहिए कि बिनायक सेन को जेल में ठूंसने वाली सरकार और स्व भीमसेन सच्चर को जेल में बंद करने वाली सरकार की विचारधारा अलग थी . ऐसा कुछ नहीं था . दोनों ही शासक वर्गों के हित साधक हैं और दोनों ही गरीब आदमी को केवल मजदूरी करने का हक देने के पक्ष धर हैं . ऐसी मजदूरी जिसमें मेहनत की असली कीमत न मिले . डॉ बिनायक सेन की गलती यह है कि उन्होंने अपने आपको उन गरीब आदमियों के साथ खड़ा कर दिया जिनका शोषण शासक वर्गों के लोग कर रहे थे और डॉ सेन ने उनको जागरूक बनाने की कोशिश की . इसके पहले इसी गलती में जयप्रकाश नारायण को जेल की हवा खानी पड़ी थी.महात्मा गाँधी और उनके सभी साथियों को 1920 से 1945 तक बार बार जेल जाना पड़ा था .उनका भी जुर्म वही था जो बिनायक सेन का है यानी गरीब आदमी को उसके हक की बात बताना.. शासकवर्ग शोषित पीड़ित जनता के जागरण को कभी बर्दाश्त नहीं करता . जो भी उन्हें जागरूक बनाने की कोशिश करेगा , वह मारा जायेगा. वह महात्मा गाँधी भी हो सकता है , जयप्रकाश नारायण हो सकता है , या बिनायक सेन हो सकता है . एक बात और. अगर महात्मा गाँधी के साथ पूरा देश न खड़ा हुआ , तो आज उनकी कहानी का कोई नामलेवा न होता . जेपी के साथ भी देश का नौजवान खड़ा हो गया तो सत्ता के मद में पागल लोग हार गए . अगर हुजूम न बना होता तो सब को मालूम है कि इमरजेंसी की देवी ने हर उस आदमी को जेल में बंद कर दिया था जो जयप्रकाश नारायण को सही मानता था . अगर सब उनके साथ न आ गए होते तो जेपी के साथ साथ हर उस आदमी की मौत की खबर जेल से ही आती जो लोकतंत्र और नागरिक आज़ादी को सही मानते थे. डॉ बिनायक सेन के केस में भी यही होने वाला है. अगर लोकशाही की पक्षधर जमातें ऐलानियाँ उनके साथ न खडी हो गयीं तो सब का वही हाल होगा जो बिनायक सेन का हुआ है .बिनायक सेन के दुश्मन छत्तीस गढ़ के राजा हैं लेकिन उनके साथी हर राज्य में हैं , कहीं वे कांग्रेस पार्टी में हैं तो कहीं बीजेपी में लेकिन हैं सभी लोकतंत्र की मान्यताओं के दुश्मन . इसलिए ज़रुरत इस बात की है कि देश भर में वे लोग मैदान ले लें जो नागरिक आज़ादी और जनवाद को सही मानते हैं . वरना आज जो लोग बिनायक सेन का घर जलाने पंहुचे हैं वे कल मेरे और आपके दरवाज़े भी आयेगें और हमारे साथ खड़ा होने के लिए कोई नहीं होगा .
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भ्रष्टाचार के मैदान में बीजेपी और कांग्रेस बराबर के वीर हैं ,मैडम राडिया से पूछो
शेष नारायण सिंह
भारतीय जनता पार्टी की पूरी कोशिश है कि अपने ख़ास लोगों, नीरा राडिया और बी एस येदुरप्पा का कोई भी नुक्सान न होने पाए .बीजेपी की यह अदा मुझे बहुत पसंद आ गयी. कर्नाटक के राज्यपाल ने जब बीजेपी के नेता और मुख्य मंत्री को भ्रष्टाचार की ऐसी गलियों में घेर लिया जहां उनके बचने की संभावना बहुत कम रह गयी तो , बीजेपी ने अपनी वही पुरानी वाली चाल चल दी. बेंगलूरू में चर्चा है कि राज्यपाल हटाओ वाला खेल लगा दिया जाएगा . इसके पहले बीजेपी यह काम कई बार कर चुकी है . जब स्पेक्ट्रम घोटाले में बीजेपी के नेता ही फंसने लगे और सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ ऐलान कर दिया कि स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच २००१ से होगी तो बीजेपी वालों ने कहा कि उसे बाद में देख लेगें ,अभी तो फिलहाल मनमोहन सिंह को धमका कर भागने को मजबूर करते हैं .ज़ाहिर है कि २००१ से जांच होने पर प्रमोद महाजन के अलावा अरुण शोरी , अनंत कुमार और रंजन भट्टाचार्य के नाम भी उछ्लेगें . शायद इसीलिये स्पेक्ट्रम राजा के नाम से कुख्यात पूर्व संचार मंत्री के खिलाफ उनके सुर भी थोड़े पतले पड़ रहे हैं क्यों कि अब पता चल चुका है कि स्पेक्ट्रम राजा के गैंग की सबसे बड़ी लठैत , नीरा राडिया के तो मूल सम्बन्ध बीजेपी वालों से ही हैं .आज एक अखबार में खबर छपी है कि नीरा रादिया ने बीजेपी की वाजपेयी सरकार के दौर में नागरिक उड्डयन विभाग के बारे में बहुत सारी इकठ्ठा की थी और उसको अपने विदेशी मुवक्किलों को बेचा था . जानकार बताते हैं कि जब नीरा राडिया पर शिकंजा कसने लगा तो उसने ही बीजेपी में अपने लोगों को आगे कर दिया कि अब इस सरकार को गिराने का वक़्त आ गया है . वास्तव में सारा घोटाला तो नीरा राडिया के फोन टेप होने से जुडा हुआ है . राजा तो एक बहाना है . यहाँ यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि राजा पाक साफ़ है . माननीय राजी जी तो चोरकट हैं ही . नामी अखबार " हिन्दू " में राजा और प्रधान मंत्री के पत्र छपने के बाद साफ़ हो गया है कि राजा ने खेल लम्बा किया था . आजकल बीजेपी के आन्दोलन की दिशा बिलकुल मुड़ गयी है . अब बीजेपी वाले राजा का नाम नहीं ले रहे हैं . अब निशाने पर प्रधान मंत्री हैं . अखबार के पर्दा फाश से साफ़ हो चुका है कि राडिया के सबसे ख़ास दोस्त बीजेपी के नेता अनंत कुमार हैं ,जबकि आडवाणी गुट के बाकी लोग भी राडिया के पक्ष में काम कर चुके हैं . आज अखबार में छपी सूचना से पता चला है कि आडवाणी ने गृहमंत्री के रूप में राडिया के दरबार में हाजिरी लगाई थी . अब बीजेपी वाले कहते हैं कि वह रादिया नहीं, किसी स्वामी जी का कार्यक्रम था. मामला अगर इतना गंभीर है तो यह पक्का है कि बीजेपी वाले राडिया गैंग का कोई नुकसान नहीं होने देगें . इसी अखबार ने दावा किया है कि राडिया ने पहले महाराष्ट्र सरकार में भी बड़े काम करवाए थे जब नितिन गडकरी वहां मंत्री थे. इसलिए अब रहस्य से पर्दा उठ रहा है कि बीजेपी का राष्ट्रीय नेतृत्व सारा खेल राडिया को बचाने के लिए कर रहा है . और बीजेपी की जांची परखी रणनीति भी सामने आ रही है कि अगर कोई प्रधान मंत्री या कोई अन्य बड़ा नेता बीजेपी की मर्जी के खिलाफ कोई काम करेगा तो उसके खिलाफ अभियान इतना तेज़ कर दिया जाएगा कि वह खुद मुश्किल में पड़ जाएगा .यह काम बीजेपी के आला नेता पहले भी कर चुके हैं . जब प्रधान मंत्री के रूप में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दीं तो बीजेपी ने उन्हें पैदल करने का मन बना लिया . लेकिन ऐलानियाँ मंडल का विरोध करने की हिम्मत नहीं थी , तो मंदिर के नाम पर आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की साम्प्रदायिक यात्रा कर दी. विश्वनाथ प्रताप सिंह कहीं के नहीं रह गए. जब मुलायम सिंह यादव मज़बूत पड़ने लगे और पिछड़ों के नेता बनने के ढर्रे पर चल निकले तो मायावती और कांशी राम को ललकार कर उनको पैदल कर दिया .विश्वनाथ प्रताप सिंह वाले खेल में तो बहुत ही अजीब तथ्य सामने आये . राम विलास पासवान और शरद यादव ने वी पी सिंह को घेर कर इमोशनल ब्लैकमेल के ज़रिये मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करवाईं थीं , बाद में यह दोनों ही बीजे पी के बहुत ख़ास हो गए, वी पी सिंह अपनी बाकी ज़िंदगी कमंडल के घाव चाटते रहे. इस बार भी यही लग रहा है कि नीरा राडिया और उसके गैंग को बचाने के लिए बीजेपी का आला नेतृत्व कुछ भी करेगा जबकि कर्नाटक में बी एस येदुरप्पा को बचाने के लिए भी वही तरीका अपनाया जा रहा है जिसका इस्तेमाल करके राडिया को बचाया जाने वाला है . वहां भी हंसराज भरद्वाज को हटाने का अभियान चल चुका है. बस बीजेपी के लिए मुश्किल यह है कि इस बार मुकाबला विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे कमज़ोर आदमी से नहीं है . मुकाबले में सोनिया गाँधी की राजनीतिक कुशलता खडी है जिसने बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व के कई बहादुरों को पैदल किया है
भारतीय जनता पार्टी की पूरी कोशिश है कि अपने ख़ास लोगों, नीरा राडिया और बी एस येदुरप्पा का कोई भी नुक्सान न होने पाए .बीजेपी की यह अदा मुझे बहुत पसंद आ गयी. कर्नाटक के राज्यपाल ने जब बीजेपी के नेता और मुख्य मंत्री को भ्रष्टाचार की ऐसी गलियों में घेर लिया जहां उनके बचने की संभावना बहुत कम रह गयी तो , बीजेपी ने अपनी वही पुरानी वाली चाल चल दी. बेंगलूरू में चर्चा है कि राज्यपाल हटाओ वाला खेल लगा दिया जाएगा . इसके पहले बीजेपी यह काम कई बार कर चुकी है . जब स्पेक्ट्रम घोटाले में बीजेपी के नेता ही फंसने लगे और सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ ऐलान कर दिया कि स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच २००१ से होगी तो बीजेपी वालों ने कहा कि उसे बाद में देख लेगें ,अभी तो फिलहाल मनमोहन सिंह को धमका कर भागने को मजबूर करते हैं .ज़ाहिर है कि २००१ से जांच होने पर प्रमोद महाजन के अलावा अरुण शोरी , अनंत कुमार और रंजन भट्टाचार्य के नाम भी उछ्लेगें . शायद इसीलिये स्पेक्ट्रम राजा के नाम से कुख्यात पूर्व संचार मंत्री के खिलाफ उनके सुर भी थोड़े पतले पड़ रहे हैं क्यों कि अब पता चल चुका है कि स्पेक्ट्रम राजा के गैंग की सबसे बड़ी लठैत , नीरा राडिया के तो मूल सम्बन्ध बीजेपी वालों से ही हैं .आज एक अखबार में खबर छपी है कि नीरा रादिया ने बीजेपी की वाजपेयी सरकार के दौर में नागरिक उड्डयन विभाग के बारे में बहुत सारी इकठ्ठा की थी और उसको अपने विदेशी मुवक्किलों को बेचा था . जानकार बताते हैं कि जब नीरा राडिया पर शिकंजा कसने लगा तो उसने ही बीजेपी में अपने लोगों को आगे कर दिया कि अब इस सरकार को गिराने का वक़्त आ गया है . वास्तव में सारा घोटाला तो नीरा राडिया के फोन टेप होने से जुडा हुआ है . राजा तो एक बहाना है . यहाँ यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि राजा पाक साफ़ है . माननीय राजी जी तो चोरकट हैं ही . नामी अखबार " हिन्दू " में राजा और प्रधान मंत्री के पत्र छपने के बाद साफ़ हो गया है कि राजा ने खेल लम्बा किया था . आजकल बीजेपी के आन्दोलन की दिशा बिलकुल मुड़ गयी है . अब बीजेपी वाले राजा का नाम नहीं ले रहे हैं . अब निशाने पर प्रधान मंत्री हैं . अखबार के पर्दा फाश से साफ़ हो चुका है कि राडिया के सबसे ख़ास दोस्त बीजेपी के नेता अनंत कुमार हैं ,जबकि आडवाणी गुट के बाकी लोग भी राडिया के पक्ष में काम कर चुके हैं . आज अखबार में छपी सूचना से पता चला है कि आडवाणी ने गृहमंत्री के रूप में राडिया के दरबार में हाजिरी लगाई थी . अब बीजेपी वाले कहते हैं कि वह रादिया नहीं, किसी स्वामी जी का कार्यक्रम था. मामला अगर इतना गंभीर है तो यह पक्का है कि बीजेपी वाले राडिया गैंग का कोई नुकसान नहीं होने देगें . इसी अखबार ने दावा किया है कि राडिया ने पहले महाराष्ट्र सरकार में भी बड़े काम करवाए थे जब नितिन गडकरी वहां मंत्री थे. इसलिए अब रहस्य से पर्दा उठ रहा है कि बीजेपी का राष्ट्रीय नेतृत्व सारा खेल राडिया को बचाने के लिए कर रहा है . और बीजेपी की जांची परखी रणनीति भी सामने आ रही है कि अगर कोई प्रधान मंत्री या कोई अन्य बड़ा नेता बीजेपी की मर्जी के खिलाफ कोई काम करेगा तो उसके खिलाफ अभियान इतना तेज़ कर दिया जाएगा कि वह खुद मुश्किल में पड़ जाएगा .यह काम बीजेपी के आला नेता पहले भी कर चुके हैं . जब प्रधान मंत्री के रूप में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दीं तो बीजेपी ने उन्हें पैदल करने का मन बना लिया . लेकिन ऐलानियाँ मंडल का विरोध करने की हिम्मत नहीं थी , तो मंदिर के नाम पर आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की साम्प्रदायिक यात्रा कर दी. विश्वनाथ प्रताप सिंह कहीं के नहीं रह गए. जब मुलायम सिंह यादव मज़बूत पड़ने लगे और पिछड़ों के नेता बनने के ढर्रे पर चल निकले तो मायावती और कांशी राम को ललकार कर उनको पैदल कर दिया .विश्वनाथ प्रताप सिंह वाले खेल में तो बहुत ही अजीब तथ्य सामने आये . राम विलास पासवान और शरद यादव ने वी पी सिंह को घेर कर इमोशनल ब्लैकमेल के ज़रिये मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करवाईं थीं , बाद में यह दोनों ही बीजे पी के बहुत ख़ास हो गए, वी पी सिंह अपनी बाकी ज़िंदगी कमंडल के घाव चाटते रहे. इस बार भी यही लग रहा है कि नीरा राडिया और उसके गैंग को बचाने के लिए बीजेपी का आला नेतृत्व कुछ भी करेगा जबकि कर्नाटक में बी एस येदुरप्पा को बचाने के लिए भी वही तरीका अपनाया जा रहा है जिसका इस्तेमाल करके राडिया को बचाया जाने वाला है . वहां भी हंसराज भरद्वाज को हटाने का अभियान चल चुका है. बस बीजेपी के लिए मुश्किल यह है कि इस बार मुकाबला विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे कमज़ोर आदमी से नहीं है . मुकाबले में सोनिया गाँधी की राजनीतिक कुशलता खडी है जिसने बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व के कई बहादुरों को पैदल किया है
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Wednesday, December 22, 2010
अलविदा ब्रायन हनरहन
शेष नारायण सिंह
बीबीसी के कूटनीतिक सम्पादक ब्रायन हनरहन की ६१ साल की उम्र में लन्दन में मृत्यु हो गयी. उन्हें कैंसर हो गया था. १९७० में बीबीसी से जुडे ब्रायन हनरहन ने हालांकि क्लर्क के रूप में काम शुरू किया था लेकिन बाद वे बहुत नामी रिपोर्टर बने . भारत में उन्हें पहली बार १९८४ में नोटिस किया गया जब वे मार्क टली और सतीश जैकब के साथ इंदिरा गाँधी की हत्या की रिपोर्ट करने वाली टीम के सदस्य बने . इंदिरा गाँधी की हत्या की रिपोर्ट करके बीबीसी ने पत्रकारिता की दुनिया में अपनी हैसियत को और भी बड़ा कर दिया था . यह वह दौर था जब बीबीसी की हर रिपोर्ट को पूरा सच माना जाता था .ब्रायन हनरहन हांग कांग में रहकर एशिया की रिपोर्टिंग करते थे . बीबीसी ने ही बाकी दुनिया को बताया था कि इंदिरा गाँधी की हत्या हो गयी थी जबकि सरकारी तौर पर इस बात को बहुत बाद में घोषित किया गया. इंदिरा गाँधी की हत्या के दौरान भारत की राजनीति बहुत भरी उथल पुथल से गुज़र रही थी .पंजाब में आतंकवाद उफान पर था . पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज था और उन्होंने बंगलादेश की हार का बदला लेने का मंसूबा बना लिया था . उनको भरोसा था कि आतंकवादियों को सैनिक और आर्थिक मदद देकर वे पंजाब में खालिस्तान बनवाने में सफल हो जायेगें. इंदिरा गाँधी के एक बेटे की बहुत ही दुखद हालात में मौत हो चुकी थी वे अन्दर से बहुत कमज़ोर हो चुकी थीं . हालांकि राजीव गाँधी राजनीति में शामिल हो चुके थे और कांग्रेस पार्टी के महासचिव के रूप में काम कर रहे थे लेकिन आम तौर पर माना जा रहा था कि अभी उनके प्रधान मंत्री बनने का समय नहीं आया था. लोगों को उम्मीद थी कि वे कुछ वर्षों बाद ही प्रधान मंत्री बनेगें . इंदिरा गाँधी की उम्र केवल ६७ साल की थी और लोग सोचते थे कि वे कम से कम १० साल तक और सत्ता संभालेगीं. दिल्ली में अरुण नेहरू और उनके साथियों की तूती बोलती थी . यह सारी बातें दुनिया को बीबीसी ने बताया जिसके सदस्यों में ब्रायन हनरहन भी एक थे . यह अलग बात है कि इस टीम के सबसे बड़े पत्रकार तो मार्क टली ही थे .इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद १ नवम्बर से शुरू हुए सिख विरोधी दंगों और राजीव गाँधी की ताजपोशी की रिपोर्ट करने में भी बीबीसी ने दुनिया भर में अपनी धाक जमाई थी . सिख विरोधी दंगोंमें कांग्रेस के कई मुकामी नेता शामिल थे और जब बीबीसी ने सबको बता दिया कि सच्चाई क्या है तो किसी की भी हिम्मत सच को तोड़ने की नहीं पड़ी. यह ब्रायन हनरहन की रिपोर्टिंग की ज़िंदगी का दूसरा बड़ा काम था . वे इसके पहले ही अपनी पहचान बना चुके थे. उन्होंने ब्रिटेन के फाकलैंड युद्ध की रिपोर्टिंग की थी और बीबीसी रेडियो के श्रोताओं में उनकी पहचान बन चुकी थी. हांग कांग में अपनी तैनाती के दौरान ब्रायन हनरहन ने दुनिया को बताया था कि कम्युनिस्ट चीन में डेंग शियाओपिंग ने परिवर्तन का चक्र घुमा दिया है . बाद में वे १९८९ में चीन फिर वापस गए और तियान्मन चौक से रिपोर्ट किया . इ ससाल के नोबेल पुरस्कार विजेता लिउ जियाबाओ के बारे में पहली रिपोर्ट १९८९ में ब्रायन हनरहन ने ही की थी .१९८६ में जब रूस में गोर्बाचेव की परिवर्तन की राजनीति शुरू हुई तो ब्रायन हनरहन बतौर नामाबर मौजूद थे. पश्चिम की दुनिया को उन्होंने ही बताया कि रूस में पेरेस्त्रोइका और ग्लैस्नास्त के प्रयोग हो रहे हैं . गोर्बाचेव की इन्हीं नीतियों के कारण और बाद में सोवियत संघ का विघटन हुआ... कोल्ड वार के बाद पूर्वी यूरोप में जो भी परिवर्तन हुए उनके गवाह के रूप में ब्रायन लगभग हर जगह मौजूद थे .जब जर्मन अवाम ने बर्लिन की दीवार पर पहला हथौड़ा मारा तो बीबीसी ने वहीं मौके से रिपोर्ट किया था और वह रिपोर्ट ब्रायन की ही थी .बर्लिन दीवार का ढहना समकालीन इतिहास की बड़ी घटना है और हमें उसका आँखों देखा हाल ब्रायन ने ही बताया था. बीबीसी रेडियो और टेलिविज़न के दर्शक उनकी रिपोर्ट को बहुत दिनों तक याद रखेगें . जब अमरीका पर ११ सितम्बर २००१ को आतंकवादी हमला हुआ तो ब्रायन हनरहन बीबीसी स्टूडियो में मौजूद थे और उनकी हर बात पर बीबीसी के टेलिविज़न के श्रोता को विश्वास था.बाद में उन्होंने न्यू यार्क जाकर अमरीका की एशियानीति को करवट लेते देखा था और पूरी दुनिया को बताया था . एशिया की बदली राजनीतिक हालात के चश्मदीद के रूप में उन्होंने आतंकवादी हमलों की बारीकी को दुनिया के सामने खोल कर रख दिया था. बीबीसी रेडियो के रिपोर्टर के रूप में ब्रायन ने पोलैंड में सत्ता परिवर्तन और उस से जुडी राजनीति को बहुत बारीकी से समझा था और उसे रिपोर्ट किया था. जब पोलैंड में राष्ट्रपति के रूप में कम्युनिस्ट विरोधी लेक वालेंचा ने सत्ता संभाली थी तो ब्रायन हनरहन वहां मौजूद थे. उन्होंने पोप जान पाल द्वितीय की मृत्यु और उनके उत्तराधिकारी के गद्दी संभालने की घटना को बहुत ही करीब से देखा था और रिपोर्ट किया था.एशिया और पूर्वी यूरोप की राजनीति के जानकार के रूप में ब्रायन हनरहन को हमेशा याद किया जाएगा . ब्रायन अपने पीछे पत्नी, आनर हनरहन और एक बेटी छोड़ गए हैं
बीबीसी के कूटनीतिक सम्पादक ब्रायन हनरहन की ६१ साल की उम्र में लन्दन में मृत्यु हो गयी. उन्हें कैंसर हो गया था. १९७० में बीबीसी से जुडे ब्रायन हनरहन ने हालांकि क्लर्क के रूप में काम शुरू किया था लेकिन बाद वे बहुत नामी रिपोर्टर बने . भारत में उन्हें पहली बार १९८४ में नोटिस किया गया जब वे मार्क टली और सतीश जैकब के साथ इंदिरा गाँधी की हत्या की रिपोर्ट करने वाली टीम के सदस्य बने . इंदिरा गाँधी की हत्या की रिपोर्ट करके बीबीसी ने पत्रकारिता की दुनिया में अपनी हैसियत को और भी बड़ा कर दिया था . यह वह दौर था जब बीबीसी की हर रिपोर्ट को पूरा सच माना जाता था .ब्रायन हनरहन हांग कांग में रहकर एशिया की रिपोर्टिंग करते थे . बीबीसी ने ही बाकी दुनिया को बताया था कि इंदिरा गाँधी की हत्या हो गयी थी जबकि सरकारी तौर पर इस बात को बहुत बाद में घोषित किया गया. इंदिरा गाँधी की हत्या के दौरान भारत की राजनीति बहुत भरी उथल पुथल से गुज़र रही थी .पंजाब में आतंकवाद उफान पर था . पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज था और उन्होंने बंगलादेश की हार का बदला लेने का मंसूबा बना लिया था . उनको भरोसा था कि आतंकवादियों को सैनिक और आर्थिक मदद देकर वे पंजाब में खालिस्तान बनवाने में सफल हो जायेगें. इंदिरा गाँधी के एक बेटे की बहुत ही दुखद हालात में मौत हो चुकी थी वे अन्दर से बहुत कमज़ोर हो चुकी थीं . हालांकि राजीव गाँधी राजनीति में शामिल हो चुके थे और कांग्रेस पार्टी के महासचिव के रूप में काम कर रहे थे लेकिन आम तौर पर माना जा रहा था कि अभी उनके प्रधान मंत्री बनने का समय नहीं आया था. लोगों को उम्मीद थी कि वे कुछ वर्षों बाद ही प्रधान मंत्री बनेगें . इंदिरा गाँधी की उम्र केवल ६७ साल की थी और लोग सोचते थे कि वे कम से कम १० साल तक और सत्ता संभालेगीं. दिल्ली में अरुण नेहरू और उनके साथियों की तूती बोलती थी . यह सारी बातें दुनिया को बीबीसी ने बताया जिसके सदस्यों में ब्रायन हनरहन भी एक थे . यह अलग बात है कि इस टीम के सबसे बड़े पत्रकार तो मार्क टली ही थे .इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद १ नवम्बर से शुरू हुए सिख विरोधी दंगों और राजीव गाँधी की ताजपोशी की रिपोर्ट करने में भी बीबीसी ने दुनिया भर में अपनी धाक जमाई थी . सिख विरोधी दंगोंमें कांग्रेस के कई मुकामी नेता शामिल थे और जब बीबीसी ने सबको बता दिया कि सच्चाई क्या है तो किसी की भी हिम्मत सच को तोड़ने की नहीं पड़ी. यह ब्रायन हनरहन की रिपोर्टिंग की ज़िंदगी का दूसरा बड़ा काम था . वे इसके पहले ही अपनी पहचान बना चुके थे. उन्होंने ब्रिटेन के फाकलैंड युद्ध की रिपोर्टिंग की थी और बीबीसी रेडियो के श्रोताओं में उनकी पहचान बन चुकी थी. हांग कांग में अपनी तैनाती के दौरान ब्रायन हनरहन ने दुनिया को बताया था कि कम्युनिस्ट चीन में डेंग शियाओपिंग ने परिवर्तन का चक्र घुमा दिया है . बाद में वे १९८९ में चीन फिर वापस गए और तियान्मन चौक से रिपोर्ट किया . इ ससाल के नोबेल पुरस्कार विजेता लिउ जियाबाओ के बारे में पहली रिपोर्ट १९८९ में ब्रायन हनरहन ने ही की थी .१९८६ में जब रूस में गोर्बाचेव की परिवर्तन की राजनीति शुरू हुई तो ब्रायन हनरहन बतौर नामाबर मौजूद थे. पश्चिम की दुनिया को उन्होंने ही बताया कि रूस में पेरेस्त्रोइका और ग्लैस्नास्त के प्रयोग हो रहे हैं . गोर्बाचेव की इन्हीं नीतियों के कारण और बाद में सोवियत संघ का विघटन हुआ... कोल्ड वार के बाद पूर्वी यूरोप में जो भी परिवर्तन हुए उनके गवाह के रूप में ब्रायन लगभग हर जगह मौजूद थे .जब जर्मन अवाम ने बर्लिन की दीवार पर पहला हथौड़ा मारा तो बीबीसी ने वहीं मौके से रिपोर्ट किया था और वह रिपोर्ट ब्रायन की ही थी .बर्लिन दीवार का ढहना समकालीन इतिहास की बड़ी घटना है और हमें उसका आँखों देखा हाल ब्रायन ने ही बताया था. बीबीसी रेडियो और टेलिविज़न के दर्शक उनकी रिपोर्ट को बहुत दिनों तक याद रखेगें . जब अमरीका पर ११ सितम्बर २००१ को आतंकवादी हमला हुआ तो ब्रायन हनरहन बीबीसी स्टूडियो में मौजूद थे और उनकी हर बात पर बीबीसी के टेलिविज़न के श्रोता को विश्वास था.बाद में उन्होंने न्यू यार्क जाकर अमरीका की एशियानीति को करवट लेते देखा था और पूरी दुनिया को बताया था . एशिया की बदली राजनीतिक हालात के चश्मदीद के रूप में उन्होंने आतंकवादी हमलों की बारीकी को दुनिया के सामने खोल कर रख दिया था. बीबीसी रेडियो के रिपोर्टर के रूप में ब्रायन ने पोलैंड में सत्ता परिवर्तन और उस से जुडी राजनीति को बहुत बारीकी से समझा था और उसे रिपोर्ट किया था. जब पोलैंड में राष्ट्रपति के रूप में कम्युनिस्ट विरोधी लेक वालेंचा ने सत्ता संभाली थी तो ब्रायन हनरहन वहां मौजूद थे. उन्होंने पोप जान पाल द्वितीय की मृत्यु और उनके उत्तराधिकारी के गद्दी संभालने की घटना को बहुत ही करीब से देखा था और रिपोर्ट किया था.एशिया और पूर्वी यूरोप की राजनीति के जानकार के रूप में ब्रायन हनरहन को हमेशा याद किया जाएगा . ब्रायन अपने पीछे पत्नी, आनर हनरहन और एक बेटी छोड़ गए हैं
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Monday, December 20, 2010
कांग्रेस ने बीजेपी को भ्रष्ट और साम्प्रदायिक साबित करने का मंसूबा बनाया
शेष नारायण सिंह
भारतीय राजनीति बहुत बड़े पैमाने पर करवट लेने वाली है. कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन में सोनिया गाँधी ने जिस तरह से भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता पर हमला बोला है वह अगले कुछ दिनों में राजनीतिक विमर्श की दिशा बदल देगा. भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका पांच सूत्रीय कार्यक्रम कांग्रेसियों को ईमानदार तो नहीं बना देगा लेकिन आलोचना का डर ज़रूर पैदा कर देगा. सोनिया गाँधी के भ्रष्टाचार विरोधी भाषण के केंद्र में बीजेपी की कर्नाटक इकाई है . बीजेपी के बड़े नेताओं को मालूम है कि अगर वे भ्रष्टाचार के आरोपों में बुरी तरह से घिरे हुए बी एस येदुरप्पा को पैदल करेगें तो उनकी कर्नाटक इकाई भंग हो जायेगी क्योंकि येदुरप्पा बगावत कर देगें और अपनी नयी पार्टी बना लेगें . पिछली बार जब दिल्ली वालों ने उन्हें हटाने की कोशिश की थी तो यदुरप्पा ने साफ़ बता दिया था कि वे बीजेपी को ख़त्म कर देगें. बीजेपी के एक बहुत बड़े नेता ने उन दिनों बयान दिया था कि कर्नाटक में कथित रूप से भ्रष्ट येदुरप्पा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जायेगी क्योंकि उसके बाद उनकी पार्टी की औकात वहां शून्य हो जायेगी. यह बात बाकी लोगों के साथ साथ सोनिया गाँधी को भी मालूम है . इसीलिये उनका भ्रष्टाचार वाला भाषण पूरी तरह से कर्नाटक केन्द्रित था. अगर कर्नाटक में बीजेपी ख़त्म होती है तो उसका सीधा फायदा वहां कांग्रेस को होगा . वैसे भी सोनिया गाँधी का भ्रष्टाचार के खिलाफ रुख हमेशा डायरेक्ट रहता है . उन्हें मालूम है कि वे खुद ,मनमोहन सिंह और राहुल गाँधी को किसी भी भ्रष्टाचार के मामले में कोई नहीं पकड़ सकता .बाकी कांग्रेस में ऐसा कोई नेता नहीं है जिसको हटा देने से कांग्रेस का कुछ बिगड़ने वाला है . इसलिए जिसके खिलाफ भी भ्रष्टाचार की चर्चा हो रही है उसको वे बाहर कर दे रही हैं . यह सुख बीजेपी वालों के पास नहीं है . उनके कई ऐसे नेता भ्रष्टाचार के जाल में हैं जिनको अगर निकाल दिया जाय तो पार्टी ही ख़त्म हो जायेगी. बड़ी मुश्किल से बीजेपी के हाथ २जी स्पेक्ट्रम वाला मामला आया था लेकिन हालात ऐसे बने कि अब उसकी जांच २००१ से शुरू हो रही है . इसका भावार्थ यह हुआ कि अगले दो वर्षों तक बीजेपी के राज में संचार मंत्री रहे पार्टी के नेताओं अरुण शोरी और स्व प्रमोद महाजन के कार्यकाल के भ्रष्टाचार मीडिया को लीक किये जायेगें और बीजेपी के प्रवक्ता लोग कोई जवाब नहीं दे पायेगें. तब तक तो बीजेपी को कांग्रेस और मीडिया में उसके साथी महाभ्रष्ट के रूप में पेश कर चुके होंगें. लुब्बो लुबाब यह है कि राजनीति के मैदान में सोनिया गाँधी का बुराड़ी भाषण जो धमक पैदा करने जा रहा है, उसका असर दूर तलक महसूस किया जाएगा.
लेकिन बुराड़ी का असल सन्देश यह नहीं है . भ्रष्टाचार के खेल में बीजे पी ने कांग्रेस को घेरने की रणनीति के सहारे विपक्षी एकता को पुख्ता करने की कोशिश की थी, बुराड़ी लाइन ने उसे तहस नहस कर दिया है . अब अगर बीजेपी येदुरप्पा को नहीं हटाती तो शरद यादव जैसे वफादार के लिए भी बीजेपी के साथ खड़े रह पाना बहुत मुश्किल होगा . इस भाषण ने भ्रष्टाचार को राजनीतिक मुद्दा बना सकने की बीजेपी की ताक़त को ख़त्म कर दिया है क्योंकि जिस तरह से राजनीतिक शतरंज की गोटें बिछ रही हैं ,उसके बाद बीजेपी को दुनिया कांग्रेस से ज्यादा भ्रष्ट मानना शुरू कर देगी.बुराड़ी का असल सन्देश यह है कि सोनिया गाँधी ने साम्प्रदायिकता के मैदान में बीजेपी को चुनौती दी है . राहुल गाँधी के विकीलीक्स रहस्योद्घाटन के बाद जिस तरह से बीजेपी वाले टूट पड़े थे , उस खेल को बुराड़ी ने बिलकुल नाकाम कर दिया है . सोनिया गाँधी ने बिना नाम लिए आर एस एस की साम्प्रदायिकता और उस से जुड़े आतंकवाद को बेनकाब करने के अभियान की शुरुआत कर दी है . इस राजनीतिक सन्देश की बात दूर तलक जायेगी. जो बात सोनिया गाँधी ने नहीं कही उसे दिग्विजय सिंह ने पूरा कर दिया . उन्होंने साफ़ कह दिया कि आर एस एस की विचारधारा हिटलर वाली है . जैसे हिटलर ने यहूदियों को ख़त्म करने की राजनीति की थी ,ठीक उसी तरह आर एस एस भी मुसलमानों को ख़त्म करने की योजना पर काम कर रहा है . बुराड़ी का यह सन्देश बीजेपी के लिए भारी मुश्किल पैदा कर देगा . इसमें दो राय नहीं है कि आर एस एस की विचारधारा पूरी तरह से हिटलर की लाइन पर आधारित है . १९३७ में आर एस एस के दूसरे सर संघचालक , गोलवलकर ने एक किताब लिखकर हिटलर की तारीफ़ की थी .गोलवलकर की किताब ,वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड , में हिटलर और उसकी राजनीति को महान बताया गया है . बीजेपी और आर एस एस के मौजूदा नेता कहते हैं कि बीजेपी ने वह किताब वापस ले ली है लेकिन इस बात का कोई अर्थ नहीं रह जाता . वैसे भी जिस हिंदुत्व की बात आर एस एस करता है ,वह हिन्दू धर्म नहीं है . हिंदुत्व वास्तव में सावरकर की राजनीतिक विचारधारा है जिसके आधार पर नागपुर में १९२५ में आर एस एस की स्थापना की गयी थी . यह विचारधारा इटली के चिन्तक माज़िनी की सोच पर आधारित है जिसके आधार पर इटली में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर ने राजनीतिक अभियान चलाया था . उसी विचारधारा को संघी विचारधारा बताकर दिग्विजय सिंह ने बीजेपी और संघी राजनीति के अन्य समर्थकों को आइना दिखाया है . बुराड़ी में सोनिया गाँधी के भाषण का नतीजा यह होगा कि अब साम्प्रदायिकता के मसले पर दिग्विजय सिंह की लाइन को कांग्रेस की आफिशियल लाइन बना दिया गया जाएगा .
एक बात और ऐतिहासिक रूप से सत्य है . वह यह कि जब भी कांग्रेस आर एस एस के खिलाफ हमलावर होती है उसे राजनीतिक सफलता मिलती है . महात्मा गाँधी की हत्या और उसमें आर एस एस के नेताओं की गिरफ्तारी के बाद नेहरू-पटेल की कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता को पूरी तरह से बैकफुट पर ला दिया था .नतीजा यह हुआ कि १९६२ तक कांग्रेस की ताक़त मज़बूत बनी रही. नेहरू की मृत्यु के बाद साम्प्रदायिकता के खिलाफ अभियान कुछ ढीला पड़ गया था .नतीजा यह हुआ कि पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस १९६७ का चुनाव हार गयी थी . जब १९६९ में कांग्रेस के तो टुकड़े हुए तो दक्षिण पंथी और साम्प्रदायिक ताक़तों के खिलाफ इंदिरा गांधी ने ज़बरदस्त हमला बोला और १९७१ में भारी बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हुईं . १९७४ में जब उनका बिगडैल बेटा संजय गाँधी राजनीति में आया तो उसने भी साफ्ट हिंदुत्व की लाइन शुरू कर दी और १९७७ में कांग्रेस बुरी तरह से हार गयी. इंदिरा गाँधी ने १९७७ से लेकर १९७९ तक साम्प्रद्यिकता के खिलाफ अभियान चलाया और १९८० में दुबारा सत्ता में आ गयीं . लगता है कि इस बार भी सोनिया गांधी को सही सलाह मिल रही है और वे आर एस एस -बीजेपी को राजनीतिक रूप से ख़त्म करने की रणनीति पर काम कर रही हैं . ज़ाहिर है आने वाला वक़्त राजनीतिक विश्लेषकों के लिए बहुत ही दिलचस्प होने वाला है
भारतीय राजनीति बहुत बड़े पैमाने पर करवट लेने वाली है. कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन में सोनिया गाँधी ने जिस तरह से भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता पर हमला बोला है वह अगले कुछ दिनों में राजनीतिक विमर्श की दिशा बदल देगा. भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका पांच सूत्रीय कार्यक्रम कांग्रेसियों को ईमानदार तो नहीं बना देगा लेकिन आलोचना का डर ज़रूर पैदा कर देगा. सोनिया गाँधी के भ्रष्टाचार विरोधी भाषण के केंद्र में बीजेपी की कर्नाटक इकाई है . बीजेपी के बड़े नेताओं को मालूम है कि अगर वे भ्रष्टाचार के आरोपों में बुरी तरह से घिरे हुए बी एस येदुरप्पा को पैदल करेगें तो उनकी कर्नाटक इकाई भंग हो जायेगी क्योंकि येदुरप्पा बगावत कर देगें और अपनी नयी पार्टी बना लेगें . पिछली बार जब दिल्ली वालों ने उन्हें हटाने की कोशिश की थी तो यदुरप्पा ने साफ़ बता दिया था कि वे बीजेपी को ख़त्म कर देगें. बीजेपी के एक बहुत बड़े नेता ने उन दिनों बयान दिया था कि कर्नाटक में कथित रूप से भ्रष्ट येदुरप्पा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जायेगी क्योंकि उसके बाद उनकी पार्टी की औकात वहां शून्य हो जायेगी. यह बात बाकी लोगों के साथ साथ सोनिया गाँधी को भी मालूम है . इसीलिये उनका भ्रष्टाचार वाला भाषण पूरी तरह से कर्नाटक केन्द्रित था. अगर कर्नाटक में बीजेपी ख़त्म होती है तो उसका सीधा फायदा वहां कांग्रेस को होगा . वैसे भी सोनिया गाँधी का भ्रष्टाचार के खिलाफ रुख हमेशा डायरेक्ट रहता है . उन्हें मालूम है कि वे खुद ,मनमोहन सिंह और राहुल गाँधी को किसी भी भ्रष्टाचार के मामले में कोई नहीं पकड़ सकता .बाकी कांग्रेस में ऐसा कोई नेता नहीं है जिसको हटा देने से कांग्रेस का कुछ बिगड़ने वाला है . इसलिए जिसके खिलाफ भी भ्रष्टाचार की चर्चा हो रही है उसको वे बाहर कर दे रही हैं . यह सुख बीजेपी वालों के पास नहीं है . उनके कई ऐसे नेता भ्रष्टाचार के जाल में हैं जिनको अगर निकाल दिया जाय तो पार्टी ही ख़त्म हो जायेगी. बड़ी मुश्किल से बीजेपी के हाथ २जी स्पेक्ट्रम वाला मामला आया था लेकिन हालात ऐसे बने कि अब उसकी जांच २००१ से शुरू हो रही है . इसका भावार्थ यह हुआ कि अगले दो वर्षों तक बीजेपी के राज में संचार मंत्री रहे पार्टी के नेताओं अरुण शोरी और स्व प्रमोद महाजन के कार्यकाल के भ्रष्टाचार मीडिया को लीक किये जायेगें और बीजेपी के प्रवक्ता लोग कोई जवाब नहीं दे पायेगें. तब तक तो बीजेपी को कांग्रेस और मीडिया में उसके साथी महाभ्रष्ट के रूप में पेश कर चुके होंगें. लुब्बो लुबाब यह है कि राजनीति के मैदान में सोनिया गाँधी का बुराड़ी भाषण जो धमक पैदा करने जा रहा है, उसका असर दूर तलक महसूस किया जाएगा.
लेकिन बुराड़ी का असल सन्देश यह नहीं है . भ्रष्टाचार के खेल में बीजे पी ने कांग्रेस को घेरने की रणनीति के सहारे विपक्षी एकता को पुख्ता करने की कोशिश की थी, बुराड़ी लाइन ने उसे तहस नहस कर दिया है . अब अगर बीजेपी येदुरप्पा को नहीं हटाती तो शरद यादव जैसे वफादार के लिए भी बीजेपी के साथ खड़े रह पाना बहुत मुश्किल होगा . इस भाषण ने भ्रष्टाचार को राजनीतिक मुद्दा बना सकने की बीजेपी की ताक़त को ख़त्म कर दिया है क्योंकि जिस तरह से राजनीतिक शतरंज की गोटें बिछ रही हैं ,उसके बाद बीजेपी को दुनिया कांग्रेस से ज्यादा भ्रष्ट मानना शुरू कर देगी.बुराड़ी का असल सन्देश यह है कि सोनिया गाँधी ने साम्प्रदायिकता के मैदान में बीजेपी को चुनौती दी है . राहुल गाँधी के विकीलीक्स रहस्योद्घाटन के बाद जिस तरह से बीजेपी वाले टूट पड़े थे , उस खेल को बुराड़ी ने बिलकुल नाकाम कर दिया है . सोनिया गाँधी ने बिना नाम लिए आर एस एस की साम्प्रदायिकता और उस से जुड़े आतंकवाद को बेनकाब करने के अभियान की शुरुआत कर दी है . इस राजनीतिक सन्देश की बात दूर तलक जायेगी. जो बात सोनिया गाँधी ने नहीं कही उसे दिग्विजय सिंह ने पूरा कर दिया . उन्होंने साफ़ कह दिया कि आर एस एस की विचारधारा हिटलर वाली है . जैसे हिटलर ने यहूदियों को ख़त्म करने की राजनीति की थी ,ठीक उसी तरह आर एस एस भी मुसलमानों को ख़त्म करने की योजना पर काम कर रहा है . बुराड़ी का यह सन्देश बीजेपी के लिए भारी मुश्किल पैदा कर देगा . इसमें दो राय नहीं है कि आर एस एस की विचारधारा पूरी तरह से हिटलर की लाइन पर आधारित है . १९३७ में आर एस एस के दूसरे सर संघचालक , गोलवलकर ने एक किताब लिखकर हिटलर की तारीफ़ की थी .गोलवलकर की किताब ,वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड , में हिटलर और उसकी राजनीति को महान बताया गया है . बीजेपी और आर एस एस के मौजूदा नेता कहते हैं कि बीजेपी ने वह किताब वापस ले ली है लेकिन इस बात का कोई अर्थ नहीं रह जाता . वैसे भी जिस हिंदुत्व की बात आर एस एस करता है ,वह हिन्दू धर्म नहीं है . हिंदुत्व वास्तव में सावरकर की राजनीतिक विचारधारा है जिसके आधार पर नागपुर में १९२५ में आर एस एस की स्थापना की गयी थी . यह विचारधारा इटली के चिन्तक माज़िनी की सोच पर आधारित है जिसके आधार पर इटली में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर ने राजनीतिक अभियान चलाया था . उसी विचारधारा को संघी विचारधारा बताकर दिग्विजय सिंह ने बीजेपी और संघी राजनीति के अन्य समर्थकों को आइना दिखाया है . बुराड़ी में सोनिया गाँधी के भाषण का नतीजा यह होगा कि अब साम्प्रदायिकता के मसले पर दिग्विजय सिंह की लाइन को कांग्रेस की आफिशियल लाइन बना दिया गया जाएगा .
एक बात और ऐतिहासिक रूप से सत्य है . वह यह कि जब भी कांग्रेस आर एस एस के खिलाफ हमलावर होती है उसे राजनीतिक सफलता मिलती है . महात्मा गाँधी की हत्या और उसमें आर एस एस के नेताओं की गिरफ्तारी के बाद नेहरू-पटेल की कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता को पूरी तरह से बैकफुट पर ला दिया था .नतीजा यह हुआ कि १९६२ तक कांग्रेस की ताक़त मज़बूत बनी रही. नेहरू की मृत्यु के बाद साम्प्रदायिकता के खिलाफ अभियान कुछ ढीला पड़ गया था .नतीजा यह हुआ कि पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस १९६७ का चुनाव हार गयी थी . जब १९६९ में कांग्रेस के तो टुकड़े हुए तो दक्षिण पंथी और साम्प्रदायिक ताक़तों के खिलाफ इंदिरा गांधी ने ज़बरदस्त हमला बोला और १९७१ में भारी बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हुईं . १९७४ में जब उनका बिगडैल बेटा संजय गाँधी राजनीति में आया तो उसने भी साफ्ट हिंदुत्व की लाइन शुरू कर दी और १९७७ में कांग्रेस बुरी तरह से हार गयी. इंदिरा गाँधी ने १९७७ से लेकर १९७९ तक साम्प्रद्यिकता के खिलाफ अभियान चलाया और १९८० में दुबारा सत्ता में आ गयीं . लगता है कि इस बार भी सोनिया गांधी को सही सलाह मिल रही है और वे आर एस एस -बीजेपी को राजनीतिक रूप से ख़त्म करने की रणनीति पर काम कर रही हैं . ज़ाहिर है आने वाला वक़्त राजनीतिक विश्लेषकों के लिए बहुत ही दिलचस्प होने वाला है
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Sunday, December 19, 2010
हर तरह के आतंकवाद से देश की एकता को भारी ख़तरा
शेष नारायण सिंह
विकीलीक्स के दस्तावेजों में अमरीकी राजदूत ने अपने आकाओं को सूचित किया है कि राहुल गाँधी ने उनसे कहा था कि दक्षिणपंथी हिन्दू आतंकवाद से देश को ज्यादा ख़तरा है . जब बात पब्लिक हुई तो आर एस एस और उसके अधीन संगठनों के नेता टूट पड़े और यह साबित करने में जुट गए कि राहुल गांधी हिन्दुओं के खिलाफ बोल रहे हैं . दिन भर टेलीविज़न चैनलों पर संघ के बडबोले हिमयातियों का क़ब्ज़ा रहा और राहुल गाँधी को हिन्दू विरोधी साबित करने के लिए बड़े बड़े सूरमा तरह तरह के ज्ञान देते रहे . कांग्रेस वाले भी भांति भांति की बातों से राहुल गांधी को हिन्दू प्रेमी साबित करते रहे . काग्रेसियों की इस दुविधा का लाभ संघी आतंकवाद के समर्थकों को मिल रहा था और अपने आपको देश के सभी हिन्दुओं का प्रतिनिधि साबित करने का सपना पूरा होता दिख रहा था . इस सारे खेल में बीजेपी के गंभीर नेता शामिल नहीं थे. अरुण जेटली और सुषमा स्वराज ने अपने आपको इस खेल से बाहर ही रखा . बीजेपी के दूसरी कतार के नेता ही दिन भर सक्रिय रहे. लेकिन शाम होते होते माहौल बदलना शुरू हो गया . जब टी वी समाचारों के किसी चैनल ने मणि शंकर अय्यर को उतारा और उन्होंने संघी आतंकवाद पर हमला बोलना शुरू किया. मणि शंकर अय्यर ने साफ़ कहा कि राहुल गाँधी ने क्या कहा ,उन्हें नहीं मालूम है . कांग्रेस का औपचारिक दृष्टिकोण क्या है यह भी उन्हें नहीं मालूम लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि संघी आतंकवाद से देश की एकता और अखंडता को बहुत ज्यादा ख़तरा है . उन्होंने कहा कि यह देश का सौभाग्य है कि आर एस एस और उसके मातहत संगठनों को देश के ज़्यादातर हिन्दू नफरत की नज़र से देखते हैं और आर एस एस की सभी हिंदुओं का प्रतिनधि बनने की कोशिशों का विरोध करते हैं . मणि शंकर के हस्तक्षेप के बाद आर एस एस वाले थोडा घबराये नज़र आने लगे . कांग्रेस में सक्रिय चापलूस नेताओं ने भी हिम्मत करके बात को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया . और अब लगता है कि कांग्रेस का नेतृत्व आर एस एस के आतंकवाद को बहस की मुख्य धारा में लाने का मन बना चुका है . मुल्क तैयार है और कांग्रेसियों को भी अंदाज़ लग गया है कि आर एस एस के बडबोले नेताओं को काबू में करने की ज़रुरत है और उन्हें यह साफ़ बता देना भी ज़रूरी है कि संघी आतंकवाद बीजेपी की विचार धारा का एक ज़रूरी पह्लू है . जहां तक राहुल गाँधी का सवाल है उनका बयान उस दौर में दिया गया लगता है जब मुंबई के जांबाज़ पुलिस अफसर हेमंत करकरे जिंदा थे और कई आतंकी घटनाओं में आर एस एस वालों की साज़िश का पर्दाफ़ाश हो रहा था .दुनिया जानती है कि बहुमत के आतंकवाद के बाद देश के अस्तित्व पर ख़तरा आ जात अहै . पाकिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है . जब वहां पर जिया उल हक के शासन काल में आतंकवाद के सहारे अपने देश में और भारत में पाकिस्तानी आई एस आई के ने नरक मचा रखा था तो जानकार समझ गए थे कि पाकिस्तान के विखंडन को कोई नहीं रोक सकता . आज पाकिस्तान की जो भी दुर्दशा है वह इसी बहुमत के आतंकवाद की वजह से है . भारत में भी अगर आर एस एस की चली तो वही पाकिस्तानी हालात पैदा हो जायेगे . मणि शंकर अय्यर के हस्तक्षेप के बाद संघी आतंकवाद के पोषक बैकफुट पर चले गए हैं .
पता चला है कि कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन में भी संघी आतंकवाद को देश में आतंकी माहौल पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार ठहराने की योजना है . यह देश हित के लिए ज़रूरी भी है . टी वी न्यूज़ चैनलों पर अपने विचार रखते हुए मणि शंकर अय्यर ने जो कहा था अगर कांग्रेस के लोग उसे अपनी नीति का हिस्सा बना लें तो आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाले संगठनों को अगले कई वर्षों तक अपने आपको निर्दोष साबित करने में लग जाएगा . कम से कम हमलावर होने का मौक़ा तो नहीं ही लगेगा .कांग्रेस के राजनीतिक प्रस्ताव में महात्मा गाँधी की हत्या को सबसे बड़ा आतंकवाद बताने की योजना है .यह भी कोशिश की जायेगी कि हिन्दू धर्म और सावरकर के हिंदुत्व के अंतर पर भी मीमांसा हो .दुनिया जानती है कि सावरकर का हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका उद्देश्य बहुसंख्यक हिन्दुओं को राजनीतिक काम के लिए इस्तेमाल करना है . इसका सफल प्रयोग १९९२ के ६ दिसंबर को आर एस एस ने अयोध्या में किया था . बाबरी मस्जिद के ध्वंस के वक़्त अयोध्या पंहुचे लोग हिन्दू थे लेकिन उन्हें न तो हिंदुत्व से कुछ भी लेना देना था और न ही आर एस एस से. आर एस एस की कोशिश है कि आगे भी इस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया जाय लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि काठ की हांडी को दुबारा चढ़ाना असंभव माना जाता है . सभी हिन्दुओं का नुमाइंदा बनने की आर एस एस की कोशिश का भी वही हाल होगा जो इसके पहले के संघी आतंकवाद के पोषकों का हुआ था . आज अपना देश इतिहास के उस मोड़ पर है जब सभी धर्म निरपेक्ष जमातों को एक होकर देश को संघी आतंकवाद से बचाने में अपना योगदान करना चाहिए
विकीलीक्स के दस्तावेजों में अमरीकी राजदूत ने अपने आकाओं को सूचित किया है कि राहुल गाँधी ने उनसे कहा था कि दक्षिणपंथी हिन्दू आतंकवाद से देश को ज्यादा ख़तरा है . जब बात पब्लिक हुई तो आर एस एस और उसके अधीन संगठनों के नेता टूट पड़े और यह साबित करने में जुट गए कि राहुल गांधी हिन्दुओं के खिलाफ बोल रहे हैं . दिन भर टेलीविज़न चैनलों पर संघ के बडबोले हिमयातियों का क़ब्ज़ा रहा और राहुल गाँधी को हिन्दू विरोधी साबित करने के लिए बड़े बड़े सूरमा तरह तरह के ज्ञान देते रहे . कांग्रेस वाले भी भांति भांति की बातों से राहुल गांधी को हिन्दू प्रेमी साबित करते रहे . काग्रेसियों की इस दुविधा का लाभ संघी आतंकवाद के समर्थकों को मिल रहा था और अपने आपको देश के सभी हिन्दुओं का प्रतिनिधि साबित करने का सपना पूरा होता दिख रहा था . इस सारे खेल में बीजेपी के गंभीर नेता शामिल नहीं थे. अरुण जेटली और सुषमा स्वराज ने अपने आपको इस खेल से बाहर ही रखा . बीजेपी के दूसरी कतार के नेता ही दिन भर सक्रिय रहे. लेकिन शाम होते होते माहौल बदलना शुरू हो गया . जब टी वी समाचारों के किसी चैनल ने मणि शंकर अय्यर को उतारा और उन्होंने संघी आतंकवाद पर हमला बोलना शुरू किया. मणि शंकर अय्यर ने साफ़ कहा कि राहुल गाँधी ने क्या कहा ,उन्हें नहीं मालूम है . कांग्रेस का औपचारिक दृष्टिकोण क्या है यह भी उन्हें नहीं मालूम लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि संघी आतंकवाद से देश की एकता और अखंडता को बहुत ज्यादा ख़तरा है . उन्होंने कहा कि यह देश का सौभाग्य है कि आर एस एस और उसके मातहत संगठनों को देश के ज़्यादातर हिन्दू नफरत की नज़र से देखते हैं और आर एस एस की सभी हिंदुओं का प्रतिनधि बनने की कोशिशों का विरोध करते हैं . मणि शंकर के हस्तक्षेप के बाद आर एस एस वाले थोडा घबराये नज़र आने लगे . कांग्रेस में सक्रिय चापलूस नेताओं ने भी हिम्मत करके बात को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया . और अब लगता है कि कांग्रेस का नेतृत्व आर एस एस के आतंकवाद को बहस की मुख्य धारा में लाने का मन बना चुका है . मुल्क तैयार है और कांग्रेसियों को भी अंदाज़ लग गया है कि आर एस एस के बडबोले नेताओं को काबू में करने की ज़रुरत है और उन्हें यह साफ़ बता देना भी ज़रूरी है कि संघी आतंकवाद बीजेपी की विचार धारा का एक ज़रूरी पह्लू है . जहां तक राहुल गाँधी का सवाल है उनका बयान उस दौर में दिया गया लगता है जब मुंबई के जांबाज़ पुलिस अफसर हेमंत करकरे जिंदा थे और कई आतंकी घटनाओं में आर एस एस वालों की साज़िश का पर्दाफ़ाश हो रहा था .दुनिया जानती है कि बहुमत के आतंकवाद के बाद देश के अस्तित्व पर ख़तरा आ जात अहै . पाकिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है . जब वहां पर जिया उल हक के शासन काल में आतंकवाद के सहारे अपने देश में और भारत में पाकिस्तानी आई एस आई के ने नरक मचा रखा था तो जानकार समझ गए थे कि पाकिस्तान के विखंडन को कोई नहीं रोक सकता . आज पाकिस्तान की जो भी दुर्दशा है वह इसी बहुमत के आतंकवाद की वजह से है . भारत में भी अगर आर एस एस की चली तो वही पाकिस्तानी हालात पैदा हो जायेगे . मणि शंकर अय्यर के हस्तक्षेप के बाद संघी आतंकवाद के पोषक बैकफुट पर चले गए हैं .
पता चला है कि कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन में भी संघी आतंकवाद को देश में आतंकी माहौल पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार ठहराने की योजना है . यह देश हित के लिए ज़रूरी भी है . टी वी न्यूज़ चैनलों पर अपने विचार रखते हुए मणि शंकर अय्यर ने जो कहा था अगर कांग्रेस के लोग उसे अपनी नीति का हिस्सा बना लें तो आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाले संगठनों को अगले कई वर्षों तक अपने आपको निर्दोष साबित करने में लग जाएगा . कम से कम हमलावर होने का मौक़ा तो नहीं ही लगेगा .कांग्रेस के राजनीतिक प्रस्ताव में महात्मा गाँधी की हत्या को सबसे बड़ा आतंकवाद बताने की योजना है .यह भी कोशिश की जायेगी कि हिन्दू धर्म और सावरकर के हिंदुत्व के अंतर पर भी मीमांसा हो .दुनिया जानती है कि सावरकर का हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका उद्देश्य बहुसंख्यक हिन्दुओं को राजनीतिक काम के लिए इस्तेमाल करना है . इसका सफल प्रयोग १९९२ के ६ दिसंबर को आर एस एस ने अयोध्या में किया था . बाबरी मस्जिद के ध्वंस के वक़्त अयोध्या पंहुचे लोग हिन्दू थे लेकिन उन्हें न तो हिंदुत्व से कुछ भी लेना देना था और न ही आर एस एस से. आर एस एस की कोशिश है कि आगे भी इस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया जाय लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि काठ की हांडी को दुबारा चढ़ाना असंभव माना जाता है . सभी हिन्दुओं का नुमाइंदा बनने की आर एस एस की कोशिश का भी वही हाल होगा जो इसके पहले के संघी आतंकवाद के पोषकों का हुआ था . आज अपना देश इतिहास के उस मोड़ पर है जब सभी धर्म निरपेक्ष जमातों को एक होकर देश को संघी आतंकवाद से बचाने में अपना योगदान करना चाहिए
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शेष नारायण सिंह
Saturday, December 18, 2010
गृहमंत्री ने गरीब आदमी को अपराधी कहकर बड़ी गलती की
शेष नारायण सिंह
पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली को अपराध की राजधानी कहा जाने लगा है .शहर में रोज़ ही दो चार बलात्कार होते हैं , कतल होते हैं . बुज़ुर्ग नागरिकों का दिल्ली में रहना मुश्किल है . हर हफ्ते ही किसी न किसी कालोनी से किसी बुज़ुर्ग की ह्त्या की खबरें आती रहती हैं . यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि दिल्ली में अपराध रोक पाने में केंद्र और दिल्ली की कांग्रेस सरकारें पूरी तरह से असफल रही हैं लेकिन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने दिल्ली में बढ़ते अपराध के लिए दिल्ली शहर में रोजी रोटी की तलाश में आये लोगों ज़िम्मेदार ठहरा दिया है .नयी दिल्ली के सिटी सेंटर के उदघाटन के मौके पर गृहमंत्री ने फरमाया कि दिल्ली में बहुत बड़ी संख्या में अनधिकृत कालोनियां हैं .बाहर से आकर जो लोग इन कालोनियों में रहते हैं . उनका आचरण एक आधुनिक शहर में रहने वालों को मंज़ूर नहीं है और इसकी वजह सी अपराध में वृद्धि होती है . यह अलग बात है कि बाद में उन्होंने अपना बयान वापस ले लिया लेकिन बयान दे कर शासक वर्गों की नकारात्मक सोच को रेखांकित कर दिया .यह लोग ऐसे ही सोचते हैं . अपने इस बयान के बाद पी चिदंबरम ने इतिहास के बारे में अपनी समझ को भी उजागर कर दिया है . अब हम जानते हैं कि चिदंबरम जी की इतिहास की समझ कितनी अजीब है . अपने बयान से उन्होंने यह बता दिया है कि उन्हें मालूम ही नहीं है कि दिल्ली वास्तव में बाहर से आये हुए लोगों का शहर है . कुछ लोग बाद में आये और कुछ लोग पहले चुके थे .अगर वे १९५१ की जनगणना की रिपोर्ट पर नज़र डालें तो उन्हें पता लग जाएगा कि उस साल दिल्ली की आबादी चार लाख पैंसठ हज़ार थी जबकि कानपुर की आबादी चार लाख पचहत्तर हज़ार थी . श्री चिदंबरम की पार्टी की गलत आर्थिक और औद्योगिक नीतियों के कारण आज कानपुर शहर उजड़ गया और दिल्ली शहर की आबादी तब से पच्चीस गुना से भी ज्यादा बढ़ गयी. १९५१ में दिल्ली में तीन मिलें थीं जबकि कानपुर में सैकड़ों मिलें थीं और इतना बड़ा औद्योगिक तंत्र था कि उसे मानचेस्टर ऑफ़ द ईस्ट कहते थे. कानपुर में आ कर अपनी रोजी रोटी कमाने वालों के वंशज दिल्ली आने लगे. उसके बाद भी गाँवों के विकास के लिए केंद्र और राज्यों की कांग्रेसी सरकारों ने कुछ नहीं किया और आज उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों में रहने वाले गरीब लोग दिल्ली भागकर अपनी दो जून की रोटी कमाने के लिए अभिशप्त हैं.राजनीति की इस गैरजिम्मेदार प्रक्रिया की वजह से आम आदमी दिल्ली में आता है और शासक वर्गों की गालियाँ खाता है .
दिल्ली की या किसी भी बड़े शहर की बढ़ती आबादी के लिए देश के गाँवों में विकास की शून्यता है . भारत को गाँवों का देश कहा जाता है . लेकिन गाँवों के विकास के लिए सरकारी नीतियों में बहुत ही तिरस्कार का भाव रहता है .पहली पंचवर्षीय योजना में जो कुछ गाँवों के लिए तय किया गया था , वह भी नहीं पूरा किया जा सका जबकि शहरों के विकास के लिए नित ही नयी योजनायें बनती रहीं . नतीजा यह हुआ कि गाँवों और शहरों के बीच की खाईं लगातार बढ़ती रही. सत्तर के दशक में तो ग्रामीण विकास का ज़िम्मा पूरी तरह से उन लोगों के आर्थिक योगदान के हवाले कर दिया गया तो शहरों में रहते थे और अपने गाँव में मनी आर्डर भेजते थे . गाँवों के आर्थिक विकास के लिए पहली पंच वर्षीय योजना में ब्लाक की स्थापना की गयी और ब्लाक को ही विकास की यूनिट मान लिया गया . यह महात्मा गांधी की सोच से बिलकुल अलग तरह की सोच का नतीजा था . गाँधी जी ने कहा था कि गाँव को विकास की इकाई बनाया जाय और ग्रामीण स्तर पर उपलब्ध संसाधनों को गाँव के विकास में लगाया जाय . उन्होंने अपनी किताब ग्राम स्वराज के हवाले से भारत की आज़ादी के बाद के भारत के विकास के लिए एक विचार प्रस्तुत किया था . उन्हें उम्मीद थी आज़ादी के बाद गाँवों के विकास को प्राथमिकता दी जायेगी . महात्मा जी की इच्छा थी कि पंचायती राज संस्थाओं को इतना मज़बूत कर दिया जाय कि ग्रामीण स्तर पर ही बहुत सारी समस्याओं का हल निकल आये लेकिन चिदंबरम के कांग्रेसी पूर्वजों ने ऐसा नहीं होने दिया और ब्लाक डेवलपमेंट के खेल में देश के गाँवों के आर्थिक विकास को फंसा दिया . कांग्रेस ने जो दोषपूर्ण विकास का माडल १९५० में बनाया था ,आज उत्तर प्रदेश ,बिहार और बाकी राज्यों के गाँवों में रहने वाला व्यक्ति उसी का शिकार हो रहा है.उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों में रोज़गार के अवसर बिलकुल नहीं हैं .नेताओं के साथ जुड़कर कुछ युवक ठेकेदारी वगैरह में एडजस्ट हो जाते हैं . बड़ी संख्या में नौजवान लोग मुकामी नेताओं के आस पास मंडराते रहते हैं और उम्मीद लगाए रहते हैं कि शायद कभी न कभी कोई काम हो जाएगा .उनमें न तो हिम्मत की कमी है और न ही उद्यमिता की . सरकारी नीतियों की गड़बड़ी की वजह से उनके पास अवसर की भारी कमी रहती है.और इस अवसर की कमी के लिए गलत राजनीतिक फैसले जिम्मेवार रहते हैं. एक उदाहरण से बात और साफ़ हो जायेगी . जब से ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के तहत गाँवों में काम शुरू हुआ है उत्तर प्रदेश और बिहार से पंजाब जा कर खेतिहर मजदूर बनने वालों की संख्या में भारी कमी आई है .इसका मतलब यह हुआ कि अगर गाँवों में रोज़गार के नाम पर मजदूरी के अवसर भी मिलें तो नौजवान दिल्ली जैसे बड़े शहरों में आने के बारे में सोचना बंद कर देगें . तकलीफ की बात यह है कि अपना घर बार और परिवार छोड़कर दिल्ली आने वाला नौजवान यहाँ दिल्ली में उन लोगों की ज़बान से अपराध के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है जिनकी पार्टी के गलत नीतियों के कारण उसके गाँवों की दुर्दशा हई है .
दिल्ली के अपराधों के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों से आकर अनधिकृत बस्तियों में रहने वाले लोगों को जिम्मेवार ठहराने वाले चिदम्बरम के मंत्रालय के अधीन काम करने वाले पुलिस विभाग को ही दिल्ली के अपराधों के लिए सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए.दिल्ली के अपराधों के आंकड़ों पर गौर किया जाय तो पता लगेगा कि लगभग सभी अपराधों में दिल्ली पुलिस की मिली भगत रहती है . अपराध के हर मामले में दिल्ली पुलिस का हफ्ता वसूली अभियान शामिल पाया जाता है . हर थाने का जो भी इंचार्ज है उस से ऊपर के अधिकारी जो सेवा लेते हैं वह तनखाह से तो नहीं पूरा किया जा सकता . किसी न किसी अपराधी गतिविधि से ही मिलता है . गृह मंत्री जी को चाहिए कि इस तरह की गतिविधियों पर लगाम लगाने के लिए कोई कारगर क़दम उठायें . दिल्ली में जहां तक अपराधों की बात है उनकी पार्टी के ही सुरेश कलमाडी हैं और उनकी पार्टी के सहयोगी ए राजा हैं . क्या उन्हें यह बताने की ज़रुरत है कि इतिहास के बहुत बड़े आर्थिक अपराधियों के जब भीसूची बनेगी , इन महानुभावों का नाम उसमें बहुत ऊपर होगा . इसलिए भारत के गृह मंत्री को चाहिए कि गरीब आदमी को अपराधी कहने के पहले थोडा सोच विचार कर लें वरना उनको भी जनता एक गैर ज़िम्मेदार नेता के रूप में पहचानना शुरू कर देगी.
पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली को अपराध की राजधानी कहा जाने लगा है .शहर में रोज़ ही दो चार बलात्कार होते हैं , कतल होते हैं . बुज़ुर्ग नागरिकों का दिल्ली में रहना मुश्किल है . हर हफ्ते ही किसी न किसी कालोनी से किसी बुज़ुर्ग की ह्त्या की खबरें आती रहती हैं . यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि दिल्ली में अपराध रोक पाने में केंद्र और दिल्ली की कांग्रेस सरकारें पूरी तरह से असफल रही हैं लेकिन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने दिल्ली में बढ़ते अपराध के लिए दिल्ली शहर में रोजी रोटी की तलाश में आये लोगों ज़िम्मेदार ठहरा दिया है .नयी दिल्ली के सिटी सेंटर के उदघाटन के मौके पर गृहमंत्री ने फरमाया कि दिल्ली में बहुत बड़ी संख्या में अनधिकृत कालोनियां हैं .बाहर से आकर जो लोग इन कालोनियों में रहते हैं . उनका आचरण एक आधुनिक शहर में रहने वालों को मंज़ूर नहीं है और इसकी वजह सी अपराध में वृद्धि होती है . यह अलग बात है कि बाद में उन्होंने अपना बयान वापस ले लिया लेकिन बयान दे कर शासक वर्गों की नकारात्मक सोच को रेखांकित कर दिया .यह लोग ऐसे ही सोचते हैं . अपने इस बयान के बाद पी चिदंबरम ने इतिहास के बारे में अपनी समझ को भी उजागर कर दिया है . अब हम जानते हैं कि चिदंबरम जी की इतिहास की समझ कितनी अजीब है . अपने बयान से उन्होंने यह बता दिया है कि उन्हें मालूम ही नहीं है कि दिल्ली वास्तव में बाहर से आये हुए लोगों का शहर है . कुछ लोग बाद में आये और कुछ लोग पहले चुके थे .अगर वे १९५१ की जनगणना की रिपोर्ट पर नज़र डालें तो उन्हें पता लग जाएगा कि उस साल दिल्ली की आबादी चार लाख पैंसठ हज़ार थी जबकि कानपुर की आबादी चार लाख पचहत्तर हज़ार थी . श्री चिदंबरम की पार्टी की गलत आर्थिक और औद्योगिक नीतियों के कारण आज कानपुर शहर उजड़ गया और दिल्ली शहर की आबादी तब से पच्चीस गुना से भी ज्यादा बढ़ गयी. १९५१ में दिल्ली में तीन मिलें थीं जबकि कानपुर में सैकड़ों मिलें थीं और इतना बड़ा औद्योगिक तंत्र था कि उसे मानचेस्टर ऑफ़ द ईस्ट कहते थे. कानपुर में आ कर अपनी रोजी रोटी कमाने वालों के वंशज दिल्ली आने लगे. उसके बाद भी गाँवों के विकास के लिए केंद्र और राज्यों की कांग्रेसी सरकारों ने कुछ नहीं किया और आज उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों में रहने वाले गरीब लोग दिल्ली भागकर अपनी दो जून की रोटी कमाने के लिए अभिशप्त हैं.राजनीति की इस गैरजिम्मेदार प्रक्रिया की वजह से आम आदमी दिल्ली में आता है और शासक वर्गों की गालियाँ खाता है .
दिल्ली की या किसी भी बड़े शहर की बढ़ती आबादी के लिए देश के गाँवों में विकास की शून्यता है . भारत को गाँवों का देश कहा जाता है . लेकिन गाँवों के विकास के लिए सरकारी नीतियों में बहुत ही तिरस्कार का भाव रहता है .पहली पंचवर्षीय योजना में जो कुछ गाँवों के लिए तय किया गया था , वह भी नहीं पूरा किया जा सका जबकि शहरों के विकास के लिए नित ही नयी योजनायें बनती रहीं . नतीजा यह हुआ कि गाँवों और शहरों के बीच की खाईं लगातार बढ़ती रही. सत्तर के दशक में तो ग्रामीण विकास का ज़िम्मा पूरी तरह से उन लोगों के आर्थिक योगदान के हवाले कर दिया गया तो शहरों में रहते थे और अपने गाँव में मनी आर्डर भेजते थे . गाँवों के आर्थिक विकास के लिए पहली पंच वर्षीय योजना में ब्लाक की स्थापना की गयी और ब्लाक को ही विकास की यूनिट मान लिया गया . यह महात्मा गांधी की सोच से बिलकुल अलग तरह की सोच का नतीजा था . गाँधी जी ने कहा था कि गाँव को विकास की इकाई बनाया जाय और ग्रामीण स्तर पर उपलब्ध संसाधनों को गाँव के विकास में लगाया जाय . उन्होंने अपनी किताब ग्राम स्वराज के हवाले से भारत की आज़ादी के बाद के भारत के विकास के लिए एक विचार प्रस्तुत किया था . उन्हें उम्मीद थी आज़ादी के बाद गाँवों के विकास को प्राथमिकता दी जायेगी . महात्मा जी की इच्छा थी कि पंचायती राज संस्थाओं को इतना मज़बूत कर दिया जाय कि ग्रामीण स्तर पर ही बहुत सारी समस्याओं का हल निकल आये लेकिन चिदंबरम के कांग्रेसी पूर्वजों ने ऐसा नहीं होने दिया और ब्लाक डेवलपमेंट के खेल में देश के गाँवों के आर्थिक विकास को फंसा दिया . कांग्रेस ने जो दोषपूर्ण विकास का माडल १९५० में बनाया था ,आज उत्तर प्रदेश ,बिहार और बाकी राज्यों के गाँवों में रहने वाला व्यक्ति उसी का शिकार हो रहा है.उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों में रोज़गार के अवसर बिलकुल नहीं हैं .नेताओं के साथ जुड़कर कुछ युवक ठेकेदारी वगैरह में एडजस्ट हो जाते हैं . बड़ी संख्या में नौजवान लोग मुकामी नेताओं के आस पास मंडराते रहते हैं और उम्मीद लगाए रहते हैं कि शायद कभी न कभी कोई काम हो जाएगा .उनमें न तो हिम्मत की कमी है और न ही उद्यमिता की . सरकारी नीतियों की गड़बड़ी की वजह से उनके पास अवसर की भारी कमी रहती है.और इस अवसर की कमी के लिए गलत राजनीतिक फैसले जिम्मेवार रहते हैं. एक उदाहरण से बात और साफ़ हो जायेगी . जब से ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के तहत गाँवों में काम शुरू हुआ है उत्तर प्रदेश और बिहार से पंजाब जा कर खेतिहर मजदूर बनने वालों की संख्या में भारी कमी आई है .इसका मतलब यह हुआ कि अगर गाँवों में रोज़गार के नाम पर मजदूरी के अवसर भी मिलें तो नौजवान दिल्ली जैसे बड़े शहरों में आने के बारे में सोचना बंद कर देगें . तकलीफ की बात यह है कि अपना घर बार और परिवार छोड़कर दिल्ली आने वाला नौजवान यहाँ दिल्ली में उन लोगों की ज़बान से अपराध के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है जिनकी पार्टी के गलत नीतियों के कारण उसके गाँवों की दुर्दशा हई है .
दिल्ली के अपराधों के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों से आकर अनधिकृत बस्तियों में रहने वाले लोगों को जिम्मेवार ठहराने वाले चिदम्बरम के मंत्रालय के अधीन काम करने वाले पुलिस विभाग को ही दिल्ली के अपराधों के लिए सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए.दिल्ली के अपराधों के आंकड़ों पर गौर किया जाय तो पता लगेगा कि लगभग सभी अपराधों में दिल्ली पुलिस की मिली भगत रहती है . अपराध के हर मामले में दिल्ली पुलिस का हफ्ता वसूली अभियान शामिल पाया जाता है . हर थाने का जो भी इंचार्ज है उस से ऊपर के अधिकारी जो सेवा लेते हैं वह तनखाह से तो नहीं पूरा किया जा सकता . किसी न किसी अपराधी गतिविधि से ही मिलता है . गृह मंत्री जी को चाहिए कि इस तरह की गतिविधियों पर लगाम लगाने के लिए कोई कारगर क़दम उठायें . दिल्ली में जहां तक अपराधों की बात है उनकी पार्टी के ही सुरेश कलमाडी हैं और उनकी पार्टी के सहयोगी ए राजा हैं . क्या उन्हें यह बताने की ज़रुरत है कि इतिहास के बहुत बड़े आर्थिक अपराधियों के जब भीसूची बनेगी , इन महानुभावों का नाम उसमें बहुत ऊपर होगा . इसलिए भारत के गृह मंत्री को चाहिए कि गरीब आदमी को अपराधी कहने के पहले थोडा सोच विचार कर लें वरना उनको भी जनता एक गैर ज़िम्मेदार नेता के रूप में पहचानना शुरू कर देगी.
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