शेष नारायण सिंह
पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली को अपराध की राजधानी कहा जाने लगा है .शहर में रोज़ ही दो चार बलात्कार होते हैं , कतल होते हैं . बुज़ुर्ग नागरिकों का दिल्ली में रहना मुश्किल है . हर हफ्ते ही किसी न किसी कालोनी से किसी बुज़ुर्ग की ह्त्या की खबरें आती रहती हैं . यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि दिल्ली में अपराध रोक पाने में केंद्र और दिल्ली की कांग्रेस सरकारें पूरी तरह से असफल रही हैं लेकिन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने दिल्ली में बढ़ते अपराध के लिए दिल्ली शहर में रोजी रोटी की तलाश में आये लोगों ज़िम्मेदार ठहरा दिया है .नयी दिल्ली के सिटी सेंटर के उदघाटन के मौके पर गृहमंत्री ने फरमाया कि दिल्ली में बहुत बड़ी संख्या में अनधिकृत कालोनियां हैं .बाहर से आकर जो लोग इन कालोनियों में रहते हैं . उनका आचरण एक आधुनिक शहर में रहने वालों को मंज़ूर नहीं है और इसकी वजह सी अपराध में वृद्धि होती है . यह अलग बात है कि बाद में उन्होंने अपना बयान वापस ले लिया लेकिन बयान दे कर शासक वर्गों की नकारात्मक सोच को रेखांकित कर दिया .यह लोग ऐसे ही सोचते हैं . अपने इस बयान के बाद पी चिदंबरम ने इतिहास के बारे में अपनी समझ को भी उजागर कर दिया है . अब हम जानते हैं कि चिदंबरम जी की इतिहास की समझ कितनी अजीब है . अपने बयान से उन्होंने यह बता दिया है कि उन्हें मालूम ही नहीं है कि दिल्ली वास्तव में बाहर से आये हुए लोगों का शहर है . कुछ लोग बाद में आये और कुछ लोग पहले चुके थे .अगर वे १९५१ की जनगणना की रिपोर्ट पर नज़र डालें तो उन्हें पता लग जाएगा कि उस साल दिल्ली की आबादी चार लाख पैंसठ हज़ार थी जबकि कानपुर की आबादी चार लाख पचहत्तर हज़ार थी . श्री चिदंबरम की पार्टी की गलत आर्थिक और औद्योगिक नीतियों के कारण आज कानपुर शहर उजड़ गया और दिल्ली शहर की आबादी तब से पच्चीस गुना से भी ज्यादा बढ़ गयी. १९५१ में दिल्ली में तीन मिलें थीं जबकि कानपुर में सैकड़ों मिलें थीं और इतना बड़ा औद्योगिक तंत्र था कि उसे मानचेस्टर ऑफ़ द ईस्ट कहते थे. कानपुर में आ कर अपनी रोजी रोटी कमाने वालों के वंशज दिल्ली आने लगे. उसके बाद भी गाँवों के विकास के लिए केंद्र और राज्यों की कांग्रेसी सरकारों ने कुछ नहीं किया और आज उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों में रहने वाले गरीब लोग दिल्ली भागकर अपनी दो जून की रोटी कमाने के लिए अभिशप्त हैं.राजनीति की इस गैरजिम्मेदार प्रक्रिया की वजह से आम आदमी दिल्ली में आता है और शासक वर्गों की गालियाँ खाता है .
दिल्ली की या किसी भी बड़े शहर की बढ़ती आबादी के लिए देश के गाँवों में विकास की शून्यता है . भारत को गाँवों का देश कहा जाता है . लेकिन गाँवों के विकास के लिए सरकारी नीतियों में बहुत ही तिरस्कार का भाव रहता है .पहली पंचवर्षीय योजना में जो कुछ गाँवों के लिए तय किया गया था , वह भी नहीं पूरा किया जा सका जबकि शहरों के विकास के लिए नित ही नयी योजनायें बनती रहीं . नतीजा यह हुआ कि गाँवों और शहरों के बीच की खाईं लगातार बढ़ती रही. सत्तर के दशक में तो ग्रामीण विकास का ज़िम्मा पूरी तरह से उन लोगों के आर्थिक योगदान के हवाले कर दिया गया तो शहरों में रहते थे और अपने गाँव में मनी आर्डर भेजते थे . गाँवों के आर्थिक विकास के लिए पहली पंच वर्षीय योजना में ब्लाक की स्थापना की गयी और ब्लाक को ही विकास की यूनिट मान लिया गया . यह महात्मा गांधी की सोच से बिलकुल अलग तरह की सोच का नतीजा था . गाँधी जी ने कहा था कि गाँव को विकास की इकाई बनाया जाय और ग्रामीण स्तर पर उपलब्ध संसाधनों को गाँव के विकास में लगाया जाय . उन्होंने अपनी किताब ग्राम स्वराज के हवाले से भारत की आज़ादी के बाद के भारत के विकास के लिए एक विचार प्रस्तुत किया था . उन्हें उम्मीद थी आज़ादी के बाद गाँवों के विकास को प्राथमिकता दी जायेगी . महात्मा जी की इच्छा थी कि पंचायती राज संस्थाओं को इतना मज़बूत कर दिया जाय कि ग्रामीण स्तर पर ही बहुत सारी समस्याओं का हल निकल आये लेकिन चिदंबरम के कांग्रेसी पूर्वजों ने ऐसा नहीं होने दिया और ब्लाक डेवलपमेंट के खेल में देश के गाँवों के आर्थिक विकास को फंसा दिया . कांग्रेस ने जो दोषपूर्ण विकास का माडल १९५० में बनाया था ,आज उत्तर प्रदेश ,बिहार और बाकी राज्यों के गाँवों में रहने वाला व्यक्ति उसी का शिकार हो रहा है.उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों में रोज़गार के अवसर बिलकुल नहीं हैं .नेताओं के साथ जुड़कर कुछ युवक ठेकेदारी वगैरह में एडजस्ट हो जाते हैं . बड़ी संख्या में नौजवान लोग मुकामी नेताओं के आस पास मंडराते रहते हैं और उम्मीद लगाए रहते हैं कि शायद कभी न कभी कोई काम हो जाएगा .उनमें न तो हिम्मत की कमी है और न ही उद्यमिता की . सरकारी नीतियों की गड़बड़ी की वजह से उनके पास अवसर की भारी कमी रहती है.और इस अवसर की कमी के लिए गलत राजनीतिक फैसले जिम्मेवार रहते हैं. एक उदाहरण से बात और साफ़ हो जायेगी . जब से ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के तहत गाँवों में काम शुरू हुआ है उत्तर प्रदेश और बिहार से पंजाब जा कर खेतिहर मजदूर बनने वालों की संख्या में भारी कमी आई है .इसका मतलब यह हुआ कि अगर गाँवों में रोज़गार के नाम पर मजदूरी के अवसर भी मिलें तो नौजवान दिल्ली जैसे बड़े शहरों में आने के बारे में सोचना बंद कर देगें . तकलीफ की बात यह है कि अपना घर बार और परिवार छोड़कर दिल्ली आने वाला नौजवान यहाँ दिल्ली में उन लोगों की ज़बान से अपराध के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है जिनकी पार्टी के गलत नीतियों के कारण उसके गाँवों की दुर्दशा हई है .
दिल्ली के अपराधों के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों से आकर अनधिकृत बस्तियों में रहने वाले लोगों को जिम्मेवार ठहराने वाले चिदम्बरम के मंत्रालय के अधीन काम करने वाले पुलिस विभाग को ही दिल्ली के अपराधों के लिए सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए.दिल्ली के अपराधों के आंकड़ों पर गौर किया जाय तो पता लगेगा कि लगभग सभी अपराधों में दिल्ली पुलिस की मिली भगत रहती है . अपराध के हर मामले में दिल्ली पुलिस का हफ्ता वसूली अभियान शामिल पाया जाता है . हर थाने का जो भी इंचार्ज है उस से ऊपर के अधिकारी जो सेवा लेते हैं वह तनखाह से तो नहीं पूरा किया जा सकता . किसी न किसी अपराधी गतिविधि से ही मिलता है . गृह मंत्री जी को चाहिए कि इस तरह की गतिविधियों पर लगाम लगाने के लिए कोई कारगर क़दम उठायें . दिल्ली में जहां तक अपराधों की बात है उनकी पार्टी के ही सुरेश कलमाडी हैं और उनकी पार्टी के सहयोगी ए राजा हैं . क्या उन्हें यह बताने की ज़रुरत है कि इतिहास के बहुत बड़े आर्थिक अपराधियों के जब भीसूची बनेगी , इन महानुभावों का नाम उसमें बहुत ऊपर होगा . इसलिए भारत के गृह मंत्री को चाहिए कि गरीब आदमी को अपराधी कहने के पहले थोडा सोच विचार कर लें वरना उनको भी जनता एक गैर ज़िम्मेदार नेता के रूप में पहचानना शुरू कर देगी.
Saturday, December 18, 2010
Friday, December 17, 2010
इस बार पिंजर के निदेशक ने बनारस का मैदान लिया है
शेष नारायण सिंह
प्रोफ़ेसर काशी नाथ सिंह हिन्दी के बेहतरीन लेखक हैं . ज़रुरत से ज्यादा ईमानदार हैं और लेखन में अपने गाँव जीयनपुर की माटी की खुशबू के पुट देने से बाज नहीं आते. हिन्दी साहित्य के बहुत बड़े भाई के सबसे छोटे भाई हैं . उनके भईया का नाम दुनिया भर में इज्ज़त से लिया जाता है. और स्कूल से लेकर आज तक हमेशा अपने भइया से उनकी तुलना होती रही है .उनके भइया को उनकी कोई भी कहानी पसंद नहीं आई , अपना मोर्चा जैसा कालजयी उपन्यास भी नहीं . यह अलग बात है कि उस उपन्यास का नाम दुनिया भर में है . कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है ' साठ और सत्तर के दशक की छात्र राजनीति पर लिखा गया वह सबसे अच्छा उपन्यास है . काशीनाथ सिंह फरमाते हैं कि शायद ही उनकी कोई ऐसी कहानी हो जो भइया को पसंद हो लेकिन ऐसा संस्मरण और कथा-रिपोर्ताज भी शायद ही हो जो उन्हें नापसंद हो . शायद इसीलिये काशीनाथ सिंह जैसा समर्थ लेखक कहानी से संस्मरण और फिर संस्मरण से कथा रिपोर्ताज की तरफ गया . उनके भइया भी कोई लल्लू पंजू नहीं , हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष , डॉ नामवर सिंह हैं . नामवर सिंह ने काशी में आठ आने रोज़ पर भी ज़िंदगी बसर की है और इतना ही खर्च करके हिन्दी साहित्य को बहुत बड़ा योगदान दिया है. काशीनाथ सिंह ने बताया है कि उनके भईया ने ज़िंदगी में बहुत कम समझौते किये हैं , हम यह भी जानते हैं कि उनके भइया की आदर्शवादी जिद के कारण परिवार को और काशीनाथ सिंह को बहुत कुछ झेलना पड़ा . काशीनाथ सिंह के लिए तो सबसे बड़ी मुसीबत यही थी कि जाने अनजाने वे जीवन भर नामवर सिंह के बरक्स नापे जाते रहे .जो लोग नामवर सिंह को जानते हैं , उन्हें मालूम है कि किसी भी सभा सोसाइटी में नामवर सिंह का ज़िक्र आ जाने के बाद बाकी कार्यवाही उनके इर्द गिर्द ही घूमती रहती है . मैं यह बात १९७६ से देख रहा हूँ . नामवर सिंह का विरोध करने पर मैंने कुछ लोगों को पिटते भी देखा है . इमरजेंसी के तुरंत बाद ३५ फिरोजशाह रोड , नयी दिल्ली में एक सम्मलेन हुआ था . उस वक़्त की एक बड़ी पत्रिका के सम्पादक का एक चेला मय लाव लश्कर मुंबई से दिल्ली पंहुचा था. बहुत कुछ पैसा कौड़ी बटोर रखा था उसने और नामवर सिंह के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश कर रहा था . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने उस धतेंगड़ की विधिवत पिटाई कर दी थी . पीटने वालों में वे लोग भी थे जो आज के बहुत बड़े कवि और लेखक हैं .उस पहलवान को दो चार ठूंसा मैंने भी लगाया था , . बाद में जब मैंने भाई लोगों से पूछा कि जे एन यू की परंपरा तो बहस की है , इस बेचारे को शारीरिक कष्ट क्यों दिया जा रहा है , तो आज के एक बड़े कवि ने बताया कि भैंस के आगे बीन बजाने की स्वतंत्रता तो सब को है लेकिन उसको समझा सकना हमेशा से असंभव रहा है .इसलिए अगर पशुनुमा साहित्यकार को कुछ समझाना हो तो यही विधि समीचीन मानी गयी है .
मुराद यह है कि काशीनाथ सिंह इस तरह के नामवर इंसान के छोटे भाई हैं . आज भी जब नामवर सिंह उनको "काशीनाथ जी" कहते हैं तो आम तौर पर काशी कहे जाने वाले बाबू साहेब असहज हो जाते हैं. आम तौर पर लेखकों को कुछ भी लिखते समय आलोचक की दहशत नहीं होती लेकिन काशीनाथ सिंह को तो कुछ लिखना शुरू करने से पहले से ही देश के सबसे बड़े आलोचक का आतंक रहता है . एक तो बाघ दुसरे बन्दूक बांधे. लेकिन इन्हीं हालात में डॉ काशीनाथ सिंह ने हिन्दी को बेहतरीन साहित्य दिया है .' घोआस' जैसा नाटक, 'आलोचना भी रचना है ' जैसी समीक्षा ,'अपना मोर्चा 'और ' काशी का अस्सी 'जैसा उपन्यास डॉ काशीनाथ सिंह ने इन्हीं परिस्थितियों में लिखा है. 'अपना मोर्चा ' विश्व साहित्य में अपना मुकाम बना चुका है . और अब पता चला है कि उनके उपन्यास " काशी का अस्सी " को आधार बनाकर एक फिल्म बन रही है . इस फिल्म का निर्माण हिन्दी सिनेमा के चाणक्य , डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी कर रहे हैं .अपने नामी धारावाहिक " चाणक्य " की वजह से दुनिया भर में पहचाने जाने वाले डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने जब अमृता प्रीतम की कहानी के आधार पर फिल्म ' पिंजर ' बनाई थी तो भारत और पाकिस्तान के बँटवारे के दौरान पंजाब में दर्द का जो तांडव हुआ था ,वह सिनेमा के परदे पर जिंदा हो उठा था . छत्तोआनी और रत्तोवाल नाम के गावों के हवाले से जो भी दुनिया ने देखा था , उस से लोग सिहर उठे थे . जिन लोगों ने भारत-पाकिस्तान के विभाजन को नहीं देखा उनकी समझ में कुछ बात आई थी और जिन्होंने देखा था उनका दर्द फिर से ताज़ा हो गया था. मैंने उस फिल्म को अपनी पत्नी के साथ सिनेमा हाल में जाकर देखा था,. मेरी पत्नी फिल्म की वस्तुपरक सच्चाई से सिहर उठी थीं .बाद में मैंने कई ऐसी बुज़ुर्ग महिलाओं के साथ भी फिल्म " पिंजर " को देखा जो १९४७ में १५ से २५ साल के बीच की उम्र की रही होंगीं . उन लोगों के भी आंसू रोके नहीं रुक रहे थे . फिल्म बहुत ही रियल थी. लेकिन उसे व्यापारिक सफलता नहीं मिली.
" पिंजर " का बाक्स आफिस पर धूम न मचा पाना मेरे लिए एक पहेली थी . मैंने बार बार फिल्म के माध्यम को समझने वालों से इसके बारे में पूछा .किसी के पास कोई जवाब नहीं था . अब जाकर बात समझ में आई जब मैं यह सवाल डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी से ही पूछ दिया . उनका कहना है शायद अवसाद को बहुत देर तक झेल पाना इंसानी प्रकृति में नहीं है .दूसरी बात यह कि फिल्म के विज़ुअल कला पक्ष को बहुत ही आथेंटिक बनाने के चक्कर में पूरी फिल्म में धूसर रंग ही हावी रहा .तीसरी बात जो उन्होंने बतायी वह यह कि फिल्म लम्बी हो गयी, तीन घंटे तक दर्द के बीच रहना बहुत कठिन काम है . मुझे लगता है कि डॉ साहब की बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ . ऐतिहासिक फिल्म बनाना ही बहुत रिस्की सौदा है और उसमें दर्द को ईमानदारी से प्रस्तुत करके तो शायद आग से खेलने जैसा है , लेकिन अपने चाणक्य जी ने वह खेल कर दिखाया उनकी आर्थिक स्थिति तो शायद इस फिल्म के बाद खासी पतली हो गयी. लेकिन उन्होंने हिन्दी सिनेमा को एक ऐसी फिल्म दे दी जो आने वाली पीढ़ियों के लिए सन्दर्भ विन्दु का काम करेगी,.
पता चला है कि डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने काशी नाथ सिंह के उपन्यास " काशी के अस्सी " के आधार पर फिल्म बनाने का मंसूबा बना लिया है . पिछली गलतियों से बचना तो इंसान का स्वभाव है . कहानी के पात्रों के साथ ईमानदारी के लिए विख्यात डॉ द्विवेदी से उम्मीद की जानी चाहिए कि बनारस की ज़िंदगी की बारीक समझ पर आधारित काशीनाथ सिंह के उपन्यास के डॉ गया सिंह , उपाध्याय जी , केदार , उप्धाइन वगैरह पूरी दुनिया के सामने नज़र आयेगें . हालांकि इस कथानक में भी दर्द की बहुत सारी गठरियाँ हैं लेकिन बनारसी मस्ती भी है . अवसाद को " पिंजर " का स्थायी भाव बना कर हाथ जला चुके चाणक्य से उम्मीद की जानी चाहिये कि इस बार वे मस्ती को ही कहानी का स्थायी भाव बनायेगें , दर्द का छौंक ही रहेगा . व्यापारिक सफलता की बात तो हम नहीं कर सकते , क्योंकि वह विधा अपनी समझ में नहीं आती लेकिन चाणक्य और पिंजर के हर फ्रेम को देखने के बाद यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी के एक बेहतरीन उपन्यास पर आधारित एक बहुत अच्छी फिल्म बाज़ार में आने वाली है . इस उपन्यास में बनारसी गालियाँ भी हैं लेकिन मुझे भरोसा है कि यह गालियाँ फिल्म में वैसी ही लगेगीं जैसी शादी ब्याह के अवसर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में गाये जाने वाले मंगल गीत .
प्रोफ़ेसर काशी नाथ सिंह हिन्दी के बेहतरीन लेखक हैं . ज़रुरत से ज्यादा ईमानदार हैं और लेखन में अपने गाँव जीयनपुर की माटी की खुशबू के पुट देने से बाज नहीं आते. हिन्दी साहित्य के बहुत बड़े भाई के सबसे छोटे भाई हैं . उनके भईया का नाम दुनिया भर में इज्ज़त से लिया जाता है. और स्कूल से लेकर आज तक हमेशा अपने भइया से उनकी तुलना होती रही है .उनके भइया को उनकी कोई भी कहानी पसंद नहीं आई , अपना मोर्चा जैसा कालजयी उपन्यास भी नहीं . यह अलग बात है कि उस उपन्यास का नाम दुनिया भर में है . कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है ' साठ और सत्तर के दशक की छात्र राजनीति पर लिखा गया वह सबसे अच्छा उपन्यास है . काशीनाथ सिंह फरमाते हैं कि शायद ही उनकी कोई ऐसी कहानी हो जो भइया को पसंद हो लेकिन ऐसा संस्मरण और कथा-रिपोर्ताज भी शायद ही हो जो उन्हें नापसंद हो . शायद इसीलिये काशीनाथ सिंह जैसा समर्थ लेखक कहानी से संस्मरण और फिर संस्मरण से कथा रिपोर्ताज की तरफ गया . उनके भइया भी कोई लल्लू पंजू नहीं , हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष , डॉ नामवर सिंह हैं . नामवर सिंह ने काशी में आठ आने रोज़ पर भी ज़िंदगी बसर की है और इतना ही खर्च करके हिन्दी साहित्य को बहुत बड़ा योगदान दिया है. काशीनाथ सिंह ने बताया है कि उनके भईया ने ज़िंदगी में बहुत कम समझौते किये हैं , हम यह भी जानते हैं कि उनके भइया की आदर्शवादी जिद के कारण परिवार को और काशीनाथ सिंह को बहुत कुछ झेलना पड़ा . काशीनाथ सिंह के लिए तो सबसे बड़ी मुसीबत यही थी कि जाने अनजाने वे जीवन भर नामवर सिंह के बरक्स नापे जाते रहे .जो लोग नामवर सिंह को जानते हैं , उन्हें मालूम है कि किसी भी सभा सोसाइटी में नामवर सिंह का ज़िक्र आ जाने के बाद बाकी कार्यवाही उनके इर्द गिर्द ही घूमती रहती है . मैं यह बात १९७६ से देख रहा हूँ . नामवर सिंह का विरोध करने पर मैंने कुछ लोगों को पिटते भी देखा है . इमरजेंसी के तुरंत बाद ३५ फिरोजशाह रोड , नयी दिल्ली में एक सम्मलेन हुआ था . उस वक़्त की एक बड़ी पत्रिका के सम्पादक का एक चेला मय लाव लश्कर मुंबई से दिल्ली पंहुचा था. बहुत कुछ पैसा कौड़ी बटोर रखा था उसने और नामवर सिंह के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश कर रहा था . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने उस धतेंगड़ की विधिवत पिटाई कर दी थी . पीटने वालों में वे लोग भी थे जो आज के बहुत बड़े कवि और लेखक हैं .उस पहलवान को दो चार ठूंसा मैंने भी लगाया था , . बाद में जब मैंने भाई लोगों से पूछा कि जे एन यू की परंपरा तो बहस की है , इस बेचारे को शारीरिक कष्ट क्यों दिया जा रहा है , तो आज के एक बड़े कवि ने बताया कि भैंस के आगे बीन बजाने की स्वतंत्रता तो सब को है लेकिन उसको समझा सकना हमेशा से असंभव रहा है .इसलिए अगर पशुनुमा साहित्यकार को कुछ समझाना हो तो यही विधि समीचीन मानी गयी है .
मुराद यह है कि काशीनाथ सिंह इस तरह के नामवर इंसान के छोटे भाई हैं . आज भी जब नामवर सिंह उनको "काशीनाथ जी" कहते हैं तो आम तौर पर काशी कहे जाने वाले बाबू साहेब असहज हो जाते हैं. आम तौर पर लेखकों को कुछ भी लिखते समय आलोचक की दहशत नहीं होती लेकिन काशीनाथ सिंह को तो कुछ लिखना शुरू करने से पहले से ही देश के सबसे बड़े आलोचक का आतंक रहता है . एक तो बाघ दुसरे बन्दूक बांधे. लेकिन इन्हीं हालात में डॉ काशीनाथ सिंह ने हिन्दी को बेहतरीन साहित्य दिया है .' घोआस' जैसा नाटक, 'आलोचना भी रचना है ' जैसी समीक्षा ,'अपना मोर्चा 'और ' काशी का अस्सी 'जैसा उपन्यास डॉ काशीनाथ सिंह ने इन्हीं परिस्थितियों में लिखा है. 'अपना मोर्चा ' विश्व साहित्य में अपना मुकाम बना चुका है . और अब पता चला है कि उनके उपन्यास " काशी का अस्सी " को आधार बनाकर एक फिल्म बन रही है . इस फिल्म का निर्माण हिन्दी सिनेमा के चाणक्य , डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी कर रहे हैं .अपने नामी धारावाहिक " चाणक्य " की वजह से दुनिया भर में पहचाने जाने वाले डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने जब अमृता प्रीतम की कहानी के आधार पर फिल्म ' पिंजर ' बनाई थी तो भारत और पाकिस्तान के बँटवारे के दौरान पंजाब में दर्द का जो तांडव हुआ था ,वह सिनेमा के परदे पर जिंदा हो उठा था . छत्तोआनी और रत्तोवाल नाम के गावों के हवाले से जो भी दुनिया ने देखा था , उस से लोग सिहर उठे थे . जिन लोगों ने भारत-पाकिस्तान के विभाजन को नहीं देखा उनकी समझ में कुछ बात आई थी और जिन्होंने देखा था उनका दर्द फिर से ताज़ा हो गया था. मैंने उस फिल्म को अपनी पत्नी के साथ सिनेमा हाल में जाकर देखा था,. मेरी पत्नी फिल्म की वस्तुपरक सच्चाई से सिहर उठी थीं .बाद में मैंने कई ऐसी बुज़ुर्ग महिलाओं के साथ भी फिल्म " पिंजर " को देखा जो १९४७ में १५ से २५ साल के बीच की उम्र की रही होंगीं . उन लोगों के भी आंसू रोके नहीं रुक रहे थे . फिल्म बहुत ही रियल थी. लेकिन उसे व्यापारिक सफलता नहीं मिली.
" पिंजर " का बाक्स आफिस पर धूम न मचा पाना मेरे लिए एक पहेली थी . मैंने बार बार फिल्म के माध्यम को समझने वालों से इसके बारे में पूछा .किसी के पास कोई जवाब नहीं था . अब जाकर बात समझ में आई जब मैं यह सवाल डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी से ही पूछ दिया . उनका कहना है शायद अवसाद को बहुत देर तक झेल पाना इंसानी प्रकृति में नहीं है .दूसरी बात यह कि फिल्म के विज़ुअल कला पक्ष को बहुत ही आथेंटिक बनाने के चक्कर में पूरी फिल्म में धूसर रंग ही हावी रहा .तीसरी बात जो उन्होंने बतायी वह यह कि फिल्म लम्बी हो गयी, तीन घंटे तक दर्द के बीच रहना बहुत कठिन काम है . मुझे लगता है कि डॉ साहब की बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ . ऐतिहासिक फिल्म बनाना ही बहुत रिस्की सौदा है और उसमें दर्द को ईमानदारी से प्रस्तुत करके तो शायद आग से खेलने जैसा है , लेकिन अपने चाणक्य जी ने वह खेल कर दिखाया उनकी आर्थिक स्थिति तो शायद इस फिल्म के बाद खासी पतली हो गयी. लेकिन उन्होंने हिन्दी सिनेमा को एक ऐसी फिल्म दे दी जो आने वाली पीढ़ियों के लिए सन्दर्भ विन्दु का काम करेगी,.
पता चला है कि डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने काशी नाथ सिंह के उपन्यास " काशी के अस्सी " के आधार पर फिल्म बनाने का मंसूबा बना लिया है . पिछली गलतियों से बचना तो इंसान का स्वभाव है . कहानी के पात्रों के साथ ईमानदारी के लिए विख्यात डॉ द्विवेदी से उम्मीद की जानी चाहिए कि बनारस की ज़िंदगी की बारीक समझ पर आधारित काशीनाथ सिंह के उपन्यास के डॉ गया सिंह , उपाध्याय जी , केदार , उप्धाइन वगैरह पूरी दुनिया के सामने नज़र आयेगें . हालांकि इस कथानक में भी दर्द की बहुत सारी गठरियाँ हैं लेकिन बनारसी मस्ती भी है . अवसाद को " पिंजर " का स्थायी भाव बना कर हाथ जला चुके चाणक्य से उम्मीद की जानी चाहिये कि इस बार वे मस्ती को ही कहानी का स्थायी भाव बनायेगें , दर्द का छौंक ही रहेगा . व्यापारिक सफलता की बात तो हम नहीं कर सकते , क्योंकि वह विधा अपनी समझ में नहीं आती लेकिन चाणक्य और पिंजर के हर फ्रेम को देखने के बाद यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी के एक बेहतरीन उपन्यास पर आधारित एक बहुत अच्छी फिल्म बाज़ार में आने वाली है . इस उपन्यास में बनारसी गालियाँ भी हैं लेकिन मुझे भरोसा है कि यह गालियाँ फिल्म में वैसी ही लगेगीं जैसी शादी ब्याह के अवसर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में गाये जाने वाले मंगल गीत .
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शेष नारायण सिंह
Wednesday, December 15, 2010
मध्य प्रदेश में सरकारी स्कीमों का फायदा लेने वालों को बीजेपी में भर्ती किया जाएगा
शेष नारायण सिंह
मध्य प्रदेश में बीजेपी का सदस्यता अभियान जोर शोर से चल रहा है . हर जिले में पार्टी के कार्यकर्ता ऐसे लोगों को तलाश रहे हैं जो पार्टी की सदस्यता स्वीकार कर लें और राज्य में बीजेपी का बहुत ही मज़बूत जनाधार बन जाय.इसके लिए बीजेपी ने जो तरीका अपनाया है वह लोकतंत्र के बुनियादी नियमों के खिलाफ है.एक बहुत ही सम्मानित अखबार में छपा है कि बीजेपी के जिला स्तर के कार्यकर्ता उन लोगों की लिस्ट लेकर घूम रहे हैं जिन्हें केंद्र और राज्य सरकार की स्कीमों से फायदा मिला है. ग्वालियर जिले में बीजेपी के एक नेता ने बताया कि जिन लोगों की लिस्ट बनायी गयी है ,उन्हें मजबूर नहीं किया जा रहा है . उनसे निवेदन किया जा रहा है कि बीजेपी बहुत अच्छी पार्टी है और उसका सदस्य बनने से बहुत लाभ होगा . उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों की सामाजिक संरचना को समझने वाले जानते हैं कि इस निवेदन का क्या भावार्थ है . एक उदाहरण से बात को समझने की कोशिश की जायेगी . एक बार उत्तर प्रदेश पुलिस का शिष्टाचार सप्ताह मनाया गया था .ऊपर से आदेश दिया गया कि सभी पुलिस वाले किसी को भी श्रीमान जी कहकर संबोधित करेगें और डांट फटकार की भाषा में किसी को संबोधित नहीं करेगें . थाने में तैनात सिपाहियों ने लोगों से बदतमीजी करना तो जारी रखा लेकिन संबोधन श्रीमान जी का ही होता था . मसलन जब किसी रिक्शे वाले को बिना अकिराया दिए कहेने ले जाना होता था तो उसे श्रीमानजी कहकर ही संबोधित किया जाता था . सरकारी पार्टी के निवेदन को भी इस हवाले से समझने में आसानी होगी.
सरकारी स्कीमों के लाभार्थियों की लिस्ट में से दस लाख लोगों को बीजेपी का सदस्य बनाने का लक्ष्य लेकर चल रहे बीजेपी के जिला स्तर के कार्यकर्ताओं में बहुत उत्साह है .पार्टी को भरोसा है कि २०१३ में जब विधान सभा के चुनाव होंगें तो इन दस लाख कार्यकर्ताओं की मदद से विपक्षी कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा हो जायेगी. मध्य प्रदेश में सरकार की बहुत सारी स्कीमें हैं. लाडली लक्ष्मी , मुख्यमंत्री कन्यादान ,जननी सुरक्षा आदि ऐसी स्कीमें हैं जिनकी वजह से ग्रामीण इलाकों के लोग सरकार के अहसानमंद हैं और सरकार चलाने वाली पार्टी उसी एहसान के बदले लोगों को अपनी पार्टी में भर्ती कर रही है . भारत के ग्रामीण इलाकों में लडकी की शादी जैसी जिम्मेवारी हर माता पिता के लिए एक ऐसी ज़िम्मेवारी होती है जिसमें मदद करने वालों का अहसान सभी मानते हैं . शिवराज सिंह सरकार की उस अहसान के बदले लोगों को पार्टी में शामिल करने की मुहिम से निश्चित रूप से बड़ी संख्या में लोग पार्टी में शामिल होंगें लेकिन सरकारी स्कीमों के सहारे और उनका अपने हित में इस्तेमाल करके लोगों को साथ लेना निश्चित रूप से सही राजनीतिक आचरण नहीं है . हालांकि इसमें कानूनी तौर पर कोई गलती नहीं निकाली जा सकती क्योंकि सदस्यता अभियान में किसी सरकारी कर्मचारी का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है लेकिन बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व को इन सवालों का जवाब देना होगा . वैसे इस तरह के कुराजनीतिक आचरण को रोकने का ज़िम्मा तो मुख्य रूप से मध्य प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी का है लेकिन मध्य प्रदेश कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि वहां के ज्यादातर कांग्रेसी नेता राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हैं . उनके पास राज्य के लिए समय नहीं है. बीजेपी का यह अभियान जिन जिलों में चल रहा है उसमें ग्वालियर प्रमुख है लेकिन ग्वालियर से कांग्रेस की अगुवाई करने वाले लोग सामंत हैं और पिछले डेढ़ सौ वर्षों से दिल्ली में राज करने वालों की वफादारी के बल पर सत्ता में बने रहते हैं .ज़ाहिर है उनकी राजनीति का मुख्य आधार ग्वालियर की जनता नहीं, दिल्ली और कलकत्ता में राज करने वाले लोग रहते हैं . इसी तरह से एक मामूली रियासत के राजा भी हैं जो मध्य प्रदेश कांग्रेस में शीर्ष तक पंहुच कर आजकल बीमारी की हालत में पड़े हुए हैं . उनेक परिवार के लोग वफादारी के इनाम के चक्कर में दिल्ली दरबार में हमेशा सक्रिय रहते हैं . इन बीमार सामंती कांग्रेसी नेता के एक शिष्य आजकल राष्ट्रीय राजनीति में इतने तल्लीन हैं कि उन्हें मध्य प्रदेश की चिंता ही नहीं है . ऐसी हालत में बीजेपी नेतृत्व का गैर लोकतांत्रिक तरीकों से सदस्यता अभियान चलाने के काम को बेलगाम छोड़ दिया गया है जिस से लोकशाही के निजाम को पक्के तौर पर नुकसान होगा .बीजेपी वाले मौजूदा सदस्यता अभियान के बाद इंदौर में 'नवीन कार्यकर्ता सम्मान समारोह' का आयोजन करेगें जिसके बाद कांग्रेस के लोग हाथ मलते रह जायेगें और लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों पर एक और कुठाराघात हो चुका होगा
मध्य प्रदेश में बीजेपी का सदस्यता अभियान जोर शोर से चल रहा है . हर जिले में पार्टी के कार्यकर्ता ऐसे लोगों को तलाश रहे हैं जो पार्टी की सदस्यता स्वीकार कर लें और राज्य में बीजेपी का बहुत ही मज़बूत जनाधार बन जाय.इसके लिए बीजेपी ने जो तरीका अपनाया है वह लोकतंत्र के बुनियादी नियमों के खिलाफ है.एक बहुत ही सम्मानित अखबार में छपा है कि बीजेपी के जिला स्तर के कार्यकर्ता उन लोगों की लिस्ट लेकर घूम रहे हैं जिन्हें केंद्र और राज्य सरकार की स्कीमों से फायदा मिला है. ग्वालियर जिले में बीजेपी के एक नेता ने बताया कि जिन लोगों की लिस्ट बनायी गयी है ,उन्हें मजबूर नहीं किया जा रहा है . उनसे निवेदन किया जा रहा है कि बीजेपी बहुत अच्छी पार्टी है और उसका सदस्य बनने से बहुत लाभ होगा . उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों की सामाजिक संरचना को समझने वाले जानते हैं कि इस निवेदन का क्या भावार्थ है . एक उदाहरण से बात को समझने की कोशिश की जायेगी . एक बार उत्तर प्रदेश पुलिस का शिष्टाचार सप्ताह मनाया गया था .ऊपर से आदेश दिया गया कि सभी पुलिस वाले किसी को भी श्रीमान जी कहकर संबोधित करेगें और डांट फटकार की भाषा में किसी को संबोधित नहीं करेगें . थाने में तैनात सिपाहियों ने लोगों से बदतमीजी करना तो जारी रखा लेकिन संबोधन श्रीमान जी का ही होता था . मसलन जब किसी रिक्शे वाले को बिना अकिराया दिए कहेने ले जाना होता था तो उसे श्रीमानजी कहकर ही संबोधित किया जाता था . सरकारी पार्टी के निवेदन को भी इस हवाले से समझने में आसानी होगी.
सरकारी स्कीमों के लाभार्थियों की लिस्ट में से दस लाख लोगों को बीजेपी का सदस्य बनाने का लक्ष्य लेकर चल रहे बीजेपी के जिला स्तर के कार्यकर्ताओं में बहुत उत्साह है .पार्टी को भरोसा है कि २०१३ में जब विधान सभा के चुनाव होंगें तो इन दस लाख कार्यकर्ताओं की मदद से विपक्षी कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा हो जायेगी. मध्य प्रदेश में सरकार की बहुत सारी स्कीमें हैं. लाडली लक्ष्मी , मुख्यमंत्री कन्यादान ,जननी सुरक्षा आदि ऐसी स्कीमें हैं जिनकी वजह से ग्रामीण इलाकों के लोग सरकार के अहसानमंद हैं और सरकार चलाने वाली पार्टी उसी एहसान के बदले लोगों को अपनी पार्टी में भर्ती कर रही है . भारत के ग्रामीण इलाकों में लडकी की शादी जैसी जिम्मेवारी हर माता पिता के लिए एक ऐसी ज़िम्मेवारी होती है जिसमें मदद करने वालों का अहसान सभी मानते हैं . शिवराज सिंह सरकार की उस अहसान के बदले लोगों को पार्टी में शामिल करने की मुहिम से निश्चित रूप से बड़ी संख्या में लोग पार्टी में शामिल होंगें लेकिन सरकारी स्कीमों के सहारे और उनका अपने हित में इस्तेमाल करके लोगों को साथ लेना निश्चित रूप से सही राजनीतिक आचरण नहीं है . हालांकि इसमें कानूनी तौर पर कोई गलती नहीं निकाली जा सकती क्योंकि सदस्यता अभियान में किसी सरकारी कर्मचारी का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है लेकिन बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व को इन सवालों का जवाब देना होगा . वैसे इस तरह के कुराजनीतिक आचरण को रोकने का ज़िम्मा तो मुख्य रूप से मध्य प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी का है लेकिन मध्य प्रदेश कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि वहां के ज्यादातर कांग्रेसी नेता राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हैं . उनके पास राज्य के लिए समय नहीं है. बीजेपी का यह अभियान जिन जिलों में चल रहा है उसमें ग्वालियर प्रमुख है लेकिन ग्वालियर से कांग्रेस की अगुवाई करने वाले लोग सामंत हैं और पिछले डेढ़ सौ वर्षों से दिल्ली में राज करने वालों की वफादारी के बल पर सत्ता में बने रहते हैं .ज़ाहिर है उनकी राजनीति का मुख्य आधार ग्वालियर की जनता नहीं, दिल्ली और कलकत्ता में राज करने वाले लोग रहते हैं . इसी तरह से एक मामूली रियासत के राजा भी हैं जो मध्य प्रदेश कांग्रेस में शीर्ष तक पंहुच कर आजकल बीमारी की हालत में पड़े हुए हैं . उनेक परिवार के लोग वफादारी के इनाम के चक्कर में दिल्ली दरबार में हमेशा सक्रिय रहते हैं . इन बीमार सामंती कांग्रेसी नेता के एक शिष्य आजकल राष्ट्रीय राजनीति में इतने तल्लीन हैं कि उन्हें मध्य प्रदेश की चिंता ही नहीं है . ऐसी हालत में बीजेपी नेतृत्व का गैर लोकतांत्रिक तरीकों से सदस्यता अभियान चलाने के काम को बेलगाम छोड़ दिया गया है जिस से लोकशाही के निजाम को पक्के तौर पर नुकसान होगा .बीजेपी वाले मौजूदा सदस्यता अभियान के बाद इंदौर में 'नवीन कार्यकर्ता सम्मान समारोह' का आयोजन करेगें जिसके बाद कांग्रेस के लोग हाथ मलते रह जायेगें और लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों पर एक और कुठाराघात हो चुका होगा
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सरकारी स्कीमों का फायदा
Monday, December 13, 2010
नीतीश और शिवराज की पहल की इज्ज़त की जानी चाहिए
शेष नारायण सिंह
भ्रष्टाचार अपने देश के सामाजिक ताने बाने में बुरी तरह से घुस चुका है . घूस में की गयी चोरी को बाकायदा कमाई कहा जाता है . अंग्रेजों के दौर में संस्था का रूप हासिल करने वाली संस्कृति को आज़ादी के बाद नौकरशाही ने घूस की संस्कृति में बदल दिया . आज़ादी के संघर्ष में शामिल नेताओं के जाने के बाद जो नेता राजनीति में आये उनके लिए घूस एक मौलिक अधिकार की शक्ल ले चुका था . नेता जब घूसखोर होगा तो अफसरों और सरकारी कर्मचारियों को घूसजीवी बनने से रोक पाना नामुमकिन है.घूस में मिली रक़म के बल पर लोग ऐशो आराम की ज़िंदगी बसर करते हैं और कहीं चूँ नहीं होती. उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में ऐसे लोग मुख्य सचिव बना दिए जाते हैं जिनको महाभ्रष्ट के रूप में मान्यता मिल चुकी होती है. नेताओं के बच्चों की शादियों में करोड़ों रूपये खर्च किये जाते हैं और कोई नहीं पूछता कि यह पैसा कहाँ से आया . अब तक भ्रष्टाचार वही माना जाता रहा है जो पकड़ लिया जाय और मुक़दमा कायम हो जाय. आम तौर पर इन मुक़दमों में अभियुक्त बच ही निकलता है . भ्रष्टाचार के कारणों की जांच नहीं की जाती . लेकिन अब हालात बदल रहे हैं .बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने इस दिशा में पहला क़दम उठा लिया है . उन्होंने बिहार स्पेशल कोर्ट्स एक्ट २०१० के तहत अफसरों की उन संपत्तियों को ज़ब्त करना शुरू कर दिया है जो घूस की कमाई से खरीदी गयी हैं .इस मामले में पहला शिकार पकड़ा भी जा चुका है और उसकी ४४ लाख रूपये की संपत्ति सरकारी कब्जे में ली जा चुकी है . ज़ाहिर है कि अगर अफसरों में यह डर समा गया कि घूस से बनायी गई संपत्ति बाद में भी सरकारी कब्जे में आ जायेगी तो घूस के प्रति मोह कम होगा. अगर उत्तर प्रदेश में भी इसी तरह का काम शुरू हो जाय तो भ्रष्टाचार पर निर्णायक काबू पाने की दिशा में कदम उठाया जा सकता है . नीतीश कुमार ने दूसरा अहम काम भी किया है .उन्होंने विधायकों को मिलने वाली उस रक़म को भी रद्द करने का फैसला कर लिया है जो विधायक निधि के नाम पर क्षेत्र के विकास के लिए दी जाती है . इसी रक़म से विधायक लोग अपने चेलों को पालते हैं, विधायक निधि से कमीशन लेते हैं और भ्रष्टाचार का माहौल बनांते हैं . उसी निधि से अफसर भी अपना हिस्सा लेते हैं और सरकारी पैसे को पूरी तरह से नंबर दो का बना देते हैं . कुछ सम्मान जनक अपवाद भी हैं . एक उदाहरण तो अरुण शोरी का ही है . उत्तर प्रदेश से राज्य सभा का सदस्य बनने के बाद उन्होंने सरकार से अनुमति मांग कर अपनी सांसद निधि को आई आई टी कानपुर में एक महत्वपूर्ण प्रयोगशाला बनाने के लिए दे दिया . ६ साल के कार्यकाल में उन्हें १२ करोड़ रूपये मिलने थे ,कुछ सरकारी मदद लेकर एक संस्था की स्थापना हो गयी लेकिन इस तरह के उदाहरण बहुत कम हैं . ज़्यादातर लोग तो विकास निधि को अपनी नंबर दो की कमाई ही मानते हैं . इसकी उत्पत्ति भी बहुत ही अजीब तरीके से हुई थी. सांसदों को अपने साथ रखने के चक्कर में भ्रष्ट प्रधान मंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने सांसद निधि को शुरू किया था . बाद में विधायकों के लिए भी राज्य सरकारों ने व्यवस्था कर दी .अब तो भ्रष्टाचार का माहौल बनाने में इसी निधि का सबसे अहम योगदान है . बिहार में इस घूस की जननी को ख़त्म करने की शुरुआत हुई है . उम्मीद की जानी चाहिए कि बाकी देश में भी यह उदाहरण लागू किया जायेगा. एक अन्य मुख्य मंत्री ने भी भ्रष्टाचार की जड़ों में मट्ठा डालने की एक आइडिया का ज़िक्र किया है . भोपाल में चुनाव सुधारों के लिए आयोजित एक बैठक में मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री , शिवराज सिंह ने बहुत बुनियादी बात कही. उन्होंने कहा कि संसद का जो ऊपरी सदन है , वह भ्रष्टाचार के लिए आजकल बहुत बड़ी खाद का काम करने लगा है . देखा गया है कि राज्य सभा में अब वे सारे लोग पंहुच रहे हैं जो पैसा देकर टिकट लेते हैं और विधायकों को पैसा देकर उनकी वोट खरीदते हैं . शराब के व्यापारी ,सत्ता के दलाल , अन्य बे-ईमानी का काम करने वाले लोग राज्य सभा में पंहुच रहे हैं और ऐलानियाँ ऐसा काम कर रहे हैं जो किसी भी कीमत पर सही नहीं है. आम आदमी के विरोध में जो भी नीतियाँ बन रही हैं, यह लोग उसे समर्थन दे रहे हैं.शिवराज सिंह ने कहा कि राज्य सभा को ही ख़त्म कर देना चाहिए . लोक सभा जनहित और राष्ट्र हित के सभी फैसले लेने के लिए सक्षम है . ज़ाहिर है कि यह विचार मौलिक परिवर्तन की बात करता है और भ्रष्टाचार के प्रमुख कारणों को दबा देने की ताक़त रखता है . इस बात में दो राय नहीं कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए राजनीतिक पहल के एज़रूरत है और निहित स्वार्थ वाले उसका पूरी तरह से विरोध करेगें . लेकिन अगर भ्रष्टाचार पर सही तरीके से हमला किया गया तो देश के विकास को बहुत बड़ी शक्ति मिल जायेगी.
भ्रष्टाचार अपने देश के सामाजिक ताने बाने में बुरी तरह से घुस चुका है . घूस में की गयी चोरी को बाकायदा कमाई कहा जाता है . अंग्रेजों के दौर में संस्था का रूप हासिल करने वाली संस्कृति को आज़ादी के बाद नौकरशाही ने घूस की संस्कृति में बदल दिया . आज़ादी के संघर्ष में शामिल नेताओं के जाने के बाद जो नेता राजनीति में आये उनके लिए घूस एक मौलिक अधिकार की शक्ल ले चुका था . नेता जब घूसखोर होगा तो अफसरों और सरकारी कर्मचारियों को घूसजीवी बनने से रोक पाना नामुमकिन है.घूस में मिली रक़म के बल पर लोग ऐशो आराम की ज़िंदगी बसर करते हैं और कहीं चूँ नहीं होती. उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में ऐसे लोग मुख्य सचिव बना दिए जाते हैं जिनको महाभ्रष्ट के रूप में मान्यता मिल चुकी होती है. नेताओं के बच्चों की शादियों में करोड़ों रूपये खर्च किये जाते हैं और कोई नहीं पूछता कि यह पैसा कहाँ से आया . अब तक भ्रष्टाचार वही माना जाता रहा है जो पकड़ लिया जाय और मुक़दमा कायम हो जाय. आम तौर पर इन मुक़दमों में अभियुक्त बच ही निकलता है . भ्रष्टाचार के कारणों की जांच नहीं की जाती . लेकिन अब हालात बदल रहे हैं .बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने इस दिशा में पहला क़दम उठा लिया है . उन्होंने बिहार स्पेशल कोर्ट्स एक्ट २०१० के तहत अफसरों की उन संपत्तियों को ज़ब्त करना शुरू कर दिया है जो घूस की कमाई से खरीदी गयी हैं .इस मामले में पहला शिकार पकड़ा भी जा चुका है और उसकी ४४ लाख रूपये की संपत्ति सरकारी कब्जे में ली जा चुकी है . ज़ाहिर है कि अगर अफसरों में यह डर समा गया कि घूस से बनायी गई संपत्ति बाद में भी सरकारी कब्जे में आ जायेगी तो घूस के प्रति मोह कम होगा. अगर उत्तर प्रदेश में भी इसी तरह का काम शुरू हो जाय तो भ्रष्टाचार पर निर्णायक काबू पाने की दिशा में कदम उठाया जा सकता है . नीतीश कुमार ने दूसरा अहम काम भी किया है .उन्होंने विधायकों को मिलने वाली उस रक़म को भी रद्द करने का फैसला कर लिया है जो विधायक निधि के नाम पर क्षेत्र के विकास के लिए दी जाती है . इसी रक़म से विधायक लोग अपने चेलों को पालते हैं, विधायक निधि से कमीशन लेते हैं और भ्रष्टाचार का माहौल बनांते हैं . उसी निधि से अफसर भी अपना हिस्सा लेते हैं और सरकारी पैसे को पूरी तरह से नंबर दो का बना देते हैं . कुछ सम्मान जनक अपवाद भी हैं . एक उदाहरण तो अरुण शोरी का ही है . उत्तर प्रदेश से राज्य सभा का सदस्य बनने के बाद उन्होंने सरकार से अनुमति मांग कर अपनी सांसद निधि को आई आई टी कानपुर में एक महत्वपूर्ण प्रयोगशाला बनाने के लिए दे दिया . ६ साल के कार्यकाल में उन्हें १२ करोड़ रूपये मिलने थे ,कुछ सरकारी मदद लेकर एक संस्था की स्थापना हो गयी लेकिन इस तरह के उदाहरण बहुत कम हैं . ज़्यादातर लोग तो विकास निधि को अपनी नंबर दो की कमाई ही मानते हैं . इसकी उत्पत्ति भी बहुत ही अजीब तरीके से हुई थी. सांसदों को अपने साथ रखने के चक्कर में भ्रष्ट प्रधान मंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने सांसद निधि को शुरू किया था . बाद में विधायकों के लिए भी राज्य सरकारों ने व्यवस्था कर दी .अब तो भ्रष्टाचार का माहौल बनाने में इसी निधि का सबसे अहम योगदान है . बिहार में इस घूस की जननी को ख़त्म करने की शुरुआत हुई है . उम्मीद की जानी चाहिए कि बाकी देश में भी यह उदाहरण लागू किया जायेगा. एक अन्य मुख्य मंत्री ने भी भ्रष्टाचार की जड़ों में मट्ठा डालने की एक आइडिया का ज़िक्र किया है . भोपाल में चुनाव सुधारों के लिए आयोजित एक बैठक में मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री , शिवराज सिंह ने बहुत बुनियादी बात कही. उन्होंने कहा कि संसद का जो ऊपरी सदन है , वह भ्रष्टाचार के लिए आजकल बहुत बड़ी खाद का काम करने लगा है . देखा गया है कि राज्य सभा में अब वे सारे लोग पंहुच रहे हैं जो पैसा देकर टिकट लेते हैं और विधायकों को पैसा देकर उनकी वोट खरीदते हैं . शराब के व्यापारी ,सत्ता के दलाल , अन्य बे-ईमानी का काम करने वाले लोग राज्य सभा में पंहुच रहे हैं और ऐलानियाँ ऐसा काम कर रहे हैं जो किसी भी कीमत पर सही नहीं है. आम आदमी के विरोध में जो भी नीतियाँ बन रही हैं, यह लोग उसे समर्थन दे रहे हैं.शिवराज सिंह ने कहा कि राज्य सभा को ही ख़त्म कर देना चाहिए . लोक सभा जनहित और राष्ट्र हित के सभी फैसले लेने के लिए सक्षम है . ज़ाहिर है कि यह विचार मौलिक परिवर्तन की बात करता है और भ्रष्टाचार के प्रमुख कारणों को दबा देने की ताक़त रखता है . इस बात में दो राय नहीं कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए राजनीतिक पहल के एज़रूरत है और निहित स्वार्थ वाले उसका पूरी तरह से विरोध करेगें . लेकिन अगर भ्रष्टाचार पर सही तरीके से हमला किया गया तो देश के विकास को बहुत बड़ी शक्ति मिल जायेगी.
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शेष नारायण सिंह
Sunday, December 12, 2010
राडिया गैंग की ताक़त के सामने घिघियाते पत्रकार और वेब मीडिया
शेष नारायण सिंह
नीरा राडिया के टेलीफोन के शिकार हुए लोगों की नयी किश्त बाज़ार में आ गयी है .पहली किश्त में तो अंग्रेज़ी वाले पत्रकार और दिल्ली के काकटेल सर्किट वालों की इज्ज़त की धज्जियां उडी थीं . उनमें से दो को तो उनके संगठनों ने निपटा दिया . वीर संघवी और प्रभु चावला को निकाल दिया गया है लेकिन बरखा दत्त वाले लोग अभी डटे हुए हैं , मानने को तैयार नहीं हैं कि बरखा दत्त गलती भी कर सकती हैं . आउटलुक और भड़ास वालों की कृपा से सारी दुनिया को औपचारिक तौर पर मालूम हो गया है कि पत्रकारिता के टाप पर बैठे कुछ लोग दलाली भी करते थे .हालांकि दिल्ली में सक्रिय ज़्यादातर लोगों को मालूम है कि खेल होता था लेकिन किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि उसके बारे में बात कर सके .नयी खेप में नीरा राडिया की वास्तविक हैसियत का पता चलता है जहां वह पी टी आई जैसी ताक़तवर न्यूज़ एजेंसी को ब्लैक लिस्ट करने की बात करती हैं . हिन्दी के सबसे बड़े अखबारों को सेट करने की बात करती हैं और हिन्दी ,उर्दू और अंग्रेज़ी में काम कारने वाले एक मीडिया हाउस के मुख्य अधिकारी को लाईन में लेने की बात करती हैं . इसी टेप में उनका कारिन्दा बताता है कि देश के एक बड़े मीडिया हाउस का रिपोर्टर उसके पास बैठा है जिसने अनिल अम्बानी के खिलाफ सारी जानकारी उपलब्ध करवाई है . पुरानी किश्तों के पब्लिक होने के बाद वीर संघवी नाम के पत्रकार किसी टी वी चैनल पर नमूदार हुए थे और उपदेश देते हुए बता रहे थे कि पत्रकार को तरह तरह के लोगों से बात करके खबरें जुटानी पड़ती हैं . और उन्होंने नीरा राडिया से खबरें ही जुटाने की कोशिश की थी. हालांकि उस बार भी साफ़ नज़र आ रहा था कि वे राडिया दलाली काण्ड के ख़ास सिपहसलार थे लेकिन नयी खेप से साफ़ पता चल रहा है कि वे न केवल राडिया के हुक्म से लिखते थे बल्कि अपना कालम छपने के पहले नीरा राडिया को फोन करके सुनाते थे और उस से मंजूरी लेते थे. इस बार के टेपों से पता चला है कि राडिया गैंग की एक और लठैत, बरखा दत्त भी जो कुछ कर रही थीं, वह पत्रकारिता तो नहीं थी. नीरा राडिया अपने किसी चेले को बताती सुनी जा रही हैं कि बरखा दत्त ने कांग्रेस से कहकर एक बयान जारी करवा दिया है . तुर्रा यह कि बरखा दत्त अभी पिछले दिनों अपने चैनल पर कहती पायी गयी थीं कि वे राडिया की सूचना का इस्तेमाल ख़बरों के लिए कर रही थीं. उनका दलाली से कोई लेना देना नहीं था .
नयी खेप में उन लोगों के नंगा होने का काम भी शुरू हो गया है जो काकटेल सर्किट में नहीं आते हैं . हिन्दी पत्रकारों के बारे में अपने किसी कारिंदे को जिस तरह से राडिया समझा रही हैं उस से कहानी की बहुत सारी बारीक परतें भी खुलना शुरू हो गयी हैं . देश के सबसे बड़े हिन्दी अखबारों का नाम जिस तरह से राडिया जी के श्रीमुख से निकल रहा है उसे सुनकर यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं रह गया है कि आने वाले दिनों में बड़े बड़े सूरमा राडिया के टेपों की ज़द में आ जायेगें . लेकिन दिल्ली में सक्रिय ज़्यादातर दलालों की पोल खुल जाने का एक ख़तरा भी है . इनमें से ज़्यादातर लोग मीडिया में बहुत ही ताक़तवर नाम हैं . इसलिए इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि यह सारे लोग लामबंद हो जाएँ और उन लोगों के खिलाफ ही मोर्चा खोल दें जो राडिया काण्ड में शामिल नहीं हैं . राडिया गैंग के लोग यह भी अभियान शुरू कर सकते है कि जो लोग राडिया के लिए काम नहीं कर रहे हैं वे बेकार के पत्रकार हैं . इसका भावार्थ यह हुआ कि जिन लोगों के नाम राडिया की लिस्ट में नहीं हैं , उनकी नौकरी ख़त्म हो सकती है . इसका एक अंदाज़ कल देखने को मिला जब देश के एक बहुत बड़े पत्रकार ने कहा कि यह देश का दुर्भाग्य है कि देश का बड़े से बड़ा उद्योगपति विदेशों में जा रहा है . जिस से वे बात कर रहे थे उन्होंने कहा कि टाटा जैसा बड़ा उद्योगपति विदेशों में जा रहा है क्योंकि उसे अपने देश में धंधा करने की छूट नहीं है यह वही टाटा हैं जिनका इस्तेमाल इसी स्वनामधन्य पत्रकार ने कुछ दिन पहले राडिया टेप में फंसे पत्रकारों के बचाव के लिए किया था . बाद में संविधान का हवाला देकर टाटा जी ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी कि राडिया से उनकी बातचीत बहुत ही व्यक्तिगत है लिहाज़ा उसके प्रसारण को रोक दिया जाना चाहिए . सुप्रीम कोर्ट ने स्टे देने से इनकार कर दिया था . ऐसी हालत में लगता है कि जो भी ताक़तवर लोग हैं ,चाहे वे राजनीति में हों , मीडिया में हों या सरकारी अफसरतंत्र का हिस्सा हों , राडिया के गिरोह के संभावित सदस्य हो सकते हैं . यह लोग अगर एकजुट हो गए तो देश की नीति को प्रभावित कर सकते हैं . ऐसी हालत में केवल वेब मीडिया के जांबाज़ पत्रकार ही बचेगें जो पुरानी नैतिकता की लड़ाई लड़ रहे होंगें .लेकिन उनकी आर्थिक क्षमता सीमित होगी . लगता है कि अब रास्ते रोज़ ही सिमटते जा रहे हैं और अवाम को ही कुछ करना पड़ेगा जिस से दिल्ली दरबार के हर कोने में घात लगाए बैठी बे-ईमानी को घेरा जा सके..
नीरा राडिया के टेलीफोन के शिकार हुए लोगों की नयी किश्त बाज़ार में आ गयी है .पहली किश्त में तो अंग्रेज़ी वाले पत्रकार और दिल्ली के काकटेल सर्किट वालों की इज्ज़त की धज्जियां उडी थीं . उनमें से दो को तो उनके संगठनों ने निपटा दिया . वीर संघवी और प्रभु चावला को निकाल दिया गया है लेकिन बरखा दत्त वाले लोग अभी डटे हुए हैं , मानने को तैयार नहीं हैं कि बरखा दत्त गलती भी कर सकती हैं . आउटलुक और भड़ास वालों की कृपा से सारी दुनिया को औपचारिक तौर पर मालूम हो गया है कि पत्रकारिता के टाप पर बैठे कुछ लोग दलाली भी करते थे .हालांकि दिल्ली में सक्रिय ज़्यादातर लोगों को मालूम है कि खेल होता था लेकिन किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि उसके बारे में बात कर सके .नयी खेप में नीरा राडिया की वास्तविक हैसियत का पता चलता है जहां वह पी टी आई जैसी ताक़तवर न्यूज़ एजेंसी को ब्लैक लिस्ट करने की बात करती हैं . हिन्दी के सबसे बड़े अखबारों को सेट करने की बात करती हैं और हिन्दी ,उर्दू और अंग्रेज़ी में काम कारने वाले एक मीडिया हाउस के मुख्य अधिकारी को लाईन में लेने की बात करती हैं . इसी टेप में उनका कारिन्दा बताता है कि देश के एक बड़े मीडिया हाउस का रिपोर्टर उसके पास बैठा है जिसने अनिल अम्बानी के खिलाफ सारी जानकारी उपलब्ध करवाई है . पुरानी किश्तों के पब्लिक होने के बाद वीर संघवी नाम के पत्रकार किसी टी वी चैनल पर नमूदार हुए थे और उपदेश देते हुए बता रहे थे कि पत्रकार को तरह तरह के लोगों से बात करके खबरें जुटानी पड़ती हैं . और उन्होंने नीरा राडिया से खबरें ही जुटाने की कोशिश की थी. हालांकि उस बार भी साफ़ नज़र आ रहा था कि वे राडिया दलाली काण्ड के ख़ास सिपहसलार थे लेकिन नयी खेप से साफ़ पता चल रहा है कि वे न केवल राडिया के हुक्म से लिखते थे बल्कि अपना कालम छपने के पहले नीरा राडिया को फोन करके सुनाते थे और उस से मंजूरी लेते थे. इस बार के टेपों से पता चला है कि राडिया गैंग की एक और लठैत, बरखा दत्त भी जो कुछ कर रही थीं, वह पत्रकारिता तो नहीं थी. नीरा राडिया अपने किसी चेले को बताती सुनी जा रही हैं कि बरखा दत्त ने कांग्रेस से कहकर एक बयान जारी करवा दिया है . तुर्रा यह कि बरखा दत्त अभी पिछले दिनों अपने चैनल पर कहती पायी गयी थीं कि वे राडिया की सूचना का इस्तेमाल ख़बरों के लिए कर रही थीं. उनका दलाली से कोई लेना देना नहीं था .
नयी खेप में उन लोगों के नंगा होने का काम भी शुरू हो गया है जो काकटेल सर्किट में नहीं आते हैं . हिन्दी पत्रकारों के बारे में अपने किसी कारिंदे को जिस तरह से राडिया समझा रही हैं उस से कहानी की बहुत सारी बारीक परतें भी खुलना शुरू हो गयी हैं . देश के सबसे बड़े हिन्दी अखबारों का नाम जिस तरह से राडिया जी के श्रीमुख से निकल रहा है उसे सुनकर यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं रह गया है कि आने वाले दिनों में बड़े बड़े सूरमा राडिया के टेपों की ज़द में आ जायेगें . लेकिन दिल्ली में सक्रिय ज़्यादातर दलालों की पोल खुल जाने का एक ख़तरा भी है . इनमें से ज़्यादातर लोग मीडिया में बहुत ही ताक़तवर नाम हैं . इसलिए इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि यह सारे लोग लामबंद हो जाएँ और उन लोगों के खिलाफ ही मोर्चा खोल दें जो राडिया काण्ड में शामिल नहीं हैं . राडिया गैंग के लोग यह भी अभियान शुरू कर सकते है कि जो लोग राडिया के लिए काम नहीं कर रहे हैं वे बेकार के पत्रकार हैं . इसका भावार्थ यह हुआ कि जिन लोगों के नाम राडिया की लिस्ट में नहीं हैं , उनकी नौकरी ख़त्म हो सकती है . इसका एक अंदाज़ कल देखने को मिला जब देश के एक बहुत बड़े पत्रकार ने कहा कि यह देश का दुर्भाग्य है कि देश का बड़े से बड़ा उद्योगपति विदेशों में जा रहा है . जिस से वे बात कर रहे थे उन्होंने कहा कि टाटा जैसा बड़ा उद्योगपति विदेशों में जा रहा है क्योंकि उसे अपने देश में धंधा करने की छूट नहीं है यह वही टाटा हैं जिनका इस्तेमाल इसी स्वनामधन्य पत्रकार ने कुछ दिन पहले राडिया टेप में फंसे पत्रकारों के बचाव के लिए किया था . बाद में संविधान का हवाला देकर टाटा जी ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी कि राडिया से उनकी बातचीत बहुत ही व्यक्तिगत है लिहाज़ा उसके प्रसारण को रोक दिया जाना चाहिए . सुप्रीम कोर्ट ने स्टे देने से इनकार कर दिया था . ऐसी हालत में लगता है कि जो भी ताक़तवर लोग हैं ,चाहे वे राजनीति में हों , मीडिया में हों या सरकारी अफसरतंत्र का हिस्सा हों , राडिया के गिरोह के संभावित सदस्य हो सकते हैं . यह लोग अगर एकजुट हो गए तो देश की नीति को प्रभावित कर सकते हैं . ऐसी हालत में केवल वेब मीडिया के जांबाज़ पत्रकार ही बचेगें जो पुरानी नैतिकता की लड़ाई लड़ रहे होंगें .लेकिन उनकी आर्थिक क्षमता सीमित होगी . लगता है कि अब रास्ते रोज़ ही सिमटते जा रहे हैं और अवाम को ही कुछ करना पड़ेगा जिस से दिल्ली दरबार के हर कोने में घात लगाए बैठी बे-ईमानी को घेरा जा सके..
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शेष नारायण सिंह
Friday, December 10, 2010
सच्चाई पर पर्दा डालने के लिए शासक वर्ग ने टाटा को मैदान में उतारा
शेष नारायण सिंह
टेलीकाम घोटाले ने सुखराम युग की याद ताज़ा कर दी .उस बार भी करीब ३७ दिन तक बीजेपी ने संसद की कार्यवाही नहीं चलने दिया था. पी वी नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री थे और सुखराम ने हिमाचल फ्यूचरिस्टिक नाम की किसी कंपनी को नाजायज़ लाभ पंहुचा कर हेराफेरी की थी. बाद में वही सुखराम बीजेपी के आदरणीय सदस्य बन गए थे . आज भी जब बीजेपी के नेताओं की पत्रकार वार्ताओं में सुखराम शब्द का ज़िक्र आता है ,वे खिसिया जाते हैं . लगता है कि मौजूदा टेलीकाम घोटाले के बाद भी बीजीपी का वही हाल होने वाला है . क्योंकि १९९९ से लेकर २००४ तक बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार की आँखों के तारे रहे रतन टाटा ने बीजेपी की पोल खोलने का काम शुरू कर दिया है . अपने मुल्क में टाटा को बहुत ही पवित्र पूंजीपति मानने का फैशन है . बीजेपी वालों ने भी अब तक टाटा को बहुत ही पवित्र आत्मा बताने की बार बार कोशिश की है . आज भी आरोप लगाया जाता है कि कि बीजेपी की सरकार ने विदेश सचार निगम जैसी संपन्न कंपनी को टाटा के हाथों कौड़ियों के मोल बेच दिया था. बताते हैं कि विदेश संचार निगम के पास जितनी ज़मीन दिल्ली में है ,उसके १ प्रतिशत से ही १२०० करोड़ निकाला जा सकता है . आरोप है कि बीजेपी के राज में जो भी भाई संचार मंत्री था, उसने खेल कर दिया था और सरकारी कंपनी को सस्ते दाम पर बेच कर नंबर दो में रक़म अपनी अंटी में डाल लिया था . उन्हीं टाटा महोदय ने बीजेपी की कृपा से एम पी बने एक उद्योगपति की चिट्ठी के जवाब में साफ़ लिख दिया है कि संचार के क्षेत्र में हेराफेरी बीजेपी के राज में भी हुई थी. टाटा की इस चिट्ठी के बाद काकटेल सर्किट में हडकंप मच गया है. इस चिट्ठी के पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी सुझाव दिया था कि २००१ से शुरू कर के संचार और २ जी स्पेक्ट्रम घोटालों की जांच की जानी चाहिए . बीजेपी वाले फ़ौरन रक्षात्मक मुद्रा में आ गए और कहने लगे कि हम तो तैयार हैं . अब उन्हें कौन बताये कि भाई आपके तैयार होने का कोई मतलब नहीं है . अब तो सुप्रीम कोर्ट का संकेत आ गया है और अब तो जांच शुरू हो जायेगी. आप लोगों को चाहिए कि अब अपने आप को बचाने की कोशिश शुरू कर दें .टाटा के मैदान ले लेने के बाद लगता है कि अब संचार घोटाले की जांच सही तरीके से नहीं होगी और फिल्म 'जाने भी दो यारों 'की तर्ज़ पर लीपा पोती कर दी जायेगी . यह काम दिल्ली की काकटेल सर्किट के नेता जैन हवाला काण्ड के दौरान कर चुके हैं . जैन हवाला काण्ड में भी बीजेपी के लाल कृष्ण आडवाणी, जे डी यू के शरद यादव , कांग्रेस के अरुण नेहरू और सतीश शर्मा पर जे के एल एफ के हवाले से पैसा लेने का आरोप लगा था ,जांच भी बैठाई गयी थी लेकिन उस जांच का नतीजा पता नहीं इतिहास के किस डस्टबिन में दफ़न हो गया .कामनवेल्थ खेलों में भी हज़ारों करोड़ की लूट मचाई गयी थी लेकिन जब दोनों की मुख्य पार्टियों के सूरमाओं के नाम आने लगे तो उसके भी दफ़न की तैयारी कर दी गयी. अब जब टाटा ने बीजेपी की पोल भी खोलना शुरू कर दिया है तो लगता है कि २जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच का भी वही हस्र होगा जो जैन हवाला काण्ड की जांच का हुआ था. पूंजीपतियों के सबसे प्रिय चैनल ने जिस जोशो खरोश से टाटा की चिट्ठी के हवाले से मामले को तूल देना शुरू किया है ,उस से तो साफ़ ज़ाहिर है कि टाटा की चिट्ठी सोची समझी नीति के तहत लिखी गयी है जिस से संचार के अरबों रूपये के घोटालों पर पूरी तरह से पर्दा डाला जा सके. ऐसा लगता है कि टाटा ने यह चिट्ठी ऐसे लोगों से सलाह करके लिखा है जो बीजेपी और कांग्रेस दोनों के साथ धंधा करते हैं .दुनिया जानती है कि टाटा ग्रुप के लोग कांग्रेस और बीजेपी दोनों के ही बहुत क़रीबी हैं . आखिर अभी कल की बात है जब यू पी ए की रेल मंत्री ममता बनर्जी ने टाटा को सिंगुर से खदेड़ा था ,तो बीजेपी के सबसे ताक़तवर नेता , नरेंद्र मोदी ने उन्हें अपने राज्य में सम्मान सहित स्थापित किया था और रतन टाटा ने भी नरेंद्र मोदी की तारीफ़ में गीत गाये थे. इसलिए टाटा को बीजेपी का दुश्मन बताने की कोशिश तो बिलकुल नहीं की जानी चाहिए , वे दोनों ही पूंजीवादी पार्टियों के अपने बन्दे हैं . जानकार बता रहे हैं कि टाटा के हस्तक्षेप को सोच समझ कर करवाया गया है जिस से जनता की जो संपत्ति लूटी गयी है उसको जांच के दायरे से बाहर लाया जा सके. दुर्भाग्य यह है कि इस देश में लगभग सभी बड़े मीडिया हाउस पूंजीवादी व्यवस्था के सेवक हैं और सब चाहते हैं कि शासक वर्गों की पार्टियां मौज करती रहें और गरीब आदमी जिसके विकास के लिए सरकारी नीतियाँ बनायी जानी चाहिए वह परेशानी के कुचक्र में डूबता उतराता रहे.
जो भी हो टाटा के नए बयान से कम से कम पवित्रता की चादर ओढ़ कर बाकी दुनिया को भ्रष्ट कह रहे हर टी वी चैनल पर प्रकट होने वाले बीजेपी के नेताओं की वाणी में थोड़ी विनम्रता की झलक देखने को मिलेगी. अब बात समझ में आने लगी है कि कि क्यों बीजेपी वाले आपराधिक जांच का विरोध करते रहे हैं .आपराधिक जांच का काम पुलिस का पावर रखने वाली एजेंसियों की तरफ से होने की वजह से जांच का काम पूरा होते ही अपने आप मुक़दमा चल जाता है यानी अगर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में कोई जांच होती है तो अगर अपराध साबित हुआ तो अपने आप आपराधिक मुक़दमा चल पडेगा . अन्य किसी जांच के बाद सी बी आई या किसी अन्य पुलिस एजेंसी को एफ आई आर लिख कर जांच करके तब मुक़दमा चलाने की बात होती है .मसलन अब अगर २००१ से लेकर अब तक के दूरसंचार के घोटालों की जांच करवाई जायेगी तो जो भी दोषी होगा उसके खिलाफ आपराधिक मुक़दमा चल पड़ेगा. ऐसी हालत बीजेपी को सूट नहीं करती और कांग्रेस को मज़ा आ रहा है क्योंकि अगर ए राजा पकड़ा भी जाता है तो वह कांग्रेस का सदस्य तो है नहीं जबकि बीजेपी के राज में जो भी मंत्री थे सब बीजेपी वालों के सदस्य थे . जिन लोगों ने उस दौर में रिपोर्ट किया है उन्हें याद होगा कि स्व प्रमोद महाजन इस बात का बहुत बुरा मानते थे जब दूरसंचार जैसा मलाईदार विभाग किसी सहयोगी पार्टी के पास जाने की बाद की जाती थी. बहरहाल अब जनता की ओर से पत्रकारिता कर रहे लोगों को चाहिए कि ए राजा और २००१ की हेराफेरी की जांच के लिए दबाव बनाये रखें वरना जो एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ राजा ने डकारे हैं और २५ जनवरी की एक रात को एन डी ए के राज में जो मुफ्त स्पेक्ट्रम देकर लाखों करोड़ डकारे गए थे सब की जांच अधूरी रह जायेगी
टेलीकाम घोटाले ने सुखराम युग की याद ताज़ा कर दी .उस बार भी करीब ३७ दिन तक बीजेपी ने संसद की कार्यवाही नहीं चलने दिया था. पी वी नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री थे और सुखराम ने हिमाचल फ्यूचरिस्टिक नाम की किसी कंपनी को नाजायज़ लाभ पंहुचा कर हेराफेरी की थी. बाद में वही सुखराम बीजेपी के आदरणीय सदस्य बन गए थे . आज भी जब बीजेपी के नेताओं की पत्रकार वार्ताओं में सुखराम शब्द का ज़िक्र आता है ,वे खिसिया जाते हैं . लगता है कि मौजूदा टेलीकाम घोटाले के बाद भी बीजीपी का वही हाल होने वाला है . क्योंकि १९९९ से लेकर २००४ तक बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार की आँखों के तारे रहे रतन टाटा ने बीजेपी की पोल खोलने का काम शुरू कर दिया है . अपने मुल्क में टाटा को बहुत ही पवित्र पूंजीपति मानने का फैशन है . बीजेपी वालों ने भी अब तक टाटा को बहुत ही पवित्र आत्मा बताने की बार बार कोशिश की है . आज भी आरोप लगाया जाता है कि कि बीजेपी की सरकार ने विदेश सचार निगम जैसी संपन्न कंपनी को टाटा के हाथों कौड़ियों के मोल बेच दिया था. बताते हैं कि विदेश संचार निगम के पास जितनी ज़मीन दिल्ली में है ,उसके १ प्रतिशत से ही १२०० करोड़ निकाला जा सकता है . आरोप है कि बीजेपी के राज में जो भी भाई संचार मंत्री था, उसने खेल कर दिया था और सरकारी कंपनी को सस्ते दाम पर बेच कर नंबर दो में रक़म अपनी अंटी में डाल लिया था . उन्हीं टाटा महोदय ने बीजेपी की कृपा से एम पी बने एक उद्योगपति की चिट्ठी के जवाब में साफ़ लिख दिया है कि संचार के क्षेत्र में हेराफेरी बीजेपी के राज में भी हुई थी. टाटा की इस चिट्ठी के बाद काकटेल सर्किट में हडकंप मच गया है. इस चिट्ठी के पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी सुझाव दिया था कि २००१ से शुरू कर के संचार और २ जी स्पेक्ट्रम घोटालों की जांच की जानी चाहिए . बीजेपी वाले फ़ौरन रक्षात्मक मुद्रा में आ गए और कहने लगे कि हम तो तैयार हैं . अब उन्हें कौन बताये कि भाई आपके तैयार होने का कोई मतलब नहीं है . अब तो सुप्रीम कोर्ट का संकेत आ गया है और अब तो जांच शुरू हो जायेगी. आप लोगों को चाहिए कि अब अपने आप को बचाने की कोशिश शुरू कर दें .टाटा के मैदान ले लेने के बाद लगता है कि अब संचार घोटाले की जांच सही तरीके से नहीं होगी और फिल्म 'जाने भी दो यारों 'की तर्ज़ पर लीपा पोती कर दी जायेगी . यह काम दिल्ली की काकटेल सर्किट के नेता जैन हवाला काण्ड के दौरान कर चुके हैं . जैन हवाला काण्ड में भी बीजेपी के लाल कृष्ण आडवाणी, जे डी यू के शरद यादव , कांग्रेस के अरुण नेहरू और सतीश शर्मा पर जे के एल एफ के हवाले से पैसा लेने का आरोप लगा था ,जांच भी बैठाई गयी थी लेकिन उस जांच का नतीजा पता नहीं इतिहास के किस डस्टबिन में दफ़न हो गया .कामनवेल्थ खेलों में भी हज़ारों करोड़ की लूट मचाई गयी थी लेकिन जब दोनों की मुख्य पार्टियों के सूरमाओं के नाम आने लगे तो उसके भी दफ़न की तैयारी कर दी गयी. अब जब टाटा ने बीजेपी की पोल भी खोलना शुरू कर दिया है तो लगता है कि २जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच का भी वही हस्र होगा जो जैन हवाला काण्ड की जांच का हुआ था. पूंजीपतियों के सबसे प्रिय चैनल ने जिस जोशो खरोश से टाटा की चिट्ठी के हवाले से मामले को तूल देना शुरू किया है ,उस से तो साफ़ ज़ाहिर है कि टाटा की चिट्ठी सोची समझी नीति के तहत लिखी गयी है जिस से संचार के अरबों रूपये के घोटालों पर पूरी तरह से पर्दा डाला जा सके. ऐसा लगता है कि टाटा ने यह चिट्ठी ऐसे लोगों से सलाह करके लिखा है जो बीजेपी और कांग्रेस दोनों के साथ धंधा करते हैं .दुनिया जानती है कि टाटा ग्रुप के लोग कांग्रेस और बीजेपी दोनों के ही बहुत क़रीबी हैं . आखिर अभी कल की बात है जब यू पी ए की रेल मंत्री ममता बनर्जी ने टाटा को सिंगुर से खदेड़ा था ,तो बीजेपी के सबसे ताक़तवर नेता , नरेंद्र मोदी ने उन्हें अपने राज्य में सम्मान सहित स्थापित किया था और रतन टाटा ने भी नरेंद्र मोदी की तारीफ़ में गीत गाये थे. इसलिए टाटा को बीजेपी का दुश्मन बताने की कोशिश तो बिलकुल नहीं की जानी चाहिए , वे दोनों ही पूंजीवादी पार्टियों के अपने बन्दे हैं . जानकार बता रहे हैं कि टाटा के हस्तक्षेप को सोच समझ कर करवाया गया है जिस से जनता की जो संपत्ति लूटी गयी है उसको जांच के दायरे से बाहर लाया जा सके. दुर्भाग्य यह है कि इस देश में लगभग सभी बड़े मीडिया हाउस पूंजीवादी व्यवस्था के सेवक हैं और सब चाहते हैं कि शासक वर्गों की पार्टियां मौज करती रहें और गरीब आदमी जिसके विकास के लिए सरकारी नीतियाँ बनायी जानी चाहिए वह परेशानी के कुचक्र में डूबता उतराता रहे.
जो भी हो टाटा के नए बयान से कम से कम पवित्रता की चादर ओढ़ कर बाकी दुनिया को भ्रष्ट कह रहे हर टी वी चैनल पर प्रकट होने वाले बीजेपी के नेताओं की वाणी में थोड़ी विनम्रता की झलक देखने को मिलेगी. अब बात समझ में आने लगी है कि कि क्यों बीजेपी वाले आपराधिक जांच का विरोध करते रहे हैं .आपराधिक जांच का काम पुलिस का पावर रखने वाली एजेंसियों की तरफ से होने की वजह से जांच का काम पूरा होते ही अपने आप मुक़दमा चल जाता है यानी अगर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में कोई जांच होती है तो अगर अपराध साबित हुआ तो अपने आप आपराधिक मुक़दमा चल पडेगा . अन्य किसी जांच के बाद सी बी आई या किसी अन्य पुलिस एजेंसी को एफ आई आर लिख कर जांच करके तब मुक़दमा चलाने की बात होती है .मसलन अब अगर २००१ से लेकर अब तक के दूरसंचार के घोटालों की जांच करवाई जायेगी तो जो भी दोषी होगा उसके खिलाफ आपराधिक मुक़दमा चल पड़ेगा. ऐसी हालत बीजेपी को सूट नहीं करती और कांग्रेस को मज़ा आ रहा है क्योंकि अगर ए राजा पकड़ा भी जाता है तो वह कांग्रेस का सदस्य तो है नहीं जबकि बीजेपी के राज में जो भी मंत्री थे सब बीजेपी वालों के सदस्य थे . जिन लोगों ने उस दौर में रिपोर्ट किया है उन्हें याद होगा कि स्व प्रमोद महाजन इस बात का बहुत बुरा मानते थे जब दूरसंचार जैसा मलाईदार विभाग किसी सहयोगी पार्टी के पास जाने की बाद की जाती थी. बहरहाल अब जनता की ओर से पत्रकारिता कर रहे लोगों को चाहिए कि ए राजा और २००१ की हेराफेरी की जांच के लिए दबाव बनाये रखें वरना जो एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ राजा ने डकारे हैं और २५ जनवरी की एक रात को एन डी ए के राज में जो मुफ्त स्पेक्ट्रम देकर लाखों करोड़ डकारे गए थे सब की जांच अधूरी रह जायेगी
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Tuesday, December 7, 2010
बाबासाहेब अंबेडकर की याद में लगा मुंबई में मेला
शेष नारायण सिंह
दिल्ली में रहने वालों को महान नेताओं की समाधियों के बारे में खासी जानकारी रहती है. लगभग हर महीने ही सरकारी तौर पर समाधियों पर फूल माला चढ़ती रहती है . यह अलग बात है कि महात्मा गाँधी के अलावा और किसी समाधि पर आम आदमी शायद ही कभी जाता हो . अवाम की श्रद्धा के स्थान के रूप में महात्मा जी की समाधि तो स्थापित हो चुकी है लेकिन बाकी सब कुछ सरकारी स्तर पर ही है . करीब ३५ साल से दिल्ली में रह रहे अवध के एक गाँव से आये हुए इंसान के लिए यह सब उत्सुकता नहीं पैदा करता. बचपन में पढ़ा था कि शहीदों की मजारों पर हर बरस मेले लगने वाले थे लेकिन महत्मा गाँधी जैसे शहीद की मजार पर वैसा मेला कभी नहीं दिखा जैसा कि हमारे गाँव के आसपास के सालाना मेलों के अवसर पर लगता है .हाँ यह सच है कि गाँधी जी की समाधि पर दिल्ली आने वाले ज़्यादातर लोग जाते ज़रूर हैं ,वे चाहे आम जन हों या किसी देश के शासक .कई बार सोचता था कि शायद शहादत को बढ़ावा देने के लिए ऐसा कह दिया गया था, मेला वेला कहीं नहीं लगने वाला था . लेकिन इस सोच को इस बार ज़बरदस्त झटका लगा . इस साल बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस के मौके पर मुंबई में मौजूद रहने का मौक़ा मिला. बात बिलकुल समझ में आ गयी कि जिन लोगों ने भी कहा था कि शहीदों की मजारों पर लगेगें हर बरस मेले, वह सच कह रहा था. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की चैत्यभूमि पर इस साल छः दिसम्बर को मेला लगा था . मैंने अपनी आँखों से देखा . जिन लोगों से वहां मुलाक़ात हुई उन्होंने बताया कि यहाँ इसी तरह का मेला हर साल लगता है . लाखों लोग पूरे महाराष्ट्र से छः दिसंबर को मुंबई के दादर की चौपाटी पर आते हैं और बाबासाहेब की स्मृति में सिर झुकाते हैं .
इस साल भी दादर स्थित बाबासाहेब के स्मारक, चैत्यभूमि पर कई लाख लोग आये, एक दिन पहले से ही लाइन लगने लगी थी .दादर की चौपाटी की तरफ जाने वाली हर सड़क पर इंसानों का सैलाब उमड़ पड़ा था. २ किलोमीटर लम्बी लाइन लगी थी . जब मैं वरली पंहुचा तो लाइन में लगा हुआ आख़िरी व्यक्ति वहीं था . वरली की दूरी दादर के स्मारक से करीब २ किलोमीटर है . जानकारों ने बताया कि आम तौर पर छ से सात घंटे लाइन में लगकर ही बाबासाहेब की समाधि तक पंहुचा जा सकता है .५ दिसंबर से ही लाइन में लगे लोग ६ दिसंबर को शिवाजी पार्क में सार्वजनिक सभा में उतनी ही खुशी से शामिल होते हैं .. लोगों के चेहरों पर जो उत्साह दिखता है ,जिसने उसे नहीं देखा ,उसे मालूम ही नहीं कि उत्साह होती क्या चीज़ है . .बहुत ही पतली गलियों से होकर चैत्यभूमि का रास्ता गुज़रता है. पुलिस का बहुत ही ज़बरदस्त इंतज़ाम था . इसलिए ज़्यादातर लोगों को मालूम था कि वे वहां तक नहीं पंहुच पायेगें . लेकिन उन्हने चिंता नहीं थी .लोग दादर की चौपाटी पर गीली रेत से उत्साही लग बाबासाहेब का स्मारक बना लेते हैं और उसी स्मारक के सामने अपनी श्रद्धा के फूल अर्पित कर देते हैं .रेत के बने इन स्मारकों पर भी बहुत सारे पुष्प चढ़ाए गए थे ,मोमबत्तियां लगी हुई थीं और अगरबत्तियां सुलग रही थीं .दादर से लेकर परेल तक सडकों पर बहुत सारे लोग ऐसे भी थे जो अंबेडकर साहित्य बेच रहे थे.अंबेडकर की तस्वीरें भी बिक रही थीं ,उनकी मूर्तियों का भी बहुत बड़ा ज़खीएर था और बहुत सारे लोग अपने हाथ पर अंबेडकर की तस्वीर का टैटू गुदवा रहे थे.
औरंगाबाद से आये एक परिवार से पता लगा कि वे हर साल छः दिसंबर को दादर आते हैं लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि चैत्यभूमि तक नहीं पंहुचते . फिर भी कोई परवाह नहीं . जब चलते हैं और वापस जाने के एक हफ्ते तक उनके घर का माहौल अंबेडकरमय रहता है .उत्तर प्रदेश के रहने वाले आदमी को लगता है कि डॉ अंबेडकर से जुड़ा कोई भी कार्यक्रम दलितों के आकर्षण की ही चीज़ है लेकिन मुंबई की सडकों पर छः दिसंबर को घूमते हुए इस धारणा के परखचे उड़ गए. दादर के आसपास ऐसे बहुत सारे लोग मिले जो दलित नहीं थे. उनके पूर्वज दलितों के शोषक रह चुके थे लेकिन वे अब पूरी तरह से बाबासाहेब की सामाजिक न्याय की लड़ाई में शामिल हैं . ऐसा शायद इसलिए होता है कि महाराष्ट्र में सामाजिक बराबरी के संघर्ष का एक मज़बूत इतिहास है . डॉ अंबेडकर के पहले इसी महाराष्ट्र में महात्मा फुले ने भी सामाजिक बराबरी के संघर्ष को एक स्वरुप दिया था और अपने माता पिता के विरोध के बावजूद १८४८ में पूना में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोल दिया था . उन्हें अपने घरवालों की नाराज़गी झेलनी पड़ी थी लेकिन आन्दोलन चलता रहा था.डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा समय से चल रहे बराबरी के आन्दोलन के नतीजे की ताक़त तब समझ में आई जब दादर की चैत्य भूमि में अंबेडकर के भक्तों का हुजूम देखा. और लगा कि जिसने भी कहा था कि शहीदों की याद में हर बरस मेले लगेगें , उसने गलत नहीं कहा था
दिल्ली में रहने वालों को महान नेताओं की समाधियों के बारे में खासी जानकारी रहती है. लगभग हर महीने ही सरकारी तौर पर समाधियों पर फूल माला चढ़ती रहती है . यह अलग बात है कि महात्मा गाँधी के अलावा और किसी समाधि पर आम आदमी शायद ही कभी जाता हो . अवाम की श्रद्धा के स्थान के रूप में महात्मा जी की समाधि तो स्थापित हो चुकी है लेकिन बाकी सब कुछ सरकारी स्तर पर ही है . करीब ३५ साल से दिल्ली में रह रहे अवध के एक गाँव से आये हुए इंसान के लिए यह सब उत्सुकता नहीं पैदा करता. बचपन में पढ़ा था कि शहीदों की मजारों पर हर बरस मेले लगने वाले थे लेकिन महत्मा गाँधी जैसे शहीद की मजार पर वैसा मेला कभी नहीं दिखा जैसा कि हमारे गाँव के आसपास के सालाना मेलों के अवसर पर लगता है .हाँ यह सच है कि गाँधी जी की समाधि पर दिल्ली आने वाले ज़्यादातर लोग जाते ज़रूर हैं ,वे चाहे आम जन हों या किसी देश के शासक .कई बार सोचता था कि शायद शहादत को बढ़ावा देने के लिए ऐसा कह दिया गया था, मेला वेला कहीं नहीं लगने वाला था . लेकिन इस सोच को इस बार ज़बरदस्त झटका लगा . इस साल बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस के मौके पर मुंबई में मौजूद रहने का मौक़ा मिला. बात बिलकुल समझ में आ गयी कि जिन लोगों ने भी कहा था कि शहीदों की मजारों पर लगेगें हर बरस मेले, वह सच कह रहा था. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की चैत्यभूमि पर इस साल छः दिसम्बर को मेला लगा था . मैंने अपनी आँखों से देखा . जिन लोगों से वहां मुलाक़ात हुई उन्होंने बताया कि यहाँ इसी तरह का मेला हर साल लगता है . लाखों लोग पूरे महाराष्ट्र से छः दिसंबर को मुंबई के दादर की चौपाटी पर आते हैं और बाबासाहेब की स्मृति में सिर झुकाते हैं .
इस साल भी दादर स्थित बाबासाहेब के स्मारक, चैत्यभूमि पर कई लाख लोग आये, एक दिन पहले से ही लाइन लगने लगी थी .दादर की चौपाटी की तरफ जाने वाली हर सड़क पर इंसानों का सैलाब उमड़ पड़ा था. २ किलोमीटर लम्बी लाइन लगी थी . जब मैं वरली पंहुचा तो लाइन में लगा हुआ आख़िरी व्यक्ति वहीं था . वरली की दूरी दादर के स्मारक से करीब २ किलोमीटर है . जानकारों ने बताया कि आम तौर पर छ से सात घंटे लाइन में लगकर ही बाबासाहेब की समाधि तक पंहुचा जा सकता है .५ दिसंबर से ही लाइन में लगे लोग ६ दिसंबर को शिवाजी पार्क में सार्वजनिक सभा में उतनी ही खुशी से शामिल होते हैं .. लोगों के चेहरों पर जो उत्साह दिखता है ,जिसने उसे नहीं देखा ,उसे मालूम ही नहीं कि उत्साह होती क्या चीज़ है . .बहुत ही पतली गलियों से होकर चैत्यभूमि का रास्ता गुज़रता है. पुलिस का बहुत ही ज़बरदस्त इंतज़ाम था . इसलिए ज़्यादातर लोगों को मालूम था कि वे वहां तक नहीं पंहुच पायेगें . लेकिन उन्हने चिंता नहीं थी .लोग दादर की चौपाटी पर गीली रेत से उत्साही लग बाबासाहेब का स्मारक बना लेते हैं और उसी स्मारक के सामने अपनी श्रद्धा के फूल अर्पित कर देते हैं .रेत के बने इन स्मारकों पर भी बहुत सारे पुष्प चढ़ाए गए थे ,मोमबत्तियां लगी हुई थीं और अगरबत्तियां सुलग रही थीं .दादर से लेकर परेल तक सडकों पर बहुत सारे लोग ऐसे भी थे जो अंबेडकर साहित्य बेच रहे थे.अंबेडकर की तस्वीरें भी बिक रही थीं ,उनकी मूर्तियों का भी बहुत बड़ा ज़खीएर था और बहुत सारे लोग अपने हाथ पर अंबेडकर की तस्वीर का टैटू गुदवा रहे थे.
औरंगाबाद से आये एक परिवार से पता लगा कि वे हर साल छः दिसंबर को दादर आते हैं लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि चैत्यभूमि तक नहीं पंहुचते . फिर भी कोई परवाह नहीं . जब चलते हैं और वापस जाने के एक हफ्ते तक उनके घर का माहौल अंबेडकरमय रहता है .उत्तर प्रदेश के रहने वाले आदमी को लगता है कि डॉ अंबेडकर से जुड़ा कोई भी कार्यक्रम दलितों के आकर्षण की ही चीज़ है लेकिन मुंबई की सडकों पर छः दिसंबर को घूमते हुए इस धारणा के परखचे उड़ गए. दादर के आसपास ऐसे बहुत सारे लोग मिले जो दलित नहीं थे. उनके पूर्वज दलितों के शोषक रह चुके थे लेकिन वे अब पूरी तरह से बाबासाहेब की सामाजिक न्याय की लड़ाई में शामिल हैं . ऐसा शायद इसलिए होता है कि महाराष्ट्र में सामाजिक बराबरी के संघर्ष का एक मज़बूत इतिहास है . डॉ अंबेडकर के पहले इसी महाराष्ट्र में महात्मा फुले ने भी सामाजिक बराबरी के संघर्ष को एक स्वरुप दिया था और अपने माता पिता के विरोध के बावजूद १८४८ में पूना में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोल दिया था . उन्हें अपने घरवालों की नाराज़गी झेलनी पड़ी थी लेकिन आन्दोलन चलता रहा था.डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा समय से चल रहे बराबरी के आन्दोलन के नतीजे की ताक़त तब समझ में आई जब दादर की चैत्य भूमि में अंबेडकर के भक्तों का हुजूम देखा. और लगा कि जिसने भी कहा था कि शहीदों की याद में हर बरस मेले लगेगें , उसने गलत नहीं कहा था
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शेष नारायण सिंह
Thursday, December 2, 2010
पूंजीवाद की सेवक पत्रकारिता और जन पक्षधरता की पत्रकारिता में फर्क है
शेष नारायण सिंह
१९७३ में जब मैंने शिक्षक के रूप में काम शुरू किया तो एक गुरू ने मन्त्र दिया था कि जो भी ताक़तवर होगा उसे पूंजीपति अपने कब्जे में ले लेगा . गंवई माहौल में बात कही गयी थी. वहां सबसे बड़ा पूंजीपति गावं का वह साहूकार ही होता था जो लोगों को कुछ पैसे कौड़ी उधार दे देता था.शादी व्याह में मदद कर देता था ,क़र्ज़ दे देता था . इलाके के सबसे गरीब आदमी टिहूरी का बेटा जब तहसील में बाबू हो गया तो सेठ ने उसे अपना आदमी घोषित कर दिया. कुछ कपड़ा लत्ता बनवा दिया जिसे पहन कर वह दफ्तर जा सके. सबको लगा कि ठीक ही है . सामाजिक आर्थिक स्थिति में बहुत फर्क नहीं था इसलिए गैप ज्यादा बड़ा नहीं दिखा . दिल्ली आने के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उन आदि क्रांतिकारियों से मुलाक़ात हुई जो मानते थे कि पिछली सदी के अंत तक भारत में इन्किलाब आ जाएगा. ज़ाहिर है कि यह विचार ख्याली पुलाव भर था . लेकिन जब धीरे धीरे उन्हीं क्रांतिकारियों को सिस्टम का हिस्सा बनते देखा तो बात समझ में आनी शुरू हुई कि गाँव में जिसे कॉमरेड शीतला गुप्ता ने पूंजीपति कहा था वह वास्तव में पूंजीवादी व्यवस्था थी . दिल्ली में देखा कि पूंजीवादी व्यवस्था ने राजनीति , नौकरशाही ,मीडिया सबको काबू में कर रखा है . अखबारों में नौकरी शुरू की और जब ज़रा सीनियर लेवल पर पंहुचे तो ऊपर से हिदायत आ जाती थी कि कुछ लोगों के खिलाफ खबर नहीं लिखना है . नीचे वालों को समझाया जाता था लेकिन तरीका ऐसा अपनाया जाता था कि उन्हें यह मुगालता बना रहे कि वे प्रेस की तथाकथित आज़ादी का लाभ उठा रहे हैं . जब टेलीविज़न में काम करने का अवसर मिला तो शुरुआती दौर दिलचस्प था .अपने देश में २४ घंटे की टी वी ख़बरों का वह आदिकाल था . अखबार से आये एक व्यक्ति के लिए बहुत मजेदार स्थिति थी . जो खबर जहां हुई ,अगर उसकी बाईट और शाट हाथ आ गए तो उन्हें लगाकर सही बात रखने में मज़ा बहुत आता था. लेकिन छः महीने के अन्दर पूंजीवादी व्यवस्था ने ऐसा सिस्टम बना दिया कि वही खबरें जाने लगीं जो संस्थान के हित में रहती थी. पीपली लाइव के अनुषा रिज़वी और महमूद फारूकी उन्हीं दिनों उसी न्यूज़ रूप में इस विकासमान व्यवस्था को देख रहे थे. पीपली लाइव की स्क्रिप्ट को उनके उस दौर के अनुभव से सीधे जोड़कर देखा जा सकता है . उसी संस्थान में बहुत सारे बहुत मामूली स्तर के लोगों को महान बनाने की कार्यशाला भी चल रही थी . और टेलिविज़न की चकाचौंध के शिकार ज़्यादातर लोगों को वही मीडियाकर लोग सर्वज्ञ बनाकर पेश कर दिए गए. दलाल शिरोमणि नीरा राडिया ने जो खेल किया है यह उसी पूंजीवादी प्रक्रिया का नतीजा है. अपने को भाग्यविधाता समझ बैठे पत्रकारों के उस मुगालते को हवा देकर नीरा राडिया अपना धंधा डंके की चोट पर चला रही थीं लेकिन कहीं कुछ गड़बड़ हो गयी . सरकार में बैठे किसी ईमानदार अफसर ने सिस्टम का ही फायदा उठाकर दिल्ली की सत्ता की गलियों में घूम रहे सत्ता के दलालों को पब्लिक डोमेन में ला दिया . . आज पत्रकारिता के चोले में अपना अन्य धंधा चला रहे दिल्ली के पावर ब्रोकर बेनकाब खड़े हैं. अपनी बिरादरी को बचाने की बड़े पैमाने पर कोशिश चल रही है . कोई ट्वीट पर अपनी बात कह रहा है ,तो कोई टेलिविज़न के कार्यक्रमों के तमाशे की मार्फ़त कौम को समझा रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि पत्रकारिता के ताक़तवर माध्यम में इन दलालनुमा पत्रकारों ने दाग तो लगाया ही है . पत्रकारिता से जुड़े लोगों और लोकशाही की पक्षधर जमातों के लिए भी चुनौती है कि पूंजीवाद की सेवक पत्रकारिता और जन पक्षधरता की पत्रकारिता के बीच जो बहुत बारीक लाइन है उसको बड़ी दीवार बनाने की मुहिम चलायें वरना इस देश के विकासमान लोकतंत्र का बहुत नुकसान हो जाएगा
१९७३ में जब मैंने शिक्षक के रूप में काम शुरू किया तो एक गुरू ने मन्त्र दिया था कि जो भी ताक़तवर होगा उसे पूंजीपति अपने कब्जे में ले लेगा . गंवई माहौल में बात कही गयी थी. वहां सबसे बड़ा पूंजीपति गावं का वह साहूकार ही होता था जो लोगों को कुछ पैसे कौड़ी उधार दे देता था.शादी व्याह में मदद कर देता था ,क़र्ज़ दे देता था . इलाके के सबसे गरीब आदमी टिहूरी का बेटा जब तहसील में बाबू हो गया तो सेठ ने उसे अपना आदमी घोषित कर दिया. कुछ कपड़ा लत्ता बनवा दिया जिसे पहन कर वह दफ्तर जा सके. सबको लगा कि ठीक ही है . सामाजिक आर्थिक स्थिति में बहुत फर्क नहीं था इसलिए गैप ज्यादा बड़ा नहीं दिखा . दिल्ली आने के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उन आदि क्रांतिकारियों से मुलाक़ात हुई जो मानते थे कि पिछली सदी के अंत तक भारत में इन्किलाब आ जाएगा. ज़ाहिर है कि यह विचार ख्याली पुलाव भर था . लेकिन जब धीरे धीरे उन्हीं क्रांतिकारियों को सिस्टम का हिस्सा बनते देखा तो बात समझ में आनी शुरू हुई कि गाँव में जिसे कॉमरेड शीतला गुप्ता ने पूंजीपति कहा था वह वास्तव में पूंजीवादी व्यवस्था थी . दिल्ली में देखा कि पूंजीवादी व्यवस्था ने राजनीति , नौकरशाही ,मीडिया सबको काबू में कर रखा है . अखबारों में नौकरी शुरू की और जब ज़रा सीनियर लेवल पर पंहुचे तो ऊपर से हिदायत आ जाती थी कि कुछ लोगों के खिलाफ खबर नहीं लिखना है . नीचे वालों को समझाया जाता था लेकिन तरीका ऐसा अपनाया जाता था कि उन्हें यह मुगालता बना रहे कि वे प्रेस की तथाकथित आज़ादी का लाभ उठा रहे हैं . जब टेलीविज़न में काम करने का अवसर मिला तो शुरुआती दौर दिलचस्प था .अपने देश में २४ घंटे की टी वी ख़बरों का वह आदिकाल था . अखबार से आये एक व्यक्ति के लिए बहुत मजेदार स्थिति थी . जो खबर जहां हुई ,अगर उसकी बाईट और शाट हाथ आ गए तो उन्हें लगाकर सही बात रखने में मज़ा बहुत आता था. लेकिन छः महीने के अन्दर पूंजीवादी व्यवस्था ने ऐसा सिस्टम बना दिया कि वही खबरें जाने लगीं जो संस्थान के हित में रहती थी. पीपली लाइव के अनुषा रिज़वी और महमूद फारूकी उन्हीं दिनों उसी न्यूज़ रूप में इस विकासमान व्यवस्था को देख रहे थे. पीपली लाइव की स्क्रिप्ट को उनके उस दौर के अनुभव से सीधे जोड़कर देखा जा सकता है . उसी संस्थान में बहुत सारे बहुत मामूली स्तर के लोगों को महान बनाने की कार्यशाला भी चल रही थी . और टेलिविज़न की चकाचौंध के शिकार ज़्यादातर लोगों को वही मीडियाकर लोग सर्वज्ञ बनाकर पेश कर दिए गए. दलाल शिरोमणि नीरा राडिया ने जो खेल किया है यह उसी पूंजीवादी प्रक्रिया का नतीजा है. अपने को भाग्यविधाता समझ बैठे पत्रकारों के उस मुगालते को हवा देकर नीरा राडिया अपना धंधा डंके की चोट पर चला रही थीं लेकिन कहीं कुछ गड़बड़ हो गयी . सरकार में बैठे किसी ईमानदार अफसर ने सिस्टम का ही फायदा उठाकर दिल्ली की सत्ता की गलियों में घूम रहे सत्ता के दलालों को पब्लिक डोमेन में ला दिया . . आज पत्रकारिता के चोले में अपना अन्य धंधा चला रहे दिल्ली के पावर ब्रोकर बेनकाब खड़े हैं. अपनी बिरादरी को बचाने की बड़े पैमाने पर कोशिश चल रही है . कोई ट्वीट पर अपनी बात कह रहा है ,तो कोई टेलिविज़न के कार्यक्रमों के तमाशे की मार्फ़त कौम को समझा रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि पत्रकारिता के ताक़तवर माध्यम में इन दलालनुमा पत्रकारों ने दाग तो लगाया ही है . पत्रकारिता से जुड़े लोगों और लोकशाही की पक्षधर जमातों के लिए भी चुनौती है कि पूंजीवाद की सेवक पत्रकारिता और जन पक्षधरता की पत्रकारिता के बीच जो बहुत बारीक लाइन है उसको बड़ी दीवार बनाने की मुहिम चलायें वरना इस देश के विकासमान लोकतंत्र का बहुत नुकसान हो जाएगा
Wednesday, December 1, 2010
काकटेल सर्किट के एक बुद्धिजीवी के जवाहरलाल नेहरू के बराबर बनने के सपने
शेष नारायण सिंह
बचपन में एक कहानी सुनी थी . एक बार जवाहरलाल नेहरू मानसिक रोगों के एक अस्पताल के मुआइने पर गए . वहां के एक मरीज़ ने पूछा कि आप कौन हैं भाई . नेहरू ने कहा कि मैं जवाहरलाल नेहरू हूँ . वह मरीज़ हंसा और बोला कि बेटा धीरे धीरे ठीक हो जाओगे . जब मैं भर्ती हुआ था , तो मैं भी अपने आपको जवाहरलाल नेहरू ही समझता था. अब ठीक हूँ . दिल्ली में पिछले दिनों ऐसा की एक ही दृश्य नज़र आया . जब सामाजिक कार्यकर्ता , अरुंधती रॉय ने अपनी तुलना जवाहरलाल नेहरू से कर दी. अरुंधती जी ने कश्मीर पर कोई बयान दिया और कुछ लोगों को लगा कि उन्होंने जो बयान दिया है उसमें देशद्रोह की मात्रा बहुत ज्यादा है . दिल्ली में हर समय में कुछ ऐसे बुद्धिजीवी सक्रिय रहते हैं जो कुछ उल जलूल कह कर ख़बरों में बने रहना चाहते हैं . अरुंधती राय उसी श्रेणी की बुद्धिजीवी हैं . उनके बारे में कहा जाता है कि गद्य बहुत अच्छा लिखती हैं . दिल्ली के काकटेल सर्किट में उनके बहुत सारे प्रशंसक हैं इसलिए जो कुछ भी वे कहती हैं उसे एक वर्ग के लोग बहुत पसंद करते हैं लेकिन सच्ची बात यह है कि उनको इतिहास के बारे में जो भी जानकारी है उसमें बहुत कुछ जोड़े जाने की ज़रुरत है . आजकल थोड़ी घबराई हुई हैं क्योंकि उनके ऊपर अगर देशद्रोह का मुक़दमा चला तो उन्हें जेल में रहना पड़ेगा जहां उनके प्रशंसक नहीं रहते .अपने बचाव में उन्होंने जो ताज़ा राग अलापा है वह बहुत ही अज्ञान से भरा है . फरमाती हैं कि जो बयान उन्होंने दिया है , वैसा ही बयान जवाहरलाल नेहरू भी दिया करते थे . यानी वे यह कहना चाहती हैं कि वे कुछ गलत नहीं कह रही हैं . उनके ऊपर मुक़दमा दायर करना वैसा ही होगा जैसे जवाहरलाल नेहरू के ऊपर मरणोपरांत मुक़दमा चलाया जाय. अपने बचाव में वे नेहरू की सन्दर्भ को इस्तेमाल करके यह साबित कर दे रही हैं कि उनको इतिहास की जानकारी बिल्कुल नहीं है. सच्चाई यह है कि सितम्बर १९४७ में जब जम्मू-कश्मीर के राजा ने भारत में अपने राज्य के विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया था तो पूरा राज्य शेख अब्दुल्ला के साथ था . और जम्मू-कश्मीर का हर नागरिक भारत के साथ विलय का पक्षधर था . महात्मा गाँधी ,जवाहरलाल नेहरू , सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने ही जोर दिया था कि राज्य की जनता की राय लेना ज़रूरी है लेकिन जिस पाकिस्तान के लिए अरुंधती राय लाठी भांज रही हैं , वह जनता की राय लेने के खिलाफ था . पाकिस्तान ने हर मोर्चे पर पाकिस्तानी जनता की बात को न मानने का खेल रचा था . लेकिन ६३ साल पहले की और आज की स्थिति में बहुत फर्क है . अब पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर में अपने एजेंट छोड़ रखे हैं जिन्होंने वहां पर माहौल को बिलकुल बिगाड़ रखा है .बहुत बड़े पैमाने पर पाकिस्तानी घुसपैठ हुई है . इसलिए पाकिस्तानी सेना की मर्जी से वहां जनमत संग्रह कराने की बात करना बेवकूफी होगी. ऐसी हालत में साफ़ समझा जा सकता है कि अपने आपको जवाहरलाल नेहरू की बात से जोड़ कर अरुंधती रॉय अपने अज्ञान का ही परिचय दे रही हैं .
देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिएकश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.
ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. . नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए , स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहे. लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर २१ अक्टोबर १९४७ के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.पाकिस्तान को यह स्वतंत्र देश बनाए रखने का महाराजा का आइडिया पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा मुगालते में था और पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी. लेकिन बात चीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ,ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और प्रधान मंत्री समेत बाकी अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जिनाह की उस बात को सच करने की तैयारी थी कि जब उन्होंने फरमाया था कि , " कश्मीर मेरी जेब में है."
कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया. कश्मीरी नेताओं के एक राय से लिए गए फैसले के पीछे कुछ बात है जो कश्मीर को एक ख़ास इलाका बनाती है जो बाकी राज्यों से भिन्न है. कश्मीर के यह खासियत जिसे कश्मीरियत भी कहा जाता है , पिछले पांच हज़ार वर्षों की सांस्कृतिक प्रगति का नतीजा है. कश्मीर हमेशा से ही बहुत सारी संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है . इसीलिये कश्मीरियत में महात्मा बुद्ध की शख्सियत , वेदान्त की शिक्षा और इस्लाम का सूफी मत समाहित है. बाकी दुनिया से जो भी आता रहा वह इसी कश्मीरियत में शामिल होता रहा .. कश्मीर मामलों के बड़े इतिहासकार मुहम्मद दीन फौक का कहना है कि अरब, इरान,अफगानिस्तान और तुर्किस्तान से जो लोग छ सात सौ साल पहले आये थे , वे सब कश्मीरी मुस्लिम बन चुके हैं .उन की एक ही पहचान है और वह है कश्मीरी इसी तरह से कश्मीरी भाषा भी बिलकुल अलग है . और कश्मीरी अवाम किसी भी बाहरी शासन को बर्दाश्त नहीं करता.
कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादीकी जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. . शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें. शेख कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . क्योंकि महत्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट " बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया . . इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.
कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने मेंबहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा , कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. .
कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब भी भारत में विलय ही था . यह देश का दुर्भाग्य है कि जवाहरलाल नेहरू के बाद ऐसे नेता आये जिन्होंने मामले को खराब करने में योगदान किया लेकिन हालात इतने भी खराब नहीं हैं कि अरुंधती राय जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी अपने को नेहरू के स्तर का चिन्तक बताने का दुस्साहस करें .
बचपन में एक कहानी सुनी थी . एक बार जवाहरलाल नेहरू मानसिक रोगों के एक अस्पताल के मुआइने पर गए . वहां के एक मरीज़ ने पूछा कि आप कौन हैं भाई . नेहरू ने कहा कि मैं जवाहरलाल नेहरू हूँ . वह मरीज़ हंसा और बोला कि बेटा धीरे धीरे ठीक हो जाओगे . जब मैं भर्ती हुआ था , तो मैं भी अपने आपको जवाहरलाल नेहरू ही समझता था. अब ठीक हूँ . दिल्ली में पिछले दिनों ऐसा की एक ही दृश्य नज़र आया . जब सामाजिक कार्यकर्ता , अरुंधती रॉय ने अपनी तुलना जवाहरलाल नेहरू से कर दी. अरुंधती जी ने कश्मीर पर कोई बयान दिया और कुछ लोगों को लगा कि उन्होंने जो बयान दिया है उसमें देशद्रोह की मात्रा बहुत ज्यादा है . दिल्ली में हर समय में कुछ ऐसे बुद्धिजीवी सक्रिय रहते हैं जो कुछ उल जलूल कह कर ख़बरों में बने रहना चाहते हैं . अरुंधती राय उसी श्रेणी की बुद्धिजीवी हैं . उनके बारे में कहा जाता है कि गद्य बहुत अच्छा लिखती हैं . दिल्ली के काकटेल सर्किट में उनके बहुत सारे प्रशंसक हैं इसलिए जो कुछ भी वे कहती हैं उसे एक वर्ग के लोग बहुत पसंद करते हैं लेकिन सच्ची बात यह है कि उनको इतिहास के बारे में जो भी जानकारी है उसमें बहुत कुछ जोड़े जाने की ज़रुरत है . आजकल थोड़ी घबराई हुई हैं क्योंकि उनके ऊपर अगर देशद्रोह का मुक़दमा चला तो उन्हें जेल में रहना पड़ेगा जहां उनके प्रशंसक नहीं रहते .अपने बचाव में उन्होंने जो ताज़ा राग अलापा है वह बहुत ही अज्ञान से भरा है . फरमाती हैं कि जो बयान उन्होंने दिया है , वैसा ही बयान जवाहरलाल नेहरू भी दिया करते थे . यानी वे यह कहना चाहती हैं कि वे कुछ गलत नहीं कह रही हैं . उनके ऊपर मुक़दमा दायर करना वैसा ही होगा जैसे जवाहरलाल नेहरू के ऊपर मरणोपरांत मुक़दमा चलाया जाय. अपने बचाव में वे नेहरू की सन्दर्भ को इस्तेमाल करके यह साबित कर दे रही हैं कि उनको इतिहास की जानकारी बिल्कुल नहीं है. सच्चाई यह है कि सितम्बर १९४७ में जब जम्मू-कश्मीर के राजा ने भारत में अपने राज्य के विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया था तो पूरा राज्य शेख अब्दुल्ला के साथ था . और जम्मू-कश्मीर का हर नागरिक भारत के साथ विलय का पक्षधर था . महात्मा गाँधी ,जवाहरलाल नेहरू , सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने ही जोर दिया था कि राज्य की जनता की राय लेना ज़रूरी है लेकिन जिस पाकिस्तान के लिए अरुंधती राय लाठी भांज रही हैं , वह जनता की राय लेने के खिलाफ था . पाकिस्तान ने हर मोर्चे पर पाकिस्तानी जनता की बात को न मानने का खेल रचा था . लेकिन ६३ साल पहले की और आज की स्थिति में बहुत फर्क है . अब पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर में अपने एजेंट छोड़ रखे हैं जिन्होंने वहां पर माहौल को बिलकुल बिगाड़ रखा है .बहुत बड़े पैमाने पर पाकिस्तानी घुसपैठ हुई है . इसलिए पाकिस्तानी सेना की मर्जी से वहां जनमत संग्रह कराने की बात करना बेवकूफी होगी. ऐसी हालत में साफ़ समझा जा सकता है कि अपने आपको जवाहरलाल नेहरू की बात से जोड़ कर अरुंधती रॉय अपने अज्ञान का ही परिचय दे रही हैं .
देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिएकश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.
ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. . नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए , स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहे. लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर २१ अक्टोबर १९४७ के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.पाकिस्तान को यह स्वतंत्र देश बनाए रखने का महाराजा का आइडिया पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा मुगालते में था और पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी. लेकिन बात चीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ,ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और प्रधान मंत्री समेत बाकी अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जिनाह की उस बात को सच करने की तैयारी थी कि जब उन्होंने फरमाया था कि , " कश्मीर मेरी जेब में है."
कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया. कश्मीरी नेताओं के एक राय से लिए गए फैसले के पीछे कुछ बात है जो कश्मीर को एक ख़ास इलाका बनाती है जो बाकी राज्यों से भिन्न है. कश्मीर के यह खासियत जिसे कश्मीरियत भी कहा जाता है , पिछले पांच हज़ार वर्षों की सांस्कृतिक प्रगति का नतीजा है. कश्मीर हमेशा से ही बहुत सारी संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है . इसीलिये कश्मीरियत में महात्मा बुद्ध की शख्सियत , वेदान्त की शिक्षा और इस्लाम का सूफी मत समाहित है. बाकी दुनिया से जो भी आता रहा वह इसी कश्मीरियत में शामिल होता रहा .. कश्मीर मामलों के बड़े इतिहासकार मुहम्मद दीन फौक का कहना है कि अरब, इरान,अफगानिस्तान और तुर्किस्तान से जो लोग छ सात सौ साल पहले आये थे , वे सब कश्मीरी मुस्लिम बन चुके हैं .उन की एक ही पहचान है और वह है कश्मीरी इसी तरह से कश्मीरी भाषा भी बिलकुल अलग है . और कश्मीरी अवाम किसी भी बाहरी शासन को बर्दाश्त नहीं करता.
कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादीकी जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. . शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें. शेख कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . क्योंकि महत्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट " बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया . . इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.
कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने मेंबहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा , कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. .
कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब भी भारत में विलय ही था . यह देश का दुर्भाग्य है कि जवाहरलाल नेहरू के बाद ऐसे नेता आये जिन्होंने मामले को खराब करने में योगदान किया लेकिन हालात इतने भी खराब नहीं हैं कि अरुंधती राय जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी अपने को नेहरू के स्तर का चिन्तक बताने का दुस्साहस करें .
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शेष नारायण सिंह
Thursday, November 25, 2010
बिहार में नीतीश की जीत वंशवादी राजनीति के अंत की शुरुआत है
शेष नारायण सिंह
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा के लिए हुए चुनाव नतीजे आ जाने के बाद ऐलान किया कि यह जीत बिहार की जनता की है . यह अलग बात है कि उनके साथ चुनाव लड़ने वाली बीजेपी इसे अपनी जीत मान रही है . और एन डी ए की नीतियों का डंका पीट रही है लेकिन सच्चाई नीतीश कुमार के बयान से साफ़ नज़र आ रही है . राजनीति के जानकार कहते हैं कि यह जीत न तो जे डी यू की है और न ही एन डी ए की , यह साफ़तौर पर नीतीश कुमार की जीत है . उनके साथ जो भी खड़ा था वह जीत गया .चाहे वह बीजेपी जैसी पार्टी ही क्यों न हो . एक और सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए . वह यह कि खुद नीतीश कुमार को भी नहीं अंदाज़ था कि बिहार की जनता उनके साथ इतने बड़े पैमाने पर जुड़ चुकी है . अगर ऐसा होता तो इस बात की पूरी संभावना है कि बीजेपी से ऊब चुके नीतीश कुमार चुनाव के पहले अकेले ही जाने का फैसला कर लेते और दिल्ली से ले कर पटना तक नीतीश की जीत को अपनी जीत बता रही बीजेपी भी उसी हस्र को पंहुच गयी होती जिसको, लालू प्रसाद, राम विलास पासवान और कांग्रेस के लोग पंहुचे हैं . बिहार के चुनावों में पासवान की तरफ से प्रेस मैनेज कर रहे एक श्रीमानजी से जब पूछा गया था कि क्या राम विलास जी की पार्टी को कुछ सम्मानजनक सीटें मिल जायेगीं ,तो उन्होंने लगभग नाराज़ होते हुए कह दिया था कि २४ नवम्बर को गिनती के बाद देखिएगा, लालू जी के साथ मिलकर पासवान जी सरकार बनायेगें . उसी तरह , लालू भी मुगालते में थे. शायद इसीलिये उन्होंने नतीजों को विस्मयकारी बताया . कांग्रेस के लोग भी राहुल गाँधी की सभाओं में आ रहे लोगों की संख्या को वास्तविक मान रहे थे और उम्मीद कर रहे थे कि इस बार कांग्रेस की किस्मत सुधरेगी. लेकिन नतीजे आने के बाद बिलकुल साफ़ हो गया है कि सब लोग मुगालते में थे . किसी को भनक भी नहीं थी कि जनता क्या फैसला करने वाली है. जनता ने फैसला सुना दिया है और उसने नीतीश कुमार की हर बात का विश्वास किया है .फैसला इस बात का ऐलान है कि बिहार के लोग नीतीश के साथ हैं .
अपनी आदत के मुताबिक नीतीश कुमार ने जनता के फैसले को सिर झुका कर स्वीकार किया है और साफ़ कहा है कि उनके पास जादू की कोई छडी नहीं है जिसको घुमा कर वे हालात को तुरंत बदल दें लेकिन लोगों के लिए काम करने की इच्छाशक्ति है . यही बात सबसे अहम है . किसी के पास जादू की छडी नहीं होती लेकिन कुछ लोग बातें बड़ी बड़ी करते हैं . मौजूदा बिहार का सौभाग्य है कि वहां आज के युग में नीतीश कुमार जैसा व्यक्ति मौजूद है लेकिन राज्य की बदकिसमती यह है कि उसके नेताओं में नीतीश कुमार के अलावा ज़्यादातर ऐसे हैं जो बातें बड़ी बड़ी कर रहे हैं . लालू प्रसाद ने जिस तरह से चुनावी नतीजों पर प्रतिक्रिया दी है वह निराशाजनक है , बीजेपी ने जिस तरह से जीत का दावा करना शुरू किया है वह भी बहुत ही अजीब है . यह किसी पार्टी की जीत नहीं है ,यह शुद्ध रूप से नीतीश कुमार की जीत है . और यह अंतिम सत्य है .
बिहार विधान सभा के लिए हुए २०१० के चुनावों के भारतीय राजनीति में बहुत सारी पुरानी मान्यताओं के खँडहर ढह जायेगें . सबसे बड़ा किला तो जातिवाद का ढह गया है . लालू प्रसाद और राम विलास पासवान ने तय कर लिया था उनकी अपनी जातियों के वोट के साथ जब मुसलमानों का वोट मिला दिया जाएगा तो बिहार में एक अजेय गठबंधन बन जाएगा . लेकिन ऐसा कहीं कुछ नहीं हुआ . उनके अपने सबसे प्रिय लोग चुनाव हार गए. राम विलास पासवान के दो भाई चुनाव हार गए . लालू प्रसाद की पत्नी दो सीटों से चुनाव हार गयीं . जाति के गणित के हिसाब से बहुत ही भरोसेमंद सीटों पर चुनाव लड़ रहे इन लोगों की हार जहां जाति के किले को नेस्तनाबूद करती है , वहीं राजनीति में घुस चुके परिवारबाद के सांप को भी पूरी तरह से कुचल देने की शुरुआत कर चुकी है . पूरे देश में और लगभग हर पार्टी में परिवारवाद का ज़हर फैल चुका है . इस चुनाव ने यह साफ़ संकेत दे दिया है कि अपने परिवार के बाहर देखना लोकतांत्रिक राजनीति का ज़रूरी हिस्सा है और बाकी राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को भी अपने परिवार के बाहर टैलेंट तलाशने की कोशिश करनी चाहिए . यह चुनाव साम्प्रदायिक ताक़तों की भी हार है .अपने देश में साम्प्रदायिक वहशत के पर्याय बन चुके , नरेंद्र मोदी को जिस तरह से नीतीश कुमार ने बिहार आने से रोका , वह सेकुलर जमातों को अच्छा लगा और इन चुनावों में सेकुलर बिरादरी को महसूस हो गया कि सत्ता की राजनीति के मजबूरी में भले ही नीतीश कुमार बीजेपी को ढो रहे हैं लेकिन मूल रूप से वे बीजेपी-आर एस एस की साम्प्रदायिक राजनीति के पक्षधर नहीं हैं . शायद इसी समझ का नतीजा है कि इस बार मुसलमानों ने बड़ी संख्या नीतीश कुमार की बात का विश्वास किया और उनके उम्मीदवारों को जिताया . बिहार के विधानसभा चुनावों के बाद एक और ज़बरदस्त सन्देश आया है . इस बार अवाम ने गुंडों को नकार दिया है .हाँ ,एकाध गुंडे जो नीतीश कुमार के साथ थे वे जीत गए हैं .लेकिन नीतीश कुमार के पिछले पांच साल के गुंडा विनाश के प्रोजेक्ट को जिन लोगों ने देखा है उन्हें मालूम है अब हुकूमत में गुंडों का दखल बहुत कम हो जाएगा . नीतीश कुमार के सत्ता में आने के पहले के पंद्रह वर्षों में जिस तरह से बिहार में गुंडा राज कायम हुआ था और अपहरण एक उद्योग की शक्ल अख्तियार कर चुका था, उसके हवाले से देखने पर साफ़ समझ में आ जाएगा कि गुंडा लालू प्रसाद के परिवार के राज में प्रशासन का स्थायी हिस्सा बन चुका था. पिछले पांच वर्षों में नीतीश ने उसे बहुत कमज़ोर कर दिया .जिसकी वजह से ही इस बार बड़े बड़े गुंडे और उनेक घर वाले चुनाव हार गए हैं. बिहार में नीतीश के राज में गुंडों का आतंक घटा है .
बीजेपी वाले नीतीश की जीत को गुजरात में नरेंद्र मोदी की जीत के सांचे में रखकर देखने के चक्कर में हैं .कई नेता यह कहते पाए जा रहे हैं कि कि एन डी ए का नारा विकास है और वे लोग नीतीश कुमार को भी अपने बन्दे के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं . लेकिन बात इतनी आसान नहीं है . एक तो तथाकथित एन डी ए का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है. गुजरात में भी नहीं . वहां शुद्ध रूप से मोदी के ब्रैंड की राजनीति चल रही है जिसका लक्ष्य हिन्दूराज कायम करना है . २००२ में शुरू करके पिछले गुजरात विधान सभा चुनाओं तक गुजरात के मुसलमानों में मोदी ने इतना आतंक फैला दिया था कि मुसलमान वहां दहशत में है और कई इलाकों में तो वह दर के मारे नरेंद्र मोदी के उम्मीदवारों को वोट भी दे रहा है . गुजरात में मुसलमान अब दबा कुचला वर्ग है और कोई भी राजनीतिक जमात उसके लिए किसी तरह की कोई लड़ाई लड़ सकने की स्थिति में नहीं है . इसके साथ साथ मोदी ने राज्य के औद्योगिक विकास को सरकारी तौर पर प्राथमिकता की सूची में डाल दिया है जिस से साम्प्रदायिक हो चुके समाज को संतुष्ट किया जा रहा है . गुजरात में भी बीजेपी या एन डी ए का कुछ नहीं है , वह नरेंद्र मोदी छाप राजनीति है जो मोदी को सरकार में बनाए हुए है . अपने आप को लूप में रखने के चक्कर में बीजेपी गुजरात से बिहार की तुलना करने की जो जल्दबाजी कर रही है ,उस से बचने की ज़रूरत है . बिहार में नीतीश की जो जीत है उसका गुजरात से कोई लेना देना नहीं है . हाँ अगर कोई बात तलाशी जा सकती है तो वह यह है कि बिहार में नरेंद्र मोदी को फटकार दिया गया था और नरेंद्र मोदी को डांट डपट कर नीतीश ने बिहार में एक बड़े वर्ग को अपने साथ कर लिया था .
बिहार ने एक बार फिर देश की राजनीति को दिशा दी है . इस बार वहां न तो जातिवाद चला और न ही परिवारवाद . अपने असफल बच्चों को राजनीति में उतारने की नेताओं की कोशिश को भी ज़बरदस्त झटका लगा है . उम्मीद की जानी चाहिए कि बाकी राज्यों में भी जातिवाद और परिवारवाद को इसी तरह का झटका लगेगा. इस बार एक और दिलचस्प बात हुई है . बीजेपी के बावजूद मुसलमानों ने नीतीश कुमार का विश्वास किया और लालू प्रसाद के मुसलमानों के रहनुमा बनने के मुगालते को ठीक किया. बाबरी मस्जिद के फैसले के बाद कांग्रेस से दूर खिंच रहे मुसलमान ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर नीयत में ईमानदारी नहीं है तो वह बीजेपी के साथी नीतीश को तो वोट दे सकता है लेकिन अंदर ही अन्दर की दगाबाजी उसे बर्दाश्त नहीं है
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा के लिए हुए चुनाव नतीजे आ जाने के बाद ऐलान किया कि यह जीत बिहार की जनता की है . यह अलग बात है कि उनके साथ चुनाव लड़ने वाली बीजेपी इसे अपनी जीत मान रही है . और एन डी ए की नीतियों का डंका पीट रही है लेकिन सच्चाई नीतीश कुमार के बयान से साफ़ नज़र आ रही है . राजनीति के जानकार कहते हैं कि यह जीत न तो जे डी यू की है और न ही एन डी ए की , यह साफ़तौर पर नीतीश कुमार की जीत है . उनके साथ जो भी खड़ा था वह जीत गया .चाहे वह बीजेपी जैसी पार्टी ही क्यों न हो . एक और सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए . वह यह कि खुद नीतीश कुमार को भी नहीं अंदाज़ था कि बिहार की जनता उनके साथ इतने बड़े पैमाने पर जुड़ चुकी है . अगर ऐसा होता तो इस बात की पूरी संभावना है कि बीजेपी से ऊब चुके नीतीश कुमार चुनाव के पहले अकेले ही जाने का फैसला कर लेते और दिल्ली से ले कर पटना तक नीतीश की जीत को अपनी जीत बता रही बीजेपी भी उसी हस्र को पंहुच गयी होती जिसको, लालू प्रसाद, राम विलास पासवान और कांग्रेस के लोग पंहुचे हैं . बिहार के चुनावों में पासवान की तरफ से प्रेस मैनेज कर रहे एक श्रीमानजी से जब पूछा गया था कि क्या राम विलास जी की पार्टी को कुछ सम्मानजनक सीटें मिल जायेगीं ,तो उन्होंने लगभग नाराज़ होते हुए कह दिया था कि २४ नवम्बर को गिनती के बाद देखिएगा, लालू जी के साथ मिलकर पासवान जी सरकार बनायेगें . उसी तरह , लालू भी मुगालते में थे. शायद इसीलिये उन्होंने नतीजों को विस्मयकारी बताया . कांग्रेस के लोग भी राहुल गाँधी की सभाओं में आ रहे लोगों की संख्या को वास्तविक मान रहे थे और उम्मीद कर रहे थे कि इस बार कांग्रेस की किस्मत सुधरेगी. लेकिन नतीजे आने के बाद बिलकुल साफ़ हो गया है कि सब लोग मुगालते में थे . किसी को भनक भी नहीं थी कि जनता क्या फैसला करने वाली है. जनता ने फैसला सुना दिया है और उसने नीतीश कुमार की हर बात का विश्वास किया है .फैसला इस बात का ऐलान है कि बिहार के लोग नीतीश के साथ हैं .
अपनी आदत के मुताबिक नीतीश कुमार ने जनता के फैसले को सिर झुका कर स्वीकार किया है और साफ़ कहा है कि उनके पास जादू की कोई छडी नहीं है जिसको घुमा कर वे हालात को तुरंत बदल दें लेकिन लोगों के लिए काम करने की इच्छाशक्ति है . यही बात सबसे अहम है . किसी के पास जादू की छडी नहीं होती लेकिन कुछ लोग बातें बड़ी बड़ी करते हैं . मौजूदा बिहार का सौभाग्य है कि वहां आज के युग में नीतीश कुमार जैसा व्यक्ति मौजूद है लेकिन राज्य की बदकिसमती यह है कि उसके नेताओं में नीतीश कुमार के अलावा ज़्यादातर ऐसे हैं जो बातें बड़ी बड़ी कर रहे हैं . लालू प्रसाद ने जिस तरह से चुनावी नतीजों पर प्रतिक्रिया दी है वह निराशाजनक है , बीजेपी ने जिस तरह से जीत का दावा करना शुरू किया है वह भी बहुत ही अजीब है . यह किसी पार्टी की जीत नहीं है ,यह शुद्ध रूप से नीतीश कुमार की जीत है . और यह अंतिम सत्य है .
बिहार विधान सभा के लिए हुए २०१० के चुनावों के भारतीय राजनीति में बहुत सारी पुरानी मान्यताओं के खँडहर ढह जायेगें . सबसे बड़ा किला तो जातिवाद का ढह गया है . लालू प्रसाद और राम विलास पासवान ने तय कर लिया था उनकी अपनी जातियों के वोट के साथ जब मुसलमानों का वोट मिला दिया जाएगा तो बिहार में एक अजेय गठबंधन बन जाएगा . लेकिन ऐसा कहीं कुछ नहीं हुआ . उनके अपने सबसे प्रिय लोग चुनाव हार गए. राम विलास पासवान के दो भाई चुनाव हार गए . लालू प्रसाद की पत्नी दो सीटों से चुनाव हार गयीं . जाति के गणित के हिसाब से बहुत ही भरोसेमंद सीटों पर चुनाव लड़ रहे इन लोगों की हार जहां जाति के किले को नेस्तनाबूद करती है , वहीं राजनीति में घुस चुके परिवारबाद के सांप को भी पूरी तरह से कुचल देने की शुरुआत कर चुकी है . पूरे देश में और लगभग हर पार्टी में परिवारवाद का ज़हर फैल चुका है . इस चुनाव ने यह साफ़ संकेत दे दिया है कि अपने परिवार के बाहर देखना लोकतांत्रिक राजनीति का ज़रूरी हिस्सा है और बाकी राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को भी अपने परिवार के बाहर टैलेंट तलाशने की कोशिश करनी चाहिए . यह चुनाव साम्प्रदायिक ताक़तों की भी हार है .अपने देश में साम्प्रदायिक वहशत के पर्याय बन चुके , नरेंद्र मोदी को जिस तरह से नीतीश कुमार ने बिहार आने से रोका , वह सेकुलर जमातों को अच्छा लगा और इन चुनावों में सेकुलर बिरादरी को महसूस हो गया कि सत्ता की राजनीति के मजबूरी में भले ही नीतीश कुमार बीजेपी को ढो रहे हैं लेकिन मूल रूप से वे बीजेपी-आर एस एस की साम्प्रदायिक राजनीति के पक्षधर नहीं हैं . शायद इसी समझ का नतीजा है कि इस बार मुसलमानों ने बड़ी संख्या नीतीश कुमार की बात का विश्वास किया और उनके उम्मीदवारों को जिताया . बिहार के विधानसभा चुनावों के बाद एक और ज़बरदस्त सन्देश आया है . इस बार अवाम ने गुंडों को नकार दिया है .हाँ ,एकाध गुंडे जो नीतीश कुमार के साथ थे वे जीत गए हैं .लेकिन नीतीश कुमार के पिछले पांच साल के गुंडा विनाश के प्रोजेक्ट को जिन लोगों ने देखा है उन्हें मालूम है अब हुकूमत में गुंडों का दखल बहुत कम हो जाएगा . नीतीश कुमार के सत्ता में आने के पहले के पंद्रह वर्षों में जिस तरह से बिहार में गुंडा राज कायम हुआ था और अपहरण एक उद्योग की शक्ल अख्तियार कर चुका था, उसके हवाले से देखने पर साफ़ समझ में आ जाएगा कि गुंडा लालू प्रसाद के परिवार के राज में प्रशासन का स्थायी हिस्सा बन चुका था. पिछले पांच वर्षों में नीतीश ने उसे बहुत कमज़ोर कर दिया .जिसकी वजह से ही इस बार बड़े बड़े गुंडे और उनेक घर वाले चुनाव हार गए हैं. बिहार में नीतीश के राज में गुंडों का आतंक घटा है .
बीजेपी वाले नीतीश की जीत को गुजरात में नरेंद्र मोदी की जीत के सांचे में रखकर देखने के चक्कर में हैं .कई नेता यह कहते पाए जा रहे हैं कि कि एन डी ए का नारा विकास है और वे लोग नीतीश कुमार को भी अपने बन्दे के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं . लेकिन बात इतनी आसान नहीं है . एक तो तथाकथित एन डी ए का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है. गुजरात में भी नहीं . वहां शुद्ध रूप से मोदी के ब्रैंड की राजनीति चल रही है जिसका लक्ष्य हिन्दूराज कायम करना है . २००२ में शुरू करके पिछले गुजरात विधान सभा चुनाओं तक गुजरात के मुसलमानों में मोदी ने इतना आतंक फैला दिया था कि मुसलमान वहां दहशत में है और कई इलाकों में तो वह दर के मारे नरेंद्र मोदी के उम्मीदवारों को वोट भी दे रहा है . गुजरात में मुसलमान अब दबा कुचला वर्ग है और कोई भी राजनीतिक जमात उसके लिए किसी तरह की कोई लड़ाई लड़ सकने की स्थिति में नहीं है . इसके साथ साथ मोदी ने राज्य के औद्योगिक विकास को सरकारी तौर पर प्राथमिकता की सूची में डाल दिया है जिस से साम्प्रदायिक हो चुके समाज को संतुष्ट किया जा रहा है . गुजरात में भी बीजेपी या एन डी ए का कुछ नहीं है , वह नरेंद्र मोदी छाप राजनीति है जो मोदी को सरकार में बनाए हुए है . अपने आप को लूप में रखने के चक्कर में बीजेपी गुजरात से बिहार की तुलना करने की जो जल्दबाजी कर रही है ,उस से बचने की ज़रूरत है . बिहार में नीतीश की जो जीत है उसका गुजरात से कोई लेना देना नहीं है . हाँ अगर कोई बात तलाशी जा सकती है तो वह यह है कि बिहार में नरेंद्र मोदी को फटकार दिया गया था और नरेंद्र मोदी को डांट डपट कर नीतीश ने बिहार में एक बड़े वर्ग को अपने साथ कर लिया था .
बिहार ने एक बार फिर देश की राजनीति को दिशा दी है . इस बार वहां न तो जातिवाद चला और न ही परिवारवाद . अपने असफल बच्चों को राजनीति में उतारने की नेताओं की कोशिश को भी ज़बरदस्त झटका लगा है . उम्मीद की जानी चाहिए कि बाकी राज्यों में भी जातिवाद और परिवारवाद को इसी तरह का झटका लगेगा. इस बार एक और दिलचस्प बात हुई है . बीजेपी के बावजूद मुसलमानों ने नीतीश कुमार का विश्वास किया और लालू प्रसाद के मुसलमानों के रहनुमा बनने के मुगालते को ठीक किया. बाबरी मस्जिद के फैसले के बाद कांग्रेस से दूर खिंच रहे मुसलमान ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर नीयत में ईमानदारी नहीं है तो वह बीजेपी के साथी नीतीश को तो वोट दे सकता है लेकिन अंदर ही अन्दर की दगाबाजी उसे बर्दाश्त नहीं है
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शेष नारायण सिंह
Wednesday, November 24, 2010
*टेलीविज़न की खबरें - कहीं पे हकीकत, कहीं पे निशाना*
धर्मेश शुक्ल
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के बाद एशिया का कूटनीतिक
माहौल बदलना तय है। नए समीकरण उभरेगें और शक्ति का संतुलन बदलेगा। अमरीका
की इस इलाके में बढ़ती ताक़त को बैलेंस करने के लिए चीन ने भी अमरीका
विरोधियों का एक खेमा तैयार करना शुरू कर दिया है। म्यांमार और इरान के
प्रति अमरीकी चिढ का उल्लेख कर के ओबामा ने साफ़ संकेत दे दिया है।
वे भारत की तरफ दोस्ती का जो हाथ बढ़ा रहे हैं उसमें बहुत सारी शर्तें
नत्थी हैं ।अपने देश का सौभाग्य है कि यहाँ प्रिंट मीडिया में कुछ बहुत
ही समझदार किस्म के पत्रकार नौकरी कर रहे हैं। जिसकी वजह से घटना के अगले
दिन सही खबर का पता चलता रहा। वरना टेलिविज़न की ख़बरों वाले तो सच्चाई
को इतनी मुहब्बत से और बिलकुल अपने दिल की बात समझ कर पेशकर रहे थे कि
लगता था सब उल्टा पुल्टा हो रहा था। लेकिन जब अगले दिन अखबारों में खबरें
पढी जाती थीं तो सारी बात सही सन्दर्भ में पता लग जाती थी। टेलिविज़न
वालों की एक अच्छाई को मानना पडेगा कि जब अखबार पढ़कर उन्हें भी सच्चाई
का पता चलता था तो वे भी बिना किसी संकोच के अखबार में छपी खबर को सच
मानकर नयी बात कहने लगते थे। एक दिन पहले की अपनी ही खबर को गलत बताते
टेलिविज़न वालों की छटा अवर्णनीय होती थी।
सबसे मजेदार बात वह थी जब मुंबई में एक दिन की यात्रा पूरी होने के बाद
टी वी वालों ने कहना शुरू कर दिया कि ओबामा ने भारत की उम्मीदों पर पानी
फेर दिया ,काम की कोई बात नहीं की। जब उन्हें बताया गया कि अभी तो
राजनीतिक यात्रा शुरू होने वाली है ,तब तक इंतज़ार कर लेते। तो सब ने कुछ
और राग अलापना शुरू कर दिया. पाकिस्तान और सुरक्षा परिषद् की स्थायी सीट
को कुछ इस तरह से प्रचारित किया गया कि लगने लगा कि सब कुछ इन्हीं दो
मूद्दों पर आधारित था। दिल्ली में जब राष्ट्रपति ओबामा ने पाकिस्तान और
सुरक्षा परिषद् दोनों की बात कर दी तो भाई लोग खुश हो गए और जय जय कार
करने लगे। वह तो जब लगभग हर चैनल पर अवकाश प्राप्त राजनयिकों ने सच्चाई
को सही सन्दर्भ में रखा तब जा कर के टी वी पत्रकारिता के महान विचारकों
ने कुछ समझदारी की बात करना शुरू किया. अब सब कुछ ठीक है। ओबामा जा चुके
हैं और सारी बात अखबारों में छप चुकी है। टी वी वालों को भी सब कुछ पता
चल चुका है। लेकिन एक विचार मन में बार बार आता है कि ओबामा से यह
निवेदन किया जाना चाहिए था कि हमारे टी वी पत्रकारों को भी अपने टी वी
वालों की तरह बनाने की ट्रेनिंग दिलवाने का कोई प्रस्ताव रख देते।
ओबामा की भारत यात्रा के कूटनीतिक घटना थी। कूटनीति का पहला सिद्धांत है
कि वह अपने राष्ट्रीय हित को ध्यान में रख कर संचालित की जाती है। ओबामा
ने भी वही किया उनके दिमाग में अमरीकी राष्ट्रीय हित था। जब उन्होंने
मुंबई में करीब दस अरब डालर के अमरीकी निर्यात की बात को पुख्ता किया तो
उनके मन में सौ फीसदी अमरीकी हित काम कर रहा था। दिल्ली आ कर उन्होंने
पाकिस्तान और सुरक्षा परिषद् की बात भी कर दी। यहाँ भी वे शुद्ध रूप से
अमरीकी राष्ट्र हित को ध्यान में रख कर काम कर रहे थे। हाँ इस बात में दो
राय नहीं हो सकती कि अमरीकी राष्ट्रपति ने भारत की चार दिन की यात्रा
करके और उसके नेताओं के कान में संगीत का असर देने वाली बातें कह कर
माहौल को बहुत ही खुशनुमा बना दिया। भारत में मीडिया और राजनीतिक नेताओं
का एक वर्ग है जो पाकिस्तान का नाम लेकर अपने आपको जिंदा रख रहा है लेकिन
सच्चाई यह है कि पाकिस्तान एक गरीब मुल्क है और अब भारत की विकास यात्रा
में उसका कोई महत्व नहीं है। पाकिस्तान अब अमरीका का भी मित्र नहीं है।
वह अब अमरीका के ठेकेदार के रूप में काम कर रहा है . अमरीका ने उसकी फौज
को ठेका दिया है कि वह पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अमरीकी हितों की
रक्षा करे. इसके लिए उसे बाकायदा मजदूरी दी जा रही है। अमरीका से उसका
बराबरी के धरातल पर कोई सम्बन्ध नहीं है। जबकि भारत के साथ अमरीका को अलग
तरह से सम्बन्ध रखना पड़ रहा है। भारत को अब अमरीका एक पूंजीवादी देश के
रूप में अपना मित्र मानता है।
अमरीका की कोशिश है कि भारत में समाजवाद शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल
करवाया जाय। उसके लिए हालांकि काम शुरू से ही चल रहा था लेकिन १९९१ में
जब पी वी नरसिम्हाराव की सरकार आई तो अमरीका ने उस दिशा में ज़बरदस्त दखल
दिया। वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के
किसी भी पैरोकार के सपनों की ताबीर के रूप में देखे जा सकते हैं। जब
वित्त मंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने काम संभाला था तो अपने
छात्रों की एक बड़ी टीम को महत्वपूर्ण जगहों पर स्थापित कर दिया था।
उनके प्रधान मंत्री बन जाने के बाद तो सब कुछ पूंजीवादी तरीके से चल
निकला। निजी जीवन में बहुत ही ईमानदार प्रधान मंत्री ने मुल्क पर ऐसी
अर्थव्यवस्था को लागू कर दिया जो मूल रूप से आम आदमी के विरोध में ही काम
करती है।
आज भारत पूरी तरह से अमरीकी डिजाइन का पूंजीवादी देश है और अमरीकी
राष्ट्रपति ऐसे देशों का आक़ा होता है। ओबामा की यात्रा को इस सन्दर्भ
में देखा जाय तो बात सही समझ में आ जाती है। पाकिस्तान संघी राजनीति की
जीवनदायिनी शक्ति है इसलिए दक्षिण पंथी मीडिया ख़बरों के डोमेन से
पाकिस्तान को मरने नहीं देगा . और सुरक्षा परिषद् की स्थायी सीट के लिए
सभी पार्टियां बराबर की मशक्क़त कर रही थीं क्योंकि इस तरह की सजावटी
बातों की वजह से ही जनता का ध्यान गरीबी और अन्य ज़रूरी मुद्दों से
हटाया जा सकता है। इस तरह साफ़ नज़र आता है कि अमरीकी राष्ट्रपति की भारत
यात्रा के नतीजों के अन्दर बहुत सारी अंतर्कथाएँ हैं। जो भी हो अब
पूंजीवादी राजनीतिक का अनुयायी , भारत सही अर्थों में अमरीका का मित्र
है और वह एशिया में अपने दुशमनों के खिलाफ भारत का इस्तेमाल करना चाहता
है। उसके लिए जो भी ज़रूरी होगा अमरीकी हुकूमत करेगी।
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के बाद एशिया का कूटनीतिक
माहौल बदलना तय है। नए समीकरण उभरेगें और शक्ति का संतुलन बदलेगा। अमरीका
की इस इलाके में बढ़ती ताक़त को बैलेंस करने के लिए चीन ने भी अमरीका
विरोधियों का एक खेमा तैयार करना शुरू कर दिया है। म्यांमार और इरान के
प्रति अमरीकी चिढ का उल्लेख कर के ओबामा ने साफ़ संकेत दे दिया है।
वे भारत की तरफ दोस्ती का जो हाथ बढ़ा रहे हैं उसमें बहुत सारी शर्तें
नत्थी हैं ।अपने देश का सौभाग्य है कि यहाँ प्रिंट मीडिया में कुछ बहुत
ही समझदार किस्म के पत्रकार नौकरी कर रहे हैं। जिसकी वजह से घटना के अगले
दिन सही खबर का पता चलता रहा। वरना टेलिविज़न की ख़बरों वाले तो सच्चाई
को इतनी मुहब्बत से और बिलकुल अपने दिल की बात समझ कर पेशकर रहे थे कि
लगता था सब उल्टा पुल्टा हो रहा था। लेकिन जब अगले दिन अखबारों में खबरें
पढी जाती थीं तो सारी बात सही सन्दर्भ में पता लग जाती थी। टेलिविज़न
वालों की एक अच्छाई को मानना पडेगा कि जब अखबार पढ़कर उन्हें भी सच्चाई
का पता चलता था तो वे भी बिना किसी संकोच के अखबार में छपी खबर को सच
मानकर नयी बात कहने लगते थे। एक दिन पहले की अपनी ही खबर को गलत बताते
टेलिविज़न वालों की छटा अवर्णनीय होती थी।
सबसे मजेदार बात वह थी जब मुंबई में एक दिन की यात्रा पूरी होने के बाद
टी वी वालों ने कहना शुरू कर दिया कि ओबामा ने भारत की उम्मीदों पर पानी
फेर दिया ,काम की कोई बात नहीं की। जब उन्हें बताया गया कि अभी तो
राजनीतिक यात्रा शुरू होने वाली है ,तब तक इंतज़ार कर लेते। तो सब ने कुछ
और राग अलापना शुरू कर दिया. पाकिस्तान और सुरक्षा परिषद् की स्थायी सीट
को कुछ इस तरह से प्रचारित किया गया कि लगने लगा कि सब कुछ इन्हीं दो
मूद्दों पर आधारित था। दिल्ली में जब राष्ट्रपति ओबामा ने पाकिस्तान और
सुरक्षा परिषद् दोनों की बात कर दी तो भाई लोग खुश हो गए और जय जय कार
करने लगे। वह तो जब लगभग हर चैनल पर अवकाश प्राप्त राजनयिकों ने सच्चाई
को सही सन्दर्भ में रखा तब जा कर के टी वी पत्रकारिता के महान विचारकों
ने कुछ समझदारी की बात करना शुरू किया. अब सब कुछ ठीक है। ओबामा जा चुके
हैं और सारी बात अखबारों में छप चुकी है। टी वी वालों को भी सब कुछ पता
चल चुका है। लेकिन एक विचार मन में बार बार आता है कि ओबामा से यह
निवेदन किया जाना चाहिए था कि हमारे टी वी पत्रकारों को भी अपने टी वी
वालों की तरह बनाने की ट्रेनिंग दिलवाने का कोई प्रस्ताव रख देते।
ओबामा की भारत यात्रा के कूटनीतिक घटना थी। कूटनीति का पहला सिद्धांत है
कि वह अपने राष्ट्रीय हित को ध्यान में रख कर संचालित की जाती है। ओबामा
ने भी वही किया उनके दिमाग में अमरीकी राष्ट्रीय हित था। जब उन्होंने
मुंबई में करीब दस अरब डालर के अमरीकी निर्यात की बात को पुख्ता किया तो
उनके मन में सौ फीसदी अमरीकी हित काम कर रहा था। दिल्ली आ कर उन्होंने
पाकिस्तान और सुरक्षा परिषद् की बात भी कर दी। यहाँ भी वे शुद्ध रूप से
अमरीकी राष्ट्र हित को ध्यान में रख कर काम कर रहे थे। हाँ इस बात में दो
राय नहीं हो सकती कि अमरीकी राष्ट्रपति ने भारत की चार दिन की यात्रा
करके और उसके नेताओं के कान में संगीत का असर देने वाली बातें कह कर
माहौल को बहुत ही खुशनुमा बना दिया। भारत में मीडिया और राजनीतिक नेताओं
का एक वर्ग है जो पाकिस्तान का नाम लेकर अपने आपको जिंदा रख रहा है लेकिन
सच्चाई यह है कि पाकिस्तान एक गरीब मुल्क है और अब भारत की विकास यात्रा
में उसका कोई महत्व नहीं है। पाकिस्तान अब अमरीका का भी मित्र नहीं है।
वह अब अमरीका के ठेकेदार के रूप में काम कर रहा है . अमरीका ने उसकी फौज
को ठेका दिया है कि वह पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अमरीकी हितों की
रक्षा करे. इसके लिए उसे बाकायदा मजदूरी दी जा रही है। अमरीका से उसका
बराबरी के धरातल पर कोई सम्बन्ध नहीं है। जबकि भारत के साथ अमरीका को अलग
तरह से सम्बन्ध रखना पड़ रहा है। भारत को अब अमरीका एक पूंजीवादी देश के
रूप में अपना मित्र मानता है।
अमरीका की कोशिश है कि भारत में समाजवाद शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल
करवाया जाय। उसके लिए हालांकि काम शुरू से ही चल रहा था लेकिन १९९१ में
जब पी वी नरसिम्हाराव की सरकार आई तो अमरीका ने उस दिशा में ज़बरदस्त दखल
दिया। वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के
किसी भी पैरोकार के सपनों की ताबीर के रूप में देखे जा सकते हैं। जब
वित्त मंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने काम संभाला था तो अपने
छात्रों की एक बड़ी टीम को महत्वपूर्ण जगहों पर स्थापित कर दिया था।
उनके प्रधान मंत्री बन जाने के बाद तो सब कुछ पूंजीवादी तरीके से चल
निकला। निजी जीवन में बहुत ही ईमानदार प्रधान मंत्री ने मुल्क पर ऐसी
अर्थव्यवस्था को लागू कर दिया जो मूल रूप से आम आदमी के विरोध में ही काम
करती है।
आज भारत पूरी तरह से अमरीकी डिजाइन का पूंजीवादी देश है और अमरीकी
राष्ट्रपति ऐसे देशों का आक़ा होता है। ओबामा की यात्रा को इस सन्दर्भ
में देखा जाय तो बात सही समझ में आ जाती है। पाकिस्तान संघी राजनीति की
जीवनदायिनी शक्ति है इसलिए दक्षिण पंथी मीडिया ख़बरों के डोमेन से
पाकिस्तान को मरने नहीं देगा . और सुरक्षा परिषद् की स्थायी सीट के लिए
सभी पार्टियां बराबर की मशक्क़त कर रही थीं क्योंकि इस तरह की सजावटी
बातों की वजह से ही जनता का ध्यान गरीबी और अन्य ज़रूरी मुद्दों से
हटाया जा सकता है। इस तरह साफ़ नज़र आता है कि अमरीकी राष्ट्रपति की भारत
यात्रा के नतीजों के अन्दर बहुत सारी अंतर्कथाएँ हैं। जो भी हो अब
पूंजीवादी राजनीतिक का अनुयायी , भारत सही अर्थों में अमरीका का मित्र
है और वह एशिया में अपने दुशमनों के खिलाफ भारत का इस्तेमाल करना चाहता
है। उसके लिए जो भी ज़रूरी होगा अमरीकी हुकूमत करेगी।
Saturday, November 20, 2010
अमरीका से दोस्ती करने के पहले इतिहास पर भी नज़र डालना ज़रूरी
शेष नारायण सिंह
( यह लेख दैनिक जागरण में २०-११-२०१० को छप चुका है )
आजकल अमरीका से भारत के रिश्ते सुधारने की कोशिश चल रही है. लेकिन ज़रूरी यह है कि इस बात की जानकारी रखी जाय कि अमरीका कभी भी भारत के बुरे वक़्त में काम नहीं आया है . अमरीका की जे एफ के लाइब्रेरी में नेहरू-केनेडी पत्रव्यवहार को सार्वजनिक किये जाने के बाद कुछ ऐसे तथ्य सामने आये हैं जिनसे पता चलता है कि अमरीका ने भारत की मुसीबत के वक़्त कोई मदद नहीं की थी. भारत के ऊपर जब १९६२ में चीन का हमला हुआ था तो वह नवस्वतंत्र भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी . उस वक़्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीका से मदद माँगी भी थी लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने कोई भी सहारा नहीं दिया और नेहरू की चिट्ठियों का जवाब तक नहीं दिया था . इसके बाद इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्री बनने के बाद लिंडन जॉनसन ने भारत का अमरीकी कूटनीति के हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन इंदिरा गाँधी ने अपने राष्ट्रहित को महत्व दिया और अमरीका के हित से ज्यादा महत्व अपने हित को दिया और गुट निरपेक्ष आन्दोलन की नेता के रूप में भारत की इज़्ज़त बढ़ाई . हालांकि अमरीका की यह हमेशा से कोशिश रही है कि वह एशिया की राजनीति में भारत का अमरीकी हित में इस्तेमाल करे लेकिन भारतीय विदेशनीति के नियामक अमरीकी राष्ट्रहित के प्रोजेक्ट में अपने आप को पुर्जा बनाने को तैयार नहीं थे . यह अलग बात है कि भारत के सत्ता प्रतिष्टान में ऐसे लोगों का एक वर्ग हमेशा से ही सक्रिय रहा है जो अमरीका की शरण में जाने के लिए व्याकुल रहा करता था. लेकिन केंद्र में पी वी नरसिम्हा राव की सरकार आने के पहले तक इस वर्ग की कुछ चल नहीं पायी. नरसिम्हा राव की सरकार आने के बाद हालात बदल गए थे. सोवियत रूस का विघटन हो चुका था और अमरीका अकेला सुपरपावर रह गया . ऐसी स्थिति में भारतीय राजनीति और नौकरशाही में जमी हुई अमरीकी लॉबी ने काम करना शुरू किया और भारत को अमरीकी हितों के लिए आगे बढ़ाना शुरू कर दिया . जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में जसवंत सिंह विदेशमंत्री बने तो अमरीकी विदेश विभाग के लोगों से उन्होंने बिलकुल घरेलू सम्बन्ध बना लिए . डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद पर विराजमान होने के बाद तो अमरीका से बिकुल घनिष्ठ सम्बन्ध बन गए हैं . एशिया में बढ़ते हुए चीन के प्रभाव को कम करना अमरीकी विदेशनीति का अहम हिस्सा है और इस मकसद को हासिल करने के लिए वह भारत का इस्तेमाल कर रहा है .हालांकि चीन को बैलेंस करना भारत के हित में भी है लेकिन यह भी ध्यान रखने की ज़रुरत है कि कहीं भारत के राष्ट्रहित को अमरीकी फायदे के लिए कुरबान न करना पड़े.
पिछले साठ वर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका ने भारत को हमेशा की नीचा दिखाने की कोशिश की है . १९४८ में जब कश्मीर मामला संयुक्तराष्ट्र में गया था तो तेज़ी से सुपर पावर बन रहे अमरीका ने भारत के खिलाफ काम किया था . जे एफ के लाइब्रेरी में मौजूद ताज़ा पत्रों से यह साफ़ ही है कि चीन के हमले में भी अमरीका ने भारत को कमज़ोर करने की कोशिश की थी. १९६५ में जब कश्मीर में घुसपैठ कराके उस वक़्त के पाकिस्तानी तानाशाह , जनरल अय्यूब ने भारत पर हमला किया था तो उनकी सेना के पास जो भी हथियार थे सब अमरीका ने ही उपलब्ध करवाया था . उस लड़ाई में जिन पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने रौंदा था, वे सभी अमरीका की खैरात के रूप में पाकिस्तान की झोली में आये थे. पाकिस्तानी सेना के हार जाने के बाद अमरीका ने भारत पर दबाव बनाया था कि वह अपने कब्जे वाले पाकिस्तानी इलाकों को छोड़ दे . १९७१ की बंगलादेश की मुक्ति की लड़ाई में भी अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने पाकिस्तानी तानाशाह याहया खां के बड़े भाई के रूप में काम किया था और भारत को धमकाने के लिए अमरीकी सेना के सातवें बेडे को बंगाल की खाड़ी में तैनात कर दिया था . उस वक़्त के अमरीकी विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर ने उस दौर में पाकिस्तान की तरफ से पूरी दुनिया में पैरवी की थी. संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के खिलाफ काम किया था . जब भी भारत ने परमाणु परीक्षण किया अमरीका को तकलीफ हुई . भारत ने बार बार पूरी दुनिया से अपील की कि बिजली पैदा करने के लिए उसे परमाणु शक्ति का विकास करने दिया जाय लेकिन अमरीका ने शान्ति पूर्ण परमाणु के प्रयोग की कोशिश के बाद भारत के ऊपर तरह तरह की पाबंदियां लगाईं. उसकी हमेशा कोशिश रही कि वह भारत और पाकिस्तान को बराबर की हैसियत वाला मुल्क बना कर रखे लेकिन ऐसा करने में वह सफल नहीं रहा .आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है , वह सब अमरीकी दखलंदाजी की वजह से ही है . कश्मीर में जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का पैसा लगा है . पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तानी फौज की कृपा से ही शुरू हुआ था . पूर्वोत्तर भारत में जो आतंकवादी पाकिस्तान की कृपा से सक्रिय हैं , उन सबको को पाकिस्तान उसी पैसे से मदद करता है जो उसे अमरीका से अफगानिस्तान में काम करने के लिए मिलता है . ऐसी हालत में अमरीका से बहुत ज्यादा दोस्ती कायम करने के पहले मौजूदा हुक्मरान को पिछले साठ वर्षों के इतिहास पर नज़र डाल लेनी चाहिए . और अमरीका से दोस्ती की पींग बढाने के पहले यह जान लेना चाहिए कि जो अमरीका भारत के बुरे वक़्त में काम कभी नहीं आया . अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा जब कहते हैं कि भारत एक एक महाशक्ति है तो उसमें उनका यह मंसूबा ज़ाहिर हो जाता है कि वे भारत को अपने काम के लिए इस्तेमाल करना चाह रहे हैं .उसमें उसका अपना राष्ट्रहित है , भारत के प्रति मुहब्बत नहीं
( यह लेख दैनिक जागरण में २०-११-२०१० को छप चुका है )
आजकल अमरीका से भारत के रिश्ते सुधारने की कोशिश चल रही है. लेकिन ज़रूरी यह है कि इस बात की जानकारी रखी जाय कि अमरीका कभी भी भारत के बुरे वक़्त में काम नहीं आया है . अमरीका की जे एफ के लाइब्रेरी में नेहरू-केनेडी पत्रव्यवहार को सार्वजनिक किये जाने के बाद कुछ ऐसे तथ्य सामने आये हैं जिनसे पता चलता है कि अमरीका ने भारत की मुसीबत के वक़्त कोई मदद नहीं की थी. भारत के ऊपर जब १९६२ में चीन का हमला हुआ था तो वह नवस्वतंत्र भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी . उस वक़्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीका से मदद माँगी भी थी लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने कोई भी सहारा नहीं दिया और नेहरू की चिट्ठियों का जवाब तक नहीं दिया था . इसके बाद इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्री बनने के बाद लिंडन जॉनसन ने भारत का अमरीकी कूटनीति के हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन इंदिरा गाँधी ने अपने राष्ट्रहित को महत्व दिया और अमरीका के हित से ज्यादा महत्व अपने हित को दिया और गुट निरपेक्ष आन्दोलन की नेता के रूप में भारत की इज़्ज़त बढ़ाई . हालांकि अमरीका की यह हमेशा से कोशिश रही है कि वह एशिया की राजनीति में भारत का अमरीकी हित में इस्तेमाल करे लेकिन भारतीय विदेशनीति के नियामक अमरीकी राष्ट्रहित के प्रोजेक्ट में अपने आप को पुर्जा बनाने को तैयार नहीं थे . यह अलग बात है कि भारत के सत्ता प्रतिष्टान में ऐसे लोगों का एक वर्ग हमेशा से ही सक्रिय रहा है जो अमरीका की शरण में जाने के लिए व्याकुल रहा करता था. लेकिन केंद्र में पी वी नरसिम्हा राव की सरकार आने के पहले तक इस वर्ग की कुछ चल नहीं पायी. नरसिम्हा राव की सरकार आने के बाद हालात बदल गए थे. सोवियत रूस का विघटन हो चुका था और अमरीका अकेला सुपरपावर रह गया . ऐसी स्थिति में भारतीय राजनीति और नौकरशाही में जमी हुई अमरीकी लॉबी ने काम करना शुरू किया और भारत को अमरीकी हितों के लिए आगे बढ़ाना शुरू कर दिया . जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में जसवंत सिंह विदेशमंत्री बने तो अमरीकी विदेश विभाग के लोगों से उन्होंने बिलकुल घरेलू सम्बन्ध बना लिए . डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद पर विराजमान होने के बाद तो अमरीका से बिकुल घनिष्ठ सम्बन्ध बन गए हैं . एशिया में बढ़ते हुए चीन के प्रभाव को कम करना अमरीकी विदेशनीति का अहम हिस्सा है और इस मकसद को हासिल करने के लिए वह भारत का इस्तेमाल कर रहा है .हालांकि चीन को बैलेंस करना भारत के हित में भी है लेकिन यह भी ध्यान रखने की ज़रुरत है कि कहीं भारत के राष्ट्रहित को अमरीकी फायदे के लिए कुरबान न करना पड़े.
पिछले साठ वर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका ने भारत को हमेशा की नीचा दिखाने की कोशिश की है . १९४८ में जब कश्मीर मामला संयुक्तराष्ट्र में गया था तो तेज़ी से सुपर पावर बन रहे अमरीका ने भारत के खिलाफ काम किया था . जे एफ के लाइब्रेरी में मौजूद ताज़ा पत्रों से यह साफ़ ही है कि चीन के हमले में भी अमरीका ने भारत को कमज़ोर करने की कोशिश की थी. १९६५ में जब कश्मीर में घुसपैठ कराके उस वक़्त के पाकिस्तानी तानाशाह , जनरल अय्यूब ने भारत पर हमला किया था तो उनकी सेना के पास जो भी हथियार थे सब अमरीका ने ही उपलब्ध करवाया था . उस लड़ाई में जिन पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने रौंदा था, वे सभी अमरीका की खैरात के रूप में पाकिस्तान की झोली में आये थे. पाकिस्तानी सेना के हार जाने के बाद अमरीका ने भारत पर दबाव बनाया था कि वह अपने कब्जे वाले पाकिस्तानी इलाकों को छोड़ दे . १९७१ की बंगलादेश की मुक्ति की लड़ाई में भी अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने पाकिस्तानी तानाशाह याहया खां के बड़े भाई के रूप में काम किया था और भारत को धमकाने के लिए अमरीकी सेना के सातवें बेडे को बंगाल की खाड़ी में तैनात कर दिया था . उस वक़्त के अमरीकी विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर ने उस दौर में पाकिस्तान की तरफ से पूरी दुनिया में पैरवी की थी. संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के खिलाफ काम किया था . जब भी भारत ने परमाणु परीक्षण किया अमरीका को तकलीफ हुई . भारत ने बार बार पूरी दुनिया से अपील की कि बिजली पैदा करने के लिए उसे परमाणु शक्ति का विकास करने दिया जाय लेकिन अमरीका ने शान्ति पूर्ण परमाणु के प्रयोग की कोशिश के बाद भारत के ऊपर तरह तरह की पाबंदियां लगाईं. उसकी हमेशा कोशिश रही कि वह भारत और पाकिस्तान को बराबर की हैसियत वाला मुल्क बना कर रखे लेकिन ऐसा करने में वह सफल नहीं रहा .आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है , वह सब अमरीकी दखलंदाजी की वजह से ही है . कश्मीर में जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का पैसा लगा है . पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तानी फौज की कृपा से ही शुरू हुआ था . पूर्वोत्तर भारत में जो आतंकवादी पाकिस्तान की कृपा से सक्रिय हैं , उन सबको को पाकिस्तान उसी पैसे से मदद करता है जो उसे अमरीका से अफगानिस्तान में काम करने के लिए मिलता है . ऐसी हालत में अमरीका से बहुत ज्यादा दोस्ती कायम करने के पहले मौजूदा हुक्मरान को पिछले साठ वर्षों के इतिहास पर नज़र डाल लेनी चाहिए . और अमरीका से दोस्ती की पींग बढाने के पहले यह जान लेना चाहिए कि जो अमरीका भारत के बुरे वक़्त में काम कभी नहीं आया . अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा जब कहते हैं कि भारत एक एक महाशक्ति है तो उसमें उनका यह मंसूबा ज़ाहिर हो जाता है कि वे भारत को अपने काम के लिए इस्तेमाल करना चाह रहे हैं .उसमें उसका अपना राष्ट्रहित है , भारत के प्रति मुहब्बत नहीं
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