शेष नारायण सिंह
कश्मीर की हालात के बारे में केंद्र सरकार का ताज़ा रुख स्वागत योग्य है . बहुत वर्षों बाद केंद्र सरकार के नेता कश्मीर समस्या के बारे में शुतुरमुर्गी नीति से बाहर निकल पाए हैं . उम्मीद की जानी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर की दो दिन की यात्रा पर गया सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर की समस्या को सही परिप्रेक्ष्य में रखने में मील का पत्थर साबित होगा..यह अलग बात है कि बी जे पी ने इस अवसर पर भी राजनीति खेलने की कोशिश की लेकिन आज पूरे देश में कश्मीर समस्या का हल खोजने का माहौल बन चुका है . लगभग सभी चाहते हैं कि कश्मीर समस्या में पाकिस्तान की दखलंदाजी ख़त्म हो. देश में जागरूक जनमत को मालूम है कि कश्मीर समस्या को पैदा करने में सबसे ज्यादा योगदान बी जे पी का ही है . १९४७ में प्रजा परिषद ने कश्मीर के राजा का उस वक़्त भी साथ दिया था जब वह भारत से अलग रहना चाहता था . उस वक़्त भी प्रजा परिषद् राजा के साथ थी जब वह भारत के खिलाफ पाकिस्तान से मिलना चाहता था.बाद में यही प्रजापरिषद जम्मू-कश्मीर में जनसंघ की शाखा बन गयी. इसी प्रजपरिषद के नेताओं ने डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी का इस्तेमाल शेख अब्दुल्ला के खिलाफ किया था. और अब इसी प्रजापरिषद् की वारिस पार्टी बी जे पी ने कश्मीर समस्या के हल के लिए की जा रही सर्वदलीय पहल में अडंगा डालने की कोशिश की है . इसी पार्टी के मौजूदा नेता , अरुण नेहरू और जगमोहन ने जम्मू-कश्मीर की हालात को सबसे ज्यादा बिगाड़ा है , यह बात राजनीति शास्त्र का बहुत मामूली जानकार भी बता देगा. जम्मू-कश्मीर में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य के रूप में वहां पंहुची सुषमा स्वराज ने भी हालात को बिगाड़ने में अपनी पार्टी की लाइन के हिसाब से भूमिका निभाई. सुषमा स्वराज ने खबरों में बने रहने के चक्कर में असदुद्दीन ओवैसी,सीताराम येचुरी , राम विलास पासवान आदि की उस कोशिश का विरोध किया जिसमें जम्मू कश्मीर में मुसीबत की जड़ , हुर्रियत नेताओं से संपर्क साधा गया था.देखा गया है कि सुषमा स्वराज सहित लगभग सभी बी जे पी नेताओं की इच्छा रहती है कि वे ही सबके ध्यान का केंद्र बने रहें. शायद इसी चक्कर में उन्होंने अलगाववादी नेताओं से हुई मुलाक़ात को विवाद के घेरे में लाकर अखबारी सुर्ख़ियों में अपना नाम दर्ज करवाया होगा. लेकिन इस बात में दो राय नहीं कि कश्मीर की हालत पर सरकारी अफसरों या नेशनल कान्फरेंस के नेताओं की रिपोर्ट को सच मान कर फैसले लेना गलत था . सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल की यात्रा पिछले ३० साल से जो हो रहा है उसे राष्ट्रहित की कसौटी पर जांचने का यह एक अहम प्रयास है . किसी भी लोकतंत्र के लिए यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण है कि सरकार के नीतिगत फैसलों में राजनीतिक बिरादरी के इनपुट का अहम रोल हो . कश्मीर के सन्दर्भ में जवाहरलाल नेहरू की मौत के बाद जयप्रकाश नारायण ने इस दिशा में कोशिश की थी और उसका नतीजा भी निकला था . १९७७ का चुनाव कश्मीर में हुए अब तक के चुनावों में सबसे पारदर्शी चुनाव माना जाता है . लेकिन १९८० में दोबारा इंदिरा गाँधी की वापसी के बाद सब कुछ खराब हो गया . पता नहीं किस सोच के तहत इंदिरा गाँधी ने अरुण नेहरू को कश्मीर के मामले में खुली छूट दे दी थी और उनके साथ मिलकर जगमोहन जैसे उनके सलाहकारों ने कश्मीर की राजनीति का मलीदा बना दिया और पाकिस्तान को दखल देने के अवसर उपलब्ध करवाए. . नतीजा सबके सामने है . एक मुकाम तो यह भी आया कि भारत के गृहमंत्री की बेटी को भी आतंकवादियों ने अगवा कर लिया. हालात दिन ब दिन खराब होते गए. आज स्थिति यह है कि कश्मीर से वहां के पंडितों को आतंकवादियों ने भगा दिया है और आतंकवादियों की मनमानी चल रही है . उनको घेर कर भारत की सोच का हिस्सा बनाने की इस राजनीतिक कोशिश का स्वागत किया जाना चाहिए . लेकिन बी जे पी यहाँ भी राजनीतिक बडबोलेपन से बाज़ नहीं आ रही है . बी जे पी को कश्मीर के सन्दर्भ में अपनी सोच की ओवर हालिंग करनी चाहिए वरना अगर कश्मीर में कुछ भी उल्टा सीधा हुआ तो आने वाली नस्लें उसके लिए बी जे पी और उसकी तरह की सोच वालों को ज़िम्मेदार ठहरायेगी . ठीक उसी तरह जैसे आज हर समझदार आदमी कश्मीर की हालात बिगाड़ने के लिए प्रजापरिषद , जनसंघ और डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को ज़िम्मेदार मानता है .
इस बार कश्मीर के मसले को ठीक करने की पहल में राजनीति के साथ साथ कूटनीतिक पहल भी हो रही है . पाकिस्तानी संसद में एक गैरजिम्मेदार प्रस्ताव पारित हुआ था जिसमें जम्मू-कश्मीर के मामले में गैरज़रूरी हस्तक्षेप की बू आ रही थी . भारत सरकार ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई है . विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने एक बयान में सरकार की मंशा साफ़ कर दी है . प्रवक्ता ने बताया कि ' हमने पाकिस्तान की कौमी असेम्बली और सेनेट में पास किये गए प्रस्ताव को देखा है . हम उसे सिरे से खारिज करते हैं ..पाकिस्तान का जम्मू-कश्मीर के मामलों में कोई रोल नहीं है .क्योंकि कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है वह भारत का आतंरिक मामला है.'.विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बताया कि पाकिस्तान को चाहिए कि वह अपने देश में संविधान लागू करे और जम्मू-कश्मीर का जो इलाका पाकिस्तान के गैर कानूनी कब्जे में है , वहां लोकतंत्र की स्थापना करे , आतंकवाद को अपने देश से ख़त्म करे और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर सहित बाकी इलाकों में मानवाधिकारों की बहाली करे . पाकिस्तान की हालत आजकल बहुत खराब हैं . आतंकवाद, घूस , बे-ईमानी , फौज की मनमानी , गरीबी जैसे संकट से गुज़र रहे पाकिस्तान के नेताओं को चाहिए कि वे अपने देश में इंसान की इज़्ज़त करने की कोई तरकीब शुरू करें . कुदरत ने भी पाकिस्तान को घेर लिया है . इस साल वहां आई बाढ़ ने पाकिस्तानी समाज को तहस नहस कर दिया है लेकिन घूस की गिज़ा खाकर सत्ता के केंद्र में बैठे पाकिस्तानी नेता भारत के मामलों में टांग अडाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं . भारत की सभी राजनीतिक पार्टियों ने कश्मीर के प्रति जो सकारात्मक रुख अपनाया है , उसके बाद तो लगता है कि कश्मीरी जनता एक बार अपने आप को फिर भारत का हिस्सा मानने में गर्व महसूस करेगी
Thursday, September 23, 2010
Wednesday, September 22, 2010
अफगानिस्तान में इंसान को मारकर खुश होते थे अमरीकी सैनिक
शेष नारायण सिंह
अमरीकी फौजियों की वहशत का एक नया मामला सामने आया है . पता चला है कि अफगानिस्तान में तैनात अमरीकी सेना के दूसरे इन्फैंट्री डिवीज़न के पांचवे स्ट्राइकर कोम्बाट ब्रिगेड के कुछ सैनिकों ने एक ऐसा खेल ईजाद किया जिसमें अफगानिस्तान के निर्दोष नागरिकों को मार डालने और बच निकलने को मज़े के लिए खेले जाने वाले एक खेल का रूप दे दिया गया था . इस जालिमाना खेल का और कोई नियम नहीं था . बस कोई बहाना ढूंढ कर किसी निर्दोष अफगान नागरिक को मार डालना था . हर वारदात के लिए नंबर मिलते थे. यह खेल २००७ में १५ जनवरी को शुरू हुआ जब एक अफगान नागरिक ब्रिगेड की कैम्प के पास आया . एक सैनिक ने एक हैण्ड ग्रेनेड फेंक दिया और कहा कि वह अफगान हमला करने की गरज से आया था , बस क्या था ,बाकी लोगों ने गोलियां बरसाना शुरू कर दिया . यह खेल एक महीने तक चलता रहा और बहुत सारे अफगान नागरिक मारे गए. ज़ुल्म का आलम यह था कि इस प्लाटून के सदस्य मरे हुए नागरिकों की लाशों की फोटो खींच कर ट्राफी की तरह रखते थे. एक सैनिक के पास तो एक नरमुंड भी पकड़ा गया है . ऐसा नहीं है कि सेना के अधिकारियों को इसके बारे में मालूम नहीं था. एक अमरीकी नागरिक ने अमरीकी सेना के सर्वोच्च नेतृत्व को इस तरह की पहली ह्त्या बाद ही चेतावनी दे दी थी . उसका अपना ही बेटा इस खेल में शामिल था जिसने अपने पिता को इस सम्बन्ध में जानकारी देते हुए ,शेखी बघारी थी लेकिन सेना के बड़े अधिकारियों ने इस जानकारी को पूरी तरह से नज़रंदाज़ किया था. यहीं नहीं इस सैनिक के पिता को सेना के अधिकारियों ने डांट भी दिया था. इस जघन्य अपराध में शामिल अमरीकियों ने अफगानिस्तान के कंदहार प्रांत में और भी कई आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने का काम किया है . उनके ही एक साथी ने जब इस सारे मामले को ऊपर तक पंहुचाने की कोशिश की तो उसे भी ठिकाने लगाने की कोशिश की गयी. अपराधी फौजियों के इस कारनामे की जांच अब अमरीकी सेना कर रही है लेकिन उन्हें अपराधी सैनिकों को सज़ा दिलवाने से ज्यादा चिंता इस बात की है कि कहीं बात खुल न जाए क्योंकि उस हालत में अमरीकी सेना की बहुत बदनामी होगी . अपराधी सैनिकों के घर वाले और उनके वकील अपने बन्दों को निर्दोष बता रहे हैं और औरों के ऊपर आरोप लगा रहे हैं लेकिन बात इतनी गंभीर है कि अपराध के बारे में किसी को शक़ नहीं है . जानकार बाते हैं कि बात के खुल जाने के बाद अमरीकी अधिकारी जांच इस लिए कर रहे हैं कि मामले को रफा दफा किया जा सके. लेकिन अब यह इतना आसन नहीं होगा क्योंकि चश्मदीद गवाहों ने इस मौत के अमरीकी खेल के पहले शिकार की पहचान गुलमुद्दीन नाम के अफगान के रूप में की है ,जो कंदहार प्रांत के मैवंद जिले के ला मोहम्मद काले गाँव का रहने वाला था . वह इस वहशत भरे अपराध का पहला शिकार था इसके बाद क़त्ल का यह सिलसिला चलता रहा और अमरीकी प्रशासन के बड़े फौजियों ने हस्तक्षेप करने के बजाय मामले को दबाने की कोशिश की. अपराध में शरीक एक अमरीकी सैनिक के पिता ने सारे मामले को बाहर लाने में मदद की , यह अलग बात है कि अब उसकी परेशानियाँ बहुत बढ़ गयी हैं . शुरू में तो उसे अधिकारियों ने टालने की कोशिश की लेकिन बाद में उनकी कोशिश रंग लाई और अब सेना ही जांच कर रही है . बात मीडिया की नज़र में है इसलिए दब जाने की कोई संभावना नहीं है . जब अमरीका ने आज से करीब ९ साल पहले अफगानिस्तान का अभियान शुरू किया था तो जानकारों ने कहा था कि यह अमरीका के लिए वियतमान से भी ज्यादा मुश्किल सैनिक अभियान साबित होगा लेकिन उन दिनों अमरीकी राष्ट्रपति , बुश जूनियर के पास ब्रिटेन के प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर थे जो बुश की हर बात को सही साबित करने के लिए व्याकुल रहते थे. बहर हाल अमरीका ने जिस मकसद को घोषित करके अफगानिस्तान पर हमला किया था वहां तक पंहुचने की तो कोई संभावना ही नहीं है . क्योंकि अल कायदा और उसके मातहत काम करने वाले तालिबान पहले से ज्यादा मज़बूत हो गए हैं जबकि अमरीका अफगानिस्तान की लड़ाई में रोज़ ही शिकस्त झेल रहा है .अब तो मानवाधिकारों के क्षेत्र में इतनी नीच गतिविधियों में शामिल अपने फौजियों को लेकर अमरीकी सेना कहाँ मुंह छुपाएगी.
जहां तक अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले की बात है ,उसे तो अब कोई सही नहीं मानता लेकिन इस हमले से हुए अमरीकी नुकसान का आकलन कर पाना अपने आप में एक कठिन काम है . इस लड़ाई में अमरीकी सेना के बहुत ज्यादा सैनिक मारे गए हैं , बहुत ज़्यादा धन लगा है और आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले एक मुल्क को बहुत बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता देनी पड़ी है . लेकिन उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति बुश को आम तौर पर मंदबुद्धि इंसान मान जाता है . उन्होंने इस मूर्खता पूर्ण अभियान की शुरुआत की थी जिसे आने वाले वक़्त में अमरीकी जनता भोगेगी.
अमरीकी फौजियों की वहशत का एक नया मामला सामने आया है . पता चला है कि अफगानिस्तान में तैनात अमरीकी सेना के दूसरे इन्फैंट्री डिवीज़न के पांचवे स्ट्राइकर कोम्बाट ब्रिगेड के कुछ सैनिकों ने एक ऐसा खेल ईजाद किया जिसमें अफगानिस्तान के निर्दोष नागरिकों को मार डालने और बच निकलने को मज़े के लिए खेले जाने वाले एक खेल का रूप दे दिया गया था . इस जालिमाना खेल का और कोई नियम नहीं था . बस कोई बहाना ढूंढ कर किसी निर्दोष अफगान नागरिक को मार डालना था . हर वारदात के लिए नंबर मिलते थे. यह खेल २००७ में १५ जनवरी को शुरू हुआ जब एक अफगान नागरिक ब्रिगेड की कैम्प के पास आया . एक सैनिक ने एक हैण्ड ग्रेनेड फेंक दिया और कहा कि वह अफगान हमला करने की गरज से आया था , बस क्या था ,बाकी लोगों ने गोलियां बरसाना शुरू कर दिया . यह खेल एक महीने तक चलता रहा और बहुत सारे अफगान नागरिक मारे गए. ज़ुल्म का आलम यह था कि इस प्लाटून के सदस्य मरे हुए नागरिकों की लाशों की फोटो खींच कर ट्राफी की तरह रखते थे. एक सैनिक के पास तो एक नरमुंड भी पकड़ा गया है . ऐसा नहीं है कि सेना के अधिकारियों को इसके बारे में मालूम नहीं था. एक अमरीकी नागरिक ने अमरीकी सेना के सर्वोच्च नेतृत्व को इस तरह की पहली ह्त्या बाद ही चेतावनी दे दी थी . उसका अपना ही बेटा इस खेल में शामिल था जिसने अपने पिता को इस सम्बन्ध में जानकारी देते हुए ,शेखी बघारी थी लेकिन सेना के बड़े अधिकारियों ने इस जानकारी को पूरी तरह से नज़रंदाज़ किया था. यहीं नहीं इस सैनिक के पिता को सेना के अधिकारियों ने डांट भी दिया था. इस जघन्य अपराध में शामिल अमरीकियों ने अफगानिस्तान के कंदहार प्रांत में और भी कई आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने का काम किया है . उनके ही एक साथी ने जब इस सारे मामले को ऊपर तक पंहुचाने की कोशिश की तो उसे भी ठिकाने लगाने की कोशिश की गयी. अपराधी फौजियों के इस कारनामे की जांच अब अमरीकी सेना कर रही है लेकिन उन्हें अपराधी सैनिकों को सज़ा दिलवाने से ज्यादा चिंता इस बात की है कि कहीं बात खुल न जाए क्योंकि उस हालत में अमरीकी सेना की बहुत बदनामी होगी . अपराधी सैनिकों के घर वाले और उनके वकील अपने बन्दों को निर्दोष बता रहे हैं और औरों के ऊपर आरोप लगा रहे हैं लेकिन बात इतनी गंभीर है कि अपराध के बारे में किसी को शक़ नहीं है . जानकार बाते हैं कि बात के खुल जाने के बाद अमरीकी अधिकारी जांच इस लिए कर रहे हैं कि मामले को रफा दफा किया जा सके. लेकिन अब यह इतना आसन नहीं होगा क्योंकि चश्मदीद गवाहों ने इस मौत के अमरीकी खेल के पहले शिकार की पहचान गुलमुद्दीन नाम के अफगान के रूप में की है ,जो कंदहार प्रांत के मैवंद जिले के ला मोहम्मद काले गाँव का रहने वाला था . वह इस वहशत भरे अपराध का पहला शिकार था इसके बाद क़त्ल का यह सिलसिला चलता रहा और अमरीकी प्रशासन के बड़े फौजियों ने हस्तक्षेप करने के बजाय मामले को दबाने की कोशिश की. अपराध में शरीक एक अमरीकी सैनिक के पिता ने सारे मामले को बाहर लाने में मदद की , यह अलग बात है कि अब उसकी परेशानियाँ बहुत बढ़ गयी हैं . शुरू में तो उसे अधिकारियों ने टालने की कोशिश की लेकिन बाद में उनकी कोशिश रंग लाई और अब सेना ही जांच कर रही है . बात मीडिया की नज़र में है इसलिए दब जाने की कोई संभावना नहीं है . जब अमरीका ने आज से करीब ९ साल पहले अफगानिस्तान का अभियान शुरू किया था तो जानकारों ने कहा था कि यह अमरीका के लिए वियतमान से भी ज्यादा मुश्किल सैनिक अभियान साबित होगा लेकिन उन दिनों अमरीकी राष्ट्रपति , बुश जूनियर के पास ब्रिटेन के प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर थे जो बुश की हर बात को सही साबित करने के लिए व्याकुल रहते थे. बहर हाल अमरीका ने जिस मकसद को घोषित करके अफगानिस्तान पर हमला किया था वहां तक पंहुचने की तो कोई संभावना ही नहीं है . क्योंकि अल कायदा और उसके मातहत काम करने वाले तालिबान पहले से ज्यादा मज़बूत हो गए हैं जबकि अमरीका अफगानिस्तान की लड़ाई में रोज़ ही शिकस्त झेल रहा है .अब तो मानवाधिकारों के क्षेत्र में इतनी नीच गतिविधियों में शामिल अपने फौजियों को लेकर अमरीकी सेना कहाँ मुंह छुपाएगी.
जहां तक अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले की बात है ,उसे तो अब कोई सही नहीं मानता लेकिन इस हमले से हुए अमरीकी नुकसान का आकलन कर पाना अपने आप में एक कठिन काम है . इस लड़ाई में अमरीकी सेना के बहुत ज्यादा सैनिक मारे गए हैं , बहुत ज़्यादा धन लगा है और आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले एक मुल्क को बहुत बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता देनी पड़ी है . लेकिन उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति बुश को आम तौर पर मंदबुद्धि इंसान मान जाता है . उन्होंने इस मूर्खता पूर्ण अभियान की शुरुआत की थी जिसे आने वाले वक़्त में अमरीकी जनता भोगेगी.
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Monday, September 20, 2010
सफ़ेद हाथी, प्रसार भारती और कांग्रेसी राज में ईमानदारी के नए प्रतिमान
शेष नारायण सिंह
१९७७ में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो तय किया गया कि टेलीविज़न और रेडियो की खबरों के प्रसारण से सरकारी कंट्रोल ख़त्म कर दिया जाएगा. क्योंकि ७७ के चुनाव के पहले और १९७५ में इमरजेंसी लगने के बाद दूरदर्शन और रेडियो ने उस वक़्त की इंदिरा-संजय सरकार के लिए ढिंढोरची का काम किया था और ख़बरों के नाम पर झूठ का एक तामझाम खड़ा किया था . जिन सरकारी अफसरों से उम्मीद थी कि वे राष्ट्रहित और संविधान के हित में अपना काम करेगें ,वे फेल हो गए थे. उस वक़्त के सूचनामंत्री विद्याचरण शुक्ल संजय गांधी के हुक्म के गुलाम थे. उन्होंने सरकारी अफसरों को झुकने के लिए कहा था और यह संविधान पालन करने की शपथ खाकर आई ए एस में शामिल हुए अफसर रेंगने लगे थे. ऐसी हालत दुबारा न हो , यह सबकी चिंता का विषय था और उसी काम के लिए उस वक़्त की सरकार ने दूरदर्शन और रेडियो को सरकारी कंट्रोल से मुक्त करने की बात की थी. यह प्रसार भारती की स्थापना का बीज था और आज वह संस्था बन गयी है लेकिन अब उसकी वह उपयोगिता नहीं रही. सूचना क्रान्ति की वजह से आज किसी भी टेलिविज़न कंपनी की हैसियत नहीं है कि झूठ को खबर की तरह पेश करके बच जाए . लेकिन आज भी प्रसार भारती आम आदमी की गाढ़ी कमाई का तीन हज़ार करोड़ रूपया साल में डकार लेता है . पिछले १२ साल में भ्रष्ट नेताओं की कृपा से वहां जमे हुए नौकरशाह खूब मौज कर रहे हैं और रिश्वत की गिज़ा खा रहे हैं .. समय समय पर सरकारी मंत्रियों को भरोसे में लेकर इन अफसरों ने ऐसे नियम कानून बनवा लिए हैं कि प्रसार भारती का बोर्ड इनका कुछ भी नहीं बना बिगाड़ सकता.जबकि कायदे से यही बोर्ड ही प्रसार भारती को चला रहा है, यही प्रसार भारती के सी ई ओ का बॉस है .लेकिन मौजूदा प्रसार भारती की तो इतनी भी ताक़त नहीं बची है कि वह अपनी मीटिंग का सही मिनट्स लिखवा सके. देश की एक बहुत बड़ी पत्रकार और मीडिया की जानकार ने प्रसार भारती की अंदरूनी कहानी पर नज़र डालने की कोशिश की . उनके पास बहुत सारा ऐसा मसाला था जिसको छापने से प्रसार भारती के वर्तमान सी ई ओ की प्रतिष्ठा को आंच आ सकती थी लिहाज़ा उन्होंने उस अधिकारी से बात करने के लिए औपचारिक रूप से निवेदन किया . १० दिन तक इंतज़ार करने के बाद उन्हें मजबूरन हिम्मत छोड़ देनी पड़ी. इसके बाद जो खुलासा हुआ वह हैरतअंगेज़ है. केंद्रीय सतर्कता आयोग की जांच में जो बातें सामने आई हैं , वे इस संस्था में भारी भ्रष्टाचार की कहानी बयान करती हैं. पता चला है कि प्रसार भारती की बैठक में जो भी फैसले लिए जाते हैं , उनको रिकार्ड तक नहीं किया जाता .ऐसा इसलिए होता है कि मीटिंग के मिनट रिकार्ड करने का काम सी ई ओ का है . अगर सी ई ओ साहेब को लगता है कि बोर्ड का कोई फैसला ऐसा है जो उनके हित की साधना नहीं करता तो वे उसे रिकार्ड ही नहीं करते. जब अगली बैठक में बोर्ड पिछली बैठक के मिनट रिकार्ड का अनुमोदन का समय आता है तो बोर्ड के सदस्य यह देख कर हैरान रह जाते हैं कि मिनट्स तो वे है ही नहीं जो मीटिंग में तय हुए थे. अब नियम यह है कि मिनट्स का रिकार्ड सी ई ओ साहेब करेगें तो वे अड़ जाते हैं कि यही असली रिकार्ड है . लुब्बो लुबाब यह है कि मौजूदा व्यवस्था ऐसी है कि प्रसार भारती में अब वही होता है जो सी ई ओ चाहते हैं और आजकल यह बोर्ड की मर्जी के खिलाफ होता है . बोर्ड के पिछले अध्यक्ष, अरुण भटनागर राजनीतिक रूप से बहुतही ताक़तवर थे लेकिन मौजूदा अध्यक्ष ने उनकी एक नहीं चलने दी . आजकल तो बोर्ड और सी ई ओ के बीच ऐलानियाँ ठनी हुई है . मामला बहुत ही दिलचस्प हो गया है . कल्पना कीजिये कि बोर्ड तय करता है कि सी ई ओ की छुट्टी कर दी जाए . यह फैसला बोर्ड की एक बैठक में होगा लेकिन बैठक बुलाने का अधिकार केवल सी ई ओ का है . अगर वह बैठक नहीं बुलाता तो उसे कोई नहीं हटा सकता . इस बीच पता लगा है कि सी ई ओ के खिलाफ केंद्रीय सतर्कता आयोग ने बहुत सारे आर्थिक हेराफेरी के माले पकडे हैं लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हो रही है . क्रिकेट के मैच आजकल किसी भी प्रसारण कंपनी के लिए मुनाफे का सौदा होते हैं लेकिन दूरदर्शन ने अपने प्रसारण के बहुत सारे अधिकार बिना किसी फायदे के एक निजी कंपनी को दे दिया. सतर्कता आयोग ने इस पर भी सवाल उठाया है..प्रसार भारती के मुखिया पर आर्थिक हेरा फेरी के बहुत सारे आरोपों के मद्दे नज़र मामला प्रधानमंत्री कार्यालय के पास भेज दिया गया है. प्रसार भारती के बोर्ड के सदस्यों और अध्यक्ष की नियुक्ति पर भी सरकार नए सिरे से नज़र डाल रही है . इस बात पर भी सरकार की नज़र है कि क्या उन लोगों को प्रसार भारती के अध्यक्ष पद पर तैनात किया जाना चाहिए जिनके ऊपर सी ई ओ के एहसान हों . कुल मिलाकर एक बहुत ही पवित्र उद्देश्य से शुरू किया गया प्रसार भारती संगठन आजकल दिल्ली के सत्ता के गलियारों में सक्रिय लोगों का चरागाह बन गया है और इसमें टैक्स अदा करने वाले लोगों का तीन हज़ार करोड़ रूपया स्वाहा हो रहा है . देखना यह हिया कि मनमोहन सिंह की सरकार क्या इस विकत परिस्थिति से देश को बचा पायेगी. हालांकि सरकार के लिए भ्रष्ट अधिकारियों को बचा पाने में बहुत मुश्किल पेश आयेगी क्योंकि देश के सबसे आदरणीय अखबार, हिन्दू ने भी प्रसार भारती की हेराफेरी के खिलाफ बिगुल बजा दिया है.कांग्रेसी सत्ता के शीर्ष पर विराजमान दोनों ही लोगों की ईमान दारी की परीक्षा भी प्रसार भारती के विवाद के बहाने हो जायेगी.
१९७७ में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो तय किया गया कि टेलीविज़न और रेडियो की खबरों के प्रसारण से सरकारी कंट्रोल ख़त्म कर दिया जाएगा. क्योंकि ७७ के चुनाव के पहले और १९७५ में इमरजेंसी लगने के बाद दूरदर्शन और रेडियो ने उस वक़्त की इंदिरा-संजय सरकार के लिए ढिंढोरची का काम किया था और ख़बरों के नाम पर झूठ का एक तामझाम खड़ा किया था . जिन सरकारी अफसरों से उम्मीद थी कि वे राष्ट्रहित और संविधान के हित में अपना काम करेगें ,वे फेल हो गए थे. उस वक़्त के सूचनामंत्री विद्याचरण शुक्ल संजय गांधी के हुक्म के गुलाम थे. उन्होंने सरकारी अफसरों को झुकने के लिए कहा था और यह संविधान पालन करने की शपथ खाकर आई ए एस में शामिल हुए अफसर रेंगने लगे थे. ऐसी हालत दुबारा न हो , यह सबकी चिंता का विषय था और उसी काम के लिए उस वक़्त की सरकार ने दूरदर्शन और रेडियो को सरकारी कंट्रोल से मुक्त करने की बात की थी. यह प्रसार भारती की स्थापना का बीज था और आज वह संस्था बन गयी है लेकिन अब उसकी वह उपयोगिता नहीं रही. सूचना क्रान्ति की वजह से आज किसी भी टेलिविज़न कंपनी की हैसियत नहीं है कि झूठ को खबर की तरह पेश करके बच जाए . लेकिन आज भी प्रसार भारती आम आदमी की गाढ़ी कमाई का तीन हज़ार करोड़ रूपया साल में डकार लेता है . पिछले १२ साल में भ्रष्ट नेताओं की कृपा से वहां जमे हुए नौकरशाह खूब मौज कर रहे हैं और रिश्वत की गिज़ा खा रहे हैं .. समय समय पर सरकारी मंत्रियों को भरोसे में लेकर इन अफसरों ने ऐसे नियम कानून बनवा लिए हैं कि प्रसार भारती का बोर्ड इनका कुछ भी नहीं बना बिगाड़ सकता.जबकि कायदे से यही बोर्ड ही प्रसार भारती को चला रहा है, यही प्रसार भारती के सी ई ओ का बॉस है .लेकिन मौजूदा प्रसार भारती की तो इतनी भी ताक़त नहीं बची है कि वह अपनी मीटिंग का सही मिनट्स लिखवा सके. देश की एक बहुत बड़ी पत्रकार और मीडिया की जानकार ने प्रसार भारती की अंदरूनी कहानी पर नज़र डालने की कोशिश की . उनके पास बहुत सारा ऐसा मसाला था जिसको छापने से प्रसार भारती के वर्तमान सी ई ओ की प्रतिष्ठा को आंच आ सकती थी लिहाज़ा उन्होंने उस अधिकारी से बात करने के लिए औपचारिक रूप से निवेदन किया . १० दिन तक इंतज़ार करने के बाद उन्हें मजबूरन हिम्मत छोड़ देनी पड़ी. इसके बाद जो खुलासा हुआ वह हैरतअंगेज़ है. केंद्रीय सतर्कता आयोग की जांच में जो बातें सामने आई हैं , वे इस संस्था में भारी भ्रष्टाचार की कहानी बयान करती हैं. पता चला है कि प्रसार भारती की बैठक में जो भी फैसले लिए जाते हैं , उनको रिकार्ड तक नहीं किया जाता .ऐसा इसलिए होता है कि मीटिंग के मिनट रिकार्ड करने का काम सी ई ओ का है . अगर सी ई ओ साहेब को लगता है कि बोर्ड का कोई फैसला ऐसा है जो उनके हित की साधना नहीं करता तो वे उसे रिकार्ड ही नहीं करते. जब अगली बैठक में बोर्ड पिछली बैठक के मिनट रिकार्ड का अनुमोदन का समय आता है तो बोर्ड के सदस्य यह देख कर हैरान रह जाते हैं कि मिनट्स तो वे है ही नहीं जो मीटिंग में तय हुए थे. अब नियम यह है कि मिनट्स का रिकार्ड सी ई ओ साहेब करेगें तो वे अड़ जाते हैं कि यही असली रिकार्ड है . लुब्बो लुबाब यह है कि मौजूदा व्यवस्था ऐसी है कि प्रसार भारती में अब वही होता है जो सी ई ओ चाहते हैं और आजकल यह बोर्ड की मर्जी के खिलाफ होता है . बोर्ड के पिछले अध्यक्ष, अरुण भटनागर राजनीतिक रूप से बहुतही ताक़तवर थे लेकिन मौजूदा अध्यक्ष ने उनकी एक नहीं चलने दी . आजकल तो बोर्ड और सी ई ओ के बीच ऐलानियाँ ठनी हुई है . मामला बहुत ही दिलचस्प हो गया है . कल्पना कीजिये कि बोर्ड तय करता है कि सी ई ओ की छुट्टी कर दी जाए . यह फैसला बोर्ड की एक बैठक में होगा लेकिन बैठक बुलाने का अधिकार केवल सी ई ओ का है . अगर वह बैठक नहीं बुलाता तो उसे कोई नहीं हटा सकता . इस बीच पता लगा है कि सी ई ओ के खिलाफ केंद्रीय सतर्कता आयोग ने बहुत सारे आर्थिक हेराफेरी के माले पकडे हैं लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हो रही है . क्रिकेट के मैच आजकल किसी भी प्रसारण कंपनी के लिए मुनाफे का सौदा होते हैं लेकिन दूरदर्शन ने अपने प्रसारण के बहुत सारे अधिकार बिना किसी फायदे के एक निजी कंपनी को दे दिया. सतर्कता आयोग ने इस पर भी सवाल उठाया है..प्रसार भारती के मुखिया पर आर्थिक हेरा फेरी के बहुत सारे आरोपों के मद्दे नज़र मामला प्रधानमंत्री कार्यालय के पास भेज दिया गया है. प्रसार भारती के बोर्ड के सदस्यों और अध्यक्ष की नियुक्ति पर भी सरकार नए सिरे से नज़र डाल रही है . इस बात पर भी सरकार की नज़र है कि क्या उन लोगों को प्रसार भारती के अध्यक्ष पद पर तैनात किया जाना चाहिए जिनके ऊपर सी ई ओ के एहसान हों . कुल मिलाकर एक बहुत ही पवित्र उद्देश्य से शुरू किया गया प्रसार भारती संगठन आजकल दिल्ली के सत्ता के गलियारों में सक्रिय लोगों का चरागाह बन गया है और इसमें टैक्स अदा करने वाले लोगों का तीन हज़ार करोड़ रूपया स्वाहा हो रहा है . देखना यह हिया कि मनमोहन सिंह की सरकार क्या इस विकत परिस्थिति से देश को बचा पायेगी. हालांकि सरकार के लिए भ्रष्ट अधिकारियों को बचा पाने में बहुत मुश्किल पेश आयेगी क्योंकि देश के सबसे आदरणीय अखबार, हिन्दू ने भी प्रसार भारती की हेराफेरी के खिलाफ बिगुल बजा दिया है.कांग्रेसी सत्ता के शीर्ष पर विराजमान दोनों ही लोगों की ईमान दारी की परीक्षा भी प्रसार भारती के विवाद के बहाने हो जायेगी.
Saturday, September 18, 2010
मिजवां और हैदराबाद की बेटी लीक से हटकर काम करती है
शेष नारायण सिंह
( शबाना आजमी के जन्मदिन पर एक पुराना लेख )
आज़ादी के 63 साल बाद भी देश में आज़ादी पूरी तरह से नहीं आई है . शायद इसीलिये आज़ादी का जो सपना हमारे महानायकों ने देखा था वह पूरा नहीं हो रहा है ..सबसे मुश्किल बात यह है कि राज-काज के फैसलों से देश की आधी आबादी को बाहर रखा जा रहा है ..अपने देश में आज भी महिलायें मुख्य धारा से बाहर हैं . असंवेदनशीलता की हद तो यह है कि जनगणना में गृहिणी को अनुत्पादक काम में शामिल माना गया है और उन्हें भिखारियों की श्रेणी में रखने की कोशिश की गयी . लेकिन हल्ला गुल्ला होने के बाद शायद यह मसला तो दब गया लेकिन महिलाओं को सत्ता से बाहर रखने में अभी तक मर्दवादी राजनीति के पैरोकार सफल हैं और उन्हें संसद और विधान मंडलों में बराबर का हक नहीं दे रहे हैं . महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए जो बिल राज्य सभा में पास किया गया था ,उसे मानसून सत्र में पेश करने की मंशा सरकारी तौर पर जतायी गयी है . यानी इस सत्र में जो काम होना है उसमें महिला आरक्षण बिल भी है .. लेकिन राज्य सभा में बिल को पास करवाने के लिए कांग्रेस ने जो उत्साह दिखाया था वह ढीला पड़ चुका है .कांग्रेस और बी जे पी में ऐसे सांसदों की संख्या खासी बड़ी है जो मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद की तरह सोचते हैं . अजीब बात है कि मुलायम सिंह और लालू प्रसाद जिन डॉ राम मनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानते हैं , वही डॉ लोहिया महिलाओं को आरक्षण के पक्षधर थे.इसलिए बिल को पास करवाना आसान नहीं है लेकिन उसे इतिहास के डस्ट बिन में भी नहीं डाला जा सकता है क्योंकि देश में जागरूक नागरिकों का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई सीटें दे दी जाएँ. इसके फायदे बहुत हैं लेकिन उन फायदों का यहाँ ज़िक्र करना बार बार कही गयी बातों को फिर से दोहराना माना जाएगा. यहाँ तो बस दीवाल पर लिखी इबारत को एक बार फिर से दोहरा देना है कि अब महिलाओं के लिए विधान मंडलों और संसद में आरक्षण को रोक पाना राजनीतिक पार्टियों के लिए बहुत मुश्किल होगा . इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि लोक सभा और राज्य सभा में ऐसी पार्टियां बहुमत में हैं जो घोषित रूप से महिलाओं के आरक्षण के पक्ष में हैं . उनको उनकी बात पूरी करने के लिए मजबूर करने के लिए बड़े पैमाने पर आन्दोलन चल रहा है . इसी आन्दोलन की एक कड़ी के रूप में मानसून सत्र शुरू होने के बाद नयी दिल्ली के जंतर मंतर पर बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं का हुजूम आया और उसने साफ़ कह दिया कि सरकार और विपक्षी दलों को अब महिला आरक्षण बिल पास कर देना चाहिए वरना बहुत देर हो जायेगी. मानवधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे संगठन ,अनहद की ओर से आयोजित जंतर मंतर की रैली से जो सन्देश निकला वह दूर तक जाएगा . इसी रैली में सिने कलाकार और सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली नेता, शबाना आजमी भी मौजूद थीं . उन्होंने ऐलान किया कि अब इस लड़ाई को तब तक जारी रखा जाएगा जब तक कि महिलायें बराबरी के अपने मकसद को हासिल नहीं कर लेतीं .शबाना इस रैली की मुख्य आकर्षण थीं . उन्होंने कहा कि यह लड़ाई केवल औरतों के बारे में नहीं है , यह इन्साफ की लड़ाई है .लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि ३३ फीसदी आरक्षण कोई जादू की छडी नहीं है कि यह हो जाने के बाद सारी समस्याओं का हल मिल जाएगा. यह तो औरतों का वह हक है जो उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था. यह सच है कि जब महात्मा गांधी ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी तो आवाहन किया था कि महिलाओं को उनका अधिकार दिया जाना चाहिए . लेकिन हुआ ठीक उसका उल्टा. आज आज़ादी के ६३ साल बाद भी संसद में केवल ८ फीसदी महिलायें हैं ज़रुरत इस बात की है कि महिलाओं को उनका वाजिब हक दिया जाए .अगर ऐसा हुआ तो हमारा समाज एक बेहतर समाज होगा क्योंकि महिलायें समाज की बेहतरी के लिए हमेशा काम करती हैं..उनको मालूम है कि यह लड़ाई मामूली नहीं है और तब तक चलती रहेगी जब तक कि लोकसभा में ३३ फीसदी आरक्षण के लिए बिल पास नहीं हो जाता .
शबाना आज़मी का यह बयान कोरा भाषण नहीं है क्योंकि अब तक का उनका रिकार्ड ऐसा रहा है कि वे जो कहती हैं वही करती भी हैं . कान फिल्म समारोह में जाने के पहले जब उन्हें पता लगा कि मुंबई के एक इलाके के लोगों की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही हैं तो शबाना आज़मी ने कान को टाल दिया और मुंबई में जाकर भूख हड़ताल पर बैठ गयीं. भयानक गर्मी और ज़मीन पर बैठ कर हड़ताल करती शबाना आज़मी का बी पी बढ़ गया. बीमार हो गयीं .सारे रिश्तेदार परेशान हो गए . लोगों ने सोचा कि उनके अब्बा से कहा जाए तो वे शायद इस जिद्दी लड़की को समझा दें. उनके अब्बा , कैफ़ी आजमी बहुत बड़े शायर थे ,अपनी बेटी से बेपनाह मुहब्बत करते थे और शबाना के सबसे अच्छे दोस्त थे. लेकिन कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट भी थे और उनका टेलीग्राम आया . लिखा था," बेस्ट ऑफ़ लक कॉमरेड." शबाना की बुलंदी में उनके अति प्रगतिशील पिता की सोच का बहुत ज्यादा योगदान है . हालांकि शबाना का दावा है कि उन्हें बचपन में राजनीति में कोई रूचि नहीं थी, वे अखबार भी नहीं पढ़ती थी. लेकिन सच्चाई यह है कि वे राजनीति में रहती थी. उनका बचपन मुंबई के रेड फ्लैग हाल में बीता था. रेड फ्लैग हाल किसी एक इमारत का नाम नहीं है . वह गरीब आदमी के लिए लड़ी गयी बाएं बाजू की लड़ाई का एक अहम मरकज़ है . आठ कमरों और एक बाथरूम वाले इस मकान में आठ परिवार रहते थे . हर परिवार के पास एक एक कमरा था . और परिवार भी क्या थे . इतिहास की दिशा को तय किया है इन कमरों में रहने वाले परिवारों ने. शौकत कैफ़ी ने अपनी उस दौर की ज़िन्दगी को अपनी किताब में याद किया है . लिखती हैं ,' रेड फ्लैग हाल एक गुलदस्ते की तरह था जिसमें गुजरात से आये मणिबेन और अम्बू भाई , मराठवाडा से सावंत और शशि ,यू पी से कैफ़ी,सुल्ताना आपा ,सरदार भाई ,उनकी दो बहनें रबाब और सितारा ,मध्य प्रदेश से सुधीर जोशी , शोभा भाभी और हैदराबाद से मैं . रेड फ्लैग हाल में सब एक एक कमरे के घर में रहते थे. सबका बावर्चीखाना बालकनी में होता था . वहां सिर्फ एक बाथरूम था और एक ही लैट्रीन लेकिन मैंने कभी किसी को बाथ रूम के लिए झगड़ते नहीं देखा."
इस तरह के माहौल से शबाना आजमी आई हैं . उनके बचपन की भी अजीब यादें हैं . संघर्ष करने में उनको मज़ा आता है . शायद ऐसा इसलिए कि रेड फ्लैग हाल के उनके बचपन में जब मजदूर संघर्ष करते थे तो शबाना के माता पिता भी जुलूस में शामिल होते थे. बेटी साथ जाती थी. इसलिए बचपन से ही वे नारे लगा रहे मजदूरों के कन्धों पर बैठी होती थी. चारों तरफ लाल झंडे और उसके बीच में एक अबोध बच्ची. यह बच्ची जब बड़ी हुई तो उसे इन्साफ के खिलाफ खड़े होने की ट्रेनिंग नहीं लेनी पड़ी. क्योंकि वह तो उन्हें घुट्टी में ही पिलाया गया था. शबाना आजमी ने एक बार मुझे बताया था कि लाला झंडे देख कर उनको लगता था कि उन्हें उसी के बीच होना चाहिए था क्योंकि वे तो बचपन से ही वहीं होती थीं .उन्हने दूर दूर तक फहर रहे लाल झंडों को देख कर लगता था ,जैसे कोई जश्न का माहौल हो.
ऐसे बहुत सारे मामले हैं जहां शबाना ने अपनी बात को मनवाया है . तो इस बार तो उनके साथ महिलाओं की बहुत बड़ी संख्या है और देश की राजनीतिक आबादी के बहुत सारे लोग महिला आरक्षण के पक्ष में हैं. शबाना आज़मी एक ऐसी महिला कार्यकर्ता हैं जिन्हें पुरुषों से बेपनाह प्यार मिला है . उनका आन्दोलन पुरुष विरोधी नहीं है. उनके अब्बा, कैफ़ी आजमी उन्हें जान से बढ़ कर मुहब्बत करते थे. शबाना को आम बहुत पसंद हैं .उनके बचपन में जब बहुत गरीबी थी तो कैफ़ी अपनी बेटी को आम बहुत मुश्किल से दे पाते थे . लेकिन जब उन्हें अपने गाँव में फिर से रहने का मौक़ा मिला तो उन्होंने शबाना के लिए आम का पूरा एक बाग़ लगवा दिया . इसलिए शबाना का महिला अआरक्षण आन्दोलन में शामिल होना न तो इत्तिफाक है और नहीं किसी तरह की पुरुष विरोधी मानसिकता . वे इन्साफ की लड़ाई लड़ रही हैं .
लगता है कि अब लड़ाई एक निर्णायक मुकाम तक पंहुच चुकी है . इस संघर्ष की एक अच्छाई यह भी है कि इसमें अगुवाई उन महिलाओं के हाथ में है जो अपने क्षेत्र में बुलंदियां हासिल कर चुकी हैं , किसी नेता की बेटी या बहू नहीं हैं . उम्मीद है कि इसी सत्र में लोकसभा महिला आरक्षण को मंजूरी दे देगी और हम एक देश के रूप में गर्व से सिर ऊंचा कर सकेगें
( शबाना आजमी के जन्मदिन पर एक पुराना लेख )
आज़ादी के 63 साल बाद भी देश में आज़ादी पूरी तरह से नहीं आई है . शायद इसीलिये आज़ादी का जो सपना हमारे महानायकों ने देखा था वह पूरा नहीं हो रहा है ..सबसे मुश्किल बात यह है कि राज-काज के फैसलों से देश की आधी आबादी को बाहर रखा जा रहा है ..अपने देश में आज भी महिलायें मुख्य धारा से बाहर हैं . असंवेदनशीलता की हद तो यह है कि जनगणना में गृहिणी को अनुत्पादक काम में शामिल माना गया है और उन्हें भिखारियों की श्रेणी में रखने की कोशिश की गयी . लेकिन हल्ला गुल्ला होने के बाद शायद यह मसला तो दब गया लेकिन महिलाओं को सत्ता से बाहर रखने में अभी तक मर्दवादी राजनीति के पैरोकार सफल हैं और उन्हें संसद और विधान मंडलों में बराबर का हक नहीं दे रहे हैं . महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए जो बिल राज्य सभा में पास किया गया था ,उसे मानसून सत्र में पेश करने की मंशा सरकारी तौर पर जतायी गयी है . यानी इस सत्र में जो काम होना है उसमें महिला आरक्षण बिल भी है .. लेकिन राज्य सभा में बिल को पास करवाने के लिए कांग्रेस ने जो उत्साह दिखाया था वह ढीला पड़ चुका है .कांग्रेस और बी जे पी में ऐसे सांसदों की संख्या खासी बड़ी है जो मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद की तरह सोचते हैं . अजीब बात है कि मुलायम सिंह और लालू प्रसाद जिन डॉ राम मनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानते हैं , वही डॉ लोहिया महिलाओं को आरक्षण के पक्षधर थे.इसलिए बिल को पास करवाना आसान नहीं है लेकिन उसे इतिहास के डस्ट बिन में भी नहीं डाला जा सकता है क्योंकि देश में जागरूक नागरिकों का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई सीटें दे दी जाएँ. इसके फायदे बहुत हैं लेकिन उन फायदों का यहाँ ज़िक्र करना बार बार कही गयी बातों को फिर से दोहराना माना जाएगा. यहाँ तो बस दीवाल पर लिखी इबारत को एक बार फिर से दोहरा देना है कि अब महिलाओं के लिए विधान मंडलों और संसद में आरक्षण को रोक पाना राजनीतिक पार्टियों के लिए बहुत मुश्किल होगा . इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि लोक सभा और राज्य सभा में ऐसी पार्टियां बहुमत में हैं जो घोषित रूप से महिलाओं के आरक्षण के पक्ष में हैं . उनको उनकी बात पूरी करने के लिए मजबूर करने के लिए बड़े पैमाने पर आन्दोलन चल रहा है . इसी आन्दोलन की एक कड़ी के रूप में मानसून सत्र शुरू होने के बाद नयी दिल्ली के जंतर मंतर पर बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं का हुजूम आया और उसने साफ़ कह दिया कि सरकार और विपक्षी दलों को अब महिला आरक्षण बिल पास कर देना चाहिए वरना बहुत देर हो जायेगी. मानवधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे संगठन ,अनहद की ओर से आयोजित जंतर मंतर की रैली से जो सन्देश निकला वह दूर तक जाएगा . इसी रैली में सिने कलाकार और सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली नेता, शबाना आजमी भी मौजूद थीं . उन्होंने ऐलान किया कि अब इस लड़ाई को तब तक जारी रखा जाएगा जब तक कि महिलायें बराबरी के अपने मकसद को हासिल नहीं कर लेतीं .शबाना इस रैली की मुख्य आकर्षण थीं . उन्होंने कहा कि यह लड़ाई केवल औरतों के बारे में नहीं है , यह इन्साफ की लड़ाई है .लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि ३३ फीसदी आरक्षण कोई जादू की छडी नहीं है कि यह हो जाने के बाद सारी समस्याओं का हल मिल जाएगा. यह तो औरतों का वह हक है जो उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था. यह सच है कि जब महात्मा गांधी ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी तो आवाहन किया था कि महिलाओं को उनका अधिकार दिया जाना चाहिए . लेकिन हुआ ठीक उसका उल्टा. आज आज़ादी के ६३ साल बाद भी संसद में केवल ८ फीसदी महिलायें हैं ज़रुरत इस बात की है कि महिलाओं को उनका वाजिब हक दिया जाए .अगर ऐसा हुआ तो हमारा समाज एक बेहतर समाज होगा क्योंकि महिलायें समाज की बेहतरी के लिए हमेशा काम करती हैं..उनको मालूम है कि यह लड़ाई मामूली नहीं है और तब तक चलती रहेगी जब तक कि लोकसभा में ३३ फीसदी आरक्षण के लिए बिल पास नहीं हो जाता .
शबाना आज़मी का यह बयान कोरा भाषण नहीं है क्योंकि अब तक का उनका रिकार्ड ऐसा रहा है कि वे जो कहती हैं वही करती भी हैं . कान फिल्म समारोह में जाने के पहले जब उन्हें पता लगा कि मुंबई के एक इलाके के लोगों की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही हैं तो शबाना आज़मी ने कान को टाल दिया और मुंबई में जाकर भूख हड़ताल पर बैठ गयीं. भयानक गर्मी और ज़मीन पर बैठ कर हड़ताल करती शबाना आज़मी का बी पी बढ़ गया. बीमार हो गयीं .सारे रिश्तेदार परेशान हो गए . लोगों ने सोचा कि उनके अब्बा से कहा जाए तो वे शायद इस जिद्दी लड़की को समझा दें. उनके अब्बा , कैफ़ी आजमी बहुत बड़े शायर थे ,अपनी बेटी से बेपनाह मुहब्बत करते थे और शबाना के सबसे अच्छे दोस्त थे. लेकिन कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट भी थे और उनका टेलीग्राम आया . लिखा था," बेस्ट ऑफ़ लक कॉमरेड." शबाना की बुलंदी में उनके अति प्रगतिशील पिता की सोच का बहुत ज्यादा योगदान है . हालांकि शबाना का दावा है कि उन्हें बचपन में राजनीति में कोई रूचि नहीं थी, वे अखबार भी नहीं पढ़ती थी. लेकिन सच्चाई यह है कि वे राजनीति में रहती थी. उनका बचपन मुंबई के रेड फ्लैग हाल में बीता था. रेड फ्लैग हाल किसी एक इमारत का नाम नहीं है . वह गरीब आदमी के लिए लड़ी गयी बाएं बाजू की लड़ाई का एक अहम मरकज़ है . आठ कमरों और एक बाथरूम वाले इस मकान में आठ परिवार रहते थे . हर परिवार के पास एक एक कमरा था . और परिवार भी क्या थे . इतिहास की दिशा को तय किया है इन कमरों में रहने वाले परिवारों ने. शौकत कैफ़ी ने अपनी उस दौर की ज़िन्दगी को अपनी किताब में याद किया है . लिखती हैं ,' रेड फ्लैग हाल एक गुलदस्ते की तरह था जिसमें गुजरात से आये मणिबेन और अम्बू भाई , मराठवाडा से सावंत और शशि ,यू पी से कैफ़ी,सुल्ताना आपा ,सरदार भाई ,उनकी दो बहनें रबाब और सितारा ,मध्य प्रदेश से सुधीर जोशी , शोभा भाभी और हैदराबाद से मैं . रेड फ्लैग हाल में सब एक एक कमरे के घर में रहते थे. सबका बावर्चीखाना बालकनी में होता था . वहां सिर्फ एक बाथरूम था और एक ही लैट्रीन लेकिन मैंने कभी किसी को बाथ रूम के लिए झगड़ते नहीं देखा."
इस तरह के माहौल से शबाना आजमी आई हैं . उनके बचपन की भी अजीब यादें हैं . संघर्ष करने में उनको मज़ा आता है . शायद ऐसा इसलिए कि रेड फ्लैग हाल के उनके बचपन में जब मजदूर संघर्ष करते थे तो शबाना के माता पिता भी जुलूस में शामिल होते थे. बेटी साथ जाती थी. इसलिए बचपन से ही वे नारे लगा रहे मजदूरों के कन्धों पर बैठी होती थी. चारों तरफ लाल झंडे और उसके बीच में एक अबोध बच्ची. यह बच्ची जब बड़ी हुई तो उसे इन्साफ के खिलाफ खड़े होने की ट्रेनिंग नहीं लेनी पड़ी. क्योंकि वह तो उन्हें घुट्टी में ही पिलाया गया था. शबाना आजमी ने एक बार मुझे बताया था कि लाला झंडे देख कर उनको लगता था कि उन्हें उसी के बीच होना चाहिए था क्योंकि वे तो बचपन से ही वहीं होती थीं .उन्हने दूर दूर तक फहर रहे लाल झंडों को देख कर लगता था ,जैसे कोई जश्न का माहौल हो.
ऐसे बहुत सारे मामले हैं जहां शबाना ने अपनी बात को मनवाया है . तो इस बार तो उनके साथ महिलाओं की बहुत बड़ी संख्या है और देश की राजनीतिक आबादी के बहुत सारे लोग महिला आरक्षण के पक्ष में हैं. शबाना आज़मी एक ऐसी महिला कार्यकर्ता हैं जिन्हें पुरुषों से बेपनाह प्यार मिला है . उनका आन्दोलन पुरुष विरोधी नहीं है. उनके अब्बा, कैफ़ी आजमी उन्हें जान से बढ़ कर मुहब्बत करते थे. शबाना को आम बहुत पसंद हैं .उनके बचपन में जब बहुत गरीबी थी तो कैफ़ी अपनी बेटी को आम बहुत मुश्किल से दे पाते थे . लेकिन जब उन्हें अपने गाँव में फिर से रहने का मौक़ा मिला तो उन्होंने शबाना के लिए आम का पूरा एक बाग़ लगवा दिया . इसलिए शबाना का महिला अआरक्षण आन्दोलन में शामिल होना न तो इत्तिफाक है और नहीं किसी तरह की पुरुष विरोधी मानसिकता . वे इन्साफ की लड़ाई लड़ रही हैं .
लगता है कि अब लड़ाई एक निर्णायक मुकाम तक पंहुच चुकी है . इस संघर्ष की एक अच्छाई यह भी है कि इसमें अगुवाई उन महिलाओं के हाथ में है जो अपने क्षेत्र में बुलंदियां हासिल कर चुकी हैं , किसी नेता की बेटी या बहू नहीं हैं . उम्मीद है कि इसी सत्र में लोकसभा महिला आरक्षण को मंजूरी दे देगी और हम एक देश के रूप में गर्व से सिर ऊंचा कर सकेगें
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Thursday, September 16, 2010
कश्मीर समस्या का हल सोनिया गाँधी के रास्ते ही संभव है
शेष नारायण सिंह
जम्मू-कश्मीर के संकट में सभी राजनीतिक दलों को शामिल करने की गरज से प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की पहल का स्वागत किया जाना चाहिए . कश्मीर की समस्या पिछले ६३ वर्षों से भारत के लिए मुसीबत बनी हुई है . उसका हल निकालना इसलिए बहुत मुश्किल है कि उसमें शुरू से ही पाकिस्तानी पेंच फंसी हुई है बल्कि यह कहना ठीक होगा कि कश्मीर समस्या है ही पाकिस्तान की वजह से . मुल्क के बँटवारे के बाद पता नहीं किस पिनक में पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल , मुहम्मद अली जिन्ना कश्मीर को अपना मान बैठे थे. उसी चक्कर में वे कश्मीर के उस वक़्त के राजा को पट्टी पढ़ाते रहे . लेकिन धीरज नाम की चीज़ तो जिन्ना को छू नहीं गयी थी इसलिए राजा की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किये बिना उन्होंने कुछ कबायलियों के साथ पाकिस्तानी सेना को भेज दिया . राजा घबडा गया और उसने सरदार पटेल के सामने आकर भारत के साथ विलय के प्रस्ताव पर दस्तखत कर दिया. बाद में भारत ने पाकिस्तानी सेना को मय कबायलियों के खदेड़ा लेकिन जिन हिस्सों पर यह कबायली क़ब्ज़ा कर चुके थे , वह विवादित हो गया . आज भी कश्मीर के मुज़फराबाद सहित कुछ इलाकों पर पाकिस्तानी क़ब्ज़ा है . कश्मीर समस्या में दिनोंदिन पेंच फंसती गयी और अब हालत यह है कि कश्मीर में पाकिस्तानी घुसपैठ जिस मुकाम पर है, वह भारत की एकता के लिए चुनौती बन चुका है . सच्चाई यह है कि पाकिस्तान में जो हालात हैं , उसे अब न तो पाकिस्तान काबू कर सकता है और न ही वहां पाकिस्तानी पैसे से काम कर रहे अलगाववादी . अब लड़ाई में वह आबादी शामिल हो चुकी है जो पैदा ही आतंकवाद के माहौल में हुई और बचपन से उसने वही देखा है . अब इन नौजवानों के नेताओं को तलाश कर उनसे बात करने की ज़रुरत है .
प्रधानमंत्री के दफ्तर से बुलाई गयी सर्वदलीय बैठक में भी यही बात उभर कर सामने आई है . तय किया गया कि सभी दलों का एक प्रतिनिधिमंडल कश्मीर भेजा जाएगा जो वहां के सभी पक्षों से बात करेगा और लौटकर केंद्र सरकार को रिपोर्ट देगा . उसी के आधार पर अगली कार्रवाई का रास्ता तय किया जाएगा. कश्मीर की हालात पर विचार करते समय राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की सीमा से बाहर नहीं आ पाते . सच्ची बात यह है कि कश्मीर की समस्या की जड़ में ही राजनीतिक लोगों का राजनीतिक स्वार्थ रहा है . १९४७ में कश्मीर की राजा की जेब में एक राजनीतिक पार्टी हुआ करती थी . नाम था प्रजा परिषद् . राजा इस पार्टी का इस्तेमाल , रियासत के लोकप्रिय नेता , शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के खिलाफ किया करते थे. यह पार्टी राजा के हुक्म की इतनी बड़ी गुलाम थी कि जब राजा ने पाकिस्तान में अपने राज्य का विलय करने का मंसूबा बनाया तो यह पार्टी उसके लिए भी राजी हो गयी थी. बाद में प्रजा परिषद का आर एस एस के मातहत काम करने वाली पार्टी, भारतीय जनसंघ के साथ हो विलय गया था . इन्हीं प्रजा परिषद् वालों के कहने पर ही जन संघ के उस वक़्त के नेता, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शेख के खिलाफ अभियान चलाया था . ऐसे ही एक अभियान के दौरान जब वे कश्मीर गए तो उनकी मौत हो गयी. बाद में शेख के बडबोलेपन की वजह से जवाहरलाल नेहरू ने उनकी सरकार को बर्खास्त किया और उन्हें जेल में डाला . डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पार्टी वाले आज भी अपने स्वर्गीय नेता के गैरजिम्मेदार आचरण से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं . प्रधानमंत्री की बैठक में भी बी जे पी के अध्यक्ष के साथ आडवानी गुट के जो नेता शामिल हुए उनकी राय यही थी कि कश्मीर की हालात का फायदा उठा कर बाकी देश में वोट जीते जाएँ . बहरहाल इस बैठक में सोनिया गांधी ने जो कुछ भी कहा , उसके बाद सभी पार्टियों से ज़िम्मेदार राजनीतिक आचरण की उम्मीद की जानी चाहिये.
कश्मीर के बारे में विचार करते वक़्त जो सबसे ज़रूरी बात ध्यान में रखने की है, वह कश्मीर की विशेष राजनीतिक परिस्थितियाँ हैं. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद दिल्ली के अदूरदर्शी नेताओं ने कश्मीर की जनता - कश्मीरी पंडित और मुसलमान - दोनों की भावनाओं के साथ खूब खिलवाड़ किया है . उस से बाहर आने की ज़रुरत है . इसलिए ज़रूरी है कि सर्वदलीय बैठक में कही गयी सोनिया गांधी की बातों को गंभीरता से लें और उन्हीं बातों को आदर्श मान कर कश्मीर समस्या के हल के लिए आगे बढे. सोनिया गांधी ने बैठक में कहा कि राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों को भुलाकर हिंसा और तकलीफ के ज़हरीले घुमावदार रास्ते को दरकिनार करके कश्मीर में जो इंसानियत रहती है उसके घावों पर बातचीत का मलहम लगाएं. उन्होंने कहा कि ऐसे संवाद को कायम करने के लिए कश्मीरी अवाम की जायज़ महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रखना ज़रूरी होगा. यहाँ यह भी साफ़ कर देने की ज़रुरत है कि आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाले लोगों को यह ध्यान रखना पड़ेगा कि सोनिया गांधी आज की तारीख में इस देश की सबसे बड़ी नेता हैं और उनके प्रति नफरत का ज़हर फैलाने से बाज़ आना चाहिए . अगर बी जे पी की बड़ी नेता, सुषमा स्वराज कह सकती हैं कि उन्हें राजीव गाँधी की समाधि पर पुष्प चढाने में कोई दिक्कत नहीं है तो छुटभैये नेताओं को इस सच्चाई को समझ में लेने में ज्यादा मुश्किल पेश नहीं आनी चाहिए . इस बात में कोई दो राय नहीं है कि बुधवार को हुई सर्वदलीय बैठक के बाद सोनिया गांधी का क़द बहुत बड़ा हो गया है लिहाज़ा बी जे पी के छोटे नेताओं को चाहिए कि उन्हें देश का नेता स्वीकार कर लें . बी जे पी आलाकमान उस रास्ते पर पहले ही चल चुका है .
जम्मू-कश्मीर के संकट में सभी राजनीतिक दलों को शामिल करने की गरज से प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की पहल का स्वागत किया जाना चाहिए . कश्मीर की समस्या पिछले ६३ वर्षों से भारत के लिए मुसीबत बनी हुई है . उसका हल निकालना इसलिए बहुत मुश्किल है कि उसमें शुरू से ही पाकिस्तानी पेंच फंसी हुई है बल्कि यह कहना ठीक होगा कि कश्मीर समस्या है ही पाकिस्तान की वजह से . मुल्क के बँटवारे के बाद पता नहीं किस पिनक में पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल , मुहम्मद अली जिन्ना कश्मीर को अपना मान बैठे थे. उसी चक्कर में वे कश्मीर के उस वक़्त के राजा को पट्टी पढ़ाते रहे . लेकिन धीरज नाम की चीज़ तो जिन्ना को छू नहीं गयी थी इसलिए राजा की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किये बिना उन्होंने कुछ कबायलियों के साथ पाकिस्तानी सेना को भेज दिया . राजा घबडा गया और उसने सरदार पटेल के सामने आकर भारत के साथ विलय के प्रस्ताव पर दस्तखत कर दिया. बाद में भारत ने पाकिस्तानी सेना को मय कबायलियों के खदेड़ा लेकिन जिन हिस्सों पर यह कबायली क़ब्ज़ा कर चुके थे , वह विवादित हो गया . आज भी कश्मीर के मुज़फराबाद सहित कुछ इलाकों पर पाकिस्तानी क़ब्ज़ा है . कश्मीर समस्या में दिनोंदिन पेंच फंसती गयी और अब हालत यह है कि कश्मीर में पाकिस्तानी घुसपैठ जिस मुकाम पर है, वह भारत की एकता के लिए चुनौती बन चुका है . सच्चाई यह है कि पाकिस्तान में जो हालात हैं , उसे अब न तो पाकिस्तान काबू कर सकता है और न ही वहां पाकिस्तानी पैसे से काम कर रहे अलगाववादी . अब लड़ाई में वह आबादी शामिल हो चुकी है जो पैदा ही आतंकवाद के माहौल में हुई और बचपन से उसने वही देखा है . अब इन नौजवानों के नेताओं को तलाश कर उनसे बात करने की ज़रुरत है .
प्रधानमंत्री के दफ्तर से बुलाई गयी सर्वदलीय बैठक में भी यही बात उभर कर सामने आई है . तय किया गया कि सभी दलों का एक प्रतिनिधिमंडल कश्मीर भेजा जाएगा जो वहां के सभी पक्षों से बात करेगा और लौटकर केंद्र सरकार को रिपोर्ट देगा . उसी के आधार पर अगली कार्रवाई का रास्ता तय किया जाएगा. कश्मीर की हालात पर विचार करते समय राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की सीमा से बाहर नहीं आ पाते . सच्ची बात यह है कि कश्मीर की समस्या की जड़ में ही राजनीतिक लोगों का राजनीतिक स्वार्थ रहा है . १९४७ में कश्मीर की राजा की जेब में एक राजनीतिक पार्टी हुआ करती थी . नाम था प्रजा परिषद् . राजा इस पार्टी का इस्तेमाल , रियासत के लोकप्रिय नेता , शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के खिलाफ किया करते थे. यह पार्टी राजा के हुक्म की इतनी बड़ी गुलाम थी कि जब राजा ने पाकिस्तान में अपने राज्य का विलय करने का मंसूबा बनाया तो यह पार्टी उसके लिए भी राजी हो गयी थी. बाद में प्रजा परिषद का आर एस एस के मातहत काम करने वाली पार्टी, भारतीय जनसंघ के साथ हो विलय गया था . इन्हीं प्रजा परिषद् वालों के कहने पर ही जन संघ के उस वक़्त के नेता, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शेख के खिलाफ अभियान चलाया था . ऐसे ही एक अभियान के दौरान जब वे कश्मीर गए तो उनकी मौत हो गयी. बाद में शेख के बडबोलेपन की वजह से जवाहरलाल नेहरू ने उनकी सरकार को बर्खास्त किया और उन्हें जेल में डाला . डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पार्टी वाले आज भी अपने स्वर्गीय नेता के गैरजिम्मेदार आचरण से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं . प्रधानमंत्री की बैठक में भी बी जे पी के अध्यक्ष के साथ आडवानी गुट के जो नेता शामिल हुए उनकी राय यही थी कि कश्मीर की हालात का फायदा उठा कर बाकी देश में वोट जीते जाएँ . बहरहाल इस बैठक में सोनिया गांधी ने जो कुछ भी कहा , उसके बाद सभी पार्टियों से ज़िम्मेदार राजनीतिक आचरण की उम्मीद की जानी चाहिये.
कश्मीर के बारे में विचार करते वक़्त जो सबसे ज़रूरी बात ध्यान में रखने की है, वह कश्मीर की विशेष राजनीतिक परिस्थितियाँ हैं. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद दिल्ली के अदूरदर्शी नेताओं ने कश्मीर की जनता - कश्मीरी पंडित और मुसलमान - दोनों की भावनाओं के साथ खूब खिलवाड़ किया है . उस से बाहर आने की ज़रुरत है . इसलिए ज़रूरी है कि सर्वदलीय बैठक में कही गयी सोनिया गांधी की बातों को गंभीरता से लें और उन्हीं बातों को आदर्श मान कर कश्मीर समस्या के हल के लिए आगे बढे. सोनिया गांधी ने बैठक में कहा कि राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों को भुलाकर हिंसा और तकलीफ के ज़हरीले घुमावदार रास्ते को दरकिनार करके कश्मीर में जो इंसानियत रहती है उसके घावों पर बातचीत का मलहम लगाएं. उन्होंने कहा कि ऐसे संवाद को कायम करने के लिए कश्मीरी अवाम की जायज़ महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रखना ज़रूरी होगा. यहाँ यह भी साफ़ कर देने की ज़रुरत है कि आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाले लोगों को यह ध्यान रखना पड़ेगा कि सोनिया गांधी आज की तारीख में इस देश की सबसे बड़ी नेता हैं और उनके प्रति नफरत का ज़हर फैलाने से बाज़ आना चाहिए . अगर बी जे पी की बड़ी नेता, सुषमा स्वराज कह सकती हैं कि उन्हें राजीव गाँधी की समाधि पर पुष्प चढाने में कोई दिक्कत नहीं है तो छुटभैये नेताओं को इस सच्चाई को समझ में लेने में ज्यादा मुश्किल पेश नहीं आनी चाहिए . इस बात में कोई दो राय नहीं है कि बुधवार को हुई सर्वदलीय बैठक के बाद सोनिया गांधी का क़द बहुत बड़ा हो गया है लिहाज़ा बी जे पी के छोटे नेताओं को चाहिए कि उन्हें देश का नेता स्वीकार कर लें . बी जे पी आलाकमान उस रास्ते पर पहले ही चल चुका है .
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Wednesday, September 15, 2010
जाति के आ़धार पर आरक्षण जैसे गंभीर मुद्दे को खेल का विषय न बनाएं
शेष नारायण सिंह
आजकल हरियाणा में जाटों के नौजवान सडकों पर हैं और सरकारी नौकरियों में अपनी जाति के लिए आरक्षण के लिए संघर्ष कर रहे हैं .उनका आन्दोलन हिंसक है और उसमें सामाजिक संपत्ति को आग के हवाले किया जा रहा है . इसके पहले इसी बिरादरी के लोगों ने हरियाणा में उत्पात मचाया था और वे मांग कर रहे थे कि जो लोग उनकी खाप की मर्ज़ी के खिलाफ शादी करें उन्हें भारतीय दंड विधान के तहत सज़ा दी जानी चाहिए .उनकी मांग थी कि अपने पिंड में शादी करने के काम को अपराध माना जाए और उस तथाकथित अपराध को करने वाले को कानून सज़ा दे. हरियाणा के मुख्य मंत्री भी इसी बिरदारी के हैं और इस बिरादरी के वोटों के बल पर ही सत्ता में हैं .पिछले करीब बीस वर्षों से सरकारी नौकरियों और अन्य पदों पर आरक्षण को एक सुविधा के रूप में देखा जाने लगा है . जिसकी संख्या ज्यादा है वह उठ कर बैठ जाता है और आरक्षण की बात करने लगता है . जबकि आरक्षण को एक ऐसे तरीके के रूप में विकसित किया गया था जिस से समता मूलक समाज की स्थापना हो सके. जो जातियां पारंपरिक रूप से दबी कुचली हैं , उनको बाकी लोगों के बराबर लाने के लिए आरक्षण को एक राजनीतिक हथियार के रूप में हमारे संविधान निर्माताओं ने प्रस्तुत किया था. आरक्षण से उम्मीद के मुताबिक़ नतीजे नहीं मिले इसलिए उसे और संशोधित भी किया गया लेकिन आजकल एक अजीब बात देखने में आ रही है . वे जातियां जिनकी वजह से देश और समाज में दलितों को शोषित पीड़ित रखा गया था , वही आरक्षण की बात करने लगी हैं . काका कालेलकर और मंडल कमीशन की सिफारिशों में क्रीमी लेयर की बात की गयी थी . इसका मतलब यह था कि जो लोग आरक्षण के लाभ को लेकर आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े नहीं रह गए हैं, उनके घर के बच्चों को आरक्षण के लाभ से अलग कर दिया जाना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है . सवाल पूछे जा आरहे हैं कि लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान, मीरा कुमार , शुशील कुमार शिंदे, गोपीनाथ मुंडे , नीतीश कुमार के बच्चों को क्यों आरक्षण दिया जाये जबकि वे लोग समाज के सबसे एलीट वर्ग में शामिल हो चुके हैं . जब इस तरह के शासक वर्ग भी आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं तो जाटों के नौजवान भी इसी लाइन में लग गए . अभी तो हद होने वाली है . सुना है कि राजपूतों के नौजवान भी आरक्षण के लिए लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं . उनका तर्क है कि लड़ाई भिड़ाई की वजह से उनके पुरखे शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ गए थे इसलिए अब आरक्षण के ज़रिये सब ठीक कर लिया जाएगा . यह हद है जिसकी वजह से समाज का एक बड़ा वर्ग शोषित पीडित हुआ वही आरक्षण की बात कर रहा है .
ज़रुरत स बात की है कि आरक्षण के दर्शन को पूरी तरह से समझ लिया जाए . बीसवीं सदी में आरक्षण के दो सबसे बड़े समर्थक हुए हैं जिन्होंने सामाजिक बराबारी के लिए अफरमेटिव एक्शन की बात की. डॉ राम मनोहर लोहिया ने साफ़ कहा कि पिछड़ों और हर वर्ग के एमहिलाओं को ऊपर लाने के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाना चाहिए . दूसरे राजनेता , बी आर अंबेडकर हुए जिन्होंने आरक्षण को सामाजिक बराबरी का एक बड़ा हथियार माना और उसे संविधान में शामिल करवाया . आज ६० साल बाद सामाजिक परिवर्तन का यह माध्यम राजनीतिक रूप से ताक़तवर लोगों के हाथों में खिलौना होने जा रहा है . आरक्षण की मांग कर रहे इन संपन्न वर्गों के लड़कों को कौन बताये कि भैया आपके पूर्वजों के एवाजः से तो सामाजिक गैर बराबरी आई थी उसे ख़त्म करने के लिए जो व्यवस्था बनायी गयी है जब आप ही उसमें घुस जायेगें तो क्या फायदा . लेकिन राजनीतिक सुविधाभोगियों के दौर में कुछ भी संभव है . लेकिन सामाजिक बराबरी दर्शन शास्त्र के आदिपुरुष महात्मा फुले ने इसे एक बहुत ही ग़म्भीर राजनीतिक परिवर्तन का हथियार माना है उनका मानना था कि दबे कुचले वर्गों को अगर बेहतर अवसर दिए जाएँ तो सब कुछ बदल सकता है ... महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया।
महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
एक लम्बा इतिहास है सकारात्मक हस्तक्षेप का और इसे हमेशा हे यैसा राजनीतिक विमर्श माना जाता रहा है जो मुल्क और कौम के मुस्तकबिल को प्रभावित करता है . राजनेताओं को इसे खेल का विषय बनाने से बाज़ आना चाहिए
आजकल हरियाणा में जाटों के नौजवान सडकों पर हैं और सरकारी नौकरियों में अपनी जाति के लिए आरक्षण के लिए संघर्ष कर रहे हैं .उनका आन्दोलन हिंसक है और उसमें सामाजिक संपत्ति को आग के हवाले किया जा रहा है . इसके पहले इसी बिरादरी के लोगों ने हरियाणा में उत्पात मचाया था और वे मांग कर रहे थे कि जो लोग उनकी खाप की मर्ज़ी के खिलाफ शादी करें उन्हें भारतीय दंड विधान के तहत सज़ा दी जानी चाहिए .उनकी मांग थी कि अपने पिंड में शादी करने के काम को अपराध माना जाए और उस तथाकथित अपराध को करने वाले को कानून सज़ा दे. हरियाणा के मुख्य मंत्री भी इसी बिरदारी के हैं और इस बिरादरी के वोटों के बल पर ही सत्ता में हैं .पिछले करीब बीस वर्षों से सरकारी नौकरियों और अन्य पदों पर आरक्षण को एक सुविधा के रूप में देखा जाने लगा है . जिसकी संख्या ज्यादा है वह उठ कर बैठ जाता है और आरक्षण की बात करने लगता है . जबकि आरक्षण को एक ऐसे तरीके के रूप में विकसित किया गया था जिस से समता मूलक समाज की स्थापना हो सके. जो जातियां पारंपरिक रूप से दबी कुचली हैं , उनको बाकी लोगों के बराबर लाने के लिए आरक्षण को एक राजनीतिक हथियार के रूप में हमारे संविधान निर्माताओं ने प्रस्तुत किया था. आरक्षण से उम्मीद के मुताबिक़ नतीजे नहीं मिले इसलिए उसे और संशोधित भी किया गया लेकिन आजकल एक अजीब बात देखने में आ रही है . वे जातियां जिनकी वजह से देश और समाज में दलितों को शोषित पीड़ित रखा गया था , वही आरक्षण की बात करने लगी हैं . काका कालेलकर और मंडल कमीशन की सिफारिशों में क्रीमी लेयर की बात की गयी थी . इसका मतलब यह था कि जो लोग आरक्षण के लाभ को लेकर आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े नहीं रह गए हैं, उनके घर के बच्चों को आरक्षण के लाभ से अलग कर दिया जाना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है . सवाल पूछे जा आरहे हैं कि लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान, मीरा कुमार , शुशील कुमार शिंदे, गोपीनाथ मुंडे , नीतीश कुमार के बच्चों को क्यों आरक्षण दिया जाये जबकि वे लोग समाज के सबसे एलीट वर्ग में शामिल हो चुके हैं . जब इस तरह के शासक वर्ग भी आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं तो जाटों के नौजवान भी इसी लाइन में लग गए . अभी तो हद होने वाली है . सुना है कि राजपूतों के नौजवान भी आरक्षण के लिए लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं . उनका तर्क है कि लड़ाई भिड़ाई की वजह से उनके पुरखे शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ गए थे इसलिए अब आरक्षण के ज़रिये सब ठीक कर लिया जाएगा . यह हद है जिसकी वजह से समाज का एक बड़ा वर्ग शोषित पीडित हुआ वही आरक्षण की बात कर रहा है .
ज़रुरत स बात की है कि आरक्षण के दर्शन को पूरी तरह से समझ लिया जाए . बीसवीं सदी में आरक्षण के दो सबसे बड़े समर्थक हुए हैं जिन्होंने सामाजिक बराबारी के लिए अफरमेटिव एक्शन की बात की. डॉ राम मनोहर लोहिया ने साफ़ कहा कि पिछड़ों और हर वर्ग के एमहिलाओं को ऊपर लाने के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाना चाहिए . दूसरे राजनेता , बी आर अंबेडकर हुए जिन्होंने आरक्षण को सामाजिक बराबरी का एक बड़ा हथियार माना और उसे संविधान में शामिल करवाया . आज ६० साल बाद सामाजिक परिवर्तन का यह माध्यम राजनीतिक रूप से ताक़तवर लोगों के हाथों में खिलौना होने जा रहा है . आरक्षण की मांग कर रहे इन संपन्न वर्गों के लड़कों को कौन बताये कि भैया आपके पूर्वजों के एवाजः से तो सामाजिक गैर बराबरी आई थी उसे ख़त्म करने के लिए जो व्यवस्था बनायी गयी है जब आप ही उसमें घुस जायेगें तो क्या फायदा . लेकिन राजनीतिक सुविधाभोगियों के दौर में कुछ भी संभव है . लेकिन सामाजिक बराबरी दर्शन शास्त्र के आदिपुरुष महात्मा फुले ने इसे एक बहुत ही ग़म्भीर राजनीतिक परिवर्तन का हथियार माना है उनका मानना था कि दबे कुचले वर्गों को अगर बेहतर अवसर दिए जाएँ तो सब कुछ बदल सकता है ... महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया।
महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
एक लम्बा इतिहास है सकारात्मक हस्तक्षेप का और इसे हमेशा हे यैसा राजनीतिक विमर्श माना जाता रहा है जो मुल्क और कौम के मुस्तकबिल को प्रभावित करता है . राजनेताओं को इसे खेल का विषय बनाने से बाज़ आना चाहिए
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Monday, September 13, 2010
एक बार फिर पीपली लाइव बन गया दिल्ली का मीडिया
शेष नारायण सिंह
दिल्ली में बाढ़ का पानी कम होना शुरू हो गया है . यमुना नदी में इस साल अपेक्षाकृत ज्यादा पानी आ गया था . और उस ज्यादा पानी के चलते तरह तरह की चर्चाएँ शुरू हो गयी थी. इस सीज़न में ज़्यादातर नदियों में बाढ़ आती है लेकिन इस बार दिल्ली में यमुना नदी में आई बाढ़ को बहुत दिनों तक याद रखा जाएगा. उसके कई कारण हैं . सबसे प्रमुख कारण तो यह है कि मानसून सीज़न के ख़त्म होते ही दिल्ली में कामनवेल्थ खेल आयोजित किये गए हैं . कुछ आलसी और गैरजिम्मेदार कांग्रेसी नेताओं की वजह से इन खेलों की तैयारी अपने समय से नहीं हो पायी है . अब तैयारियां युद्ध स्तर पर चल रही हैं और घूसजीवी अफसरों और कांग्रेसियों की चांदी है . खेलों की तैयारी से सम्बंधित सब कुछ अब जिस रफ़्तार से हांका जा रहा है, उसमें धन की कोई कीमत नहीं रह गयी है . भाई लोग जम कर लूट रहे हैं . डेंगू, स्वाइन फ़्लू, और वाइरल बुखार का ख़तरा बना हुआ है .ज़्यादातर अफसरों और नेताओं की ईमानदारी सवालों के घेरे में है और उनकी विश्वसनीयता पर तरह तरह के सवाल उठाये जा रहे हैं . लेकिन इस सारी प्रक्रिया में सबसे ज़्यादा सवाल मीडिया पर उठ रहा है . एक बड़े मीडिया घराने पर तो यह भी आरोप लग चुका है कि उस के अखबार ने कामनवेल्थ खेलों की पब्लिसिटी के ठेके के लिए कोशिश की थी लेकिन जब नहीं मिला तो आयोजन समिति के प्रमुख को औकात बताने के प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर दिया.और कामनवेल्थ खेलों पर आरोपों की झड़ी लगा दी. मीडिया कंपनी पर आरोप इतने गंभीर पत्रकार ने अपने लेख में लगाया है कि उस मीडिया कंपनी सहित किसी के इभी हिम्मत उसका खंडन करने की नहीं है . बहर हाल आजकल टेलीविज़न के खबर देने वाले चैनलों ने बाढ़ को अपनी कवरेज के रेंज में ले लिया है . और बाढ़ का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया कि दूर दूर से लोग घबडा कर दिल्ली में रहने वाले अपने रिश्तेदारों को फोन करने लगे और पूरी दुनिया में प्रचार हो गया कि दिल्ली बुरी तरह से बाढ़ की चपेट में आ गई है . लेकिन यह सच नहीं था . दिल्ली के कुछ निचले इलाकों में पानी आ गया था . वहां रहने वालों की ज़िंदगी दूभर हो गयी थी लेकिन पूरी दिल्ली बाढ़ की चपेट में हो , ऐसा कभी नहीं था . लेकिन टी वी न्यूज़ वालों ने कुछ इस तरह का माहौल बनाया कि दुनिया की समझ में आ गया कि दिल्ली बाढ़ के लिहाज़ से एक खतरनाक शहर है . . इस सारे गडबडझाले में आंशिक सत्य , अर्ध सत्य और असत्य का भी सहारा लिया गया. सबसे अजीब बात तो यह थी कि दिन रात टी वी चैनलों में खबर आती रही कि हरियाणा के हथिनी कुंड बैराज से पता नहीं कितने लाख क्यूसेक पानी छोड़ा जाने वाला है जिसके बाद दिल्ली में हालात बहुत बिगड़ जायेगें . इस में आंशिक सत्य , अर्ध सत्य और असत्य सब कुछ है . सचाई यह है कि इन खबरों के पैदा होने के लिए जो लोग भी जिम्मेवार थे , उन्होंने होम वर्क नहीं किया था . उन्हें पता होना चाहिए था कि किसी भी बैराज से पानी छोड़ा या रोका नहीं जा सकता .बैराज बाँध की तरह ऊंचे नहीं होते .इसलिए पानी को बांधों की तरह रोका नहीं जा सकता .सकता अगर बैराज के गेट न खोले जाएँ तो पाने एअपने आप छलक कर बहने लगता है .बैराज नदी की तलहटी से नदी में बह रहे पानी की सतह पानी रोकने का इंतज़ाम है . इसलिए जब नदी में ज़रुरत से ज्यादा पानी आ जाता है तो वह अपने आप बैराज की दीवार के ऊपर बह जाता है . बैराज कोई बाँध नहीं है जिसमें पानी को रोका जा सके . जबकि बाँध में पानी को रोका भी जाता है और बाकायदा कंट्रोल किया जाता है . हथिनी कुंड के पानी की रिपोर्टिंग में यह बुनियादी गलती है . टेलिविज़न के कुछ वरिष्ठ पत्रकारों से जब इस विषय पर चर्चा की तो उन्होंने कहा कि आजकल रिपोर्टर बिना तैयारी के ही आ जाते हैं और अपने ज्ञान को अपडेट नहीं करते . जब उन्हें बताया गया कि यह तो आपका ही ज़िम्मा है तो बगलें झांकने लगे. अपनी टी वी पत्रकारिता के वे दिन याद आ गये जब एक अतिग्यानी और मालिक की कृपापात्र पत्रकार ने मेरे ऊपर दबाव डाल कर यह कहलवाने की कोशिश की थी कि पी एल ओ एक आतंकवादी संगठन है .किसी तरह जान बचाई थी . एक बार मुझे लगभग स्वीकार करना पड़ गया था कि चीन की राजधानी शंघाई है , बीजिंग नहीं क्योंकि इसी पत्रकार ने तर्क दिया कि उसने दोनों ही शहरों को देखा है और शंघाई बड़ा और अच्छा शहर है . . उस संकट की घड़ी में आज के एक नामी चैनल के मुखिया भी उसी न्यूज़ रूम में आला अफसर थे, और उन्होंने मेरी जान बचाई थी और कहा था कि चलो अगर शेष जी इतनी जिद कर रहे हैं तो बीजिंग को ही राजधानी मान लेते हैं . बाद में उन्होंने ही ऊपर तक बात करके मुसीबत से छुटकारा दिलवाया था .जब मैंने पीपली लाइव देखा तो मुझे यह घटना बरबस याद हो गयी क्योंकि उस फिल्म की निदेशक, भी उसी दौर में उसी न्यूज़ रूम में इस तरह के ज्ञानी पत्रकारों से मुखातिब होती रहती थी. मुराद यह है कि टी वी पत्रकारिता एक गंभीर काम है और न्यूज़ रूम में काम करने वाले सभी लोगों की जानकारी और क्षमता को मिलाकर टी वी न्यूज़ प्रस्तुत की जानी चाहिए . अगर ऐसा हो सके तो देश और समाज का बहुत भला होगा लेकिन दुर्भाग्य यह है कि बार बार की गलतियों के बाद भी ऐसा नहीं हो रहा है. और एक बार फिर मीडिया गाफिल पाया गया है .कोशिश की जानी चाहिए कि टी वी के पत्रकार पीपली लाइव को हमेशा नज़र में रखें और अपने आपको मजाक का विषय न बनने दें .
दिल्ली में बाढ़ का पानी कम होना शुरू हो गया है . यमुना नदी में इस साल अपेक्षाकृत ज्यादा पानी आ गया था . और उस ज्यादा पानी के चलते तरह तरह की चर्चाएँ शुरू हो गयी थी. इस सीज़न में ज़्यादातर नदियों में बाढ़ आती है लेकिन इस बार दिल्ली में यमुना नदी में आई बाढ़ को बहुत दिनों तक याद रखा जाएगा. उसके कई कारण हैं . सबसे प्रमुख कारण तो यह है कि मानसून सीज़न के ख़त्म होते ही दिल्ली में कामनवेल्थ खेल आयोजित किये गए हैं . कुछ आलसी और गैरजिम्मेदार कांग्रेसी नेताओं की वजह से इन खेलों की तैयारी अपने समय से नहीं हो पायी है . अब तैयारियां युद्ध स्तर पर चल रही हैं और घूसजीवी अफसरों और कांग्रेसियों की चांदी है . खेलों की तैयारी से सम्बंधित सब कुछ अब जिस रफ़्तार से हांका जा रहा है, उसमें धन की कोई कीमत नहीं रह गयी है . भाई लोग जम कर लूट रहे हैं . डेंगू, स्वाइन फ़्लू, और वाइरल बुखार का ख़तरा बना हुआ है .ज़्यादातर अफसरों और नेताओं की ईमानदारी सवालों के घेरे में है और उनकी विश्वसनीयता पर तरह तरह के सवाल उठाये जा रहे हैं . लेकिन इस सारी प्रक्रिया में सबसे ज़्यादा सवाल मीडिया पर उठ रहा है . एक बड़े मीडिया घराने पर तो यह भी आरोप लग चुका है कि उस के अखबार ने कामनवेल्थ खेलों की पब्लिसिटी के ठेके के लिए कोशिश की थी लेकिन जब नहीं मिला तो आयोजन समिति के प्रमुख को औकात बताने के प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर दिया.और कामनवेल्थ खेलों पर आरोपों की झड़ी लगा दी. मीडिया कंपनी पर आरोप इतने गंभीर पत्रकार ने अपने लेख में लगाया है कि उस मीडिया कंपनी सहित किसी के इभी हिम्मत उसका खंडन करने की नहीं है . बहर हाल आजकल टेलीविज़न के खबर देने वाले चैनलों ने बाढ़ को अपनी कवरेज के रेंज में ले लिया है . और बाढ़ का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया कि दूर दूर से लोग घबडा कर दिल्ली में रहने वाले अपने रिश्तेदारों को फोन करने लगे और पूरी दुनिया में प्रचार हो गया कि दिल्ली बुरी तरह से बाढ़ की चपेट में आ गई है . लेकिन यह सच नहीं था . दिल्ली के कुछ निचले इलाकों में पानी आ गया था . वहां रहने वालों की ज़िंदगी दूभर हो गयी थी लेकिन पूरी दिल्ली बाढ़ की चपेट में हो , ऐसा कभी नहीं था . लेकिन टी वी न्यूज़ वालों ने कुछ इस तरह का माहौल बनाया कि दुनिया की समझ में आ गया कि दिल्ली बाढ़ के लिहाज़ से एक खतरनाक शहर है . . इस सारे गडबडझाले में आंशिक सत्य , अर्ध सत्य और असत्य का भी सहारा लिया गया. सबसे अजीब बात तो यह थी कि दिन रात टी वी चैनलों में खबर आती रही कि हरियाणा के हथिनी कुंड बैराज से पता नहीं कितने लाख क्यूसेक पानी छोड़ा जाने वाला है जिसके बाद दिल्ली में हालात बहुत बिगड़ जायेगें . इस में आंशिक सत्य , अर्ध सत्य और असत्य सब कुछ है . सचाई यह है कि इन खबरों के पैदा होने के लिए जो लोग भी जिम्मेवार थे , उन्होंने होम वर्क नहीं किया था . उन्हें पता होना चाहिए था कि किसी भी बैराज से पानी छोड़ा या रोका नहीं जा सकता .बैराज बाँध की तरह ऊंचे नहीं होते .इसलिए पानी को बांधों की तरह रोका नहीं जा सकता .सकता अगर बैराज के गेट न खोले जाएँ तो पाने एअपने आप छलक कर बहने लगता है .बैराज नदी की तलहटी से नदी में बह रहे पानी की सतह पानी रोकने का इंतज़ाम है . इसलिए जब नदी में ज़रुरत से ज्यादा पानी आ जाता है तो वह अपने आप बैराज की दीवार के ऊपर बह जाता है . बैराज कोई बाँध नहीं है जिसमें पानी को रोका जा सके . जबकि बाँध में पानी को रोका भी जाता है और बाकायदा कंट्रोल किया जाता है . हथिनी कुंड के पानी की रिपोर्टिंग में यह बुनियादी गलती है . टेलिविज़न के कुछ वरिष्ठ पत्रकारों से जब इस विषय पर चर्चा की तो उन्होंने कहा कि आजकल रिपोर्टर बिना तैयारी के ही आ जाते हैं और अपने ज्ञान को अपडेट नहीं करते . जब उन्हें बताया गया कि यह तो आपका ही ज़िम्मा है तो बगलें झांकने लगे. अपनी टी वी पत्रकारिता के वे दिन याद आ गये जब एक अतिग्यानी और मालिक की कृपापात्र पत्रकार ने मेरे ऊपर दबाव डाल कर यह कहलवाने की कोशिश की थी कि पी एल ओ एक आतंकवादी संगठन है .किसी तरह जान बचाई थी . एक बार मुझे लगभग स्वीकार करना पड़ गया था कि चीन की राजधानी शंघाई है , बीजिंग नहीं क्योंकि इसी पत्रकार ने तर्क दिया कि उसने दोनों ही शहरों को देखा है और शंघाई बड़ा और अच्छा शहर है . . उस संकट की घड़ी में आज के एक नामी चैनल के मुखिया भी उसी न्यूज़ रूम में आला अफसर थे, और उन्होंने मेरी जान बचाई थी और कहा था कि चलो अगर शेष जी इतनी जिद कर रहे हैं तो बीजिंग को ही राजधानी मान लेते हैं . बाद में उन्होंने ही ऊपर तक बात करके मुसीबत से छुटकारा दिलवाया था .जब मैंने पीपली लाइव देखा तो मुझे यह घटना बरबस याद हो गयी क्योंकि उस फिल्म की निदेशक, भी उसी दौर में उसी न्यूज़ रूम में इस तरह के ज्ञानी पत्रकारों से मुखातिब होती रहती थी. मुराद यह है कि टी वी पत्रकारिता एक गंभीर काम है और न्यूज़ रूम में काम करने वाले सभी लोगों की जानकारी और क्षमता को मिलाकर टी वी न्यूज़ प्रस्तुत की जानी चाहिए . अगर ऐसा हो सके तो देश और समाज का बहुत भला होगा लेकिन दुर्भाग्य यह है कि बार बार की गलतियों के बाद भी ऐसा नहीं हो रहा है. और एक बार फिर मीडिया गाफिल पाया गया है .कोशिश की जानी चाहिए कि टी वी के पत्रकार पीपली लाइव को हमेशा नज़र में रखें और अपने आपको मजाक का विषय न बनने दें .
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शेष नारायण सिंह
Sunday, September 12, 2010
किसी की राजनीति चमकाने के लिए उमर अब्दुल्ला क्यों लेते हैं फैसले
शेष नारायण सिंह
जम्मू कश्मीर में कमज़ोर सरकार का खामियाजा वहाँ के लोगों को भुगतना पद रहा है .इतनी मुश्किल राजनीतिक हालात हैं और सरकार को भनक तक नहीं है कि हो क्या रहा है . ईद जैसे पवित्र त्यौहार के दिन सरकार की गफलत के चलते खून खराबा हुआ और अब सरकार की तरफ से बयान आया है कि हुर्रियत के नेता, मीरवैज़ उमर फारूक ने सरकार के साथ दगाबाजी की . सरकार का आरोप है कि मीरवैज़ के ख़ास सहायक शहीद-उल-इस्लाम ने मुख्य मंत्री के दफ्तर में फ़रियाद की थी कि उन्हें लाल चौक तक एक जुलूस ले जाने दिया जाए वरना उनकी राजनीतिक हैसियत बहुत सिकुड़ जायेगी . उनके राजनीतिक अस्तित्व के लिए ज़रूरी है कि उन्हें यह जुलूस निकालने दिया जाए . यह शहीद-उल-इस्लाम पुराना आतंकवादी है और हिजबुल्ला नाम के आतंकवादी संगठन का सरगना रह चुका अहै . समझ में नहीं आता कि इस तरह के लोगों पर भरोसा करके जम्मू कश्मीर में मौजूदा मुख्यमंत्री क्या हासिल करना चाहते हैं . और जो दूसरी बात समझ में नहीं आती वह यह कि हुर्रियत कान्फरेन्स के अध्यक्ष , मीरवैज़ उमर फारूक के राजनीतिक अस्तित्व के लिए मुख्य मंत्री ने क्यों इस तरह का गैरजिम्मेदार फैसला लिया .बहर हाल कश्मीर में नेताओं की वजह से ईद जैसा पवित्र त्यौहार खून के रंग में रंग गया. . तुर्रा यह कि पाकिस्तान के पैसे पर पल रहे हुर्रियत के आन्दोलन को राजनीतिक स्पेस मिल गया. जो कि भारत के हित में कभी नहीं हो सकता. लाल चौक पर अपने भाषण में हुर्रियत के नेताओं ने जो आग उगली वह हर तरफ से भारत और कश्मीरियों के विरोध में है .सबको मालूम है कि कश्मीर में सेना का बहुत ही ज्यादा महत्व है और उसे अपना काम करने के लिए विशेष अधिकार मिले हुए हैं . इन अधिकारों को पाकर सेना के अधिकारी खुश नहीं हैं और न ही सिविल सोसाइटी इसे सही मानती है लेकिन कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के आदेश पर काम कर रहे नेताओं ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि अलग तरह के तरीकों से ही उन्हें काबू किया जा सकता है . मुख्य मंत्री समेत कश्मीर के ज़्यादातर नेता सेना के ख़ास अधिकारों में कटौती की मांग करते रहे हैं और अब वह होने भी वाला है . इस के बाद की राजनीति का खाका खींचते हुए उमर फारूक ने कहा कि सेना के अधिकारों में कमी करने से ही काम नहीं चलेगा. कश्मीर की समस्या का हल भी निकालना पड़ेगा. कश्मीर समस्या के हल की उनकी परिभाषा यह है कि भारत सरकार जम्मू-कश्मीर पर अपने अधिकार को खत्म कर दे और इन पाकिस्तान परस्तों को राज्य की जनता से खिलवाड़ करने का मौक़ा दे. ज़ाहिर है कि कोई भी सरकार इस तरह की बातों को स्वीकार नहीं कर सकती . मीरवैज़ उमर फारूक टाइप लोगों को बता दिया जाना चाहिए कि कश्मीर समस्या का हल यह है कि जम्मू-कश्मीर का वह इलाका जो वहां के महाराजा हरि सिंह के पास था और जिसे उसने भारत के गणराज्य में मिलाने के कागजों पर दस्तखत किया था ,उसे पूरी तरह से भारत के हवाले किया जाए . और पाकिस्तान की ओर से कश्मीर में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश पर लगाम लगाई जाए. ज़रुरत इस बात की भी है कि कश्मीर में बन्दूक के ऊपर राजनीति को हावी किया जाए .इसके लिए सभी राजनीतिक जमातों को जनहित और राष्ट्रहित में साथ खड़े रहना चाहिए . लेकिन इस सारे मामले में महबूबा मुफ्ती की भूमिका संदिग्ध है . वे दोनों तरफ हाथ मार रही हैं. आजकल उनके बयान बहुत ही डरावने हैं . उन्होंने जिस भाषा का इस्तेमाल कर रही हैं उस से साफ़ लगता है कि वे उमर अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त करवा कर एक नयी राजनीतिक व्यवस्था के सपने देख रही हैं. यह कश्मीर के हित में नहीं है . जब भी केंद्रीय हस्तक्षेप से श्रीं नगर में राजनीतिक सत्ता बदली गयी है नतीजे भयानक हुए हैं . शेख अब्दुल्ला की १९५३ की सरकार हो या फारूक अब्दुल्ला को हटाकर गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाने की बेवकूफी, केंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी के बाद कश्मीर में हालात खराब होते हैं . महबूबा मुफ्ती की बातों से साफ़ लगता है कि वे केंद्रीय हस्तक्षेप की मांग करती नज़र आ रही है . उन्होंने कहा है कि हालात बहुत खराब हैं और मुकामी स्तर पर तनाव को ख़त्म करना है . उसके लिए ऐसी पहल की ज़रुरत है जो सर्वोच्च स्तर से आये और लोग उसे गंभीरता से लें .यह बात कश्मीर के हित में नहीं है कि किसी भी नेता के राजनीतिक स्पेस को सुनिश्चित करने के लिए सरकार के फैसले लिए जाएँ . वैसे भी जम्मू कश्मीर के हालात असाधारण हैं और वहां राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत है .ख़ास कर जब भूखों मर रहे पाकिस्तान के नेता अपने घर को दुरुस्त करने से ज़्यादा कश्मीर में गड़बड़ी फैलाने में रूचि लेते हों . और इधर गीलानी, मलिक या मीरवैज़ क्या कम थे जो महबूबा मुफ्ती भी उसी तरफ खिसकती दिख रही हैं . अगर फ़ौरन कुछ न किया गया तो आने वाली नस्लें मौजूदा लीडरशिप को माफ़ नहीं करेगीं.
जम्मू कश्मीर में कमज़ोर सरकार का खामियाजा वहाँ के लोगों को भुगतना पद रहा है .इतनी मुश्किल राजनीतिक हालात हैं और सरकार को भनक तक नहीं है कि हो क्या रहा है . ईद जैसे पवित्र त्यौहार के दिन सरकार की गफलत के चलते खून खराबा हुआ और अब सरकार की तरफ से बयान आया है कि हुर्रियत के नेता, मीरवैज़ उमर फारूक ने सरकार के साथ दगाबाजी की . सरकार का आरोप है कि मीरवैज़ के ख़ास सहायक शहीद-उल-इस्लाम ने मुख्य मंत्री के दफ्तर में फ़रियाद की थी कि उन्हें लाल चौक तक एक जुलूस ले जाने दिया जाए वरना उनकी राजनीतिक हैसियत बहुत सिकुड़ जायेगी . उनके राजनीतिक अस्तित्व के लिए ज़रूरी है कि उन्हें यह जुलूस निकालने दिया जाए . यह शहीद-उल-इस्लाम पुराना आतंकवादी है और हिजबुल्ला नाम के आतंकवादी संगठन का सरगना रह चुका अहै . समझ में नहीं आता कि इस तरह के लोगों पर भरोसा करके जम्मू कश्मीर में मौजूदा मुख्यमंत्री क्या हासिल करना चाहते हैं . और जो दूसरी बात समझ में नहीं आती वह यह कि हुर्रियत कान्फरेन्स के अध्यक्ष , मीरवैज़ उमर फारूक के राजनीतिक अस्तित्व के लिए मुख्य मंत्री ने क्यों इस तरह का गैरजिम्मेदार फैसला लिया .बहर हाल कश्मीर में नेताओं की वजह से ईद जैसा पवित्र त्यौहार खून के रंग में रंग गया. . तुर्रा यह कि पाकिस्तान के पैसे पर पल रहे हुर्रियत के आन्दोलन को राजनीतिक स्पेस मिल गया. जो कि भारत के हित में कभी नहीं हो सकता. लाल चौक पर अपने भाषण में हुर्रियत के नेताओं ने जो आग उगली वह हर तरफ से भारत और कश्मीरियों के विरोध में है .सबको मालूम है कि कश्मीर में सेना का बहुत ही ज्यादा महत्व है और उसे अपना काम करने के लिए विशेष अधिकार मिले हुए हैं . इन अधिकारों को पाकर सेना के अधिकारी खुश नहीं हैं और न ही सिविल सोसाइटी इसे सही मानती है लेकिन कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के आदेश पर काम कर रहे नेताओं ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि अलग तरह के तरीकों से ही उन्हें काबू किया जा सकता है . मुख्य मंत्री समेत कश्मीर के ज़्यादातर नेता सेना के ख़ास अधिकारों में कटौती की मांग करते रहे हैं और अब वह होने भी वाला है . इस के बाद की राजनीति का खाका खींचते हुए उमर फारूक ने कहा कि सेना के अधिकारों में कमी करने से ही काम नहीं चलेगा. कश्मीर की समस्या का हल भी निकालना पड़ेगा. कश्मीर समस्या के हल की उनकी परिभाषा यह है कि भारत सरकार जम्मू-कश्मीर पर अपने अधिकार को खत्म कर दे और इन पाकिस्तान परस्तों को राज्य की जनता से खिलवाड़ करने का मौक़ा दे. ज़ाहिर है कि कोई भी सरकार इस तरह की बातों को स्वीकार नहीं कर सकती . मीरवैज़ उमर फारूक टाइप लोगों को बता दिया जाना चाहिए कि कश्मीर समस्या का हल यह है कि जम्मू-कश्मीर का वह इलाका जो वहां के महाराजा हरि सिंह के पास था और जिसे उसने भारत के गणराज्य में मिलाने के कागजों पर दस्तखत किया था ,उसे पूरी तरह से भारत के हवाले किया जाए . और पाकिस्तान की ओर से कश्मीर में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश पर लगाम लगाई जाए. ज़रुरत इस बात की भी है कि कश्मीर में बन्दूक के ऊपर राजनीति को हावी किया जाए .इसके लिए सभी राजनीतिक जमातों को जनहित और राष्ट्रहित में साथ खड़े रहना चाहिए . लेकिन इस सारे मामले में महबूबा मुफ्ती की भूमिका संदिग्ध है . वे दोनों तरफ हाथ मार रही हैं. आजकल उनके बयान बहुत ही डरावने हैं . उन्होंने जिस भाषा का इस्तेमाल कर रही हैं उस से साफ़ लगता है कि वे उमर अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त करवा कर एक नयी राजनीतिक व्यवस्था के सपने देख रही हैं. यह कश्मीर के हित में नहीं है . जब भी केंद्रीय हस्तक्षेप से श्रीं नगर में राजनीतिक सत्ता बदली गयी है नतीजे भयानक हुए हैं . शेख अब्दुल्ला की १९५३ की सरकार हो या फारूक अब्दुल्ला को हटाकर गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाने की बेवकूफी, केंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी के बाद कश्मीर में हालात खराब होते हैं . महबूबा मुफ्ती की बातों से साफ़ लगता है कि वे केंद्रीय हस्तक्षेप की मांग करती नज़र आ रही है . उन्होंने कहा है कि हालात बहुत खराब हैं और मुकामी स्तर पर तनाव को ख़त्म करना है . उसके लिए ऐसी पहल की ज़रुरत है जो सर्वोच्च स्तर से आये और लोग उसे गंभीरता से लें .यह बात कश्मीर के हित में नहीं है कि किसी भी नेता के राजनीतिक स्पेस को सुनिश्चित करने के लिए सरकार के फैसले लिए जाएँ . वैसे भी जम्मू कश्मीर के हालात असाधारण हैं और वहां राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत है .ख़ास कर जब भूखों मर रहे पाकिस्तान के नेता अपने घर को दुरुस्त करने से ज़्यादा कश्मीर में गड़बड़ी फैलाने में रूचि लेते हों . और इधर गीलानी, मलिक या मीरवैज़ क्या कम थे जो महबूबा मुफ्ती भी उसी तरफ खिसकती दिख रही हैं . अगर फ़ौरन कुछ न किया गया तो आने वाली नस्लें मौजूदा लीडरशिप को माफ़ नहीं करेगीं.
Saturday, September 11, 2010
रांची में मधु कोड़ा के वारिस की ताजपोशी
शेष नारायण सिंह
झारखण्ड में अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है . उनकी ताजपोशी की जो खबरें आ रही हैं , वे दिल दहला देने वाली हैं . समझ में नहीं आता ,कभी साफ़ छवि के नेता रहे अर्जुन मुंडा इस तरह के खेल में शामिल कैसे हो रहे हैं . जहां तक नैतिकता वगैरह का सवाल है , आज की ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियों से उसकी उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं है . यह कह कर कि झारखण्ड चुनावों के दौरान बी जे पी ने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और शिबू सोरेन के भ्रष्टाचार से जनता को मुक्ति दिलाने का वायदा किया था , वक़्त बर्बाद करने जैसा है . बी जे पी जैसी पार्टी से किसी नैतिकता की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. लेकिन जिस तरह की लूट की योजना बनाकर नितिन गडकरी ने अर्जुन मुंडा को मुख्य मंत्री बनाने की साज़िश रची है उस से तो भ्रष्ट से भ्रष्ट आदमी भी शर्म से पानी पानी हो जाएगा. पता चला है कि खदानों के धंधे में शामिल कुछ लोगों के पैसे के बल पर विधायकों की खरीद फरोख्त हुई है . और सब कुछ नितिन गडकरी के निजी हस्तक्षेप की वजह से संभव हो सका है . झारखण्ड में बी जे पी विधायक दल के नेता रघुबर दास के साथ जो व्यवहार हुआ है ,उस से पार्टी के टूट जाने का ख़तरा भी बना हुआ है . पता चला है कि नितिन गडकरी के बहुत करीबी कहे जाने वाले और उनके ही नगर नागपुर के तीन व्यापारियों ने मुख्य भूमिका निभाई है. अजय संचेती, तुलसी अग्रवाल और नरेश ग्रोवर नाम के यह व्यापारी नितिन गडकरी के ख़ास माने जाते हैं . दिल्ली का एक साहूकार, सेठिया भी खेल में शामिल बताया जा रहा है . नरेश ग्रोवर ने ही चम्पई सोरेन, सीता सोरेन ,टेकलाल महतो और साइमन मरांडी को दिल्ली में नितिन गडकरी के मकान पर जाकर मिलवाया था .दिल्ली वाले सेठिया ने अर्जुन मुंडा की ताजपोशी की तैयारी के पहले जो भी विधायक दिल्ली लाये गए, सबके जहाज के टिकट और दिल्ली में पांच सितारा होटलों में रहने का इंतज़ाम किया. उपाध्याय नाम का एक खदान मालिक भी इसी काम में लगा हुआ है . नितिन गडकरी की इस टीम के व्यापारी कोई लल्लू पंजू टाइप लोग नहीं है . यह लोग पार्टी अध्यक्ष की ओर से लोगों को निर्देश भी दे देते हैं . मसलन अजय संचेती नाम के नागपुर के व्यक्ति ने ही रघुबर दास को फोन करके कहा था कि वे बी जे पी विधायक दल के नेता पद से इस्तीफा दे दें जिसके बाद अर्जुन मुंडा को नेता चुना जा सके. रघुबर दास ने उसे डांट दिया था और कहा था कि वे गडकरी जी से बात करेगें. कुछ देर बाद ही गडकरी जी का फोन आ गया और इस्तीफ़ा हो गया. शिबू सोरेन की पिछली सरकार में भी नितिन गडकरी नागपुर के इन व्यापारियों की मदद करते रहते थे. लोग बताते हैं कि उपाध्याय नाम के खदान मालिक के लिए गडकरी पहले भी सिफारिश करते रहते थे. अब विभागों को लेकर बहस चल रही है . शिबू सोरेन के बेटे , हेमंत सोरेन उप मुख्य मंत्री बनेगें. उनकी ख्याति भी अपने पिता से कम नहीं है . वे उन विभागों पर नज़र रखे हुए हैं जो मालदार माने जाते हैं लेकिन अर्जुन मुंडा और उनकी ताजपोशी में मदद करने वाले व्यापारी लोग इस बात पर अड़े हुए हैं कि खदान , बिजली और पुलिस का कंट्रोल अर्जुन मुंडा के पास ही रहेगा क्योंकि असली ताक़त तो इन्हीं विभागों से आती है . वैसे भी कांग्रेस की मदद से राज कर चुके मधु कोड़ा ने खानों के ज़रिये ही अरबों बनाया था.
राजनीति में शुचिता की बात करने वाली बी जे पी की पोल तो खैर उस वक़्त ही खुल गयी थी जब केंद्र में जोड़ गाँठ कर एक सरकार बनायी गयी थी जिसके दौरान सरकारी संपत्ति की लूट का भारतीय रिकार्ड बना था लेकिन अब तक यह माना जाता था कि बी जे पी वाले पहले से तय करके लूट करने के उद्देश्य से किसी सरकार को स्थापित नहीं करेगें . अजीब बात है कि अब वही हो रहा है और इस खेल में वे लोग मुख्य भूमिका निभा रहे हैं जो भारतीय जनता पार्टी के नेता नहीं हैं . इस बात में दो राय नहीं है कि दिल्ली में जमे हुए आडवाणी गुट के नेता लोग नितिन गडकरी को हाशिये पर लाने और उन्हें मजाक का विषय बना देने के चक्कर में रहते हैं लेकिन यह शायद पहली बार हो रहा है कि बिना पार्टी पदाधिकारियों को भरोसे में लिए बिचौलियों की मदद से मधु कोड़ा का उत्तराधिकारी तैनात किया जा रहा है . ज़ाहिर है अर्जुन मुंडा की हर गलती पर अडवानी गुट की नज़र रहेगी और मौक़ा मिलते ही उन्हें भी मधु कोड़ा के स्तर पर पंहुचा दिया जाएगा. इस बात की भी संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि नितिन गडकरी का भी वही हाल किया जा सकता है जो दिल्ली दरबार के भाजपाइयों ने बंगारू लक्ष्मण का किया था .
झारखण्ड में अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है . उनकी ताजपोशी की जो खबरें आ रही हैं , वे दिल दहला देने वाली हैं . समझ में नहीं आता ,कभी साफ़ छवि के नेता रहे अर्जुन मुंडा इस तरह के खेल में शामिल कैसे हो रहे हैं . जहां तक नैतिकता वगैरह का सवाल है , आज की ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियों से उसकी उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं है . यह कह कर कि झारखण्ड चुनावों के दौरान बी जे पी ने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और शिबू सोरेन के भ्रष्टाचार से जनता को मुक्ति दिलाने का वायदा किया था , वक़्त बर्बाद करने जैसा है . बी जे पी जैसी पार्टी से किसी नैतिकता की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. लेकिन जिस तरह की लूट की योजना बनाकर नितिन गडकरी ने अर्जुन मुंडा को मुख्य मंत्री बनाने की साज़िश रची है उस से तो भ्रष्ट से भ्रष्ट आदमी भी शर्म से पानी पानी हो जाएगा. पता चला है कि खदानों के धंधे में शामिल कुछ लोगों के पैसे के बल पर विधायकों की खरीद फरोख्त हुई है . और सब कुछ नितिन गडकरी के निजी हस्तक्षेप की वजह से संभव हो सका है . झारखण्ड में बी जे पी विधायक दल के नेता रघुबर दास के साथ जो व्यवहार हुआ है ,उस से पार्टी के टूट जाने का ख़तरा भी बना हुआ है . पता चला है कि नितिन गडकरी के बहुत करीबी कहे जाने वाले और उनके ही नगर नागपुर के तीन व्यापारियों ने मुख्य भूमिका निभाई है. अजय संचेती, तुलसी अग्रवाल और नरेश ग्रोवर नाम के यह व्यापारी नितिन गडकरी के ख़ास माने जाते हैं . दिल्ली का एक साहूकार, सेठिया भी खेल में शामिल बताया जा रहा है . नरेश ग्रोवर ने ही चम्पई सोरेन, सीता सोरेन ,टेकलाल महतो और साइमन मरांडी को दिल्ली में नितिन गडकरी के मकान पर जाकर मिलवाया था .दिल्ली वाले सेठिया ने अर्जुन मुंडा की ताजपोशी की तैयारी के पहले जो भी विधायक दिल्ली लाये गए, सबके जहाज के टिकट और दिल्ली में पांच सितारा होटलों में रहने का इंतज़ाम किया. उपाध्याय नाम का एक खदान मालिक भी इसी काम में लगा हुआ है . नितिन गडकरी की इस टीम के व्यापारी कोई लल्लू पंजू टाइप लोग नहीं है . यह लोग पार्टी अध्यक्ष की ओर से लोगों को निर्देश भी दे देते हैं . मसलन अजय संचेती नाम के नागपुर के व्यक्ति ने ही रघुबर दास को फोन करके कहा था कि वे बी जे पी विधायक दल के नेता पद से इस्तीफा दे दें जिसके बाद अर्जुन मुंडा को नेता चुना जा सके. रघुबर दास ने उसे डांट दिया था और कहा था कि वे गडकरी जी से बात करेगें. कुछ देर बाद ही गडकरी जी का फोन आ गया और इस्तीफ़ा हो गया. शिबू सोरेन की पिछली सरकार में भी नितिन गडकरी नागपुर के इन व्यापारियों की मदद करते रहते थे. लोग बताते हैं कि उपाध्याय नाम के खदान मालिक के लिए गडकरी पहले भी सिफारिश करते रहते थे. अब विभागों को लेकर बहस चल रही है . शिबू सोरेन के बेटे , हेमंत सोरेन उप मुख्य मंत्री बनेगें. उनकी ख्याति भी अपने पिता से कम नहीं है . वे उन विभागों पर नज़र रखे हुए हैं जो मालदार माने जाते हैं लेकिन अर्जुन मुंडा और उनकी ताजपोशी में मदद करने वाले व्यापारी लोग इस बात पर अड़े हुए हैं कि खदान , बिजली और पुलिस का कंट्रोल अर्जुन मुंडा के पास ही रहेगा क्योंकि असली ताक़त तो इन्हीं विभागों से आती है . वैसे भी कांग्रेस की मदद से राज कर चुके मधु कोड़ा ने खानों के ज़रिये ही अरबों बनाया था.
राजनीति में शुचिता की बात करने वाली बी जे पी की पोल तो खैर उस वक़्त ही खुल गयी थी जब केंद्र में जोड़ गाँठ कर एक सरकार बनायी गयी थी जिसके दौरान सरकारी संपत्ति की लूट का भारतीय रिकार्ड बना था लेकिन अब तक यह माना जाता था कि बी जे पी वाले पहले से तय करके लूट करने के उद्देश्य से किसी सरकार को स्थापित नहीं करेगें . अजीब बात है कि अब वही हो रहा है और इस खेल में वे लोग मुख्य भूमिका निभा रहे हैं जो भारतीय जनता पार्टी के नेता नहीं हैं . इस बात में दो राय नहीं है कि दिल्ली में जमे हुए आडवाणी गुट के नेता लोग नितिन गडकरी को हाशिये पर लाने और उन्हें मजाक का विषय बना देने के चक्कर में रहते हैं लेकिन यह शायद पहली बार हो रहा है कि बिना पार्टी पदाधिकारियों को भरोसे में लिए बिचौलियों की मदद से मधु कोड़ा का उत्तराधिकारी तैनात किया जा रहा है . ज़ाहिर है अर्जुन मुंडा की हर गलती पर अडवानी गुट की नज़र रहेगी और मौक़ा मिलते ही उन्हें भी मधु कोड़ा के स्तर पर पंहुचा दिया जाएगा. इस बात की भी संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि नितिन गडकरी का भी वही हाल किया जा सकता है जो दिल्ली दरबार के भाजपाइयों ने बंगारू लक्ष्मण का किया था .
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शेष नारायण सिंह
Friday, September 10, 2010
माओ के नाम पर जातिवादी राजनीतिक गुंडई कर रहे हैं यह लोग
शेष नारायण सिंह
बिहार और उसके आस पास के इलाकों में माओ के नाम पर लूट खसोट और जाति वाद का झंडा बुलंद किये हुए लोग न तो क्रांतिकारी हैं और न ही किसी क्रांतिकारी पार्टी के सदस्य हैं . हम शुरू से ही कहते आ रहे हैं कि यह लोग वास्तव समाज के उसी वर्ग के सदस्य हैं जो इन इलाकों में राजनीति के सहारे धन इकठ्ठा करना चाहता है . १९७७ के पहले इस तरह के गुंडे राजनीतिक पार्टियों की सेवा में रहते थे लेकिन कोई भी नेता यह स्वीकार नहीं करता था कि वह गुंडे पालता है . लेकिन १९७७ में कांग्रेस के नेता स्व संजय गाँधी ने इस तरह के लोगों को लोक सभा और विधान सभा चुनावों के टिकट दे दिए और यह लोग माननीय हो गए. उसके बाद जीत सकने की क्षमता के नाम पर अन्य पार्टियों ने भी इस तरह के लोगों को टिकट दे दिया. और लगभग सभी पार्टियों में समाज विरोधी तत्वों की बाढ़ आ गयी. अब बात बदल गयी है .पिछले १० वर्षों में मुख्य धारा की पार्टियों में गुंडों की नयी भर्ती नहीं हो रही है . तो राजनीतिक रूप से सक्रिय लोगों को लूट खसोट कर लिए नए चारागाह की तलाश की जा रही थी.. उधर दूसरी तरफ अति क्रांतिकारिता के मर्ज़ से पीड़ित कुछ अति वामपंथी और संशोधनवादी कम्युनिस्ट नेता क्रान्ति के मुगालते में घूम रहे थे . दोनों का मेल हो गया और नेताओं को जुझारू कार्यकर्ता मिल गए जबकि काम की तलाश में बिहार और उसके आस पास भटक रहे ऊंची जाति के गुंडों को राजनीतिक संगठन मिल गया जिसके नाम पर लूट पाट की जा सके. लेकिन जब माओवादियों को बहुत सारे लोग मिल गए तो उन्होंने भी भर्ती में सख्ती कर दी . ज़ाहिर बहुत सारे बाहुबली उनके साथ जाने में जो लोग नाकामयाब रह गए . ऐसे लोगों को सलवा जुडूम के नाम पर सरकारी तंत्र ने गुंडई और वसूली का काम दे दिया . बस यही है तथाकतित माओवादियों का क्रांतिकारी एजेंडा और और उनसे लड़ने का अभिनय कर रही सरकारों की सच्चाई .अब बात सबके सामने आ गयी है . अब दुनिया जानती है कि इन जंगलों में घूम रहे गैर आदिवासी जाति के नौजवान वास्तव में सामन्ती व्यवस्था को दूसरे तरीके से बरक़रार रखना चाहते हैं . विस्फोट में प्रकाशित विद्वान् लेखक पुष्यमित्र का लेख इस सारे खेल की कलई खोल देता है . उन्होंने लिखा है कि बिहार के बंधक विवाद के दौरान जिस तरह ईसाई आदिवासी बीएमपी हवलदार लुकस टेटे की हत्या कर दी गई और अभय यादव , रूपेश सिन्हा और एहसान खान को छोड़ दिया गया उसके कारण माओवादियों के बीच जड़ जमा चुका यह विवाद सतह पर आ चुका है. बहुत संभव है कि इस झगड़े के कारण आने वाले दिनों में बिहार और झारखंड में माओवादियों के बीच गैंगवार की स्थिति उत्पन्न हो जाये.
लखीसराय के माओवादियों द्वारा बंधकों में से एक ईसाई आदिवासियों की हत्या किये जाने के कारण झारखंड के आदिवासी माओवादियों में गहरा गुस्सा है. माओवादी जोनल कमांडर बीरबल मुर्मू ने लखीसराय के जोनल कमांडर अरविंद यादव के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए कहा है कि उसने जहां एक ओर एक आदिवासी पुलिस कर्मी की हत्या करा दी वहीं अपनी जाति के बंधक अभय यादव की जान जानबूझकर बख्श दी. मुर्मू का कहना है कि अगर हत्या ही करना था तो चारो बंधकों की हत्या करते, किसी एक को मारना और तीन को छोड़ देना एक गलत परंपरा को जन्म देता है.झारखंड के जिन इलाकों में माओवाद का गढ़ है वे आदिवासी बहुल हैं और स्थानीय लोगों के सहयोग और संरक्षण के कारण ही वे इस इलाके में कामयाब हैं. उनके कैडर में भी आदिवासियों की संख्या ही अधिक है..अवैध खनन वाले इन्हीं इलाकों से उन्हें सर्वाधिक आय होती है. ऐसे में लुकास टेटे की हत्या उनके लिये आत्मघाती साबित होने वाली है. झारखंड के आदिवासियों के हाल के दिनों में माओवाद के खिलाफ जंग की लड़े जाने की भावना सामने आने लगी है. पिछले दिनों कई गांवों में आदिवासियों ने जातीय सभा बुलाकर माओवादियों के खिलाफ जंग छेड़ने का ऐलान किया है. ऐसे में निश्चित तौर पर टेटे की हत्या आग में धी का काम करने वाली है. आने वाले दिनों में अगर आदिवासी समुदाय अधिक संगठित होकर माओवादियों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दे तो इसमें किसी को अचरज नहीं होना चाहिये.टेटे का हत्यारा पिंटो दा और उस हत्या का आदेश जारी करने वाला अरविंद यादव बिहार पुलिस की हिरासत में है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में माओवाद के नाम पर सामंती खेल खेलने वालों को जनता के दरबार में जवाब देना पडेगा.
बिहार और उसके आस पास के इलाकों में माओ के नाम पर लूट खसोट और जाति वाद का झंडा बुलंद किये हुए लोग न तो क्रांतिकारी हैं और न ही किसी क्रांतिकारी पार्टी के सदस्य हैं . हम शुरू से ही कहते आ रहे हैं कि यह लोग वास्तव समाज के उसी वर्ग के सदस्य हैं जो इन इलाकों में राजनीति के सहारे धन इकठ्ठा करना चाहता है . १९७७ के पहले इस तरह के गुंडे राजनीतिक पार्टियों की सेवा में रहते थे लेकिन कोई भी नेता यह स्वीकार नहीं करता था कि वह गुंडे पालता है . लेकिन १९७७ में कांग्रेस के नेता स्व संजय गाँधी ने इस तरह के लोगों को लोक सभा और विधान सभा चुनावों के टिकट दे दिए और यह लोग माननीय हो गए. उसके बाद जीत सकने की क्षमता के नाम पर अन्य पार्टियों ने भी इस तरह के लोगों को टिकट दे दिया. और लगभग सभी पार्टियों में समाज विरोधी तत्वों की बाढ़ आ गयी. अब बात बदल गयी है .पिछले १० वर्षों में मुख्य धारा की पार्टियों में गुंडों की नयी भर्ती नहीं हो रही है . तो राजनीतिक रूप से सक्रिय लोगों को लूट खसोट कर लिए नए चारागाह की तलाश की जा रही थी.. उधर दूसरी तरफ अति क्रांतिकारिता के मर्ज़ से पीड़ित कुछ अति वामपंथी और संशोधनवादी कम्युनिस्ट नेता क्रान्ति के मुगालते में घूम रहे थे . दोनों का मेल हो गया और नेताओं को जुझारू कार्यकर्ता मिल गए जबकि काम की तलाश में बिहार और उसके आस पास भटक रहे ऊंची जाति के गुंडों को राजनीतिक संगठन मिल गया जिसके नाम पर लूट पाट की जा सके. लेकिन जब माओवादियों को बहुत सारे लोग मिल गए तो उन्होंने भी भर्ती में सख्ती कर दी . ज़ाहिर बहुत सारे बाहुबली उनके साथ जाने में जो लोग नाकामयाब रह गए . ऐसे लोगों को सलवा जुडूम के नाम पर सरकारी तंत्र ने गुंडई और वसूली का काम दे दिया . बस यही है तथाकतित माओवादियों का क्रांतिकारी एजेंडा और और उनसे लड़ने का अभिनय कर रही सरकारों की सच्चाई .अब बात सबके सामने आ गयी है . अब दुनिया जानती है कि इन जंगलों में घूम रहे गैर आदिवासी जाति के नौजवान वास्तव में सामन्ती व्यवस्था को दूसरे तरीके से बरक़रार रखना चाहते हैं . विस्फोट में प्रकाशित विद्वान् लेखक पुष्यमित्र का लेख इस सारे खेल की कलई खोल देता है . उन्होंने लिखा है कि बिहार के बंधक विवाद के दौरान जिस तरह ईसाई आदिवासी बीएमपी हवलदार लुकस टेटे की हत्या कर दी गई और अभय यादव , रूपेश सिन्हा और एहसान खान को छोड़ दिया गया उसके कारण माओवादियों के बीच जड़ जमा चुका यह विवाद सतह पर आ चुका है. बहुत संभव है कि इस झगड़े के कारण आने वाले दिनों में बिहार और झारखंड में माओवादियों के बीच गैंगवार की स्थिति उत्पन्न हो जाये.
लखीसराय के माओवादियों द्वारा बंधकों में से एक ईसाई आदिवासियों की हत्या किये जाने के कारण झारखंड के आदिवासी माओवादियों में गहरा गुस्सा है. माओवादी जोनल कमांडर बीरबल मुर्मू ने लखीसराय के जोनल कमांडर अरविंद यादव के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए कहा है कि उसने जहां एक ओर एक आदिवासी पुलिस कर्मी की हत्या करा दी वहीं अपनी जाति के बंधक अभय यादव की जान जानबूझकर बख्श दी. मुर्मू का कहना है कि अगर हत्या ही करना था तो चारो बंधकों की हत्या करते, किसी एक को मारना और तीन को छोड़ देना एक गलत परंपरा को जन्म देता है.झारखंड के जिन इलाकों में माओवाद का गढ़ है वे आदिवासी बहुल हैं और स्थानीय लोगों के सहयोग और संरक्षण के कारण ही वे इस इलाके में कामयाब हैं. उनके कैडर में भी आदिवासियों की संख्या ही अधिक है..अवैध खनन वाले इन्हीं इलाकों से उन्हें सर्वाधिक आय होती है. ऐसे में लुकास टेटे की हत्या उनके लिये आत्मघाती साबित होने वाली है. झारखंड के आदिवासियों के हाल के दिनों में माओवाद के खिलाफ जंग की लड़े जाने की भावना सामने आने लगी है. पिछले दिनों कई गांवों में आदिवासियों ने जातीय सभा बुलाकर माओवादियों के खिलाफ जंग छेड़ने का ऐलान किया है. ऐसे में निश्चित तौर पर टेटे की हत्या आग में धी का काम करने वाली है. आने वाले दिनों में अगर आदिवासी समुदाय अधिक संगठित होकर माओवादियों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दे तो इसमें किसी को अचरज नहीं होना चाहिये.टेटे का हत्यारा पिंटो दा और उस हत्या का आदेश जारी करने वाला अरविंद यादव बिहार पुलिस की हिरासत में है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में माओवाद के नाम पर सामंती खेल खेलने वालों को जनता के दरबार में जवाब देना पडेगा.
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Thursday, September 9, 2010
क्रिकेट टीम की वजह से पाकिस्तान में अपमान की लहर चल रही है
शेष नारायण सिंह
आम तौर पर क्रिकेट किसी भी समाज में एकता का सबसे बड़ा सूत्र माना जाता है . पाकिस्तान भी इसका अपवाद नहीं रहा है लेकिन आजकल हालत बिल्कुल उलट है . पाकिस्तानी समाज को वहां के क्रिकेट ने बुरी तरह से बाँट दिया है . अपने बेहतरीन खिलाड़ियों की बे ईमानी की तस्वीरें पूरे मुल्क ने देखी हैं, आम पाकिस्तानी बहुत नाराज़ है लेकिन कहीं कोई कार्रवाई होती न देख कर चारों तरफ परेशानी है , खिसियाहट है . पाकिस्तानी मीडिया इन खिलाड़ियों की करतूतों से भरा पड़ा है . और अब जो नयी जानकारी आई है उस से तो हद ही हो गयी है . पाकिस्तान के एक प्रमुख निजी न्यूज़ चैनल , जियो टी वी में बुधवार से ही खबर चल रही है कि लन्दन पुलिस ने जिन तीन खिलाड़ियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की है , वह तो अपराध का एक बहुत ही मामूली हिस्सा है . चैनल का आरोप है कि पाकिस्तानी क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के कई पदाधिकारी भी घपले में शामिल हैं और सारा घोटाला पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष एजाज़ भट के आशीर्वाद से फल फूल रहा है. अगर यह सच है तो इसमें दो राय नहीं है कि पाकिस्तानी समाज, जो क्रिकेट की जीत को मुल्क की जीत मान कर शुतुरमुर्ग की तरह अपने को महान मानता रहा है , उसका सब कुछ लुट चुका है . वैसे भी एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान के पास कुछ भी नहीं है जिसपर गर्व किया जा सके. पाकिस्तानी राजनेताओं का चरित्र ऐसा है जिस पर कोई भी शर्म से सिर झुका लेगा , अर्थव्यवस्था पूरी तरह खैरात पर चलती है, अगर अमरीका और सउदी अरब से मिलने वाली मदद बंद हो जाए तो पाकिस्तानी अवाम के सामने रोटियों के लाले पड़ जायेगें . उनकी फौज ऐसी है जिसने लडाइयां हारने का एक तरह से विश्व रिकार्ड कायम कर रखा है लेकिन वही फौज पाकिस्तानी जनता की छाती पर मूंग दलती रहती है .ऐसी हालत में पाकिस्तानी क्रिकेट टीम पाकिस्तान की दबी कुचली जनता के आत्मसम्मान का एक बड़ा संबल थी लेकिन आज जब उस टीम का अपना सम्मान पूरी तरह से दफ़न हो चुका है , तो पाकिस्तानी समाज में बहुत ज्यादा निराशा है . सडकों पर तीनों दागी खिलाड़ियों के पुतले जलाए जा रहे हैं , पूरे देश में विश्ववास का संकट पैदा हो गया है . पाकिस्तानी लोगों की मांग है कि पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को कुछ ऐसा करना चाहिए जिसके बाद पाकिस्तानी क्रिकेट की थोड़ी बहुत साख को वापस लाया जा सके. लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है . उधर लन्दन पुलिस लगातार तीनों दागी खिलाड़ियों सलमान बट , मुहम्मद आसिफ और मुहम्मद आमिर के ऊपर जांच का दबाव बनाए हुए है . गुरुवार को जो अभ्यास के लिए खेल हुआ उस से इन लोगों को बाहर रखा गया .लेकिन पाकिस्तान के अन्दर और बाहर इन खिलाड़ियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग जोर पकडती जा रही है . इंटरनेशनल क्रिकेट काउन्सिल के चीफ इक्ज़ीक्यूटिव, हारून लोरगाट ने भी लन्दन में पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष एजाज़ भट से मुलाक़ात करके उन्हें कुछ कार्रवाई करने की प्रेरणा दी है लेकिन अभी तक कुछ हुआ नहीं है . ज़ाहिर है पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड कुछ नहीं कर सकता क्योंकि आम तौर पर भरोसेमंद जियो टी वी की खबरें पाकिस्तानी समाज में सच मानी जाती हैं और वे सच होती भी हैं . जब इतना भरोसेमंद चैनल किसी खबर को डंके की चोट पर प्रचारित कर रहा है तो उस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं हो सकता. इसका मतलब यह हुआ कि जब एजाज़ भट खुद ही पराधी हो सकते हैं तो वे अपने साथ जुर्म में शामिल लोगों के खिलाफ क्यों कार्रवाई करेगें .ज़ाहिर है पाकिस्तान की सरकार और क्रिकेट बोर्ड अब अपने खिलाड़ियों के खिलाफ कार्रवाई न करने के बहाने ढूंढ रही है इंग्लैण्ड की यात्रा पर गयी पाकिस्तानी टीम के मैनेजर , यावर सईद ने लन्दन में कहा कि किसी खिलाड़ी के खिलाफ कोई आरोप पत्र नहीं दाखिल किया गया है इसलिए इन खिलाड़ियों पर लगे आरोपों को मीडिया की करतूत से ज्यादा कुछ नहीं माना जा सकता. उन्होंने यह भी कहा कि अभी तक खिलाड़ियों को लन्दन की पुलिस ने केवल पूछ ताछ के लिए बुलाया था , उनके खिलाफ कहीं कोई सबूत नहीं है . पाकिस्तान के क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने दावा किया है कि एक बैरिस्टर को लगा दिया गया है जो पाकिस्तान क्रिकेट के दागी खिलाड़ियों के बचाव का काम करेगा. बहर हाल कुल मिलाकर पाकिस्तानी हुकूमत के सभी हिस्सों के लोग बे ईमान खिलाड़ियों और उनके आकाओं को बचाने में जुटे हुए हैं . ऐसी हालत में पाकिस्तानी समाज, जो तालिबान और अल कायदा के आतंकवाद , भयानक बाढ़ और अमरीकी फौज के दबाव से त्राहि त्राहि कर रहा है . उसे अपनी क्रिकेट टीम के अच्छे काम की वजह से अपमान से थोड़ी मोहलत मिला करती थी , वह भी तीन खिलाड़ियों के चलते ख़त्म हो गयी. वैसे भी पाकिस्तानी हुकूमत में भ्रष्टाचार का चारों तरफ बोल बाला है और ताज़ा जानकारियों के हिसाब से क्रिकेट के इतिहास के सबसे बड़े घोटाले में तीन खिलाड़ियों के अलावा पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के बड़े बड़े सूरमा निश्चित रूप से शामिल होगें . ज़ाहिर है कोई आपराधिक मुक़दमा तो नहीं चलेगा लेकिन इतना पक्का है कि पाकिस्तानी समाज इस घोटाले से पर्दा उठने के बाद दुबारा सम्मान की तलाश करने में बहुत वक़्त लगाएगा.
आम तौर पर क्रिकेट किसी भी समाज में एकता का सबसे बड़ा सूत्र माना जाता है . पाकिस्तान भी इसका अपवाद नहीं रहा है लेकिन आजकल हालत बिल्कुल उलट है . पाकिस्तानी समाज को वहां के क्रिकेट ने बुरी तरह से बाँट दिया है . अपने बेहतरीन खिलाड़ियों की बे ईमानी की तस्वीरें पूरे मुल्क ने देखी हैं, आम पाकिस्तानी बहुत नाराज़ है लेकिन कहीं कोई कार्रवाई होती न देख कर चारों तरफ परेशानी है , खिसियाहट है . पाकिस्तानी मीडिया इन खिलाड़ियों की करतूतों से भरा पड़ा है . और अब जो नयी जानकारी आई है उस से तो हद ही हो गयी है . पाकिस्तान के एक प्रमुख निजी न्यूज़ चैनल , जियो टी वी में बुधवार से ही खबर चल रही है कि लन्दन पुलिस ने जिन तीन खिलाड़ियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की है , वह तो अपराध का एक बहुत ही मामूली हिस्सा है . चैनल का आरोप है कि पाकिस्तानी क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के कई पदाधिकारी भी घपले में शामिल हैं और सारा घोटाला पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष एजाज़ भट के आशीर्वाद से फल फूल रहा है. अगर यह सच है तो इसमें दो राय नहीं है कि पाकिस्तानी समाज, जो क्रिकेट की जीत को मुल्क की जीत मान कर शुतुरमुर्ग की तरह अपने को महान मानता रहा है , उसका सब कुछ लुट चुका है . वैसे भी एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान के पास कुछ भी नहीं है जिसपर गर्व किया जा सके. पाकिस्तानी राजनेताओं का चरित्र ऐसा है जिस पर कोई भी शर्म से सिर झुका लेगा , अर्थव्यवस्था पूरी तरह खैरात पर चलती है, अगर अमरीका और सउदी अरब से मिलने वाली मदद बंद हो जाए तो पाकिस्तानी अवाम के सामने रोटियों के लाले पड़ जायेगें . उनकी फौज ऐसी है जिसने लडाइयां हारने का एक तरह से विश्व रिकार्ड कायम कर रखा है लेकिन वही फौज पाकिस्तानी जनता की छाती पर मूंग दलती रहती है .ऐसी हालत में पाकिस्तानी क्रिकेट टीम पाकिस्तान की दबी कुचली जनता के आत्मसम्मान का एक बड़ा संबल थी लेकिन आज जब उस टीम का अपना सम्मान पूरी तरह से दफ़न हो चुका है , तो पाकिस्तानी समाज में बहुत ज्यादा निराशा है . सडकों पर तीनों दागी खिलाड़ियों के पुतले जलाए जा रहे हैं , पूरे देश में विश्ववास का संकट पैदा हो गया है . पाकिस्तानी लोगों की मांग है कि पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को कुछ ऐसा करना चाहिए जिसके बाद पाकिस्तानी क्रिकेट की थोड़ी बहुत साख को वापस लाया जा सके. लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है . उधर लन्दन पुलिस लगातार तीनों दागी खिलाड़ियों सलमान बट , मुहम्मद आसिफ और मुहम्मद आमिर के ऊपर जांच का दबाव बनाए हुए है . गुरुवार को जो अभ्यास के लिए खेल हुआ उस से इन लोगों को बाहर रखा गया .लेकिन पाकिस्तान के अन्दर और बाहर इन खिलाड़ियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग जोर पकडती जा रही है . इंटरनेशनल क्रिकेट काउन्सिल के चीफ इक्ज़ीक्यूटिव, हारून लोरगाट ने भी लन्दन में पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष एजाज़ भट से मुलाक़ात करके उन्हें कुछ कार्रवाई करने की प्रेरणा दी है लेकिन अभी तक कुछ हुआ नहीं है . ज़ाहिर है पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड कुछ नहीं कर सकता क्योंकि आम तौर पर भरोसेमंद जियो टी वी की खबरें पाकिस्तानी समाज में सच मानी जाती हैं और वे सच होती भी हैं . जब इतना भरोसेमंद चैनल किसी खबर को डंके की चोट पर प्रचारित कर रहा है तो उस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं हो सकता. इसका मतलब यह हुआ कि जब एजाज़ भट खुद ही पराधी हो सकते हैं तो वे अपने साथ जुर्म में शामिल लोगों के खिलाफ क्यों कार्रवाई करेगें .ज़ाहिर है पाकिस्तान की सरकार और क्रिकेट बोर्ड अब अपने खिलाड़ियों के खिलाफ कार्रवाई न करने के बहाने ढूंढ रही है इंग्लैण्ड की यात्रा पर गयी पाकिस्तानी टीम के मैनेजर , यावर सईद ने लन्दन में कहा कि किसी खिलाड़ी के खिलाफ कोई आरोप पत्र नहीं दाखिल किया गया है इसलिए इन खिलाड़ियों पर लगे आरोपों को मीडिया की करतूत से ज्यादा कुछ नहीं माना जा सकता. उन्होंने यह भी कहा कि अभी तक खिलाड़ियों को लन्दन की पुलिस ने केवल पूछ ताछ के लिए बुलाया था , उनके खिलाफ कहीं कोई सबूत नहीं है . पाकिस्तान के क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने दावा किया है कि एक बैरिस्टर को लगा दिया गया है जो पाकिस्तान क्रिकेट के दागी खिलाड़ियों के बचाव का काम करेगा. बहर हाल कुल मिलाकर पाकिस्तानी हुकूमत के सभी हिस्सों के लोग बे ईमान खिलाड़ियों और उनके आकाओं को बचाने में जुटे हुए हैं . ऐसी हालत में पाकिस्तानी समाज, जो तालिबान और अल कायदा के आतंकवाद , भयानक बाढ़ और अमरीकी फौज के दबाव से त्राहि त्राहि कर रहा है . उसे अपनी क्रिकेट टीम के अच्छे काम की वजह से अपमान से थोड़ी मोहलत मिला करती थी , वह भी तीन खिलाड़ियों के चलते ख़त्म हो गयी. वैसे भी पाकिस्तानी हुकूमत में भ्रष्टाचार का चारों तरफ बोल बाला है और ताज़ा जानकारियों के हिसाब से क्रिकेट के इतिहास के सबसे बड़े घोटाले में तीन खिलाड़ियों के अलावा पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के बड़े बड़े सूरमा निश्चित रूप से शामिल होगें . ज़ाहिर है कोई आपराधिक मुक़दमा तो नहीं चलेगा लेकिन इतना पक्का है कि पाकिस्तानी समाज इस घोटाले से पर्दा उठने के बाद दुबारा सम्मान की तलाश करने में बहुत वक़्त लगाएगा.
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शेष नारायण सिंह
रामायण, महाभारत और हनुमान पर पाकिस्तान में प्रतिबंध
प्रकाश रे
( विस्फोट.कॉम से सादर नक़ल किया गया )
पाकिस्तान में इस्लामिक कट्टरपंथ को वहां की सरकारें किस कदर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करती हैं इसका ताजा उदाहरण वह फरमान है जिसमें संघीय सरकार ने राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि वे ऐसी व्यवस्था करें कि राज्यों में कोई केबल टीवी वाला हिन्दू पौराणिक चरित्रों पर बनी फिल्में, एनीमेशन इत्यादि का प्रदर्शन न कर सकें. साथ ही ऐसे सीडी और डीवीडी की बिक्री पर भी पाबंदी लगाने की कोशिश की जा रही है.
पाकिस्तान अपने इतिहास के सबसे अधिक संकट के दौर से गुज़र रहा है. आतंकवाद, भ्रष्टाचार, प्रशासनिक असफलता और प्राकृतिक आपदाओं ने पाकिस्तानी जनता का जीना मुश्किल कर दिया है. लेकिन वहाँ की संघीय सरकार और राज्य सरकारें इन समस्याओं से निपटने के लिये कोई गंभीर कोशिश नहीं कर रही हैं. दरअसल, ये सरकारें इन मुश्किलों से जनता का ध्यान हटाने के लिये बेमतलब के पैंतरे दिखा रही हैं. कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों और आतंकवादी गिरोहों से पाकिस्तानी सरकारों, राजनीतिक दलों, अदालतों, अखबारों, सेना, पुलिस और गुप्तचर संस्थाओं की मिलीभगत का लंबा इतिहास रहा है. इस्लाम और भारत-विरोध का झांसा दे कर वहाँ की जनता को लगातार लूटा गया है. इस वज़ह से एक ओर जहाँ पाकिस्तान की आम जनता एक त्रासद जीवन जीने को अभिशप्त है, वहीं दूसरी तरफ दक्षिण एशिया आतंकवाद और गृह-युद्धों की आग में जल रही है. ऐसे समय में जब पाकिस्तान भयानक बाढ़ की चपेट में है, वहाँ सांप्रदायिक राजनीति अपनी रोटी सेंकने में लगी हुई है. कभी अहमदिया संप्रदाय तो कभी शियाओं को बम और बंदूकों का निशाना बनाया जा रहा है. कभी ईसाईयों को पीटा जा रहा है तो कभी हिन्दुओं को उनके घरों से बेदखल किया जा रहा है.
इस कड़ी में अब हिन्दूओं के पौराणिक कार्यक्रमों के प्रसारण और उनकी वीडिओ सीडी-डीवीडी बेचने या केबल पर दिखाने पर रोक लगाने की क़वायद की जा रही है. सिंध सरकार ने एक अंतरिम आदेश देकर पिछले ही महीने इस तरह के चैनलों पर रोक लगा दी है और केबल वालों को ऐसे कार्यक्रमों की डीवीडी या वीसीडी दिखाने की मनाही कर दी है. पाकिस्तान के पंजाब की प्रांतीय सरकार ने एक समिति का गठन किया है जो हिन्दू पौराणिक कथाओं पर आधारित कार्यक्रमों के तथाकथित दुष्परिणामों के कारण उन पर प्रतिबन्ध लगाने की सिफ़ारिश सरकार से करेगी. दिलचस्प बात यह है कि समिति के सदस्य अध्ययन से पहले ही अपने निष्कर्षों पर पहुँच चुके हैं कि ऐसे कार्यक्रम इस्लाम-विरुद्ध हैं और इनसे बच्चों पर ग़लत प्रभाव पड़ रहा है. पंजाब में सत्तारूढ़ नवाज़ शरीफ के नेतृत्व वाली पाकिस्तान मुस्लिम लीग की सरकार के प्रवक्ता और पाकिस्तान सीनेट के सदस्य परवेज़ राशीद इस समिति के प्रमुख हैं. इसके अन्य मुख्य सदस्य फ़राह दीबा और ख़्वाजा इमरान नज़ीर हैं. फ़राह दीबा पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) की सांकृतिक इकाई की अध्यक्ष और पंजाब असेम्बली की सदस्य हैं. इमरान नज़ीर भी असेम्बली के सदस्य हैं. समिति के बाकी सदस्य सम्बद्ध मंत्रालयों-विभागों के अफ़सर हैं. इस समिति में कोई भी सदस्य कला, साहित्य या संस्कृति के क्षेत्र से नहीं है. इसमें ऐसे भी किसी व्यक्ति को नहीं लिया गया है जो प्रसारण माध्यमों, मीडिया या सिनेमा के समाज पर पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन से जुड़ा हो.
फ़राह दीबा पाकिस्तानी मीडिया में दिए अपने बयानों में कहा है कि जिन कार्टूनों में हनुमान जैसे मिथकीय चरित्रों का गौरवगान किया जाता है उनसे बच्चों के दिमाग पर बुरा असर पड़ता है. वह कहती हैं कि ऐसे कार्टून इस्लामी स्थापनाओं के अनुरूप नहीं हैं और इन्हें देख कर बच्चे भ्रमित हो जाते हैं. इन्हें प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि इस बारे में आखिरी फ़ैसला पाकिस्तान सरकार के अधीन काम कर रही इलेक्ट्रौनिक मीडिया पर नज़र रखने वाली संस्था के हाथ में है. पाकिस्तान के जानकारों का मानना है कि पाकिस्तानी सरकार को पंजाब सरकार की सिफारिशों को मानने में कोई दिक्क़त नहीं होगी. ज़रदारी की पीपुल्स पार्टी और नवाज़ शरीफ की मुस्लिम लीग में कट्टरपंथियों को तुष्ट करने की होड़ लगी हुई है. उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान में पहले से ही भारतीय चैनलों के प्रसारण पर पाबंदी है. लेकिन उनकी भारी लोकप्रियता के चलते केबल वाले चोरी-छुपे सीरियल दिखाते हैं. हिन्दी फ़िल्मों की तरह भारतीय टेलीविजन के कार्यक्रमों की वीसीडी और डीवीडी की ज़बरदस्त बिक्री होती है और उनका केबलों पर पुनर्प्रसारण होता है.
हिन्दू पौराणिक कार्टूनों को प्रतिबंधित करने की पंजाब सरकार की इस ताज़ा पहल का अच्छा-ख़ासा विरोध हुआ है. पाकिस्तान की जानी-मानी कलाकार और लाहौर के प्रतिष्ठित नेशनल आर्ट्स कॉलेज की पूर्व प्राचार्य सलीमा हाशमी कहती हैं कि सरकार आतंकवाद के कारणों की पड़ताल के लिये समिति क्यों नहीं बनती. सरकार यह जानने के लिये समिति क्यों नहीं बनाती कि बच्चे आत्मघाती हमलावरों में कैसे तब्दील कर दिए जाते हैं. हाशमी ने तो यहाँ तक कह दिया कि भारत में पाकिस्तान से अधिक मुसलमान रहते हैं. जब भारतीय मुसलमानों के बच्चों पर हिन्दू पौराणिक चरित्रों का तथाकथित कुप्रभाव नहीं पड़ा तो फिर पाकिस्तानी बच्चे कैसे कुप्रभावित हो जायेंगे. उन्होंने सरकार को सलाह दी है कि बेकार की बातों में समय बरबाद करने से बेहतर है कि लोगों की समस्याओं पर ध्यान दिया जाये.
पाकिस्तानी टीवी के बड़े नामों में से एक शानाज़ रम्ज़ी के अनुसार ये पौराणिक चरित्र और कहानियां हिन्दू धर्म का हिस्सा हैं और उन्हें देखने से किसी मुसलमान का ईमान नहीं बदलेगा. उनके अफ़सोस जताया है कि पाकिस्तान एक असहिष्णु समाज बन गया है जहाँ अलग-अलग विचारों और समझदारियों के लिये जगह नहीं बची है. बड़ी संख्या में आम पाकिस्तानियों ने इन्टरनेट पर और अखबारों में पत्र लिख कर सरकारी रवैये का विरोध किया है. वहाँ के कुछ अखबारों ने भी लेखों और रिपोर्टों के द्वारा इस समिति के सामने सवाल उठाया है.
पाकिस्तान में लगभग दो करोड़ तिहत्तर लाख हिन्दू रहते हैं. इस फैसले से उनके ऊपर सीधा असर होगा. पाकिस्तान हिन्दू परिषद् के पूर्व महासचिव और सलाहकार परिषद् के सदस्य हरि मोटवाणी ने दुःख व्यक्त किया है कि पाकिस्तान की सरकारें और प्रशासन ऐसे फैसले लेने से पहले व्यापक सोच-विचार करें और यह ध्यान रखें कि इन पौराणिक चरित्रों से हिन्दू धर्म को अलग रख के नहीं देखा जा सकता. उनके अनुसार ऐसी पहलों से अल्पसंख्यकों में व्याप्त असुरक्षा की भावना बढ़ती है. लेकिन ऐसा नहीं माना जाना चाहिए कि पाकिस्तान में उम्मीद की कोई किरण नहीं बची है. दो बच्चियों के पिता लाहौर निवासी शाहिद अशरफ़ कहते हैं: 'मैं ऐसा पिता बनना चाहता हूँ जो अपने बच्चों को हर जानकारी उपलब्ध करा दे और उन्हें यह समझदारी और आज़ादी दे कि वे अपनी बेहतरी की दिशा ख़ुद तय करें'
( विस्फोट.कॉम से सादर नक़ल किया गया )
पाकिस्तान में इस्लामिक कट्टरपंथ को वहां की सरकारें किस कदर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करती हैं इसका ताजा उदाहरण वह फरमान है जिसमें संघीय सरकार ने राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि वे ऐसी व्यवस्था करें कि राज्यों में कोई केबल टीवी वाला हिन्दू पौराणिक चरित्रों पर बनी फिल्में, एनीमेशन इत्यादि का प्रदर्शन न कर सकें. साथ ही ऐसे सीडी और डीवीडी की बिक्री पर भी पाबंदी लगाने की कोशिश की जा रही है.
पाकिस्तान अपने इतिहास के सबसे अधिक संकट के दौर से गुज़र रहा है. आतंकवाद, भ्रष्टाचार, प्रशासनिक असफलता और प्राकृतिक आपदाओं ने पाकिस्तानी जनता का जीना मुश्किल कर दिया है. लेकिन वहाँ की संघीय सरकार और राज्य सरकारें इन समस्याओं से निपटने के लिये कोई गंभीर कोशिश नहीं कर रही हैं. दरअसल, ये सरकारें इन मुश्किलों से जनता का ध्यान हटाने के लिये बेमतलब के पैंतरे दिखा रही हैं. कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों और आतंकवादी गिरोहों से पाकिस्तानी सरकारों, राजनीतिक दलों, अदालतों, अखबारों, सेना, पुलिस और गुप्तचर संस्थाओं की मिलीभगत का लंबा इतिहास रहा है. इस्लाम और भारत-विरोध का झांसा दे कर वहाँ की जनता को लगातार लूटा गया है. इस वज़ह से एक ओर जहाँ पाकिस्तान की आम जनता एक त्रासद जीवन जीने को अभिशप्त है, वहीं दूसरी तरफ दक्षिण एशिया आतंकवाद और गृह-युद्धों की आग में जल रही है. ऐसे समय में जब पाकिस्तान भयानक बाढ़ की चपेट में है, वहाँ सांप्रदायिक राजनीति अपनी रोटी सेंकने में लगी हुई है. कभी अहमदिया संप्रदाय तो कभी शियाओं को बम और बंदूकों का निशाना बनाया जा रहा है. कभी ईसाईयों को पीटा जा रहा है तो कभी हिन्दुओं को उनके घरों से बेदखल किया जा रहा है.
इस कड़ी में अब हिन्दूओं के पौराणिक कार्यक्रमों के प्रसारण और उनकी वीडिओ सीडी-डीवीडी बेचने या केबल पर दिखाने पर रोक लगाने की क़वायद की जा रही है. सिंध सरकार ने एक अंतरिम आदेश देकर पिछले ही महीने इस तरह के चैनलों पर रोक लगा दी है और केबल वालों को ऐसे कार्यक्रमों की डीवीडी या वीसीडी दिखाने की मनाही कर दी है. पाकिस्तान के पंजाब की प्रांतीय सरकार ने एक समिति का गठन किया है जो हिन्दू पौराणिक कथाओं पर आधारित कार्यक्रमों के तथाकथित दुष्परिणामों के कारण उन पर प्रतिबन्ध लगाने की सिफ़ारिश सरकार से करेगी. दिलचस्प बात यह है कि समिति के सदस्य अध्ययन से पहले ही अपने निष्कर्षों पर पहुँच चुके हैं कि ऐसे कार्यक्रम इस्लाम-विरुद्ध हैं और इनसे बच्चों पर ग़लत प्रभाव पड़ रहा है. पंजाब में सत्तारूढ़ नवाज़ शरीफ के नेतृत्व वाली पाकिस्तान मुस्लिम लीग की सरकार के प्रवक्ता और पाकिस्तान सीनेट के सदस्य परवेज़ राशीद इस समिति के प्रमुख हैं. इसके अन्य मुख्य सदस्य फ़राह दीबा और ख़्वाजा इमरान नज़ीर हैं. फ़राह दीबा पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) की सांकृतिक इकाई की अध्यक्ष और पंजाब असेम्बली की सदस्य हैं. इमरान नज़ीर भी असेम्बली के सदस्य हैं. समिति के बाकी सदस्य सम्बद्ध मंत्रालयों-विभागों के अफ़सर हैं. इस समिति में कोई भी सदस्य कला, साहित्य या संस्कृति के क्षेत्र से नहीं है. इसमें ऐसे भी किसी व्यक्ति को नहीं लिया गया है जो प्रसारण माध्यमों, मीडिया या सिनेमा के समाज पर पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन से जुड़ा हो.
फ़राह दीबा पाकिस्तानी मीडिया में दिए अपने बयानों में कहा है कि जिन कार्टूनों में हनुमान जैसे मिथकीय चरित्रों का गौरवगान किया जाता है उनसे बच्चों के दिमाग पर बुरा असर पड़ता है. वह कहती हैं कि ऐसे कार्टून इस्लामी स्थापनाओं के अनुरूप नहीं हैं और इन्हें देख कर बच्चे भ्रमित हो जाते हैं. इन्हें प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि इस बारे में आखिरी फ़ैसला पाकिस्तान सरकार के अधीन काम कर रही इलेक्ट्रौनिक मीडिया पर नज़र रखने वाली संस्था के हाथ में है. पाकिस्तान के जानकारों का मानना है कि पाकिस्तानी सरकार को पंजाब सरकार की सिफारिशों को मानने में कोई दिक्क़त नहीं होगी. ज़रदारी की पीपुल्स पार्टी और नवाज़ शरीफ की मुस्लिम लीग में कट्टरपंथियों को तुष्ट करने की होड़ लगी हुई है. उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान में पहले से ही भारतीय चैनलों के प्रसारण पर पाबंदी है. लेकिन उनकी भारी लोकप्रियता के चलते केबल वाले चोरी-छुपे सीरियल दिखाते हैं. हिन्दी फ़िल्मों की तरह भारतीय टेलीविजन के कार्यक्रमों की वीसीडी और डीवीडी की ज़बरदस्त बिक्री होती है और उनका केबलों पर पुनर्प्रसारण होता है.
हिन्दू पौराणिक कार्टूनों को प्रतिबंधित करने की पंजाब सरकार की इस ताज़ा पहल का अच्छा-ख़ासा विरोध हुआ है. पाकिस्तान की जानी-मानी कलाकार और लाहौर के प्रतिष्ठित नेशनल आर्ट्स कॉलेज की पूर्व प्राचार्य सलीमा हाशमी कहती हैं कि सरकार आतंकवाद के कारणों की पड़ताल के लिये समिति क्यों नहीं बनती. सरकार यह जानने के लिये समिति क्यों नहीं बनाती कि बच्चे आत्मघाती हमलावरों में कैसे तब्दील कर दिए जाते हैं. हाशमी ने तो यहाँ तक कह दिया कि भारत में पाकिस्तान से अधिक मुसलमान रहते हैं. जब भारतीय मुसलमानों के बच्चों पर हिन्दू पौराणिक चरित्रों का तथाकथित कुप्रभाव नहीं पड़ा तो फिर पाकिस्तानी बच्चे कैसे कुप्रभावित हो जायेंगे. उन्होंने सरकार को सलाह दी है कि बेकार की बातों में समय बरबाद करने से बेहतर है कि लोगों की समस्याओं पर ध्यान दिया जाये.
पाकिस्तानी टीवी के बड़े नामों में से एक शानाज़ रम्ज़ी के अनुसार ये पौराणिक चरित्र और कहानियां हिन्दू धर्म का हिस्सा हैं और उन्हें देखने से किसी मुसलमान का ईमान नहीं बदलेगा. उनके अफ़सोस जताया है कि पाकिस्तान एक असहिष्णु समाज बन गया है जहाँ अलग-अलग विचारों और समझदारियों के लिये जगह नहीं बची है. बड़ी संख्या में आम पाकिस्तानियों ने इन्टरनेट पर और अखबारों में पत्र लिख कर सरकारी रवैये का विरोध किया है. वहाँ के कुछ अखबारों ने भी लेखों और रिपोर्टों के द्वारा इस समिति के सामने सवाल उठाया है.
पाकिस्तान में लगभग दो करोड़ तिहत्तर लाख हिन्दू रहते हैं. इस फैसले से उनके ऊपर सीधा असर होगा. पाकिस्तान हिन्दू परिषद् के पूर्व महासचिव और सलाहकार परिषद् के सदस्य हरि मोटवाणी ने दुःख व्यक्त किया है कि पाकिस्तान की सरकारें और प्रशासन ऐसे फैसले लेने से पहले व्यापक सोच-विचार करें और यह ध्यान रखें कि इन पौराणिक चरित्रों से हिन्दू धर्म को अलग रख के नहीं देखा जा सकता. उनके अनुसार ऐसी पहलों से अल्पसंख्यकों में व्याप्त असुरक्षा की भावना बढ़ती है. लेकिन ऐसा नहीं माना जाना चाहिए कि पाकिस्तान में उम्मीद की कोई किरण नहीं बची है. दो बच्चियों के पिता लाहौर निवासी शाहिद अशरफ़ कहते हैं: 'मैं ऐसा पिता बनना चाहता हूँ जो अपने बच्चों को हर जानकारी उपलब्ध करा दे और उन्हें यह समझदारी और आज़ादी दे कि वे अपनी बेहतरी की दिशा ख़ुद तय करें'
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