शेष नारायण सिंह
झारखण्ड में अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है . उनकी ताजपोशी की जो खबरें आ रही हैं , वे दिल दहला देने वाली हैं . समझ में नहीं आता ,कभी साफ़ छवि के नेता रहे अर्जुन मुंडा इस तरह के खेल में शामिल कैसे हो रहे हैं . जहां तक नैतिकता वगैरह का सवाल है , आज की ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियों से उसकी उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं है . यह कह कर कि झारखण्ड चुनावों के दौरान बी जे पी ने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और शिबू सोरेन के भ्रष्टाचार से जनता को मुक्ति दिलाने का वायदा किया था , वक़्त बर्बाद करने जैसा है . बी जे पी जैसी पार्टी से किसी नैतिकता की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. लेकिन जिस तरह की लूट की योजना बनाकर नितिन गडकरी ने अर्जुन मुंडा को मुख्य मंत्री बनाने की साज़िश रची है उस से तो भ्रष्ट से भ्रष्ट आदमी भी शर्म से पानी पानी हो जाएगा. पता चला है कि खदानों के धंधे में शामिल कुछ लोगों के पैसे के बल पर विधायकों की खरीद फरोख्त हुई है . और सब कुछ नितिन गडकरी के निजी हस्तक्षेप की वजह से संभव हो सका है . झारखण्ड में बी जे पी विधायक दल के नेता रघुबर दास के साथ जो व्यवहार हुआ है ,उस से पार्टी के टूट जाने का ख़तरा भी बना हुआ है . पता चला है कि नितिन गडकरी के बहुत करीबी कहे जाने वाले और उनके ही नगर नागपुर के तीन व्यापारियों ने मुख्य भूमिका निभाई है. अजय संचेती, तुलसी अग्रवाल और नरेश ग्रोवर नाम के यह व्यापारी नितिन गडकरी के ख़ास माने जाते हैं . दिल्ली का एक साहूकार, सेठिया भी खेल में शामिल बताया जा रहा है . नरेश ग्रोवर ने ही चम्पई सोरेन, सीता सोरेन ,टेकलाल महतो और साइमन मरांडी को दिल्ली में नितिन गडकरी के मकान पर जाकर मिलवाया था .दिल्ली वाले सेठिया ने अर्जुन मुंडा की ताजपोशी की तैयारी के पहले जो भी विधायक दिल्ली लाये गए, सबके जहाज के टिकट और दिल्ली में पांच सितारा होटलों में रहने का इंतज़ाम किया. उपाध्याय नाम का एक खदान मालिक भी इसी काम में लगा हुआ है . नितिन गडकरी की इस टीम के व्यापारी कोई लल्लू पंजू टाइप लोग नहीं है . यह लोग पार्टी अध्यक्ष की ओर से लोगों को निर्देश भी दे देते हैं . मसलन अजय संचेती नाम के नागपुर के व्यक्ति ने ही रघुबर दास को फोन करके कहा था कि वे बी जे पी विधायक दल के नेता पद से इस्तीफा दे दें जिसके बाद अर्जुन मुंडा को नेता चुना जा सके. रघुबर दास ने उसे डांट दिया था और कहा था कि वे गडकरी जी से बात करेगें. कुछ देर बाद ही गडकरी जी का फोन आ गया और इस्तीफ़ा हो गया. शिबू सोरेन की पिछली सरकार में भी नितिन गडकरी नागपुर के इन व्यापारियों की मदद करते रहते थे. लोग बताते हैं कि उपाध्याय नाम के खदान मालिक के लिए गडकरी पहले भी सिफारिश करते रहते थे. अब विभागों को लेकर बहस चल रही है . शिबू सोरेन के बेटे , हेमंत सोरेन उप मुख्य मंत्री बनेगें. उनकी ख्याति भी अपने पिता से कम नहीं है . वे उन विभागों पर नज़र रखे हुए हैं जो मालदार माने जाते हैं लेकिन अर्जुन मुंडा और उनकी ताजपोशी में मदद करने वाले व्यापारी लोग इस बात पर अड़े हुए हैं कि खदान , बिजली और पुलिस का कंट्रोल अर्जुन मुंडा के पास ही रहेगा क्योंकि असली ताक़त तो इन्हीं विभागों से आती है . वैसे भी कांग्रेस की मदद से राज कर चुके मधु कोड़ा ने खानों के ज़रिये ही अरबों बनाया था.
राजनीति में शुचिता की बात करने वाली बी जे पी की पोल तो खैर उस वक़्त ही खुल गयी थी जब केंद्र में जोड़ गाँठ कर एक सरकार बनायी गयी थी जिसके दौरान सरकारी संपत्ति की लूट का भारतीय रिकार्ड बना था लेकिन अब तक यह माना जाता था कि बी जे पी वाले पहले से तय करके लूट करने के उद्देश्य से किसी सरकार को स्थापित नहीं करेगें . अजीब बात है कि अब वही हो रहा है और इस खेल में वे लोग मुख्य भूमिका निभा रहे हैं जो भारतीय जनता पार्टी के नेता नहीं हैं . इस बात में दो राय नहीं है कि दिल्ली में जमे हुए आडवाणी गुट के नेता लोग नितिन गडकरी को हाशिये पर लाने और उन्हें मजाक का विषय बना देने के चक्कर में रहते हैं लेकिन यह शायद पहली बार हो रहा है कि बिना पार्टी पदाधिकारियों को भरोसे में लिए बिचौलियों की मदद से मधु कोड़ा का उत्तराधिकारी तैनात किया जा रहा है . ज़ाहिर है अर्जुन मुंडा की हर गलती पर अडवानी गुट की नज़र रहेगी और मौक़ा मिलते ही उन्हें भी मधु कोड़ा के स्तर पर पंहुचा दिया जाएगा. इस बात की भी संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि नितिन गडकरी का भी वही हाल किया जा सकता है जो दिल्ली दरबार के भाजपाइयों ने बंगारू लक्ष्मण का किया था .
Saturday, September 11, 2010
Friday, September 10, 2010
माओ के नाम पर जातिवादी राजनीतिक गुंडई कर रहे हैं यह लोग
शेष नारायण सिंह
बिहार और उसके आस पास के इलाकों में माओ के नाम पर लूट खसोट और जाति वाद का झंडा बुलंद किये हुए लोग न तो क्रांतिकारी हैं और न ही किसी क्रांतिकारी पार्टी के सदस्य हैं . हम शुरू से ही कहते आ रहे हैं कि यह लोग वास्तव समाज के उसी वर्ग के सदस्य हैं जो इन इलाकों में राजनीति के सहारे धन इकठ्ठा करना चाहता है . १९७७ के पहले इस तरह के गुंडे राजनीतिक पार्टियों की सेवा में रहते थे लेकिन कोई भी नेता यह स्वीकार नहीं करता था कि वह गुंडे पालता है . लेकिन १९७७ में कांग्रेस के नेता स्व संजय गाँधी ने इस तरह के लोगों को लोक सभा और विधान सभा चुनावों के टिकट दे दिए और यह लोग माननीय हो गए. उसके बाद जीत सकने की क्षमता के नाम पर अन्य पार्टियों ने भी इस तरह के लोगों को टिकट दे दिया. और लगभग सभी पार्टियों में समाज विरोधी तत्वों की बाढ़ आ गयी. अब बात बदल गयी है .पिछले १० वर्षों में मुख्य धारा की पार्टियों में गुंडों की नयी भर्ती नहीं हो रही है . तो राजनीतिक रूप से सक्रिय लोगों को लूट खसोट कर लिए नए चारागाह की तलाश की जा रही थी.. उधर दूसरी तरफ अति क्रांतिकारिता के मर्ज़ से पीड़ित कुछ अति वामपंथी और संशोधनवादी कम्युनिस्ट नेता क्रान्ति के मुगालते में घूम रहे थे . दोनों का मेल हो गया और नेताओं को जुझारू कार्यकर्ता मिल गए जबकि काम की तलाश में बिहार और उसके आस पास भटक रहे ऊंची जाति के गुंडों को राजनीतिक संगठन मिल गया जिसके नाम पर लूट पाट की जा सके. लेकिन जब माओवादियों को बहुत सारे लोग मिल गए तो उन्होंने भी भर्ती में सख्ती कर दी . ज़ाहिर बहुत सारे बाहुबली उनके साथ जाने में जो लोग नाकामयाब रह गए . ऐसे लोगों को सलवा जुडूम के नाम पर सरकारी तंत्र ने गुंडई और वसूली का काम दे दिया . बस यही है तथाकतित माओवादियों का क्रांतिकारी एजेंडा और और उनसे लड़ने का अभिनय कर रही सरकारों की सच्चाई .अब बात सबके सामने आ गयी है . अब दुनिया जानती है कि इन जंगलों में घूम रहे गैर आदिवासी जाति के नौजवान वास्तव में सामन्ती व्यवस्था को दूसरे तरीके से बरक़रार रखना चाहते हैं . विस्फोट में प्रकाशित विद्वान् लेखक पुष्यमित्र का लेख इस सारे खेल की कलई खोल देता है . उन्होंने लिखा है कि बिहार के बंधक विवाद के दौरान जिस तरह ईसाई आदिवासी बीएमपी हवलदार लुकस टेटे की हत्या कर दी गई और अभय यादव , रूपेश सिन्हा और एहसान खान को छोड़ दिया गया उसके कारण माओवादियों के बीच जड़ जमा चुका यह विवाद सतह पर आ चुका है. बहुत संभव है कि इस झगड़े के कारण आने वाले दिनों में बिहार और झारखंड में माओवादियों के बीच गैंगवार की स्थिति उत्पन्न हो जाये.
लखीसराय के माओवादियों द्वारा बंधकों में से एक ईसाई आदिवासियों की हत्या किये जाने के कारण झारखंड के आदिवासी माओवादियों में गहरा गुस्सा है. माओवादी जोनल कमांडर बीरबल मुर्मू ने लखीसराय के जोनल कमांडर अरविंद यादव के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए कहा है कि उसने जहां एक ओर एक आदिवासी पुलिस कर्मी की हत्या करा दी वहीं अपनी जाति के बंधक अभय यादव की जान जानबूझकर बख्श दी. मुर्मू का कहना है कि अगर हत्या ही करना था तो चारो बंधकों की हत्या करते, किसी एक को मारना और तीन को छोड़ देना एक गलत परंपरा को जन्म देता है.झारखंड के जिन इलाकों में माओवाद का गढ़ है वे आदिवासी बहुल हैं और स्थानीय लोगों के सहयोग और संरक्षण के कारण ही वे इस इलाके में कामयाब हैं. उनके कैडर में भी आदिवासियों की संख्या ही अधिक है..अवैध खनन वाले इन्हीं इलाकों से उन्हें सर्वाधिक आय होती है. ऐसे में लुकास टेटे की हत्या उनके लिये आत्मघाती साबित होने वाली है. झारखंड के आदिवासियों के हाल के दिनों में माओवाद के खिलाफ जंग की लड़े जाने की भावना सामने आने लगी है. पिछले दिनों कई गांवों में आदिवासियों ने जातीय सभा बुलाकर माओवादियों के खिलाफ जंग छेड़ने का ऐलान किया है. ऐसे में निश्चित तौर पर टेटे की हत्या आग में धी का काम करने वाली है. आने वाले दिनों में अगर आदिवासी समुदाय अधिक संगठित होकर माओवादियों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दे तो इसमें किसी को अचरज नहीं होना चाहिये.टेटे का हत्यारा पिंटो दा और उस हत्या का आदेश जारी करने वाला अरविंद यादव बिहार पुलिस की हिरासत में है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में माओवाद के नाम पर सामंती खेल खेलने वालों को जनता के दरबार में जवाब देना पडेगा.
बिहार और उसके आस पास के इलाकों में माओ के नाम पर लूट खसोट और जाति वाद का झंडा बुलंद किये हुए लोग न तो क्रांतिकारी हैं और न ही किसी क्रांतिकारी पार्टी के सदस्य हैं . हम शुरू से ही कहते आ रहे हैं कि यह लोग वास्तव समाज के उसी वर्ग के सदस्य हैं जो इन इलाकों में राजनीति के सहारे धन इकठ्ठा करना चाहता है . १९७७ के पहले इस तरह के गुंडे राजनीतिक पार्टियों की सेवा में रहते थे लेकिन कोई भी नेता यह स्वीकार नहीं करता था कि वह गुंडे पालता है . लेकिन १९७७ में कांग्रेस के नेता स्व संजय गाँधी ने इस तरह के लोगों को लोक सभा और विधान सभा चुनावों के टिकट दे दिए और यह लोग माननीय हो गए. उसके बाद जीत सकने की क्षमता के नाम पर अन्य पार्टियों ने भी इस तरह के लोगों को टिकट दे दिया. और लगभग सभी पार्टियों में समाज विरोधी तत्वों की बाढ़ आ गयी. अब बात बदल गयी है .पिछले १० वर्षों में मुख्य धारा की पार्टियों में गुंडों की नयी भर्ती नहीं हो रही है . तो राजनीतिक रूप से सक्रिय लोगों को लूट खसोट कर लिए नए चारागाह की तलाश की जा रही थी.. उधर दूसरी तरफ अति क्रांतिकारिता के मर्ज़ से पीड़ित कुछ अति वामपंथी और संशोधनवादी कम्युनिस्ट नेता क्रान्ति के मुगालते में घूम रहे थे . दोनों का मेल हो गया और नेताओं को जुझारू कार्यकर्ता मिल गए जबकि काम की तलाश में बिहार और उसके आस पास भटक रहे ऊंची जाति के गुंडों को राजनीतिक संगठन मिल गया जिसके नाम पर लूट पाट की जा सके. लेकिन जब माओवादियों को बहुत सारे लोग मिल गए तो उन्होंने भी भर्ती में सख्ती कर दी . ज़ाहिर बहुत सारे बाहुबली उनके साथ जाने में जो लोग नाकामयाब रह गए . ऐसे लोगों को सलवा जुडूम के नाम पर सरकारी तंत्र ने गुंडई और वसूली का काम दे दिया . बस यही है तथाकतित माओवादियों का क्रांतिकारी एजेंडा और और उनसे लड़ने का अभिनय कर रही सरकारों की सच्चाई .अब बात सबके सामने आ गयी है . अब दुनिया जानती है कि इन जंगलों में घूम रहे गैर आदिवासी जाति के नौजवान वास्तव में सामन्ती व्यवस्था को दूसरे तरीके से बरक़रार रखना चाहते हैं . विस्फोट में प्रकाशित विद्वान् लेखक पुष्यमित्र का लेख इस सारे खेल की कलई खोल देता है . उन्होंने लिखा है कि बिहार के बंधक विवाद के दौरान जिस तरह ईसाई आदिवासी बीएमपी हवलदार लुकस टेटे की हत्या कर दी गई और अभय यादव , रूपेश सिन्हा और एहसान खान को छोड़ दिया गया उसके कारण माओवादियों के बीच जड़ जमा चुका यह विवाद सतह पर आ चुका है. बहुत संभव है कि इस झगड़े के कारण आने वाले दिनों में बिहार और झारखंड में माओवादियों के बीच गैंगवार की स्थिति उत्पन्न हो जाये.
लखीसराय के माओवादियों द्वारा बंधकों में से एक ईसाई आदिवासियों की हत्या किये जाने के कारण झारखंड के आदिवासी माओवादियों में गहरा गुस्सा है. माओवादी जोनल कमांडर बीरबल मुर्मू ने लखीसराय के जोनल कमांडर अरविंद यादव के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए कहा है कि उसने जहां एक ओर एक आदिवासी पुलिस कर्मी की हत्या करा दी वहीं अपनी जाति के बंधक अभय यादव की जान जानबूझकर बख्श दी. मुर्मू का कहना है कि अगर हत्या ही करना था तो चारो बंधकों की हत्या करते, किसी एक को मारना और तीन को छोड़ देना एक गलत परंपरा को जन्म देता है.झारखंड के जिन इलाकों में माओवाद का गढ़ है वे आदिवासी बहुल हैं और स्थानीय लोगों के सहयोग और संरक्षण के कारण ही वे इस इलाके में कामयाब हैं. उनके कैडर में भी आदिवासियों की संख्या ही अधिक है..अवैध खनन वाले इन्हीं इलाकों से उन्हें सर्वाधिक आय होती है. ऐसे में लुकास टेटे की हत्या उनके लिये आत्मघाती साबित होने वाली है. झारखंड के आदिवासियों के हाल के दिनों में माओवाद के खिलाफ जंग की लड़े जाने की भावना सामने आने लगी है. पिछले दिनों कई गांवों में आदिवासियों ने जातीय सभा बुलाकर माओवादियों के खिलाफ जंग छेड़ने का ऐलान किया है. ऐसे में निश्चित तौर पर टेटे की हत्या आग में धी का काम करने वाली है. आने वाले दिनों में अगर आदिवासी समुदाय अधिक संगठित होकर माओवादियों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दे तो इसमें किसी को अचरज नहीं होना चाहिये.टेटे का हत्यारा पिंटो दा और उस हत्या का आदेश जारी करने वाला अरविंद यादव बिहार पुलिस की हिरासत में है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में माओवाद के नाम पर सामंती खेल खेलने वालों को जनता के दरबार में जवाब देना पडेगा.
Labels:
गुंडई की राजनीति,
जातिवादी,
माओ,
शेष नारायण सिंह,
सलवा जुडूम
Thursday, September 9, 2010
क्रिकेट टीम की वजह से पाकिस्तान में अपमान की लहर चल रही है
शेष नारायण सिंह
आम तौर पर क्रिकेट किसी भी समाज में एकता का सबसे बड़ा सूत्र माना जाता है . पाकिस्तान भी इसका अपवाद नहीं रहा है लेकिन आजकल हालत बिल्कुल उलट है . पाकिस्तानी समाज को वहां के क्रिकेट ने बुरी तरह से बाँट दिया है . अपने बेहतरीन खिलाड़ियों की बे ईमानी की तस्वीरें पूरे मुल्क ने देखी हैं, आम पाकिस्तानी बहुत नाराज़ है लेकिन कहीं कोई कार्रवाई होती न देख कर चारों तरफ परेशानी है , खिसियाहट है . पाकिस्तानी मीडिया इन खिलाड़ियों की करतूतों से भरा पड़ा है . और अब जो नयी जानकारी आई है उस से तो हद ही हो गयी है . पाकिस्तान के एक प्रमुख निजी न्यूज़ चैनल , जियो टी वी में बुधवार से ही खबर चल रही है कि लन्दन पुलिस ने जिन तीन खिलाड़ियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की है , वह तो अपराध का एक बहुत ही मामूली हिस्सा है . चैनल का आरोप है कि पाकिस्तानी क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के कई पदाधिकारी भी घपले में शामिल हैं और सारा घोटाला पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष एजाज़ भट के आशीर्वाद से फल फूल रहा है. अगर यह सच है तो इसमें दो राय नहीं है कि पाकिस्तानी समाज, जो क्रिकेट की जीत को मुल्क की जीत मान कर शुतुरमुर्ग की तरह अपने को महान मानता रहा है , उसका सब कुछ लुट चुका है . वैसे भी एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान के पास कुछ भी नहीं है जिसपर गर्व किया जा सके. पाकिस्तानी राजनेताओं का चरित्र ऐसा है जिस पर कोई भी शर्म से सिर झुका लेगा , अर्थव्यवस्था पूरी तरह खैरात पर चलती है, अगर अमरीका और सउदी अरब से मिलने वाली मदद बंद हो जाए तो पाकिस्तानी अवाम के सामने रोटियों के लाले पड़ जायेगें . उनकी फौज ऐसी है जिसने लडाइयां हारने का एक तरह से विश्व रिकार्ड कायम कर रखा है लेकिन वही फौज पाकिस्तानी जनता की छाती पर मूंग दलती रहती है .ऐसी हालत में पाकिस्तानी क्रिकेट टीम पाकिस्तान की दबी कुचली जनता के आत्मसम्मान का एक बड़ा संबल थी लेकिन आज जब उस टीम का अपना सम्मान पूरी तरह से दफ़न हो चुका है , तो पाकिस्तानी समाज में बहुत ज्यादा निराशा है . सडकों पर तीनों दागी खिलाड़ियों के पुतले जलाए जा रहे हैं , पूरे देश में विश्ववास का संकट पैदा हो गया है . पाकिस्तानी लोगों की मांग है कि पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को कुछ ऐसा करना चाहिए जिसके बाद पाकिस्तानी क्रिकेट की थोड़ी बहुत साख को वापस लाया जा सके. लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है . उधर लन्दन पुलिस लगातार तीनों दागी खिलाड़ियों सलमान बट , मुहम्मद आसिफ और मुहम्मद आमिर के ऊपर जांच का दबाव बनाए हुए है . गुरुवार को जो अभ्यास के लिए खेल हुआ उस से इन लोगों को बाहर रखा गया .लेकिन पाकिस्तान के अन्दर और बाहर इन खिलाड़ियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग जोर पकडती जा रही है . इंटरनेशनल क्रिकेट काउन्सिल के चीफ इक्ज़ीक्यूटिव, हारून लोरगाट ने भी लन्दन में पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष एजाज़ भट से मुलाक़ात करके उन्हें कुछ कार्रवाई करने की प्रेरणा दी है लेकिन अभी तक कुछ हुआ नहीं है . ज़ाहिर है पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड कुछ नहीं कर सकता क्योंकि आम तौर पर भरोसेमंद जियो टी वी की खबरें पाकिस्तानी समाज में सच मानी जाती हैं और वे सच होती भी हैं . जब इतना भरोसेमंद चैनल किसी खबर को डंके की चोट पर प्रचारित कर रहा है तो उस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं हो सकता. इसका मतलब यह हुआ कि जब एजाज़ भट खुद ही पराधी हो सकते हैं तो वे अपने साथ जुर्म में शामिल लोगों के खिलाफ क्यों कार्रवाई करेगें .ज़ाहिर है पाकिस्तान की सरकार और क्रिकेट बोर्ड अब अपने खिलाड़ियों के खिलाफ कार्रवाई न करने के बहाने ढूंढ रही है इंग्लैण्ड की यात्रा पर गयी पाकिस्तानी टीम के मैनेजर , यावर सईद ने लन्दन में कहा कि किसी खिलाड़ी के खिलाफ कोई आरोप पत्र नहीं दाखिल किया गया है इसलिए इन खिलाड़ियों पर लगे आरोपों को मीडिया की करतूत से ज्यादा कुछ नहीं माना जा सकता. उन्होंने यह भी कहा कि अभी तक खिलाड़ियों को लन्दन की पुलिस ने केवल पूछ ताछ के लिए बुलाया था , उनके खिलाफ कहीं कोई सबूत नहीं है . पाकिस्तान के क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने दावा किया है कि एक बैरिस्टर को लगा दिया गया है जो पाकिस्तान क्रिकेट के दागी खिलाड़ियों के बचाव का काम करेगा. बहर हाल कुल मिलाकर पाकिस्तानी हुकूमत के सभी हिस्सों के लोग बे ईमान खिलाड़ियों और उनके आकाओं को बचाने में जुटे हुए हैं . ऐसी हालत में पाकिस्तानी समाज, जो तालिबान और अल कायदा के आतंकवाद , भयानक बाढ़ और अमरीकी फौज के दबाव से त्राहि त्राहि कर रहा है . उसे अपनी क्रिकेट टीम के अच्छे काम की वजह से अपमान से थोड़ी मोहलत मिला करती थी , वह भी तीन खिलाड़ियों के चलते ख़त्म हो गयी. वैसे भी पाकिस्तानी हुकूमत में भ्रष्टाचार का चारों तरफ बोल बाला है और ताज़ा जानकारियों के हिसाब से क्रिकेट के इतिहास के सबसे बड़े घोटाले में तीन खिलाड़ियों के अलावा पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के बड़े बड़े सूरमा निश्चित रूप से शामिल होगें . ज़ाहिर है कोई आपराधिक मुक़दमा तो नहीं चलेगा लेकिन इतना पक्का है कि पाकिस्तानी समाज इस घोटाले से पर्दा उठने के बाद दुबारा सम्मान की तलाश करने में बहुत वक़्त लगाएगा.
आम तौर पर क्रिकेट किसी भी समाज में एकता का सबसे बड़ा सूत्र माना जाता है . पाकिस्तान भी इसका अपवाद नहीं रहा है लेकिन आजकल हालत बिल्कुल उलट है . पाकिस्तानी समाज को वहां के क्रिकेट ने बुरी तरह से बाँट दिया है . अपने बेहतरीन खिलाड़ियों की बे ईमानी की तस्वीरें पूरे मुल्क ने देखी हैं, आम पाकिस्तानी बहुत नाराज़ है लेकिन कहीं कोई कार्रवाई होती न देख कर चारों तरफ परेशानी है , खिसियाहट है . पाकिस्तानी मीडिया इन खिलाड़ियों की करतूतों से भरा पड़ा है . और अब जो नयी जानकारी आई है उस से तो हद ही हो गयी है . पाकिस्तान के एक प्रमुख निजी न्यूज़ चैनल , जियो टी वी में बुधवार से ही खबर चल रही है कि लन्दन पुलिस ने जिन तीन खिलाड़ियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की है , वह तो अपराध का एक बहुत ही मामूली हिस्सा है . चैनल का आरोप है कि पाकिस्तानी क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के कई पदाधिकारी भी घपले में शामिल हैं और सारा घोटाला पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष एजाज़ भट के आशीर्वाद से फल फूल रहा है. अगर यह सच है तो इसमें दो राय नहीं है कि पाकिस्तानी समाज, जो क्रिकेट की जीत को मुल्क की जीत मान कर शुतुरमुर्ग की तरह अपने को महान मानता रहा है , उसका सब कुछ लुट चुका है . वैसे भी एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान के पास कुछ भी नहीं है जिसपर गर्व किया जा सके. पाकिस्तानी राजनेताओं का चरित्र ऐसा है जिस पर कोई भी शर्म से सिर झुका लेगा , अर्थव्यवस्था पूरी तरह खैरात पर चलती है, अगर अमरीका और सउदी अरब से मिलने वाली मदद बंद हो जाए तो पाकिस्तानी अवाम के सामने रोटियों के लाले पड़ जायेगें . उनकी फौज ऐसी है जिसने लडाइयां हारने का एक तरह से विश्व रिकार्ड कायम कर रखा है लेकिन वही फौज पाकिस्तानी जनता की छाती पर मूंग दलती रहती है .ऐसी हालत में पाकिस्तानी क्रिकेट टीम पाकिस्तान की दबी कुचली जनता के आत्मसम्मान का एक बड़ा संबल थी लेकिन आज जब उस टीम का अपना सम्मान पूरी तरह से दफ़न हो चुका है , तो पाकिस्तानी समाज में बहुत ज्यादा निराशा है . सडकों पर तीनों दागी खिलाड़ियों के पुतले जलाए जा रहे हैं , पूरे देश में विश्ववास का संकट पैदा हो गया है . पाकिस्तानी लोगों की मांग है कि पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को कुछ ऐसा करना चाहिए जिसके बाद पाकिस्तानी क्रिकेट की थोड़ी बहुत साख को वापस लाया जा सके. लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है . उधर लन्दन पुलिस लगातार तीनों दागी खिलाड़ियों सलमान बट , मुहम्मद आसिफ और मुहम्मद आमिर के ऊपर जांच का दबाव बनाए हुए है . गुरुवार को जो अभ्यास के लिए खेल हुआ उस से इन लोगों को बाहर रखा गया .लेकिन पाकिस्तान के अन्दर और बाहर इन खिलाड़ियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग जोर पकडती जा रही है . इंटरनेशनल क्रिकेट काउन्सिल के चीफ इक्ज़ीक्यूटिव, हारून लोरगाट ने भी लन्दन में पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष एजाज़ भट से मुलाक़ात करके उन्हें कुछ कार्रवाई करने की प्रेरणा दी है लेकिन अभी तक कुछ हुआ नहीं है . ज़ाहिर है पाकिस्तानी क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड कुछ नहीं कर सकता क्योंकि आम तौर पर भरोसेमंद जियो टी वी की खबरें पाकिस्तानी समाज में सच मानी जाती हैं और वे सच होती भी हैं . जब इतना भरोसेमंद चैनल किसी खबर को डंके की चोट पर प्रचारित कर रहा है तो उस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं हो सकता. इसका मतलब यह हुआ कि जब एजाज़ भट खुद ही पराधी हो सकते हैं तो वे अपने साथ जुर्म में शामिल लोगों के खिलाफ क्यों कार्रवाई करेगें .ज़ाहिर है पाकिस्तान की सरकार और क्रिकेट बोर्ड अब अपने खिलाड़ियों के खिलाफ कार्रवाई न करने के बहाने ढूंढ रही है इंग्लैण्ड की यात्रा पर गयी पाकिस्तानी टीम के मैनेजर , यावर सईद ने लन्दन में कहा कि किसी खिलाड़ी के खिलाफ कोई आरोप पत्र नहीं दाखिल किया गया है इसलिए इन खिलाड़ियों पर लगे आरोपों को मीडिया की करतूत से ज्यादा कुछ नहीं माना जा सकता. उन्होंने यह भी कहा कि अभी तक खिलाड़ियों को लन्दन की पुलिस ने केवल पूछ ताछ के लिए बुलाया था , उनके खिलाफ कहीं कोई सबूत नहीं है . पाकिस्तान के क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने दावा किया है कि एक बैरिस्टर को लगा दिया गया है जो पाकिस्तान क्रिकेट के दागी खिलाड़ियों के बचाव का काम करेगा. बहर हाल कुल मिलाकर पाकिस्तानी हुकूमत के सभी हिस्सों के लोग बे ईमान खिलाड़ियों और उनके आकाओं को बचाने में जुटे हुए हैं . ऐसी हालत में पाकिस्तानी समाज, जो तालिबान और अल कायदा के आतंकवाद , भयानक बाढ़ और अमरीकी फौज के दबाव से त्राहि त्राहि कर रहा है . उसे अपनी क्रिकेट टीम के अच्छे काम की वजह से अपमान से थोड़ी मोहलत मिला करती थी , वह भी तीन खिलाड़ियों के चलते ख़त्म हो गयी. वैसे भी पाकिस्तानी हुकूमत में भ्रष्टाचार का चारों तरफ बोल बाला है और ताज़ा जानकारियों के हिसाब से क्रिकेट के इतिहास के सबसे बड़े घोटाले में तीन खिलाड़ियों के अलावा पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के बड़े बड़े सूरमा निश्चित रूप से शामिल होगें . ज़ाहिर है कोई आपराधिक मुक़दमा तो नहीं चलेगा लेकिन इतना पक्का है कि पाकिस्तानी समाज इस घोटाले से पर्दा उठने के बाद दुबारा सम्मान की तलाश करने में बहुत वक़्त लगाएगा.
Labels:
अपमान,
क्रिकेट टीम,
पाकिस्तान,
शेष नारायण सिंह
रामायण, महाभारत और हनुमान पर पाकिस्तान में प्रतिबंध
प्रकाश रे
( विस्फोट.कॉम से सादर नक़ल किया गया )
पाकिस्तान में इस्लामिक कट्टरपंथ को वहां की सरकारें किस कदर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करती हैं इसका ताजा उदाहरण वह फरमान है जिसमें संघीय सरकार ने राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि वे ऐसी व्यवस्था करें कि राज्यों में कोई केबल टीवी वाला हिन्दू पौराणिक चरित्रों पर बनी फिल्में, एनीमेशन इत्यादि का प्रदर्शन न कर सकें. साथ ही ऐसे सीडी और डीवीडी की बिक्री पर भी पाबंदी लगाने की कोशिश की जा रही है.
पाकिस्तान अपने इतिहास के सबसे अधिक संकट के दौर से गुज़र रहा है. आतंकवाद, भ्रष्टाचार, प्रशासनिक असफलता और प्राकृतिक आपदाओं ने पाकिस्तानी जनता का जीना मुश्किल कर दिया है. लेकिन वहाँ की संघीय सरकार और राज्य सरकारें इन समस्याओं से निपटने के लिये कोई गंभीर कोशिश नहीं कर रही हैं. दरअसल, ये सरकारें इन मुश्किलों से जनता का ध्यान हटाने के लिये बेमतलब के पैंतरे दिखा रही हैं. कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों और आतंकवादी गिरोहों से पाकिस्तानी सरकारों, राजनीतिक दलों, अदालतों, अखबारों, सेना, पुलिस और गुप्तचर संस्थाओं की मिलीभगत का लंबा इतिहास रहा है. इस्लाम और भारत-विरोध का झांसा दे कर वहाँ की जनता को लगातार लूटा गया है. इस वज़ह से एक ओर जहाँ पाकिस्तान की आम जनता एक त्रासद जीवन जीने को अभिशप्त है, वहीं दूसरी तरफ दक्षिण एशिया आतंकवाद और गृह-युद्धों की आग में जल रही है. ऐसे समय में जब पाकिस्तान भयानक बाढ़ की चपेट में है, वहाँ सांप्रदायिक राजनीति अपनी रोटी सेंकने में लगी हुई है. कभी अहमदिया संप्रदाय तो कभी शियाओं को बम और बंदूकों का निशाना बनाया जा रहा है. कभी ईसाईयों को पीटा जा रहा है तो कभी हिन्दुओं को उनके घरों से बेदखल किया जा रहा है.
इस कड़ी में अब हिन्दूओं के पौराणिक कार्यक्रमों के प्रसारण और उनकी वीडिओ सीडी-डीवीडी बेचने या केबल पर दिखाने पर रोक लगाने की क़वायद की जा रही है. सिंध सरकार ने एक अंतरिम आदेश देकर पिछले ही महीने इस तरह के चैनलों पर रोक लगा दी है और केबल वालों को ऐसे कार्यक्रमों की डीवीडी या वीसीडी दिखाने की मनाही कर दी है. पाकिस्तान के पंजाब की प्रांतीय सरकार ने एक समिति का गठन किया है जो हिन्दू पौराणिक कथाओं पर आधारित कार्यक्रमों के तथाकथित दुष्परिणामों के कारण उन पर प्रतिबन्ध लगाने की सिफ़ारिश सरकार से करेगी. दिलचस्प बात यह है कि समिति के सदस्य अध्ययन से पहले ही अपने निष्कर्षों पर पहुँच चुके हैं कि ऐसे कार्यक्रम इस्लाम-विरुद्ध हैं और इनसे बच्चों पर ग़लत प्रभाव पड़ रहा है. पंजाब में सत्तारूढ़ नवाज़ शरीफ के नेतृत्व वाली पाकिस्तान मुस्लिम लीग की सरकार के प्रवक्ता और पाकिस्तान सीनेट के सदस्य परवेज़ राशीद इस समिति के प्रमुख हैं. इसके अन्य मुख्य सदस्य फ़राह दीबा और ख़्वाजा इमरान नज़ीर हैं. फ़राह दीबा पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) की सांकृतिक इकाई की अध्यक्ष और पंजाब असेम्बली की सदस्य हैं. इमरान नज़ीर भी असेम्बली के सदस्य हैं. समिति के बाकी सदस्य सम्बद्ध मंत्रालयों-विभागों के अफ़सर हैं. इस समिति में कोई भी सदस्य कला, साहित्य या संस्कृति के क्षेत्र से नहीं है. इसमें ऐसे भी किसी व्यक्ति को नहीं लिया गया है जो प्रसारण माध्यमों, मीडिया या सिनेमा के समाज पर पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन से जुड़ा हो.
फ़राह दीबा पाकिस्तानी मीडिया में दिए अपने बयानों में कहा है कि जिन कार्टूनों में हनुमान जैसे मिथकीय चरित्रों का गौरवगान किया जाता है उनसे बच्चों के दिमाग पर बुरा असर पड़ता है. वह कहती हैं कि ऐसे कार्टून इस्लामी स्थापनाओं के अनुरूप नहीं हैं और इन्हें देख कर बच्चे भ्रमित हो जाते हैं. इन्हें प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि इस बारे में आखिरी फ़ैसला पाकिस्तान सरकार के अधीन काम कर रही इलेक्ट्रौनिक मीडिया पर नज़र रखने वाली संस्था के हाथ में है. पाकिस्तान के जानकारों का मानना है कि पाकिस्तानी सरकार को पंजाब सरकार की सिफारिशों को मानने में कोई दिक्क़त नहीं होगी. ज़रदारी की पीपुल्स पार्टी और नवाज़ शरीफ की मुस्लिम लीग में कट्टरपंथियों को तुष्ट करने की होड़ लगी हुई है. उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान में पहले से ही भारतीय चैनलों के प्रसारण पर पाबंदी है. लेकिन उनकी भारी लोकप्रियता के चलते केबल वाले चोरी-छुपे सीरियल दिखाते हैं. हिन्दी फ़िल्मों की तरह भारतीय टेलीविजन के कार्यक्रमों की वीसीडी और डीवीडी की ज़बरदस्त बिक्री होती है और उनका केबलों पर पुनर्प्रसारण होता है.
हिन्दू पौराणिक कार्टूनों को प्रतिबंधित करने की पंजाब सरकार की इस ताज़ा पहल का अच्छा-ख़ासा विरोध हुआ है. पाकिस्तान की जानी-मानी कलाकार और लाहौर के प्रतिष्ठित नेशनल आर्ट्स कॉलेज की पूर्व प्राचार्य सलीमा हाशमी कहती हैं कि सरकार आतंकवाद के कारणों की पड़ताल के लिये समिति क्यों नहीं बनती. सरकार यह जानने के लिये समिति क्यों नहीं बनाती कि बच्चे आत्मघाती हमलावरों में कैसे तब्दील कर दिए जाते हैं. हाशमी ने तो यहाँ तक कह दिया कि भारत में पाकिस्तान से अधिक मुसलमान रहते हैं. जब भारतीय मुसलमानों के बच्चों पर हिन्दू पौराणिक चरित्रों का तथाकथित कुप्रभाव नहीं पड़ा तो फिर पाकिस्तानी बच्चे कैसे कुप्रभावित हो जायेंगे. उन्होंने सरकार को सलाह दी है कि बेकार की बातों में समय बरबाद करने से बेहतर है कि लोगों की समस्याओं पर ध्यान दिया जाये.
पाकिस्तानी टीवी के बड़े नामों में से एक शानाज़ रम्ज़ी के अनुसार ये पौराणिक चरित्र और कहानियां हिन्दू धर्म का हिस्सा हैं और उन्हें देखने से किसी मुसलमान का ईमान नहीं बदलेगा. उनके अफ़सोस जताया है कि पाकिस्तान एक असहिष्णु समाज बन गया है जहाँ अलग-अलग विचारों और समझदारियों के लिये जगह नहीं बची है. बड़ी संख्या में आम पाकिस्तानियों ने इन्टरनेट पर और अखबारों में पत्र लिख कर सरकारी रवैये का विरोध किया है. वहाँ के कुछ अखबारों ने भी लेखों और रिपोर्टों के द्वारा इस समिति के सामने सवाल उठाया है.
पाकिस्तान में लगभग दो करोड़ तिहत्तर लाख हिन्दू रहते हैं. इस फैसले से उनके ऊपर सीधा असर होगा. पाकिस्तान हिन्दू परिषद् के पूर्व महासचिव और सलाहकार परिषद् के सदस्य हरि मोटवाणी ने दुःख व्यक्त किया है कि पाकिस्तान की सरकारें और प्रशासन ऐसे फैसले लेने से पहले व्यापक सोच-विचार करें और यह ध्यान रखें कि इन पौराणिक चरित्रों से हिन्दू धर्म को अलग रख के नहीं देखा जा सकता. उनके अनुसार ऐसी पहलों से अल्पसंख्यकों में व्याप्त असुरक्षा की भावना बढ़ती है. लेकिन ऐसा नहीं माना जाना चाहिए कि पाकिस्तान में उम्मीद की कोई किरण नहीं बची है. दो बच्चियों के पिता लाहौर निवासी शाहिद अशरफ़ कहते हैं: 'मैं ऐसा पिता बनना चाहता हूँ जो अपने बच्चों को हर जानकारी उपलब्ध करा दे और उन्हें यह समझदारी और आज़ादी दे कि वे अपनी बेहतरी की दिशा ख़ुद तय करें'
( विस्फोट.कॉम से सादर नक़ल किया गया )
पाकिस्तान में इस्लामिक कट्टरपंथ को वहां की सरकारें किस कदर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करती हैं इसका ताजा उदाहरण वह फरमान है जिसमें संघीय सरकार ने राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि वे ऐसी व्यवस्था करें कि राज्यों में कोई केबल टीवी वाला हिन्दू पौराणिक चरित्रों पर बनी फिल्में, एनीमेशन इत्यादि का प्रदर्शन न कर सकें. साथ ही ऐसे सीडी और डीवीडी की बिक्री पर भी पाबंदी लगाने की कोशिश की जा रही है.
पाकिस्तान अपने इतिहास के सबसे अधिक संकट के दौर से गुज़र रहा है. आतंकवाद, भ्रष्टाचार, प्रशासनिक असफलता और प्राकृतिक आपदाओं ने पाकिस्तानी जनता का जीना मुश्किल कर दिया है. लेकिन वहाँ की संघीय सरकार और राज्य सरकारें इन समस्याओं से निपटने के लिये कोई गंभीर कोशिश नहीं कर रही हैं. दरअसल, ये सरकारें इन मुश्किलों से जनता का ध्यान हटाने के लिये बेमतलब के पैंतरे दिखा रही हैं. कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों और आतंकवादी गिरोहों से पाकिस्तानी सरकारों, राजनीतिक दलों, अदालतों, अखबारों, सेना, पुलिस और गुप्तचर संस्थाओं की मिलीभगत का लंबा इतिहास रहा है. इस्लाम और भारत-विरोध का झांसा दे कर वहाँ की जनता को लगातार लूटा गया है. इस वज़ह से एक ओर जहाँ पाकिस्तान की आम जनता एक त्रासद जीवन जीने को अभिशप्त है, वहीं दूसरी तरफ दक्षिण एशिया आतंकवाद और गृह-युद्धों की आग में जल रही है. ऐसे समय में जब पाकिस्तान भयानक बाढ़ की चपेट में है, वहाँ सांप्रदायिक राजनीति अपनी रोटी सेंकने में लगी हुई है. कभी अहमदिया संप्रदाय तो कभी शियाओं को बम और बंदूकों का निशाना बनाया जा रहा है. कभी ईसाईयों को पीटा जा रहा है तो कभी हिन्दुओं को उनके घरों से बेदखल किया जा रहा है.
इस कड़ी में अब हिन्दूओं के पौराणिक कार्यक्रमों के प्रसारण और उनकी वीडिओ सीडी-डीवीडी बेचने या केबल पर दिखाने पर रोक लगाने की क़वायद की जा रही है. सिंध सरकार ने एक अंतरिम आदेश देकर पिछले ही महीने इस तरह के चैनलों पर रोक लगा दी है और केबल वालों को ऐसे कार्यक्रमों की डीवीडी या वीसीडी दिखाने की मनाही कर दी है. पाकिस्तान के पंजाब की प्रांतीय सरकार ने एक समिति का गठन किया है जो हिन्दू पौराणिक कथाओं पर आधारित कार्यक्रमों के तथाकथित दुष्परिणामों के कारण उन पर प्रतिबन्ध लगाने की सिफ़ारिश सरकार से करेगी. दिलचस्प बात यह है कि समिति के सदस्य अध्ययन से पहले ही अपने निष्कर्षों पर पहुँच चुके हैं कि ऐसे कार्यक्रम इस्लाम-विरुद्ध हैं और इनसे बच्चों पर ग़लत प्रभाव पड़ रहा है. पंजाब में सत्तारूढ़ नवाज़ शरीफ के नेतृत्व वाली पाकिस्तान मुस्लिम लीग की सरकार के प्रवक्ता और पाकिस्तान सीनेट के सदस्य परवेज़ राशीद इस समिति के प्रमुख हैं. इसके अन्य मुख्य सदस्य फ़राह दीबा और ख़्वाजा इमरान नज़ीर हैं. फ़राह दीबा पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) की सांकृतिक इकाई की अध्यक्ष और पंजाब असेम्बली की सदस्य हैं. इमरान नज़ीर भी असेम्बली के सदस्य हैं. समिति के बाकी सदस्य सम्बद्ध मंत्रालयों-विभागों के अफ़सर हैं. इस समिति में कोई भी सदस्य कला, साहित्य या संस्कृति के क्षेत्र से नहीं है. इसमें ऐसे भी किसी व्यक्ति को नहीं लिया गया है जो प्रसारण माध्यमों, मीडिया या सिनेमा के समाज पर पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन से जुड़ा हो.
फ़राह दीबा पाकिस्तानी मीडिया में दिए अपने बयानों में कहा है कि जिन कार्टूनों में हनुमान जैसे मिथकीय चरित्रों का गौरवगान किया जाता है उनसे बच्चों के दिमाग पर बुरा असर पड़ता है. वह कहती हैं कि ऐसे कार्टून इस्लामी स्थापनाओं के अनुरूप नहीं हैं और इन्हें देख कर बच्चे भ्रमित हो जाते हैं. इन्हें प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि इस बारे में आखिरी फ़ैसला पाकिस्तान सरकार के अधीन काम कर रही इलेक्ट्रौनिक मीडिया पर नज़र रखने वाली संस्था के हाथ में है. पाकिस्तान के जानकारों का मानना है कि पाकिस्तानी सरकार को पंजाब सरकार की सिफारिशों को मानने में कोई दिक्क़त नहीं होगी. ज़रदारी की पीपुल्स पार्टी और नवाज़ शरीफ की मुस्लिम लीग में कट्टरपंथियों को तुष्ट करने की होड़ लगी हुई है. उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान में पहले से ही भारतीय चैनलों के प्रसारण पर पाबंदी है. लेकिन उनकी भारी लोकप्रियता के चलते केबल वाले चोरी-छुपे सीरियल दिखाते हैं. हिन्दी फ़िल्मों की तरह भारतीय टेलीविजन के कार्यक्रमों की वीसीडी और डीवीडी की ज़बरदस्त बिक्री होती है और उनका केबलों पर पुनर्प्रसारण होता है.
हिन्दू पौराणिक कार्टूनों को प्रतिबंधित करने की पंजाब सरकार की इस ताज़ा पहल का अच्छा-ख़ासा विरोध हुआ है. पाकिस्तान की जानी-मानी कलाकार और लाहौर के प्रतिष्ठित नेशनल आर्ट्स कॉलेज की पूर्व प्राचार्य सलीमा हाशमी कहती हैं कि सरकार आतंकवाद के कारणों की पड़ताल के लिये समिति क्यों नहीं बनती. सरकार यह जानने के लिये समिति क्यों नहीं बनाती कि बच्चे आत्मघाती हमलावरों में कैसे तब्दील कर दिए जाते हैं. हाशमी ने तो यहाँ तक कह दिया कि भारत में पाकिस्तान से अधिक मुसलमान रहते हैं. जब भारतीय मुसलमानों के बच्चों पर हिन्दू पौराणिक चरित्रों का तथाकथित कुप्रभाव नहीं पड़ा तो फिर पाकिस्तानी बच्चे कैसे कुप्रभावित हो जायेंगे. उन्होंने सरकार को सलाह दी है कि बेकार की बातों में समय बरबाद करने से बेहतर है कि लोगों की समस्याओं पर ध्यान दिया जाये.
पाकिस्तानी टीवी के बड़े नामों में से एक शानाज़ रम्ज़ी के अनुसार ये पौराणिक चरित्र और कहानियां हिन्दू धर्म का हिस्सा हैं और उन्हें देखने से किसी मुसलमान का ईमान नहीं बदलेगा. उनके अफ़सोस जताया है कि पाकिस्तान एक असहिष्णु समाज बन गया है जहाँ अलग-अलग विचारों और समझदारियों के लिये जगह नहीं बची है. बड़ी संख्या में आम पाकिस्तानियों ने इन्टरनेट पर और अखबारों में पत्र लिख कर सरकारी रवैये का विरोध किया है. वहाँ के कुछ अखबारों ने भी लेखों और रिपोर्टों के द्वारा इस समिति के सामने सवाल उठाया है.
पाकिस्तान में लगभग दो करोड़ तिहत्तर लाख हिन्दू रहते हैं. इस फैसले से उनके ऊपर सीधा असर होगा. पाकिस्तान हिन्दू परिषद् के पूर्व महासचिव और सलाहकार परिषद् के सदस्य हरि मोटवाणी ने दुःख व्यक्त किया है कि पाकिस्तान की सरकारें और प्रशासन ऐसे फैसले लेने से पहले व्यापक सोच-विचार करें और यह ध्यान रखें कि इन पौराणिक चरित्रों से हिन्दू धर्म को अलग रख के नहीं देखा जा सकता. उनके अनुसार ऐसी पहलों से अल्पसंख्यकों में व्याप्त असुरक्षा की भावना बढ़ती है. लेकिन ऐसा नहीं माना जाना चाहिए कि पाकिस्तान में उम्मीद की कोई किरण नहीं बची है. दो बच्चियों के पिता लाहौर निवासी शाहिद अशरफ़ कहते हैं: 'मैं ऐसा पिता बनना चाहता हूँ जो अपने बच्चों को हर जानकारी उपलब्ध करा दे और उन्हें यह समझदारी और आज़ादी दे कि वे अपनी बेहतरी की दिशा ख़ुद तय करें'
पाकिस्तान के अस्तित्व का सबसे गंभीर संकट और भारत का मह्त्व
शेष नारायण सिंह
अब पाकिस्तान के राष्ट्रपति और सेनाध्यक्ष वही कहने लगे हैं जो भारत के सरकार को शक़ था और दुनिया भर के राजनीतिक टिप्पणीकार कई महीनों से कह रहे हैं . पाकिस्तानी सेनाओं के सुप्रीम कमांडर और राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी ने कहा है कि उनका देश एक तरफ धार्मिक अति उत्साही आतंकवाद और उग्रवाद से अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है और दूसरी तरफ भारी बाढ़ ने बहुत बड़े पैमाने पर तबाही मचाई है . पाकिस्तान की इस स्वीकारोक्ति के बाद भारत सरकार के विदेश नीति के नियामक चिंतित हैं कि अगर पाकिस्तान ने अपने हालात को ठीक न किया तो उसके अस्तित्व पर आया संकट गहरा जाएगा जिसकी वजह से इलाके में अस्थिरता का माहौल बन जाएगा. पाकिस्तानी राष्ट्रपति का यह बयान उनके देश के रक्षा दिवस के मौके पर दिए गए सन्देश के रूप में आया है. पाकिस्तान में ६ सितम्बर का दिन रक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता है . इसके पहले तो विजय दिवस के रूप में मनाया जाता था लेकिन बाद में जब पूरी दुनिया में इस तथाकथित विजय दिवस का मजाक उड़ाया जाने लगा तो बाद में इसे रक्षा दिवस का नाम दे दिया गया. इस सन्दर्भ में वयोवृद्ध पत्रकार खुशवंत सिंह का एक संस्मरण बहुत ही दिलचस्प है . साठ और सत्तर के दशक में खुशवंत सिंह टाइम्स ग्रुप की नामी पत्रिका इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इण्डिया के सम्पादक थे. और बम्बई में रहते थे. उसी दौर में किसी ६ सितम्बर के दिन उन्हें बम्बई स्थित पाकिस्तानी वाणिज्य दूतावास से दावतनामा मिला. वहां गए तो बेतरीन किस्म का खाना और दुनिया की सबसे महंगी शराब पीने को मिली. खुशवंत सिंह शराब के बहुत शौक़ीन हैं . बहुत खुश हुए और पूछा कि भाई यह दावत किस विजय की खुशी में है . उन्हें बताया गया कि पाकिस्तानी सेना ने जब १९६५ में भारतीय सेना पर विजय हासिल की थी, उसी दिन को पाकिस्तान में विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है.खुशवंत सिंह ने अपने संस्मरण में लिखा है कि उन्होंने लौट कर इस बारे में लिखा और सुझाया कि इस तरह के विजय दिवस पाकिस्तान को अक्सर मनाते रहना चाहिए . उन्होंने सुझाव दिया कि १९७१ की लड़ाई में भी पाकिस्तान को कोई विजय दिवस ढूंढ लेना चाहिए. बहरहाल खुशवंत सिंह की बात तो मजाक में टाल दी गयी लेकिन जब पूरी दुनिया में थकी हारी पाकिस्तानी फौज़ का मखौल उड़ने लगा तो पाकिस्तानी हुक्मरान ने विजय दिवस को पाकिस्तान के रक्षा दिवस के रूप में बदल दिया. रक्षा दिवस वाली बात भी कम दिलचस्प नहीं है हुआ यह था कि भारत के ऊपर १९६२ के चीनी हमले के बाद पाकिस्तानी तानाशाह जनरल अयूब खां को मुगालता हो गया था कि वे जब चाहें भारत को रौंद सकते हैं . इसी चक्कर में उन्होंने कश्मीरी नवयुवकों की शक्ल बनाकर करीब ३० हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों को जम्मू-कश्मीर में उतार दिया था . उसके बाद सैनिक हमला भी कर दिया . जब भारत की समझ में बात आई तो ज़बरदस्त जवाबी हमला हुआ. भारत की सेना लगभग लाहौर तक पंहुच गयी. ३ जाट रेजिमेंट ने तो इच्छोगिल नहर पार कर के लाहौर हवाई अड्डे की तरफ बढना शुरू कर दिया था . कुछ ही घंटों में हवाई अड्डा भारतीय सेना के कब्जे में हो जाता लेकिन अमरीका ने हस्तक्षेप किया और कहा कि कुछ घंटों के लिए युद्ध विराम कर दिया जाए जिस से अमरीकी नागरिकों को लाहौर से सुरक्षित निकाला जा सके. भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री यशवंतराव चह्वाण ने अमरीका को भरोसा दिलाया कि अमरीकी नागरिकों का कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन अमरीकी आग्रह को ठुकराना संभव नहीं था .वास्तव में यह अमरीकी चाल थी और इस बीच अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक दबाव का इंतजाम हो गया और लड़ाई रोक दी गयी. यह सब ६ सितम्बर १९६५ के दिन हुआ था . इसी लिए ६ सितमबर को पाकिस्तान में बहुत मह्त्व दिया जाता है. और रक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता हैं. पाकिस्तानी इतिहास के इतने महत्वपूर्ण दिन पर राष्ट्रपति का इतना निराशाजनक सन्देश चिंता का विषय है . ज़रदारी ने कहा है कि इस साल छः सितम्बर को पाकिस्तान बाकी वर्षों से ज्यादा खतरों का सामना कर रहा है . आतंकवादी और उग्रवादी मिलकर पाकिस्तानी समाज को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं . आम तौर पर फर्जी शेखी में मुब्तिला रहने वाले पाकिस्तानी फौज़ी अफसर भी इस बार डरे सहमे हुए हैं . सेना के मुखिया जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने अपने सन्देश में कहा है कि,' आतंरिक रूप से हम आतंकवाद और उग्रवाद का सामना कर रहे हैं जिसकी वजह से देश की सुरक्षा और अस्तित्व के लिए गंभीर ख़तरा पैदा हो गया है . ज़ाहिर है कि पाकित्सानी राह्स्त्र के सामने अपने ६३ साल के इतिहास का सबसे बड़ा संकट है और अगर कोई चमत्कार नहीं होता तो पाकिस्तान को तबाह होने से बचा पाना मुश्किल होगा . यहाँ यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि पाकिस्तान का तबाह होना किसी के हित में नहीं है. और अगर कुछ ज्यादा गड़बड़ हुआ तो सबसे ज्यादा परेशानी भारत को ही होगी. शायद इसी लिए भारत ने पाकिस्तान की बाढ़ राहत की कोशिश में मदद करने की पेशकश की है . हालांकि शुरू से ही भारत को दुश्मन के रूप में पेश कर रहे पाकिस्तानी हुक्मरान के लिए भारत से मदद लेना बहुत कठिन राजनीतिक फैसला साबित हो रहा है लेकिन पाकिस्तानी राष्ट्र के सामने जो संकट है उस से बचने का सबसे कारगर तरीका भारत की मदद से ही निकल सकता है . क्योंकि भारत के पास प्राकृतिक आपदा से लड़ने का अनुभव भी है और क्षमता भी. हो सकता है कि भारत की मदद लेकर पाकिस्तानी हुकूमत को आतंकवादियों से भी जान छुडाने का मौक़ा मिले . यह भी संभव है कि इस मुसीबात की घड़ी में अगर भारत को दोस्त के रूप में पेश किया जा सका तो पाकिस्तानी अवाम का बहुत फायदा होगा क्योंकि भारत की दुश्मनी का डर दिखाकर ही पाकिस्तानी फौज़ी अफसर राष्ट्रीय सम्पदा का दोहन करते हैं और राजनीतिक नेतृत्व को ब्लैकमेल भी करते हैं
अब पाकिस्तान के राष्ट्रपति और सेनाध्यक्ष वही कहने लगे हैं जो भारत के सरकार को शक़ था और दुनिया भर के राजनीतिक टिप्पणीकार कई महीनों से कह रहे हैं . पाकिस्तानी सेनाओं के सुप्रीम कमांडर और राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी ने कहा है कि उनका देश एक तरफ धार्मिक अति उत्साही आतंकवाद और उग्रवाद से अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है और दूसरी तरफ भारी बाढ़ ने बहुत बड़े पैमाने पर तबाही मचाई है . पाकिस्तान की इस स्वीकारोक्ति के बाद भारत सरकार के विदेश नीति के नियामक चिंतित हैं कि अगर पाकिस्तान ने अपने हालात को ठीक न किया तो उसके अस्तित्व पर आया संकट गहरा जाएगा जिसकी वजह से इलाके में अस्थिरता का माहौल बन जाएगा. पाकिस्तानी राष्ट्रपति का यह बयान उनके देश के रक्षा दिवस के मौके पर दिए गए सन्देश के रूप में आया है. पाकिस्तान में ६ सितम्बर का दिन रक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता है . इसके पहले तो विजय दिवस के रूप में मनाया जाता था लेकिन बाद में जब पूरी दुनिया में इस तथाकथित विजय दिवस का मजाक उड़ाया जाने लगा तो बाद में इसे रक्षा दिवस का नाम दे दिया गया. इस सन्दर्भ में वयोवृद्ध पत्रकार खुशवंत सिंह का एक संस्मरण बहुत ही दिलचस्प है . साठ और सत्तर के दशक में खुशवंत सिंह टाइम्स ग्रुप की नामी पत्रिका इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इण्डिया के सम्पादक थे. और बम्बई में रहते थे. उसी दौर में किसी ६ सितम्बर के दिन उन्हें बम्बई स्थित पाकिस्तानी वाणिज्य दूतावास से दावतनामा मिला. वहां गए तो बेतरीन किस्म का खाना और दुनिया की सबसे महंगी शराब पीने को मिली. खुशवंत सिंह शराब के बहुत शौक़ीन हैं . बहुत खुश हुए और पूछा कि भाई यह दावत किस विजय की खुशी में है . उन्हें बताया गया कि पाकिस्तानी सेना ने जब १९६५ में भारतीय सेना पर विजय हासिल की थी, उसी दिन को पाकिस्तान में विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है.खुशवंत सिंह ने अपने संस्मरण में लिखा है कि उन्होंने लौट कर इस बारे में लिखा और सुझाया कि इस तरह के विजय दिवस पाकिस्तान को अक्सर मनाते रहना चाहिए . उन्होंने सुझाव दिया कि १९७१ की लड़ाई में भी पाकिस्तान को कोई विजय दिवस ढूंढ लेना चाहिए. बहरहाल खुशवंत सिंह की बात तो मजाक में टाल दी गयी लेकिन जब पूरी दुनिया में थकी हारी पाकिस्तानी फौज़ का मखौल उड़ने लगा तो पाकिस्तानी हुक्मरान ने विजय दिवस को पाकिस्तान के रक्षा दिवस के रूप में बदल दिया. रक्षा दिवस वाली बात भी कम दिलचस्प नहीं है हुआ यह था कि भारत के ऊपर १९६२ के चीनी हमले के बाद पाकिस्तानी तानाशाह जनरल अयूब खां को मुगालता हो गया था कि वे जब चाहें भारत को रौंद सकते हैं . इसी चक्कर में उन्होंने कश्मीरी नवयुवकों की शक्ल बनाकर करीब ३० हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों को जम्मू-कश्मीर में उतार दिया था . उसके बाद सैनिक हमला भी कर दिया . जब भारत की समझ में बात आई तो ज़बरदस्त जवाबी हमला हुआ. भारत की सेना लगभग लाहौर तक पंहुच गयी. ३ जाट रेजिमेंट ने तो इच्छोगिल नहर पार कर के लाहौर हवाई अड्डे की तरफ बढना शुरू कर दिया था . कुछ ही घंटों में हवाई अड्डा भारतीय सेना के कब्जे में हो जाता लेकिन अमरीका ने हस्तक्षेप किया और कहा कि कुछ घंटों के लिए युद्ध विराम कर दिया जाए जिस से अमरीकी नागरिकों को लाहौर से सुरक्षित निकाला जा सके. भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री यशवंतराव चह्वाण ने अमरीका को भरोसा दिलाया कि अमरीकी नागरिकों का कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन अमरीकी आग्रह को ठुकराना संभव नहीं था .वास्तव में यह अमरीकी चाल थी और इस बीच अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक दबाव का इंतजाम हो गया और लड़ाई रोक दी गयी. यह सब ६ सितम्बर १९६५ के दिन हुआ था . इसी लिए ६ सितमबर को पाकिस्तान में बहुत मह्त्व दिया जाता है. और रक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता हैं. पाकिस्तानी इतिहास के इतने महत्वपूर्ण दिन पर राष्ट्रपति का इतना निराशाजनक सन्देश चिंता का विषय है . ज़रदारी ने कहा है कि इस साल छः सितम्बर को पाकिस्तान बाकी वर्षों से ज्यादा खतरों का सामना कर रहा है . आतंकवादी और उग्रवादी मिलकर पाकिस्तानी समाज को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं . आम तौर पर फर्जी शेखी में मुब्तिला रहने वाले पाकिस्तानी फौज़ी अफसर भी इस बार डरे सहमे हुए हैं . सेना के मुखिया जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने अपने सन्देश में कहा है कि,' आतंरिक रूप से हम आतंकवाद और उग्रवाद का सामना कर रहे हैं जिसकी वजह से देश की सुरक्षा और अस्तित्व के लिए गंभीर ख़तरा पैदा हो गया है . ज़ाहिर है कि पाकित्सानी राह्स्त्र के सामने अपने ६३ साल के इतिहास का सबसे बड़ा संकट है और अगर कोई चमत्कार नहीं होता तो पाकिस्तान को तबाह होने से बचा पाना मुश्किल होगा . यहाँ यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि पाकिस्तान का तबाह होना किसी के हित में नहीं है. और अगर कुछ ज्यादा गड़बड़ हुआ तो सबसे ज्यादा परेशानी भारत को ही होगी. शायद इसी लिए भारत ने पाकिस्तान की बाढ़ राहत की कोशिश में मदद करने की पेशकश की है . हालांकि शुरू से ही भारत को दुश्मन के रूप में पेश कर रहे पाकिस्तानी हुक्मरान के लिए भारत से मदद लेना बहुत कठिन राजनीतिक फैसला साबित हो रहा है लेकिन पाकिस्तानी राष्ट्र के सामने जो संकट है उस से बचने का सबसे कारगर तरीका भारत की मदद से ही निकल सकता है . क्योंकि भारत के पास प्राकृतिक आपदा से लड़ने का अनुभव भी है और क्षमता भी. हो सकता है कि भारत की मदद लेकर पाकिस्तानी हुकूमत को आतंकवादियों से भी जान छुडाने का मौक़ा मिले . यह भी संभव है कि इस मुसीबात की घड़ी में अगर भारत को दोस्त के रूप में पेश किया जा सका तो पाकिस्तानी अवाम का बहुत फायदा होगा क्योंकि भारत की दुश्मनी का डर दिखाकर ही पाकिस्तानी फौज़ी अफसर राष्ट्रीय सम्पदा का दोहन करते हैं और राजनीतिक नेतृत्व को ब्लैकमेल भी करते हैं
Labels:
अस्तित्व,
गंभीर संकट,
पाकिस्तान,
शेष नारायण सिंह
Sunday, September 5, 2010
संघी आतंकवाद का ढहता किला
शेष नारायण सिंह
संघी आतंकवाद की परीक्षा की घड़ी आ पंहुची है . राम जन्मभूमि को मुद्दा बना कर उन्होंने राजनीति के लिए नयी पिच तैयार करने का फैसला जनवरी १९८६ में ले लिया था वह अब ढहता नज़र आ रहा है. हुआ यह था कि जब इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस ने भी साफ्ट हिन्दुत्व का खेल चल दिया तो , बी जे पी और आर एस एस जैसे संगठनों के लिए कोई स्पेस नहीं बचा था. उन दिनों अरुण नेहरू नाम के एक कारपोरेट नेता कांग्रेस के भाग्यविधाता हुआ करते थे . जितनी समझ थी, उसके हिसाब से उन्होंने हिसाब किताब लगाया और देखा कि मुसलमानों के वोट की परवाह किये बिना अगर साफ़ तरीके से हिन्दूवादी पार्टी के ढाँचे में कांग्रेस को ढाल दिया जाए तो बहुत दिन तक राज किया जा सकता था. उन्होंने वही किया . बी जे पी ज़मींदोज़ हो गयी .अब आर एस एस को अपने लिए ज़मीन तलाशनी थी, लिहाज़ा उस वक़्त के संघी नेताओं की एक बड़ी बैठक कलकत्ता में बुलाई गयी जिसमें संघ के बड़े नेताओंके अलावा बी जे पी के लाल कृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी की भी पेशी हुई. तय पाया गया कि हिन्दुत्व का ऐसा खेल शुरू किया जाए जिसे कांग्रेस के साफ्ट हिंदुत्व वाली लाइन कहीं से चुनौती न दे सके. झाड़ पोंछ कर बाबरी मस्जिद का मुद्दा निकाला गया. और बात चल पड़ी. कांग्रेस के उस वक़्त के सबसे महान नेता, अरुण नेहरू को समझ में ही नहीं आया कि हमला हुआ कहाँ से है और अपनी और अपने साथियों की अज्ञानता को राजनीति बताने की गलती करने वाले यह कांग्रेसी नेता , संघी जाल में फंसते गए .भगवान् राम को केंद्र में रख कर संघियों ने राजनीतिक अभियान शुरू किया और कांग्रेसियों की अदूरदर्शिता के चलते बी जे पी राम जी की पार्टी बनती गयी. जिसका चुनावी फायदा बाद में संघी राजनीति को खूब हुआ. एक बात यहाँ साफ़ तरीके से समझ लेने की है कि आर एस एस या बी जे पी या वी एच पी वाले कभी नहीं चाहते थे कि अयोध्या में किसी तरह का राम मंदिर बने . उन्हें मुगालता था कि यह मामला बहुत दिनों तक खींचा जा सकता था और उसका राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं . जैसा कि काठ की हर एक हांडी के साथ होता है , यह संघी हांडी भी दुबारा नहीं चढ़ सकी. इस बीच बी जे पी की कई राज्यों में सरकारें बन गयीं . केंद्र में भी सरकार बनी लेकिन संविधान में बताये गए धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को मना करने की औकात एन डी ए सरकार की कभी नहीं हो सकी. इस बीच गुजरात में नरेंद्र मोदी ने संघी फासिज्म की शुरुआती चाल चल दी. मुसलमानों को सरकारी तौर पर ख़त्म करने का अपना काम शुरू कर दिया जिसकी वजह से पूरे देश में संघी आतंकवाद के खिलाफ माहौल बनने लगा . और आज जब देश के गृहमंत्री ने बहुत सारी परेशानियों के लिए संघी आतंकवाद को ज़िम्मेदार बता दिया तो आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाली राजनीतिक पार्टियां मुसीबत में हैं . अब वे केवल शब्दों की बात करने लगी हैं . पी चिदंबरम ने भगवा आतंकवाद कह दिया था, जो वास्तव में हिन्दू धर्म से जुड़ा रंग माना जाता था . लेकिन कांग्रेस ने फ़ौरन डैमेज कंट्रोल की बात शुरू कर दी. पार्टी के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने चिदंबरम के बयान से किनारा तो किया लेकिन एक दूसरे महासचिव को बात आगे बढाने का मौक़ा दे दिया. शायद इसी योजना के तहत कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने मुंबई की एक सभा में भगवा साफा बाँध कर दिन भर का कार्यक्रम चलाया और बाद में कहा कि हिन्दू धर्म इस देश में बहुत बड़ी आबादी का धर्म है लेकिन उनमें बहुत मामूली संख्या में लोग बी जे पी के साथ हैं . दिग्विजय सिंह ने कहा कि हिन्दुओं के अलावा अन्य धर्मों के लोग भी भगवा रंग को पवित्र मानते हैं इसलिए किसी एक पार्टी को भगवा रंग का इंचार्ज नहीं बनने दिया जाएगा. वह हमारा रंग है . और उस पर हर भारतवासी का बराबर का अधिकार है . दिग्विजय सिंह ने कहाकि संघी आतंकवाद को भगवा आतंकवाद कह कर पी चिदंबरम ने गलती की लेकिन यह भी सच है कि बी जे पी हर उस इंसान की प्रतिनिधि नहीं है जो भगवा रंग को सम्मान देता है. अगर कांग्रेस में यह सोच राजनीतिक स्तर पर तय हो चुकी है तो संघी राजनीति के लिए बहुत ही मुश्किल वक़्त आने वाला है .
कांग्रेस का यह नया रुख संघी सियासत के लिए अकेली मुसीबत नहीं है . इसी महीने बाबरी मस्जिद के मूल मुक़दमे पर भी फैसला आने वाला है . बी जे पी के बहुत सारे नेता अपनी बयानबाज़ी के खेल में लग गए हैं . जब अस्सी के दशक में बाबरी मस्जिद को राम जन्मभूमि बताने का काम शुरू हुआ था तो संघी भाइयों को सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि कभी केंद्र में उनकी सरकार बन जायेगी . वे तो इस मसले को चुनावी प्रचार के लिए इस्तेमाल करके कुछ राजनीतिक स्पेस घेरने के चक्कर में रहते थे लेकिन अब बात अलग है . अब उन्होंने केंद्र सरकार की सत्ता का सुखा देख लिया है और बहुत ज्यादा पैसा बटोर चुके हैं . अब उन्हें उम्मीद है कि शायद फिर वही वक़्त आ जाये. इसलिए उनके प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार , लाल कृष्ण आडवाणी ने अपने लोगों को सलाह दी है कि अयोध्या के बारे में मनमाना बान न दें . बाबरी मस्जिद के फैसले के बारे में आम तौर पर उम्मीद की जा रही है कि वह मुसलमानों के पक्ष में जाएगा. और संघी बिरादारी के लोग कहते पाए जा रहे हैं कि अगर फैसला खिलाफ हुआ तो वे उसे नहीं मानेगें . इसका मतलब यह हुआ कि संघ की नज़र में संविधान और कानून के राज का कोई मतलब नहीं है . आडवाणी इसी परिस्थिति की संभावना से घबडा गए लगते हैं . क्योंकि अगर उनकी पार्टी के छुटभैया नेताओं ने हल्ला गुल्ला करके साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का काम तेज़ कर दिया तो संघी राजनीति बिलकुल हाशिये पर आ जायेगी. लेकिन ब्लाक या जिला लेवल के नेताओं को बाबरी मस्जिद को राम जन्म भूमि बताकर लोगों की भावनाएं भड़काने के अलावा और कोई राजनीति आती ही नहीं है .जबकि संघ के राष्ट्रीय नेता अब राज करने की बात करने लगे हैं और संविधान के खिलाफ जाकर बोलेगें तो उन्हें कोई नहीं पूछेगा. वैसे भी तथाकथित एन डी ए में नीतीश कुमार भी हैं जो आजकल मुसलमानों के वोट की बात कर रहे हैं और पिछली एन डी ए के ज़्यादातर साथी बी जे पी को छोड़ देगें अगर उन्होंने देखा कि बी जे पी वाले संविधान का मजाक उड़ा रहे हैं.
इस तरह हम देखते हैं मौजूदा राजनीतिक स्थिति ऐसी है जिसमें संघी राजनीति के लिए कोई स्पेस नहीं बच रहा है . वे भगवान् राम का नाम लेकर हिन्दुओं के हित चिन्तक बनने की कोशिश कर रहे थे लेकिन कांग्रेस के ताज़ा राजनीतिक रुख से साफ़ है कि अब वह पार्टी भी हिन्दू धर्म और हिंदुत्व के फर्क को जनता के सामने पेश कर संघी सियासत को बेनकाब करने का मन बना चुकी है . उधर साम्प्रदायिकता और दंगों के नाम पर जुटाए गए बाबा लोग भी बी जे पी से अलग हो जायेगें जब उनकी समझ में आ जाएगा कि बाकी राजनीतिक पार्टियों का हिन्दू धर्म से कोई विरोध नहीं है और दिग्विजय सिंह की अगुवाई में कांग्रेस ने इस मुहिम पर काम शुरू कर दिया है . यानी जिस दिशा में राजनीति चल रही है अगर वह सही तरीके से चलती रही तो बी जे पी के पास प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित टाइप कुछ लोगों के सिवा कुछ नहीं बचेगा. और बी जे पी शुद्ध रूप से संघी आतंकवाद की पोषक पार्टी ही रह जायेगी
संघी आतंकवाद की परीक्षा की घड़ी आ पंहुची है . राम जन्मभूमि को मुद्दा बना कर उन्होंने राजनीति के लिए नयी पिच तैयार करने का फैसला जनवरी १९८६ में ले लिया था वह अब ढहता नज़र आ रहा है. हुआ यह था कि जब इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस ने भी साफ्ट हिन्दुत्व का खेल चल दिया तो , बी जे पी और आर एस एस जैसे संगठनों के लिए कोई स्पेस नहीं बचा था. उन दिनों अरुण नेहरू नाम के एक कारपोरेट नेता कांग्रेस के भाग्यविधाता हुआ करते थे . जितनी समझ थी, उसके हिसाब से उन्होंने हिसाब किताब लगाया और देखा कि मुसलमानों के वोट की परवाह किये बिना अगर साफ़ तरीके से हिन्दूवादी पार्टी के ढाँचे में कांग्रेस को ढाल दिया जाए तो बहुत दिन तक राज किया जा सकता था. उन्होंने वही किया . बी जे पी ज़मींदोज़ हो गयी .अब आर एस एस को अपने लिए ज़मीन तलाशनी थी, लिहाज़ा उस वक़्त के संघी नेताओं की एक बड़ी बैठक कलकत्ता में बुलाई गयी जिसमें संघ के बड़े नेताओंके अलावा बी जे पी के लाल कृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी की भी पेशी हुई. तय पाया गया कि हिन्दुत्व का ऐसा खेल शुरू किया जाए जिसे कांग्रेस के साफ्ट हिंदुत्व वाली लाइन कहीं से चुनौती न दे सके. झाड़ पोंछ कर बाबरी मस्जिद का मुद्दा निकाला गया. और बात चल पड़ी. कांग्रेस के उस वक़्त के सबसे महान नेता, अरुण नेहरू को समझ में ही नहीं आया कि हमला हुआ कहाँ से है और अपनी और अपने साथियों की अज्ञानता को राजनीति बताने की गलती करने वाले यह कांग्रेसी नेता , संघी जाल में फंसते गए .भगवान् राम को केंद्र में रख कर संघियों ने राजनीतिक अभियान शुरू किया और कांग्रेसियों की अदूरदर्शिता के चलते बी जे पी राम जी की पार्टी बनती गयी. जिसका चुनावी फायदा बाद में संघी राजनीति को खूब हुआ. एक बात यहाँ साफ़ तरीके से समझ लेने की है कि आर एस एस या बी जे पी या वी एच पी वाले कभी नहीं चाहते थे कि अयोध्या में किसी तरह का राम मंदिर बने . उन्हें मुगालता था कि यह मामला बहुत दिनों तक खींचा जा सकता था और उसका राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं . जैसा कि काठ की हर एक हांडी के साथ होता है , यह संघी हांडी भी दुबारा नहीं चढ़ सकी. इस बीच बी जे पी की कई राज्यों में सरकारें बन गयीं . केंद्र में भी सरकार बनी लेकिन संविधान में बताये गए धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को मना करने की औकात एन डी ए सरकार की कभी नहीं हो सकी. इस बीच गुजरात में नरेंद्र मोदी ने संघी फासिज्म की शुरुआती चाल चल दी. मुसलमानों को सरकारी तौर पर ख़त्म करने का अपना काम शुरू कर दिया जिसकी वजह से पूरे देश में संघी आतंकवाद के खिलाफ माहौल बनने लगा . और आज जब देश के गृहमंत्री ने बहुत सारी परेशानियों के लिए संघी आतंकवाद को ज़िम्मेदार बता दिया तो आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाली राजनीतिक पार्टियां मुसीबत में हैं . अब वे केवल शब्दों की बात करने लगी हैं . पी चिदंबरम ने भगवा आतंकवाद कह दिया था, जो वास्तव में हिन्दू धर्म से जुड़ा रंग माना जाता था . लेकिन कांग्रेस ने फ़ौरन डैमेज कंट्रोल की बात शुरू कर दी. पार्टी के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने चिदंबरम के बयान से किनारा तो किया लेकिन एक दूसरे महासचिव को बात आगे बढाने का मौक़ा दे दिया. शायद इसी योजना के तहत कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने मुंबई की एक सभा में भगवा साफा बाँध कर दिन भर का कार्यक्रम चलाया और बाद में कहा कि हिन्दू धर्म इस देश में बहुत बड़ी आबादी का धर्म है लेकिन उनमें बहुत मामूली संख्या में लोग बी जे पी के साथ हैं . दिग्विजय सिंह ने कहा कि हिन्दुओं के अलावा अन्य धर्मों के लोग भी भगवा रंग को पवित्र मानते हैं इसलिए किसी एक पार्टी को भगवा रंग का इंचार्ज नहीं बनने दिया जाएगा. वह हमारा रंग है . और उस पर हर भारतवासी का बराबर का अधिकार है . दिग्विजय सिंह ने कहाकि संघी आतंकवाद को भगवा आतंकवाद कह कर पी चिदंबरम ने गलती की लेकिन यह भी सच है कि बी जे पी हर उस इंसान की प्रतिनिधि नहीं है जो भगवा रंग को सम्मान देता है. अगर कांग्रेस में यह सोच राजनीतिक स्तर पर तय हो चुकी है तो संघी राजनीति के लिए बहुत ही मुश्किल वक़्त आने वाला है .
कांग्रेस का यह नया रुख संघी सियासत के लिए अकेली मुसीबत नहीं है . इसी महीने बाबरी मस्जिद के मूल मुक़दमे पर भी फैसला आने वाला है . बी जे पी के बहुत सारे नेता अपनी बयानबाज़ी के खेल में लग गए हैं . जब अस्सी के दशक में बाबरी मस्जिद को राम जन्मभूमि बताने का काम शुरू हुआ था तो संघी भाइयों को सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि कभी केंद्र में उनकी सरकार बन जायेगी . वे तो इस मसले को चुनावी प्रचार के लिए इस्तेमाल करके कुछ राजनीतिक स्पेस घेरने के चक्कर में रहते थे लेकिन अब बात अलग है . अब उन्होंने केंद्र सरकार की सत्ता का सुखा देख लिया है और बहुत ज्यादा पैसा बटोर चुके हैं . अब उन्हें उम्मीद है कि शायद फिर वही वक़्त आ जाये. इसलिए उनके प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार , लाल कृष्ण आडवाणी ने अपने लोगों को सलाह दी है कि अयोध्या के बारे में मनमाना बान न दें . बाबरी मस्जिद के फैसले के बारे में आम तौर पर उम्मीद की जा रही है कि वह मुसलमानों के पक्ष में जाएगा. और संघी बिरादारी के लोग कहते पाए जा रहे हैं कि अगर फैसला खिलाफ हुआ तो वे उसे नहीं मानेगें . इसका मतलब यह हुआ कि संघ की नज़र में संविधान और कानून के राज का कोई मतलब नहीं है . आडवाणी इसी परिस्थिति की संभावना से घबडा गए लगते हैं . क्योंकि अगर उनकी पार्टी के छुटभैया नेताओं ने हल्ला गुल्ला करके साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का काम तेज़ कर दिया तो संघी राजनीति बिलकुल हाशिये पर आ जायेगी. लेकिन ब्लाक या जिला लेवल के नेताओं को बाबरी मस्जिद को राम जन्म भूमि बताकर लोगों की भावनाएं भड़काने के अलावा और कोई राजनीति आती ही नहीं है .जबकि संघ के राष्ट्रीय नेता अब राज करने की बात करने लगे हैं और संविधान के खिलाफ जाकर बोलेगें तो उन्हें कोई नहीं पूछेगा. वैसे भी तथाकथित एन डी ए में नीतीश कुमार भी हैं जो आजकल मुसलमानों के वोट की बात कर रहे हैं और पिछली एन डी ए के ज़्यादातर साथी बी जे पी को छोड़ देगें अगर उन्होंने देखा कि बी जे पी वाले संविधान का मजाक उड़ा रहे हैं.
इस तरह हम देखते हैं मौजूदा राजनीतिक स्थिति ऐसी है जिसमें संघी राजनीति के लिए कोई स्पेस नहीं बच रहा है . वे भगवान् राम का नाम लेकर हिन्दुओं के हित चिन्तक बनने की कोशिश कर रहे थे लेकिन कांग्रेस के ताज़ा राजनीतिक रुख से साफ़ है कि अब वह पार्टी भी हिन्दू धर्म और हिंदुत्व के फर्क को जनता के सामने पेश कर संघी सियासत को बेनकाब करने का मन बना चुकी है . उधर साम्प्रदायिकता और दंगों के नाम पर जुटाए गए बाबा लोग भी बी जे पी से अलग हो जायेगें जब उनकी समझ में आ जाएगा कि बाकी राजनीतिक पार्टियों का हिन्दू धर्म से कोई विरोध नहीं है और दिग्विजय सिंह की अगुवाई में कांग्रेस ने इस मुहिम पर काम शुरू कर दिया है . यानी जिस दिशा में राजनीति चल रही है अगर वह सही तरीके से चलती रही तो बी जे पी के पास प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित टाइप कुछ लोगों के सिवा कुछ नहीं बचेगा. और बी जे पी शुद्ध रूप से संघी आतंकवाद की पोषक पार्टी ही रह जायेगी
Labels:
.शेष नारायण सिंह,
संघी आतंकवाद,
साफ्ट हिन्दुत्व
Saturday, September 4, 2010
दिल्ली विश्वविद्यालय में कांग्रेस की हार उसके लिए खतरे की घंटी है
शेष नारायण सिंह
दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनाव आम तौर पर दिल्ली राज्य की नब्ज़ माने जाते हैं . पिछले ४३ साल से यही होता रहा है , जिस पार्टी के छात्र संगठन को छात्र संघ चुनाव में जीत मिलती है उसकी हवा अच्छी मानी जाती है और अगर उसी साल दिल्ली की विधान सभा, या नगर निगम के चुनाव हों तो नतीजों पर छात्र संघ नतीजों की छाप देखी जा सकती है . इस बार भी छात्र संघ के चुनावों में बी जे पी की छात्र शाखा,अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में प्रतिद्वंद्वी एनएसयूआई को झटका दिया है और छात्रसंघ के तीन पदों पर जीत रिकार्ड की है . इसका मतलब यह हुआ कि अगर अगले एकाध साल में दिल्ली विधान सभा या लोकसभा के चुनाव होते तो वहां भी कांग्रेस को झटका लग सकता था . लेकिन अभी यह चुनाव दूर हैं इसलिए कांग्रेसी नेता कुछ सुकून महसूस कर सकते हैं . लेकिन यह तय है कि बहुत ही अच्छे मतों से जीतकर आई शीला दीक्षित के लिए यह एक बेहतरीन मौक़ा है जब वे सोचें कि उनकी पार्टी की सरकार दिल्ली में थोक में गलतियाँ कर रही है .सबसे बड़ा घपला तो कामनवेल्थ खेलों की तैयारी में ही है . कामनवेल्थ खेलों में हर तरह का कांग्रेसी लूट मचाये हुए है . सुरेश कलमाडी की अपनी हेराफेरी की दुकान चल रही है, केंद्र के शहरी विकास मंत्रालय और सी पी डब्ल्यू डी के अधिकारी अलग लूट पाट में लगे हुए हैं .खेलों की तैयारी के काम का एक बड़ा हिस्सा दिल्ली सरकार और एन डी एम सी के पास है .शीला दीक्षित ने इन महक़मों का काम अपनी सरकार के उन चुनिन्दा घूसखोर अफसरों के हवाले कर दिया है जिनका नाम घूस की विधा में पूरे देश में जाना जाता है . इस तरह के राष्ट्रीय मह्त्व के जो भी काम होते हैं उनमें इमरजेंसी में काम कराने की व्यवस्था घूसजीवी अफसर अपने हिसाब से कर लेता है . होता यह है कि कुछ काम पूरा नहीं किया जाता और जब समय सीमा का दबाव पड़ता है तो अफसर मनमाने रेट पर पहले से सेट ठेकेदार को काम दे देता है और जो भी लूट होती है उसमें अफसर और ठेकेदार मिल बाँट कर खा लेते हैं . यह काम बार बार किया जा चुका है और यह आजमाया हुआ नुस्खा है . घूस के बड़े बड़े ज्ञाता इस काम को जानते हैं .इसका कोई मैनुअल तो तैयार नहीं किया गया है लेकिन ज़्यादातर सरकारी महक़मों के कर्मचारी इसको अच्छी तरह जानते हैं . जिन लोगों ने १९८२ के एशियाई खेलों की तैयारी का काम देखा है, उन्हें मालूम है कि इमरजेंसी खरीद के नाम पर किस तरह से अफसरों ने खेल किया था . तत्कालीन प्रधान मंत्री के पुत्र , राजीव गाँधी खुद सारे काम पर नज़र रखे हुए थे लेकिन दाल में नमक के बराबर घूस का काम हुआ और खेलों के पहले सब कुछ तैयार हो गया. आडिटोरियम में कुछ काम रह गया था तो अरुण नेहरू और राजीव गाँधी खुद खड़े रहकर काम करवाते रहे और समय से काम पूरा हो गया. उस बार भी लगभग हर प्रोजेक्ट में इमरजेंसी खरीद हुई थी लेकिन वह कुल काम का एक मामूली हिस्सा थी . इस बार खेल दूसरा था . हर प्रोजेक्ट का बड़ा हिस्सा अभी पेंडिंग पड़ा है और अफसरों और नेताओं की भ्रष्टाचार टीम को उम्मीद थी कि इमरजेंसी खरीद के सहारे खूब माल काटा जायेगा . लेकिन सब काम गड़बड़ हो गया. कामनवेल्थ खेलों के उदघाटन में अब कुछ दिन रह गए हैं ,जबकि खेलों से सम्बंधित किसी भी काम को पूरा नहीं किया जा सका है . और हर केस में कारण भ्रष्टाचार ही है . दूसरी बात यह है कि खेलों की तैयारी के लिए काम शुरू करने के पहले इतने फालतू के काम ले लिए गए जिसको पूरा कर पाना अब असंभव लगता है . ज़ाहिर है कि गलत अफसरों और सलाहकारों की वजह से कांग्रेस और उसकी सरकार मुसीबत में है . मीडिया भी अपनी भूमिका सही तरीके से निभा रहा है . जहां गलती हुई है उसे पब्लिक डोमेन में ईमानदारी से डाला जा रहा है . जिसकी वजह से दिल्ली और केंद्र की कांग्रेस की सरकारों की छवि बहुत ही खराब हो गयी है . इस बात की पूरी संभावना है कि कामनवेल्थ खेलों में सरकार की असफलता का नतीजा ही है जिसकी वजह से कांग्रेसी दिल्ली विश्वविद्यालय में कहीं के नहीं रहे. यह एक खतरे की घंटी है जिसे सोनिया गाँधी और शीला दीक्षित को गंभीरता से लेना होगा वरना एक बार फिर कांग्रेस विपक्ष में होगी और ऐसे लोग राज कर रहे होंगें जिन्होंने देश को तोड़ने की बार बार कोशिश की है .
दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनाव आम तौर पर दिल्ली राज्य की नब्ज़ माने जाते हैं . पिछले ४३ साल से यही होता रहा है , जिस पार्टी के छात्र संगठन को छात्र संघ चुनाव में जीत मिलती है उसकी हवा अच्छी मानी जाती है और अगर उसी साल दिल्ली की विधान सभा, या नगर निगम के चुनाव हों तो नतीजों पर छात्र संघ नतीजों की छाप देखी जा सकती है . इस बार भी छात्र संघ के चुनावों में बी जे पी की छात्र शाखा,अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में प्रतिद्वंद्वी एनएसयूआई को झटका दिया है और छात्रसंघ के तीन पदों पर जीत रिकार्ड की है . इसका मतलब यह हुआ कि अगर अगले एकाध साल में दिल्ली विधान सभा या लोकसभा के चुनाव होते तो वहां भी कांग्रेस को झटका लग सकता था . लेकिन अभी यह चुनाव दूर हैं इसलिए कांग्रेसी नेता कुछ सुकून महसूस कर सकते हैं . लेकिन यह तय है कि बहुत ही अच्छे मतों से जीतकर आई शीला दीक्षित के लिए यह एक बेहतरीन मौक़ा है जब वे सोचें कि उनकी पार्टी की सरकार दिल्ली में थोक में गलतियाँ कर रही है .सबसे बड़ा घपला तो कामनवेल्थ खेलों की तैयारी में ही है . कामनवेल्थ खेलों में हर तरह का कांग्रेसी लूट मचाये हुए है . सुरेश कलमाडी की अपनी हेराफेरी की दुकान चल रही है, केंद्र के शहरी विकास मंत्रालय और सी पी डब्ल्यू डी के अधिकारी अलग लूट पाट में लगे हुए हैं .खेलों की तैयारी के काम का एक बड़ा हिस्सा दिल्ली सरकार और एन डी एम सी के पास है .शीला दीक्षित ने इन महक़मों का काम अपनी सरकार के उन चुनिन्दा घूसखोर अफसरों के हवाले कर दिया है जिनका नाम घूस की विधा में पूरे देश में जाना जाता है . इस तरह के राष्ट्रीय मह्त्व के जो भी काम होते हैं उनमें इमरजेंसी में काम कराने की व्यवस्था घूसजीवी अफसर अपने हिसाब से कर लेता है . होता यह है कि कुछ काम पूरा नहीं किया जाता और जब समय सीमा का दबाव पड़ता है तो अफसर मनमाने रेट पर पहले से सेट ठेकेदार को काम दे देता है और जो भी लूट होती है उसमें अफसर और ठेकेदार मिल बाँट कर खा लेते हैं . यह काम बार बार किया जा चुका है और यह आजमाया हुआ नुस्खा है . घूस के बड़े बड़े ज्ञाता इस काम को जानते हैं .इसका कोई मैनुअल तो तैयार नहीं किया गया है लेकिन ज़्यादातर सरकारी महक़मों के कर्मचारी इसको अच्छी तरह जानते हैं . जिन लोगों ने १९८२ के एशियाई खेलों की तैयारी का काम देखा है, उन्हें मालूम है कि इमरजेंसी खरीद के नाम पर किस तरह से अफसरों ने खेल किया था . तत्कालीन प्रधान मंत्री के पुत्र , राजीव गाँधी खुद सारे काम पर नज़र रखे हुए थे लेकिन दाल में नमक के बराबर घूस का काम हुआ और खेलों के पहले सब कुछ तैयार हो गया. आडिटोरियम में कुछ काम रह गया था तो अरुण नेहरू और राजीव गाँधी खुद खड़े रहकर काम करवाते रहे और समय से काम पूरा हो गया. उस बार भी लगभग हर प्रोजेक्ट में इमरजेंसी खरीद हुई थी लेकिन वह कुल काम का एक मामूली हिस्सा थी . इस बार खेल दूसरा था . हर प्रोजेक्ट का बड़ा हिस्सा अभी पेंडिंग पड़ा है और अफसरों और नेताओं की भ्रष्टाचार टीम को उम्मीद थी कि इमरजेंसी खरीद के सहारे खूब माल काटा जायेगा . लेकिन सब काम गड़बड़ हो गया. कामनवेल्थ खेलों के उदघाटन में अब कुछ दिन रह गए हैं ,जबकि खेलों से सम्बंधित किसी भी काम को पूरा नहीं किया जा सका है . और हर केस में कारण भ्रष्टाचार ही है . दूसरी बात यह है कि खेलों की तैयारी के लिए काम शुरू करने के पहले इतने फालतू के काम ले लिए गए जिसको पूरा कर पाना अब असंभव लगता है . ज़ाहिर है कि गलत अफसरों और सलाहकारों की वजह से कांग्रेस और उसकी सरकार मुसीबत में है . मीडिया भी अपनी भूमिका सही तरीके से निभा रहा है . जहां गलती हुई है उसे पब्लिक डोमेन में ईमानदारी से डाला जा रहा है . जिसकी वजह से दिल्ली और केंद्र की कांग्रेस की सरकारों की छवि बहुत ही खराब हो गयी है . इस बात की पूरी संभावना है कि कामनवेल्थ खेलों में सरकार की असफलता का नतीजा ही है जिसकी वजह से कांग्रेसी दिल्ली विश्वविद्यालय में कहीं के नहीं रहे. यह एक खतरे की घंटी है जिसे सोनिया गाँधी और शीला दीक्षित को गंभीरता से लेना होगा वरना एक बार फिर कांग्रेस विपक्ष में होगी और ऐसे लोग राज कर रहे होंगें जिन्होंने देश को तोड़ने की बार बार कोशिश की है .
Labels:
.शेष नारायण सिंह,
कांग्रेस,
दिल्ली विश्वविद्यालय
Friday, September 3, 2010
Thursday, September 2, 2010
मीडिया दंगे न भड़काने की कसम खाए
अनिल चमड़िया
(भड़ास4मीडिया )
: वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने की अपील : अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जमीन पर राम मंदिर बनाने के विवाद ने हजारों जानें अब तक ले ली हैं। इस विवाद ने सामाजिक ताने बाने को क्षति पहुंचाने में भी बड़ी भूमिका अदा की है।
साम्प्रदायिक सदभाव को नष्ट किया है। राजनीति के सामाजिक कल्याण के बुनियादी उद्देश्यों से भटकाने में कारगर मदद की है। 1991 में नई आर्थिक नीतियों के लागू करने के फैसलें में इस मुद्दे ने मदद इस रूप में की कि समाज धार्मिक कट्टरता के आधार पर बंट गया और उसने इस साम्राज्यवादी साजिश को एकताबद्ध होकर विफल करने की जिम्मेदारी से चूक गया। 17 सितंबर को अयोध्या –बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला संभावित है। ऐसे में साम्प्रदायिक और साम्राज्यवादी समर्थक शक्तियां फिर से 1992 जैसे हालात पैदा करना चाहती है।
हम चाहते हैं कि मीडिया की उस समय जैसी भूमिका थी हम उस पर अंकुश ऱखने के लिए पहले से निगरानी रखें। हमें पता है कि साम्प्रदायिक तनाव बढाने और समाज में साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है। कई सरकारी और गैर सरकारी जांच समितियों ने भी इसकी पुष्टि की है कि किस तरह से मीडिया ने साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में अहम भूमिका अदा की। हम चाहते हैं कि मीडिया का कोई हिस्सा अब इस साजिश को अंजाम नहीं दे सकें।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) ने इस मायने में एक सार्थक पहल की है कि मीडिया में अयोध्या से संबंधी खबरें और टिप्पणियों पर नजर रखेंगी। वह उनके साम्प्रदायिक मंसूबों को उसका असर दिखाने से पहले ही धवस्त करेंगी। मीडिया स्टडीज ग्रुप ने इस पहल का स्वागत किया है। उसने देश भर में अपने सदस्यों और लोकतंत्र समर्थक पत्रकार बिरादरी के सदस्यों के नाम अपील जारी की है कि वह इस मुहिम में शामिल हो। हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू या किसी भी भारतीय भाषा में प्रकाशित और प्रसारित खबरों पर वे नजर रखें। उन खबरों या टिप्पणियों का तत्काल विश्लेषण प्रस्तुत करें कि वे कैसे साम्प्रदायिक उन्माद में शामिल हो रही है। वैसी खबरों और टिप्पणियों के प्रति हम लोगों को सचेत करें।
ब्लाग्स, वेबसाईट के अलावा समाचार पत्रों में वैसी खबरों और टिप्पणियों पर अपना विश्लेषण हम प्रस्तुत करेंगे। हम अपने सदस्यों और दूसरे जागरूक लोगों से अपील करते हैं कि वे ऐसी खबरों और टिप्पणियों के बारे में हमें तत्काल सूचित करें और उन पर अपना विश्लेषण भी भेंजे।
मीडिया स्टडीज ग्रुप की तरफ से अनिल चमड़िया द्वारा जारी
(भड़ास4मीडिया )
: वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने की अपील : अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जमीन पर राम मंदिर बनाने के विवाद ने हजारों जानें अब तक ले ली हैं। इस विवाद ने सामाजिक ताने बाने को क्षति पहुंचाने में भी बड़ी भूमिका अदा की है।
साम्प्रदायिक सदभाव को नष्ट किया है। राजनीति के सामाजिक कल्याण के बुनियादी उद्देश्यों से भटकाने में कारगर मदद की है। 1991 में नई आर्थिक नीतियों के लागू करने के फैसलें में इस मुद्दे ने मदद इस रूप में की कि समाज धार्मिक कट्टरता के आधार पर बंट गया और उसने इस साम्राज्यवादी साजिश को एकताबद्ध होकर विफल करने की जिम्मेदारी से चूक गया। 17 सितंबर को अयोध्या –बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला संभावित है। ऐसे में साम्प्रदायिक और साम्राज्यवादी समर्थक शक्तियां फिर से 1992 जैसे हालात पैदा करना चाहती है।
हम चाहते हैं कि मीडिया की उस समय जैसी भूमिका थी हम उस पर अंकुश ऱखने के लिए पहले से निगरानी रखें। हमें पता है कि साम्प्रदायिक तनाव बढाने और समाज में साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है। कई सरकारी और गैर सरकारी जांच समितियों ने भी इसकी पुष्टि की है कि किस तरह से मीडिया ने साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में अहम भूमिका अदा की। हम चाहते हैं कि मीडिया का कोई हिस्सा अब इस साजिश को अंजाम नहीं दे सकें।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) ने इस मायने में एक सार्थक पहल की है कि मीडिया में अयोध्या से संबंधी खबरें और टिप्पणियों पर नजर रखेंगी। वह उनके साम्प्रदायिक मंसूबों को उसका असर दिखाने से पहले ही धवस्त करेंगी। मीडिया स्टडीज ग्रुप ने इस पहल का स्वागत किया है। उसने देश भर में अपने सदस्यों और लोकतंत्र समर्थक पत्रकार बिरादरी के सदस्यों के नाम अपील जारी की है कि वह इस मुहिम में शामिल हो। हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू या किसी भी भारतीय भाषा में प्रकाशित और प्रसारित खबरों पर वे नजर रखें। उन खबरों या टिप्पणियों का तत्काल विश्लेषण प्रस्तुत करें कि वे कैसे साम्प्रदायिक उन्माद में शामिल हो रही है। वैसी खबरों और टिप्पणियों के प्रति हम लोगों को सचेत करें।
ब्लाग्स, वेबसाईट के अलावा समाचार पत्रों में वैसी खबरों और टिप्पणियों पर अपना विश्लेषण हम प्रस्तुत करेंगे। हम अपने सदस्यों और दूसरे जागरूक लोगों से अपील करते हैं कि वे ऐसी खबरों और टिप्पणियों के बारे में हमें तत्काल सूचित करें और उन पर अपना विश्लेषण भी भेंजे।
मीडिया स्टडीज ग्रुप की तरफ से अनिल चमड़िया द्वारा जारी
हिन्दुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है ,हिन्दू धर्म एक महान धर्म
शेष नारायण सिंह
हिन्दुओं का ठेकेदार बनने की आर एस एस और उसके मातहत संगठनों की कोशिश को चुनौती मिल रही है. भगवान् राम के नाम पर राजनीति खेल कर सत्ता तक पंहुचने वाली बी जे पी के लिए और कोई तरकीब तलाशनी पड़ सकती है क्योंकि कांग्रेस की नयी लीडरशिप हिन्दू धर्म के प्रतीकों पर बी जे पी के एकाधिकार को मंज़ूर करने को तैयार नहीं है . कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने साफ़ कहा है कि हिन्दू धर्म पर किसी राजनीतिक पार्टी के एकाधिकार के सिद्धांत को वे बिलकुल नहीं स्वीकार करते. दिग्विजय सिंह एक मंजे हुए राजनीतिक नेता हैं , इसलिए यह उम्मीद करना कि वे अपनी निजी राय बता रहे थे, ठीक नहीं होगा. यह उनकी पार्टी की ही राय है .दिग्विजय सिंह ने सार्वजनिक रूप से भी कहा और मुझे जोर देकर बताया कि भगवा रंग बहुत हे एपवित्र रंग है और उसे किसी के पार्टी की संपत्ति मानने की बात का मैं विरोध करता हूँ . उन्होंने कहा कि धार्मिक आस्था के बल पर मैं राजनीतिक फसल काटने के पक्ष में नहीं हूँ और न ही किसी पार्टी को यह अवसर देना चाहता हूँ . उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म पर हर हिन्दू का बराबर का अधिकार है और उसके नाम पर आर एस एस और बी जे पी वालों को राजनीति नहीं करने दी जायेगी . दिग्विजय सिंह ने कहा कि हिन्दू महासभा के पूर्व अध्यक्ष , वी डी सावरकर ने हिन्दुत्व नाम की राजनीतिक विचारधारा की स्थापना की थी . जिसके बल पर वे राजनीतिक सपने देखते थे, अगर आर एस एस वाले चाहें तो उसको अपना सकते हैं , उन्होंने साफ़ कहा कि वे हिन्दुत्व को हिन्दू धर्म के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म और हिंदुत्व में फर्क है.
कांग्रेस पार्टी में इस ताज़ा सोच पर काम होना शुरू हो गया है . मुंबई में एक गैर राजनीतिक सभा में दिग्विजय सिंह दिन भर बैठे रहे जिसमें वे खुद केसरिया साफा बंधे हुए थे . अखिल भारतीय क्षत्रिय फेडरेशन के दूसरे सम्मलेन में उन्होंने छत्रपति शिवाजी और महाराणा प्रताप की वीरता का गुणगान किया और दावा किया कि वे खुद क्षत्रिय हैं और अपने महान पूर्वज क्षत्रियों का सम्मान काना उनका बहुत ही पवित्र कर्त्तव्य है . दिग्विजय सिंह का यह पैंतरा संघ की राजनीति की चूल ढीली करने की हैसियत रखता है .मुंबई में अगर कांग्रेस का एक बड़ा नेता डंके की चोट पर शिवाजी के सम्मान में भाषण दे रहा है कि तो शिवाजी का वारिस बनकर राजनीतिक दुकानदारी करने वालों के लिए मुश्किल खडी हो सकती है . संघी राजनीति की अजीब मुश्किल है . उनके पास बीसवीं सदी में तो कोई ऐसा हीरो था नहीं जो आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुआ हो . या उनके किसी नेता को आज़ादी के लिए लड़ते हुए एक दिन के लिए भी जेल जाना पड़ा हो . इसलिए यह लोग ऐतिहासिक महापुरुषों से अपने आपको जोड़ कर उनका वारिस बनने की बात करते रहते हैं . महाराणा प्रताप और शिवाजी की वंदना संघी राजनीति की इसी मजबूरी के चलते की जाती है . यह कोशिश इन लोगों ने 1986 के बाद जोर शोर से शुरू कर दी थी .हिन्दुत्व वादियों को अस्सी के दशक में सफलता इसलिए मिली कि उस वक़्त की बड़ी पार्टियों ने राम जन्मभूमि की इनकी राजनीति का विरोध बहुत ही गैर जिम्मेदाराना तरीके से किया . उत्तर प्रदेश और केंद्र में बहुत मजबूती के साथ राजनीति के शिखर पर बैठी कांग्रेस ने भी संघ परिवार , ख़ास कर विश्व हिन्दू परिषद् को राम के नाम पर एकाधिकार के खेल में वाक ओवर दे दिया. शायद ऐसा इसलिए हुआ कि उस वक़्त के कांग्रेस के मुखिया राजीव गांधी के पास योग्य सलाहकारों की कमी थी. अरुण नेहरू, अरुण सिंह टाइप लोग उनके सलाहकार थे , जिन बेचारों को राजनीति की बारीकियों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. नतीजा यह हुआ कि तीन चौथाई बहुमत वाली कांग्रेस चुनाव हार गयी और दो सीट जीतकर आई बी जे पी ने दिल्ली में विश्वनाथ प्रताप सिंह की कठपुतली सरकार बनवा दी. फिर तो आर एस एस की हिंदुत्व का ठेकेदार बनने की कोशिश शुरू हो गयी और कांग्रेस और बाकी राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेता, राम का नाम आते ही बी जे पी का ज़िक्र करने लगे. और बी जे पी को भगवान राम की पार्टी बनने का मौक़ा मिल गया . यह काम बी जे पी और उसके मालिक आर एस एस की मर्जी के हिसाब से हो रहा था यही उनकी योजना थी .जिसका फायदा बी जे पी को हुआ . लेकिन अब सोनिया गांधी के राज में कांग्रेस में ज़्यादातर फैसले सोच विचार कर लिए जा रहे हैं . राजीव गांधी की तरह दोस्तों की बात को राष्टीय राजनीति पर नहीं थोपा जा रहा है. जिसका नतीजा यह है कि एक सोची समझी रण नीति के तहत बी जे पी ,शिव सेना और बाकी साम्प्रदायिक पार्टियों को उनके साम्प्रदायिक रंग में रंगे मुहावरों से खारिज किया जा रहा है . और अगर कांग्रेस अपनी इस योजना में सफल हो गयी तो और बी जे पी की उस कोशिश को जिसके तहत वह हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में अपने को स्लाट कर रही थी , नाकाम कर दिया तो इस देश की राजनीति का भला तो होगा ही, आर एस एस को नए सिरे से महापुरुषों की खोज करनी पड़ेगी
हिन्दुओं का ठेकेदार बनने की आर एस एस और उसके मातहत संगठनों की कोशिश को चुनौती मिल रही है. भगवान् राम के नाम पर राजनीति खेल कर सत्ता तक पंहुचने वाली बी जे पी के लिए और कोई तरकीब तलाशनी पड़ सकती है क्योंकि कांग्रेस की नयी लीडरशिप हिन्दू धर्म के प्रतीकों पर बी जे पी के एकाधिकार को मंज़ूर करने को तैयार नहीं है . कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने साफ़ कहा है कि हिन्दू धर्म पर किसी राजनीतिक पार्टी के एकाधिकार के सिद्धांत को वे बिलकुल नहीं स्वीकार करते. दिग्विजय सिंह एक मंजे हुए राजनीतिक नेता हैं , इसलिए यह उम्मीद करना कि वे अपनी निजी राय बता रहे थे, ठीक नहीं होगा. यह उनकी पार्टी की ही राय है .दिग्विजय सिंह ने सार्वजनिक रूप से भी कहा और मुझे जोर देकर बताया कि भगवा रंग बहुत हे एपवित्र रंग है और उसे किसी के पार्टी की संपत्ति मानने की बात का मैं विरोध करता हूँ . उन्होंने कहा कि धार्मिक आस्था के बल पर मैं राजनीतिक फसल काटने के पक्ष में नहीं हूँ और न ही किसी पार्टी को यह अवसर देना चाहता हूँ . उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म पर हर हिन्दू का बराबर का अधिकार है और उसके नाम पर आर एस एस और बी जे पी वालों को राजनीति नहीं करने दी जायेगी . दिग्विजय सिंह ने कहा कि हिन्दू महासभा के पूर्व अध्यक्ष , वी डी सावरकर ने हिन्दुत्व नाम की राजनीतिक विचारधारा की स्थापना की थी . जिसके बल पर वे राजनीतिक सपने देखते थे, अगर आर एस एस वाले चाहें तो उसको अपना सकते हैं , उन्होंने साफ़ कहा कि वे हिन्दुत्व को हिन्दू धर्म के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म और हिंदुत्व में फर्क है.
कांग्रेस पार्टी में इस ताज़ा सोच पर काम होना शुरू हो गया है . मुंबई में एक गैर राजनीतिक सभा में दिग्विजय सिंह दिन भर बैठे रहे जिसमें वे खुद केसरिया साफा बंधे हुए थे . अखिल भारतीय क्षत्रिय फेडरेशन के दूसरे सम्मलेन में उन्होंने छत्रपति शिवाजी और महाराणा प्रताप की वीरता का गुणगान किया और दावा किया कि वे खुद क्षत्रिय हैं और अपने महान पूर्वज क्षत्रियों का सम्मान काना उनका बहुत ही पवित्र कर्त्तव्य है . दिग्विजय सिंह का यह पैंतरा संघ की राजनीति की चूल ढीली करने की हैसियत रखता है .मुंबई में अगर कांग्रेस का एक बड़ा नेता डंके की चोट पर शिवाजी के सम्मान में भाषण दे रहा है कि तो शिवाजी का वारिस बनकर राजनीतिक दुकानदारी करने वालों के लिए मुश्किल खडी हो सकती है . संघी राजनीति की अजीब मुश्किल है . उनके पास बीसवीं सदी में तो कोई ऐसा हीरो था नहीं जो आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुआ हो . या उनके किसी नेता को आज़ादी के लिए लड़ते हुए एक दिन के लिए भी जेल जाना पड़ा हो . इसलिए यह लोग ऐतिहासिक महापुरुषों से अपने आपको जोड़ कर उनका वारिस बनने की बात करते रहते हैं . महाराणा प्रताप और शिवाजी की वंदना संघी राजनीति की इसी मजबूरी के चलते की जाती है . यह कोशिश इन लोगों ने 1986 के बाद जोर शोर से शुरू कर दी थी .हिन्दुत्व वादियों को अस्सी के दशक में सफलता इसलिए मिली कि उस वक़्त की बड़ी पार्टियों ने राम जन्मभूमि की इनकी राजनीति का विरोध बहुत ही गैर जिम्मेदाराना तरीके से किया . उत्तर प्रदेश और केंद्र में बहुत मजबूती के साथ राजनीति के शिखर पर बैठी कांग्रेस ने भी संघ परिवार , ख़ास कर विश्व हिन्दू परिषद् को राम के नाम पर एकाधिकार के खेल में वाक ओवर दे दिया. शायद ऐसा इसलिए हुआ कि उस वक़्त के कांग्रेस के मुखिया राजीव गांधी के पास योग्य सलाहकारों की कमी थी. अरुण नेहरू, अरुण सिंह टाइप लोग उनके सलाहकार थे , जिन बेचारों को राजनीति की बारीकियों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. नतीजा यह हुआ कि तीन चौथाई बहुमत वाली कांग्रेस चुनाव हार गयी और दो सीट जीतकर आई बी जे पी ने दिल्ली में विश्वनाथ प्रताप सिंह की कठपुतली सरकार बनवा दी. फिर तो आर एस एस की हिंदुत्व का ठेकेदार बनने की कोशिश शुरू हो गयी और कांग्रेस और बाकी राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेता, राम का नाम आते ही बी जे पी का ज़िक्र करने लगे. और बी जे पी को भगवान राम की पार्टी बनने का मौक़ा मिल गया . यह काम बी जे पी और उसके मालिक आर एस एस की मर्जी के हिसाब से हो रहा था यही उनकी योजना थी .जिसका फायदा बी जे पी को हुआ . लेकिन अब सोनिया गांधी के राज में कांग्रेस में ज़्यादातर फैसले सोच विचार कर लिए जा रहे हैं . राजीव गांधी की तरह दोस्तों की बात को राष्टीय राजनीति पर नहीं थोपा जा रहा है. जिसका नतीजा यह है कि एक सोची समझी रण नीति के तहत बी जे पी ,शिव सेना और बाकी साम्प्रदायिक पार्टियों को उनके साम्प्रदायिक रंग में रंगे मुहावरों से खारिज किया जा रहा है . और अगर कांग्रेस अपनी इस योजना में सफल हो गयी तो और बी जे पी की उस कोशिश को जिसके तहत वह हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में अपने को स्लाट कर रही थी , नाकाम कर दिया तो इस देश की राजनीति का भला तो होगा ही, आर एस एस को नए सिरे से महापुरुषों की खोज करनी पड़ेगी
Labels:
दिग्विजय सिंह,
धर्म,
शेष नारायण सिंह,
हिन्दुत्व,
हिन्दू धर्म
Saturday, August 28, 2010
जोर ज़बरदस्ती के खिलाफ खडी है एक मुस्लिम लड़की
शेष नारायण सिंह
सामाजिक कार्यकर्ता, शबनम हाशमी ने मांग की है कि केरल के कासरगोड जिले की महिला रायना खासी की हिफाज़त का ज़िम्मा केरल की सरकार ले. शबनम हाशमी के संगठन , अनहद के एक बयान में कहा गया है कि पुरातन पंथियों के एक संगठन की ओर से रायना को पिछले एक साल से धमकी मिल रही है और उन्हें आगाह किया जा रहा है कि वे हिजाब में रहें . अनहद ने ज़बरदस्ती परदे में रहने के इस पुरातनपंथी संगठन के महिला विरोधी और असंवैधानिक काम की निंदा की है .उन्होंने कहा कि यह बहुत चिंता की बात है केरल जैसे प्रगतिशील समाज में साम्प्रदायिक ताक़ते सिर उठा रही हैं और संविधान के खिलाफ काम करने की हिम्मत जुटा पा रही हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि पिछले बीस वर्षों में इस तरह की साम्प्रदायिक ताक़तें अपने प्रभाव के क्षेत्र में विस्तार कर रही हैं और उस से भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि उन्हने धर्मनिरपेक्ष ताक़तें चुनौती नहीं दे रही हैं . यह बहुत ज़रूरी है कि साम्प्रदायिक सोच की बुनियाद पर औरतों के खिलाफ इस तरह का काम करने वाले इन साम्प्रदायिक ताक़तों को ठिकाने लगाया जाए. रायना खासी को मुस्लिम पुरातनपंथी नेता पिछले साल भर से परेशान कर रहे हैं लेकिन सरकार ने उसकी सुरक्षा के लिए कोई क़दम नहीं उठाया . अनहद ने कहा है कि उन्हें भरोसा है कि रायना के अलावा भी बहुत सारी इअसी लडकियां होगीं जिन्हें ज़बरदस्ती परदे में रहने को कहा जा रहा होगा. वह एक बहादुर लडकी है और उसने कथ्मुला व्यवस्था को जवाब दिया है रयान के जनतांत्रिक देश की नागरिक है और उसे इस बात की आज़ादी है कि वह जो कपडे चाहे पहन सकती है . केरल सरकार को चाहिए कि उसे पूरी सुरक्षा दे और धर्म निरपेक्षता पर हो रहे हमले को फ़ौरन लगाम दे.
सामाजिक कार्यकर्ता, शबनम हाशमी ने मांग की है कि केरल के कासरगोड जिले की महिला रायना खासी की हिफाज़त का ज़िम्मा केरल की सरकार ले. शबनम हाशमी के संगठन , अनहद के एक बयान में कहा गया है कि पुरातन पंथियों के एक संगठन की ओर से रायना को पिछले एक साल से धमकी मिल रही है और उन्हें आगाह किया जा रहा है कि वे हिजाब में रहें . अनहद ने ज़बरदस्ती परदे में रहने के इस पुरातनपंथी संगठन के महिला विरोधी और असंवैधानिक काम की निंदा की है .उन्होंने कहा कि यह बहुत चिंता की बात है केरल जैसे प्रगतिशील समाज में साम्प्रदायिक ताक़ते सिर उठा रही हैं और संविधान के खिलाफ काम करने की हिम्मत जुटा पा रही हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि पिछले बीस वर्षों में इस तरह की साम्प्रदायिक ताक़तें अपने प्रभाव के क्षेत्र में विस्तार कर रही हैं और उस से भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि उन्हने धर्मनिरपेक्ष ताक़तें चुनौती नहीं दे रही हैं . यह बहुत ज़रूरी है कि साम्प्रदायिक सोच की बुनियाद पर औरतों के खिलाफ इस तरह का काम करने वाले इन साम्प्रदायिक ताक़तों को ठिकाने लगाया जाए. रायना खासी को मुस्लिम पुरातनपंथी नेता पिछले साल भर से परेशान कर रहे हैं लेकिन सरकार ने उसकी सुरक्षा के लिए कोई क़दम नहीं उठाया . अनहद ने कहा है कि उन्हें भरोसा है कि रायना के अलावा भी बहुत सारी इअसी लडकियां होगीं जिन्हें ज़बरदस्ती परदे में रहने को कहा जा रहा होगा. वह एक बहादुर लडकी है और उसने कथ्मुला व्यवस्था को जवाब दिया है रयान के जनतांत्रिक देश की नागरिक है और उसे इस बात की आज़ादी है कि वह जो कपडे चाहे पहन सकती है . केरल सरकार को चाहिए कि उसे पूरी सुरक्षा दे और धर्म निरपेक्षता पर हो रहे हमले को फ़ौरन लगाम दे.
Labels:
रायना खासी,
शबनम हाशमी,
शेष नारायण सिंह,
हिजाब
Thursday, August 26, 2010
अगर एक मंत्री भी ईमानदार हो तो बदल सकते हैं हालात
शेष नारायण सिंह
अगर दिल्ली दरबार में एक मंत्री भी अपना काम इमानदारी से करने का फैसला कर ले तो बहुत कुछ बदल सकता है . आज के ६३ साल पहले व्यवस्था बदल देने के लिए सत्ता में आई कांग्रेस के शुरुआती मंत्री तो बहुत ही इमानदार थे ,शायद इसीलिये बहुत सारी चीज़ें ऐसी हुईं जिनकी उम्मीद आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले वीरों ने देखी थी . लेकिन वक़्त के साथ बेईमानों की संख्या बढ़ने लगी और बहुत सारे फैसले पैसे के बल पर होने लगे. पिछले २० वर्षों से तो दिल्ली दरबार में ऐसा माहौल है कि पूंजीपति वर्ग जो चाहे करवा सकता है . सरकार के मंत्रियों की हालत यह है कि किसी भी फैसले को बदल देने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता . घूस पात देकर खरबपति बनने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि इसी वजह से हो रही है . ऐसा ही मामला उस आदमी का है जो मुंबई में कबाड़े का काम करता था लेकिन आज देश के सबसे समृद्ध भारतीयों में उसकी गिनती होने लगी है . इस तरह के उद्यमियों की खास बात यह है कि ये लोग सभी पार्टियों में बराबर की पैठ रखते हैं . ताज़ा मामला स्टरलाईट और वेदान्त अल्युमिनियम का है जिनकी अपने आपको को छः गुना करने की योजनाओं को इमानदारी का झटका लग गया है क्योंकि केंद्र सरकार के एक मंत्री ने तय कर लिया कि नियम कानून में हेराफेरी करके किसी को लाभ लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती. वेदान्त अल्युमिनियम के मालिक अनिल अग्रवाल की कंपनी में कभी गृहमंत्री पी चिदंबरम निदेशक रह चुके हैं और एन डी ए की सरकार के एक मंत्री या कई मंत्रियों ने उन्हें माटी के मोल भारत की सबसे पुरानी सरकारी अल्युमिनियम कंपनी बेच दी थी. दरअसल उसी बालको( भारत अल्युमिनियम कंपनी ) को सस्ते खरीद कर ही उन्होंने सम्पन्नता की अपनी दौड़ को ताक़त दी थी. उस दौर में कांग्रेस ने उनके काम का कोई विरोध नहीं किया था क्योंकि उनकी कंपनी में कांग्रेस के ताक़तवर नेता, पी चिदंबरम एक निदेशक के रूप में काम कर रहे थे. उडीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक से भी उनके बहुत अच्छे रिश्ते थे . ज़ाहिर है उनकी मनमानी की गाड़ी अपनी मर्जी से बेख़ौफ़ चल रही थी . लेकिन अब सब कुछ गड़बड़ हो चुका है . पर्यावरण मंत्री ने वेदान्त कंपनी और उसके मालिक को कानून की इज्ज़त करने का ककहरा पढ़ा दिया है . उडीसा में औने पौने दामों में मिले बाक्साईट की खुदाई के लाइसेंसों को सरकार ने गैरकानूनी करार दे दिया है और अब उनकी रफ़्तार लगभग शून्य पर आ गयी है . अजीब बात यह है कि उनकी लक्ष्मी की साधना में सरकारी क्षेत्र की कंपनी ओडीसा माइनिंग कारपोरेशन ने भी कारिन्दा बनने का फैसला कर लिया था . यह भी माना जाता है कि दिल्ली दरबार से उन्हें बिना किसी रोक टोक के चलते रहने का आशीर्वाद मिला हुआ था . लेकिन अब बात बिगड़ चुकी है . पर्यावरण मंत्री, जयराम रमेश ने ओडीसा माइनिंग कारपोरेशन का वह लाइसेंस रद्द कर दिया है जो नियमगिरि पहाड़ियों से बाक्साईट की खुदाई करके अनिल अग्रवाल की वेदान्त अल्युमिनियम की लान्जीगढ़ रिफाइनरी को बाक्साईट सप्लाई करने के लिए दिया गया था. मंत्री ने नए लाइसेंस को तो रद्द कर ही दिया है एक लाख टन की क्षमता वाले प्लांट को मिले पुराने लाइसेंस को रद्द करने के लिए भी कार्रवाई शुरू कर दिया है .तीन जिलों में फ़ैली बाक्साईट की इन खदानों में डोंगरिया और खूँटिया जाति के आदिवासी रहते हैं और उनकी जीविका इन्हीं जंगलों की वजह से चलती है . वैसे भी पर्यावरण के जानकारों का कहना है कि कि अंधाधुंध खुदाई से इस इलाके के वातावरण को जो नुकसान होगा उका कोई हिसाब ही नहीं लगाया जा सकता.
इस सारे मामले में मीडिया के एक हिस्से का रोल बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण रहा है , खासकर टेलिविज़न न्यूज़ के एक वर्ग के लोग इस तरह बात कर रहे हैं मानों अगर वेदान्त का आर्थिक नुकसान हो गया तो सर्व नाश हो जाएगा. उनकी तरफ से अनिल अग्रवाल की कंपनियों के शेयर में हो रही गिरावट को इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे दुनिया पर कोई भारी संकट आ गया है . ज़ाहिर है कि सरकार ,राजनीतिक दल और मीडिया सब की मदद से आम आदमी, खासकर आदिवासी भारतीयों की संपत्ति को हड़प कर यह कम्पनियां सम्पन्नता के इस मुकाम तक पंहुची हैं . ज़रुरत इस बात की है कि जयराम रमेश की तरह के कुछ और लोग सार्वजनिक जीवन में आयें और न्याय पर आधारित राज काज के निजाम की स्थापना को .
अगर दिल्ली दरबार में एक मंत्री भी अपना काम इमानदारी से करने का फैसला कर ले तो बहुत कुछ बदल सकता है . आज के ६३ साल पहले व्यवस्था बदल देने के लिए सत्ता में आई कांग्रेस के शुरुआती मंत्री तो बहुत ही इमानदार थे ,शायद इसीलिये बहुत सारी चीज़ें ऐसी हुईं जिनकी उम्मीद आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले वीरों ने देखी थी . लेकिन वक़्त के साथ बेईमानों की संख्या बढ़ने लगी और बहुत सारे फैसले पैसे के बल पर होने लगे. पिछले २० वर्षों से तो दिल्ली दरबार में ऐसा माहौल है कि पूंजीपति वर्ग जो चाहे करवा सकता है . सरकार के मंत्रियों की हालत यह है कि किसी भी फैसले को बदल देने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता . घूस पात देकर खरबपति बनने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि इसी वजह से हो रही है . ऐसा ही मामला उस आदमी का है जो मुंबई में कबाड़े का काम करता था लेकिन आज देश के सबसे समृद्ध भारतीयों में उसकी गिनती होने लगी है . इस तरह के उद्यमियों की खास बात यह है कि ये लोग सभी पार्टियों में बराबर की पैठ रखते हैं . ताज़ा मामला स्टरलाईट और वेदान्त अल्युमिनियम का है जिनकी अपने आपको को छः गुना करने की योजनाओं को इमानदारी का झटका लग गया है क्योंकि केंद्र सरकार के एक मंत्री ने तय कर लिया कि नियम कानून में हेराफेरी करके किसी को लाभ लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती. वेदान्त अल्युमिनियम के मालिक अनिल अग्रवाल की कंपनी में कभी गृहमंत्री पी चिदंबरम निदेशक रह चुके हैं और एन डी ए की सरकार के एक मंत्री या कई मंत्रियों ने उन्हें माटी के मोल भारत की सबसे पुरानी सरकारी अल्युमिनियम कंपनी बेच दी थी. दरअसल उसी बालको( भारत अल्युमिनियम कंपनी ) को सस्ते खरीद कर ही उन्होंने सम्पन्नता की अपनी दौड़ को ताक़त दी थी. उस दौर में कांग्रेस ने उनके काम का कोई विरोध नहीं किया था क्योंकि उनकी कंपनी में कांग्रेस के ताक़तवर नेता, पी चिदंबरम एक निदेशक के रूप में काम कर रहे थे. उडीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक से भी उनके बहुत अच्छे रिश्ते थे . ज़ाहिर है उनकी मनमानी की गाड़ी अपनी मर्जी से बेख़ौफ़ चल रही थी . लेकिन अब सब कुछ गड़बड़ हो चुका है . पर्यावरण मंत्री ने वेदान्त कंपनी और उसके मालिक को कानून की इज्ज़त करने का ककहरा पढ़ा दिया है . उडीसा में औने पौने दामों में मिले बाक्साईट की खुदाई के लाइसेंसों को सरकार ने गैरकानूनी करार दे दिया है और अब उनकी रफ़्तार लगभग शून्य पर आ गयी है . अजीब बात यह है कि उनकी लक्ष्मी की साधना में सरकारी क्षेत्र की कंपनी ओडीसा माइनिंग कारपोरेशन ने भी कारिन्दा बनने का फैसला कर लिया था . यह भी माना जाता है कि दिल्ली दरबार से उन्हें बिना किसी रोक टोक के चलते रहने का आशीर्वाद मिला हुआ था . लेकिन अब बात बिगड़ चुकी है . पर्यावरण मंत्री, जयराम रमेश ने ओडीसा माइनिंग कारपोरेशन का वह लाइसेंस रद्द कर दिया है जो नियमगिरि पहाड़ियों से बाक्साईट की खुदाई करके अनिल अग्रवाल की वेदान्त अल्युमिनियम की लान्जीगढ़ रिफाइनरी को बाक्साईट सप्लाई करने के लिए दिया गया था. मंत्री ने नए लाइसेंस को तो रद्द कर ही दिया है एक लाख टन की क्षमता वाले प्लांट को मिले पुराने लाइसेंस को रद्द करने के लिए भी कार्रवाई शुरू कर दिया है .तीन जिलों में फ़ैली बाक्साईट की इन खदानों में डोंगरिया और खूँटिया जाति के आदिवासी रहते हैं और उनकी जीविका इन्हीं जंगलों की वजह से चलती है . वैसे भी पर्यावरण के जानकारों का कहना है कि कि अंधाधुंध खुदाई से इस इलाके के वातावरण को जो नुकसान होगा उका कोई हिसाब ही नहीं लगाया जा सकता.
इस सारे मामले में मीडिया के एक हिस्से का रोल बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण रहा है , खासकर टेलिविज़न न्यूज़ के एक वर्ग के लोग इस तरह बात कर रहे हैं मानों अगर वेदान्त का आर्थिक नुकसान हो गया तो सर्व नाश हो जाएगा. उनकी तरफ से अनिल अग्रवाल की कंपनियों के शेयर में हो रही गिरावट को इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे दुनिया पर कोई भारी संकट आ गया है . ज़ाहिर है कि सरकार ,राजनीतिक दल और मीडिया सब की मदद से आम आदमी, खासकर आदिवासी भारतीयों की संपत्ति को हड़प कर यह कम्पनियां सम्पन्नता के इस मुकाम तक पंहुची हैं . ज़रुरत इस बात की है कि जयराम रमेश की तरह के कुछ और लोग सार्वजनिक जीवन में आयें और न्याय पर आधारित राज काज के निजाम की स्थापना को .
Labels:
.शेष नारायण सिंह,
अल्युमिनियम,
जयराम रमेश,
पी चिदंबरम,
वेदान्त,
स्टरलाईट
Subscribe to:
Posts (Atom)