शेष नारायण सिंह
संसद में जनगणना २०११ बहस का मुद्दा बन गयी है . कुछ राजनीतिक पार्टियों के कुछ नेता जाति पर आधारित जनगणना की वकालत कर रहे हैं . अजीब बात यह है कि जाति के आधार पर जनगणना करने वाले जिस राजनीतिक दार्शनिक की बातों को कार्यरूप देने की बात करते हैं , उसने जाति प्रथा के विनाश की बात की थी.. लोक सभा में जाति आधारित जनगणना के सबसे प्रबल समर्थक , मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद और शरद यादव हैं . यह तीनों ही नेता डॉ राम मनोहर लोहिया के समाजवाद के नाम पर राजनीति करते हैं और उनकी विरासत के वारिस बनने का दम भरते हैं . लेकिन सच्चाई यह है कि यह लोग डॉ लोहिया की राजनीतिक सोच के सबसे बड़े विरोधी हैं .लोहिया की सोच का बुनियादी आधार था कि समाज से गैर बराबरी ख़त्म हो . इसके लिए उन्होंने सकारात्मक हस्तक्षेप की बात की थी . उनका कहना था कि जाति की संस्था का आधुनिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास में कोई योगदान नहीं है , वास्तव में पिछले हज़ारों वर्षों का इतिहास बताता है कि ब्राह्मणों और शासक वर्गों ने जाति की संस्था का इस्तेमाल करके ही पिछड़े वर्गों और महिलाओं का शोषण किया था . इसलिए लोहिया ने जाति के विनाश को अपनी राजनीतिक और सामाजिक सोच की बुनियाद में रखा था . वे दलित, किसान और मुसलमान जातियों को पिछड़ा मानते थे . उन्होंने यह भी बहुत जोर दे कर कहा था कि महिला किसी भी जाति की हो, वह भी पिछड़े वर्गों की श्रेणी में ही आयेगी क्योंकि समाज के सभी वर्गों में महिलाओं को अपमानित किया जाता था और उन्हें दोयम दर्जे का इंसान समझा जाता था . इस लिए उन्होंने इन लोगों के प्रति सकारात्मक दखल की बात की थी लेकिन वे इन वर्गों को अनंत काल तक पिछड़ा नहीं न्रखना चाहते थे . उनकी कोशिश थी कि यह वर्ग समाज के शोषक वर्गों के बराबर हो जाएँ. अपने इसी सोच को अमली जामा पहनाने के लिए उन्होंने कांग्रेस से अलग हो कर सोशलिस्ट पार्टी के गठन की प्रक्रिया में शामिल होने का फैसला किया था. . वे जाति के आधार पर शोषण का हर स्तर पर विरोध करते थे . लेकिन उनके नाम पर सियासत करने वालों का हाल देखिये . उनकी विरासत का दावा करने वाली सभी पार्टियां जाति व्यवस्था को जारी रखने में ही अपनी भलाई देख रही हैं क्योंकि जाति के गणित के आधार पर ही आजकल चुनाव लड़े और जीते जा रहे हैं . इन पार्टियों के सभी नेताओं ने महिलाओं के आरक्षण के बिल का भी विरोध किया है . उनका बहाना यह है कि जब तक पिछड़ी जाति की महिलाओं को अलग से आरक्षण नहीं दे दिया जाता , वे महिला आरक्षण बिल को पास नहीं होने देंगें .. इस मामले में यह सभी लोग डॉ लोहिया के खिलाफ खड़े पाए जा रहे हैं क्योंकि लोहिया ने तो साफ़ कहा था कि सभी जातियों की महिलायें पिछड़ी हुई हैं और उन्हें आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए .
जाति को जिंदा रखने की कोशिश करने वाली एक दूसरी पार्टी है बहुजन समाज पार्टी . इस पार्टी की स्थापना घोषित रूप से डॉ. भीम राव आम्बेडकर की राजनीतिक सोच को लागू करने के लिए की गयी है . डॉ आम्बेडकर की राजनीति का स्थायी भाव जाति प्रथा का विनाश था. उनकी कालजयी किताब "; जाति का विनाश " भारतीय राजनीति का एक बहुत ही ज़रूरी दस्तावेज़ है . जिसमें उन्होंने समाज में गैरबराबरी के लिए जाति की संस्था को ही ज़िम्मेदार ठहराया है. जाति की स्थापना से लेकर बीसवीं सदी तक जाति व्यवस्था ने जो नुकसान किया है , उस सबका पूरा लेखा जोखा, डॉ आम्बेडकर की किताबों में मिल जाता है . उन्होंने जाति के विनाश के लिए बिलकुल वैज्ञानिक तरीके सुझाए थे और उनका कहना था कि जब तक जाति की संस्था को जड़ से उखाड़ नहीं फेंका जाएगा तब तक देश का राजनीतिक विकास नहें हो सकता . उनके नाम पर सियासत करने वाली बहुजन समाज पार्टी से उम्मीद की जा रही था कि वह अपने आदर्श राजनेता और दार्शनिक ,डॉ आम्बेडकर की बातों को लागूकरेगी . लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बहुजन समाज पार्टी की नेता , मायावती ने जिस तरह की योजनायें बनायी हैं उस से जाति व्यवस्था कभी ख़त्म ही नहीं होगी. उन्होंने न केवल दलितों को अलग थलग रखने की कोशिश शुरू कर दी है बल्कि अन्य जातियों को भी बनाए रखना चाहती हैं .उन्होंने अलग अलग जातियों के संगठन बना रखे हैं और सबको जातीय आधार पर संबोधित करके राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रही हैं .. ज़ाहिर है कि उनकी रूचि भी जातियों को बनाए रखने में ही है .
जाति के आधार पर जनगणना करवाने वालों को समय की गति को उल्टा करने का हक नहीं है . समाज के अपने गतिविज्ञान की वजह से ही जाति के विनाश की प्रक्रिया की शुरुआत हो चुकी है . पिछले ५० वर्षों में ऐसे बहुत सारे लोगों ने आपस में विवाह कर लिया है जो अलग अलग जातियों के हैं और समाज में इज्ज़त के ज़िंदगी जी रहे हैं . उनके बच्चों को किस जाति में रखा जायेगा. आम तौर पर मर्दवादी सोच के लोग कह देते हैं कि अपने बाप की जाति को ही बच्चों को स्वीकार कर लेना चाहिए लेकिन इसे स्वीकार करने में बहुत बड़ी दिक्क़त है . जिन बच्चों के माँ बाप ने अलग जाति में शादी करने का फैसला किया था उन्होंने जाति प्रथा के शिकंजे को चुनौती दी थी . अब उन बहादुर नौजवानों की अगली पीढी को जाति के ज़ंजीर में कस देने की कोशिश का हर तरह से विरोध किया जाना चाहिए . इसलिए समय की गति की धार में चलते हुए जाति वादी सोच की मौत बहुत करीब है और जाति को आधार बना कर राजनीति करने वालों को अब किसी और सोच को विकसित करने की कोशिश करनी चाहिए . जाति के आधार पर सियासत की रोटी सेंकने वालों को अब भूखों मरने के लिए तैयार रहना चाहिए . क्योंकि जातिप्रथा को अब कोई भी जिंदा नहीं रख सकेगा . उसका अंत बहुत करीब है .
Friday, May 7, 2010
Wednesday, May 5, 2010
बेटी को कमज़ोर समझने वाले बहुत नीच होते हैं
शेष नारायण सिंह
नयी दिल्ली के एक अखबार में काम करने वाली एक लड़की को उसके घर वालों ने मार डाला. वह झारखण्ड से अपने सपनों को साकार करने के लिए दिल्ली आई थी. जहां उसने देश के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान से पढाई की और एक सम्मानित अखबार में नौकरी कर ली. उसकी शिक्षा दीक्षा में उसके माता पिता ने पूरी तरह से सहयोग किया , खर्च बर्च किया, लड़की को दिल्ली भेजा जो उनके लिए एक बड़ा फैसला था. लेकिन इसके बाद वे चाहते थे कि लड़की उनके हुक्म की गुलाम बनी रहे, उनकी शेखी बढाने में काम आये, रिश्तेदारों के बीच वे डींग मार सकें कि उनकी बेटी ने बहुत ही आला दर्जे के पढाई की है और दिल्ली के एक नामी अखबार में काम करती है लेकिन उस लड़की को बाकी आज़ादी देने के पक्ष में वे नहीं थे ..वे चाहते थे कि वे अपनी पसंद के किसी ऊंचे परिवार में उसकी शादी करें और उनका मुकामी रंग और चोखा हो . जहालत का आलम यह था कि जब उन्हें लगा कि उनकी हर ख्वाहिश नहीं पूरी हो रही है तो उन्होंने अपनी ही बेटी को मार डाला. . पुलिस ने लड़की की माँ को गिरफ्तार कर लिया है और उसके परिवार के अन्य लोगों को केंद्र में रख कर जांच चल रही है . लड़की के पिता ने तर्क दिया है कि उन्होंने अपनी बेटी को इतना खर्च करके पढ़ाया लिखाया तो उसे मारने जैसा काम वे क्यों करेंगें . . सवाल यह पैदा होता है कि अगर आपने अपनी लड़की को अच्छी शिक्षा दी तो क्या आप ने उस पर अहसान किया ? आधुनिक समझ का तकाजा है कि बच्चों को शिक्षा देकर माता पिता उस पर कोई अहसान नहीं करते, वे वास्तव में अपना फ़र्ज़ पूरा कर रहे होते हैं . आधुनिक सोच की यह समझ अगर लोगों में आ जाए तो बहुत कुछ बदल सकता है.
यह देश और समाज का दुर्भाग्य है कि पुरातनपंथी सोच के गुस्से में पागल समाज की नैतिकता के ठेकेदार जब किसी लड़की को इस लिए हलाल करते हैं कि उसने अपनी शिक्षा का इस्तेमाल आधुनिक सोच पर आधारित फैसले करने के लिए किया तो कहीं भी कोई जुम्बिश नहीं होती. उस लड़की को अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने से रोकने वाले इन् फासिस्टों को घेरने की ज़रुरत है हरियाणा ,उत्तर प्रदेश , पंजाब ,बिहार ,मध्य प्रदेश में इस तरह की वहशत फैल चुकी है लेकिन कोई भी नेता इसके खिलाफ बोलता नहीं . ज़ाहिर है कि वैज्ञानिक सोच और समझदारी का जो सपना हमारी आजादी के सेनानियों ने देखा था वह रसातल तक पंहुच चुका है और नेता जाति के इंसान की हिम्मत नहीं है कि समाज को इंसानी तरीके से जिंदा रहने के लिए प्रेरित कर सके. निरुपमा के केस में भी कोई नेता आगे नहीं आया. शुक्र है कि नए मीडिया में बहुत सारे ऐसे नौजवान सक्रिय हैं जो सच के पक्ष में खड़े होने में संकोच नहीं करते . आज निरुपमा की हत्या के मामले को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाने में मीडिया के इन्हीं अभिमन्यु योद्धाओं क योगदान है . जागरूक बुद्धिजीवियों को चाहिए कि मीडिया के इन महारथियों के साथ खड़े हों और यह सुनिश्चित करें कि कहीं कोई जयद्रथ इन वीरों को हज़म करने की कोशिश न करे,.
जिस लड़की को जातिवादी व्यवस्था ने हलाल किया उसका नाम निरुपमा था, ब्राह्मण माँ बाप की बेटी थी और उसने एक ऐसे लडके से दोस्ती कर ली थी जो ब्राह्मण नहीं था. जाति वाद के फासिस्टों को पागल कर देने के लिए इतना ही काफी था. उन्होंने उसे मार डाला. यह हादसा किसी एक परिवार का नहीं है , कम समझ वाले ज़्यादातर मध्यवर्गीय सवर्ण परिवारों में जो भी लड़कियां हैं वे सभी निरुपमा बन सकती हैं . क्योंकि सवर्ण होने का जो अहंकार है वह आदमी के विवेक को दफ़न कर देता है . इस निरुपमा की माँ भी इसी अहंकार का शिकार हुई और उसने अपनी ही बेटी को पुरातनपंथी सोच के मकतल में झोंक दिया. . आज इस तरह की सोच को छोड़ देने की ज़रुरत है . अपनी बेटी को शिक्षित करके उसे अपने दरवाज़े पर हाथी बाँध लेने की मानसिकता को ख़त्म कर देने की ज़रुरत है . अगर ऐसा न हुआ तो देश और समाज का विकास रुक जाएगा.. और इस लिए ज़रुरत इस बात की है कि समाज के लोग आगे आयें और निरुपमा की हत्या करने वालों के खिलाफ लामबंद हों . यह निरुपमा हर घर में मौजूद है .लड़की को कमज़ोर मानने वाली जमातों को भी यह बता देने की ज़रुरत है कि लड़की कमज़ोर नहीं होती. वह इंसान होती है और लड़कों के बराबर होती है . बहुत सारे ऐसे परिवारों को देखा गया है जहां लड़का तो चाहे जितनी लड़कियों से दोस्ती करता रहे , बुरा नहीं माना जाता लेकिन अगर लड़की ने किसी से दोस्ती कर ली तो परिवार की प्रतिष्ठा पर आंच आने लगती है . इस सोच में बुनियादी खोट है और इसका हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए . अगर ऐसा न हुआ तो अपना समाज बहुत पिछड़ जाएगा और विकास की गाडी जाति वाद के दल दल में जाकर फंस जायेगी. होना तो यह चाहिए था कि राजनीतिक स्तर पर जाति के विनाश के कार्यक्रम चलाये जाते क्योंकि आज के सभी राजनीतिक पार्टियों के महापुरुषों ने जाति के विनाश की वकालत की है लेकिन महात्मा गाँधी ,आम्बेडकर, लोहिया, फुले, पेरियार जैसे नेताओं के नाम पर राजनीति करने वाले लोग आज जाति की संस्था को बनाए रखने में अपना फायदा देख रहे हैं . राजनीति के इन प्यादों की मुखालिफत की जानी चाहिए . लेकिन सवाल उठता है कि करेगा कौन . यह काम वही संस्था करेगी जिसकी वजह से निरुपमा के हत्यारों के दरवाज़े पर कानून की दस्तक पड़ रही है . और यह संस्था आज का नया मीडिया है जिसमें टेलीविज़न वाले भी थोडा बहुत योगदान दे रहे हैं .बाकी मीडिया को भी चाहिए कि वह जाति के विनाश की इस मुहिम में शामिल हो और आने वाले वक़्त में कोई भी निरुपमा जातिवादी जल्लादों का शिकार न बने.
नयी दिल्ली के एक अखबार में काम करने वाली एक लड़की को उसके घर वालों ने मार डाला. वह झारखण्ड से अपने सपनों को साकार करने के लिए दिल्ली आई थी. जहां उसने देश के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान से पढाई की और एक सम्मानित अखबार में नौकरी कर ली. उसकी शिक्षा दीक्षा में उसके माता पिता ने पूरी तरह से सहयोग किया , खर्च बर्च किया, लड़की को दिल्ली भेजा जो उनके लिए एक बड़ा फैसला था. लेकिन इसके बाद वे चाहते थे कि लड़की उनके हुक्म की गुलाम बनी रहे, उनकी शेखी बढाने में काम आये, रिश्तेदारों के बीच वे डींग मार सकें कि उनकी बेटी ने बहुत ही आला दर्जे के पढाई की है और दिल्ली के एक नामी अखबार में काम करती है लेकिन उस लड़की को बाकी आज़ादी देने के पक्ष में वे नहीं थे ..वे चाहते थे कि वे अपनी पसंद के किसी ऊंचे परिवार में उसकी शादी करें और उनका मुकामी रंग और चोखा हो . जहालत का आलम यह था कि जब उन्हें लगा कि उनकी हर ख्वाहिश नहीं पूरी हो रही है तो उन्होंने अपनी ही बेटी को मार डाला. . पुलिस ने लड़की की माँ को गिरफ्तार कर लिया है और उसके परिवार के अन्य लोगों को केंद्र में रख कर जांच चल रही है . लड़की के पिता ने तर्क दिया है कि उन्होंने अपनी बेटी को इतना खर्च करके पढ़ाया लिखाया तो उसे मारने जैसा काम वे क्यों करेंगें . . सवाल यह पैदा होता है कि अगर आपने अपनी लड़की को अच्छी शिक्षा दी तो क्या आप ने उस पर अहसान किया ? आधुनिक समझ का तकाजा है कि बच्चों को शिक्षा देकर माता पिता उस पर कोई अहसान नहीं करते, वे वास्तव में अपना फ़र्ज़ पूरा कर रहे होते हैं . आधुनिक सोच की यह समझ अगर लोगों में आ जाए तो बहुत कुछ बदल सकता है.
यह देश और समाज का दुर्भाग्य है कि पुरातनपंथी सोच के गुस्से में पागल समाज की नैतिकता के ठेकेदार जब किसी लड़की को इस लिए हलाल करते हैं कि उसने अपनी शिक्षा का इस्तेमाल आधुनिक सोच पर आधारित फैसले करने के लिए किया तो कहीं भी कोई जुम्बिश नहीं होती. उस लड़की को अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने से रोकने वाले इन् फासिस्टों को घेरने की ज़रुरत है हरियाणा ,उत्तर प्रदेश , पंजाब ,बिहार ,मध्य प्रदेश में इस तरह की वहशत फैल चुकी है लेकिन कोई भी नेता इसके खिलाफ बोलता नहीं . ज़ाहिर है कि वैज्ञानिक सोच और समझदारी का जो सपना हमारी आजादी के सेनानियों ने देखा था वह रसातल तक पंहुच चुका है और नेता जाति के इंसान की हिम्मत नहीं है कि समाज को इंसानी तरीके से जिंदा रहने के लिए प्रेरित कर सके. निरुपमा के केस में भी कोई नेता आगे नहीं आया. शुक्र है कि नए मीडिया में बहुत सारे ऐसे नौजवान सक्रिय हैं जो सच के पक्ष में खड़े होने में संकोच नहीं करते . आज निरुपमा की हत्या के मामले को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाने में मीडिया के इन्हीं अभिमन्यु योद्धाओं क योगदान है . जागरूक बुद्धिजीवियों को चाहिए कि मीडिया के इन महारथियों के साथ खड़े हों और यह सुनिश्चित करें कि कहीं कोई जयद्रथ इन वीरों को हज़म करने की कोशिश न करे,.
जिस लड़की को जातिवादी व्यवस्था ने हलाल किया उसका नाम निरुपमा था, ब्राह्मण माँ बाप की बेटी थी और उसने एक ऐसे लडके से दोस्ती कर ली थी जो ब्राह्मण नहीं था. जाति वाद के फासिस्टों को पागल कर देने के लिए इतना ही काफी था. उन्होंने उसे मार डाला. यह हादसा किसी एक परिवार का नहीं है , कम समझ वाले ज़्यादातर मध्यवर्गीय सवर्ण परिवारों में जो भी लड़कियां हैं वे सभी निरुपमा बन सकती हैं . क्योंकि सवर्ण होने का जो अहंकार है वह आदमी के विवेक को दफ़न कर देता है . इस निरुपमा की माँ भी इसी अहंकार का शिकार हुई और उसने अपनी ही बेटी को पुरातनपंथी सोच के मकतल में झोंक दिया. . आज इस तरह की सोच को छोड़ देने की ज़रुरत है . अपनी बेटी को शिक्षित करके उसे अपने दरवाज़े पर हाथी बाँध लेने की मानसिकता को ख़त्म कर देने की ज़रुरत है . अगर ऐसा न हुआ तो देश और समाज का विकास रुक जाएगा.. और इस लिए ज़रुरत इस बात की है कि समाज के लोग आगे आयें और निरुपमा की हत्या करने वालों के खिलाफ लामबंद हों . यह निरुपमा हर घर में मौजूद है .लड़की को कमज़ोर मानने वाली जमातों को भी यह बता देने की ज़रुरत है कि लड़की कमज़ोर नहीं होती. वह इंसान होती है और लड़कों के बराबर होती है . बहुत सारे ऐसे परिवारों को देखा गया है जहां लड़का तो चाहे जितनी लड़कियों से दोस्ती करता रहे , बुरा नहीं माना जाता लेकिन अगर लड़की ने किसी से दोस्ती कर ली तो परिवार की प्रतिष्ठा पर आंच आने लगती है . इस सोच में बुनियादी खोट है और इसका हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए . अगर ऐसा न हुआ तो अपना समाज बहुत पिछड़ जाएगा और विकास की गाडी जाति वाद के दल दल में जाकर फंस जायेगी. होना तो यह चाहिए था कि राजनीतिक स्तर पर जाति के विनाश के कार्यक्रम चलाये जाते क्योंकि आज के सभी राजनीतिक पार्टियों के महापुरुषों ने जाति के विनाश की वकालत की है लेकिन महात्मा गाँधी ,आम्बेडकर, लोहिया, फुले, पेरियार जैसे नेताओं के नाम पर राजनीति करने वाले लोग आज जाति की संस्था को बनाए रखने में अपना फायदा देख रहे हैं . राजनीति के इन प्यादों की मुखालिफत की जानी चाहिए . लेकिन सवाल उठता है कि करेगा कौन . यह काम वही संस्था करेगी जिसकी वजह से निरुपमा के हत्यारों के दरवाज़े पर कानून की दस्तक पड़ रही है . और यह संस्था आज का नया मीडिया है जिसमें टेलीविज़न वाले भी थोडा बहुत योगदान दे रहे हैं .बाकी मीडिया को भी चाहिए कि वह जाति के विनाश की इस मुहिम में शामिल हो और आने वाले वक़्त में कोई भी निरुपमा जातिवादी जल्लादों का शिकार न बने.
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Friday, April 23, 2010
लाहौर से लेकर हैदराबाद तक ---दंगे प्रापर्टी डीलर ही करवाते हैं
शेष नारायण सिंह
पिछले साठ साल में जितने दंगे हुए, सब के बाद फायदा प्रापर्टी डीलरों का ही हुआ. १९४६ का लाहौर का दंगा हो या २०१० का हैदराबाद का .हर दंगे की तरह , मार्च में हैदराबाद में हुआ दंगा भी निहित स्वार्थ वालों ने करवाया था. नागरिक अधिकारों के क्षेत्र में सक्रिय कार्यकर्ताओं ने पता लगाया है कि २३ मार्च से २७ मार्च तक चले दंगे में ज़मीन का कारोबार करने वाले माफिया का हाथ था. यह लोग बी जे पी, मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन और टी डी पी के नगर सेवकों को साथ लेकर दंगों का आयोजन कर रहे थे . सिविल लिबर्टीज़ मानिटरिंग कमेटी,कुला निर्मूलन पुरता समिति, पैट्रियाटिक डेमोक्रेटिक मूवमेंट, चैतन्य समाख्या और विप्लव रचैतुला संगम नाम के संगठनों की एक संयुक्त समिति ने पता लगाया है कि दंगों को शुरू करने में मुकामी आबादी का कोई हाथ नहीं था. शुरुआती पत्थरबाजी उन लोगों ने की जो कहीं से बस में बैठ कर आये थे. कमेटी की रिपोर्ट में बताया गया है कि वे लोग अपने साथ पत्थर भी लाये थे और किसी से फोन पर लगातार बात कर के मंदिरों और मस्जिदों को निशाना बना रहे थे . करीब एक हफ्ते तक चले इस दंगे में ३६ मस्जिदें और ३ मंदिरों पर हमला किया गया. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ईद मिलादुन्नबी के मौके पर करीब एक महीने पहले मुसलमानों ने मदनपेट मोहल्ले में कुछ बैनर लगाए थे . २३ मार्च को जब हिन्दुओं ने राम नवमी का आयोजन किया तो उन्होंने मुसलमानों एक बुजुर्गों से कहा कि बैनर हटवा दें . तय हुआ कि शाम तक हटवा दिए जायेंगें लेकिन मुकामी बी जे पी नगर सेवक झगड़े पर आमादा था. उसने मुसलमानों के झंडों के ऊपर अपने झंडे लगवाने शुरू कर दिए . फिर पता नहीं कहाँ से बसों में बैठकर आये कुछ लोगों ने पत्थर फेंकना शुरू कर दिया. जवाबी कार्रवाई में मुसलमानों की हुलिया वाले कुछ नौजवानों ने पत्थर फेंकना शुरू कर दिया. वे भी बाहर से ही आये थे. मोहल्ले के लोगों की समझ में नहीं आया कि हो क्या रहा है . लेकिन तब तक बी जे पी के कार्यकर्ता मैदान ले चुके थे . उधर से एम आई एम वाले नेता ने भी अपने कारिंदों को ललकार दिया , वे भी पत्थर फेंकने लगे. चारों तरफ बद अमनी फैल गयी . बी जे पी और मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन के कार्यकर्ताओं ने अफवाहें फैलाना शुरू कर दिया. एक बार अगर मामूली साम्प्रदायिक झड़प को भी अफवाहों की खाद मिल जाए तो फिर दंगा शुरू हो जाता है , यह बात सभी जानते हैं .बहर हाल हैदराबाद में दंगा इस हद तक बढ़ गया कि कई दिन तक कर्फ्यू लगा रहा .
कमेटी के जांच से पता चला है कि दंगा शुद्ध रूप से प्रापर्टी डीलरों ने करवाया था क्योंकि उनकी निगाह शहर की कुछ ख़ास ज़मीनों पर थी. इन प्रापर्टी डीलरों में हिन्दू भी थे और मुसलमान भी. और यह सभी धंधे के मामले में एक दूसरे के साथी भी हैं . यहाँ तक कि इनके व्यापारिक हित भी साझा हैं .हैदराबाद में साम्प्रदायिक तल्खी उतनी नहीं है जितनी कि उत्तर भारत के कुछ शहरों में है . शायद इसी लिए प्रापर्टी डीलरों ने पत्थरबाजी करने वालों को बाहर से मंगवाया था . कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि जो लोग पत्थर फेंक रहे थे वे देखने से भी हैदराबादी नहीं लगते थे . नागरिक अधिकार के ल;इए संघर्ष करने वाले कुछ कार्यकर्ताओं ने बताया कि हैदराबाद में पहली बार किसी दंगे में इतनी बड़ी संख्या में मस्जिदें और मंदिर तबाह किये गए हैं . इन् पूजा स्थलों की ज़मीन अब बाकायदा इसी भूमाफिया की निगरानी में है . कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक बी जे पी का नगर सेवक, सहदेव यादव और तेलुगु देशम पार्टी का मंगलघाट का नगरसेवक राजू सिंह मुख्य रूप से दंगे करवाने में शामिल थे . इन्हें इस इलाके के उन प्रापर्टी डीलरों से भी मदद मिल रही थी जो चुनाव में मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन के लिए काम करते हैं .
जैसा कि आम तौर पर होता है कि दंगे में हत्या और लूट का तांडव करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती , यहाँ भी लोगों को यही शक़ है. लेकिन पिछले दिनों कुछ ऐसे मामले आये हैं जहां दंगाइयों को कानून की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा और उन्हें सज़ा हुई, आज़ादी के बाद से अब तक हुए दंगों में लाखों लोगों की जान गयी है . मरने वालों में हिन्दू, मुसलमान,सिख और ईसाई सभी रहते हैं लेकिन कुछ मामलों को छोड़ कर कभी कार्रवाई नहीं होती. आन्ध्र प्रदेश में आजकल कांग्रेस की सरकार है . दिल्ली में कांग्रेसी नेता आजकल मुसलमानों के पक्ष धर के रूप में अपनी छवि बनाने की कोशिश कर रहे हैं. उन्हें चाहिए कि अपने मुख्य मंत्री को सख्त हिदायत दें कि हैदराबाद में मार्च में हुए दंगों की बाकायदा जांच करवाएं और जो भी दोषी हों उन्हें सख्त सज़ा दिलवाएं . अगर ऐसा हो सका तो भविष्य में दंगों में हाथ डालने के पहले नेता लोग भी बार बार सोचेंगें . वरना यह दंगे एक ऐसी सच्चाई हैं जो अपने देश के विकास में बहुत बड़ी बाधा बना कर खडी है . इन दंगों पर सख्त रुख की इस लिए भी ज़रुरत है कि बी जे पी वाले फिर से हिन्दुत्व की ढपली बजाना शुरू कर चुके हैं . यह देश की शान्ति प्रिय आबादी के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत है . क्योंकि जब १९८६ में बी जे पी ने हिन्दुत्व का काम शुरू किया था तो पूरे देश में तरह तरह के दंगें हुए थे , आडवानी की रथ यात्रा हुई थी और बाबरी मस्जिद को तबाह किया गया था. वह तो जब बी जे पी वालों की सरकार दिल्ली में बनी तब जाकर कहीं दंगे बंद हुए थे ..इस लिए अगर नेताओं के हाथ में कठपुतली बनने वाला दंगाई पार्टियों का छोटा नेता अगर जेल जाने की दहशत की ज़द में नही लाया जाता तो आर एस एस की दंगे फैलाने की योजना बन चुकी है और राष्ट्र को चाहिए कि इस से सावधान रहे .
पिछले साठ साल में जितने दंगे हुए, सब के बाद फायदा प्रापर्टी डीलरों का ही हुआ. १९४६ का लाहौर का दंगा हो या २०१० का हैदराबाद का .हर दंगे की तरह , मार्च में हैदराबाद में हुआ दंगा भी निहित स्वार्थ वालों ने करवाया था. नागरिक अधिकारों के क्षेत्र में सक्रिय कार्यकर्ताओं ने पता लगाया है कि २३ मार्च से २७ मार्च तक चले दंगे में ज़मीन का कारोबार करने वाले माफिया का हाथ था. यह लोग बी जे पी, मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन और टी डी पी के नगर सेवकों को साथ लेकर दंगों का आयोजन कर रहे थे . सिविल लिबर्टीज़ मानिटरिंग कमेटी,कुला निर्मूलन पुरता समिति, पैट्रियाटिक डेमोक्रेटिक मूवमेंट, चैतन्य समाख्या और विप्लव रचैतुला संगम नाम के संगठनों की एक संयुक्त समिति ने पता लगाया है कि दंगों को शुरू करने में मुकामी आबादी का कोई हाथ नहीं था. शुरुआती पत्थरबाजी उन लोगों ने की जो कहीं से बस में बैठ कर आये थे. कमेटी की रिपोर्ट में बताया गया है कि वे लोग अपने साथ पत्थर भी लाये थे और किसी से फोन पर लगातार बात कर के मंदिरों और मस्जिदों को निशाना बना रहे थे . करीब एक हफ्ते तक चले इस दंगे में ३६ मस्जिदें और ३ मंदिरों पर हमला किया गया. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ईद मिलादुन्नबी के मौके पर करीब एक महीने पहले मुसलमानों ने मदनपेट मोहल्ले में कुछ बैनर लगाए थे . २३ मार्च को जब हिन्दुओं ने राम नवमी का आयोजन किया तो उन्होंने मुसलमानों एक बुजुर्गों से कहा कि बैनर हटवा दें . तय हुआ कि शाम तक हटवा दिए जायेंगें लेकिन मुकामी बी जे पी नगर सेवक झगड़े पर आमादा था. उसने मुसलमानों के झंडों के ऊपर अपने झंडे लगवाने शुरू कर दिए . फिर पता नहीं कहाँ से बसों में बैठकर आये कुछ लोगों ने पत्थर फेंकना शुरू कर दिया. जवाबी कार्रवाई में मुसलमानों की हुलिया वाले कुछ नौजवानों ने पत्थर फेंकना शुरू कर दिया. वे भी बाहर से ही आये थे. मोहल्ले के लोगों की समझ में नहीं आया कि हो क्या रहा है . लेकिन तब तक बी जे पी के कार्यकर्ता मैदान ले चुके थे . उधर से एम आई एम वाले नेता ने भी अपने कारिंदों को ललकार दिया , वे भी पत्थर फेंकने लगे. चारों तरफ बद अमनी फैल गयी . बी जे पी और मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन के कार्यकर्ताओं ने अफवाहें फैलाना शुरू कर दिया. एक बार अगर मामूली साम्प्रदायिक झड़प को भी अफवाहों की खाद मिल जाए तो फिर दंगा शुरू हो जाता है , यह बात सभी जानते हैं .बहर हाल हैदराबाद में दंगा इस हद तक बढ़ गया कि कई दिन तक कर्फ्यू लगा रहा .
कमेटी के जांच से पता चला है कि दंगा शुद्ध रूप से प्रापर्टी डीलरों ने करवाया था क्योंकि उनकी निगाह शहर की कुछ ख़ास ज़मीनों पर थी. इन प्रापर्टी डीलरों में हिन्दू भी थे और मुसलमान भी. और यह सभी धंधे के मामले में एक दूसरे के साथी भी हैं . यहाँ तक कि इनके व्यापारिक हित भी साझा हैं .हैदराबाद में साम्प्रदायिक तल्खी उतनी नहीं है जितनी कि उत्तर भारत के कुछ शहरों में है . शायद इसी लिए प्रापर्टी डीलरों ने पत्थरबाजी करने वालों को बाहर से मंगवाया था . कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि जो लोग पत्थर फेंक रहे थे वे देखने से भी हैदराबादी नहीं लगते थे . नागरिक अधिकार के ल;इए संघर्ष करने वाले कुछ कार्यकर्ताओं ने बताया कि हैदराबाद में पहली बार किसी दंगे में इतनी बड़ी संख्या में मस्जिदें और मंदिर तबाह किये गए हैं . इन् पूजा स्थलों की ज़मीन अब बाकायदा इसी भूमाफिया की निगरानी में है . कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक बी जे पी का नगर सेवक, सहदेव यादव और तेलुगु देशम पार्टी का मंगलघाट का नगरसेवक राजू सिंह मुख्य रूप से दंगे करवाने में शामिल थे . इन्हें इस इलाके के उन प्रापर्टी डीलरों से भी मदद मिल रही थी जो चुनाव में मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन के लिए काम करते हैं .
जैसा कि आम तौर पर होता है कि दंगे में हत्या और लूट का तांडव करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती , यहाँ भी लोगों को यही शक़ है. लेकिन पिछले दिनों कुछ ऐसे मामले आये हैं जहां दंगाइयों को कानून की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा और उन्हें सज़ा हुई, आज़ादी के बाद से अब तक हुए दंगों में लाखों लोगों की जान गयी है . मरने वालों में हिन्दू, मुसलमान,सिख और ईसाई सभी रहते हैं लेकिन कुछ मामलों को छोड़ कर कभी कार्रवाई नहीं होती. आन्ध्र प्रदेश में आजकल कांग्रेस की सरकार है . दिल्ली में कांग्रेसी नेता आजकल मुसलमानों के पक्ष धर के रूप में अपनी छवि बनाने की कोशिश कर रहे हैं. उन्हें चाहिए कि अपने मुख्य मंत्री को सख्त हिदायत दें कि हैदराबाद में मार्च में हुए दंगों की बाकायदा जांच करवाएं और जो भी दोषी हों उन्हें सख्त सज़ा दिलवाएं . अगर ऐसा हो सका तो भविष्य में दंगों में हाथ डालने के पहले नेता लोग भी बार बार सोचेंगें . वरना यह दंगे एक ऐसी सच्चाई हैं जो अपने देश के विकास में बहुत बड़ी बाधा बना कर खडी है . इन दंगों पर सख्त रुख की इस लिए भी ज़रुरत है कि बी जे पी वाले फिर से हिन्दुत्व की ढपली बजाना शुरू कर चुके हैं . यह देश की शान्ति प्रिय आबादी के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत है . क्योंकि जब १९८६ में बी जे पी ने हिन्दुत्व का काम शुरू किया था तो पूरे देश में तरह तरह के दंगें हुए थे , आडवानी की रथ यात्रा हुई थी और बाबरी मस्जिद को तबाह किया गया था. वह तो जब बी जे पी वालों की सरकार दिल्ली में बनी तब जाकर कहीं दंगे बंद हुए थे ..इस लिए अगर नेताओं के हाथ में कठपुतली बनने वाला दंगाई पार्टियों का छोटा नेता अगर जेल जाने की दहशत की ज़द में नही लाया जाता तो आर एस एस की दंगे फैलाने की योजना बन चुकी है और राष्ट्र को चाहिए कि इस से सावधान रहे .
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Wednesday, April 21, 2010
काले धन पर काबू करो तो महंगाई घटेगी
शेष नारायण सिंह
रिज़र्व बैंक ने एक बार फिर ब्याज दरें बढ़ा दीं हैं। उनकी सोच है कि बाज़ार में रुपये की कमी से खर्च पर लगाम लगेगी और उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद कम होगी। रिज़र्व बैंक के प्रबंधन में देश के चोटी के विद्वान लगे हैं। अर्थशास्त्र के एक प्रकांड पंडित इस देश के प्रधानमंत्री हैं इसलिए यह कहना कि ब्याज़ दर बढ़ा कर मंहगाई पर काबू पाना नामुमकिन है, शायद छोटे मुंह बड़ी बात होगी लेकिन सच्चाई यह है कि बैंकों से पैसा लेकर फालतू की चीज़ें नहीं खरीदी जातीं।
आम तौर पर कर्ज का इस्तेमाल औद्योगिक विकास में योगदान करने के लिए होता है। मध्य वर्ग के लोग घरेलू उपयोग की चीज़ें खरीदने के लिए भी कभी कभी कर्ज लेते है। वैसे पिछले पंद्रह वर्षों का इतिहास देखा जाए तो समझ में आ जाएगा कि मध्यवर्ग के लोगों ने सबसे ज्यादा कर्ज मकान और कार खरीदने के लिए ही लिया है इस कर्ज ने आर्थिक विकास को गति दी है। इसलिए कर्ज पर ब्याज़ दर बढ़ाकर मंहगाई पर काबू करने की सोच को बहुत ही परिपक्व नहीं माना जा सकता। सरकार और रिज़र्व बैंक को इस मामले पर फिर से विचार करना चाहिए। तो सवाल उठता है कि मंहगाई बढऩे के कारण क्या है?
अर्थव्यवस्था की मामूली समझ रखने वाला इंसान भी जानता है कि मंहगाई के लिए सबसे ज्य़ादा नंबर दो का पैसा है काले धन की अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत हो गई है कि उसे खत्म कर पाना अब मुश्किल है। इसका कारण यह है कि देश का प्रशासन चलाने वाले सभी वर्गों में ऐसे लोगों की बहुतायत है जो काली कमाई के सहारे ही अपना काम चला रहे हैं। काले धन की हैसियत का अंदाज़ इस देश में लोगों को समय समय पर लगता रहा है लेकिन मौजूदा वक्त ऐसा है जब पूरे देश को अंदाज लग गया है कि काला धन देश की अर्थव्यवस्था में क्या रुतबा हासिल कर चुका है। आई पी एल क्रिकेट और उससे जुड़े हेराफेरी के सौदों की जानकारी जबसे सार्वजनिक क्षेत्र में आई है तबसे रोज़ ही कोई न कोई नया मसाला सामने आ जाता है। अब लगभग तय हो गया है कि ललित मोदी ने आईपील में बड़े नेताओं और उद्योगपतियों के पैसे को ठिकाने लगाने का काम किया था। उसने आज जो खुलासा किया है उससे क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के बड़े बड़े कर्ता धर्ता शक के दायरे में आ गए हैं। मोदी ने अपने खास लोगों को बतया है कि उसने इन्हीं राजनीतिक आकाओं के लिए हेराफेरी की थी। उस प्रक्रिया में उसने अपने लिए भी कुछ रख लिया। ज़ाहिर है कि अगर मोदी के कारनामों की जांच होगी तो वह राजनीतिक नेताओं की पोल भी खोल देगा और अपनी काली कमाई को बेपर्दा होने से बचाने के लिए यह नेता लोग उसे भी बचाएंगे।
कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के खास माने जाने वाले शशि थरूर को नंगा करके ललित मोदी के यूपीए और विपक्ष में मौजूद संरक्षकों ने कांग्रेस डराने की कोशिश की थी। उन्हें अंदाज़ नहीं था कि सोनिया गांधी उनके ब्लफ को ताड़ जाएंगी और शशि थरूर को रास्ते से हटाकर ललित मोदी के इन आकाओं पर हमला बोल देंगी लेकिन सोनिया गांधी ने वही किया। नतीजा यह हुआ कि अब शशि थरूर तो अखबारों की रद्दी में कही दब गए, लेकिन ललित मोदी के आकाओं की गर्दन पर तलवार लटक गई है। घबड़ाकर इन राजनीतिक सूरमाओं ने ललित मोदी को छोड़ दिया है लेकिन वह भी डटा हुआ है और सभी राजनीतिक नेताओं को औकात बताने पर आमादा है जिन्होंने उसे शिखंडी बनाकर अपनी सियासत चमकाने की कोशिश की थी। ललित मोदी का यह खेल देश हित में है क्योंकि अगर इतने बड़े पैमाने पर हेराफेरी पकड़ी जाएगी जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष के बड़े बड़े लोगों की बेईमानी से पर्दा उठेगा तो देश का बड़ा फायदा होगा।
आईपीएल में हज़ारों करोड़ के काले धन की कहानी तो नंबर दो की अर्थव्यवस्था का एक बहुत ही मामूली पहलू है। इसी तरह के हजारों हजार मामले देश की राजधानी और हर प्रदेश की राजधानी में देखे जा सकते हैं। मधु कौड़ा, शिबू सोरेन, प्रमोद महाजन, रंजन भट्टाचार्य आदि ने नंबर दो की अर्थव्यवस्था के जो खेल किए थे उसे दुनिया जानती है। इसके आलावा उच्च प्रशासनिक अधिकारियों की आर्थिक अराजकता की कहानियां दुनिया जानती हैं। यही लोग मकानों की कीमतें बढ़ाते हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ऐसे लाखों मकान है जो खाली पड़े है जिसे किसी घूसखोर ने खरीद कर छोड़ दिया है। अर्थशास्त्र का साधारण सा नियम है कि मकानों की कीमत बढऩे से बाकी चीज़ों की कीमत भी बढ़ती है। और इसी वजह से मंहगाई बढ़ती है।
इसलिए अगर सरकार चाहती है कि मंहगाई पर काबू पाया जाय तो उसे फौरन ऐसे कदम उठाने पड़ेंगे जिससे काले धन की समांतर अर्थव्यवस्था पर लगाम लगे। अगर काले धन की अर्थव्यवस्था पर लगाम लग गई तो कीमतें अपने आप कम होगी। यह काम मुश्किल है लेकिन मनमोहन सिंह के लिए असंभव नहीं है। निजी तौर पर उन्होंने कोई भी बेईमानी नहीं की है। इसलिए अगर वे कमर कस ले तो घूसखोरों पर काबू किया जा सकता है। और अगर ऐसा हुआ तो मंहगाई अपने आप कम हो जाएगी। हां यह भी सच है कि उनके मंत्रिमंडल के ज्य़ादातर सहयोगी उन्हें ऐसा करने से रोकने की कोशिश ज़रूर करेंगे।
रिज़र्व बैंक ने एक बार फिर ब्याज दरें बढ़ा दीं हैं। उनकी सोच है कि बाज़ार में रुपये की कमी से खर्च पर लगाम लगेगी और उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद कम होगी। रिज़र्व बैंक के प्रबंधन में देश के चोटी के विद्वान लगे हैं। अर्थशास्त्र के एक प्रकांड पंडित इस देश के प्रधानमंत्री हैं इसलिए यह कहना कि ब्याज़ दर बढ़ा कर मंहगाई पर काबू पाना नामुमकिन है, शायद छोटे मुंह बड़ी बात होगी लेकिन सच्चाई यह है कि बैंकों से पैसा लेकर फालतू की चीज़ें नहीं खरीदी जातीं।
आम तौर पर कर्ज का इस्तेमाल औद्योगिक विकास में योगदान करने के लिए होता है। मध्य वर्ग के लोग घरेलू उपयोग की चीज़ें खरीदने के लिए भी कभी कभी कर्ज लेते है। वैसे पिछले पंद्रह वर्षों का इतिहास देखा जाए तो समझ में आ जाएगा कि मध्यवर्ग के लोगों ने सबसे ज्यादा कर्ज मकान और कार खरीदने के लिए ही लिया है इस कर्ज ने आर्थिक विकास को गति दी है। इसलिए कर्ज पर ब्याज़ दर बढ़ाकर मंहगाई पर काबू करने की सोच को बहुत ही परिपक्व नहीं माना जा सकता। सरकार और रिज़र्व बैंक को इस मामले पर फिर से विचार करना चाहिए। तो सवाल उठता है कि मंहगाई बढऩे के कारण क्या है?
अर्थव्यवस्था की मामूली समझ रखने वाला इंसान भी जानता है कि मंहगाई के लिए सबसे ज्य़ादा नंबर दो का पैसा है काले धन की अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत हो गई है कि उसे खत्म कर पाना अब मुश्किल है। इसका कारण यह है कि देश का प्रशासन चलाने वाले सभी वर्गों में ऐसे लोगों की बहुतायत है जो काली कमाई के सहारे ही अपना काम चला रहे हैं। काले धन की हैसियत का अंदाज़ इस देश में लोगों को समय समय पर लगता रहा है लेकिन मौजूदा वक्त ऐसा है जब पूरे देश को अंदाज लग गया है कि काला धन देश की अर्थव्यवस्था में क्या रुतबा हासिल कर चुका है। आई पी एल क्रिकेट और उससे जुड़े हेराफेरी के सौदों की जानकारी जबसे सार्वजनिक क्षेत्र में आई है तबसे रोज़ ही कोई न कोई नया मसाला सामने आ जाता है। अब लगभग तय हो गया है कि ललित मोदी ने आईपील में बड़े नेताओं और उद्योगपतियों के पैसे को ठिकाने लगाने का काम किया था। उसने आज जो खुलासा किया है उससे क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के बड़े बड़े कर्ता धर्ता शक के दायरे में आ गए हैं। मोदी ने अपने खास लोगों को बतया है कि उसने इन्हीं राजनीतिक आकाओं के लिए हेराफेरी की थी। उस प्रक्रिया में उसने अपने लिए भी कुछ रख लिया। ज़ाहिर है कि अगर मोदी के कारनामों की जांच होगी तो वह राजनीतिक नेताओं की पोल भी खोल देगा और अपनी काली कमाई को बेपर्दा होने से बचाने के लिए यह नेता लोग उसे भी बचाएंगे।
कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के खास माने जाने वाले शशि थरूर को नंगा करके ललित मोदी के यूपीए और विपक्ष में मौजूद संरक्षकों ने कांग्रेस डराने की कोशिश की थी। उन्हें अंदाज़ नहीं था कि सोनिया गांधी उनके ब्लफ को ताड़ जाएंगी और शशि थरूर को रास्ते से हटाकर ललित मोदी के इन आकाओं पर हमला बोल देंगी लेकिन सोनिया गांधी ने वही किया। नतीजा यह हुआ कि अब शशि थरूर तो अखबारों की रद्दी में कही दब गए, लेकिन ललित मोदी के आकाओं की गर्दन पर तलवार लटक गई है। घबड़ाकर इन राजनीतिक सूरमाओं ने ललित मोदी को छोड़ दिया है लेकिन वह भी डटा हुआ है और सभी राजनीतिक नेताओं को औकात बताने पर आमादा है जिन्होंने उसे शिखंडी बनाकर अपनी सियासत चमकाने की कोशिश की थी। ललित मोदी का यह खेल देश हित में है क्योंकि अगर इतने बड़े पैमाने पर हेराफेरी पकड़ी जाएगी जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष के बड़े बड़े लोगों की बेईमानी से पर्दा उठेगा तो देश का बड़ा फायदा होगा।
आईपीएल में हज़ारों करोड़ के काले धन की कहानी तो नंबर दो की अर्थव्यवस्था का एक बहुत ही मामूली पहलू है। इसी तरह के हजारों हजार मामले देश की राजधानी और हर प्रदेश की राजधानी में देखे जा सकते हैं। मधु कौड़ा, शिबू सोरेन, प्रमोद महाजन, रंजन भट्टाचार्य आदि ने नंबर दो की अर्थव्यवस्था के जो खेल किए थे उसे दुनिया जानती है। इसके आलावा उच्च प्रशासनिक अधिकारियों की आर्थिक अराजकता की कहानियां दुनिया जानती हैं। यही लोग मकानों की कीमतें बढ़ाते हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ऐसे लाखों मकान है जो खाली पड़े है जिसे किसी घूसखोर ने खरीद कर छोड़ दिया है। अर्थशास्त्र का साधारण सा नियम है कि मकानों की कीमत बढऩे से बाकी चीज़ों की कीमत भी बढ़ती है। और इसी वजह से मंहगाई बढ़ती है।
इसलिए अगर सरकार चाहती है कि मंहगाई पर काबू पाया जाय तो उसे फौरन ऐसे कदम उठाने पड़ेंगे जिससे काले धन की समांतर अर्थव्यवस्था पर लगाम लगे। अगर काले धन की अर्थव्यवस्था पर लगाम लग गई तो कीमतें अपने आप कम होगी। यह काम मुश्किल है लेकिन मनमोहन सिंह के लिए असंभव नहीं है। निजी तौर पर उन्होंने कोई भी बेईमानी नहीं की है। इसलिए अगर वे कमर कस ले तो घूसखोरों पर काबू किया जा सकता है। और अगर ऐसा हुआ तो मंहगाई अपने आप कम हो जाएगी। हां यह भी सच है कि उनके मंत्रिमंडल के ज्य़ादातर सहयोगी उन्हें ऐसा करने से रोकने की कोशिश ज़रूर करेंगे।
Friday, April 16, 2010
भिवंडी के पावरलूम कारखानों में बीमार हैं हज़ारों बुनकर
शेष नारायण सिंह
भिवंडी ,१६ अप्रैल /उत्तर प्रदेश से रोजी रोटी की तलाश में आये हुए मुंबई के पास के औद्योगिक नगर ,भिवंडी पंहुचे कपड़ा मजदूर आजकल बहुत बीमार हो रहे हैं. मार्च से जून तक के महीनों में यहाँ पावर लूम सेक्टर में काम करने वाले मजदूरों पर हर साल की तरह इस साल भी बीमारियों ने धावा बोल दिया है और हर गली से बीमार लोगों की आवाजें सुन ने को मिल जाती हैं .यह बीमारी इस लिए आती है कि शादी व्याह के चक्कर में बड़ी संख्या में मजदूर गाँव चले जाते हैं और मालिक उनकी जगह पर नए लोगों को भर्ती नहीं करते ,बल्कि डबल ड्यूटी का लालच देकर मजदूरों से २०-२० घंटे काम करवाते हैं . जिस से मजदूरी तो ज्यादा मिल जाती है लेकिन मजदूर का स्वास्थ्य बिलकुल बरबाद हो जाता है . भिवंडी में मजदूरों के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्था जन कल्याण समिति ने मांग की है कि मजदूरों की गरीबी का शोषण करने के उद्देश्य से डबल ड्यूटी का लालच देने वाले मिल मालिकों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए क्योंकि वे मानवाधिकारों का हनन कर रहे होते हैं ..
भिवंडी में उत्तर प्रदेश और बिहार से बड़ी संख्या में बुनकर, पावरलूम सेक्टर में काम करने आते हैं . उनमें से ज़्यादातर मुसलमान ही होते हैं . अपने गाँव की गरीबी और रोजगार के अवसर की कमी से परेशान यह लोग भाग कर भिवंडी आते हैं . भिवंडी से हर साल लाखों मजदूर शादी व्याह के सीज़न में अपने गाँव वापस चले जाते हैं और मिल मालिकों के सामने मजदूरों की कमी मे का संकट पैदा हो जाता है . इसके बाद मालिक लोग उन मजदूरों को डबल ड्यूटी और प्रति मीटर अधिक मजदूरी का लालच देकर उन से ही काम करवाते हैं .. आम तौर पर एक मजदूर ४ लूम चलाता है लेकिन आजकल उन्हने ६ से १२ लूम तक पर काम करने का मौक़ा मिलता है . ज़ाहिर है इस से मजदूरी ज्यादा मिल जाती है . डबल ड्यूटी में काम २० घंटे का हो जाता है . खाने पीने का कोई इंतज़ाम नहीं होता . शहर में मौजूद ढाबों पर खाना काने और दिन भर में बीसों चाय पीने से मजदूरों का शरीर इतना कमज़ोर हो जाता है कि मामूली बीमारी से भी लड़ पाने की उनकी क्षमता ख़त्म हो जाती है. इस साल अब तक कई लोग कमजोरी की वजह से अपनी जान गंवा चुके हैं.अब पुलिस ने उन मजदूरों को पकड़ना शुरू कर दिया है जो डबल ड्यूटी कर रहे हैं . लेकिन मिल मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है . पिछले साल भी यही हुआ था .लेकिन मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई थी . इन कारखानों में काम करने लायक हालात तो कतई नहीं हैं. मालिक लोग मजदूरों के पीने के लिए पानी तक का इंतज़ाम नहीं करते . प्यास लगने पर यह मजदूर आस पास के सस्ते ढाबों या होटलों में जाकर पानी पीते हैं .
भिवंडी ,१६ अप्रैल /उत्तर प्रदेश से रोजी रोटी की तलाश में आये हुए मुंबई के पास के औद्योगिक नगर ,भिवंडी पंहुचे कपड़ा मजदूर आजकल बहुत बीमार हो रहे हैं. मार्च से जून तक के महीनों में यहाँ पावर लूम सेक्टर में काम करने वाले मजदूरों पर हर साल की तरह इस साल भी बीमारियों ने धावा बोल दिया है और हर गली से बीमार लोगों की आवाजें सुन ने को मिल जाती हैं .यह बीमारी इस लिए आती है कि शादी व्याह के चक्कर में बड़ी संख्या में मजदूर गाँव चले जाते हैं और मालिक उनकी जगह पर नए लोगों को भर्ती नहीं करते ,बल्कि डबल ड्यूटी का लालच देकर मजदूरों से २०-२० घंटे काम करवाते हैं . जिस से मजदूरी तो ज्यादा मिल जाती है लेकिन मजदूर का स्वास्थ्य बिलकुल बरबाद हो जाता है . भिवंडी में मजदूरों के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्था जन कल्याण समिति ने मांग की है कि मजदूरों की गरीबी का शोषण करने के उद्देश्य से डबल ड्यूटी का लालच देने वाले मिल मालिकों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए क्योंकि वे मानवाधिकारों का हनन कर रहे होते हैं ..
भिवंडी में उत्तर प्रदेश और बिहार से बड़ी संख्या में बुनकर, पावरलूम सेक्टर में काम करने आते हैं . उनमें से ज़्यादातर मुसलमान ही होते हैं . अपने गाँव की गरीबी और रोजगार के अवसर की कमी से परेशान यह लोग भाग कर भिवंडी आते हैं . भिवंडी से हर साल लाखों मजदूर शादी व्याह के सीज़न में अपने गाँव वापस चले जाते हैं और मिल मालिकों के सामने मजदूरों की कमी मे का संकट पैदा हो जाता है . इसके बाद मालिक लोग उन मजदूरों को डबल ड्यूटी और प्रति मीटर अधिक मजदूरी का लालच देकर उन से ही काम करवाते हैं .. आम तौर पर एक मजदूर ४ लूम चलाता है लेकिन आजकल उन्हने ६ से १२ लूम तक पर काम करने का मौक़ा मिलता है . ज़ाहिर है इस से मजदूरी ज्यादा मिल जाती है . डबल ड्यूटी में काम २० घंटे का हो जाता है . खाने पीने का कोई इंतज़ाम नहीं होता . शहर में मौजूद ढाबों पर खाना काने और दिन भर में बीसों चाय पीने से मजदूरों का शरीर इतना कमज़ोर हो जाता है कि मामूली बीमारी से भी लड़ पाने की उनकी क्षमता ख़त्म हो जाती है. इस साल अब तक कई लोग कमजोरी की वजह से अपनी जान गंवा चुके हैं.अब पुलिस ने उन मजदूरों को पकड़ना शुरू कर दिया है जो डबल ड्यूटी कर रहे हैं . लेकिन मिल मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है . पिछले साल भी यही हुआ था .लेकिन मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई थी . इन कारखानों में काम करने लायक हालात तो कतई नहीं हैं. मालिक लोग मजदूरों के पीने के लिए पानी तक का इंतज़ाम नहीं करते . प्यास लगने पर यह मजदूर आस पास के सस्ते ढाबों या होटलों में जाकर पानी पीते हैं .
Sunday, April 11, 2010
भ्रष्टाचार और घूस के खिलाफ जन आन्दोलन की तैयारी
शेष नारायण सिंह
सारी दुनिया जानती है कि भ्रष्टाचार अपने देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है . लेकिन सबको यह भी मालूम है कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करना बहुत आसान नहीं है .सरकार ने बहुत सारे ऐसे विभाग बना रखे हैं जिनका काम भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना है लेकिन देखा यह गया है कि भ्रष्टाचार को रोकने की कोशिश करने वाले विभागों के अफसर उसी भ्रष्टाचार के आशीर्वाद से बहुत ही संपन्न हो जाते हैं . सबसे दिलचस्प बात यह है कि लगभग सभी भ्रष्टाचारी अपनी अपनी छतों पर खड़े हो कर बांग देते रहते हैं कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करना ज़रूरी है लेकिन उनकी पूरी कोशिश यही रहती है कि चोरी-बे ईमानी का धंधा चलता रहे .
एक बात और भी बहुत सच है कि सभी अफसर भ्रष्ट नहीं होते , कुछ बहुत ही ईमान दार होते हैं . उत्तर प्रदेश जैसे भ्रष्ट अफसर शाही वाले राज्य में भी कुछ ऐसे ईमानदार अफसर हैं कि कि वे दामन निचोड़ दें तो अमृत हो जाए . लेकिन वे संख्या में बहुत कम हैं लेकिन हैं ज़रूर . उत्तर प्रदेश के इन्हीं ईमानदार अफसरों ने अपने ही बीच के भ्रष्ट अफसरों की लिस्ट बनायी थी लेकिन कुछ कर नहीं सके क्योंकि उन्हीं भ्रष्टतम अफसरों में से कुछ तो मुख्य सचिव की गद्दी तक पंहुच गए.राज्य में भ्रष्टाचार कम करने की कोशिश कर रहे ऐसे ही एक अफसर , विजय शंकर पाण्डेय ने अपने एक ताज़ा लेख में लिखा है कि आई ए एस अफसर की संपत्ति के हर पैसे का हिसाब होना चाहिए . निजी जीवन में भी श्री पाण्डेय ईमान दार हैं . लेकिन कुछ नहीं कर पा रहे हैं . बहर हाल एक खुशी की खबर है कि कुछ अवकाश प्राप्त सिविल, पुलिस और न्यायपालिका के अधिकारियों ने एक नयी पहल शुरू की है जिसके तहत सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को ख़त्म करने में मदद मिलेगी. इन अधिकारियों ने एक सार्वजनिक अपील भी जारी की है और आम जनता से कहा है कि अगर सब चौकन्ना रहें तो अपने देश की संपत्ति को बे-ईमान अफसरों और नेताओं से बचाया जा सकता है . भारत के पूर्व मुख्य नायाधीश , जस्टिस आर सी लाहोटी, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिन्दोह, पूर्व सी ए जी वीके शुंगलू पूर्व पुलिस महानिदेशकों प्रकाश सिंह और जे एफ रिबेरो आदि ईमान दार लोगों की तरफ से जारी एक बयान में लोगों से अपील की गयी है कि बड़े आदमियों की बीच के भ्रष्टाचार को रोकने और भारत की चोरी की गयी सम्पदा को वापस लेने के लिए एक अभियान की ज़रुरत है .अपील में कहा गया है कि भारत सरकार के सर्वोच्च पदों पर रह चुके लोगों में इस बात पर एक राय है कि कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे को बहता है . और जब तक टाप पर बैठे लोगों को अपने काम में ईमानदारी से रहने को मजबूर नहीं किया जाएगा, इस देश का कोई भला नहीं हो सकता. भ्रष्टाचार इस देश में अपराध है . इसलिए भ्रष्ट और घूसखोर सरकारी अधिकारियों को गिरफ्तार करके जेल भेजना चाहिए . . बड़े पदों पर काम करने वाले लोगों को अपनी सारी संपत्ति का हिसाब देना चाहिए और उसे सार्वजनिक करना चाहिए . इन बड़े अधिकारियों ने साफ़ कहा है कि भ्रष्ट सरकारी अफसर अक्सर बच जाते हैं क्योंकि उन्हें सज़ा देने की जिनकी ज़िम्मेदारी होती है , वही भ्रष्ट होते हैं .. इन लोगों को ज़बरदस्त सज़ा दी जानी चाहिए. . घूस की कमाई का करीब सत्तर लाख करोड़ रूपया विदेशों में जमा है, उसको वापस लाने की कोशिश की जानी चाहिए . अगार विदेश में जमा किया गया इन बेईमानों का पैसा वापस लाया गया तो अपने देश की गरीबी हमेशा के लिए हट जायेगी. अपील में कहा गया है कि मौजूदा सिस्टम बिलकुल बेकार हो चुका है . क्योंकि भ्रष्टाचार से लड़ने की अपनी विश्वसनीयता गंवा चुका है . . जिन लोगों को ज़िम्मेदारी के पदों पर बैठाया गया है ,उनमें बहुत सारे लोग भ्रष्ट राजनीतिक नेताओं के सामने गिडगिडाने लगते हैं . यह बिलकुल गलत बात है . इस पर भी रोक लगानी चाहिए . भ्रष्टाचार और अपराध के बीच बहुत ही गहरा सम्बन्ध है . और दोनों ही एक दूसरे को बढ़ावा देते हैं . इन दोनों के घाल मेल की वजह से ही फासिज्म का जन्म होता है जिसमें लोक तंत्र को पूरी तरह से दफ़न कर देने की ताक़त होती है .. इन ईमानदार अफसरों का कहना है कि अगर अपने मुल्क में लोक तंत्र को जिंदा रखना है कि भ्रष्टाचार को जड़ से तबाह करना होगा.
लेकिन यह इतना आसान नहीं है . सभी जानते हैं कि घूस और भ्रष्टाचार में शामिल ज़्यादातर लोग बहुत ही ताक़त वर लोग हैं . उन्हें उनकी जगहों से बे दखल कर पाना आसान नहीं होगा. लेकिन अपील में कहा गया है कि भ्रष्टाचार में शामिल लोगों को पकड़ने और उन्हें जेल भेजने के लिए एक आन्दोलन की ज़रुरत है. ज़रुरत इस बात की भी है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस मुहिम में शामिल हों और सवाल पूछें. . इन पूर्व अधिकारियों ने एक वेबसाईट भी बनाया है जिसमें आन्दोलन की रूप रेखा बतायी गयी है . इन लोगों ने बहुत सारे लेख भी छापे हैं जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रस्तावित लड़ाई को मज़बूत करने की अपील की गयी है . ऐसा ही एक लेख उत्तर प्रदेश के कद्दावर अफसर विजय शंकर पाण्डेय का है जिन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत दिनों से एक मुहिम चला रखी है . सवाल पैदा होता है कि क्या श्री पाण्डेय जैसा अफसर अपने आस पास नज़र डालने पर सब कुछ बहुत ही ईमानदारी से भरा हुआ पाता है . क्या उन्होंने अपने दफतर या बगल वाले कमरे में चल रहे बे ईमानी की सौदों पर कभी नज़र डाली है . सही बात यह है कि जब तक केवल बातों बातों में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी जायेगी तब तक कुछ नहीं होगा . इस आन्दोअल्न को अगर तेज़ करना है कि तो घूस के पैसे को तिरस्कार की नज़र से देखना पड़ेगा . क्योंकि सारी मुसीबत की जड़ यही है कि चोर, बे-ईमान और घूसखोर अफसर और नेता रिश्वत के बल पर समाज में सम्मान पाते रहते हैं . उत्तर प्रदेश सरकार में बहुत बड़े पद पर बैठे श्री पाण्डेय के लिए यह बहुत ज़रूरी है . क्योंकि उनकी निजी ईमानदारी बेमिसाल है लेकिन जब तक सिस्टम में ईमनदारी नहीं होगी समाज का भला नहीं होगा.
अपने देश में पिछले २० वर्षों में घूसखोरी को सम्मान का दर्जा मिल गया है . वरना यहाँ पर दस हज़ार रूपये का घूस लेने के अपराध में जवाहर लाल नेहरू ने , अपने एक मंत्री को बर्खास्त कर दिया था . लेकिन इस तरह के उदाहरण बहुत कम हैं . इसी देश में जैन हवाला काण्ड हुआ था जिसमें सभी गैर कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता शामिल थे . स्वर्गीय मधु लिमये अपनी मृत्यु के पहले इस बात को लेकर बहुत दुखी रहा करते थे . सरकारी कंपनियों में विनिवेश के नाम पर जो घूसखोरी इस देश में हुई है उसे पूरे देश जानता है . उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मुख्य सचिव के यहाँ से २५० करोड़ रूपये ज़ब्त किये गए थे . इस तरह के हज़ारों मामले हैं जिन पर लगाम लगाए बिना भ्रष्टाचार को खत्म कर सकना असंभव है . इस लिए पूर्व सरकारी अधिकारियों की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए और मीडिया समेत सभी ऐसे लोगों को सामने आना चाहिए जो पब्लिक ओपीनियन को दिशा देते हैं ताकि अपने देश और अपने लोक तंत्र को बचाया जा सके.
सारी दुनिया जानती है कि भ्रष्टाचार अपने देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है . लेकिन सबको यह भी मालूम है कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करना बहुत आसान नहीं है .सरकार ने बहुत सारे ऐसे विभाग बना रखे हैं जिनका काम भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना है लेकिन देखा यह गया है कि भ्रष्टाचार को रोकने की कोशिश करने वाले विभागों के अफसर उसी भ्रष्टाचार के आशीर्वाद से बहुत ही संपन्न हो जाते हैं . सबसे दिलचस्प बात यह है कि लगभग सभी भ्रष्टाचारी अपनी अपनी छतों पर खड़े हो कर बांग देते रहते हैं कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करना ज़रूरी है लेकिन उनकी पूरी कोशिश यही रहती है कि चोरी-बे ईमानी का धंधा चलता रहे .
एक बात और भी बहुत सच है कि सभी अफसर भ्रष्ट नहीं होते , कुछ बहुत ही ईमान दार होते हैं . उत्तर प्रदेश जैसे भ्रष्ट अफसर शाही वाले राज्य में भी कुछ ऐसे ईमानदार अफसर हैं कि कि वे दामन निचोड़ दें तो अमृत हो जाए . लेकिन वे संख्या में बहुत कम हैं लेकिन हैं ज़रूर . उत्तर प्रदेश के इन्हीं ईमानदार अफसरों ने अपने ही बीच के भ्रष्ट अफसरों की लिस्ट बनायी थी लेकिन कुछ कर नहीं सके क्योंकि उन्हीं भ्रष्टतम अफसरों में से कुछ तो मुख्य सचिव की गद्दी तक पंहुच गए.राज्य में भ्रष्टाचार कम करने की कोशिश कर रहे ऐसे ही एक अफसर , विजय शंकर पाण्डेय ने अपने एक ताज़ा लेख में लिखा है कि आई ए एस अफसर की संपत्ति के हर पैसे का हिसाब होना चाहिए . निजी जीवन में भी श्री पाण्डेय ईमान दार हैं . लेकिन कुछ नहीं कर पा रहे हैं . बहर हाल एक खुशी की खबर है कि कुछ अवकाश प्राप्त सिविल, पुलिस और न्यायपालिका के अधिकारियों ने एक नयी पहल शुरू की है जिसके तहत सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को ख़त्म करने में मदद मिलेगी. इन अधिकारियों ने एक सार्वजनिक अपील भी जारी की है और आम जनता से कहा है कि अगर सब चौकन्ना रहें तो अपने देश की संपत्ति को बे-ईमान अफसरों और नेताओं से बचाया जा सकता है . भारत के पूर्व मुख्य नायाधीश , जस्टिस आर सी लाहोटी, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिन्दोह, पूर्व सी ए जी वीके शुंगलू पूर्व पुलिस महानिदेशकों प्रकाश सिंह और जे एफ रिबेरो आदि ईमान दार लोगों की तरफ से जारी एक बयान में लोगों से अपील की गयी है कि बड़े आदमियों की बीच के भ्रष्टाचार को रोकने और भारत की चोरी की गयी सम्पदा को वापस लेने के लिए एक अभियान की ज़रुरत है .अपील में कहा गया है कि भारत सरकार के सर्वोच्च पदों पर रह चुके लोगों में इस बात पर एक राय है कि कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे को बहता है . और जब तक टाप पर बैठे लोगों को अपने काम में ईमानदारी से रहने को मजबूर नहीं किया जाएगा, इस देश का कोई भला नहीं हो सकता. भ्रष्टाचार इस देश में अपराध है . इसलिए भ्रष्ट और घूसखोर सरकारी अधिकारियों को गिरफ्तार करके जेल भेजना चाहिए . . बड़े पदों पर काम करने वाले लोगों को अपनी सारी संपत्ति का हिसाब देना चाहिए और उसे सार्वजनिक करना चाहिए . इन बड़े अधिकारियों ने साफ़ कहा है कि भ्रष्ट सरकारी अफसर अक्सर बच जाते हैं क्योंकि उन्हें सज़ा देने की जिनकी ज़िम्मेदारी होती है , वही भ्रष्ट होते हैं .. इन लोगों को ज़बरदस्त सज़ा दी जानी चाहिए. . घूस की कमाई का करीब सत्तर लाख करोड़ रूपया विदेशों में जमा है, उसको वापस लाने की कोशिश की जानी चाहिए . अगार विदेश में जमा किया गया इन बेईमानों का पैसा वापस लाया गया तो अपने देश की गरीबी हमेशा के लिए हट जायेगी. अपील में कहा गया है कि मौजूदा सिस्टम बिलकुल बेकार हो चुका है . क्योंकि भ्रष्टाचार से लड़ने की अपनी विश्वसनीयता गंवा चुका है . . जिन लोगों को ज़िम्मेदारी के पदों पर बैठाया गया है ,उनमें बहुत सारे लोग भ्रष्ट राजनीतिक नेताओं के सामने गिडगिडाने लगते हैं . यह बिलकुल गलत बात है . इस पर भी रोक लगानी चाहिए . भ्रष्टाचार और अपराध के बीच बहुत ही गहरा सम्बन्ध है . और दोनों ही एक दूसरे को बढ़ावा देते हैं . इन दोनों के घाल मेल की वजह से ही फासिज्म का जन्म होता है जिसमें लोक तंत्र को पूरी तरह से दफ़न कर देने की ताक़त होती है .. इन ईमानदार अफसरों का कहना है कि अगर अपने मुल्क में लोक तंत्र को जिंदा रखना है कि भ्रष्टाचार को जड़ से तबाह करना होगा.
लेकिन यह इतना आसान नहीं है . सभी जानते हैं कि घूस और भ्रष्टाचार में शामिल ज़्यादातर लोग बहुत ही ताक़त वर लोग हैं . उन्हें उनकी जगहों से बे दखल कर पाना आसान नहीं होगा. लेकिन अपील में कहा गया है कि भ्रष्टाचार में शामिल लोगों को पकड़ने और उन्हें जेल भेजने के लिए एक आन्दोलन की ज़रुरत है. ज़रुरत इस बात की भी है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस मुहिम में शामिल हों और सवाल पूछें. . इन पूर्व अधिकारियों ने एक वेबसाईट भी बनाया है जिसमें आन्दोलन की रूप रेखा बतायी गयी है . इन लोगों ने बहुत सारे लेख भी छापे हैं जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रस्तावित लड़ाई को मज़बूत करने की अपील की गयी है . ऐसा ही एक लेख उत्तर प्रदेश के कद्दावर अफसर विजय शंकर पाण्डेय का है जिन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत दिनों से एक मुहिम चला रखी है . सवाल पैदा होता है कि क्या श्री पाण्डेय जैसा अफसर अपने आस पास नज़र डालने पर सब कुछ बहुत ही ईमानदारी से भरा हुआ पाता है . क्या उन्होंने अपने दफतर या बगल वाले कमरे में चल रहे बे ईमानी की सौदों पर कभी नज़र डाली है . सही बात यह है कि जब तक केवल बातों बातों में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी जायेगी तब तक कुछ नहीं होगा . इस आन्दोअल्न को अगर तेज़ करना है कि तो घूस के पैसे को तिरस्कार की नज़र से देखना पड़ेगा . क्योंकि सारी मुसीबत की जड़ यही है कि चोर, बे-ईमान और घूसखोर अफसर और नेता रिश्वत के बल पर समाज में सम्मान पाते रहते हैं . उत्तर प्रदेश सरकार में बहुत बड़े पद पर बैठे श्री पाण्डेय के लिए यह बहुत ज़रूरी है . क्योंकि उनकी निजी ईमानदारी बेमिसाल है लेकिन जब तक सिस्टम में ईमनदारी नहीं होगी समाज का भला नहीं होगा.
अपने देश में पिछले २० वर्षों में घूसखोरी को सम्मान का दर्जा मिल गया है . वरना यहाँ पर दस हज़ार रूपये का घूस लेने के अपराध में जवाहर लाल नेहरू ने , अपने एक मंत्री को बर्खास्त कर दिया था . लेकिन इस तरह के उदाहरण बहुत कम हैं . इसी देश में जैन हवाला काण्ड हुआ था जिसमें सभी गैर कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता शामिल थे . स्वर्गीय मधु लिमये अपनी मृत्यु के पहले इस बात को लेकर बहुत दुखी रहा करते थे . सरकारी कंपनियों में विनिवेश के नाम पर जो घूसखोरी इस देश में हुई है उसे पूरे देश जानता है . उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मुख्य सचिव के यहाँ से २५० करोड़ रूपये ज़ब्त किये गए थे . इस तरह के हज़ारों मामले हैं जिन पर लगाम लगाए बिना भ्रष्टाचार को खत्म कर सकना असंभव है . इस लिए पूर्व सरकारी अधिकारियों की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए और मीडिया समेत सभी ऐसे लोगों को सामने आना चाहिए जो पब्लिक ओपीनियन को दिशा देते हैं ताकि अपने देश और अपने लोक तंत्र को बचाया जा सके.
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Monday, April 5, 2010
मैदान मेरा हौसला है और अंगारा मेरी ख्वाहिश
शेष नारायण सिंह
बड़े जोर शोर से प्रचार करने के बाद भी ,मुंबई में महेश दत्तानी के नाटक 'सारा' के खिलाफ तोड़ फोड़ करने के अपने फैसले को शिव सेना लागू नहीं कर सकी. और जब पुलिस ने माहौल बहुत ही गरम कर दिया तो शिव सेना के एक छुट भैया नेता ने घोषणा कर दी कि पार्टी ने विरोध करने के अपने फैसले को स्थगित कर दिया है . यह अलग बात है कि जब यह बयान आया तो थियेटर पर विरोध करने गए दो चार शिव सैनिक पिट कर वापस आ चुके थे .और पुलिस बाकी लोगों को धमका रही थी. बान्द्रा के एक नामी थियेटर में नाटक के प्रदर्शन की घोषणा के बाद शिव सेना ने अपने पुराने तरीकों का इस्तेमाल करते हुए नाटक के प्रदर्शन के दौरान तोड़ फोड़ की धमकी देकर अपने वसूली के धंधे को परवान चढाने की कोशिश की थी लेकिन पुलिस की सख्ती के आगे उनकी एक न चली और भागना पड़ा . उनका विरोध नाटक के पाकिस्तानी होने के कारण था. जब की सच्चाई है है कि नाटक भारतीय था,अलबत्ता उसमें मुख्य करेक्टर पाकिस्तानी शायर 'सारा शगुफ्ता ' के जीवन पर आधारित था .
शिव सेना के पुराने वक्तों में उनकी धमकी के बाद किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वह कोई नाटक या सिनेमा प्रदर्शित करे. लेकिन अब शिव सेना की धमकियों को मुंबई की कलाकार बिरादरी ने गंभीरता से लेना बंद कर दिया है. इस घटना से एक बात और साफ़ हो गयी है कि शिव सेना के लोग बिना कुछ जाने समझे दौड़ पड़ते हैं . वास्तव में यह नाटक पकिस्तान के समाज को एक बहुत ही घटिया रोशनी में पेश करता है जिस से .कायदे से शिव सेना को खुश होना चाहिए लेकिन अगर इतनी समझ होती तो शिव सैनिक क्यों बनते
नाटक 'सारा' औरत होने की सच्चाई को परत दर परत खोलता है . शाहिद अनवर के इस नाटक में पाकिस्तानी शायरा 'सारा शगुफ्ता' की ज़िंदगी के अंतर विरोधों को प्रस्तुत किया गया है ..लेकिन बात को इतने सलीके से कहा गया है कि यह पूरी दुनिया की औरत की मजबूरी का एक दस्तावेज़ बन गया है . १४ साल की उम्र में अपने से कई साल बड़े अधेड़ से शादी करने और ३ बच्चे पैदा करने के बीच सारा शगुफ्ता जिस नरक से गुज़र रही थीं, उसे इस प्रस्तुति में बहुत ही बेबाक तरीके से पेश किया गया है.उसके बाद उनकी बाकी तीन शादियों को भी एक मजबूर औरत के मज़बूत हो रहे हौसलों की रोशनी में पेश किया गया है .उनके अपने बच्चे उनसे छीनने की कोशिश की गयी . आरोप लगा कि वे बदचलन थीं . उन्होंने अदालत में स्वीकार कर लिया कि वे बद चलन थीं और वे तीनों बच्चे उनके तो थे लेकिन उनके शौहर के नहीं थे .अदालत ने बच्चों की कस्टडी सारा के हवाले कर दिया .और फिर एक बार यतीम होने का अहसास उन्होंने बहुत करीब से देखा क्योंकि अपने ११ भाई बहनों के साथ सारा भी यतीम थीं ,हालांकि उनका बाप जिंदा था. पाकिस्तानी समाज में औरत की दुर्दशा को रेखांकित करने की यह कोशिश बात को बिलकुल नारे की शक्ल में कह देती है.
'मोनोलाग' शैली में प्रस्तुत किये गए नाटक सारा शगुफ्ता का सबसे सशक्त पक्ष है उसके संवाद जिसे अभिनेत्री, सीमा आजमी ने बहुत ही खूब सूरत तरीके से पेश किया. जब सीमा कहती हैं कि ' मैदान मेरा हौसला है और अंगारा मेरी ख्वाहिश 'तो लगता है कि काश हर औरत इसी तरह उठ खडी होती तो दुनिया बदल जाती. २९ साल की उम्र में सारा शगुफ्ता ने खुदकुशी की . इसके पहले भी वे ४ बार खुदखुशी की कोशिश कर चुकी थीं लेकिन नाकामयाब रही थीं . इस बीच उन्हें ४ बार शादियाँ करनी पड़ी.. पागलखाने गयीं और वहां देखा कि जो औरतें वहां दाखिल की गयी हैं उनमें से कोई भी पागल नहीं है . सबके घर वालों ने उन्हें जायदाद हड़पने के लिए पागल करार देकर अफसरों को घूस दे कर वहाँ भर्ती करवा दिया है .कुछ दिन बाद जब पागल खाने से उनकी रिहाई हुई तो वे बहुत रोयीं क्योंकि पहली बार कुछ ऐसे इंसानों से बिछुड़ रही थीं जिन्हें वे सही में मुहब्बत करने लगी थी.
सारा शगुफ्ता की भारत की नामी साहित्यकार, अमृता प्रीतम से दोस्ती थी. हालांकि उम्र में बहुत फर्क था लेकिन औरत होने का एहसास उनको उन्हीं जमातों में खड़ाकर देता था जिसमें अमृता जैसी महिलायें खडी थी, यहाँ का खुलापन देख कर उन्हें लगा कि काश उनका अपन बदन ही उनका अपना वतन होता. लेकिन जब दिल्ली में कुछ दिन रह चुकीं तो उन्हें साफ़ नज़र आने लगा कि यहाँ भी मर्दवादी सोच के लोग औरत को उसी तरह देखते हैं जैसे उनके अपने पकिस्तान में . उन्होंने अपने आप से बार बार सवाल किया कि लोग अकेली औरत से इतना डरते क्यों हैं औरत की वफादारी पर शक़ क्यों करते हैं ,वफादारी की गलियों में आज भी कुतिया कम और कुत्ता ज़्यादा इज्ज़त क्यों पाता है . सारा शगुफ्ता ने लिखा है कि वे सवाल की गहराई तक नहीं जाना चाहतीं क्योंकि कहीं फ़रिश्ते लपेट में ना आ जाएँ.
मुंबई के मानिक सभागृह में प्रस्तुत यह नाटक एक प्रयोग था . महेश दत्तानी का निदेशन बेहतरीन है और सीमा आजमी की अभिनय क्षमता ऐसी बांकी कि कुछ देर बाद ऐसा लगने लगा कि स्टेज पर सीमा नहीं , सारा शगुफ्ता ही खडी हैं .
बड़े जोर शोर से प्रचार करने के बाद भी ,मुंबई में महेश दत्तानी के नाटक 'सारा' के खिलाफ तोड़ फोड़ करने के अपने फैसले को शिव सेना लागू नहीं कर सकी. और जब पुलिस ने माहौल बहुत ही गरम कर दिया तो शिव सेना के एक छुट भैया नेता ने घोषणा कर दी कि पार्टी ने विरोध करने के अपने फैसले को स्थगित कर दिया है . यह अलग बात है कि जब यह बयान आया तो थियेटर पर विरोध करने गए दो चार शिव सैनिक पिट कर वापस आ चुके थे .और पुलिस बाकी लोगों को धमका रही थी. बान्द्रा के एक नामी थियेटर में नाटक के प्रदर्शन की घोषणा के बाद शिव सेना ने अपने पुराने तरीकों का इस्तेमाल करते हुए नाटक के प्रदर्शन के दौरान तोड़ फोड़ की धमकी देकर अपने वसूली के धंधे को परवान चढाने की कोशिश की थी लेकिन पुलिस की सख्ती के आगे उनकी एक न चली और भागना पड़ा . उनका विरोध नाटक के पाकिस्तानी होने के कारण था. जब की सच्चाई है है कि नाटक भारतीय था,अलबत्ता उसमें मुख्य करेक्टर पाकिस्तानी शायर 'सारा शगुफ्ता ' के जीवन पर आधारित था .
शिव सेना के पुराने वक्तों में उनकी धमकी के बाद किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वह कोई नाटक या सिनेमा प्रदर्शित करे. लेकिन अब शिव सेना की धमकियों को मुंबई की कलाकार बिरादरी ने गंभीरता से लेना बंद कर दिया है. इस घटना से एक बात और साफ़ हो गयी है कि शिव सेना के लोग बिना कुछ जाने समझे दौड़ पड़ते हैं . वास्तव में यह नाटक पकिस्तान के समाज को एक बहुत ही घटिया रोशनी में पेश करता है जिस से .कायदे से शिव सेना को खुश होना चाहिए लेकिन अगर इतनी समझ होती तो शिव सैनिक क्यों बनते
नाटक 'सारा' औरत होने की सच्चाई को परत दर परत खोलता है . शाहिद अनवर के इस नाटक में पाकिस्तानी शायरा 'सारा शगुफ्ता' की ज़िंदगी के अंतर विरोधों को प्रस्तुत किया गया है ..लेकिन बात को इतने सलीके से कहा गया है कि यह पूरी दुनिया की औरत की मजबूरी का एक दस्तावेज़ बन गया है . १४ साल की उम्र में अपने से कई साल बड़े अधेड़ से शादी करने और ३ बच्चे पैदा करने के बीच सारा शगुफ्ता जिस नरक से गुज़र रही थीं, उसे इस प्रस्तुति में बहुत ही बेबाक तरीके से पेश किया गया है.उसके बाद उनकी बाकी तीन शादियों को भी एक मजबूर औरत के मज़बूत हो रहे हौसलों की रोशनी में पेश किया गया है .उनके अपने बच्चे उनसे छीनने की कोशिश की गयी . आरोप लगा कि वे बदचलन थीं . उन्होंने अदालत में स्वीकार कर लिया कि वे बद चलन थीं और वे तीनों बच्चे उनके तो थे लेकिन उनके शौहर के नहीं थे .अदालत ने बच्चों की कस्टडी सारा के हवाले कर दिया .और फिर एक बार यतीम होने का अहसास उन्होंने बहुत करीब से देखा क्योंकि अपने ११ भाई बहनों के साथ सारा भी यतीम थीं ,हालांकि उनका बाप जिंदा था. पाकिस्तानी समाज में औरत की दुर्दशा को रेखांकित करने की यह कोशिश बात को बिलकुल नारे की शक्ल में कह देती है.
'मोनोलाग' शैली में प्रस्तुत किये गए नाटक सारा शगुफ्ता का सबसे सशक्त पक्ष है उसके संवाद जिसे अभिनेत्री, सीमा आजमी ने बहुत ही खूब सूरत तरीके से पेश किया. जब सीमा कहती हैं कि ' मैदान मेरा हौसला है और अंगारा मेरी ख्वाहिश 'तो लगता है कि काश हर औरत इसी तरह उठ खडी होती तो दुनिया बदल जाती. २९ साल की उम्र में सारा शगुफ्ता ने खुदकुशी की . इसके पहले भी वे ४ बार खुदखुशी की कोशिश कर चुकी थीं लेकिन नाकामयाब रही थीं . इस बीच उन्हें ४ बार शादियाँ करनी पड़ी.. पागलखाने गयीं और वहां देखा कि जो औरतें वहां दाखिल की गयी हैं उनमें से कोई भी पागल नहीं है . सबके घर वालों ने उन्हें जायदाद हड़पने के लिए पागल करार देकर अफसरों को घूस दे कर वहाँ भर्ती करवा दिया है .कुछ दिन बाद जब पागल खाने से उनकी रिहाई हुई तो वे बहुत रोयीं क्योंकि पहली बार कुछ ऐसे इंसानों से बिछुड़ रही थीं जिन्हें वे सही में मुहब्बत करने लगी थी.
सारा शगुफ्ता की भारत की नामी साहित्यकार, अमृता प्रीतम से दोस्ती थी. हालांकि उम्र में बहुत फर्क था लेकिन औरत होने का एहसास उनको उन्हीं जमातों में खड़ाकर देता था जिसमें अमृता जैसी महिलायें खडी थी, यहाँ का खुलापन देख कर उन्हें लगा कि काश उनका अपन बदन ही उनका अपना वतन होता. लेकिन जब दिल्ली में कुछ दिन रह चुकीं तो उन्हें साफ़ नज़र आने लगा कि यहाँ भी मर्दवादी सोच के लोग औरत को उसी तरह देखते हैं जैसे उनके अपने पकिस्तान में . उन्होंने अपने आप से बार बार सवाल किया कि लोग अकेली औरत से इतना डरते क्यों हैं औरत की वफादारी पर शक़ क्यों करते हैं ,वफादारी की गलियों में आज भी कुतिया कम और कुत्ता ज़्यादा इज्ज़त क्यों पाता है . सारा शगुफ्ता ने लिखा है कि वे सवाल की गहराई तक नहीं जाना चाहतीं क्योंकि कहीं फ़रिश्ते लपेट में ना आ जाएँ.
मुंबई के मानिक सभागृह में प्रस्तुत यह नाटक एक प्रयोग था . महेश दत्तानी का निदेशन बेहतरीन है और सीमा आजमी की अभिनय क्षमता ऐसी बांकी कि कुछ देर बाद ऐसा लगने लगा कि स्टेज पर सीमा नहीं , सारा शगुफ्ता ही खडी हैं .
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Friday, April 2, 2010
दंगें फैलाने वालों को नाकाम करो
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर जिले के एक बहुत छोटे से कस्बे खतौली में भी दंगा हो गया है .इसके पहले बरेली में हुआ था. ह्यद४एरबद में दंगा चल ही रहा है . इसी तरह से और भी इलाकों में छिटपुट घटनाएं हो रही हैं . अगर कहीं मामला थोडा और गरम हो जाए तो छोटी मोटी घटनाओं को दंगा बनने में देर नहीं लगती. .अब उत्तर भारत में मौसम भी गरम हो रहा है .ऐसे मौसम में मामूली विवाद भी बढ़ जाता है और अगर झगडा अलग अलग सम्प्रदाय के लोगों के बीच हो तो निहित स्वार्थ वाले उसे दंगे में बदल देते हैं .जब दंगा होता है तो चारों तरफ पागलपन का माहौल बन जाता है और सब अंधे हो जाते हैं . ज़ाहिर है कि समझदारी की बात कोई नहीं करता. दंगा वास्तव में सभ्य समाज पर कलंक है . सवाल यह पैदा होता है कि दंगे होते क्यों हैं .सीधा सा जवाब यह है कि राजनीति में सक्रिय लोग लोगों को बेचारा साबित करने के लिए दंगा करवाते हैं .अंग्रेजों ने जब 19२० के महात्मा गाँधी के आन्दोलन में देखा कि पूरा मुल्क गाँधी के साथ खड़ा है . हिन्दू मुसलमान एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रहे है तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रबंधकों को लगा कि अगर पूरा देश एक हो गया तो मुट्ठी भर अँगरेज़ भारत में राज नहीं कर सकेंगें . अंग्रेजों ने तय किया कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फर्क डाले बिना भारत को गुलाम नहीं बनाया जा सकता. १९२० के बाद के भारत की राजनीति पर गौर करें तो साफ़ नज़र आ जाएगा कि अंग्रेजों ने हर स्तर पर हिन्दू-मुस्लिम विभेद की योजना बना दी थी. मुस्लिम लीग को फिर से महात्मा गाँधी से अलग किया, आर एस एस की स्थापना करवाई और वी डी सावरकर को खुला छोड़ दिया. सावरकार को ड्यूटी दी गयी कि वे हिन्दू मात्र को गाँधी से दूर ले जाएँ. इसी दौर में सावरकार ने अपनी किताब हिन्दुत्व लिखी जिसमें हिन्दू धर्म को राजनीति के लिए इस्तेमाल करने की बात की गयी. अंग्रेजों के आशीर्वाद से पहला संगठित दंगा १९२७ में नागपुर में आयोजित किया गया जिसमें आर एस एस वालों ने प्रमुख भूमिका निभाई. सावरकार पूरी तरह से अंग्रेजों के सेवक बन ही चुके थे . जेल में वी. डी .सावरकर सजायाफ्ता कैदी नम्बर ३२७७८ के रूप में जाने जाते थे . उन्होंने अपने माफीनामे में साफ़ लिखा था कि अगर उन्हें रिहा कर दिया गया तो वे आगे से अंग्रेजों के हुक्म को मानकर ही काम करेंगें . सावरकर के भक्तों को लगता है कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफी नहीं माँगी होगी. ऐसे शंकालु लोगों को चाहिए कि वे नैशनल आर्काइव्ज़ चले जाएँ, वहांसावरकर का माफीनामा बहुत ही संभाल कर रखा हुआ है और इतिहास के किसी भी शोधकर्ता के लिए वह उपलब्ध है . बहरहाल सच्चाई यह है कि आर एस एस उसके सहयोगी संगठन और मुस्लिम साम्प्रदायिक राजनीति के झंडाबरदार ही दंगे करवाते हैं .
सवाल यह उठता है कि सभ्य समाज के लोग दंगा रोकने के लिए क्या काम करें . क्योंकि अब दंगे तो बार बार होंगें क्योंकि बी जे पी के नए अध्यक्ष ने तय कर लिया है कि हिन्दुत्व की बिसात पर ही अब उतर भारत में चुनाव लड़े जाने हैं . १९८४ में दो सीटें जीतने के बाद कोलकता में जब आर एस एस के आला नेताओं की बैठक हुई तो उसमें अटल बिहारी वाजपेयी को फटकार दिया गया था और उन्हें बता दिया गया था कि राग हिन्दुत्व ही चलेगा, गांधियन समाजवाद से सीटें बढ़ने वाली नहीं है . दुनिया जानती है कि उसके बाद आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा दी. शहाबुद्दीन टाइप कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे.. आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की. गाँव गाँव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इकट्ठा किया गया और माहौल पूरी तरह से साम्प्रदायिक बना दिया गया. उधर बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आर एस एस को फायदा हुआ. हद तो तब हो गयी जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने २६ जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी. बी जे पी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था. उन लोगों ने इन गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की .
सवाल यह उठता है कि दंगों को रोकने के लिएय धर्म निरपेक्ष बिरादरी को क्या करना चाहिए . संघ वाले तो अब दंगों के बाद के ध्रुवीकरण के सहारे वोट बटोरने की योजना बना चुके हैं . दंगों को रोकने के लिए ज़रूरी यह है कि लोगों को जानकारी डी जाए कि दंगें होते कैसे हैं . जिन लोगों ने भीष्म साहनी की किताब तमस पढी है या उस पर बना सीरियल देखा है . उन्हें मालूम है १९४७ के बंटवारे के पहले आर एस एस वालों ने किस तरह से एक गरीब आदमी को पैसा देकर मस्जिद में सूअर फेंकवाया था. भीष्म जी ने बताया था कि वह एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी थी. या १९८० के मुरादाबाद दंगों की योजना बनाने वालों ईद की नमाज़ के वक़्त मस्जिद में सूअर हांक दिया था . दंगा करवाने वाले इसी तरह के काम कर सकते हैं . हो सकता है कि कुछ नए तरीके भी ईजाद करें . कोशिश की जानी चाहिए कि मुसलमान इस तरह के किसी भी भड़काऊ काम को नज़र अंदाज़ करें . क्योंक दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमान का ही होता है . जहां तक फायदे की बात है वह बी जे पी का होगा क्योंकि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद वोटों की खेती आर एस एस की ही लहलहाती है .इस लिए दंगों को रोकने के लिए संघ की किसी भी योजना को नाकाम करना आज की राष्ट्रीय प्राथमिकता है . बरेली, हैदराबाद और खतौली में तो दंगें हो गए अब आगे न होने पायें यही कोशिश करनी चाहिय .
सवाल यह उठता है कि सभ्य समाज के लोग दंगा रोकने के लिए क्या काम करें . क्योंकि अब दंगे तो बार बार होंगें क्योंकि बी जे पी के नए अध्यक्ष ने तय कर लिया है कि हिन्दुत्व की बिसात पर ही अब उतर भारत में चुनाव लड़े जाने हैं . १९८४ में दो सीटें जीतने के बाद कोलकता में जब आर एस एस के आला नेताओं की बैठक हुई तो उसमें अटल बिहारी वाजपेयी को फटकार दिया गया था और उन्हें बता दिया गया था कि राग हिन्दुत्व ही चलेगा, गांधियन समाजवाद से सीटें बढ़ने वाली नहीं है . दुनिया जानती है कि उसके बाद आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा दी. शहाबुद्दीन टाइप कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे.. आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की. गाँव गाँव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इकट्ठा किया गया और माहौल पूरी तरह से साम्प्रदायिक बना दिया गया. उधर बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आर एस एस को फायदा हुआ. हद तो तब हो गयी जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने २६ जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी. बी जे पी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था. उन लोगों ने इन गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की .
सवाल यह उठता है कि दंगों को रोकने के लिएय धर्म निरपेक्ष बिरादरी को क्या करना चाहिए . संघ वाले तो अब दंगों के बाद के ध्रुवीकरण के सहारे वोट बटोरने की योजना बना चुके हैं . दंगों को रोकने के लिए ज़रूरी यह है कि लोगों को जानकारी डी जाए कि दंगें होते कैसे हैं . जिन लोगों ने भीष्म साहनी की किताब तमस पढी है या उस पर बना सीरियल देखा है . उन्हें मालूम है १९४७ के बंटवारे के पहले आर एस एस वालों ने किस तरह से एक गरीब आदमी को पैसा देकर मस्जिद में सूअर फेंकवाया था. भीष्म जी ने बताया था कि वह एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी थी. या १९८० के मुरादाबाद दंगों की योजना बनाने वालों ईद की नमाज़ के वक़्त मस्जिद में सूअर हांक दिया था . दंगा करवाने वाले इसी तरह के काम कर सकते हैं . हो सकता है कि कुछ नए तरीके भी ईजाद करें . कोशिश की जानी चाहिए कि मुसलमान इस तरह के किसी भी भड़काऊ काम को नज़र अंदाज़ करें . क्योंक दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमान का ही होता है . जहां तक फायदे की बात है वह बी जे पी का होगा क्योंकि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद वोटों की खेती आर एस एस की ही लहलहाती है .इस लिए दंगों को रोकने के लिए संघ की किसी भी योजना को नाकाम करना आज की राष्ट्रीय प्राथमिकता है . बरेली, हैदराबाद और खतौली में तो दंगें हो गए अब आगे न होने पायें यही कोशिश करनी चाहिय .
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Wednesday, March 31, 2010
मीडिया और न्यायपालिका की बुलंदी का दौर
शेष नारायण सिंह
हरियाणा में एक अदालत ने उन लोगों को सज़ा-ए-मौत का हुक्म दे दिया है जिन्होंने एक विवाहित जोड़े को मार डाला था. मारे गए पति पत्नी का तथाकतित जुर्म यह था कि उन्होंने पंचायत की मर्जी के खिलाफ अपनी पसंद से शादी कर ली थी. . पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में यह बहुत पहले से होता रहा है . ग्रामीण इलाकों में पंचायतों की स्थिति बहुत ही मज़बूत रही है और उन्हें मनमानी करने का पूरा अधिकार मिलता रहा है . इन् इलाकों में कुछ बिरादरी के लोगों ने अपने आप को एक खाप के रूप में संगठित कर रखा है .यह व्यवस्था बहुत ही पुरानी है ,. दर असल जब सरकारों की भूमिका केवल अपनी रक्षा और अपने राजस्व तक सीमित थी तो सामाजिक जीवन को नियम के दायरे में रखने का ज़िम्मा बिरादरी की पंचायतों का होता था. उस दौर में ज़िंदगी एक लीक पर चलती रहती थी लेकिन सूचना क्रान्ति के साथ साथ सब कुछ बदल गया. गावों में रहने वाले लडके लड़कियां पूरी दुनिया की सूचना देख सकते हैं , जान सकते हैं और बाकी दुनिया में प्रचलित कुछ रीति रिवाजों को अपनी ज़िंदगी में भी उतार रहे हैं . अब उनको मालूम है कि सभ्य समाज में अपनी पसंद के जीवन साथी के साथ ज़िंदगी बसर करने का रिवाज़ है . उसे यह भी मालूम है कि यह मामला बिलकुल निजी है और उसमें किसी को दखल देने का अधिकार नहीं है . . सूचना क्रान्ति का ही दूसरा पहलू यह है कि देश के किसी भी इलाके से कुछ सेकंड के अन्दर ही कोई भी खबर पंहुचायी जा सकती है और कोई भी तस्वीर कहीं भी भेजी जा सकती है. यानी किसी भी गाँव में बैठी हुई कोई पंचायत क्या फैसला करती है , यह अब गाँव का मामला नहीं रह गया है . कोई भी घटना अब मिनटों के अन्दर पूरी दुनिया के सामने पेश की जा सकती है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में आजकल यही हो रहा है . सूचना क्रान्ति के पहले के ज़माने में खाप पंचायतें जो कुछ भी करती थें ,वह उन्हीं लोगों के बीच रह जाता था लेकिन अब वह पूरी दुनिया के सामने पेश कर दिया जाता है .. इसका मतलब यह नहीं है कि खाप पंचायतें पहले जो हुक्म देती थीं वे सही होते थे . फैसले तो गलत तब भी होते थे लेकिन अब उन फैसलों को बाकी दुनिया के पैमाने से नापा जाने लगा है .
ग्रामीण इलाकों में इन पंचायतों का इतना दबदबा है कि किसी नेता की हिम्मत नहीं पड़ रही है कि इस मामले में कोई पक्का रुख ले सके. हरियाणा के मुख्य मंत्री, भूपेंद्र सिंह हुड्डा से जब बात की गयी तो वे मामले को टाल गए. किसी टी वी चैनल में बी जे पी का एक छुटभैया नेता खाप पंचायतों को सही ठहरा रहे एक किसान नेता की तारीफ़ करने लगा . संतोष की बात यह यह है कि अब इन नेताओं के बस की बात नहीं है कि ये न्याय के रथ को विचलित कर सकें. अब सूचना क्रान्ति की बुलंदी का वक़्त है . इस क्रान्ति ने मीडिया को पूरी तरह से आम आदमी की पंहुच के अन्दर ला दिया है और किसी की भी दादागीरी लगभग हमेशा ही पब्लिक की नज़र में रहती है . . करनाल के किसी गाँव में एक ही गोत्र में शादी करने के कारण मौत के घाट उतार दिए गए मनोज और बबली का मामला भी इतिहास के इस मोड़ पर सामने आया जब कि कोई भी आदमी ऐलानियाँ तौर पर खाप वालों की मनमानी को सही ठहरा ही नहीं सकता.. करनाल के अतिरिक्त जिला और सेशन जज ने अपने १०५ पेज के फैसले में लडकी के भाई, चाचा और चचेरे भाई को को तो फांसी के सज़ा सुना दी . पंचायत के मुखिया को केवल उम्र क़ैद की सज़ा सुनायी. पंचायतों की इस तरह की मनमानी के किस्से रोज़ ही होते रहते हैं . नेताओं के अलगर्ज़ रवैय्ये के कारण इन् मामलोंमें कहीं कुछ होता जाता नहीं था . ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी जज ने खाप के आतंक से जुडे हुए मामले में शामिल लोगों को सज़ा सुनायी है . ज़ाहिर है इस फैसले की धमक दूर दूर तक महसूस की जायेगी. और भविष्य में मुहब्बत करके शादी करने वाले जोड़ों को भेड़ बकरियों की तरह मार डालने वाले इन आततायी पंचों को कानून का डर लगेगा . वरना अब तक तो यही होता था कि इनकी मनमानी के खिलाफ कहीं कोई कार्रवाई नहीं होती थी.
मौजूदा मामले में मारे गए लडके के परिवार वालों की भूमिका सबसे अहम है . उन्होंने तय कर लिया था कि उनके बच्चे को मारने वालों को न्याय की बेदी पर हाज़िर किये बिना उन्हें चैन नहीं है . लेकिन सबसे बड़ी भूमिका इस सारे मामले में मीडिया की है . जब से २४ घंटे के समाचार चैनल शुरू हुए हैं ,मीडिया के लोग इस तरह के मामलों को सार्वजनिक करने में संकोच नहीं कर रहे हैं . और जब सारी बात मीडिया की वजह से पहले ही पब्लिक डोमेन में आ जाती है तो उसे टाल पाना न तो नेताओं के लिए संभव होता है और न ही अन्य सरकारी संगठनों के अगर भविष्य में भी मीडिया इसी तरह से चौकन्ना रहा तो कुछ ही वर्षों में यह मध्यकालीन सामंती सोच ग्रामीण इलाकों से गायब हो जायेगी और फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के इन संपन्न इलाकों में मुहब्बत करने वालों को अपनी जान नहीं गंवानी पड़ेगी.
हरियाणा में एक अदालत ने उन लोगों को सज़ा-ए-मौत का हुक्म दे दिया है जिन्होंने एक विवाहित जोड़े को मार डाला था. मारे गए पति पत्नी का तथाकतित जुर्म यह था कि उन्होंने पंचायत की मर्जी के खिलाफ अपनी पसंद से शादी कर ली थी. . पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में यह बहुत पहले से होता रहा है . ग्रामीण इलाकों में पंचायतों की स्थिति बहुत ही मज़बूत रही है और उन्हें मनमानी करने का पूरा अधिकार मिलता रहा है . इन् इलाकों में कुछ बिरादरी के लोगों ने अपने आप को एक खाप के रूप में संगठित कर रखा है .यह व्यवस्था बहुत ही पुरानी है ,. दर असल जब सरकारों की भूमिका केवल अपनी रक्षा और अपने राजस्व तक सीमित थी तो सामाजिक जीवन को नियम के दायरे में रखने का ज़िम्मा बिरादरी की पंचायतों का होता था. उस दौर में ज़िंदगी एक लीक पर चलती रहती थी लेकिन सूचना क्रान्ति के साथ साथ सब कुछ बदल गया. गावों में रहने वाले लडके लड़कियां पूरी दुनिया की सूचना देख सकते हैं , जान सकते हैं और बाकी दुनिया में प्रचलित कुछ रीति रिवाजों को अपनी ज़िंदगी में भी उतार रहे हैं . अब उनको मालूम है कि सभ्य समाज में अपनी पसंद के जीवन साथी के साथ ज़िंदगी बसर करने का रिवाज़ है . उसे यह भी मालूम है कि यह मामला बिलकुल निजी है और उसमें किसी को दखल देने का अधिकार नहीं है . . सूचना क्रान्ति का ही दूसरा पहलू यह है कि देश के किसी भी इलाके से कुछ सेकंड के अन्दर ही कोई भी खबर पंहुचायी जा सकती है और कोई भी तस्वीर कहीं भी भेजी जा सकती है. यानी किसी भी गाँव में बैठी हुई कोई पंचायत क्या फैसला करती है , यह अब गाँव का मामला नहीं रह गया है . कोई भी घटना अब मिनटों के अन्दर पूरी दुनिया के सामने पेश की जा सकती है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में आजकल यही हो रहा है . सूचना क्रान्ति के पहले के ज़माने में खाप पंचायतें जो कुछ भी करती थें ,वह उन्हीं लोगों के बीच रह जाता था लेकिन अब वह पूरी दुनिया के सामने पेश कर दिया जाता है .. इसका मतलब यह नहीं है कि खाप पंचायतें पहले जो हुक्म देती थीं वे सही होते थे . फैसले तो गलत तब भी होते थे लेकिन अब उन फैसलों को बाकी दुनिया के पैमाने से नापा जाने लगा है .
ग्रामीण इलाकों में इन पंचायतों का इतना दबदबा है कि किसी नेता की हिम्मत नहीं पड़ रही है कि इस मामले में कोई पक्का रुख ले सके. हरियाणा के मुख्य मंत्री, भूपेंद्र सिंह हुड्डा से जब बात की गयी तो वे मामले को टाल गए. किसी टी वी चैनल में बी जे पी का एक छुटभैया नेता खाप पंचायतों को सही ठहरा रहे एक किसान नेता की तारीफ़ करने लगा . संतोष की बात यह यह है कि अब इन नेताओं के बस की बात नहीं है कि ये न्याय के रथ को विचलित कर सकें. अब सूचना क्रान्ति की बुलंदी का वक़्त है . इस क्रान्ति ने मीडिया को पूरी तरह से आम आदमी की पंहुच के अन्दर ला दिया है और किसी की भी दादागीरी लगभग हमेशा ही पब्लिक की नज़र में रहती है . . करनाल के किसी गाँव में एक ही गोत्र में शादी करने के कारण मौत के घाट उतार दिए गए मनोज और बबली का मामला भी इतिहास के इस मोड़ पर सामने आया जब कि कोई भी आदमी ऐलानियाँ तौर पर खाप वालों की मनमानी को सही ठहरा ही नहीं सकता.. करनाल के अतिरिक्त जिला और सेशन जज ने अपने १०५ पेज के फैसले में लडकी के भाई, चाचा और चचेरे भाई को को तो फांसी के सज़ा सुना दी . पंचायत के मुखिया को केवल उम्र क़ैद की सज़ा सुनायी. पंचायतों की इस तरह की मनमानी के किस्से रोज़ ही होते रहते हैं . नेताओं के अलगर्ज़ रवैय्ये के कारण इन् मामलोंमें कहीं कुछ होता जाता नहीं था . ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी जज ने खाप के आतंक से जुडे हुए मामले में शामिल लोगों को सज़ा सुनायी है . ज़ाहिर है इस फैसले की धमक दूर दूर तक महसूस की जायेगी. और भविष्य में मुहब्बत करके शादी करने वाले जोड़ों को भेड़ बकरियों की तरह मार डालने वाले इन आततायी पंचों को कानून का डर लगेगा . वरना अब तक तो यही होता था कि इनकी मनमानी के खिलाफ कहीं कोई कार्रवाई नहीं होती थी.
मौजूदा मामले में मारे गए लडके के परिवार वालों की भूमिका सबसे अहम है . उन्होंने तय कर लिया था कि उनके बच्चे को मारने वालों को न्याय की बेदी पर हाज़िर किये बिना उन्हें चैन नहीं है . लेकिन सबसे बड़ी भूमिका इस सारे मामले में मीडिया की है . जब से २४ घंटे के समाचार चैनल शुरू हुए हैं ,मीडिया के लोग इस तरह के मामलों को सार्वजनिक करने में संकोच नहीं कर रहे हैं . और जब सारी बात मीडिया की वजह से पहले ही पब्लिक डोमेन में आ जाती है तो उसे टाल पाना न तो नेताओं के लिए संभव होता है और न ही अन्य सरकारी संगठनों के अगर भविष्य में भी मीडिया इसी तरह से चौकन्ना रहा तो कुछ ही वर्षों में यह मध्यकालीन सामंती सोच ग्रामीण इलाकों से गायब हो जायेगी और फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के इन संपन्न इलाकों में मुहब्बत करने वालों को अपनी जान नहीं गंवानी पड़ेगी.
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Monday, March 29, 2010
मोदी से एस आई टी की पूछ ताछ के पीछे क्या है ?
शेष नारायण सिंह
नरेंद्र मोदी से आठ घंटे चली पूछताछ के बाद कुछ लोग बहुत खुश हैं कि अब मोदी को २००२ के गुजरात नरसंहार के लिए उनके किये की सज़ा दिलाई जा सकेगी. जांच के लिए पेश होने के बाद जब मोदी बाहर निकले तो उन्होंने कहा कि उन्हें अपने महान देश की न्याय व्यवस्था में पूरा भरोसा है और उनके साथ भी न्याय होगा.यह बात सभी कहते हैं और यह सच भी है . मोदी का गुनाह ऐसा है जिसे वे सभी लोग अच्छी तरह से जानते हैं जिन्हें उस दौर में गुजरात का नरसंहार देखने या उसे कवर करने का मौका लगा था .लेकिन सच्चाई यह है कि कहीं कुछ नहीं होने वाला है . कुछ जानकार तो यह कहते पाए गए हैं कि यह सारा आडम्बर मोदी को पाक-साफ घोषित करने की एक साज़िश है . बड़े नेताओं के खिलाफ राजनीतिक मजबूरी के कारण शुरू किये गए मामलों में अब तक किसी के दण्डित होने की जानकारी नहीं है .राजनीति में बड़ा पद पाने वाले बहुत सारे लोगों के ऊपर मुक़दमें चले लेकिन लगभग सभी बरी हो गए. इमरजेंसी के तुरंत बाद जिस तरह से सबूत मिलना शुरू हुए, सबको लगने लगा था कि इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी, जगमोहन, विद्या चरण शुक्ल, ओम मेहता, बंसी लाल, नारायण दत्त तिवारी जैसे सैकड़ों नेताओं और अफसरों को कानून की जंजीर पहना दी जायेगी. लेकिन कुछ नहीं हुआ. बाद में बोफोर्स तोप का सौदा हुआ जिसमें भी राजनीति के बड़े लोगों का नाम आया था लेकिन कुछ नहीं हुआ. पी वी नरसिंह राव जब प्रधान मंत्री थे तो तरह तरह के हेरा फेरी और ठगी के मामले उन पर दर्ज हुए लेकिन कुछ नहीं हुआ . जार्ज फर्नांडीज़ , बंगारू लक्ष्मण आदि को तहलका मामले में घूस का शिकार होते पूरी दुनिया ने देखा . जांच में कुछ नहीं निकला . जैन हवाला काण्ड में देश की सुरक्षा से समझौता किया गया था . और उसमें लाल कृष्ण आडवानी,शरद यादव, सीता राम केसरी, सतीश शर्मा, अरुण नेहरू, आरिफ मुहम्मद खान जैसे गैर कम्म्युनिस्ट पार्टियों के बहुत सारे नेता शामिल थे .लेकिन किसी के ऊपर चार्ज शीट तक दाखिल नहीं हुई अटल बिहारी वाजपयी के करीबी रिश्तेदार , भट्टाचार्य नाम के एक सज्जन थे , देश को लूट कर रख दिया लेकिन कहीं हुछ नहीं हुआ . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मामले में लाल कृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी उमा भारती, विनय कटियार आदि के खिलाफ संगीन आरोप हैं लेकिन सब मस्त हैं . प्रमोद महाजन और अरुण शोरी के ऊपर सरकारी कंपनियों को औने पौने दाम पर बेचने का आरोप लगा लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. लालू प्रसाद, राबडी देवी, जगन्नाथ मिश्र, शिबू सोरेन,मायावती, मुलायम सिंह यादव आदि के ऊपर गंभीर आर्थिक अपराधों के आरोप हैं और सब के सब निश्चिन्त हैं . सब को मालूम है कि सब ठीक हो जाएगा, कहीं कुछ नहीं होने वाला नहीं है .
इसलिए इस बात में कोई शक़ नहीं हिया कि मोदी का कुछ बनने बिगड़ने वाला नहीं है . अगर उन लोगों की बात को मान लिया जाए कि मोदी को क्लीन चिट देने के लिए उनसे कड़ाई से पूछताछ का स्वांग किया गया तो बात बहुत ही आसान हो जाती है लेकिन अगर इस बात को न भी माना जाए और यह विश्वास किया जाए कि माननीय सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रही जांच में किसी की हिम्मत हेरा फेरी करने की नहीं है तो भी मोदी जैसे ताक़तवर नेता के खिलाफ आरोप साबित कर पाना बहुत ही मुश्किल होगा. हमारी न्याय व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है , ईमानदार गवाह . हमने देखा है कि मुकामी गुंडों को सज़ा इस लिए नहीं हो पाती कि उनके खिलाफ गवाह नहीं मिलते. तो मोदी जैसे सत्ताधीश के खिलाफ कहाँ से गवाह आ जाएंगें . दुनिया जानती है कि फरवरी २००२ में किस तरह से गुजरात के कुछ शहरों में खून खराबा हुआ था और किस तरह मुसलमानों को चुन चुन कर मारा गया था . लेकिन मोदी न केवल खुले आम घूम रहे हैं बल्कि चुनाव भी जीत रहे हैं .. ज़ाहिर है कि सिस्टम में कहीं कोई खोट है जिसके चलते सत्ता के पदों पर बैठे राजनेता बरी हो जाते हैं . और जब किसी नेता पर बुरा वक़्त आता है तो बाकी लोग ,जो राज नेता, फंसे हुए नेता के खिलाफ रहते हैं , वे भी साथ साथ खड़े हो जाते हैं . ठीक वैसे है जैसे मौसेरे भाइयों के बीच होता है .जब एक भाई फंसता है तो उसका मौसेरा भाई उसे बचाने आ जाता है . मौसेरे भाइयों की यह मुहब्बत अपने देश की बहुत सारी कहावतों में भी संभाल कर रखी हुई है . वरना वली गुजरती की मज़ार को ज़मींदोज़ करने वाले को तो सज़ा कभी की मिल गयी होती .
इस लिए मोदी या किसी नेता के अपराधों के लिए उस से पूछ ताछ तक तो हो सकती है लेकिन उसे सज़ा नहीं दी जा सकती . अगर मोदी के अपराध की सज़ा उनको मिल गयी तो देश की जनता को भरोसा हो जाएगा कि कानून का राज सब पर चलता है वरना अभी तक तो लोग यही मानते हैं कि कानून की ताक़त को नेता लोग अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं .
नरेंद्र मोदी से आठ घंटे चली पूछताछ के बाद कुछ लोग बहुत खुश हैं कि अब मोदी को २००२ के गुजरात नरसंहार के लिए उनके किये की सज़ा दिलाई जा सकेगी. जांच के लिए पेश होने के बाद जब मोदी बाहर निकले तो उन्होंने कहा कि उन्हें अपने महान देश की न्याय व्यवस्था में पूरा भरोसा है और उनके साथ भी न्याय होगा.यह बात सभी कहते हैं और यह सच भी है . मोदी का गुनाह ऐसा है जिसे वे सभी लोग अच्छी तरह से जानते हैं जिन्हें उस दौर में गुजरात का नरसंहार देखने या उसे कवर करने का मौका लगा था .लेकिन सच्चाई यह है कि कहीं कुछ नहीं होने वाला है . कुछ जानकार तो यह कहते पाए गए हैं कि यह सारा आडम्बर मोदी को पाक-साफ घोषित करने की एक साज़िश है . बड़े नेताओं के खिलाफ राजनीतिक मजबूरी के कारण शुरू किये गए मामलों में अब तक किसी के दण्डित होने की जानकारी नहीं है .राजनीति में बड़ा पद पाने वाले बहुत सारे लोगों के ऊपर मुक़दमें चले लेकिन लगभग सभी बरी हो गए. इमरजेंसी के तुरंत बाद जिस तरह से सबूत मिलना शुरू हुए, सबको लगने लगा था कि इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी, जगमोहन, विद्या चरण शुक्ल, ओम मेहता, बंसी लाल, नारायण दत्त तिवारी जैसे सैकड़ों नेताओं और अफसरों को कानून की जंजीर पहना दी जायेगी. लेकिन कुछ नहीं हुआ. बाद में बोफोर्स तोप का सौदा हुआ जिसमें भी राजनीति के बड़े लोगों का नाम आया था लेकिन कुछ नहीं हुआ. पी वी नरसिंह राव जब प्रधान मंत्री थे तो तरह तरह के हेरा फेरी और ठगी के मामले उन पर दर्ज हुए लेकिन कुछ नहीं हुआ . जार्ज फर्नांडीज़ , बंगारू लक्ष्मण आदि को तहलका मामले में घूस का शिकार होते पूरी दुनिया ने देखा . जांच में कुछ नहीं निकला . जैन हवाला काण्ड में देश की सुरक्षा से समझौता किया गया था . और उसमें लाल कृष्ण आडवानी,शरद यादव, सीता राम केसरी, सतीश शर्मा, अरुण नेहरू, आरिफ मुहम्मद खान जैसे गैर कम्म्युनिस्ट पार्टियों के बहुत सारे नेता शामिल थे .लेकिन किसी के ऊपर चार्ज शीट तक दाखिल नहीं हुई अटल बिहारी वाजपयी के करीबी रिश्तेदार , भट्टाचार्य नाम के एक सज्जन थे , देश को लूट कर रख दिया लेकिन कहीं हुछ नहीं हुआ . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मामले में लाल कृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी उमा भारती, विनय कटियार आदि के खिलाफ संगीन आरोप हैं लेकिन सब मस्त हैं . प्रमोद महाजन और अरुण शोरी के ऊपर सरकारी कंपनियों को औने पौने दाम पर बेचने का आरोप लगा लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. लालू प्रसाद, राबडी देवी, जगन्नाथ मिश्र, शिबू सोरेन,मायावती, मुलायम सिंह यादव आदि के ऊपर गंभीर आर्थिक अपराधों के आरोप हैं और सब के सब निश्चिन्त हैं . सब को मालूम है कि सब ठीक हो जाएगा, कहीं कुछ नहीं होने वाला नहीं है .
इसलिए इस बात में कोई शक़ नहीं हिया कि मोदी का कुछ बनने बिगड़ने वाला नहीं है . अगर उन लोगों की बात को मान लिया जाए कि मोदी को क्लीन चिट देने के लिए उनसे कड़ाई से पूछताछ का स्वांग किया गया तो बात बहुत ही आसान हो जाती है लेकिन अगर इस बात को न भी माना जाए और यह विश्वास किया जाए कि माननीय सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रही जांच में किसी की हिम्मत हेरा फेरी करने की नहीं है तो भी मोदी जैसे ताक़तवर नेता के खिलाफ आरोप साबित कर पाना बहुत ही मुश्किल होगा. हमारी न्याय व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है , ईमानदार गवाह . हमने देखा है कि मुकामी गुंडों को सज़ा इस लिए नहीं हो पाती कि उनके खिलाफ गवाह नहीं मिलते. तो मोदी जैसे सत्ताधीश के खिलाफ कहाँ से गवाह आ जाएंगें . दुनिया जानती है कि फरवरी २००२ में किस तरह से गुजरात के कुछ शहरों में खून खराबा हुआ था और किस तरह मुसलमानों को चुन चुन कर मारा गया था . लेकिन मोदी न केवल खुले आम घूम रहे हैं बल्कि चुनाव भी जीत रहे हैं .. ज़ाहिर है कि सिस्टम में कहीं कोई खोट है जिसके चलते सत्ता के पदों पर बैठे राजनेता बरी हो जाते हैं . और जब किसी नेता पर बुरा वक़्त आता है तो बाकी लोग ,जो राज नेता, फंसे हुए नेता के खिलाफ रहते हैं , वे भी साथ साथ खड़े हो जाते हैं . ठीक वैसे है जैसे मौसेरे भाइयों के बीच होता है .जब एक भाई फंसता है तो उसका मौसेरा भाई उसे बचाने आ जाता है . मौसेरे भाइयों की यह मुहब्बत अपने देश की बहुत सारी कहावतों में भी संभाल कर रखी हुई है . वरना वली गुजरती की मज़ार को ज़मींदोज़ करने वाले को तो सज़ा कभी की मिल गयी होती .
इस लिए मोदी या किसी नेता के अपराधों के लिए उस से पूछ ताछ तक तो हो सकती है लेकिन उसे सज़ा नहीं दी जा सकती . अगर मोदी के अपराध की सज़ा उनको मिल गयी तो देश की जनता को भरोसा हो जाएगा कि कानून का राज सब पर चलता है वरना अभी तक तो लोग यही मानते हैं कि कानून की ताक़त को नेता लोग अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं .
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Sunday, March 28, 2010
झूठ बोलने वालों को अब काला कौव्वा नहीं काटता
शेष नारायण सिंह
कहावत है कि जो झूठ बोलता है उसे कौव्वा काट लेता है .. लगता है यह बात बहुत पुरानी हो गयी.क्योंकि आजकल तो बहुत सारे नेता दिन रात झूठ बोलते हैं और उन्हें कोई कौवा नहीं काटता.. बी जे पी के नेता .लाल कृष्ण आडवानी ने बार बार दावा किया है कि वे कभी झूठ नहीं बोलते .. जानकार कहते हैं कि उनके बयानों में कई कई अर्थों को आत्मसात कर लेने की क्षमता होती है , लगता है कि अपने इस कौशल की वजह से ही माननीय आडवानी जी इस बार झूठ बोलते पकड़ लिए गए हैं .. ६ दिसंबर ,१९९२ के दिन बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उन्होंने सार्वजनिक बयान दिया था कि वह उनके जीवन का सबसे दुःख भरा दिन था. आज तक माना जा रहा था कि यह पूरी तरह से सच है . लेकिन अब एक बार फिर आडवाणी की गलतबयानी के पुख्ता सबूत सार्वजनिक मंच पर फेंक दिए गए हैं. ६ दिसंबर १९९२ के दिन आडवाणी की व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए तैनात आई पी एस अफसर अंजू गुप्ता ने सी बी आई कोर्ट में बयान दिया है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद में आडवाणी बहुत खुश थे .. ज़ाहिर हैं एक आई पी एस अफसर की बात को गंभीरता से लेना पड़ेगा क्योंकि उसने बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के और अपनी ड्यूटी निभाने के लिए ही कोर्ट में बयान दिया है . उसने शपथ ली है कि वह झूठ नहीं बोलेगी तो उसकी बात का विश्वास किया जाना चाहिए.. इस अफसर के बयान ने एक बार फिर आडवाणी को झूठ बोलने वाला नेता साबित कर दिया है . क्योंकि ६ दिसंबर १९९२२ के दिन आडवाणी के पास दुखी होने की फुर्सत ही नहीं थी, वह तो उनके जीवन का खुशी से भरा एक दिन था.
अंजू गुप्ता ने अपने बयान में बताया कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले आडवाणी ने एक भड़काऊ भाषण दिया . बयान में है कि आडवाणी बहुत उत्साहित थे . उन्होंने कारसेवकों को उत्साह से भर दिया , उन्होंने कहा कि भव्य राम मंदिर उसी २.७७ एकड़ ज़मीन पर बनेगा जहां बाबरी मस्जिद मौजूद थी. आडवाणी ने उस दिन फैजाबाद जिले के पुलिस कप्तान और जिलाधिकारी को तलब किया और उनसे भी बात चीत की. जिस मंच पर आडवाणी के साथ मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा आदि नेता मौजूद थे ,उस पर भी हर्ष और उल्लास का माहौल था. जब बाबरी मस्जिद के गुम्बद गिरने लगे तो मंच पर मौजूद नेता एक दूसरे को बधाई दे रहे थे. उमा भारती और साध्वी ऋतंभरा गले मिलीं और खुशी का इज़हार किया.इन लोगों ने आडवाणी , जोशी और पूर्व पुलिस महानिदेशक , श्रीश चंद दीक्षित को भी गले मिलकर बधाई दी. श्रीश चंद दीक्षित ने वहां मौजूद पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों को धन्यवाद दिया कि उन लोगों ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस में कोई अड़चन नहीं डाली.
बी जे पी के वे नेता जो बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने वाले केस में पकडे गए हैं ,वे पिछले १८ वर्षों से कह रहे हैं कि मस्जिद की तबाही में उनका कोई योगदान नहीं है ,अब झूठ बोलते पकड़ लिए गए हैं. मस्जिद के खिलाफ चले आन्दोलन में और उसके बाद राजनीतिक लाभ के लिए तो यह नेता शेखी बघारते रहे हैं लेकिन कानूनी मंचों पर तैयार किया गया बयान देते रहे हैं . अंजू गुप्ता की गवाही के बाद इन नेताओं के लिए मुश्किल पैदा हो गयी है . क्योंकि आपराधिक काम में अगर इन लोगों की साज़िश साबित हो जायेगी तो सबको इतने वर्षों की सज़ा होगी तो यह लोग चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिए जायेंगें . इस वक़्त बाबरी मस्जिद विध्वंस केस के अभियुक्त बी जे पी नेताओं को जो डर है वह इसी संभावना की गंभीरता को लेकर है..एक वक़्त था जब इन्हीं बी जे पी नेताओं के साथ बड़ी संख्या में लोग थे . आज आलम यह है कि आम जनता का तो सवाल ही नहीं, इनकी अपनी पार्टी के नेता चाहते हैं कि यह लोग चुनाव के मैदान से बाहर हों तो आसानी होगी. ज़ाहिर है कि चुनाव की राजनीति से बाहर होने पर हर नेता को तकलीफ होगी. क्योंकि ज़्यादातर नेता चुनाव के ज़रिये ही अपने आप को सम्मान दिला सकते हैं .
मीडिया की सजगता की वजह से इन लोगों को सज़ा से बचने की संभावना बहुत कम है . यह ठीक भी है .. . बाबरी मस्जिद को सिम्बल बनाकार मुसलमानों के खिलाफ ज़हर घोलने के आन्दोलन के पीछे और कोई इरादा नहीं था. इरादा था तो सिर्फ लगातार पिछड़ रही बी जे पी को चुनावी सफलता दिलाना . लेकिन अब वह सब ख़त्म हो चुका है .बी जे पी चुनाव में सफल भी हुई, सरकार भी बनाया . इसके नेता भी उसी तरह से घूस के कारोबार में लग गए जैसे इनके पहले कांग्रेसी और समाजवादी लगते रहे हैं . आज बी जे पी फिर असमंजस में है .कहीं कोई मुद्दा नहीं है जिसके खिलाफ बी जे पी वाले ऐलानियाँ मैदान ले सकें . घूस खोरी के बहुत सारे मामलों में बी जे पी के के नेताओं के नाम आ जाने के बाद अब उनकी बात में वह दम नहीं जो सत्ता में आने के पहले तक होता था. सत्ता पाते ही उन लोगों ने साबित कर दिया के अपने पूर्वज कांग्रेसी नेताओं से बेहतर तरीके से बे-ईमानी कर सकते हैं . इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के अभियुक्तों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलने के लिए माहौल बिलकुल दुरस्त है . इस लिए अदालत को चाहिए कि इन लोगों को सख्त से सख्त सज़ा दें . ताकि आने वाले वक़्त में कोई भी पार्टी चन्द सीटों के लिए देश में दंगे न फैलाए. दुनिया जानती है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद में आर एस एस के मातहत संगठनों ने जिस तरह से खून खराबा किया था. उसकी सज़ा भी कोई मामूली नहीं होनी चाहिए . सभ्य समाज को उम्मीद है कि राय बरेली की विशेष अदालत में सही न्याय होगा .
कहावत है कि जो झूठ बोलता है उसे कौव्वा काट लेता है .. लगता है यह बात बहुत पुरानी हो गयी.क्योंकि आजकल तो बहुत सारे नेता दिन रात झूठ बोलते हैं और उन्हें कोई कौवा नहीं काटता.. बी जे पी के नेता .लाल कृष्ण आडवानी ने बार बार दावा किया है कि वे कभी झूठ नहीं बोलते .. जानकार कहते हैं कि उनके बयानों में कई कई अर्थों को आत्मसात कर लेने की क्षमता होती है , लगता है कि अपने इस कौशल की वजह से ही माननीय आडवानी जी इस बार झूठ बोलते पकड़ लिए गए हैं .. ६ दिसंबर ,१९९२ के दिन बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उन्होंने सार्वजनिक बयान दिया था कि वह उनके जीवन का सबसे दुःख भरा दिन था. आज तक माना जा रहा था कि यह पूरी तरह से सच है . लेकिन अब एक बार फिर आडवाणी की गलतबयानी के पुख्ता सबूत सार्वजनिक मंच पर फेंक दिए गए हैं. ६ दिसंबर १९९२ के दिन आडवाणी की व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए तैनात आई पी एस अफसर अंजू गुप्ता ने सी बी आई कोर्ट में बयान दिया है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद में आडवाणी बहुत खुश थे .. ज़ाहिर हैं एक आई पी एस अफसर की बात को गंभीरता से लेना पड़ेगा क्योंकि उसने बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के और अपनी ड्यूटी निभाने के लिए ही कोर्ट में बयान दिया है . उसने शपथ ली है कि वह झूठ नहीं बोलेगी तो उसकी बात का विश्वास किया जाना चाहिए.. इस अफसर के बयान ने एक बार फिर आडवाणी को झूठ बोलने वाला नेता साबित कर दिया है . क्योंकि ६ दिसंबर १९९२२ के दिन आडवाणी के पास दुखी होने की फुर्सत ही नहीं थी, वह तो उनके जीवन का खुशी से भरा एक दिन था.
अंजू गुप्ता ने अपने बयान में बताया कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले आडवाणी ने एक भड़काऊ भाषण दिया . बयान में है कि आडवाणी बहुत उत्साहित थे . उन्होंने कारसेवकों को उत्साह से भर दिया , उन्होंने कहा कि भव्य राम मंदिर उसी २.७७ एकड़ ज़मीन पर बनेगा जहां बाबरी मस्जिद मौजूद थी. आडवाणी ने उस दिन फैजाबाद जिले के पुलिस कप्तान और जिलाधिकारी को तलब किया और उनसे भी बात चीत की. जिस मंच पर आडवाणी के साथ मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा आदि नेता मौजूद थे ,उस पर भी हर्ष और उल्लास का माहौल था. जब बाबरी मस्जिद के गुम्बद गिरने लगे तो मंच पर मौजूद नेता एक दूसरे को बधाई दे रहे थे. उमा भारती और साध्वी ऋतंभरा गले मिलीं और खुशी का इज़हार किया.इन लोगों ने आडवाणी , जोशी और पूर्व पुलिस महानिदेशक , श्रीश चंद दीक्षित को भी गले मिलकर बधाई दी. श्रीश चंद दीक्षित ने वहां मौजूद पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों को धन्यवाद दिया कि उन लोगों ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस में कोई अड़चन नहीं डाली.
बी जे पी के वे नेता जो बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने वाले केस में पकडे गए हैं ,वे पिछले १८ वर्षों से कह रहे हैं कि मस्जिद की तबाही में उनका कोई योगदान नहीं है ,अब झूठ बोलते पकड़ लिए गए हैं. मस्जिद के खिलाफ चले आन्दोलन में और उसके बाद राजनीतिक लाभ के लिए तो यह नेता शेखी बघारते रहे हैं लेकिन कानूनी मंचों पर तैयार किया गया बयान देते रहे हैं . अंजू गुप्ता की गवाही के बाद इन नेताओं के लिए मुश्किल पैदा हो गयी है . क्योंकि आपराधिक काम में अगर इन लोगों की साज़िश साबित हो जायेगी तो सबको इतने वर्षों की सज़ा होगी तो यह लोग चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिए जायेंगें . इस वक़्त बाबरी मस्जिद विध्वंस केस के अभियुक्त बी जे पी नेताओं को जो डर है वह इसी संभावना की गंभीरता को लेकर है..एक वक़्त था जब इन्हीं बी जे पी नेताओं के साथ बड़ी संख्या में लोग थे . आज आलम यह है कि आम जनता का तो सवाल ही नहीं, इनकी अपनी पार्टी के नेता चाहते हैं कि यह लोग चुनाव के मैदान से बाहर हों तो आसानी होगी. ज़ाहिर है कि चुनाव की राजनीति से बाहर होने पर हर नेता को तकलीफ होगी. क्योंकि ज़्यादातर नेता चुनाव के ज़रिये ही अपने आप को सम्मान दिला सकते हैं .
मीडिया की सजगता की वजह से इन लोगों को सज़ा से बचने की संभावना बहुत कम है . यह ठीक भी है .. . बाबरी मस्जिद को सिम्बल बनाकार मुसलमानों के खिलाफ ज़हर घोलने के आन्दोलन के पीछे और कोई इरादा नहीं था. इरादा था तो सिर्फ लगातार पिछड़ रही बी जे पी को चुनावी सफलता दिलाना . लेकिन अब वह सब ख़त्म हो चुका है .बी जे पी चुनाव में सफल भी हुई, सरकार भी बनाया . इसके नेता भी उसी तरह से घूस के कारोबार में लग गए जैसे इनके पहले कांग्रेसी और समाजवादी लगते रहे हैं . आज बी जे पी फिर असमंजस में है .कहीं कोई मुद्दा नहीं है जिसके खिलाफ बी जे पी वाले ऐलानियाँ मैदान ले सकें . घूस खोरी के बहुत सारे मामलों में बी जे पी के के नेताओं के नाम आ जाने के बाद अब उनकी बात में वह दम नहीं जो सत्ता में आने के पहले तक होता था. सत्ता पाते ही उन लोगों ने साबित कर दिया के अपने पूर्वज कांग्रेसी नेताओं से बेहतर तरीके से बे-ईमानी कर सकते हैं . इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के अभियुक्तों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलने के लिए माहौल बिलकुल दुरस्त है . इस लिए अदालत को चाहिए कि इन लोगों को सख्त से सख्त सज़ा दें . ताकि आने वाले वक़्त में कोई भी पार्टी चन्द सीटों के लिए देश में दंगे न फैलाए. दुनिया जानती है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद में आर एस एस के मातहत संगठनों ने जिस तरह से खून खराबा किया था. उसकी सज़ा भी कोई मामूली नहीं होनी चाहिए . सभ्य समाज को उम्मीद है कि राय बरेली की विशेष अदालत में सही न्याय होगा .
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Saturday, March 27, 2010
मुसलमानों के साथ इंसाफ,सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
शेष नारायण सिंह
गरीब और पिछड़े मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों के आरक्षण के बारे में अंतरिम आदेश देकर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इन्साफ की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम उठाने के आंध्रप्रदेश सरकार के फैसले पर मंजूरी की मुहर लगा दी .एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून को बहाल कर दिया है जिसे आन्ध्रप्रदेश सरकार ने इस उद्देश्य से बनाया था कि सरकारी नौकरियों में पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण दिया जा सकेगा. बाद में हाई कोर्ट ने इस कानून को रद्द कर दिया था. हाई कोर्ट के फैसले को गलत बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इसे कानूनी शक्ल दे दी है . मामला संविधान बेंच को भेज दिया गया है जहां इस बात की भी पक्की जांच हो जायेगी कि आन्ध्र प्रदेश सरकार का कानून विधिसम्मत है कि नहीं ..संविधान बेंच से पास हो जाने के बाद मुस्लिम आरक्षण के सवाल पर कोई वैधानिक अड़चन नहीं रह जायेगी. फिर राज्य और केंद्र सरकारों को सामाजिक न्याय की दिशा में यह ज़रूरी क़दम उठाने के लिए केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रुरत रहेगी .न्यायालयों का डर नहीं रह जाएगा क्योंकि एक बार सुप्रीम कोर्ट की नज़र से गुज़र जाने के बाद किसी भी कानून को निचली अदालतें खारिज नहीं कर सकतीं.
इस फैसले से मुसलमानों के इन्साफ के लिए संघर्ष कर रही जमातों को ताक़त मिल जायेगी. पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए कुछ सीटें रिज़र्व करने का कानून बनाने की दिशा में सकारात्मक पहल की है..बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थाओं में मुसलमानों को १० प्रतिशत रिज़र्वेशन देने की पेशकश की थी. उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा था.इस फैसले के बाद बुद्ध देव भट्टाचार्य को अपने फैसले को लागू करने के लिए ताक़त मिलेगी...इसके पहले भी केरल ,बिहार ,कर्नाटक और तमिलनाडु में पिछड़े मुसलमानों को रिज़र्वेशन की सुविधा उपलब्ध है .. आर एस एस की मानसिकता वाले बहुत सारे लोग यह कहते मिल जायेंगें कि संविधान में धार्मिक आरक्षण की बात को मना किया गया है . यह बात सिरे से ही खारिज कर देनी चाहिए. संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा है. केरल में १९३६ से ही मुसलमानों को नौकरियों में आरक्षण दे दिया गया था .उन दिनों इसे ट्रावन्कोर-कोचीन राज्य कहा जाता था .बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने भी ओ बी सी आरक्षण की व्यवस्था की थी जिसमें पिछड़े मुसलमानों को भी लाभ दिया जाता था . दरअसल बिहार में ओ बी सी रिज़र्वेशन में मुसलमानों के पिछड़े वर्ग की जातियों का बाकायदा नाम रहता था. बिहार में अंसारी, इदरीसी,डफाली,धोबी,नालबंद आदि को स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर रिज़र्वेशन का लाभ देकर गए थे.१९७७ में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्य मंत्री, देव राज उर्स ने भी मुस्लिम ओ बी सी को रिज़र्वेशन दे दिया था. देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी उत्तर प्रदेश में है लेकिन राज्य में अभी मुसलमानों के लिए किसी तरह का आरक्षण नहीं है . यह अजीब बात है कि राज्य के अब तक के नेताओं ने इस महत्व पूर्ण विषय पर को पहल नहीं की.
आंध्र प्रदेश में मुसलमानों के आरक्षण का मामला जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अदालत में पेश हुआ तो अटार्नी जनरल गुलाम वाह्नावती और सीनियर एडवोकेट के पराशरण ने जिस तरह से बहस की, वह बहुत ही सही लाइन पर थी. . उन्होंने तर्क दिया कि जब हिन्दू पिछड़ी जातियों को आरक्षण की सुविधा उपलब्ध है तो मुसलमानों को वह सुविधा न देकर सरकारें धार्मिक आधार पर पक्षपात कर रही हैं .. अदालत ने भी आरक्षण का विरोध करने वालों से पूछा कि सरकार के कानून बनाने के अधिकार को निजी पसंद या नापसंद के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती..
सुप्रीम कोर्ट के इस अंतरिम आदेश के बाद केंद्र की यू पी ए सरकार पर भी रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का दबाव बढ़ जाएगा. कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में वायदा किया था कि सरकार बनने पर मुसलमानों के लिए ओ बी सी के लिए रिज़र्व नौकरियों के कोटे में मुस्लिम पिछड़ों के लिए सब-कोटा का इंतज़ाम किया जाएगा. अब कांग्रेस से सवाल पूछने का टाइम आ गया कि वे अपने वायदे कब पूरे करने वाले हैं . दर असल मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में सीटें रिज़र्व करने की बात तो आज़ादी की लड़ाई के दौरान की विचाराधीन थी जब महात्मा गाँधी, राम मनोहर लोहिया और बाबा साहेब अंबेडकर ने सामाजिक न्याय के लिए सकारात्मक पहल को संविधान का स्थायी भाव बनाया था . लेकिन जब संविधान लिखा जाने लगा तो देश की सियासती तस्वीर बदल चुकी थी. मुल्क का बंटवारा हो चुका था और कांग्रेस के अन्दर मौजूद साम्प्रदायिक ताक़तों के एजेंट देश में मौजूद हर मुसलमान को अपमानित करने पर आमादा थे . महात्मा गाँधी की ह्त्या हो चुकी थी और जवाहर लाल नेहरू, लोहिया और बाबा साहेब अंबेडकर की हिम्मत नहीं पड़ी कि कांग्रेस के अन्दर के बहुमत से पंगा लें . लिहाज़ा दलित जातियों के लिए जो रिज़र्वेशन हुआ , उसमें से मुसलमानों को बाहर कर दिया गया . संविधान लागू होने के ६० साल बाद एक बार फिर ऐसा माहौल बना है कि राजनीतिक पार्टियां अगर चाहें तो सकारात्मक पहल कर सकती हैं और गरीब और पिछड़े मुसलमानों का वह हक उन्हें दे सकती हैं , जो उन्हें अब से ६० साल पहले ही मिल जाना चाहिए था.
गरीब और पिछड़े मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों के आरक्षण के बारे में अंतरिम आदेश देकर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इन्साफ की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम उठाने के आंध्रप्रदेश सरकार के फैसले पर मंजूरी की मुहर लगा दी .एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून को बहाल कर दिया है जिसे आन्ध्रप्रदेश सरकार ने इस उद्देश्य से बनाया था कि सरकारी नौकरियों में पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण दिया जा सकेगा. बाद में हाई कोर्ट ने इस कानून को रद्द कर दिया था. हाई कोर्ट के फैसले को गलत बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इसे कानूनी शक्ल दे दी है . मामला संविधान बेंच को भेज दिया गया है जहां इस बात की भी पक्की जांच हो जायेगी कि आन्ध्र प्रदेश सरकार का कानून विधिसम्मत है कि नहीं ..संविधान बेंच से पास हो जाने के बाद मुस्लिम आरक्षण के सवाल पर कोई वैधानिक अड़चन नहीं रह जायेगी. फिर राज्य और केंद्र सरकारों को सामाजिक न्याय की दिशा में यह ज़रूरी क़दम उठाने के लिए केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रुरत रहेगी .न्यायालयों का डर नहीं रह जाएगा क्योंकि एक बार सुप्रीम कोर्ट की नज़र से गुज़र जाने के बाद किसी भी कानून को निचली अदालतें खारिज नहीं कर सकतीं.
इस फैसले से मुसलमानों के इन्साफ के लिए संघर्ष कर रही जमातों को ताक़त मिल जायेगी. पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए कुछ सीटें रिज़र्व करने का कानून बनाने की दिशा में सकारात्मक पहल की है..बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थाओं में मुसलमानों को १० प्रतिशत रिज़र्वेशन देने की पेशकश की थी. उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा था.इस फैसले के बाद बुद्ध देव भट्टाचार्य को अपने फैसले को लागू करने के लिए ताक़त मिलेगी...इसके पहले भी केरल ,बिहार ,कर्नाटक और तमिलनाडु में पिछड़े मुसलमानों को रिज़र्वेशन की सुविधा उपलब्ध है .. आर एस एस की मानसिकता वाले बहुत सारे लोग यह कहते मिल जायेंगें कि संविधान में धार्मिक आरक्षण की बात को मना किया गया है . यह बात सिरे से ही खारिज कर देनी चाहिए. संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा है. केरल में १९३६ से ही मुसलमानों को नौकरियों में आरक्षण दे दिया गया था .उन दिनों इसे ट्रावन्कोर-कोचीन राज्य कहा जाता था .बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने भी ओ बी सी आरक्षण की व्यवस्था की थी जिसमें पिछड़े मुसलमानों को भी लाभ दिया जाता था . दरअसल बिहार में ओ बी सी रिज़र्वेशन में मुसलमानों के पिछड़े वर्ग की जातियों का बाकायदा नाम रहता था. बिहार में अंसारी, इदरीसी,डफाली,धोबी,नालबंद आदि को स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर रिज़र्वेशन का लाभ देकर गए थे.१९७७ में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्य मंत्री, देव राज उर्स ने भी मुस्लिम ओ बी सी को रिज़र्वेशन दे दिया था. देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी उत्तर प्रदेश में है लेकिन राज्य में अभी मुसलमानों के लिए किसी तरह का आरक्षण नहीं है . यह अजीब बात है कि राज्य के अब तक के नेताओं ने इस महत्व पूर्ण विषय पर को पहल नहीं की.
आंध्र प्रदेश में मुसलमानों के आरक्षण का मामला जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अदालत में पेश हुआ तो अटार्नी जनरल गुलाम वाह्नावती और सीनियर एडवोकेट के पराशरण ने जिस तरह से बहस की, वह बहुत ही सही लाइन पर थी. . उन्होंने तर्क दिया कि जब हिन्दू पिछड़ी जातियों को आरक्षण की सुविधा उपलब्ध है तो मुसलमानों को वह सुविधा न देकर सरकारें धार्मिक आधार पर पक्षपात कर रही हैं .. अदालत ने भी आरक्षण का विरोध करने वालों से पूछा कि सरकार के कानून बनाने के अधिकार को निजी पसंद या नापसंद के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती..
सुप्रीम कोर्ट के इस अंतरिम आदेश के बाद केंद्र की यू पी ए सरकार पर भी रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का दबाव बढ़ जाएगा. कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में वायदा किया था कि सरकार बनने पर मुसलमानों के लिए ओ बी सी के लिए रिज़र्व नौकरियों के कोटे में मुस्लिम पिछड़ों के लिए सब-कोटा का इंतज़ाम किया जाएगा. अब कांग्रेस से सवाल पूछने का टाइम आ गया कि वे अपने वायदे कब पूरे करने वाले हैं . दर असल मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में सीटें रिज़र्व करने की बात तो आज़ादी की लड़ाई के दौरान की विचाराधीन थी जब महात्मा गाँधी, राम मनोहर लोहिया और बाबा साहेब अंबेडकर ने सामाजिक न्याय के लिए सकारात्मक पहल को संविधान का स्थायी भाव बनाया था . लेकिन जब संविधान लिखा जाने लगा तो देश की सियासती तस्वीर बदल चुकी थी. मुल्क का बंटवारा हो चुका था और कांग्रेस के अन्दर मौजूद साम्प्रदायिक ताक़तों के एजेंट देश में मौजूद हर मुसलमान को अपमानित करने पर आमादा थे . महात्मा गाँधी की ह्त्या हो चुकी थी और जवाहर लाल नेहरू, लोहिया और बाबा साहेब अंबेडकर की हिम्मत नहीं पड़ी कि कांग्रेस के अन्दर के बहुमत से पंगा लें . लिहाज़ा दलित जातियों के लिए जो रिज़र्वेशन हुआ , उसमें से मुसलमानों को बाहर कर दिया गया . संविधान लागू होने के ६० साल बाद एक बार फिर ऐसा माहौल बना है कि राजनीतिक पार्टियां अगर चाहें तो सकारात्मक पहल कर सकती हैं और गरीब और पिछड़े मुसलमानों का वह हक उन्हें दे सकती हैं , जो उन्हें अब से ६० साल पहले ही मिल जाना चाहिए था.
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