शेष नारायण सिंह
१९९२ में जिन लोगों ने अयोध्या में एक मध्य युगीन मसजिद को ज़मींदोज़ किया था उन्होंने उसके साथ ही बहुत कुछ ज़मींदोज़ कर दिया था .उन्होंने आज़ादी की लड़ाई की उस परंपरा को ढहा दिया था जिसे महात्मा गांधी ने आंदोलन का मकसद बताया था. दर असल धर्म निरपेक्षता भारत की आज़ादी के संघर्ष का इथास थी. बाबरी मसजिद के विध्वंस के बाद मैं उन कुछ बदकिस्मत लोगों में था जिन्होंने उसके बाद की राजनीति को विकसित होते देखा था. हिंदी मीडिया में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग आर एस एस की राजनीति के प्रचारक के रूप में काम कर रहा था . वे आर एस एस के मसजिद ढहाने के काम को वीरता बता रहे थे . उस वक़्त के प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को अर्जुन सिंह की चुनौती मिल रही थे लेकिन कुछ भी करने के पहले १०० बार सोचने के लिए विख्यात अर्जुन सिंह ने मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा नहीं दिया . अटल बिहारी वाजपेयी दुखी होने का अभिनय कर रहे तह . लाल कृष्ण आडवानी, कल्याण सिंह , उमा भारती , साध्वी ऋतंभरा , अशोक सिंघल आदि जश्न मना रहे थे . कांग्रेस में हताशा का माहौल था. २४ घंटे का टेलिविज़न नहीं था. ख़बरें बहुत धीरे धीरे आ रा ही थीं लेकिन जो भी ख़बरें आ रही थीं वे अपने राष्ट्र की बुनियाद को हिला देने वालीथीं . दिल्ली में सहमत नाम की संस्था ने कुछ बुद्धिजीवियों को इकठ्ठा करना शुरू कर दिया था . महात्मा गांधी की समाधि पर जब मदर टेरेसा के साथ देश भर से आये धर्म निरपेक्ष लोगों ने माथा टेका तो लगता था कि अब अपना देश तबाह होने से बच जाएगा . बिना किसी तैयारी के शांतिप्रेमी लोग वहाँ इकठ्ठा हुए और समवेत स्वर में रघुपति राघव राजाराम की टेर लगाते रहे. मेरी नज़र में महात्मा गांधी के दर्शन की उपयोगिता का यह प्रैक्टिकल सबूत था .
बाबरी मसजिद को ढहाने के बाद आर एस एस ने कट्टर हिन्दूवाद को एक राजनीतिक विचार धारा के रूपमें स्थापित कर दिया था . आर एस एस के लोग इस योजना पर बहुत पहले से काम कर रहे थे .दुनिया जानती है कि आज़ादी की लड़ाई में आर एस एस के लोग शामिल नहीं हुए थे . आज़ादी के बाद महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ के ऊपर प्रतिबन्ध लगा था .बाद में १९७५ में भी इन पर पाबंदी लगी थी लेकिन इनका काम कभी रुका नहीं . आर एस एस के लोग पूरी तरह से अपने मिशन में लगे रहे. डॉ लोहिया ने गैर कांग्रेस वाद की राजनीति के सहारे इन लोगों को राजनीतिक सम्मान दिलवाया था. जब १९६७ में संविद सरकारों का प्रयोग हुआ तो आर एस एस की अधीन पार्टी भारतीय जनसंघ थी . उस पार्टी के लोग कई राज्य सरकारों में मंत्री बने . बाद में जब जनता पार्टी बनी तो जनसंघ घटक के लोग उसमें सबसे ज्यादा संख्या में थे. उसके साथ ही आर एस एस की राजनीति मुख्यधारा में आ चुकी थी . १९७७ में जब लाल कृष्ण आडवानी सूचना और प्रसारण मंत्री बने तो बड़े पैमाने पर संघ के कार्यकर्ताओं को अखबारों में भर्ती करवाया गया . जब १९९२ में बाबरी मसजिद को तबाह किया गया तो उत्तर भारत के अधिकतर अखबारों में आर एस एस के लोग भरे हुए थे . उन्हीं लोगों ने ऐसा माहौल बनाया जैसे कि जैसे बाबरी मसजिद को ढहाने वालों ने कोई बहुत भारी वीरता का काम किया हो . कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन गया कि देश में धर्म निरपेक्ष होना किसी अपराध जैसा लागने लगा था. लेकिन देश में बहुसंख्यक हिंदू धर्म निरपेक्ष हैं और उनको मालूम है कि धार्मिक कट्टरता से समाज में विघटन पैदा होता है, शायद इसी लिए हिंदुओं की बहुसंख्या होने के बाद भी देश में साम्प्रदायिक ताक़तों की हालत खराब ही रहती है .
बाबरी मसजिद के तबाह होने के बाद आर एस एस ने सत्ता के पास आने में सफलता तो पा ली लेकिन देश के धर्म निरपेक्ष मूल ढाँचे से छेडछाड करने की उनकी कोशिश का नतीजा ऐसा नहीं है जिससे उन्हें बहुत खुशी हो . उनकी विध्वंस की राजनीति ने वरुण गांधी , नरेंद्र मोदी , परवीन तोगडिया टाइप कुछ नेता भले ही पैदा कर दिये हों लेकिन उन्हें सम्मान मिल पाना बहुत मुश्किल है .उसके लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ेगी . बाबरी मसजिद की तबाही की तारीख हमें हमेशा यह भी याद दिलाती है कि महात्मा गांधी ने जिस आजादी को हमारे हवाले किया था , हमेशा उसकी हिफाज़त करते रहना पड़ेगा . अगर एक राष्ट्र और समाज के रूप में हम चौकन्ना न रहे तो जिन लोगों ने बाबरी मसजिद को ज़मींदोज़ किया था वे हमारे अंदर के तार तार को तोड़ डालेगें