शेष नारायण सिंह
दलितों को शिक्षित करने की दिशा में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया है .संविधान में व्यवस्था है कि दलित भारतीयों के लिए सकारात्मक हस्तक्षेप के ज़रिये समता मूलक समाज की स्थापना की जायेगी. उसके लिए १९५० में संविधान के लागू होने के साथ ही यह सुनिश्व्चित कर दिया गया था कि राजनीतिक नेतृत्व अगर दलितों के विकास के लिए कोई योजनायें बनाना चाहे तो उसमें किसी तरह की कानूनी अड़चन न आये . लेकिन संविधान लागू होने के ६० साल बाद भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को शिक्षा के क्षेत्र में बाकी लोगों के बराबर करने के लिए कोई प्रभावी क़दम नहीं उठाया गया है . सबको मालूम है कि सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा हथियार शिक्षा ही है . जिन समाजों में भी बराबरी का माहौल बना है उसमें दलित और शोषित वर्गों को शिक्षित करना सबसे बड़ा हथियार रहा है लेकिन भारत सरकार और मुख्य रूप से केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस सरकार ने दलितों को शिक्षा के क्षेत्र में ऊपर उठाने की दिशा में कोई राजनीतिक क़दम नहीं उठाया है . उनकी जो भी कोशिश रही है वह केवल खानापूर्ति की रही है . ऐसा लगता है कि १९५० से अब तक कांग्रेस ने दलितों को वोट देने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं समझा . शायद इसीलिये दलितों के वैकल्पिक राजनीतिक नेतृत्व के विकास की आवश्यकता समझी गयी और कुछ हद तक यह काम संभव भी हुआ. दक्षिण में तो यह राजनीतिक नेतृत्व आज़ादी के करीब २० साल बाद ही प्रभावी होने लगा था लेकिन उत्तर में अभी यह बहुत कमज़ोर है . उत्तर प्रदेश में एक विकल्प उभर रहा है लेकिन उसमें भी शासक वर्गों की सामंती सोच के आधार पर ही दलितों के विकास की राजनीति की जा रही है क्योंकि नौकरशाही पर अभी निहित स्वार्थ ही हावी हैं . कई बार तो ऐसा लगता है कि राजनीतिक पार्टियां जब भी दलितों के विकास के लिए कोई काम करती हैं तो यह उम्मीद करती हैं कि दलितों के हित के बारे में सोचने वाली जमातें उनका एहसान मानें . कारण जो भी हों दलितों को शक्तिशाली बनाने के लिए जो सबसे ज़रूरी हथियार शिक्षा का है उस तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की पंहुच अभी सीमित है . पिछले हफ्ते लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया गया कि स्कूलों में पहली से दसवीं क्लास तक की पढाई करने जाने वाले अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की कुल संख्या में से बहुत बड़ी तादाद में बच्चे पढाई बीच में ही छोड़ देते हैं . यह आंकड़े हैरतअंगेज़ हैं और हमारे राजनीतिक नेताओं की नीयत पर ही सवाल उठा देते हैं . सरकारी तौर पर बताया गया है कि दसवीं तक की शिक्षा पूरी करने के पहले अनुसूचित जातियों के बच्चों का ड्राप रेट डरावना है . २००६-०७ में करीब ६९ प्रतिशत अनुसूचित जातियों के बच्चों ने पढाई छोड़ दी थी. जबकि २००८-०९ में इस वर्ग के ६६.५६ प्रतिशत बच्चों ने स्कूल जाना बंद कर दिया था . अनुसूचित जनजातियों के सन्दर्भ में यह आंकड़े और भी अधिक चिंताजनक हैं . २००६-०७ में अनुसूचित जनजातियों के ७८ प्रतिशत से ज्यादा बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया था जबकि २००८-०८ में यह ड्राप रेट २ प्रतिशत नीचे जाकर लगभग ७६ प्रतिशत रह गया था. यह आंकड़े बहुत ही निराशा पैदा करते हैं . अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की इतनी बड़ी संख्या का बीच में ही स्कूल छोड़ देना बहुत ही खराब बात है . ज़ाहिर है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और नौकरशाही के बे परवाह रवैय्ये के कारण ही यह हालात पैदा हुए हैं और इन पर फ़ौरन रोक लागने की ज़रुरत है .
केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा विभाग की ओर से सरकारी तौर पर दिए गए इन आंकड़ों में कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र सरकार की कई नीतियों का उल्लेख किया गया है और बताया गया है कि इन नीतियों के कारण दलितों के शैक्षिक विकास को रफ़्तार मिलेगी . सरकार ने दावा किया है कि सर्व शिक्षा अभियान नाम की जो योजना है वह समता मूलक समाज की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी .लोकसभा को सरकार ने बताया कि सर्व शिक्षा अभियान ने समानता आधारित दृष्टिकोण अपनाया है जो शैक्षिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों तथा समाज के लाभवंचित वर्गों की आवश्यकताओं पर ध्यान केन्द्रित करता है ..समाज के लाभवंचित वर्गों की शिक्षा सम्बंधित सरोकार ,सर्व शिक्षा अभियान योजना में अन्तर्निहित है.. यह सरकारी भाषा है जिसमें बिना कोई भी पक्की बात बताये सच्चाई को कवर कर दिया जाता है . लेकिन सच्चाई यह है कि सर्व शिक्षा अभियान का जो मौजूदा स्वरुप है वह पूरी तरह से राज्यों में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को आर्थिक लाभ पंहुचाने की योजना बन कर रह गया है . सरकार ने दावा किया है कि निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम २००९ ,सर्व शिक्षा आभियान , मध्याह्न भोजन योजना ,कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना ,राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान का उद्देश्य स्कूलों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों श्रेणियों के छात्रों सहित सभी वर्ग के छात्रों के नामांकन में वृद्धि करवाना है . सरकारी भाषा में कही गयी इस बात में लगभग घोषित कर दिया गया है कि दलित बच्चों का स्कूलों में नामांकन करवाना ही सरकार का उद्देश्य है .उनकी पढाई को पूरा करवाने के लिए सरकार कोई भी उपाय नहीं करना चाहती .ज़मीनी सच्चाई यह है कि इन योजनाओं के नाम पर जनता का धन तो बहुत बड़े पैमाने पर लग रहा है लेकिन बीच में निहित स्वार्थ वालों की ज़बरदस्त मौजूदगी के चलते यह योजनायें अपना मकसद हासिल करने से कोसों दूर हैं
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Tuesday, March 15, 2011
Friday, June 26, 2009
बच्ची की मौत पर अभिजात रुख
दिल्ली के दो स्कूलों में छात्राओं की असामयिक मौत हुई। रईसों के माडर्न स्कूल वसंत विहार में पढऩे वाली आकृति भाटिया को अस्थमा का दौरा पड़ा, आरोप है कि स्कूल के अधिकारियों ने उसे अस्पताल पहुंचाने और चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने में देरी की, नतीजतन बच्ची की मौत हो गई। दूसरा हादसा उत्तरी दिल्ली के बवाना के एक सरकारी स्कूल में हुआ। 11 साल की शन्नो खातून नाम की एक बच्ची बवाना के म्युनिस्पल स्कूल में पढ़ती थी।
उसकी टीचर ने उसे धूप में खड़ा रखा, सजा दी और बच्ची बेहोश हो गई। उसके माता पिता को तलब किया गया जो उसे अस्पताल ले गए। बच्ची दो दिन तक अस्पताल में बेहोश पड़ी रही, जिसके बाद उसकी मौत हो गई। बहुत कम समय के अंतर पर दिल्ली में यह दोनों हादसे हुए। दो परिवारों से उनकी लाडली बच्चियां चली गईं। दर्द दोनों ही परिवारों में महसूस किया गया, पड़ोसी, मित्र और रिश्तेदारों ने दोनों ही परिवारों को ढाढस बंधाया।
यहां तक सब कुछ सामान्य है एक परिवार पर जब मुसीबत का पहाड़ टूटता है, तो इष्टमित्र, तकलीफ को कम करने के लिए आगे आते हैं, यह लोकाचार है। इन दोनों घटनाओं के प्रति समाज, सरकार और मीडिया का जो रवैया था, वह बहुत ही अजीब था। गरीबी-अमीरी की खाईं बहुत ही साफ तरीके से नजर आई। माडर्न स्कूल की बच्ची मौत को मीडिया ने इतना उछाल दिया कि हर हाल में टी.वी. पर शक्ल दिखाने के लिए व्याकुल शहरी मध्य वर्ग के लोग टूट पड़े।
टी.वी. चैनलों के दफ्तरों और अखबारों के रिपोर्टरों के पास फोन आने लगे कि आकृति भाटिया के केस में माडर्न स्कूल की प्रिंसिपल के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को विषय बनाकर कोई कार्यक्रम होने वाला है, वगैरह, वगैरह। किसी भी मीडिया कंपनी ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि हो सकता है कि स्कूल की प्रिंसिपल की कोई गलती न हो, मौत अपरिहार्य कारणों से हुई हो। लेकिन टी आर.पी. के शिकार के लिए बदहवास टी.वी. चैनल को कौन समझाए। एक मिनट के लिए नहीं सोचा कि बिना किसी गलती के, कही स्कूल की प्रिंसिपल सूली पर तो नहीं चढ़ाई जा रही है। टी. आर.पी. के इन खूंखार शिकारियों से यह उम्मीद करना ठीक नहीं होगा।
इन्हीं लोगों ने तो आरुषि हत्या केस में उसके पिता को ही जेल में बंद करवा दिया था। यह भी नहीं सोचा कि बेचारे बाप की इकलौती बेटी को किसी ने मार डाला है और एक पुलिस वाले के गैर जिम्मेदार बयान को आखरी सच मानकर टूट पड़े और अरुचि की हत्या के गलत अभियोग के चक्कर में इतना दबाव बनाया कि पुलिस को बच्ची के पिता को जेल में डालने के लिए बहाना मिल गया। बाद में जब जांच से पता लगा कि पिता निर्दोष है तो पुलिस से ज्यादा मीडिया को खिसियाहट झेलनी पड़ी।
आकृति के मामले में भी टीवी चैनल टूट पड़े और इस बात की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी भारतीय न्याय व्यवस्था में कोई व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि उसका दोष न साबित हो जाय। मीडिया के इस रुख के चलते नेता भी शुरू हो गये और एक केंद्रीय मंत्री ने वाहवाही लूटने का प्रयास किया। दूसरी तरफ शन्नो की मौत का मामला था। जिन हालात में उसकी मौत हुई थी, वह काफी हद तक साफ थी लेकिन मीडिया ने उसके साथ भेदभाव किया! शायद इसी वजह से कोई नेता भी नहीं गया, कुछ वोट याचक नेताओं को छोडक़र। जहां तक समाज के संपन्न वर्गों का सवाल है, उनकी प्रतिक्रिया ऐसी है जो हमारे अभिजात वर्ग को कई स्तरों तक बेपरवा कर देती है।
उसकी टीचर ने उसे धूप में खड़ा रखा, सजा दी और बच्ची बेहोश हो गई। उसके माता पिता को तलब किया गया जो उसे अस्पताल ले गए। बच्ची दो दिन तक अस्पताल में बेहोश पड़ी रही, जिसके बाद उसकी मौत हो गई। बहुत कम समय के अंतर पर दिल्ली में यह दोनों हादसे हुए। दो परिवारों से उनकी लाडली बच्चियां चली गईं। दर्द दोनों ही परिवारों में महसूस किया गया, पड़ोसी, मित्र और रिश्तेदारों ने दोनों ही परिवारों को ढाढस बंधाया।
यहां तक सब कुछ सामान्य है एक परिवार पर जब मुसीबत का पहाड़ टूटता है, तो इष्टमित्र, तकलीफ को कम करने के लिए आगे आते हैं, यह लोकाचार है। इन दोनों घटनाओं के प्रति समाज, सरकार और मीडिया का जो रवैया था, वह बहुत ही अजीब था। गरीबी-अमीरी की खाईं बहुत ही साफ तरीके से नजर आई। माडर्न स्कूल की बच्ची मौत को मीडिया ने इतना उछाल दिया कि हर हाल में टी.वी. पर शक्ल दिखाने के लिए व्याकुल शहरी मध्य वर्ग के लोग टूट पड़े।
टी.वी. चैनलों के दफ्तरों और अखबारों के रिपोर्टरों के पास फोन आने लगे कि आकृति भाटिया के केस में माडर्न स्कूल की प्रिंसिपल के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को विषय बनाकर कोई कार्यक्रम होने वाला है, वगैरह, वगैरह। किसी भी मीडिया कंपनी ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि हो सकता है कि स्कूल की प्रिंसिपल की कोई गलती न हो, मौत अपरिहार्य कारणों से हुई हो। लेकिन टी आर.पी. के शिकार के लिए बदहवास टी.वी. चैनल को कौन समझाए। एक मिनट के लिए नहीं सोचा कि बिना किसी गलती के, कही स्कूल की प्रिंसिपल सूली पर तो नहीं चढ़ाई जा रही है। टी. आर.पी. के इन खूंखार शिकारियों से यह उम्मीद करना ठीक नहीं होगा।
इन्हीं लोगों ने तो आरुषि हत्या केस में उसके पिता को ही जेल में बंद करवा दिया था। यह भी नहीं सोचा कि बेचारे बाप की इकलौती बेटी को किसी ने मार डाला है और एक पुलिस वाले के गैर जिम्मेदार बयान को आखरी सच मानकर टूट पड़े और अरुचि की हत्या के गलत अभियोग के चक्कर में इतना दबाव बनाया कि पुलिस को बच्ची के पिता को जेल में डालने के लिए बहाना मिल गया। बाद में जब जांच से पता लगा कि पिता निर्दोष है तो पुलिस से ज्यादा मीडिया को खिसियाहट झेलनी पड़ी।
आकृति के मामले में भी टीवी चैनल टूट पड़े और इस बात की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी भारतीय न्याय व्यवस्था में कोई व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि उसका दोष न साबित हो जाय। मीडिया के इस रुख के चलते नेता भी शुरू हो गये और एक केंद्रीय मंत्री ने वाहवाही लूटने का प्रयास किया। दूसरी तरफ शन्नो की मौत का मामला था। जिन हालात में उसकी मौत हुई थी, वह काफी हद तक साफ थी लेकिन मीडिया ने उसके साथ भेदभाव किया! शायद इसी वजह से कोई नेता भी नहीं गया, कुछ वोट याचक नेताओं को छोडक़र। जहां तक समाज के संपन्न वर्गों का सवाल है, उनकी प्रतिक्रिया ऐसी है जो हमारे अभिजात वर्ग को कई स्तरों तक बेपरवा कर देती है।
स्कूल प्रशासन का शोषण
दिल्ली उच्च न्यायालय, अभिभावकों और समाचार माध्यमों के दबाव में शिक्षा निदेशालय अब भले ही फीस बढ़ोत्तरी के मुद्दे पर फरमान जारी कर रहा है, लेकिन इसका तब तक कोई मतलब नहीं जब तक कि स्कूल फीस बढ़ाने का अपना कदम वापस नहीं ले लेते। स्कूलों को अपना लेखा-जोखा हर हाल में तीस अप्रैल तक पेश करने के निदेशालय के फरमान से यह स्पष्ट नहीं होता कि क्या इस कदम से फीस वृद्धि पर वाकई कोई अंकुश लग पाएगा?
बेहतर तो यह होता कि निदेशालय पहले बढ़ाई गई फीस को वापस लेने के लिए स्कूलों पर दबाव बनाता। पीड़ित अभिभावकों की मांग भी यही थी, लेकिन ऐसा न होने से यह आशंका गलत नहीं लगती कि कहीं चुनावी माहौल को देखते हुए निदेशालय ने यह कदम लोगों को बरगलाने के लिए तो नहीं उठाया? अगर ऐसा है तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव खत्म होने के बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा। यदि शिक्षा निदेशालय की नीयत वाकई साफ है तो उसे सबसे पहले अभिभावकों को राहत देने वाला कदम उठाना चाहिए।
यहां सवाल उठता है कि क्या निदेशालय स्कूल प्रबंधनों पर ऐसा दबाव बनाने में सक्षम है? शिक्षा माफियाओं के उच्चस्तरीय दबाव को देखते हुए क्या वह ऐसा करना चाहेगा? यह सवाल भी कम पेचीदा नहीं कि जिन अभिभावकों ने स्कूलों के दबाव में पहले ही बढ़ी हुई फीस और एरियर की धनराशि जमा करा दी है क्या उन्हें यह रकम लौटाई जाएगी? फीस वृद्धि के मसले पर आज अभिभावक भले ही आरपार की लड़ाई के मूड में हैं, लेकिन देखा जाए तो आमतौर पर अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को किसी मुसीबत में नहीं डालना चाहते।
यही कारण है कि अधिकांश अभिभावकों ने कोई न कोई जुगत करके बढ़ी फीस स्कूलों के पास जमा करा दी है। ऐसी स्थिति में निदेशालय को इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए ताकि राहत मिलने की स्थिति में सभी अभिभावकों को इसका लाभ मिल सके। फिलहाल तो दिल्ली सहित एनसीआर के शहरों से संबंधित राज्यों की सरकारों को भी फीस वृद्धि के मुद्दे पर शिक्षा प्राधिकरणों पर भरपूर दबाव डालना चाहिए जिससे कि वे स्कूलों पर लगाम लगा सकें, अन्यथा उन्हें अभिभावकों के असंतोष का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
बेहतर तो यह होता कि निदेशालय पहले बढ़ाई गई फीस को वापस लेने के लिए स्कूलों पर दबाव बनाता। पीड़ित अभिभावकों की मांग भी यही थी, लेकिन ऐसा न होने से यह आशंका गलत नहीं लगती कि कहीं चुनावी माहौल को देखते हुए निदेशालय ने यह कदम लोगों को बरगलाने के लिए तो नहीं उठाया? अगर ऐसा है तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव खत्म होने के बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा। यदि शिक्षा निदेशालय की नीयत वाकई साफ है तो उसे सबसे पहले अभिभावकों को राहत देने वाला कदम उठाना चाहिए।
यहां सवाल उठता है कि क्या निदेशालय स्कूल प्रबंधनों पर ऐसा दबाव बनाने में सक्षम है? शिक्षा माफियाओं के उच्चस्तरीय दबाव को देखते हुए क्या वह ऐसा करना चाहेगा? यह सवाल भी कम पेचीदा नहीं कि जिन अभिभावकों ने स्कूलों के दबाव में पहले ही बढ़ी हुई फीस और एरियर की धनराशि जमा करा दी है क्या उन्हें यह रकम लौटाई जाएगी? फीस वृद्धि के मसले पर आज अभिभावक भले ही आरपार की लड़ाई के मूड में हैं, लेकिन देखा जाए तो आमतौर पर अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को किसी मुसीबत में नहीं डालना चाहते।
यही कारण है कि अधिकांश अभिभावकों ने कोई न कोई जुगत करके बढ़ी फीस स्कूलों के पास जमा करा दी है। ऐसी स्थिति में निदेशालय को इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए ताकि राहत मिलने की स्थिति में सभी अभिभावकों को इसका लाभ मिल सके। फिलहाल तो दिल्ली सहित एनसीआर के शहरों से संबंधित राज्यों की सरकारों को भी फीस वृद्धि के मुद्दे पर शिक्षा प्राधिकरणों पर भरपूर दबाव डालना चाहिए जिससे कि वे स्कूलों पर लगाम लगा सकें, अन्यथा उन्हें अभिभावकों के असंतोष का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
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