शेष नारायण सिंह
राग दरबारी वाले शुकुल जी की मौत हो गयी. होनी ही थी. बुज़ुर्ग थे.उनकी मौत के बाद अपनी भी छाती में शूल चुभ रहा है .लगता है जैसे अपने ही सगे काका मर गए हों . दरअसल श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी ने ज़िंदगी में कहीं बहुत अंदर तक जाकर अपने को संबल दिया था. हालांकि किसी परीक्षा में हम कभी फेल नहीं हुए लेकिन ज़िंदगी के ज़्यादातर इम्तिहानों में अपने रिज़ल्ट वही रहे. हर बार फेल होना. अभी दयानंद पाण्डेय को पढ़ा, उन्होंने भी लिखा है कि वे भी कभी कभी अपने आपको को रंगनाथ समझते थे. मैं भी ऐसा ही समझता था. लेकिन यह अनुभव बहुत दिन तक नहीं रहा. सच्ची बात यह है कि अपनी ज़िंदगी में शुरू में ऐसे अवसर बार बार आये जब मैंने अपने आप को लंगड़ समझा था . हर गलत काम के खिलाफ अपने आपको खड़ा पाया था लेकिन दसवीं पास करने के बाद मेरे अंदर का लंगड़ कहीं मर गया, दुबारा उसने कभी भी चूँ चपड़ नहीं की. लंगड़ की मौत के बाद मैं कुछ दिन तक सनीचर हो गया था ,जब मामूली ज़रूरतों के लिए भी घर से मदद मिलनी बंद हो गयी थी, दूसरों का मुंह ताकता था लेकिन आदमी की फितरत का क्या कहना .जैसे ही डिग्री कालेज में मास्टरी मिली ,मेरे अंदर खन्ना मासटर की आत्मा प्रवेश कर गयी, बिना किसी सपोर्ट के मैं बागी बन गया. नौकरी हाथ से गयी. अजीब बेवक़ूफ़ था मैं . हर नौकरी के बाद इस खन्ना मास्टर का अभिनय करता रहा और बहुत सारी नौकरियाँ छूटती रहीं. लेकिन इस रंगनाथ से कभी पिंड न छूटा. यह हर बेतुका मौके पर आता रहा और मुझे समझौते करने से रोकता रहा . आज साठ साल की उम्र पार करके लगता है कि वास्तव में मैं कुछ भी नहीं था. मैं रामाधीन भीखमखेडवी ही था और वही हूँ , जो करने चला था , कुछ नहीं कर सका लेकिन मुझे किसी तरह की ग्लानि नहीं है क्योंकि मैंने राग दरबारी को पढ़ा है और उसेक रचयिता को छूकर देखा भी है . आज वह साहित्यकार तो नहीं है लेकिन उसने मुसीबतों को हँसकर उड़ा देने का जो संबल राग दरबारी के ज़रिये दिया था वह मेरे पास है , आने वाली पीढ़ियों के पास भी रहेगा . और हर उस रामाधीन भीखमखेडवी को ताक़त देता रहेगा जो कालेज खोलने का मंसूबा बनाएगा और आटे की चक्की खोलकर अपनी रोटी कमाएगा .
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Saturday, October 29, 2011
Wednesday, September 21, 2011
भारतीय ज्ञानपीठ ने श्रीलाल शुक्ल को सम्मानित करके अपनी इज्ज़त बढ़ाई
शेष नारायण सिंह
श्रीलाल शुक्ल और अमर कान्त को साहित्य का सबसे ज्यादा कीमत वाला पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, मिल गया है .लखनऊ के दैनिक अखबार , जनसंदेश टाइम्स ने आज इसे पहले पेज पर अपनी मुख्य हेडलाइन बनाकर छापा है . यह बहुत खुशी की बात है . श्री लाल शुक्ल के कालजयी ग्रन्थ ' राग दरबारी ' को देश का सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक पुरस्कार, " साहित्य अकादमी " तो १९६९ में ही मिल चुका था लेकिन सबसे ज्यादा पैसे वाला पुरस्कार मिलने में बहुत देर हुई .ज्ञान पीठ ने ' राग दरबारी ' के लेखक को यह पुरस्कार देकर उनका कोई सम्मान नहीं बढ़ाया है. हिन्दी साहित्य के जिस मुकाम पर श्रीलाल शुक्ल विराजते हैं , वहां किसी भी पुरस्कार की कोई औकात नहीं रह जाती लेकिन इस पुरस्कार की घोषणा करके भारतीय ज्ञानपीठ ने अपने सम्मान में वृद्धि ज़रूर की है . राजनीतिक और समकालीन घटनाओं पर केन्द्रित एक अखबार ने इस साहित्यिक घटना को मुख्य हेडलाइन बनाकर यह साबित कर दिया है कि पिछले ४० साल से जिस साहित्यकार की धमक लखनऊ की हर सांस में रही है वह किसी भी नेता से बड़ा है और जब कोई संगठन उसको सम्मानित करता है तो उसे लखनऊ की सबसे बड़ी खबर में शामिल होने का मौक़ा दिया जाना चाहिए. राग दरबारी का सम्मान करके ज्ञानपीठ ने अपने आपको सम्मान के लायक एक बार फिर घोषित कर दिया है .
१९७० में ताराशंकर बंद्योपाध्याय के उपन्यास ,' गणदेवता ' को पढ़ते हुए मुझे लगा था कि प्रेमचंद के बाद भी ऐसे लोग पैदा हुए हैं जो आपको अपनी कहानी के गाँव में बैठा देते हैं. ग्रामीण बंगाल की पृष्ठभूमि और जाति की संस्था और ज़मीन के रिश्तों पर हमला बोल रहे ' गणदेवता ' में लेखक की कबीरपंथी ईमानदारी से मैं बहुत प्रभावित हुआ था. मैंने कभी बंगाल का कोई गाँव नहीं देखा था लेकिन उस उपन्यास के पात्र मुझे अपने गाँव में ही मिल गए थे. ख़ास तौर पर छिरू पाल का चरित्र तो कुछ पन्नों के बाद बंगाल के किसी गांव से उठ कर सीधे मेरे अपने गाँव में आ गया था. लगता है कि वह मेरे गाँव के एक गंवई दबंग का चरित्र है . पूरे उपन्यास में छिरू पाल मुझे अपने गाव के ही लगते रहे. गाँव में ज़मीन की मिलकियत के बदल रहे समीकरण ने भी मुझे अपने गाँव में ही स्थापित कर दिया था. गणदेवता पढने वाले उस वक़्त मेरे कालेज में बहुत कम लोग थे उनसे बात नहीं हो सकती थी. ज्ञानपीठ सम्मान में उन दिनों भी शायद एक लाख रूपये मिलते थे जो सम्मानित लेखक के लिए बहुत बड़ी रक़म थी. उन्हीं दिनों श्रीलाल शुक्ल का ग्रन्थ " राग दरबारी " बहुत चर्चा में था. उसे भी उसी साल या कुछ पहले साहित्य अकादमी पुरास्कार मिला था.. गणदेवता के बाद मैंने ' राग दरबारी ' पढ़ा मुझे लगा कि इस उपन्यास को भी लखटकिया पुरस्कार मिलना चाहिए . आज ४० साल बाद जब ' राग दरबारी ' के लेखक को लखटकिया पुरस्कार मिला तो वह ८५ साल की उम्र पार कर चुके हैं. खुशी इस बात की है कि जिस अखबार में मैं भी लिखता हूँ उस अखबार ने समकालीन साहित्य के सबसे बड़े मनीषी को मिले हुए सम्मान को मुख्य खबर बनाया है .
छात्र जीवन के बाद १९७३ में डिग्री कालेज में लेक्चरर होने के बाद मैंने ' राग दरबारी ' दुबारा पढ़ा . उसके सारे चरित्र वही थे लेकिन उनका मतलब मेरे लिए नया हो चुका था. खन्ना मास्टर में अब अपना अक्स दिखने लगा था. पहली बार पढने पर सनीचर मेरे अपने गाँव के एक आदमी के रूप में नज़र आता था लेकिन कालेज में तो वह प्रिंसिपल की काया में प्रवेश कर गया था. १९७० में रंग नाथ एक बन्तू किस्म का इंसान था जो कि मेरे कालेज में पढाता था. यहाँ आकर रंगनाथ एकदम अलग तरह का बेहूदा नज़र आने लगा था. वैद जी के चरित्र में भी नई पहचान घुस गयी थी. . नई परिस्थिति में एकदम अलग किस्म का रामाधीन भीखमखेडवी पैदा हो चुका था. मुराद यह कि ' राग दरबारी 'के जो चरित्र मूल रूप से शिवपाल गंज के आस पास विराजते थे , वे मौक़ा मिलते ही किसी भी गांव के चरित्र बन सकते थे. यही नहीं वे शहरी चरित्र भी बन सकते थे. दिल्ली में १९७७ के दौरान मैंने ' राग दरबारी ' के पात्रों को फिर से नए परिवेश में देखा. यहाँ वैद जी तो जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर नामवर सिंह ही लगते थे लेकिन . उन दिनों कई सनीचर नज़र आने लगे थे. यहाँ के रंगनाथ का बांकपन बिलकुल अलग था. १९७८ में शायद राजिंदर नाथ का नाटक "जाति ही पूछो साधू की " श्रीराम सेंटर में खेला गया था. उस नाटक में आज के बुज़ुर्ग अभिनेता, एस एम ज़हीर ने लेक्चरर की नौकरी के लिए इंटरव्यू देने वाले पात्र की भूमिका अदा की थी. वह भी बिलकुल खन्ना मासटर का अवतार लग रहा था. राष्ट्रीय सहारा अखबार में नौकरी करते हुए मैंने और मेरे साथी संजय श्रीवास्तव ने उस अखबार के दफ्तर को ही शिवपालगंज नाम दे दिया था. वहां भी एक से एक बढ़ कर वैद जी, खन्ना मास्टर आदि पाए जाते थे. राग दरबारी के और भी बहुत सारे इस्तेमाल हैं . मैंने उसे तीन चार बार पढ़ रखा था लेकिन जब दिल्ली में अपनी पत्नी के साथ अपना घर बसाया तो मैंने उन्हें पूरा ' राग दरबारी ' करीब एक हफ्ते के अंदर बांचकर सुनाया था. मुझे मालूम है कि उसके बाद वे मुझे पहले से ज्यादा प्यार करने लगी थीं .
राग दरबारी को हालांकि उपन्यास कहा जाता है . लेकिन मैं उसे एक पूर्ण ग्रन्थ मानता हूँ .साहित्यकार और आलोचक क्या कहते हैं , मुझे नहीं मालूम लेकिन मैं उसे १९६० के बाद के बदल रहे भारत का लखनऊ के आस पास का समकालीन इतिहास ही मानता हूँ . उसकी खूबी यह है कि उसके पात्र हर गाँव और हर व्यक्ति में अलग अलग मायने के साथ हाज़िर होते हैं. भारतीय ज्ञानपीठ ने एक बार अपनी इज़्ज़त को फिर से रिक्लेम करने की कोशिश की . हालांकि बीच में तो बहुत सारे तिकड़म बाजों को सम्मानित करके वह भी भारत सरकार के पद्म पुरस्कारों की तरह पतन के रास्ते पर चल पड़ा था. लेकिन लगता है कि अब वह फिर से अपने खोये हुए गौरव की तलाश में है .
श्रीलाल शुक्ल और अमर कान्त को साहित्य का सबसे ज्यादा कीमत वाला पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, मिल गया है .लखनऊ के दैनिक अखबार , जनसंदेश टाइम्स ने आज इसे पहले पेज पर अपनी मुख्य हेडलाइन बनाकर छापा है . यह बहुत खुशी की बात है . श्री लाल शुक्ल के कालजयी ग्रन्थ ' राग दरबारी ' को देश का सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक पुरस्कार, " साहित्य अकादमी " तो १९६९ में ही मिल चुका था लेकिन सबसे ज्यादा पैसे वाला पुरस्कार मिलने में बहुत देर हुई .ज्ञान पीठ ने ' राग दरबारी ' के लेखक को यह पुरस्कार देकर उनका कोई सम्मान नहीं बढ़ाया है. हिन्दी साहित्य के जिस मुकाम पर श्रीलाल शुक्ल विराजते हैं , वहां किसी भी पुरस्कार की कोई औकात नहीं रह जाती लेकिन इस पुरस्कार की घोषणा करके भारतीय ज्ञानपीठ ने अपने सम्मान में वृद्धि ज़रूर की है . राजनीतिक और समकालीन घटनाओं पर केन्द्रित एक अखबार ने इस साहित्यिक घटना को मुख्य हेडलाइन बनाकर यह साबित कर दिया है कि पिछले ४० साल से जिस साहित्यकार की धमक लखनऊ की हर सांस में रही है वह किसी भी नेता से बड़ा है और जब कोई संगठन उसको सम्मानित करता है तो उसे लखनऊ की सबसे बड़ी खबर में शामिल होने का मौक़ा दिया जाना चाहिए. राग दरबारी का सम्मान करके ज्ञानपीठ ने अपने आपको सम्मान के लायक एक बार फिर घोषित कर दिया है .
१९७० में ताराशंकर बंद्योपाध्याय के उपन्यास ,' गणदेवता ' को पढ़ते हुए मुझे लगा था कि प्रेमचंद के बाद भी ऐसे लोग पैदा हुए हैं जो आपको अपनी कहानी के गाँव में बैठा देते हैं. ग्रामीण बंगाल की पृष्ठभूमि और जाति की संस्था और ज़मीन के रिश्तों पर हमला बोल रहे ' गणदेवता ' में लेखक की कबीरपंथी ईमानदारी से मैं बहुत प्रभावित हुआ था. मैंने कभी बंगाल का कोई गाँव नहीं देखा था लेकिन उस उपन्यास के पात्र मुझे अपने गाँव में ही मिल गए थे. ख़ास तौर पर छिरू पाल का चरित्र तो कुछ पन्नों के बाद बंगाल के किसी गांव से उठ कर सीधे मेरे अपने गाँव में आ गया था. लगता है कि वह मेरे गाँव के एक गंवई दबंग का चरित्र है . पूरे उपन्यास में छिरू पाल मुझे अपने गाव के ही लगते रहे. गाँव में ज़मीन की मिलकियत के बदल रहे समीकरण ने भी मुझे अपने गाँव में ही स्थापित कर दिया था. गणदेवता पढने वाले उस वक़्त मेरे कालेज में बहुत कम लोग थे उनसे बात नहीं हो सकती थी. ज्ञानपीठ सम्मान में उन दिनों भी शायद एक लाख रूपये मिलते थे जो सम्मानित लेखक के लिए बहुत बड़ी रक़म थी. उन्हीं दिनों श्रीलाल शुक्ल का ग्रन्थ " राग दरबारी " बहुत चर्चा में था. उसे भी उसी साल या कुछ पहले साहित्य अकादमी पुरास्कार मिला था.. गणदेवता के बाद मैंने ' राग दरबारी ' पढ़ा मुझे लगा कि इस उपन्यास को भी लखटकिया पुरस्कार मिलना चाहिए . आज ४० साल बाद जब ' राग दरबारी ' के लेखक को लखटकिया पुरस्कार मिला तो वह ८५ साल की उम्र पार कर चुके हैं. खुशी इस बात की है कि जिस अखबार में मैं भी लिखता हूँ उस अखबार ने समकालीन साहित्य के सबसे बड़े मनीषी को मिले हुए सम्मान को मुख्य खबर बनाया है .
छात्र जीवन के बाद १९७३ में डिग्री कालेज में लेक्चरर होने के बाद मैंने ' राग दरबारी ' दुबारा पढ़ा . उसके सारे चरित्र वही थे लेकिन उनका मतलब मेरे लिए नया हो चुका था. खन्ना मास्टर में अब अपना अक्स दिखने लगा था. पहली बार पढने पर सनीचर मेरे अपने गाँव के एक आदमी के रूप में नज़र आता था लेकिन कालेज में तो वह प्रिंसिपल की काया में प्रवेश कर गया था. १९७० में रंग नाथ एक बन्तू किस्म का इंसान था जो कि मेरे कालेज में पढाता था. यहाँ आकर रंगनाथ एकदम अलग तरह का बेहूदा नज़र आने लगा था. वैद जी के चरित्र में भी नई पहचान घुस गयी थी. . नई परिस्थिति में एकदम अलग किस्म का रामाधीन भीखमखेडवी पैदा हो चुका था. मुराद यह कि ' राग दरबारी 'के जो चरित्र मूल रूप से शिवपाल गंज के आस पास विराजते थे , वे मौक़ा मिलते ही किसी भी गांव के चरित्र बन सकते थे. यही नहीं वे शहरी चरित्र भी बन सकते थे. दिल्ली में १९७७ के दौरान मैंने ' राग दरबारी ' के पात्रों को फिर से नए परिवेश में देखा. यहाँ वैद जी तो जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर नामवर सिंह ही लगते थे लेकिन . उन दिनों कई सनीचर नज़र आने लगे थे. यहाँ के रंगनाथ का बांकपन बिलकुल अलग था. १९७८ में शायद राजिंदर नाथ का नाटक "जाति ही पूछो साधू की " श्रीराम सेंटर में खेला गया था. उस नाटक में आज के बुज़ुर्ग अभिनेता, एस एम ज़हीर ने लेक्चरर की नौकरी के लिए इंटरव्यू देने वाले पात्र की भूमिका अदा की थी. वह भी बिलकुल खन्ना मासटर का अवतार लग रहा था. राष्ट्रीय सहारा अखबार में नौकरी करते हुए मैंने और मेरे साथी संजय श्रीवास्तव ने उस अखबार के दफ्तर को ही शिवपालगंज नाम दे दिया था. वहां भी एक से एक बढ़ कर वैद जी, खन्ना मास्टर आदि पाए जाते थे. राग दरबारी के और भी बहुत सारे इस्तेमाल हैं . मैंने उसे तीन चार बार पढ़ रखा था लेकिन जब दिल्ली में अपनी पत्नी के साथ अपना घर बसाया तो मैंने उन्हें पूरा ' राग दरबारी ' करीब एक हफ्ते के अंदर बांचकर सुनाया था. मुझे मालूम है कि उसके बाद वे मुझे पहले से ज्यादा प्यार करने लगी थीं .
राग दरबारी को हालांकि उपन्यास कहा जाता है . लेकिन मैं उसे एक पूर्ण ग्रन्थ मानता हूँ .साहित्यकार और आलोचक क्या कहते हैं , मुझे नहीं मालूम लेकिन मैं उसे १९६० के बाद के बदल रहे भारत का लखनऊ के आस पास का समकालीन इतिहास ही मानता हूँ . उसकी खूबी यह है कि उसके पात्र हर गाँव और हर व्यक्ति में अलग अलग मायने के साथ हाज़िर होते हैं. भारतीय ज्ञानपीठ ने एक बार अपनी इज़्ज़त को फिर से रिक्लेम करने की कोशिश की . हालांकि बीच में तो बहुत सारे तिकड़म बाजों को सम्मानित करके वह भी भारत सरकार के पद्म पुरस्कारों की तरह पतन के रास्ते पर चल पड़ा था. लेकिन लगता है कि अब वह फिर से अपने खोये हुए गौरव की तलाश में है .
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