शेष नारायण सिंह
नयी दिल्ली के आजतक के दफ्तर में आर एस एस के कुछ कार्यकर्ता आये और तोड़फोड़ की . आर एस एस की राजनीतिक शाखा ,बी जे पी के प्रवक्ता ने कहा कि इस से टी वी चैनलों को अनुशासन में रहने की तमीज आ जायेगी यानी हमला एक अच्छे मकसद से किया गया था, उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे से लोग अनुशासन में रहें तो यह नौबत की नहीं आयेगी. आर एस एस से यह उम्मीद करना कि वह अपने विरोधी को सज़ा नहीं देना , ठीक वैसा ही है जैसे यह उम्मीद करना कि गिद्ध शाकाहारी हो जाएगा. वह उसकी प्रकृति है और कोई भी कोशिश कर ले , प्रकृति नहीं बदली जा सकती. आर एस एस को काबू में करने का एक ही नियम है जिसे आज़ाद भारत के पहले गृहमंत्री , सरदार पटेल ने लागू किया था. उस पर पाबंदी लगाकर उसे बेकार कर दिया था . सरदार कर बाद जवाहरलाल नेहरू ने आर एस एस को वैचारिक धरातल पर शून्य पर पंहुचा दिया था . बाद में इंदिरा गाँधी की विचार धारा से पैदल राज कायम हुआ और आर एस एस फिर सम्मान पाने की दिशा में अग्रसर हो गया . इंदिरा गाँधी ने अपने नौजवान बेटे की सलाह से इमरजेंसी लगा दी और चेले चपाटों के राज की संभावना बहुत जोर पकड़ गयी. लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आर एस एस को साथ लेकर लड़ाई लड़ी और संघ वाले फिर एक बार स्वीकार्यता की दहलीज़ लांघ कर मुख्यधारा की राजनीति आ गए. उसके बाद तो देश को न को गाँधी मिला, और न ही सरदार और न ही जवाहर लाल. मझोले दर्जे की राजनीति का युग शुरू हो गया . और फिर आर एस एस वाले भी राजनेता बन गए. केंद्र सरकार तक पंहुच गए. और अब वे बाकायदा एक राजनीतिक पार्टी हैं . लेकिन विपक्षी को ख़त्म कर देने की फासिस्ट सोच के चलते वे किसी तरह का लोकतंत्र बर्दाश्त नहीं कर सकते लिहाजा अगर संभव होता है तो विरोधी को नुकसान पंहुचाते हैं . इसी सोच का नतीजा है कि उनके लोग आजकल मीडिया के ऊपर हमलावर मुद्रा में हैं . यह काम उनकी विचारधारा के पुरानत पुरुष हिटलर ने बार बार किया , पाकिस्तान में शुरू के दो तीन वर्षों के बाद से ही इसी फासिस्ट सोच वाले हावी हैं और अब भारत में भी फासिस्ट ताक़तें पहले से ज्यादा ताक़तवर हो रही हैं . मीडिया को काबू में करना फासिज्म की बुनियादी तरकीब माना जाता है और उसी काम में आर एस एस की हर शाखा के लोग लगे हुए हैं . आजतक के कार्यालय पर हुए हमले को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए.
आजतक और हेडलाइन टुडे के दफ्तर पर किये गए फासिस्ट हमले की मीडिया संगठनों ने निंदा की है और उसे कायराना हमला बताया है . सरकार के पास जुलूस भी जायेगा जहां यह मांग की जायगी कि आर एस एस पर फिर से पाबंदी लगा दी जाए और उसके नेताओं को खुले आम न घूमने दिया जाए. प्रेस क्लब में एक सभा भी हुई और उसी तरह की बातें रखी गयीं . लेकिन प्रेस को सरकार से याचना करने की कोई ज़रुरत नहीं है. आम तौर पर कहा जाता है कि मीडिया पर जब हमला होता है तो सभी लोग इकठ्ठा नहीं होते . जिसके कारण हलावारों के हौसले बढ़ जाते हैं और वे बार बार हमले करते हैं . यह मामला बहुत ही पेचीदा है,हालांकि सच है . ऐसा शायद इस लिए होता है कि जब ताज़ा हमले के पहले किसी और चैनल पर हमला हुआ था तो बाकी लोग नहीं आये थे . मुझे लगता है कि इस बहस से कन्नी काट लेना ही सही रहेगा लेकिन मीडिया पर हमला करने वालों पर लगाम तो लगानी होगी. कोई नहीं आता तो न आये लेकिन अगर आजतक और इंडिया टुडे ग्रुप तय कर ले तो बाद बदल सकती है. इस हमले में हेडलाइन टुडे और आजतक पर हमला इसलिए हुआ कि उन्होंने आर एस एस से जुड़े कुछ लोगों को मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगलते कैमरे पर रिकार्ड कर लिया था और उस फुटेज को अपने चैनल पर दिखा कर अपना फ़र्ज़ निभाया था . लेकिन जिनके बारे में खबर थी वे भड़क गए और मार पीट पर उतारू हो गए . इनका जवाब देना बहुत ही आसान है . इतने बड़े न्यूज़ चैनल को किसी और मदद की ज़रुरत नहीं है . वे तो खुद ही इन तानाशाही के पुतलों को घर भेजने भर को काफी हैं . बस उन्हें आर एस एस को परेशान करने का मन बना लेना चाहिए. आर एस एस से कठिन सवाल पूछे जाने चाहिए . उनसे पूछा जाना चाहिये कि १९२० से १९४६ तक चली आज़ादी की लड़ाई में वे क्यों नहीं शामिल हुए , क्यों उनका कोई नेता जेल नहीं गया ,महात्मा गाँधी की ह्त्या में जिस आदमी को फांसी दी गयी उस से उन का विचारधारा के स्तर पर क्या सम्बन्ध था. उनसे पूछा जाय कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस में उनके नेता क्यों कई तरह की बातें कहते क्यों नज़र नहीं आये. उनसे पूछा जाए कि आपके यहाँ जो लोग जीवनदान दे चुके हैं उनको क्यों अकूत संपत्ति दी जाती है . मुराद यह है कि आर एस एस को ऐसे सवालों के घेरे में घेर दिया जाए कि बाद में जब कभी उनके नेता मीडिया सगठनों से पंगा लेने की सोचें तो उन्हें दहशत पैदा हो जाए . हालांकि यह तरीका बहुत ही लोक्तान्त्रिक नहीं हैं लेकिन शठ के साथ आचरण के कुछ नियम तय कर दिए गए हैं उनका पालन कर लेने में कोई बुराई नहीं है . दूसरी बात यह कि खबर को सही प्रसारित करने की बुनियादी प्रतिबद्धता को कभी नहीं भूलना चाहिए . और फासिस्ट ताक़तों को लोकतांत्रिक तरीकों से समझाया जाना चाहिए लेकिन उन्हें धमकाया भी जा सकता है .
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Monday, July 19, 2010
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