शेष नारायण सिंह
भारतीय जनता पार्टी में नेतृत्व का संकट गहराता ही जा रहा है .कर्नाटक में पार्टी की दुविधा बहुत ही भारी है . राज्य में बीजेपी के सबसे बड़े नेता और पूर्व मुख्य मन्त्री बी एस येदुरप्पा किसी भी वक़्त पार्टी तोड़ देने पर आमादा हैं. ताज़ा घटनाक्रम से लगता है कि बी एस येदुरप्पा ने बीजेपी आलाकमान को थोड़ी राहत देने का फैसला कर लिया है क्योंकि खबर है कि अब वे मौजूदा मुख्य मंत्री , सदानंद गौड़ा को बजट पेश करने की अनुमति दे देगें .यानी कर्नाटक सरकार के सामने मौजूद फौरी संकट ख़त्म हो गया है लेकिन इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि संकट सही मायनों में ख़त्म हो गया है . कर्नाटक की राजनीति के जानकार बताते हैं कि बीजेपी को कर्नाटक में अपने आप को एक राजनीतिक पार्टी के रूप में बचाए रखने का एक ही तरीका है कि वह बी एस येदुरप्पा की मांग स्वीकार कर ले और उन्हेंमुख्या मंत्री की कुर्सी दुबारा सौंप दे . उनके पास बीजेपी के १२० विधायाकों में से ६६ का समर्थन है . यह वह समर्थक हैं जो येदुरप्पा के साथ जाकर रिजार्ट में छुपे थे . यह भी तय है कि मौजूदा मुख्यमंत्री भी अभी कुछ महीने पहले तक बी एस येदुरप्पा के बहुत करीबी और उनके भक्त थे .इसलिए कर्नाटक में बीजेपी के लिए येदुरप्पा को हटाकर अपने आपको एक मज़बूत राजनीतिक पार्टी के रूप में बचा पाना बहुत ही मुश्किल होगा. लेकिन बी एस येदुरप्पा की छवि एक ऐसे नेता की बन गयी है जिसके साथ भ्रष्टाचार बहुत ही गंभीरता से जुड़ गया है. भ्रष्टाचार के कुछ् मामले उजागर हो जाने के बाद ही बीजेपी आलाकमान ने कर्नाटक में मुख्य मंत्री बदला था. भ्रष्टाचार में डूबी कांग्रेस पार्टी के ऊपर बीजेपी के हमलों को बेमतलब साबित करने के लिए बीजेपी के विरोधी कर्नाटक में बी एस येदुरप्पा के भ्रष्टाचार का उदाहरण देते थे. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आन्दोलन से भ्रष्टाचार के खिलाफ बने माहौल को भी अपने राजनीतिक हित में बीजेपी वाले नहीं इस्तेमाल कर सके क्योंकि उनके पास भी येदुरप्पा जैसे लोगों के भ्रष्टाचार का बोझ था. येदुरप्पा के बचाव में बहुत दिनों तक बीजेपी आलाकमान खड़ा रहा और जब हटाया तो बहुत देर हो चुकी थी और उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में हुए विधान सभा चुनावों में बीजेपी भ्रष्टाचार को मुद्दा नहीं बना सकी क्योंकि भ्रष्टाचार के कीचड में बीजेपी के विरोधी तो डुबकियां लगा ही रहे थे, वह खुद भी बीजेपी बी एस येदुरप्पा और रमेश पोखरियाल निश्शंक जैसे लोगों को ले कर चलने के लिए मजबूर थी जिनके नाम के भ्रष्टाचार की बहुत सारी कहानियाँ जुड़ चुकी हैं .
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों के ठीक पहले बीजेपी ने एक और बड़ी राजनीतिक गलती की. राज्य में हज़ारों करोड़ रूपये के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन यानी एन आर एच एम घोटाले में शामिल राज्य के पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा को बहुत ही सम्मानपूर्वक पार्टी में शामिल कर लिया गया . पार्टी के बाहर और पार्टी के भीतर बहुत तेज़ हल्ला गुल्ला शुरू हो गया और बाबू सिंह कुशवाहा की सदस्यता को कुछ दिन के लिए टाल दिया गया लेकिन विधानसभा चुनाव में बाबू सिंह कुशवाहा पूरी ताक़त के साथ जुटे रहे और बीजेपी के उम्मीदवारों का प्रचार करते रहे. इस एक घटना ने बीजेपी को भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने लायक नहीं छोड़ा और बीजेपी को भारी चुनावी नुकसान हुआ. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही पार्टी ने उत्तराखंड में भी चुनाव के कुछ महीने पहले ही कथित रूप से भ्रष्ट मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निश्शंक को हटाया था लेकिन इस बात की कोई सफाई नहीं दी जा सकी कि एक भ्रष्ट मुख्य मंत्री को राज्य में क्यों इतने लम्बे समय तक तक इंचार्ज बनाकर रखा गया .
बीजेपी और भ्रष्टाचार के बीच के गहरे संबंधों के बारे में जो नया मामला आया है वह तो पार्टी की जड़ें हिला देने की ताक़त रखता है . राज्य सभा में बीजेपी के उपनेता, एस एस अहलूवालिया का राज्यसभा का टिकट काट कर लन्दन के एक व्यापारी को झारखण्ड से उम्मीदवार बना दिया गया है. हालांकि वह बंदा पार्टी का अधिकृत उम्मीदवार नहीं है लेकिन पार्टी के विधायाकों ने उसकी नामजदगी के कागजों पर दस्तखत किया है और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उसे आशीर्वाद दिया है . लगता है कि दिल्ली में जमे जमाये अपनी पार्टी के बड़े नेताओं पर अपनी अथारिटी को स्थापित करने के उद्देश्य से नितिन गडकरी कुछ ऐसे फैसले ले लेते हैं जिनकी वजह से बीजेपी को अपनी बहुत मेहनत से बनायी गयी छवि को संभाल पाना भारी पड़ जाता है . नागपुर की कृपा से पार्टी के अध्यक्ष बने गडकरी को दिल्ली वाले नेताओं ने स्वीकार भले ही कर लिया हो लेकिन वे अभी तक नितिन गडकरी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के काबिल नहीं मानते. शायद इसी कारण से मंगलवार को नई दिल्ली में हुई बीजेपी संसदीय दल की बैठक में कई बड़े नेता राज्यसभा में उपनेता, एस एस अहलुवालिया के टिकट काटने से नाराज़ दिखे. लोकसभा सदस्य और पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने तो पार्टी छोड़ने तक की धमकी दे डाली. एस एस अहलूवालिया का टिकट काटने का मामला उनके राज्य , झारखण्ड से सम्बंधित है . यशवंत सिन्हा झारखण्ड के हजारीबाग़ क्षेत्र से ही लोकसभा के लिए चुने गए हैं .यशवंत सिन्हा ने बीजेपी संसदीय पार्टी की बैठक में जो कुछ भी कहा वह बहुत ही ज़ोरदार तरीके से पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व पर प्रहार करता है . बैठक के बाद जब यशवंत सिन्हा बाहर आये तो उन्होंने मीडिया से कहा कि उन्हें पता चला है कि बीजेपी के समर्थन से किसी व्यक्ति ने झारखण्ड से राज्य सभा के लिए उम्मीदवारी का परचा भरा है .जब यह श्रीमानजी पर्चा दाखिल कर रहे थे तो बीजेपी एक बड़े नेता वहां मौजूद थे . इसका सीधा मतलब यह है कि इस उम्मीदवार को बीजेपी का समर्थन मिला हुआ है . यशवंत सिन्हा
के अलावा लाल कृष्ण अडवाणी , सुषमा स्वराज , मुरली मनोहर जोशी आदि ने भी झारखण्ड के मामले में नाराजगी जताई . सदस्यों का गुस्सा तब शांत हुआ जब लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा कि वे पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी से इस मामले में बात करेगें .बताते हैं कि बीजेपी संसदीय पार्टी के अंदर यशवंत सिन्हा ने जो बातें कहीं वे तो बहुत ही सख्त हैं . उन्होंने कहा कि बीजेपी के किसी एम एल ए को नीलाम नहीं किया जाना चाहिए और किसी दागी उम्मीदवार को राज्यसभा में नहीं लाना चाहिए . यशवंत सिन्हा निराश हैं और कहते हैं कि ऐसी हालत में उनके लिए संसद में रहकर काम कर पाना बहुत मुश्किल होगा . यानी अगर बात नहीं संभली तो यशवंत सिन्हा बीजेपी से अलग भी हो सकते हैं . झारखण्ड का उम्मीदवार तो वास्तव में मामूली आदमी है यशवंत सिन्हा और अन्य संसद सदस्यों का हमला पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी के कामकाज के तरीके पर है . बीजेपी के कई बड़े नेता मानते हैं कि उत्तर प्रदेश में जिस तरह से विधान सभा चुनावों का संचालन किया गया वह भी नितिन गडकरी के नेतृत्व शक्ति पर सवालिया निशान लगाता है . उन्होंने उत्तर प्रदेश के पार्टी नेताओं के ऊपर मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को जिस तरह से स्थापित किया उसके कारण भी राज्य में बीजेपी को भारी नुकसान हुआ, पार्टी के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष को हार का मुंह देखना पड़ा.
ऐसी हालत में साफ़ नज़र आता है कि बीजेपी में राष्टीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की स्वीकार्यता पूरी तरह से घट रही है . ताज़ा खबर यह है कि वे नागपुर में हैं और वहां से दिल्ली और बंगलूरू के नेताओं पर दबाव बनाकर अपनी राजनीतिक मजबूती को सुनिश्चित करना चाहते हैं . ऐसा होना संभव है क्योंकि नागपुर के आर एस एस मुख्यालय से ही उनको पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया था और बीजेपी में आम तौर पर आर एस एस के आला नेतृत्व को चुनौती देने की कोई परंपरा नहीं है . लेकिन यह बात तय है कि नितिन गडकरी पार्टी के शीर्ष पर मौजूद होने के बाद भी अपनी कोई राजनीतिक हैसियत नहीं बना पाए हैं .
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Monday, March 26, 2012
Thursday, November 19, 2009
मंत्रियों की शाहखर्ची पर लगाम ज़रूरी
शेष नारायण सिंह
कर्णाटक के मुख्य मंत्री के रूप में शपथ लेने के बाद, मुख्य मंत्री बी एस येदुरप्पा जिस घर में रहने गए, वह उन्हें ठीक नहीं लगा.. . उसकी सफाई सुथराई से उनको संतोष नहीं हुआ. कई एकड़ में बने हुए इस घर में पहले भी मुख्यमंत्री रह चुके हैं , अच्छा खासा घर है लेकिन मुख्यमंत्री की पसंद पर यह घर खरा नहीं उतरा. अफसर तुंरत सक्रिय हुए और घर दुरुस्त कर दिया गया ..इस घर को नए सिरे से सजाने संवारने में सरकारी खजाने से एक करोड़ सत्तर लाख रूपये का खर्च आया. . यहाँ गौर करने की बात यह है कि दिल्ली और मुंबई में इतने धन से आलीशान फ्लैट खरीदे जा सकते हैं . बहरहाल मुख्यमंत्री जी का घर रहने लायक बन गया और वे उसमें चैन की नींद ले रहे हैं . मतलब यह कि बेल्लारी बंधुओं के बावजूद जितनी नींद ली जा सकती है , ले रहे हैं .. देश के एक बड़े अखबार ने यह सूचना इकठ्ठा करके खबर छाप दी वरना दुनिया को मालूम ही न पड़ता कि कर्णाटक के मुख्यमंत्री जी की ऐश की सीमायें क्या हैं .कर्णाटक में आम आदमी के पैसे की जिस तरह से लूट हुई है उसमें मुख्यमंत्री के अलावा उनकी सरकार के और भी जिम्मेदार लोग शामिल हैं.उनके गृहमंत्री वी एस आचार्य के घर को सजाने सँवारने में इकसठ लाख तीस हज़ार , राजस्व मंत्री ,करुनाकर रेड्डी के घर में अट्ठासी लाख २६ हज़ार और उनकी ख़ास कृपापात्र , शोभा करंदलाजे के घर में अडतीस लाख पांच हज़ार रूपये खर्च हुए हैं .जब मुख्यमंत्री ही इतना खर्च कर रहा है कि तो बाकी लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है .. यहाँ यह भी साफ़ कर देना ज़रूरी है कि इस तरह की फिजूलखर्ची में बी जे पी वाले अकेले नहीं हैं. यह तो इत्तेफाक है कि आज उनकी कर्णाटक सरकार की पोल ही अखबारों ने खोली है . हर पार्टी में इस तरह के नवाबी खर्च करने वाले नेता मौजूद हैं . सवाल यह उठता है कि इस तरह के खर्च की अनुमति क्या इन्हें संविधान या अन्य किसी सरकारी कायदे कानून से मिला हुआ है . आज़ादी की लड़ाई के सभी महान नेता यह उम्मीद भी नहीं कर सकते थे कि आजाद भारत में कोई मंत्री इतना शाहखर्च हो जाएगा कि वह अपने ऐशो आराम के लिए इस तरह की फिजूलखर्ची कर सके . इसलिए उन्होंने इस बात का संविधान में कहीं ज़िक्र नहीं किया. आज के भ्रष्ट नेताओं की फौज यह बहाना लेती है कि संविधान में इस तरह की शाहखर्ची के खिलाफ कुछ नहीं लिखा हुआ है इसलिए उनको मनमानी करने का अधिकार है ... इस देश में यही नेता लोग अगर दस हज़ार की रिश्वत ले लें तो उनके खिलाफ एक्शन हो सकता है लेकिन अपनी नवाबी जीवनशैली के लिए अगर वे करोडों खर्च करें तो उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है क्योंकि संविधान के निर्माताओं को यह मालूम नहीं था कि जनता के प्रतिनिधि इस तरह की छिछोरी हरकतें भी कर सकते हैं ..
. तो यह है बी जे पी के दक्षिण के सरताज, बी एस युदुराप्पा की कहानी . इनकी तुलना महातम गाँधी से करके महात्मा जी का अपमान करना ठीक नहीं होगा . लेकिन इनकी अपनी पार्टी के संथापक सदस्य, पं दीन दयाल उपाध्याय का ज़िक्र करना ठीक रहेगा. दीन दयाल जी को जब ट्रेन यात्रा के दौरान किसी ने मार डाला था. तो उनके पास अपनी एक चादर , एक तौलिया, एक धोती और एक कुरते के अलावा एक घड़ी थी जो उन्हें नानाजी देशमुख ने कभी भेंट की थी. इसके अलावा उनके पास कुछ नहीं था उनका कहीं घर नहीं था. जिस शहर में भी होते थे उसी के किसी नेता के घर उनकी चिट्ठी पत्री पंहुचती थी. नानाजी देशमुख, जे पी माथुर ,अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण अडवाणी, सुन्दर सिंह भंडारी, भाऊ राव देवरस जैसे नेता भी जनसंघ या बी जे पी में रहे हैं जो बहुत ही सादगी का जीवन बिताते थे . तो इन मुख्यमंत्री महोदय को सरकारी पैसे के इस दुरुपयोग की बात कहाँ से सूझी. . साफ़ लगता है कि यह इनकी अपनी फंतासी होगी. वरना आर एस एस, जो इनकी पार्टी का नियंता है , उसमें तो और भी सादगी के जीवन की व्यवस्था है . इस बात पर जनता के बीच में बहस होनी चाहिए .कि क्यों यह लोग जनता के पैसे पर लूट मचाते हैं और मस्त रहते हैं . राजनीतिक नेताओं के ऐशो आराम की कहानियां इतनी ज्यादा हो गयी हैं कि हमें लगने लगा है कि कहीं एक समाज में रूप में हमारी संवेदनाएं शून्य तो नहीं हो गयी हैं . वरना कही कोई मधु कोडा हजारों करोड़ डकार जाता है , कहीं कोई नेता चारे के पैसे को हज़म कर लेता है और कहीं कोई दलाल टाइप नेता जुगाड़ बाजी करके सरकारी कंपनियों को कौडियों के मोल बेच देता है और हम चुप रह जाते हैं .. एक राष्ट्र के रूप में हम क्यों नहीं खड़े हो जाते कि सार्वजनिक संपत्ति की लूट करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा. ऐसा नहीं कि हमारे देश में ऐसी परंपरा नहीं है . परम्परा की कमी नहीं है . अभी बीस साल पहले बोफोर्स में ली गयी ६५ करोड़ की कथित रिश्वत के चक्कर में स्थापित सता को चुनौती दी गयी थी . . उसके पहले भी अवाम ने १९७५ में स्थापित सत्ता को ललकार कर हराया है तो आज ऐसा क्यों नहीं हो सकता .
बोफोर्स और १९७५ की इमर्जेंसी के दौरान जनता ने सरकारे बादल दी थीं. हो सकता है कि उन दोनों ही मुकाबलों में विपक्षी पार्टी की पहचान कर ली गयी थी . दोनों ही बार जनता कांग्रेस के खिलाफ लामबंद हो रही थी . लेकिन भ्रष्टाचार , बे-ईमानी, सरकारी धन की हेराफेरी के मौजूदा मामलों में सभी पार्टियों के नेता शामिल पाए जाते हैं . इसलिए जन आक्रोश का निशाना तय करने में मुश्किल पेश आयेगी. लेकिन एक अच्छी बात यह है कि अब ज़माना बदल गया है . सूचना के अधिकार जैसे कानून भी बन गए हैं और सूचना के प्रसार के परंपरागत साधनों पर निर्भरता भी ख़त्म हो गयी है . अब तो इन्टरनेट ने सूचना का लोकतंत्रीकरण कर दिया है . इसलिए जनता को राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के अलावा किसी और तरीके के से अपने आन्दोलन को चलाना होगा . तभी जाकर इन नेताओं के भ्रष्टाचार को नकेल लगाई जा सकेगी.. लेकिन यह काम बहुत ज़रूरी है .
आम तौर पर माना जाता है कि इस तरह के किसी आन्दोलन के नेतृत्व के लिए किसी बड़े नेता की ज़रुरत होती है. मसलन आज़ादी की लड़ाई महात्मा गाँधी ने लड़ी, १९७५ का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण के हाथ में था और बोफोर्स मामले में चला आन्दोलन कांग्रेस के बागी विश्वनाथ प्रताप सिंह को आगे करके लड़ा गया. लेकिन एक बात जो सच है वह यह कि सारे आन्दोलन मूल रूप से जनता के आन्दोलन थे और जब जनता का मन बन गया तो उनके बीच से ही कोई नेता बन गया. क्योंकि १९२० में महात्मा गाँधी का आन्दोलन ढीला पद गया था क्यों कोई उसे पूरी जनता का समर्थन नहीं प्राप्त था. उन्ही महात्मा गाँधी के नेतृत्व में १९४२ में पूरा देश उमड़ पड़ा था. १९७४ के पहले तक जय प्रकाश जी की पहचान विनोबा जी के करीबी और सर्वोदयी नेता के रूप में होती थी लेकिन जब बिहार में नौजवानों ने आन्दोलन के राह पकडी तो उन्होंने जय प्रकाश जी को अपना नेता माना और मुद्दा इतना अहम् था कि पूरा देश उनके साथ हो लिया. इसलिए ज़रुरत जनजागरण की है . आम आदमी को फैसला लेना है कि क्या वह भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी या नेता को बता देना चाहती है. क्या जनता यह फैसला करना चाहती है कि उसकी अपनी कमाई को लूटने वाले लोगों को निकाल बाहर फेंकने का वक़्त आ गया है? इसके लिए जनता को घूसखोरों के खिलाफ अपना मन बनाना पड़ेगा . एक बार अगर जनता तैयार हो गयी तो नेता के बिना कोई काम नहीं रुकता. अपने मुल्क में तो बहादुर शाह ज़फर जैसे कमज़ोर बादशाह को नेता बना कर ईस्ट india कंपनी का राज खत्म किया जा चुका है .. यहाँ यह साफ़ करना ज़रूरी है कि १८५७ की आज़ादी की लड़ाई सफल रही थी क्योंकि वह लड़ाई कंपनी के राज के खिलाफ शुरू की गयी थी और उसके बाद वह राज ख़त्म हो गया. यह अलग बात है कि अपने देश में उस वक़्त सता संभालने का बुनियादी ढांचा नहीं उपलब्ध था. अगर कांग्रेस जैसी कोई पार्टी होती तो, हो सकता है कि १८५७ के बार देश में ब्रिटिश एम्पायर का नहीं, अपने लोगों का देशी राज होता.
जो भी हो सरकार के हर स्तर पर फैले गैरजिम्मेदार नेताओं और अफसरों के खिलाफ जब तक जनता सोंटा नहीं उठाएगी कोई भी क्रातिकारी परिवर्तन नहीं होगा
कर्णाटक के मुख्य मंत्री के रूप में शपथ लेने के बाद, मुख्य मंत्री बी एस येदुरप्पा जिस घर में रहने गए, वह उन्हें ठीक नहीं लगा.. . उसकी सफाई सुथराई से उनको संतोष नहीं हुआ. कई एकड़ में बने हुए इस घर में पहले भी मुख्यमंत्री रह चुके हैं , अच्छा खासा घर है लेकिन मुख्यमंत्री की पसंद पर यह घर खरा नहीं उतरा. अफसर तुंरत सक्रिय हुए और घर दुरुस्त कर दिया गया ..इस घर को नए सिरे से सजाने संवारने में सरकारी खजाने से एक करोड़ सत्तर लाख रूपये का खर्च आया. . यहाँ गौर करने की बात यह है कि दिल्ली और मुंबई में इतने धन से आलीशान फ्लैट खरीदे जा सकते हैं . बहरहाल मुख्यमंत्री जी का घर रहने लायक बन गया और वे उसमें चैन की नींद ले रहे हैं . मतलब यह कि बेल्लारी बंधुओं के बावजूद जितनी नींद ली जा सकती है , ले रहे हैं .. देश के एक बड़े अखबार ने यह सूचना इकठ्ठा करके खबर छाप दी वरना दुनिया को मालूम ही न पड़ता कि कर्णाटक के मुख्यमंत्री जी की ऐश की सीमायें क्या हैं .कर्णाटक में आम आदमी के पैसे की जिस तरह से लूट हुई है उसमें मुख्यमंत्री के अलावा उनकी सरकार के और भी जिम्मेदार लोग शामिल हैं.उनके गृहमंत्री वी एस आचार्य के घर को सजाने सँवारने में इकसठ लाख तीस हज़ार , राजस्व मंत्री ,करुनाकर रेड्डी के घर में अट्ठासी लाख २६ हज़ार और उनकी ख़ास कृपापात्र , शोभा करंदलाजे के घर में अडतीस लाख पांच हज़ार रूपये खर्च हुए हैं .जब मुख्यमंत्री ही इतना खर्च कर रहा है कि तो बाकी लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है .. यहाँ यह भी साफ़ कर देना ज़रूरी है कि इस तरह की फिजूलखर्ची में बी जे पी वाले अकेले नहीं हैं. यह तो इत्तेफाक है कि आज उनकी कर्णाटक सरकार की पोल ही अखबारों ने खोली है . हर पार्टी में इस तरह के नवाबी खर्च करने वाले नेता मौजूद हैं . सवाल यह उठता है कि इस तरह के खर्च की अनुमति क्या इन्हें संविधान या अन्य किसी सरकारी कायदे कानून से मिला हुआ है . आज़ादी की लड़ाई के सभी महान नेता यह उम्मीद भी नहीं कर सकते थे कि आजाद भारत में कोई मंत्री इतना शाहखर्च हो जाएगा कि वह अपने ऐशो आराम के लिए इस तरह की फिजूलखर्ची कर सके . इसलिए उन्होंने इस बात का संविधान में कहीं ज़िक्र नहीं किया. आज के भ्रष्ट नेताओं की फौज यह बहाना लेती है कि संविधान में इस तरह की शाहखर्ची के खिलाफ कुछ नहीं लिखा हुआ है इसलिए उनको मनमानी करने का अधिकार है ... इस देश में यही नेता लोग अगर दस हज़ार की रिश्वत ले लें तो उनके खिलाफ एक्शन हो सकता है लेकिन अपनी नवाबी जीवनशैली के लिए अगर वे करोडों खर्च करें तो उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है क्योंकि संविधान के निर्माताओं को यह मालूम नहीं था कि जनता के प्रतिनिधि इस तरह की छिछोरी हरकतें भी कर सकते हैं ..
. तो यह है बी जे पी के दक्षिण के सरताज, बी एस युदुराप्पा की कहानी . इनकी तुलना महातम गाँधी से करके महात्मा जी का अपमान करना ठीक नहीं होगा . लेकिन इनकी अपनी पार्टी के संथापक सदस्य, पं दीन दयाल उपाध्याय का ज़िक्र करना ठीक रहेगा. दीन दयाल जी को जब ट्रेन यात्रा के दौरान किसी ने मार डाला था. तो उनके पास अपनी एक चादर , एक तौलिया, एक धोती और एक कुरते के अलावा एक घड़ी थी जो उन्हें नानाजी देशमुख ने कभी भेंट की थी. इसके अलावा उनके पास कुछ नहीं था उनका कहीं घर नहीं था. जिस शहर में भी होते थे उसी के किसी नेता के घर उनकी चिट्ठी पत्री पंहुचती थी. नानाजी देशमुख, जे पी माथुर ,अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण अडवाणी, सुन्दर सिंह भंडारी, भाऊ राव देवरस जैसे नेता भी जनसंघ या बी जे पी में रहे हैं जो बहुत ही सादगी का जीवन बिताते थे . तो इन मुख्यमंत्री महोदय को सरकारी पैसे के इस दुरुपयोग की बात कहाँ से सूझी. . साफ़ लगता है कि यह इनकी अपनी फंतासी होगी. वरना आर एस एस, जो इनकी पार्टी का नियंता है , उसमें तो और भी सादगी के जीवन की व्यवस्था है . इस बात पर जनता के बीच में बहस होनी चाहिए .कि क्यों यह लोग जनता के पैसे पर लूट मचाते हैं और मस्त रहते हैं . राजनीतिक नेताओं के ऐशो आराम की कहानियां इतनी ज्यादा हो गयी हैं कि हमें लगने लगा है कि कहीं एक समाज में रूप में हमारी संवेदनाएं शून्य तो नहीं हो गयी हैं . वरना कही कोई मधु कोडा हजारों करोड़ डकार जाता है , कहीं कोई नेता चारे के पैसे को हज़म कर लेता है और कहीं कोई दलाल टाइप नेता जुगाड़ बाजी करके सरकारी कंपनियों को कौडियों के मोल बेच देता है और हम चुप रह जाते हैं .. एक राष्ट्र के रूप में हम क्यों नहीं खड़े हो जाते कि सार्वजनिक संपत्ति की लूट करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा. ऐसा नहीं कि हमारे देश में ऐसी परंपरा नहीं है . परम्परा की कमी नहीं है . अभी बीस साल पहले बोफोर्स में ली गयी ६५ करोड़ की कथित रिश्वत के चक्कर में स्थापित सता को चुनौती दी गयी थी . . उसके पहले भी अवाम ने १९७५ में स्थापित सत्ता को ललकार कर हराया है तो आज ऐसा क्यों नहीं हो सकता .
बोफोर्स और १९७५ की इमर्जेंसी के दौरान जनता ने सरकारे बादल दी थीं. हो सकता है कि उन दोनों ही मुकाबलों में विपक्षी पार्टी की पहचान कर ली गयी थी . दोनों ही बार जनता कांग्रेस के खिलाफ लामबंद हो रही थी . लेकिन भ्रष्टाचार , बे-ईमानी, सरकारी धन की हेराफेरी के मौजूदा मामलों में सभी पार्टियों के नेता शामिल पाए जाते हैं . इसलिए जन आक्रोश का निशाना तय करने में मुश्किल पेश आयेगी. लेकिन एक अच्छी बात यह है कि अब ज़माना बदल गया है . सूचना के अधिकार जैसे कानून भी बन गए हैं और सूचना के प्रसार के परंपरागत साधनों पर निर्भरता भी ख़त्म हो गयी है . अब तो इन्टरनेट ने सूचना का लोकतंत्रीकरण कर दिया है . इसलिए जनता को राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के अलावा किसी और तरीके के से अपने आन्दोलन को चलाना होगा . तभी जाकर इन नेताओं के भ्रष्टाचार को नकेल लगाई जा सकेगी.. लेकिन यह काम बहुत ज़रूरी है .
आम तौर पर माना जाता है कि इस तरह के किसी आन्दोलन के नेतृत्व के लिए किसी बड़े नेता की ज़रुरत होती है. मसलन आज़ादी की लड़ाई महात्मा गाँधी ने लड़ी, १९७५ का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण के हाथ में था और बोफोर्स मामले में चला आन्दोलन कांग्रेस के बागी विश्वनाथ प्रताप सिंह को आगे करके लड़ा गया. लेकिन एक बात जो सच है वह यह कि सारे आन्दोलन मूल रूप से जनता के आन्दोलन थे और जब जनता का मन बन गया तो उनके बीच से ही कोई नेता बन गया. क्योंकि १९२० में महात्मा गाँधी का आन्दोलन ढीला पद गया था क्यों कोई उसे पूरी जनता का समर्थन नहीं प्राप्त था. उन्ही महात्मा गाँधी के नेतृत्व में १९४२ में पूरा देश उमड़ पड़ा था. १९७४ के पहले तक जय प्रकाश जी की पहचान विनोबा जी के करीबी और सर्वोदयी नेता के रूप में होती थी लेकिन जब बिहार में नौजवानों ने आन्दोलन के राह पकडी तो उन्होंने जय प्रकाश जी को अपना नेता माना और मुद्दा इतना अहम् था कि पूरा देश उनके साथ हो लिया. इसलिए ज़रुरत जनजागरण की है . आम आदमी को फैसला लेना है कि क्या वह भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी या नेता को बता देना चाहती है. क्या जनता यह फैसला करना चाहती है कि उसकी अपनी कमाई को लूटने वाले लोगों को निकाल बाहर फेंकने का वक़्त आ गया है? इसके लिए जनता को घूसखोरों के खिलाफ अपना मन बनाना पड़ेगा . एक बार अगर जनता तैयार हो गयी तो नेता के बिना कोई काम नहीं रुकता. अपने मुल्क में तो बहादुर शाह ज़फर जैसे कमज़ोर बादशाह को नेता बना कर ईस्ट india कंपनी का राज खत्म किया जा चुका है .. यहाँ यह साफ़ करना ज़रूरी है कि १८५७ की आज़ादी की लड़ाई सफल रही थी क्योंकि वह लड़ाई कंपनी के राज के खिलाफ शुरू की गयी थी और उसके बाद वह राज ख़त्म हो गया. यह अलग बात है कि अपने देश में उस वक़्त सता संभालने का बुनियादी ढांचा नहीं उपलब्ध था. अगर कांग्रेस जैसी कोई पार्टी होती तो, हो सकता है कि १८५७ के बार देश में ब्रिटिश एम्पायर का नहीं, अपने लोगों का देशी राज होता.
जो भी हो सरकार के हर स्तर पर फैले गैरजिम्मेदार नेताओं और अफसरों के खिलाफ जब तक जनता सोंटा नहीं उठाएगी कोई भी क्रातिकारी परिवर्तन नहीं होगा
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