शेष नारायण सिंह
मुंबई,३१ मार्च. बीजेपी की टीम २०१४ की घोषणा के बाद अब साफ़ हो गया है कि बीजेपी अब चुनावी मैदान में हिंदुत्व के नाम पर उतरने वाली है .यह भी तय हो गया है कि बीजेपी का चुनाव प्रचार नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की थीम पर ही केंद्रित रहेगा. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के राग से मिलाकर धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिश की जायेगी. बीजेपी में अटल बिहारी वाजपेयी ,सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के नाम ऐसे हैं जिनको लिबरल डेमोक्रेटिक के रूप में पेश किया जाता है लेकिन नरेंद्र मोदी, लाल कृष्ण आडवाणी ,उमा भारती आदि ऐसे नाम हैं जिनका ज़िक्र आते ही, बाबरी मसजिद के विध्वंस की तस्वीरे सामने आ जाती हैं . राज नाथ सिंह की नई टीम में पीलीभीत के एम पी वरुण गांधी को भी बहुत बड़ी पोस्ट दे दी गयी है . उत्तर प्रदेश में बीजेपी के बड़े नेता और बाबरी मसजिद के विध्वंस के आन्दोलन के समय बजरंग दल के अध्यक्ष रहे विनय कटियार ने उनकी तैनाती पर टिप्पणी की है और कहा है कि वरुण गांधी को उनके नाम के साथ गांधी जुड़े होने का फायदा मिला है .लेकिन सच्चाई यह है कि वरुण गांधी ने खासी मेहनत करके मुसलमानों के घोर शत्रु के रूप में अपनी पहचान बना ली है और उत्तर प्रदेश में हर इलाके में वे नौजवान जो मुसलमानों के खिलाफ हैं वे वरुण गांधी को हीरो मानते हैं . जो भी हो अब बीजेपी के पत्ते खुल चुके हैं और इसका सीधा मतलब है कि इस बार आर एस एस की पार्टी हिंदुओं की एकता की राग के साथ चुनावी मैदान में जाने का मन बना चुकी है .
बीजेपी की नई टीम और उसमें नरेंद्र मोदी के लोगों को मिली प्राथमिकता के अलग अलग सन्देश हर राज्य में जायेगें. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के राज्य, उत्तर प्रदेश में यह टीम धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति को एक निश्चित दिशा देगी. बीजेपी को उसका लाभ मिलेगा. पिछले एक साल में उत्तर प्रदेश में जिस तरह का राज कायम है उसके बाद समाजवादी पार्टी के पक्ष में उतने लोग नहीं हैं जितने मार्च २०१२ में थे. समाजवादी पार्टी की जब सरकार बनी थी तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने बताया था कि २०१२ के विधान सभा चुनाव के अपने घोषणापत्र की प्रमुख बातें लागू करके वे लोकसभा चुनाव में जाना चाहेगें जिससे अपनी पार्टी की मजबूती और अच्छे काम के बल पर जनता के बीच जाएँ तो अच्छी सीटें मिल जायेगीं उनकी कोशिश थी कि उतनी सीटें फिर से हासिल की जाएँ जितनी २००४ में मिली थीं . २००४ में समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में करीब ४० सीटें मिली थीं.
लेकिन पार्टी की हालत अब ऐसी है कि अगर आज चुनाव हो जाएँ तो समाजवादी पार्टी को उतनी सीटें भी नहीं मिलेगीं जितनी उसके पास अभी हैं .पूरे राज्य में कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब है, बिजली पानी की भारी किल्लत है . कुछ खास जातियों के लोगों का आतंक है और कुल मिलाकर ऐसी हालत है कि अगर आज चुनाव हो जाएँ तो उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सीटें बहुत कम हो जायेगीं . कांग्रेस नेता और केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा का दावा है कि केवल चार सीटें रह जायेगीं . उनकी इस बात पर विश्वास करने का कोई आधार तो नहीं है लेकिन यह तय है कि स्थिति कमज़ोर होगी और अगर नरेंद्र मोदी , वरुण गांधी, उमा भारती जैसे लोग जिनको मुसलमान अपना शत्रु मानते हैं वे बीजेपी के अगले दस्ते में नज़र आये तो समाजवादी पार्टी का प्रमुख वोट बैंक किसी ऐसी पार्टी को वोट देगा जो केन्द्र में नरेंद्र मोदी की सरकार को रोकने की क्षमता रखता हो . इस कसौटी पर केवल कांग्रेस ही खरी पायी जायेगी. मायावती की पार्टी की हैसियत केन्द्र में किसी सरकार की मदद करने भर की है और सबको मालूम है कि वे ज़रूरत पड़ने पर बीजेपी की मदद भी कर सकती हैं . १९९४ से लेकर २००७ तक वे जब भी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं , हमेशा बीजेपी की मदद से ही बनीं. २००२ के गुजरात के नरसंहार के बाद हुए चुनावों में वे नरेंद्र मोदी का प्रचार करने अहमदाबाद भी जा चुकी हैं . ऐसी हालत में बीजेपी को रोकने के लिए आर एस एस विरोधी शक्तियां मायावती के पास नहीं जायेगीं . मुलायम सिंह यादव भी पिछले दिनों लाल कृष्ण आडवानी की तारीफ़ करके मुसलमानों की नाराज़गी का शिकार बन चुके हैं .उनकी पार्टी ने साफ़ संकेत दे दिया है कि वह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को यू पी ए से अच्छी मानती है . लोकसभा के अंदर राजनाथ सिंह ऐलान कर चुके हैं कि अगली बार मुलायम सिंह यादव उनके साथ रहेगें . ऐसी स्थति में सेकुलर और मुस्लिम वोट मुलायम सिंह यादव के पास नहीं जाने वाला है . और जो ढुलमुल मुस्लिम विरोधी मतदाता है वह तो हर हाल में बीजेपी के साथ जाएगा.ऐसी हालत में बीजेपी की साम्प्रदायिक राजनीति को रोकने के लिए सेकुलर और मुस्लिम वोट कांग्रेस के पास जा सकता है . यही हालत २००९ के चुनाव में भी हुई थी जब बीजेपी ने ऐसा माहौल बना दिया था कि उसकी सरकार बनने वाली है और मुसलमानों ने मुलायम सिंह यादव के प्रति सहानुभूति रखते हुए भी कांग्रेस को जिता दिया था . वरना जो पार्टी उत्तर प्रदेश की विधान सभा में २५ सीट के आसपास ही जीतने की क्षमता रखती है , उसको २१ सीट लोकसभा में जीत पाना एक राजनीतिक अजूबा ही माना जाएगा . यह इसीलिये हुआ कि बीजेपी के खिलाफ जो ताक़तें थी उनकी बड़ी संख्या कांग्रेस की तरफ चली गयी . मायावती और मुलायम सिंह के साथ भी लोग रहे जिसके कारण तीनों ही पार्टियों को लगभग बराबर सीटें मिलीं . इस बार तस्वीर बदल सकती है क्योंकि मुलायम सिंह यादव ने भी बीजेपी की तरफ दोस्ती के संकेत दे दिए हैं और जब मोदी के पक्ष धार्मिक ध्रुवीकरण होगा तो वोट उसी को मिलेगें जो दिल्ली में बीजेपी को सत्ता पर कब्जा करने से रोक सके. इसलिए उत्तर प्रदेश में तो यही लग रहा है कि लोकसभा चुनाव बीजेपी और कांग्रेस के बीच होने की बुनियाद पड़ चुकी है