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Monday, July 23, 2012

महिलाओं की अस्मिता का निगहबान बन चुके मीडिया का सम्मान किया जाना चाहिए



शेष नारायण सिंह 

गुवाहाटी में एक लड़की के साथ जो हुआ वह बहुत बुरा  हुआ. आज सारी दुनिया को मालूम है कि किस तरह से अपने पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को अपमानित किया  जाता है .  टेलिविज़न और अखबारों में खबर के आ जाने के बाद ऐसा माहौल बना कि गुवाहाटी की घटना  के बारे में सबको मालूम  हो गया . लेकिन यह भी सच्चाई है कि इस तरह की घटनाएं देश के हर कोने में होती रहती हैं . ज्यादातर मामलों में किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती.  चर्चा तब होती है जब यह घटनाएं मीडिया में चर्चा का विषय बन जाती हैं . गुवाहाटी की घटना के साथ बिलकुल यही हुआ. देश के  लगभग सभी महत्वपूर्ण टेलिविज़न समाचार चैनलों ने  इस खबर को न केवल चलाया बल्कि कुछ प्रभावशाली चैनलों ने तो इस  विषय पर घंटों की चर्चा का कार्यक्रम भी प्रसारित किया . नतीजा सामने है . अब सबको मालूम है कि किस तरह से   एक समाज के रूप में हम असंवेदनशील हैं . घटना की जांच करने गयी महिला आयोग की एक प्रतिनधि और कभी दिल्ली विश्वविद्यालय की  नेता रही महिला ने तो वहां जाकर अपनी छवि मांजने की कोशिश की . इस चक्कर में पीड़ित लडकी का नाम भी उन्होंने  सार्वजनिक कर दिया . ऐसा नहीं करना चाहिए  था. महिलाओं के प्रति एक समाज के रूप में हमारा दृष्टिकोण आज पब्लिक डोमेन में है और इसके लिए सबसे ज्यादा  सम्मान का पात्र  मीडिया ही है .
आज मीडिया अपनी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से निभा भी रहा है . उसकी वजह से ही देश में महिलाओं के साथ होने वाले व्यवहार को जनता के सामने लाया जा  रहा है और सरकार में भी किसी स्तर पर ज़िम्मेदारी का भाव जग रहा है  . लेकिन एक बात स्वीकार करने में मीडिया कर्मी के रूप में हमें संकोच नहीं होना चाहिए . अक्सर देखा जा रहा है कि जब एक बात किसी मीडिया कंपनी या किसी मेहनती पत्रकार की कोशिश से  खबरों की दुनिया में आ जाती है तो बहुत सारे पत्रकार उसी खबर को आधार बनाकर खबरें लिखना शुरू कर देते हैं . पत्रकारिता का पहला सिद्धांत है कि जब भी कोई खबर किसी भी रिपोर्टर की जानकारी में आती है तो वह उस व्यक्ति का पक्ष ज़रूर लेगा जिसके बारे में खबर है . कई बार ऐसा होता है कि जिस व्यक्ति के बारे में खबर है उस तक पंहुचना ही बहुत मुश्किल होता है .  उस हालत में उस व्यक्ति से सम्बंधित जो लोग या जो भी संगठन हों उनसे जानकारी ली  जा सकती है .लेकिन इस काम में एक दिक्कत है . अगर वह  व्यक्ति प्रभावशाली हुआ  और  खबर उसके खिलाफ जा रही हो तो वह खबर को रोकने की कोशिश करवा सकता है . ज़ाहिर है कि उस से बात करने पर खबर दब सकती है .इस हालत में रिपोर्टर के पास इतने सबूत होने चाहिए कि वह ज़रुरत पड़ने पर अपनी खबर की सत्यता को साबित कर सके . उसके पास कोई दस्तावेज़ होना चाहिए, कोई टेप या कोई वीडियो  भी बतौर सबूत हो तो काफी है . लेकिन अगर किसी के  बयान के आधार पर कोई खबर लिखी जा रही है  तो उसके बयान की लिखित प्रति, उसका टेप किया बयान  या कुछ अन्य लोगों की मौजूदगी में दिया गया उसका बयान होना ज़रूरी है . अगर ऐसा न किया गया तो पत्रकारिता के पेशे का अपमान होता है और आने वाले समय में पत्रकार की विश्वसनीयता पर सवाल  उठ खड़े होते हैं . पत्रकार को किसी भी हालत में सुनी सुनायी बातों को  आधार बनाकर खबर नहीं लिखना चाहिए . दुर्भाग्य की बात यह है कि गुवाहाटी की घटना के बारे में इस तरह की पत्रकारिता हो गयी है . 
अभी एक दिन पहले एक बड़े अखबार में खबर छपी कि राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष , ममता शर्मा ने लड़कियों को सलाह दी है कि वे अगर छेड़खानी जैसे अपराधों से बचना चाहती हैं तो उन्हें ठीक से कपडे पहनना  चाहिए .  बात बहुत ही अजीब थी . मैंने तय किया कि इन देवी जी के इस बयान के  आधार पर ही इस बार  अपने इस कालम में महिलाओं की दुर्दशा की चर्चा की जायेगी . बड़े अखबार की खबर के हवाले से जब उनसे बात करने की कोशिश की गयी तो वे गुवाहाटी में थीं लेकिन  थोड़ी कोशिश के बाद उनसे संपर्क हो गया . जब उनसे बताया कि आप के ठीक से कपडे पहनने वाले बयान के बारे में बात करना है तो उन्होंने जो कहा  वह बिलकुल उल्टी बात थी. उन्होंने कहा कि कभी भी उन्होंने वह बयान नहीं दिया है जो एक अंग्रेज़ी अखबार में छपा है. उन्होंने सूचित किया कि वे  दिल्ली के अपने  दफ्तर को हिदायत दे चुकी हैं कि वे  के बयान जारी करके यह कहें कि राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ने सम्बंधित अखबार या उसके रिपोर्टर से कोई बात नहीं की है और बयान पूरी तरह  से फर्जी है. उनके इस बयान के बाद भारत सरकार की एक  बड़ी अधिकारी को कटघरे में लेने की अपनी इच्छा पर घड़ों पानी पड़ गया लेकिन यह सुकून ज़रूर हुआ कि एक गलत खबर को आधार बनाकर अपनी बात कहने से बच गए . लेकिन आज सुबह के अखबारों को देखने से अपने पत्रकारिता पेशे में लगे हुए लोगों की कार्यप्रणाली से निराशा जरूर हुई . राष्ट्रीय महिला आयोग के दफतर ने शायद बयान जारी किया होगा क्योंकि उस बड़े अखबार में आज उस खबर का फालो अप नहीं है . लेकिन आज एक अन्य बड़े अखबार में उस खबर का फालो अप छपा है . जिसमें महिला आयोग की अध्यक्ष की लानत मलानत की गयी है.  दिल्ली में रहने वाली कुछ महिला नेताओं से बातचीत की गयी है और उनके बयान में महिला आयोग की कारस्तानी की निंदा की गयी है .जिन महिला नेताओं के बयान छपे हैं उनमें से कोई भी महिला आयोग की अध्यक्ष या उस से भी बड़े पद पर विराजने लायक हैं . इसलिए उनकी  बात समझ  में आती है .उन्हें चाहिए कि वे राष्टीय महिला आयोग की  मौजूदा  अध्यक्ष को बिलकुल बेकार की अधिकारी साबित करती रहें जिससे जब अगली बार उस पद पर नियुक्ति की बात  आये तो अन्य लोगों के साथ इनका नाम भी आये . लेकिन क्या  हमको भी यह शोभा देता है कि एक गलत खबर का फालो अप चलायें . पत्रकारिता की नैतिकता के पहले  अध्याय में ही लिखा  है कि खबर ऐसी हो जिसकी सत्यता की पूरी तरह से जांच की जा सके और जब सम्बंधित व्यक्ति या उसका दफ्तर ऐलानियाँ बयान दे रहा है कि वह बयान उनका नहीं है तो उस बयान के आधार पर खबरों का  पूरा  ताम झाम बनाना अनैतिक है .बहर हाल नतीजा यह हुआ कि यह कालम जो राष्ट्रीय माहिला आयोग की अध्यक्ष के खिलाफ एक सख्त टिप्पणी के रूप में सोचा गया था , औंधे मुंह गिर  पडा . अब उनके खिलाफ कभी फिर टिप्पणी  लिखी जायेगी लेकिन आज तो अपने पेशे की ज़िम्मेदारी पर ही कुछ बात करना ठीक रहेगा.
 गुवाहाटी की खबर के हवाले से मीडिया की भूमिका पर बात करना बहुत ही ज़रूरी है . धीरे धीरे खबर आ रही है कि उस घटना के लिए जो अपराधी छेड़खानी कर रहे थे , उनको सेट करने का काम एक टी वी पत्रकार ने ही  किया था.उस टी वी चैनल के मुख्य संपादक के खिलाफ कार्रवाई भी हो चुकी है. ज़ाहिर है  कि फर्जी तरीके से खबर बनाने के लिए  उस टी वी चैनल  ने इस तरह का आयोजन किया . इस प्रवृत्ति की निंदा की जानी चाहिए  लेकिन उस टी वी  चैनल की मिलीभगत साबित हो जाने के बाद गुवाहाटी की घटना की गंभीरता कम नहीं हो जाती .बल्कि यह ज़रूरी हो जाता है कि छेड़खानी कर रहे अपराधियों के साथ साथ उन पत्रकारों के खिलाफ भी आपराधिक कार्रवाई की जाए जिन्होंने इस तरह का आयोजन करके एक लडकी की अस्मिता की धज्जियां उड़ाईं.इस बात की पूरी संभावना है कि सत्ताधारी पार्टी गुवाहाटी के उस गैरजिम्मेदार  पत्रकार के हवाले से सभी खबरों की सत्यता को सवालों के घेरे में लेने  की कोशिश करेगें . लेकिन उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए .  महिलाओं सहित अपने सभी नागरिकों के सम्मान की  रक्षा करना  सरकार का कर्तव्य  है और सरकार को उसे करते ही रहना चाहिए . देखा यह गया है कि  सरकार में बैठे लोग खबर की सच्चाई पर सवाल उठाने का मामूली सा मौक़ा हाथ आते ही खबर के  विषय को भूल जाते हैं . सत्ताधारी पार्टी के नेता बयानों की झड़ी लगा देते हैं और मुद्दा कहीं दफ़न हो जाता है . मीडिया को कोशिश करना चाहिए कि गुवाहाटी की घटना के साथ महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान के बारे में जो राष्ट्रीय बहस चल पड़ी है ,उसे उसके  अंजाम  तक पंहुचाएं.  

गुवाहाटी की घटना के साथ ही उत्तर प्रदेश के बागपत की बातें भी हो रही हैं . वहां के पुरुषों ने एक पंचायत करके अपने घरों की महिलाओं को सलाह दिया है कि वे दिन ढले घरों से बाहर न निकलें, सेल फोन का इस्तेमाल न करें और प्रेम  विवाह न करें . यानी उस पंचायत ने अब तक हुए विकास को उल्टी दिशा में दौडाने की कोशिश है . जहां की यह घटना है  वह देश की राजधानी से लगा हुआ इलाका है .  दिल्ली के इतने करीब हो कर भी महिलाओं के प्रति इतना आदिम रवैया बहुत ही अजीब  है . उस से भी अजीब है कि कई पार्टियों के राजनीतिक नेता महिलाओं के खिलाफ इस तरह का रुख रखने वालों के साथ खड़े पाए जा  रहे हैं . ज़ाहिर है एक समाज के रूप में हम कहीं फेल  हो रहे हैं . बागपत वाले मामले में मीडिया का रुख शानदार है और हर वह नेता तो मध्यकालीन सामंती सोच  के प्रभाव में आकर बयान दे रहा है  उसकी पोल लगातार खुल रही है .आज से करीब ३५ साल पहले भी इसी बागपत में माया त्यागी नाम की एक महिला के साथ पुरुष प्रधान मर्दवादी  सोच वालों ने अत्याचार किया था . उस वक़्त भी मीडिया के चलते ही वह मामला पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना था. इतने वर्षों बाद भी आज बागपत और दिल्ली के आस पास के अन्य इलाकों में महिलाओं के प्रति जो रवैया है वह क्यों नहीं बदल रहा है , यह चिंता की बात  है और इसकी भी पड़ताल की जानी चाहिए . लगता है कि राजनीतिक पार्टियों के नेता तो  इस बात पर तब तक ध्यान नहीं देगें जब तक कि उनकी असफलताओं को मीडिया के ज़रिये सार्वजनिक न किया  जाए.   पिछले कई वर्षों में यही हुआ है . जब १४ फरवरी के आस पास लड़कियों की अस्मिता पर बंगलोर में हमला हुआ था , उस वक़्त भी मीडिया के हस्तक्षेप से ही  अपराधी पकडे  गए थे . इसलिए साफ़ लगने लगा है कि इस देश में महिलाओं  के सम्मान की रक्षा  के काम में सबसे अहम भूमिका मीडिया की ही रहेगी .

Monday, January 10, 2011

बीजेपी ने सोनिया गाँधी को मुद्दा बनाया

शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश में १९६७ के चुनाव में बीजेपी के पूर्व अवतार,जनसंघ ने मजबूती से चुनाव लड़ा था.इसका मतलब यह नहीं कि पार्टी जीत गयी थी लेकिन थोड़ी सम्मानजनक सीटें मिल गयी थी. मेरे गाँव में भी १९६७ के चुनाव में जनसंघ का जोर था. पूरे गाँव ने जनसंघ को वोट दिया था लेकिन जब नतीजे आये तो उम्मीदवार हार गया ,कांग्रेस वाला जीत गया था . मेरे गाँव में हर आदमी हतप्रभ था कि जब पूरी आबादी जनसंघ को वोट दे रही है तो हारने का क्या मतलब है .जनसंघ की हनक भी इतनी थी कि आसपास के गाँवों के लोग डर के मारे यही कहते थे कि उनके गाँव में भी जनसंघ के चुनाव निशान दीपक पर ही वोट पड़ा था. लेकिन सच्चाई यह थी कि हमारे गाँव के बाहर के गाँवों के लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया था. पूरे जिले में कांग्रेस को ही वोट मिला था और कांग्रेस लगभग सभी सीटों पर जीत गयी थी . मैं बहुत परेशान था और मेरे गाँव के भगेलू सिंह ने जब जनसंघ के उम्मीदवार के घर से लौट कर बताया कि कांग्रेसियों ने बक्सा बदल दिया तो हमारे गाँव में सबने विश्वास कर लिया था . १९७१ में जब इंदिरा गाँधी की पार्टी को भारी बहुमत मिला तो मेरे गाँव में भगेलू सिंह के समर्थकों ने साफ़ ऐलान कर दिया कि बक्सा बदल गया है .हालांकि तब तक कुछ और पढ़े लिखे लोग गाँव में पैदा हो चुके थे और उन्होंने कहा कि बक्सा नहीं बदला गया बल्कि अखबार में छपा था कि उस वक़्त के जनसंघ के बड़े नेता , बलराज मधोक ने कहा है कि कांग्रेस ने बैलट पेपर के ऊपर ऐसा केमिकल लगवा दिया था कि मोहर कहीं भी लगाओ निशान गाय बछड़े पर ही बन रहा था जो इस चुनाव में कांग्रेस का चुनाव निशान था.बहरहाल जो भी हो कांग्रेस की जीत में बेईमानी का योगदान मुकम्मल तौर पर माना जाता था . हमारे गाँव में कोई यह मानने को तैयार ही नहीं था कि जनसंघ जैसी अच्छी पार्टी को छोड़कर कोई किसी अन्य पार्टी को वोट दे सकता था..धीरे धीरे लोगों की समझ में आया कि एक गाँव के वोट से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता बाकी गाँवों में भी लोग रहते हैं और वोट देते हैं. हमारे गाँव वालों की समझ में यह बात तो बहुत पहले आ गयी लेकिन जनसंघ/बीजेपी के नेताओं की समझ में यह बात अभी तक नहीं आई है कि लोग उनके अलावा किसी और को वोट कैसे दे सकते हैं . शायद इसी मानसिकता से पीड़ित होकर गुवाहाटी में जमा हुये बीजेपी नेताओं ने बोफोर्स तोप के सौदे को एक बार फिर चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की है . उन्हें लगता है कि जब बोफोर्स जैसा मुद्दा मौजूद है तो और किसी बात पर क्यों ध्यान दिया जाय . अब जब आम आदमी के दिमाग में बैठ गया है कि कामनवेल्थ और २ जी के घोटाले में कांग्रेस और बीजेपी ,दोनों ही शामिल हैं,तो बीजेपी उससे बचने की कोशिश कर रही है . प्याज की बढ़ी हुई कीमतें भी अच्छा मुद्दा थीं लेकिन अब ज़खीरेबाज़ों की धर पकड़ में तो बीजेपी वाले ही फंस रहे हैं .इसलिए कुल मिला कर बीजेपी को भ्रष्टाचार का एक मुद्ददा मिल रहा है जिसमें उसके लोग बिलकुल शामिल नहीं हैं और वह है , बोफोर्स वाला . लेकिन सवाल यह उठता है कि आज २५ साल बाद तक बोफोर्स मुद्दा चल पायेगा क्या? ख़ास तौर पर जब बोफोर्स के ६५ करोड़ रूपये के घूस के बदले जब बीजेपी के नेताओं ने अपनी सरकार के दौरान सैकड़ों करोड़ की हेराफेरी की हो . वैसे भी जानकार बताते हैं कि १९८९ के चुनाव में बीजेपी की सीटें बोफोर्स के चक्कर में नहीं बढीं थीं . हिंदुत्व के नारे ने काम किया था, बोफोर्स तो मरीचिका ही था . वैसे भी बाद के वर्षों में बोफोर्स केवल बीजेपी के नेताओं के दरबारों में मुद्दा रहा देश ने कभी उसे गंभीरता से नहीं लिया .लेकिन गुवाहाटी में तो बीजेपी के नागपुरी अध्यक्ष ने न केवल बोफोर्स को मुद्दा बनाने का ऐलान किया बल्कि सोनिया गाँधी के परिवार को मीडिया के फोकस में रखने का भी फैसला कर दिया . यह क़दम उतना ही अजीब है जितना जनता पार्टी के राज में चौधरी चरण सिंह का इंदिरा गाँधी को गिरफतार करने का फैसला था . इंदिरा गाँधी को देश ने १९७७ में दुत्कार दिया था लेकिन केंद्र सरकार की उस मूर्खतापूर्ण कारवाई के बाद जब इंदिरा गाँधी अखबारों के पहले पन्ने पर आयीं तो कभी हटी ही नहीं .इस तरह १९७७ में जनता ने जो बाज़ी जीती थी उसे उस दौर के गैर कांग्रेसी नेताओं ने हार में बदल दिया . बीजेपी के गुवाहाटी के फैसले से भी लगता है कि अब रोज़ ही इनकी प्रेस कानफरेंस में सोनिया गाँधी छायी रहेगीं और उन्हें ही सारा मीडिया कवर करने को मजबूर होगा. बीजेपी देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है उसे इस तरह के गैरजिम्मेदार राजनीतिक आचरण से बच कर रहना चाहिए और ऐसी कोशिश करनी चाहिये कि भ्रष्टाचार ही मुद्दा बना रहे , कोई परिवार मुद्दा न बन बान जाए . बीजेपी के इस काम से आम आदमी की सत्ता को बदल देने की इच्छा प्रभावित होती है.