शेष नारायण सिंह
विख्यात अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने पिछले दिनों एक बहुत दिलचस्प बात कही . उन्होंने बताया कि हर आदमी भ्रष्टाचार के खिलाफ है , अन्ना हजारे भी भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं हुआ कि हर आदमी जो भ्रष्टाचार के खिलाफ है वह अन्ना हजारे के साथ है. लेकिन भ्रष्टाचार से पीड़ित समाज और गरीब आदमी का दुर्भाग्य यह है कि अन्ना के साथ लगे हुए लोगों ने यह साबित करने की कोशिश की कि हर आदमी जो भ्रष्टाचार के खिलाफ है वह टीम अन्ना के साथ है .इस काम में उनको आंशिक सफलता भी मिली . उनको लगने लगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जो भी इंसान होगा वह उनका कार्यकर्ता नहीं तो वोटर तो बन ही जाएगा. नतीजा यह हुआ कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जो नियोजित लड़ाई होनी थी वह गायब हो गयी. टीम अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाली अपनी लड़ाई के दौरान अपनी हर बात को सार्वजनिक किया , जो आदमी भी उनको अच्छा नहीं उसके लिए भला बुरा कहा . कहीं किसी ने कहा कि गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी मानवता के हत्यारे हैं . यहाँ टीम अन्ना के कुछ लोगों के मोदी विरोधी बयान की सत्यता को गलत साबित करने का कोई इरादा नहीं है लेकिन यह पक्का है कि इस बयान के बाद जो मोदी के समर्थक अन्ना के साथ जुड़े थे ,वे नाराज़ हुए और उन्होंने उनका साथ छोड़ दिया . इसी तरह से दिग्विजय सिंह के भी बहुत सारे समर्थक भ्रष्टाचार से परेशान हैं और उन्हें भी अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से कुछ उम्मीद हो गयी थी . लेकिन जब उन्होंने देखा कि टीम अन्ना वालों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आन्दोलन को दिग्विजत सिंह का विरोध करने के लिए एक मंच के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया तो दिग्विजय सिंह के प्रशंसक भी नाराज़ हो गए. अन्ना का आन्दोलन आम तौर पर यू पी ए की सरकार के खिलाफ था इसलिए यू पी ए के समर्थक टीम अन्ना के खिलाफ थे . ज़ाहिर है यू पी ए के समर्थक भी इस देश में बड़ी संख्या में हैं क्योंकि उनके ही वोटों से जीतकर आये लोगों की सरकार बनी हुई है . शायद इसलिए राजनीतिक अवसर की तलाश में यू पी ए के विरोधी अन्ना की को मदद करने लगे लेकिन जब अन्ना की टीम के कुछ सदस्यों ने बीजेपी के बड़े नेताओं के खिलाफ भाषण देना शुरू किया तो आर एस एस का एक बड़ा वर्ग भी उनसे अलग हो गया . देखा यह गया कि अन्ना हजारे तो पूरे आन्दोलन में भ्रष्टाचार और लोकपाल पर केन्द्रित रहे लेकिन उनके साथी अपनी अधूरी राजनीतिक इच्छाओं को हवा देना लगे . जिसके मन में किसी भी नेता के खिलाफ जो भी बात थी उसे पब्लिक में बताने लगे . भ्रष्टाचार के साथ साथ हर विषय पर बात होने लगी. उनकी बात को दूर तलक पंहुचाने के लिए टी वी के कैमरे हमेशा ही उपलब्ध थे. अन्ना की टीम के ज़्यादातर सदस्य टेलिविज़न के स्टूडियो में नज़र आने लगे . मीडिया ने भी उन्हें खूब महत्व दिया क्योंकि भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता अन्ना के शुरुआती दौर में मुक्ति की राह देख रही थी . लेकिन जब अन्ना का आन्दोलन भ्रष्टाचार के अलावा हर मुद्दे पर चर्चा करने लगा तो आन्दोलन की ताक़त कमज़ोर पड़ती गयी. नतीजा यह हुआ कि वही केंद्र सरकार जिसने आन्दोलन की शक्ति की पहचान करके टीम अन्ना के पांच सदस्यों को लोकपाल कानून का ड्राफ्ट बनवाने के लिए सरकारी कमेटी का सदस्य बनाया था ,उसी सरकार ने उसी जन्तर मंतर पर आन्दोलन के तीन बड़े नेताओं के ९ दिन तक चले अनशन की परवाह तक नहीं की. और घट रहे जनसमर्थन से घबडाकर आन्दोलन के नेताओं को अपना बोरिया बिस्तर बांधने के लिए मजबूर होना पडा. आन्दोलन से जुड़े एक सदस्य ने बताया कि कोशिश की गयी कि सरकार अनशन ख़त्म कारने की अपील ही कर दे जिसके बहाने जंतर मंतर से निकला जा सके लेकिन वह भी नहीं हुआ. आखिर में अपने ही शुभचिंतकों से चिट्ठी लिखवाकर अनशन तोड़ने को मजबूर होना पडा और वहीं पर एक आन्दोलन को समाप्त करके एक राजनीतिक पार्टी के गठन की घोषणा भी कर दी गयी . राजनीतिक पार्टी के गठन की घोषणा से उनकी टीम के कुछ लोगों को राहत ज़रूर मिली . शायद इसलिए कि उनकी राजनीतिक मनोकामना एक बहुत ही दमदार आन्दोलन के ज़रिये सफल होती नज़र आ रही थी लेकिन आन्दोलन में कुछ ऐसे भी लोग थे जो या तो राजनीति से ही आये थे और या जो राजनीति में जाना ही नहीं चाहते थे. उन लोगों ने चुनावी राजनीति के ज़रिये अन्ना के आन्दोलन को आगे बढाने की योजना पर पानी डाल दिया . और प्रस्तावित राजनीतिक पार्टी से अन्ना हजारे अलग हो गए. राजनीति से जिन लोगों ने ऐलानियाँ किनारा किया उनमें जस्टिस संतोष हेगड़े, मेधा पाटकर और डॉ सुनीलम प्रमुख थे. जस्टिस हेगड़े की इच्छा थी कि इस आन्दोलन को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बहुत बड़े आन्दोलन में बदल दिया जाए. जज के रूप में अपने काम से भी उन्होंने यह साबित कर दिया था कि वे भ्रष्टाचार के विरोधी हैं . रिटायर होने के बाद एक सामाजिक और राजनीतिक हस्तक्षेप के ज़रिये वे अपना काम करना चाहते थे . उन्होंने बहुत करीब से चुनावी राजनीति और भ्रष्टाचार के घालमेल को देखा था . कर्नाटक के लोकायुक्त के रूप में उन्होंने राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री के भ्रष्टाचार को जगजाहिर किया था और राजनेताओं के भ्रष्टाचार कर सकने की क्षमता पर लगाम लगाई थी. उनका विशवास है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार की बुनियाद में चुनावी चंदा होता है इसलिए वे चुनावी राजनीति के किसी भी अभियान से अपने को दूर ही रखना चाहते थे. उनके अलावा मेधा पाटकर ने भी सामाजिक बदलाव के लिए आम जनता की भागीदारी वाले कई आन्दोलनों को सफलता पूर्वक चलाया है और आम आदमी में उसके अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने का काम किया है . इस आन्दोलन में भी जब वे शामिल हुईं तो उनकी इच्छा किसी भी हालत में चुनावी राजनीति में शामिल होने की नहीं थी. ज़ाहिर है उन्होंने भी अपने आपको राजनीतिक पार्टी की मुहिम से अलग कर लिया और साफ़ कर दिया कि सरकार की नीतियों को प्रभावित कर सकने की क्षमता जन आन्दोलनों में सबसे ज्यादा होती है . राजनीतिक पार्टी के अपने सपने होते हैं , वे अपने तरीके से काम करते हैं और उनमें न्याय की बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं होती. लिहाजा मेधा पाटकर भी इस आन्दोलन से अलग हो गयीं.
एक अन्य प्रभावशाली सदस्य डॉ सुनीलम भी अलग हो गए . वे एक राजनीतिक पार्टी के महासचिव रह चुके हिना उर उसे छोड़कर वे जनांदोलनों में शामिल हुए थे. एक सोशलिस्ट के रूप में भी उन्होंने आम आदमी की पक्षधरता की कई लडाइयां लड़ी हैं. उनसे बात करके अन्ना हजारे के दिमाग में चल रही सारी उथल पुथल समझ में आ गयी. अन्ना हजारे का अब तक जो इतिहास हैं उसमें वे कभी भी खुद चुनावी तिकड़म में नहीं पड़े. जन आन्दोलनों के ज़रिये ही उन्होंने अपनी बात कही और उसे आगे बढ़ाया . कभी किसी भी राजनीतिक पार्टी के पक्षधर नहीं रहे और जो भी राजनीतिक पक्ष उनको भ्रष्ट नज़र आया उसके खिलाफ उन्होंने मैदान लेने में संकोच नहीं किया. महाराष्ट्र सरकार के कई मंत्री उनके अभियान के कारण इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर हो चुके हैं . इस बार भी उनके आन्दोलन में वह ताक़त थी कि केंद्र सरकार झुक गयी . शुरुआती दौर में केंद्र सरकार के जिन मंत्रियों के खिलाफ उन्होंने टिप्पणी कर दी उनको चुप होना पड़ा . सरकारी कमेटी के सदस्य के रूप में उनकी हर बात मानने का वादा सरकार की तरफ से किया गया लेकिन उनके अति उत्साही साथी ऐसी ऐसी मांगें करने लगे जिनका हल निकाला ही नहीं जा सकता. बस यहीं गड़बड़ हो गयी . जिस अन्ना हजारे की मर्जी का आदर करके केंद्र सरकार ने कपिल सिब्बल को उनके खिलाफ बयान देने से रोक दिया था उसी केंद्र सरकार ने उनके ९ दिन के आन्दोलन को पूरी तरह नज़र अंदाज़ कर दिया. ज़ाहिर है कि उनका आन्दोलन रास्ते से भटक गया था . और अन्ना की अथारिटी कमज़ोर हुई थी . अन्ना हजारे की भूखों रह सकने की क्षमता अदम्य है लेकिन उनको अपना अनशन ख़त्म करवाने के लिए अपने कुछ प्रबुद्ध नागरिकों की एक चिट्ठी का सहारा लेना पड़ा.
डॉ सुनीलम को अन्ना हजारे ने बताया कि महात्मा गांधी का आन्दोलन देश से अंग्रेजों को भगाने के लिए था . उसके बाद उनकी इच्छा थी कांग्रेस को एक राजनीतिक पार्टी के रूप में मान्यता न दी जाए और वह सामाजिक परिवर्तन के एक आन्दोलन के रूप में चलता रहे . लेकिन उनके उत्तराधिकारियों ने कांग्रेस को चुनावी राजनीति की एक पार्टी बना दिया और महात्मा गाँधी की राह से अलग सामाजिक न्याय की गाडी चलाने का फैसला किया . अन्ना हजारे का मानना है कि महात्मा गांधी को कांग्रेस को भंग करने की एकतरफा घोषणा कर देनी चाहिए थी. अगर उन्होंने ऐसा कर दिया होता तो आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेता अपनी अपनी राजनीतिक पार्टी बनाते और चुनाव लड़ते . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस बहुत भारी गुडविल के साथ चुनावी अखाड़े में कूदी और भारी बहुमत से जीती . यह सिलसिला लगातार चलता रहा और कांग्रेस में भ्रष्ट लोग भरते गए. महात्मा गांधी की राजनीति के जानकार और उनके अनुयायी अन्ना हजारे ने वह काम कर दिया जो महात्मा जी करने से चूक गए थे . उन्होंने लोकपाल बिल के लिए बात करने के लिए बनायी गयी टीम को भंग कर दिया और यह कहा कि यह टीम अब किसी काम की नहीं है क्योंकि केंद्र सरकार से लोकपाल के मुद्दे पर बात करने के लिए बनाई गयी थी और लोकपाल के मामले में सरकार किसी से बात करने को तैयार नहीं है . यह सारी घोषणा अन्ना हजारे ने अपने ब्लॉग के ज़रिये की और अपने किसी भी साथी को इसकी भनक तक न लगने दी. बताते हैं कि उनको शक़ था कि अगर उन्होंने इस बात को अपनी टीम के सदस्यों की नोटिस में लाने की भूल की तो वे हर बार की तरह इस बार भी सब गड़बड़ कर देगें . पता चला है कि उनको भरोसा था कि उनकी शख्सियत का लाभ उठाकर उनके साथी राजनीतिक लाभ लेगें इसलिए उन्होंने अपने आपको चुनावी राजनीति से अलग कर लिया और राजनीतिक पार्टी बनाने वालों को मुक्त कर दिया . उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में भी वे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम जारी रखेगें . राजनेताओं की गड़बड़ियों को दुनिया के सामने लाते रहेगें . यह भी उम्मीद की जानी चाहिए कि अब उनके साथी जो राजनीतिक पार्टी बनाने जा रहे हैं,उसको भी अन्ना हजारे भ्रष्ट आचरण करने से रोकेगें . यह भी सच है कि प्रस्तावित राजनीतिक पार्टी से अपने आपको अलग करके उन्होंने भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता की उम्मीदों को जिंदा रखा है .