Showing posts with label कारगिल. Show all posts
Showing posts with label कारगिल. Show all posts

Friday, June 4, 2010

मीडिया को रिटायर्ड फौजी अफसरों को महिमा मंडित नहीं करना चाहिए

शेष नारायण सिंह

जब से टेलिविज़न पर चौबीसों घंटे ख़बरों का सिलसिला शुरू हुआ है , एक अजीब प्रवृत्ति नज़र आने लगी है . शुरू तो यह एक बहुत ही मामूली तरीके से हुई थी लेकिन अब प्रवृत्ति यह खतरनाक मुकाम तक पंहुंच चुकी है. देखा गया है कि हर मसले पर पूर्व और वर्तमान फौजी अफसर अपनी राय देने लगे हैं और टेलिविज़न चैनलों पर उसे प्रमुखता से दिखाया जाने लगा है . समाचार संकलन अपने आप में एक गंभीर काम है , ज़रा सी चूक से क्या से क्या हो सकता है .टेलिविज़न के समाचार तो और भी गंभीर माने जाने चाहिए क्योंकि देखी गयी खबर का असर सुनी या पढी गयी खबर से ज्यादा होता है . इसलिए टेलिविज़न की ज़िम्मेदारी है कि वह मामले को हल्का फुल्का करके पेश करने की लालच में न पड़े. लेकिन ऐसा धड़ल्ले से हो रहा है . यह लोकतंत्र और समाज के लिए ठीक नहीं है . आजकल कारगिल के युद्ध के बारे में तरह तरह की खबरें दिखाई जा रही हैं . किसी ब्रिगेडियर के साथ हुए अन्याय को केंद्र में रख कर कई टी वी चैनलों पर सेना और इतिहास से जुड़े तरह तरह के विषयों पर चर्चा की जा रही है . यह ठीक नहीं है . लोकतंत्र में बहस का महत्व है या यह कह सकते हैं कि बिना बहस के लोकतंत्र में जान ही नहीं आती लेकिन यह बहस उन मुद्दों के बारे में होनी चाहिए जो सरकारी नीति के बनाने में सहयोग कर सकें या उन पर निगरानी करने में काम आ सकें . राज काज और राजनीतिक विषयों पर बहस बहुत ज़रूरी है और उसे उत्साहित किया जाना चाहिए लेकिन सेना और राष्ट्रीय सुरक्षा के नीतियों और योजनाओं को पब्लिक डोमेन में लाना राष्ट्रीय सुरक्षा से खेलना है और इसे किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.
खबर आई है कि कारगिल युद्ध में हेरा फेरी के आरोपी एक जनरल ने कहा है कि उस लड़ाई में भारत की जीत ही नहीं हुई थी. इस जनरल का आचरण संदेह के घेरे में आ चुका है और उसके बारे में अदालती हस्तक्षेप के बाद यह पता लग चुका है कि यह भाई हेरा फेरी का उस्ताद है . उसके दृष्टिकोण को पब्लिक डोमेन में लाने का कोई मतलब नहीं है . जहां तक कारगिल की लड़ाई की बात है , वह हमारी विदेश नीति की नाकामी का एक बड़ा उदाहरण है . भला बताइये , हमारा प्रधानमंत्री पाकिस्तान से दोस्ती बढाने के लिए सकारात्मक पहल कर रहा है और बस से लाहौर की यात्रा पर गया हुआ है और पाकिस्तानी फौज हमारे महत्वपूर्ण सैनिक ठिकानों पर क़ब्ज़ा कर रही है . और हमारी खुफिया एजेंसियों को भनक तक नहीं है . ज़ाहिर है कि उस वक़्त के कूटनीति के प्रबंधकों को दण्डित किया जाना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई भी पुराना फौजी मुंह उठाकर चला आये और कह दे कि जिस लड़ाई में हमारे इतने नौजवान शहीद हुए हों , वह बेकार की लड़ाई थी ., उसमें हमारी जीत ही नहीं हुई थी. यह बहुत ही गैरज़िम्मेदार बयान है और अगर कोई ऐसा आदमी कह रहा हो, जो उस लड़ाई के संचालन में बहुत ही महत्वपूर्ण पद पर रहा हो , तो और भी गंभीर बात है . हालांकि कि फौजियों को इतने गंभीर मामलों के राजनीतिक और कूटनीतिक पक्ष में शामिल नहीं किया जाना चाहिए लेकिन अब बात बहस में घसीट ली गयी है तो बात को साफ़ कर देना ज़रूरी है . जहां तक कारगिल में हार जीत की बात है , निश्चित रूप से भारत ने वहां सैनिक सफलता पायी है . यह भी सही है कि उस लड़ाई में अपने बहुत से बहादुर अफसर और जवान शहीद भी हुए . लेकिन अगर उस वक़्त हमारी सेना सफल न हुई होती तो कारगिल और आसपास के इलाकों में सामरिक रूप से जिन ऊंचाइयों पर पाकिस्तानी सेना ने अपने अड्डे बना लिये थे , वह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है . वहां से पाकिस्तान को बेदखल कर के सैनिक सुरक्षा की अपनी व्यवस्था को दुरुस्त करना अगर जीत नहीं है तो फिर क्या है . इस गैर ज़िम्मेदार,हेराफेरी मास्टर और कुंठित पूर्व जनरल के प्रलाप को पूरे देश में प्रचारित करके जिस न्यूज़ चैनल ने राष्ट्रीय सुरक्षा को सवालों के घेरे में खड़ा करने की कोशिश की है , उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था. सवाल पैदा होता है कि वह फौजी जिसकी बे-ईमानी की कथा अब जगज़ाहिर है , उसके अध् कचरे ख्यालात को राष्ट्रहित के खिलाफ इतनी अहमियत क्यों दी जा रही है . जिस चैनल पर यह श्रीमान जी अपने आप को महिमामंडित कर रहे थे उसकी एक बहुत ही वरिष्ठ कार्यकर्ता पर पिछले दिनों पावर ब्रोकर होने के आरोप भी लग चुके हैं . कारगिल युद्ध के दौरान भी इस चैनल की एक रिपोर्टर पर आरोप लग चुका है कि उसकी एक खबर की वजह से हमारे कुछ सैनिक शहीद हुए थे . हालांकि इन खबरों में सच्चाई नहीं है लेकिन उस युद्ध के दौरान जो बंदा इंचार्ज था, उसको बहुत हाईलाईट करके कहीं एहसान का बदला तो नहीं चुकाया जा रहा है .

जहां तक कारगिल की लड़ाई को बेकार साबित करने की कोशिश है , वह भी बिलकुल बेकार की बात है .. उस लड़ाई में भारतीय फौज विजयी रही थी क्योंकि उसने महत्वपूर्ण सैनिक ठिकानों को पाकिस्तानी फौज से वापस लेकर वहां तिरंगा लहरा दिया था .. लेकिन असली जीत तो अंतरराष्ट्रीय मैदान में हुई थी. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने अमरीका जाकर उसके राष्ट्रपति से मदद की गुहार की थी लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया था और चेतावनी दी थी कि अगर पाकिस्तानी फौजें फ़ौरन न हटीं तो मुश्किल हो जायेगी. परंपरागत रूप से आँख मूँद कर पाकिस्तान की मदद करने वाले अमरीका की नज़र में पाकिस्तान का यह पतन भारत के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत थी . लेकिन इन बातों से फौजी जनरलों को कोई मतलब नहीं होना चाहिए और समाचार माध्यमों को भी सावधान रहना चाहिए कि कहीं उनकी अधकचरी समझ की वजह से राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरा न पैदा हो जाय

Tuesday, January 26, 2010

गले पड़ी मंहगाई

शेष नारायण सिंह


मंहगाई अब केंद्र सरकार के गले पड़ गई है। पिछले कई महीने से खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की तरफ से गोलमोल बातें की जाती रहीं लेकिन जब मीडिया ने लगभग पूरी तरह से साबित कर दिया कि सरकारी नीतियां ही मंहगाई के लिए जिम्मेदार हैं तो अब केंद्र सरकार में सर्वोच्च स्तर पर आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है।

खाद्य और कृषि मंत्री ने अपने ताज़ा बयान में प्रधानमंत्री को ही मंहगाई के लिए जि़म्मेदार बताकर मंहगाई पर चल रही बहस को बहुत ही ज्य़ादा गरम कर दिया है। संसदीय लोकतंत्र की सरकार वाली पद्घति में अगर कोई मंत्री प्रधानमंत्री पर सरकार की विफलता का आरोप लगाए तो यह बहुत गंभीर बात है, लेकिन आरोप लगा है और उसकी विधिवत समीक्षा की जानी चाहिए।

जैसा कि सबको मालूम है कि मंहगाई के लिए सबसे ज्य़ादा तो कृषि और खाद्य मंत्री के वे बयान जि़म्मेदार हैं जिसमें वे चीनी, दूध और अन्य खाद्य सामग्री की किल्लत और संभावित मंहगाई के बारे में चेतावनी दिया करते थे। चीनी की कीमतें तो जमाखोरों ने केंद्रीय मंत्री के गैर जिम्मेदार बयानों की वजह से बढ़ाईं। लेकिन केंद्र सरकार की वे नीतियां भी कम जि़म्मेदार नहीं हैं जिनकी वजह से जमाखोरी को पिछले दरवाज़े से सरकारी मंज़ूरी दे दी गई है। पिछली यूपीए सरकार के दौरान जब कीमतें बढऩे लगीं तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी ने बार-बार यह साबित किया था कि अनाज और अन्य खाद्य सामग्री में वायदा कारोबार की नीति बनाकर सरकार ने व्यापारियों को एक तरह से जमाखोरी करने का लाइसेंस दे दिया है। वायदा कारोबार का मतलब होता है कि खरीदार और विक्रेता के बीच कुछ महीने बाद की खरीदारी का समझौता हो जाता है। वास्तव में कोई खरीद नहीं होती लेकिन माल गोदाम में मौजूद होना चाहिए। इस तरह किसानों की पैदावार का एक बड़ा हिस्सा जमाखोरी के हवाले हो जाता है।

यह देखना दिलचस्प होगा कि वास्तव में जमाखोर हैं कौन? सबसे बड़ी जमाख़ोर तो कारगिल कंपनी को माना जाता है। यह अमरीका की निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी है। हज़ारों हज़ार अरब डॉलर की यह कंपनी बड़े से बड़े गोदामों में ज्य़ादा से ज्य़ादा अनाज बरसों तक जमा रखने की ताकत रखती है। पूरे देश में, बहुत सारे जिलों में जहां सरकारी खरीद हो रही है वहां इनका भी खरीद केंद्र है। यह किसानों से तो पैदावार खरीद रहे हैं, बाकी चीनी वग़ैरह बाज़ार से खरीद करके जमा कर रहे हैं। इसके अलावा देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने अब अनाज की खरीद फरोख्त के धंधे में लगे हुए हैं। ज़ाहिर है कि उनकी वित्तीय ताकत इतनी ज्य़ादा है जिसकी पुराने स्टाइल वाले जमाखोर सपने में भी कल्पना नहीं कर सकते।

इसलिए सरकार के कृषिमंत्री के गैर जि़म्मेदार बयान के अलावा केंद्र सरकार की जमाखोरी समर्थक नीति भी मंहगाई के लिए जि़म्मेवार है। लगता है कि जब मंहगाई का ठीकरा शरद पवार की तरफ से प्रधानमंत्री के दरवाज़े फोडऩे की बात की गई तो विदेशी कंपनियों के हस्तक्षेप और वायदा कारोबार की नीतियां बनाने वाली सरकार के मुखिया को जि़म्मेदार ठहराने की कोशिश की जा रही है। लेकिन आम आदमी का इस बात से और सरकारी मंत्रियों के झगड़े से कोई मतलब नहीं है। अवाम को तो मंहगाई से मुक्ति चाहिए और अगर मौजूदा सरकार खाने पीने की चीजों के दाम कम न कर सकी तो वर्तमान यूपीए सरकार के लिए बहुत मुश्किल होगी।