Thursday, December 27, 2012

उत्तर प्रदेश में प्रमोशन में आरक्षण और कैश सब्सिडी के इर्द गिर्द होगी २०१४ की लड़ाई




शेष नारायण सिंह 

२०१४ के चुनावों की तैयारियां हर राजनीतिक पार्टी पूरी शिद्दत से कर रही है .लोकसभा के पिछले सत्र में सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण की बात को ज़ोरदार तरीके से उठाकर  बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने यह संकेत दे दिया था .वे अपने घोर समर्थकों की पक्षधरता की राजनीति कर रही थीं जो लोकतंत्र में हर तरह से जायज़ है. इस सत्र में उन्होंने उसे पास भी करवा लिया .उनके इस क़दम से साफ़ लगता है कि वे पूरे देश में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की नेता बनना चाहती हैं . हालांकि पूरे देश में उनको अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के नेता के रूप में स्वीकार किया जाता है लेकिन उत्तर प्रदेश के बाहर वे एक राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित नहीं हो सकी हैं . जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है ,वहाँ मायावती को नज़र अंदाज़ कर पाना मुश्किल है . वे  हर क्षेत्र में १५ से २५ प्रतिशत के बीच वोट पर लगभग पूरी तरह से काबिज हैं. लेकिन  उनके कोर समर्थकों यानी अनुसूचित जातियों और जनजातियों की संख्या उत्तर प्रदेश के किसी एक जिले में ऐसी नहीं है कि उन्हें कोई सीट दिला सके. विधानसभा या लोकसभा में कोई सीट जीतने के लिए मायावती और बहुजन समाज पार्टी के लिए ज़रूरी है कि वे अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के साथ किसी अन्य जाति का समर्थन हासिल करें  . इसी राजनीतिक रणनीति के तहत २००७ के चुनावोंमें मायावती ने विधानसभा में स्पष्ट  बहुमत हासिल किया था और पांच साल तक निर्बाध तरीके से राज किया था . उत्तर प्रदेश में कभी बीजेपी और कांग्रेस की समर्थक रही एक खास जाति के वोटों को अपनी तरफ  खींचने में मायावती सफल हो गयी थीं .अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के साथ जब ब्राह्मण मिल गए तो चुनाव जीतने लायक समूह तैयार हो गया. इसके साथ उम्मीदवार की जाति भी मिल गयी और उत्तर प्रदेश में मायावती को बहुमत दिलवा दिया . २०१२ में उनकी पार्टी विधान सभा चुनाव हार गयी लेकिन जातियों का यह  गठबंधन उनके साथ था और राजनीतिक हल्कों में उम्मीद की जा रही थी कि  जिस तरह से  उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार काम कर रही है ,उसी तरह काम करती रही तो २०१४ में समाजवादी पार्टी को वे फिर पटखनी दे देगीं . लेकिन अब पांसा पलट गया है . मायावाती ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के बीच अपनी नेतागीरी को पुख्ता करने के लिए प्रमोशन  में आरक्षण को राज्यसभा में इतने  ज़बरदस्त तरीके से उछाल दिया कि अब वे शुद्ध रूप से दलितों की नेता के रूप में स्थापित हो चुकी हैं . उत्तर प्रदेश में  दलितों के बाद उनके सबसे बड़े समर्थक वोट बैंक ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल रखा है . जिस दिन से राज्यसभा में दलितों को  प्रमोशन में आरक्षण देने वाला संविधान संशोधन विधेयक पास हुआ है उसी दिन से उत्तर प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों की  हड़ताल है . राज्य के १८ लाख कर्मचारी मायावती, बीजेपी और कांग्रेस के  खिलाफ लामबंद हैं और सडकों पर जुलूस निकाल रहे हैं , प्रदर्शन कर रहे हैं और समाजवादी पार्टी के साथ एकजुट हो रहे  हैं . यहाँ यह समझ लेना बहुत ज़रूरी है कि १८ लाख कर्मचारी केवल १८ लाख वोट नहीं हैं . अगर एक परिवार में १० व्यक्ति शामिल कर लिए जाएँ तो करीब २ करोड वोटर तो सीधे तौर पर मायावती, बीजेपी और कांग्रेस के  खिलाफ  इकट्ठा हो चुके हैं और वे मुलायम सिंह यादव को समर्थन दे रहे हैं .इसके अलावा उत्तर प्रदेश के हर गाँव में अधिकतर नौजवान सरकारी नौकरियों के उम्मीदवार हैं . उनको सरकारी नौकरी मिले चाहे न मिले लेकिन वे उसके बारे में पूरी तरह से जानकारी रखते हैं . राज्य में मौजूदा राजनीतिक माहौल ऐसा  है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के सभी नौजवान मायावती के साथ हैं जबकि इन  जातियों के अलावा बाकी जातियों के नौजवान और उनके परिवार मायावती के घोर विरोधी हैं . इन विरोधियों में ब्राहमण भी शामिल हैं  जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के बाद  मायावती के सबसे बड़े समर्थक के रूप में पहचाने जाते हैं . उत्तर प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों में ब्राह्मणों की  संख्या सबसे ज़्यादा है . ऐतिहासिक रूप से वे ही सरकारी नौकरियों में सबसे बड़ी संख्या में भर्ती होते रहे हैं .मंडल आयोग के पहले तो यह संख्या ७०  प्रतिशत के आस पास होती थी लेकिन बाद में भी यह संख्या ४० प्रतिशत  से  ज्यादा है . प्रमोशन में आरक्षण से पैदा हुई ध्रुवीकरण की राजनीति के चलते मायावती इस वर्ग का समर्थन पूरी  तरह से खो चुकी हैं .


अगर ऐसे ही चलता रहता तो इस बात की पूरी संभावना थी कि उत्तर प्रदेश का राजनीतिक गणित  बिलकुल बदल जाता लेकिन अपने लिए बढ़ रहे समर्थन के तूफ़ान के बावजूद समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने आबादी के अनुपात में मुसलमानों के आरक्षण की बात को राजनीतिक बहस के दायरे में ला दिया . उन्होंने मांग कर दी  कि मुसलमानों को सरकारी  नौकरियों में   आबादी के हिसाब से आरक्षण दिया जाए. जानकार बताते हैं कि मुलायम सिंह यादव का यह क़दम राजनीतिक रूप से उन्हें नुक्सान पंहुचा सकता   है . उनका यह एक क़दम राजनीतिक पहल को बीजेपी के पाले में फेंक देने की क्षमता रखता है .  बीजेपी किसी भी घटना को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने की कला में निष्णात है . उनकी इस क्षमता का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण गुजरात में पिछले दस वर्षों से हो रहे  चुनाव हैं . २००२ में गोधरा में ट्रेन के एक डिब्बे में मारे  गए  लोगों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत के बाद  हुए मुसलमानों के क़त्ले आम के तमगे के साथ नरेंद्र मोदी ने गुजरात  का चुनाव जीत लिया  था. २००७ के चुनाव में भी जब उन्हें सोनिया गांधी के एक भाषण में मौत का सौदागर कह दिया गया तो मोदी ने चुनाव को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की पिच पर ला दिया और चुनाव जीत  गए. इस बार कांग्रेस ने उनको कोई अवसर नहीं दिया कि वे चुनाव को साम्प्रदायिक रंग में  पेश कर सकें .नरेंद्र मोदी ने  विकास की बात की तो उसी पिच पर उनेक विरोधियों ने उनको घेर दिया और साबित हो गया कि गुजरात के विकास में मोदी  का कोई खास योगदान  नहीं  है . गुजरात तो पहले से ही विकसित राज्य था.गुजरात से बेहतर विकास वाले राज्य भी हैं .गुजरात चुनाव को कांग्रेस ने इस तरीके से लड़ा कि मोदी की साम्प्रदायिक राजनीति को  बैकफुट पर जाना पड़ा .लेकिन उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने मुसलमानों के लिए आरक्षण मांगकर बीजेपी को एक मौक़ा दे दिया है . खासतौर से जब सरकारी नौकरियों के प्रमोशन में आरक्षण की राजनीति  में बीजेपी कांग्रेस के साथ खड़ी पायी गयी है और राज्य  कर्मचारी उसके खिलाफ हैं . पिछले २५ वर्षों की उत्तर प्रदेश की  राजनीति  का कोई भी जानकार बता देगा कि इस राज्य में अगर साम्प्रदायिक मुद्दे राजनीति को बहुत ज्यादा प्रभावित करते रहे हैं .बीजेपी के खिलाफ जिस तरह से राज्य कर्मचारियों के बीच गुस्सा है ,उसके दफ्तर पर पत्थर फेंके जा रहे हैं,उसके नेताओं के पुतले जलाए जा रहे हैं और वह  पूरी तरह से घिर चुकी है .ऐसी हालत में बीजेपी इस अहम विषय से ध्यान हटाने के लिए आगामी चुनाव को साम्प्रदायिक बना सकती है .और राज्य की सत्ताधारी पार्टी को केवल मुसलमानों का शुभचिंतक  साबित करना एक उपयोगी रणनीति हो सकती है .समझ में नहीं आता कि अपने पक्ष में उठ रहे राजनीतिक तूफ़ान के बीच मुलायम सिंह यादव ने मुसलमानों के आरक्षण जैसी बात क्यों की. खास तौर पर जबकि राज्य के मुसलमान पूरी तरह से उनके साथ हैं . उनके इस एक राजनीतिक क़दम के कारण बीजेपी फिर से चुनावी मैदान में वापसी कर  सकती है और  लोकसभा २०१४ त्रिकोणीय हो सकता है . सबको मालूम है कि बीजेपी उत्तर प्रदेश में चुनाव को बाबरी मसजिद की यादों की पिच पर लड़ना चाहती है .वह कल्याण सिंह को अपने साथ ले रही है , उमा  भारती विधानसभा  चुनाव में खास भूमिका अदा कर चुकी हैं . पूरी संभावना है कि वे इस बार भी चुनाव प्रचार की मुख्यधारा में रहेगीं .  मुसलमानों के खिलाफ दुश्मनी के नए सिम्बल वरुण गांधी भी चुनावों में खास भूमिका की तैयारी में हैं .  वे अमेठी की पड़ोसी सीट सुल्तानपुर से उम्मीदवार बनने की कोशिश कर रहे हैं . बाबरी मसजिद के विध्वंस के बाद से ही यह सीट  हिंदुत्व की राजनीति करने वालों की प्रिय सीट रही है. इसके अलावा राज्य की राजनीतिक हवा में वाराणसी से नरेंद्र मोदी को चुनाव लड़ाने की बात भी कभी कभी उछाली  जा रही है . ज़ाहिर है कि चुनाव को साम्प्रदायक बनाया जा सकता है . मुलायम सिंह यादव और उनकी पार्टी को प्रमोशन में आरक्षण के उनके रुख के बाद लाभ मिला है . अगर यही माहौल बना रहा तो वे लोकसभा २०१४  में बहुत  मज़बूत हो जायेगे . लेकिन अगर चुनाव साम्प्रदायिक हो गया तो उनका नुक्सान हो जाएगा. वैसे भी उत्तर प्रदेश में मुसलमान पूरी तरह से उनके साथ है . तो मुसलमानों के आरक्षण की बात को  उठाकर पता नहीं क्यों वे पहल साम्प्रदायिक ताक़तों के हाथ में देना चाहते हैं. 

 उत्तर प्रदेश की राजनीति के हाशिए पर चली गयी कांग्रेस भी इस बार राज्य में अपनी मौजूदगी को सुनिश्चित करने का मन बना लिया है .  सरकारी  नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण को लागू करने की अपनी राजनीति  के चलते वह राज्य की एक बड़ी आबादी का कोपभाजन बन चुकी है लेकिन एक राजनीतिक पार्टी होने के कारण वह अन्य  राजनीतिक पहल के ज़रिये उत्तर प्रदेश के खेल में शामिल होना चाहती  है . इस दिशा में सब्सिडी को लाभार्थी के हाथ में देने की केन्द्र सरकार की योजना को कांग्रेस २०१४ के राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहती है .कांग्रेस ने 'आपका पैसा, आपके हाथ' का राजनीतिक नारा दिया है और 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले इस कार्यक्रम का खूब प्रचार प्रसार करने की योजना बना ली है .राहुल  गांधी ने कैश सब्सिडी योजना लागू करने वाले 51 जिलों के पार्टी अध्‍यक्षों और युवा कांग्रेस अध्‍यक्षों के साथ बैठक की . इन जिलों में अगले साल एक जनवरी से केन्द्र सरकार की सीधा लाभ अंतरण योजना शुरू हो रही है .ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश इस कार्यक्रम के सबसे महत्वपूण  व्यक्ति हैं .उन्होंने बताया कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने 'आपका पैसा, आपके हाथ' कार्यक्रम को कांग्रेस पार्टी और सरकार की भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का प्रभावशाली हथियार बताया और कहा कि यह सिर्फ एक योजना नहीं, बल्कि पूरी वितरण व्यवस्था में बदलाव लाने की शुरुआत है। बैठक में वित्तमंत्री पी चिदंबरम भी मौजूद थे। बैठक में राहुल ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के उस बयान का भी उल्लेख किया जिसमें उन्होंने कहा था कि गरीबों के कल्याण के लिए भेजे जाने वाले एक रुपए में से सिर्फ पंद्रह पैसा गरीबों तक पहुंचता है, बाकी पैसे बिचौलिए के हाथ में चले जाते हैं। राहुल गाँधी का दावा है कि इस योजना के सफल होने पर सौ में से सौ रुपया लाभार्थी तक जरूर पहुंचेगा. हालांकि अभी इस योजना में उत्तर प्रदेश के जिले नहीं शामिल किये  गए हैं लेकिन दूसरे चरण में उत्तर प्रदेश को भी शामिल कर लिया जाएगा और २०१४ तक यह योजना उत्तर प्रदेश में पूरी ताक़त के साथ लागू की जा चुकी होगी. अभी इस योजना में ३४ तरह की आर्थिक मदद  को शामिल किया  गया है  .अभी  एलपीजी, केरोसीन और उर्वरक सब्सिडी को इसके दायरे में नहीं लाया गया है लेकिन साल भर के अंदर यानी लोकसभा २०१४ के पहले  इसे लगभग  हर सब्सिडी स्कीम पर लागू कर दिया जाएगा .फिलहाल इसमें छात्रवृति, वृद्धावस्था पेंशन, मनरेगा मजदूरी और अन्य कल्याण योजनाओं के पैसे का भुगतान होगा। 

अगर कांग्रेस की यह योजना सफल होती है तो वह भी  उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी मौजूदगी को पक्के तौर पर दर्ज करवा देगी . उत्तर प्रदेश विधान सभा २०१२ के राहुल गांधी के चुनाव अभियान को जिन  लोगों ने देखा है उन्हें मालूम है कि राहुल गांधी अपने राज्य  में किसी को भी वाकओवर नहीं देगें . वे कैश सब्सिडी की योजना के साथ उत्तर प्रदेश में चुनाव की राजनीति करेगें .और कैश सब्सिडी की यह योजना उत्तर प्रदेश समेत पूरे देश में राजनीति में कांग्रेस को बढ़त दिला सकती है . ज़ाहिर है कि बाकी पार्टियों के नेताओं को कांग्रेस की इस गेमचेंजर योजना की काट तलाशनी पड़ेगी . तजुर्बा बताता है कि राजनीति में अर्थ का योगदान सबसे प्रभावी है और धर्म जाति वगैरह उस से पिछड़ जाते हैं . 

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