Sunday, June 17, 2012

संसद की स्टैंडिंग कमेटी का फरमान ---निजी कंपनियों के लिए किसान की ज़मीन लेने से बाज़ आये सरकार



शेष नारायण सिंह  

पिछले कुछ वर्षों में  किसान की ज़मीन को लेकर जनहित की योजनायें चलाने की मुद्दे  पर बहुत चर्चा हुई  है और बहुत  सारे विवाद भी होते रहे हैं. इस विवाद के कारण भूमि अधिग्रहण कानून नए सिरे से बहस के दायरे में आ  गया है .केंद्र सरकार और बहुत सारी राज्य सरकारें भी धन्नासेठों को  लाभ पंहुचाने के लिए बहुत ही उतावली नज़र आ रही हैं . पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर आम  आदमी की ज़मीन   कौड़ियों के मोल छीनकर  पूंजीपतियों के हवाले की जा रही है . जनता के गुस्से से बचने के लिए सरकार ने भी इस दिशा में क़दम उठाना शुरू कर दिया है . शायद इसी सोच का नतीजा है कि सरकार ने संसद में भूमि अधिग्रहण के लिए एक नया कानून बनाने की पेशकश की है  और लोक सभा में एक बिल पेश कर दिया.

सार्वजनिक इस्तेमाल के  लिए किसान की ज़मीन  लेने के लिए अपने देश में पहली बार सन १८९४ में  कानून बना था . अंग्रेज़ी राज में बनाए गए उस कानून में समय समय पर बदलाव किये जाते रहे और सार्वजनिक इस्तेमाल की परिभाषा बदलती रही. अपने सौ साल से ज्यादा के जीवन काल में इस कानून ने बार बार चोला बदला और अब तो एक ऐसे मुकाम तक पंहुच गया जहां सरकारें पूरी तरह से मनमाने ढंग से किसान की ज़मीन छीन सकने में सफल होने लगीं. दिल्ली के पड़ोस में उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नॉएडा में भी  उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार ने मनमाने तरीके से किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण  किया और उसे सरकार के सबसे ऊंचे मुकाम  पर बैठे कुछ लोगों को आर्थिक लाभ पंहुचाने के लिए सरकार ने मनमाने दाम पर बेच दिया . अपनी ही ज़मीन को लूट का शिकार होते देख किसानों ने हाई कोर्ट का रास्ता पकड़ा . न्याय पालिका के हस्तक्षेप के बाद सरकारी मनमानी पर लगाम लगी . किसानों की ज़मीन पर निजी कंपनियों के लाभ के लिए सरकारी तंत्र द्वारा  क़ब्ज़ा करने की कोशिशों को मीडिया के ज़रिये सारी दुनिया के सामने उजागर किया गया और  ग्रेटर नॉएडा के भट्टा पारसौल में पुलिस ज्यादती को  बहस के दायरे में लाया गया. सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता भट्टा पारसौल में हाजिरी लगाने पंहुचे और निजी लाभ के लिए किसान की ज़मीन के अधिग्रहण की समस्या पर व्यापक चर्चा हुई. उसके बाद सरकार की नींद भी खुली और १८९४ वाले भूमि अधिग्रहण  कानून को बदलने की बात शुरू हुई.  इसी सिलसिले में केंद्र सरकार ने ७ सितम्बर २०११ को लोक सभा में  लैंड एक्वीजीशन , रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटिलमेंट बिल २०११ पेश किया . बिल में नौकरशाही  के बहुत सारे लटके झटके हैं. ज़मीन को लेने के लिए सरकारी मनमानी को रोकने के लिए बनाए गए इस   बिल में   में वे सारी बातें हैं जो सरकारी अफसर की मनमानी के पूरे अवसर उपलब्ध करवाती हैं .इस बिल को ग्रामीण विकास मंत्रालय ने तैयार किया है .  आजकल ग्रामीण विकास मंत्रालय के मंत्री बहुत ही सक्षम व्यक्ति हैं . अर्थशास्त्र के विद्वान हैं और ग्रामीण विकास को  सामाजिक  प्रगति की सर्वोच्च प्राथमिकता मानते हैं लेकिन उनका अर्थशास्त्र वही वाला है जिसके पुरोधा अपने देश में डॉ मनमोहन सिंह हैं . उस अर्थशास्त्र में  ऊपर वालों की सम्पन्नता के लिए नियम कानून बनाए जाते हैं .  गरीब आदमी की तरक्की के लिए कोई कार्यक्रम नहीं तैयार किया जाता है . उस अर्थशास्त्र में गरीबी हटाने  का तरीका यह है कि   पूंजीपति की सम्पन्नता को सरकार बढायेगी और उसी की सम्पन्नता  को  बढाने में आम आदमी अपनी मेहनत के ज़रिये  योगदान देगा .  उसे जो मेहनताना मिलेगा वही काफी माना जाएगा . लैंड एक्वीजीशन , रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटिलमेंट बिल २०११  में इसी सोच के नज़ारे देखे जा सकते हैं. शायद इसी कमी को ठीक करने के लिए इस बिल को   ग्रामीण विकास मंत्रालय से सम्बंधित स्थायी समिति के पास विचार के लिए भेज  दिया गया.  इस सामिति की अध्यक्ष इंदौर की सांसद सुमित्रा महाजन  हैं .  समिति के सदस्यों में  ऐसे लोगों के नाम हैं जिनमें से कुछ को ग्रामीण विकास का विद्वान माना जाता है. इस कमेटी में मोहन सिंह,मणि शंकर अय्यर, संदीप दीक्षित और सुप्रिया  सुले जैसे लोग हैं  जिनको किसी तरह की नौकरशाही टाल नहीं  सकती. संसद की स्थायी समिति के पास इतनी ताक़त होती है  कि वह सरकार की तरफ  से पेश किये गए किसी भी बिल को पूरी तरह से रद्द भी कर सकती है . बहरहाल केंद्र सरकार की तरफ से लोक सभा में पेश किये गए बिल में बहुत खामियां थीं और अब उसे स्थायी समिति ने ठीक कर दिया है . बजट सत्र के अंतिम दिनों में इस समिति की रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में रखी गयी . सरकार को   लैंड एक्वीजीशन , रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटिलमेंट बिल २०११  को स्थायी समिति की सिफारिशों को ध्यान में रख कर दुरुस्त करना पडेगा और फिर संसद के किसी सत्र में उसे पेश करना पडेगा . जानकार बताते हैं कि अगर सरकारी अफसरों ने संशोधित बिल में भी कुछ उल्टा सीधा प्रावधान डालने की कोशिश की तो मामला फिर स्थायी समिति के  पास भेजा जा सकता है . लेकिन उम्मीद की जा रही है कि संसद की इस ताक़तवर कमेटी की बात को सरकार  मान लेगी और एक सही कानून बनाने की कोशिश करेगी .अगर सरकार नहीं मानती तो संसद की स्थायी कमेटी के पास ऐसे अधिकार हैं वह दुबारा भी सरकारी  बिल को रद्दी की टोकरी में डाल दे और सरकार को फटकार लगाए कि सही कानून बनाने के लिए उपयुक्त बिल संसद में लाया जाए.
भूमि अधिग्रहण के नए कानून के लिए पेश किये गए  बिल में सुधार के लिए   संसद की स्थायी समिति  ने  जो सुझाव दिए हैं वे बहुत ही  महत्वपूर्ण  हैं . कमेटी ने केंद्र सरकार के उस सुझाव को खारिज कर दिया है जिसमें कहा गया था कि निजी कंपनियों के मुनाफे में वृद्धि करने के लिए जब ज़मीन का अधिग्रहण होता है तो उस से राष्ट्र की संपत्ति में वृद्धि होती है .स्थायी समिति ने साफ़ कह दिया है कि सरकार को निजी कंपनियों के लिए ज़मीन का अधिग्रहण नहीं करना चाहिए .कमेटी  ने यह भी कहा है कि भूमि अधिग्रहण कानून १८९४ को पूरी तरह से बदल देने की ज़रुरत है .इस कानून में सार्वजनिक इस्तेमाल की परिभाषा ऐसी है जो कि सरकारों को मनमानी करने का पूरा अधिकार देती है .. जिसकी ज़मीन  अधिग्रहीत की जाती है उसको मुआवजा देने के नियम भी प्राचीन हैं और  वे सरकारों को लूट का पूरा अधिकार देते हैं . इन दोनों ही प्रावधानों को बदल देने की  सिफारिश  स्थायी समिति ने की  है .. जब १८९४ में कानून बना था तो  व्यवस्था की गयी थी कि ज़मीन का  अधिग्रहण  केवल सरकारी परियोजनाओं के लिए ही किया जाएगा . लेकिन इस प्रावधान में पिछले सौ साल में इतने परिवर्तन किये गए कि सरकारों के पास किसी भी काम के लिए , किसी भी कंपनी को लाभ पंहुचाने  के लिए  ज़मीन के अधिग्रहण के अधिकार आ गए. जब से डॉ मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र ने देश के विकास का ज़िम्मा लिया तब से तो हद ही  हो गयी . स्पेशल इकनामिक ज़ोन के नाम पर लाखों एकड़ ज़मीन किसानों से छीन कर उद्योगपतियों को थमा देने का रिवाज़ शुरू हो गया. सरकार ने जो नया बिल पेश किया है उसमें मुआवजा तो बढ़ा दिया गया है लेकिन जनहित की  परिभाषा बहुत ही घुमावदार रखी गयी है और सरकार अभी भी अपनी जिद पर कायम है कि निजी कंपनियों के लिए किसानों की ज़मीन लेने में सरकार संकोच नहीं करेगी. केंद्र सरकार के पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों  , डॉ मनमोहन सिंह . मान्टेक  अहलूवालिया और जयराम रमेश के आर्थिक चिंतन का कुछ राज्य सरकारों ने विरोध करना शुरू भी कर दिया है. उत्तर प्रदेश के  मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने साफ़ कह दिया है कि वे निजी कंपनियों के  इस्तेमाल के लिए किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण नहीं करेगें.उनकी इस मंशा को संसद की स्थायी कमेटी की मंजूरी मिली हुई है .
लैंड एक्वीजीशन , रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटिलमेंट बिल २०११ में प्रावधान है कि भूमि अधिग्रहण करने  के लिए ग्राम सभा से सलाह ली जायेगी . कमेटी ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है और साफ़ कह दिया है कि  भूमि अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा से सलाह लेना काफी नहीं है . ज़रूरी यह है कि ग्राम सभा की  सहमति के बिना कोई भी ज़मीन अधिग्रहीत न की जाए.ज़मीन की कीमत तय करने के लिए भी सरकारें मनमानी करती पायी गयी हैं . उत्तर प्रदेश में ही पिछली सरकार ने ज़मीन की कीमत इतनी कम  तय कर रखी थी कि  जब उसी ज़मीन को किसानों को दिए गए मुआवज़े से कई गुना ज्यादा दाम पर बिल्डरों को दिया जाता था ,तो भी  वह ज़मीन सस्ती ही पड़ती थी. यहाँ तक कि उस ज़मीन को ग्रेटर नॉएडा अथारिटी से अलाट करवाने के लिए बिल्डर पूर्व  मुख्यमंत्री के भाई के करीबी लोगों को खासी रक़म बतौर रिश्वत देता था. इसलिए संसद की  कमेटी ने सुझाव  दिया है कि ज़मीन की कीमत मनमाने तरीके से तय करने से सरकारें बाज़ आयें . उसके लिए कई सदस्यों का एक कमीशन बनाया जाय जिसकी राय  मानना सरकारों के लिए अनिवार्य हो. उत्तर प्रदेश के बहुत सारे ज़िलों में  अफसर जल्दी के चक्कर में  अर्जेंट बताकर ज़मीन अधिग्रहीत कर लेते हैं . ग्रेटर नॉएडा में जो ज़मीन कोर्ट की निगरानी में है, उसमें भी  यही हालत है .  कमेटी ने कहा है  कि केवल राष्ट्रीय सुरक्षा या रक्षा के लिए ही अर्जेंट  तरीके से ज़मीन का अधिग्रहण किया जा सकता है. और अगर उनके इस्तेमाल से ज़मीन बच  जाती है तो उसे किसान को वापस कर दिया  जाना चाहिये .
 संसद की ताकत के सामने सरकारी अफसर , बिल्डर और नेताओं की साज़िश की  शक्तियां फिलहाल कमज़ोर पड़ रही  हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार संसद की मर्जी से कम करती है या मनमानी करने के लिए कोई नया तरीका निकालती है.

राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना मुसलमानों की तरक्की नहीं होगी



शेष नारायण सिंह 

उत्तर प्रदेश  विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की सरकार ने वायदा किया था कि वह रंगनाथ कमीशन और सच्चर कमेटी की सिफारिशों को लागू करेगी. चुनाव में मुसलमानों ने अखिलेश यादव को इतना समर्थन दिया कि उनकी पूर्ण बहुमत की सरकार बन गयी. हालांकि ३ महीने किसी भी सरकार  के काम का आकलन करने के लिए बहुत कम हैं लेकिन संतोष की बात यह है कि सरकार ने उस दिशा में क़दम उठाना शुरू कर दिया है .अब खबर आई है कि उत्तर प्रदेश पुलिस में थानेदारों की जो भर्ती होने वाली है  उसमें १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन दे दिया गया है . यह बड़ा क़दम है . अगर उत्तर प्रदेश पुलिस में एक आदरणीय संख्या में पुलिस वाले  भर्ती हो गए तो राज्य में दंगों की संभावना अपने आप कम हो जायेगी. राज्य के कई जिलों में बहुत बड़ी संख्या में रहने वाले मुसलमानों को भी भरोसा हो जाएगा कि एक ऐसी सरकार आ गयी है जो उनकी भलाई के लिए भी सोचती है.  मुसलमानों को न्याय देने के लिए  सकारात्मक पहल की दिशा में यह एक अहम  क़दम  है.इसका स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इस फैसले में हुकूमत की ईमानदारी  की झलत दिखती है .
इसके पहले कांग्रेस ने मुसलमानों को बेवकूफ बनाकर विधान सभा चुनाव में वोट झटक लेने के के लिए सरकारी नौकरियों में ओ बी सी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात की थी. कांग्रेस ने इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया और  इस साढ़े चार प्रतिशत को मुसलमान का आरक्षण बताने की राजनीतिक मुहिम चलाई .  लेकिन समाजवादी पार्टी ने आरोप लगाया  था कि  कांग्रेस ने मुसलमानों को सरकारी नौकरियों  से बिकुल बेदखल कर दिया. कहते  हैं कि १९४७ में सरकारी नौकरियों  में राज्य में ३५ प्रतिशत मुसलमान  थे जबकि कांग्रेस  के राज में वह घट कर २ प्रतिशत रह  गया. समाजवादी पार्टी ने  सांसद और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री के भाई ,धर्मेन्द्र यादव ने विधान सभा चुनाव के पहले इस लेखक को बहुत जोर देकर बताया था कि उनकी पार्टी को मुसलमानों से कुछ कहने के ज़रुरत नहीं है. राज्य  का मुसलमान जानता है कि अगर उनकी पार्टी सरकार में आई तो वे मुसलमानों के  हित में ठोस क़दम उठायेगें . उर्दू को तरक्की देगें और सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को मह्त्व दिया जाएगा. पुलिस में थानेदारों की भर्ती में १८ प्रतिशत आरक्षण उसी  सोच का नतीजा है .आबादी के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां मुसलमानों की आबादी बहुत घनी है.रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर ,मुज़फ्फरनगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां  कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . ज़ाहिर है कि पुलिस में सरकार की तरफ से आरक्षण की घोषणा का बहुत महत्व है .

उधर ओबीसी कोटे से काटकर  साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक  आरक्षण की बात करके के न्द्र सरकार ने यह साबित कर दिया कि वह मुसलमानों को बेवकूफ बनाकर ही वोट लेना चाहती है . अल्पसंख्यकों  को आरक्षण  देने की केंद्र सरकार की घोषणा में ही खोट थी. अब जब आन्ध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने  उस सरकारी आदेश को गलत बता दिया है टी यह बात दुनिया की समझ में आ गयी है कि केंद्र सरकार की नीयत साफ नहीं थी. दर असल  साढ़े चार प्रतिशत के आराक्सहं में मुसलमानों का नंबर ही नहीं आने वाला था क्योंकि शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर स्थिति वाले अल्पसंख्यक, सिख, ईसाई और जैन  बड़ा हिस्सा ले जाते और मुसलमान पहले से भी ज्यादा पिछड़ जाता . केंद्र सरकार की नीयत के और मामले में नहीं साफ़ है . वह मुसलमानों के आरक्षण के लिए बड़ी बातें तो करती है लेकिन उनके लिए जो सरकारी फैसले हुए हैं उनको भी ठीक से लागू नहीं करती.इस तरह की बातें संसद की कई रिपोर्टों में उजागर हो चुकी है .

ऐसी ही एक रिपोर्ट अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के काम काज के बारे में संसद में पेश की गयी है . सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय से सम्बंधित कमेटी ने अल्पसंख्यकों के लिए किये जा रहे काम में सम्बंधित मंत्रालय को गाफिल पाया है . इस समिति की बीसवीं रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकार ने  मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए बजट में मिली हुई रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया और पैसे वापस भी करने पड़े.  कमेटी की रिपोर्ट में लिखा गया है कि कमेटी इस  बात से बहुत नाराज़ है कि २०१०-११ के साल में अल्पसंख्यक मंत्रालय ने ५८७ करोड़ सत्तर लाख की वह रक़म लौटा दी  जो घनी अल्पसंख्यक आबादी के विकास के लिए मिले थे. हद तो तब हो गयी जब मुस्लिम बच्चों के वजीफे के लिए मिली हुई रक़म  वापस कर दी गयी.  यह रक़म संसद ने दी थी और सरकार ने इसे इसलिए वापस कर दिया कि वह इन स्कीमों में ज़रूरी काम नहीं तलाश पायी. यह सरकारी बाबूतंत्र के नाकारापन का नतीजा है .,  प्री मैट्रिक वजीफों के मद   में  मिले हुए धन में से ३३ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए , मेरिट वजीफों के लिए मिली हुई रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए और पोस्ट मैट्रिक वजीफों के लिए मिली हुयेर रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए . इसका मतलब  यह हुआ कि सभी पार्टियों के प्रतिनिधित्व वाली  संसद ने तो सरकार को मुसलमानों के विकास के लिए पैसा दिया था लेकिन सरकार ने उसका सही इस्तेमाल नहीं किया . इस के बारे में सरकार का कहना  है कि उनके पास  अल्पसंख्यक आबादी वाले जिलों से प्रस्ताव नहीं आये इसलिए उन्होंने संसद से मिली रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया . संसद की स्थायी समिति ने इस बात पर सख्त नाराज़गी जताई है और कहा है कि वजीफों वाली गलती बहुत बड़ी है और उसको दुरुस्त करने के लिए सरकार को काम करना चाहिए . बजट में वजीफों की घोषणा हो जाने  के बाद सरकार को चाहिए कि उसके लिए ज़रूरी प्रचार प्रसार आदि करे जिससे जनता भी अपने जिले या राज्य के अधिकारियों पर दबाव बना सके और अल्पसंख्यकों के विकास के लिए मिली हुई रक़म  सही तरीके से इस्तेमाल हो सके. 
कमेटी के सदस्य इस बात पर विश्वास करने को तैयार नहीं थे कि अल्पसंख्यक मंत्रालय में  काम करने के लिए लोग नहीं मिल  रहे हैं . खाली पड़े पदों के बारे में सरकार के जवाब से कमेटी को सख्त नाराज़गी है .जहाँ उर्दू पढ़े लोगों को कहीं नौकरियाँ नहीं मिल  रही हैं , वहीं केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मंत्रालय ने कमेटी को बताया है  कि सहायक  निदेशक ( उर्दू ) ,अनुवादक ( उर्दू) और टाइपिस्ट ( उर्दू ) की खाली जगहें नहीं भरी जा सकीं. सरकार की तरफ से बताया गया कि वे पूरी कोशिश  कर रहे हैं कि यह खाली जगह भर दिए जाएँ लेकिन सफल नहीं हो रहे हैं . यह बात कमेटी के सदस्यों के गले नहीं उतरी , सही बात यह है कि सरकार के इस तर्क पर कोई भी विश्वास नहीं करेगा. कमेटी ने सख्ती से कहा है कि  जो पद खाली पड़े हैं  उनको मीडिया के ज़रिये प्रचारित किया जाए तो  देश में  उर्दू जानने वालों की इतनी कमी नहीं है  कि लोग केंद्र सरकार में नौकरी के लिए मना कर देगें.  

कमेटी की रिपोर्ट में लिखा है कि सच्चर  कमेटी की रिपोर्ट को लागू करने का फैसला तो सरकार ने कर लिया है लेकिन उसको लागू करने की दिशा में गंभीरता से काम नहीं हो रहा है .वजीफों के बारे में तो कुछ काम हुआ भी है लेकिन सच्चर कमेटी की बाकी सिफारिशों को टाला जा रहा है.सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को अगर सही तरीके से लागू कर दिया जाए तो अल्पसंख्यक समुदाय का बहुत फायदा होगा. कमेटी ने अल्पसंख्यक मंत्रालय को सख्त हिदायत दी है कि सच्चर कमेटी को गंभीरता से लें और उसको लागू करने के लिए सार्थक प्रयास करें.
मुसलमानों के कल्याण के लिए प्रधान मंत्री ने १५ सूत्री कार्यक्रम  की घोषणा की थी. इसको लागू करने में भी सरकार का  रवैया गैरजिम्मेदार रहा है . १५ सूत्री कार्यक्रम पर नज़र रखने के लिए कुछ कमेटियां बनी है  जिनकी बैठक  ही समय समय पर नहीं होती . शिकायत मिली है  कि जब बैठक होती भी है तो लोकसभा और राज्यसभा के वे सदस्य जो इन कमेटियों के मेंबर हैं , उन्हें  इत्तिला ही नहीं की जाती . मंत्रालय के सेक्रेटरी ने अपनी पेशी के दौरान यह बात स्वीकार किया कि उनको इस सम्बन्ध में सदस्यों से मिली शिकायत की जानकारी है . ज़ाहिर है मुसलमानों के लिए बड़ी बड़ी बातें करने और उनके  वोट को हासिल करने की राजनीति से कौम का कोई भला नहीं होने वाला है . मुसलमानों की तरकी तभी होगी जब सरकारें ईमानदारी और सही नीयत से काम करेगीं.

सी पी आई ने कहा,विकास को सकल घरेलू उत्पाद के भाषा में नहीं इंसानी खुशहाली से नापना होगा .



शेष  नारायण  सिंह 
नई दिल्ली, १४ जून. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने दावा किया है कि पार्टी करोड़ों मेहनतकशों  , मजदूर वर्ग ,किसान समुदाय,बुद्धिजीवियों,मध्यवर्गो,महिलाओं एवं पुरुषों ,छात्रों और युवाओं और जनता के तमाम तबकों को क्रांतिकारी संघर्ष शील परंपरा से जोड़ देगी.. पार्टी  ने आज घोषणा कि पार्टी एक ऐसे न्याय संगत समाजवादी समाज के लक्ष्य के प्रति मजबूती के साथ समर्पित है जो वर्ग , जाति और लिंग भेद के आधार पर समाज की स्थापना करेगा ..सी पी आई के सबसे बड़े नेता , ए बी बर्धन ने आज यहाँ मीडिया के सामने अपनी पार्टी  के नए कार्यक्रम के  ड्राफ्ट को जारी किया . इस कार्यक्रम पर व्यापक बहस  होगी  . सी पी आई ने  कहा है कि जो भी सुझाव आयेगें उन पर नौ सदस्यों की एक कमेटी विचार करेगी और अगर ज़रूरी  हुआ तो उसे कार्यक्रम में शामिल किया  जायेगा.

सी पी आई ने कहा  है कि भारत और विश्व दोनों में पूंजी वाद गहरे संकट में  है.संकट वित्तीय है और आर्थिक गिरावट  का है..जनता के पैसे के  ट्रस्टी सरकार .पूंजी पतियों को बड़े बड़े  पैकेज दे रही है .और आम जनता को पूंजीवादी निजाम को कायम रखने के लिए आर्थिक  बोझ के  नीचे दबाया जा रहा है .कार्यक्रम में लिखा  है कि पूंजीवाद का पतन हो रहा है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि निकट भविष्य में पूंजीवाद ख़त्म हो जाएगा . उसके पास बहुत ताक़त है . वैज्ञानिक क्रान्ति, सूचना क्रान्ति और कारोप्रेट मीडिया पर उसका क़ब्ज़ा है . पूंजीवादी निजाम को बहुत  साल तक कायम रखने में इन सारी  ताक़तों का इस्तेमाल किया  जा सकता है . लेकिन अगर एक क्रांतिकारी पार्टी हो तो उसे उखाड़ फेंकने के काम को जल्दी किया जा सकता  है . सी पी आई का मानना है कि पूंजीवादी ताक़तों की   प्रतिनधि मौजूदा सरकार विकास  को सकल घरेलू उत्पाद के भाषा में नापती  हैं . यह ठीक नहीं है . विकास का पैमाना  इंसानी खुश हाली होनी चाहिए. गरीबी सामने खडी है लेकिन सरकार आंकड़ों की बाजीगरी के चलते उसको ढंकने की कोशिश  करती है और देश के कारोप्रेट घरानों,, नौकरशाहों, और भ्रष्ट राजनेताओं को लाभ पंहुचाया जा रहा है.

सी पी आई को अब पता चल गया है कि जनवाद और समाजवाद के संघर्ष में जाति के सवाल को टालना नहीं चाहिए था. .पार्टी  को यह जानकारी देर से ही सही मिल गयी है कि भारत का समाज वर्गों और जातियों में बँटा हुआ है. . एन जी ओ सेकटर के धंधों पर भी कम्युनिस्ट पार्टी ने  ज़बरस्त प्रहार किया है .  ड्राफ्ट कार्यक्रम में लिखा है कि वर्ग भेद को कमज़ोर करने और वर्ग संघर्ष के महत्व को कम करने के मकसद से कुछ  एन जी ओ इन पहचानों को बढा चढा कर  सामने रखते हैं और पहचान की राजनीति का खेल खेलते हैं .इस बात पर जोर देना होगा  कि शोषक और शोषित वर्गों के बीच के संघर्ष सामाजिक क्रान्ति की   मुख्य शक्ति होते हैं .  लेकिन वास्तविक सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए जातीय भाषाई और अन्य पहचानों पर भी ध्यान देना  चाहिए . 
 ए बी बर्धन ने कहा कि  अपने देश में जो क्रान्ति आयेगी वह  हिंसक नहीं होगी क्योंकि अपने यहाँ संसदीय प्रणाली मौजूद है लेकिन बूर्जुआजी की ताक़तों को भी चाहिए  कि आम आदमी के संघर्ष को सरकारी  ताक़त से कुचलने की कोशिश न करें  क्योंकि  उस हालत में संघर्ष को हिंसक भी होना पड़ सकता है. उन्होंने कहा कि  मौजूदा  लोक सभा में ३५२ सदस्य करोडपति हैं . वे करोड़पतियों के हित की ही बात करेगें . इसलिए चुनाव प्रणाली में सुधार का काम भी तुरंत  किया जाना चाहिए .  

Tuesday, June 12, 2012

प्रधान मंत्री कार्यालय ने अन्ना के साथियों को दिया जवाब



शेष नारायण सिंह  

नई दिल्ली, ९ जून. अन्ना हजारे और उनकी टीम के मीडिया के ज़रिये चल रहे अभियान में प्रधान मंत्री ने मीडिया के सहारे जवाब देने का फैसला कर लिया  है .अन्ना  हजारे की टीम ने प्रधान मंत्री को २५ मई २०१२ को एक पत्र लिख कर कुछ आरोप लगाया था निनका जवाब प्रधान मंत्री की तरफ से दे दिया गया है . दिलचस्प बात  यह है कि  जो चिट्ठी जवाब में लिखी गयी है उसे आज कांग्रेस कमेटी की ओर से कांग्रेस बीट कवर करने वाले  मीडिया  कर्मियों को  तक पंहुचा दिया गया. चिट्ठी प्रधान मंत्री  मंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री वी नारायणसामी की ओर से  जारी की  गयी  है और  टीम अन्ना के हर आरोप को गलत बताया गया है . 
प्रधान मंत्री कार्यालय ने इस बात का बुरा  माना है कि टीम अन्ना ने मुलायम सिंह यादव पर गंभीर आरोप लगाए हैं . प्रधान मंत्री कार्यालय ने कहा है कि टीम अन्ना की यह बात गलत है कि मुलायम सिंह यादव से मिलकर सरकार ने उनके  खिलाफ चल  रही जांच को दबा दिया है . प्रधान  मंत्री ने कहा है कि यह मुलायम सिंह यादव और सी बी आई के प्रति अनुचित आरोप हैं . यह आरोप हमारी न्यायप्रणाली को भी अपमानित करते हैं .उन्होंने कहा टीम अन्ना  के  ऊपर लगाये गए आरोपों की भी नियमानुसार जांच की जायेगी और ऐसा कोई वादा नहीं किया जा सकता कि किसी भी अपराध की सज़ा  दोगुनी कर दी जायेगी  कम  कर दी जायेगी.  टीम अन्ना को बता दिया गया है कि कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है  कि किसी भी सज़ा के लिए निर्धारित  दंड को दोगुना कर दिया  जाए.टीम अन्ना ने चुनौती  दी थी कि अगर उनके ऊपर कोई आरोप हैं और वे सही पाए जाते हैं तो उनको दोगुनी सज़ा मिलनी चाहिए .  
प्रधान मंत्री कार्यालय की चिट्ठी में लिखा है कि काले धन की समस्या से देश जूझ रहा है . इसको रोकने के लिए उनकी सरकार ने बेनामी ट्रांजैक्शन एक्ट  पारित किया है और मनी लांडरिंग एक्ट को मज़बूत किया गया है .काले धन पर रोक लगाने के लिए कानूनों को मज़बूत बनाने के लिए एक समिति बनाई गयी है और काला धन का आकलन करने और उसके  बारे में कार्रवाई करने का काम स्वतन्त्र सरकारी एजेंसियों को सौंपा गया है.विदेशों में इनकम टैक्स विभाग की विशेष इकाइयां बनायी गयी हैं जो काले धन को विदेशों में जमा करने के अपराध पर नज़र रखेगीं.
सी बी आई, इनकम टैक्स , सी ए जी और प्रवर्तन निदेशालय  हमेशा से ही स्वतन्त्र रूप से काम करते रहे हैं . वे अब भी अपना काम संविधान के हिसाब से पूरी तरह से कर रहे हैं .सरकार का  उनके काम में कोई दखल नहीं हैं . प्रधान मंत्री कार्यालय से बताया गया कि सी ए जी की कई  रिपोर्टों को तो  अन्ना की तथाकथित टीम वाले भी सरकार के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे हैं .प्रधान मंत्री ने कहा है कि सरकार को यह चिंता है कि जिस तरह से बिना किसी बुनियाद के नौकरशाही पर आरोप लगाए जा रहे हैं , उससे देश  का नुकसान हो  जाएगा क्योंकि गलत आरोपों के डर से अगर कहीं  सरकारी अधिकारी फैसला लेने से बचने की कोशिश करने लगे तो देश का बहुत नुकसान होगा.
कोयला ब्लाकों के एलाटमेंट में प्रधान मंत्री पर लगाए गए आरोपों को भी प्रधान मंत्री कार्यालय ने सिरे से खारिज कर दिया है . पत्र में कहा गया है कि सी ए जी की जिस  लीक हुई और अधोरी  रिपोर्ट के आधार पर माहौल बनाने की कोशिश की जा  रही है , वह अनुचित है . यह रिपोर्ट अभी संसद के पास नहीं है जब भी उसे निश्चित प्रक्रिया के अधीन पेश किया जाएगा उस पर कार्यवाही होगी. 

Saturday, June 9, 2012

दिग्विजय सिंह कहा- नितिन गडकरी और रामदेव व्यापारिक हित साध रहे हैं





शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,७ जून. कांग्रेस के  महामंत्री दिग्विजय सिंह ने योग शिक्षक रामदेव पर फिर हमला बोला है . उन्होंने रामदेव से अपील की है कि काले धन के बारे में अभियान चलाना बहुत सही काम है लेकिन रामदेव को सबसे पहले अपने काले धन के बारे में जानकारी सार्वजनिक   करनी चाहिए.दिग्विजय  सिंह ने कहा कि रामदेव के बारे में अब तक उन्होंने जो कुछ भी कहा सब सही साबित हुआ है .उनके खिलाफ काला धन रखने और  टैक्स की चोरी के मामले लंबित हैं . उनके एक सहयोगी पर चार सौ बीसी और हेराफेरी का केस चल रहा है और अपने ऊपर से सरकारी एजेंसियों का ध्यान हटाने के लिए वे  सरकार के खिलाफ उल्टी सीधी बात करते हैं.
दिग्विजय सिंह ने बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का भी  मखौल उड़ाया और कहा  कि जब श्री गडकरी ने रामदेव  के चरण छुए उसी वक़्त नितिन गडकरी की राजनीति की गहराई का पता लग गया. दिग्विजय सिंह ने भी कहा कि नितिन गडकरी और रामदेव दोनों ही व्यापारी हैं और नितिन गडकरी ने अपने व्यापारिक हितों को साधने के लिए अपनी पार्टी को राम देव के चरणों में डाल दिया है. यह काम नितिन  गडकरी और बीजेपी के चाल चरित्र और चेहरे को एक बार फिर उजागर करता है .बीजेपी यह भी पता चला है कि रामदेव  ने भारत छोडो दिवस के दिन ९ अगस्त को दिल्ली में फिर भीड़ जुटाने की योजना बनायी  है . उसके  बाद उनको भारी प्रचार  मिलेगा .लेकिन उसके साथ साथ  ही दवा बेचने की उनकी नई दुकानों के खुलने की घोषणा भी होने वाली है .
कांग्रेस के प्रवक्ता राशिद अल्वी ने कल रामदेव के बारे में कुछ सहानुभूति पूर्ण बयान दिया था . उसके बाद लगने लगा था कि कांग्रेस अब रामदेव को बहुत नाराज़ नहीं करना चाहती . लेकिन आज दिग्विजय सिंह का यह बयान हालत को और भी कन्फ्यूज़ कर देता है . दिल्ली के राजनीतिक दरबारों में राम देव की स्वीकार्यता बढ़ रही है . बीजेपी के अध्यक्ष तो खुले आम उनके चरणों की वंदना कर रहे हैं जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश  के नेता अजित सिंह भी अब  खुल कर रामदेव के समर्थन की बात करने लगे हैं . एन सी पी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और कृषि मंत्री शरद पवार भी रामदेव के समर्थकों में शामिल हो गए हैं . हालांकि  रामदेव के  साथी अन्ना हजारे के एक कथित समर्थक ने उन्हें अपमानित किया था . अन्ना के लोगों केंद्र सरकार में जिन मंत्रियोंको भ्रष्ट बताया है उसमें शरद  पवार का नाम भी है. ऐसी हालत में दिल्ली में बात बहुत ही अजीबोगरीब तर्कों के दायरे में घूम रही है. एन सी पी के एक नेता ने कहा कि अब राम देव अपनी औकात पर आ जायेगें क्योंकि अब वे राजनीतिक नेताओं के  दरवाजों पर नज़र आयेगे और दिल्ली में  नेताओं के इर्द गिर्द चक्कर काटने वालों की क्या हालत होती है, यह सभी जानते हैं .

कन्नौज का उपचुनाव धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक ताक़तों के एकजुट होने का मौक़ा है



शेष नारायण सिंह 

देश में बड़े पैमाने पर राजनीतिक शक्तियों का ध्रुवीकरण हो रहा है. २०१४ के लोक सभा चुनाव के पहले देश के सामने एक नई राजनीतिक बिरादरी तैयार होने वाली है . बीजेपी में एक  बार फिर  संभावित प्रधान मंत्रियों की चर्चा ज़ोरों पर है . पिछली बार लाल कृष्ण आडवाणी  बहुत गंभीरता से प्रधान मंत्री पद के  दावेदार बने थे लेकिन पार्टी को ज़रूरी सीटें ही नहीं मिलीं. इस बार भी आडवाणी ने हिम्मत नहीं हारी है लेकिन बीजेपी में उनके गुट के नेता ही इस बार प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनते नज़र आ रहे हैं . आजकल बीजेपी में वही माहौल है जो  पार्टी की १९८४ की हार के बाद था. उन दिनों हर कीमत पर चुनाव जीतने के लिए पार्टी कमर कसती नज़र आती थी. उसी दौर में बाबरी मस्जिद का मुद्दा पैदा किया गया, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को चुनावी संघर्ष का अगला दस्ता बनाया गया और गाँव गाँव में साम्प्रदायिक दुश्मनी का ज़हर घोलने की कोशिश की गयी. नतीजा यह हुआ कि १९८९ में सीटें बढीं. बाबरी मस्जिद के हवाले से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता  रहा और बीजेपी एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरी . उस दौर में कांग्रेस ने भी अपने धर्मनिरपेक्ष   स्वरूप से बहुत बड़े समझौते किये . नतीजा यह हुआ कि साम्प्रदायिक शक्तियां बहुत आगी बढ़ गयीं.और धर्म निरपेक्ष  राजनीति कमज़ोर पड़ गयी . उन दिनों लाल कृष्ण आडवाणी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के बहुत ही महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हुआ करते थे , रथयात्रा के बाद तो उन्होंने देश के कई राज्यों में अपनी पार्टी की मौजूदगी सुनिश्चित कर दी थी. 
आर एस  एस और बीजेपी के उस विभाजक दौर में उत्तर प्रदेश में उनको पुरानी धर्मनिरपेक्ष  पार्टी ,कांग्रेस से कोई चुनौती नहीं मिली लेकिन जब १९८९ के चुनाव के बाद मुलायम सिंह यादव ने सत्ता संभाली तो साम्प्रदायिक ताक़तों को हर मुकाम पर रोकने की राजनीतिक प्रक्रिया शुरू हो गयी. उसी दौर की राजनीति में गाफिल पाए जाने के कारण ही उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस पूरी तरह से हाशिये  पर  आ गयी . मुलायम सिंह यादव ने अपने आपको एक धर्मनिरपेक्ष विकल्प के रूप में पेश किया और आज तक उसी कमाई के सहारे  राज्य की राजनीति में उनकी पार्टी का दबदबा बना हुआ है . धर्मनिरपेक्ष राजनीति के बारे में मुलायम सिंह यादव की प्रतिबद्धता बहुत ज़्यादा है . १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद उत्तर प्रदेश  में जब मुलायम सिंह यादव ने  देखा कि  आर एस एस की ताक़त रोज़ ही बढ़ रही है तो उन्होंने बीजेपी और  कल्याण सिंह को बेदखल करने के लिए बहुजन समाज पार्टी से हाथ   मिला लिया.  उस दौर में मैंने उनसे बात की थी और कहा था कि कांशीराम और मायावती की टोली का साथ करके उन्होंने अपनी पार्टी को कमज़ोर करने का काम किया है तो उन्होंने  साफ़ कहा कि अगर मैं कांशी राम को साथ न ले लेता तो वह बीजेपी के साथ चले जाते और वह देश के लिए अच्छा न होता . इसलिए कुछ इलाकों में  अपनी ताक़त से उन लोगों को कुछ सीटें देकर मैं साम्प्रदायिक ताक़तों को सत्ता से बाहर रख सकूंगा . वह काम मुलायम सिंह ने  किया भी. अपने जिले की इटावा सीट से कांशी राम को लोकसभा का सदस्य बनवाया , राज्य में कई जिलों में जहां उनकी पार्टी मज़बूत थी ,वहां से बहुजन समाज  पार्टी को जिताया ,उनकी पार्टी की सबसे  महत्वपूर्ण नेता ,मायावती थीं. उन्हें  फैजाबाद जिले की राजनीति में जमाया लेकिन कांशीराम को बीजेपी की  शरण में जाने से रोक नहीं सके.  बाद में तो मुलायम सिंह यादव कहते रहते थे कि मायावती की राजनीति साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती है.

एक बार फिर बीजेपी में वही माहौल बन रहा है कि साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे करके ही सत्ता हासिल करने की कोशिश की  जाए.लाल कृष्ण आडवाणी इस बार भी उम्मीद लगाए हुए हैं लेकिन अब लगता है कि उनके अपने लोग ही उन्हें पीछे कर सकते हैं . साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के  उदाहरण बन चुके , नरेंद्र मोदी भी इस बार प्रधानमंत्री पद के सपने देख रहे हैं . हालांकि गुजरात के बाहर चुनावों को प्रभावित कर सकने की उनकी क्षमता बिलकुल जीरो है लेकिन साम्प्रदायिक राजनीति के वे पोस्टर ब्वाय  हैं . ऐसी हालत में धर्म निरपेक्ष ताक़तों के ध्रुवीकरण  की  ज़रुरत देश के सामने जितना आज है उतनी कभी नहीं रही.

इस पृष्ठभूमि में कन्नौज के उपचुनाव में कांग्रेस की भूमिका महत्त्व हासिल कर लेती है . मुख्य मंत्री अखिलेश यादव की लोकसभा सीट के खाली होने के बाद हो रहे उपचुनाव में कांग्रेस ने कोई उम्मीदवार नहीं उतारा .बहुजन समाज पार्टी अभी विधान सभा चुनावों में हुई हार के बाद सकते में है  और उसने भी निश्चित हार  के डर से कोई उम्मीदवार नहीं  खड़ा किया . बीजेपी ने अपने उम्मीदवार को  टिकट  देकर लखनऊ से दौडाया लेकिन वह ढाई घंटे में कन्नौज पंहुच  नहीं पाया . लिहाजा बीजेपी का उम्मीदवार भी मैदान में नहीं  है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने अभी तीन महीने पहले निर्णायक  जीत हासिल की है. ज़ाहिर है उसकी जीत पक्की थी चाहे जिसका  उम्मीदवार मैदान में होता लेकिन कांग्रेस ने यह घोषणा करके कि वह डिम्पल यादव के खिलाफ उम्मीदवार नहीं  उतारेगी, एक अलग तरह का सन्देश देने की कोशिश की है . जानकार बताते हैं कि राष्ट्रपति पद के  लिए होने वाले चुनावों में कांग्रेस  को समाजवादी पार्टी का सहारा चाहिए ,इसलिए कांग्रेस ने कन्नौज में  समाजवादी पार्टी को वाक् ओवर दिया है  .लेकिन यह सच नहीं है . कन्नौज डॉ राम मनोहर लोहिया की सीट रही है और उस सीट पर जब समाजवादी पार्टी की प्रतिष्ठा  की लड़ाई हो रही होगी तो किसी कांग्रेसी उम्मीदवार की मुलायम सिंह की बहू को  हराने की हैसियत नहीं है . कांग्रेस की इस पहल के विस्तृत राजनीतिक सन्दर्भ  हैं . राष्ट्रपति के चुनाव में तो जो भी होगा ,इस पहल को अगर कांग्रेस आगे बढाने में कामयाब हो गयी तो नरेंद्र मोदी की अगुवाई में देश  में सन १९९२ वाला माहौल बनाने की जो कोशिश शुरू हो गयी है उसे लगाम दी जा सकेगी. 
कन्नौज की  लोक सभा सीट बहुत ही दिलचस्प सीट है . १९६७ में डॉ राम मनोहर लोहिया इसी सीट से उम्मीदवार थे लेकिन वे प्रचार के लिए कन्नौज एकाध  बार ही आये. उनका कहना था कि व्यापक राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने हों तो ज़िम्मेदार राजनीतिक पार्टियों को  चुनावी लालच में नहीं पड़ना चाहिए . १९६७ के चुनाव में वे ज़्यादातर समय फूलपुर संसदीय क्षेत्र में लगा रहे थे क्योंकि वहां उनके प्रिय शिष्य  जनेश्वर मिश्र जवाहर लाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित को चुनौती दे रहे थे . लोक सभा और विधान सभा उस साल एक साथ हुए थे . उसी साल मुलायम सिंह यादव पहली बार  कन्नौज के करीब की ही जसवंत नगर सीट से विधायक  चुने गए थे . डॉ लोहिया ने धर्मनिरपेक्ष  राजनीति का जो महत्व उस वक़्त उनको समझया था वही मुलायम सिंह यादव की राजनीति का स्थायी भाव बना रहा . 
 कन्नौज के मौजूदा उपचुनाव  में कांग्रेस ने जो रुख अपनाया है कि वह आने वाले दिनों में  सेकुलर राजनीति की दिशा में एक ज़रूरी शुरुआत भी हो सकती है . हालांकि यह भी सच है कि कन्नौज में  चुनाव लड़कर भी कांग्रेस के हाथ  हार ही आनी थी लेकिन चुनाव न लड़ कर कांग्रेस ने भविष्य की राजनीति में उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव को बड़ा भाई मानने की पहल कर दी है . सबको मालूम है कि नरेंद्र मोदी को आगे करके आर एस एस एक बार फिर देश को साम्प्रदायिकता के तनाव में झोंक देने की फ़िराक़ में है . ऐसी हालत में अगर कांग्रेस के नेता अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को साथ लेने में सफल होते हैं तो देश के भविष्य के लिए यह बहुत ही अच्छा लक्षण होगा. 

Sunday, June 3, 2012

मीडिया की कृपा से राष्ट्रीय नेता बनने वालों से देश को बचाने की ज़रुरत है आडवाणी जी




शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,१ जून . बीजेपी में बड़े नेताओं के बीच हमेशा से ही मौजूद रहा झगडा सामने आ गया है. लाल कृष्ण आडवाणी ने पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष के काम काज के तरीकों पर सवाल उठाया है . कहते हैं कि मीडिया के लोग केंद्र  सरकार  पर हमला कर रहे हैं लेकिन उनका अपना गठबंधन भी 
सही काम नहीं कर रहा है.आडवाणी ने अपने ब्लॉग पर  अपनी  तकलीफों को कलमबंद किया है और ६० साल की अपनी  राजनीतिक यात्रा को याद किया है . उन्होंने लोगों को याद दिलाया है कि वे बीजेपी की पूर्ववर्ती  पार्टी जनसंघ के  संस्थापक सदस्य  हैं .
 उनको याद है कि १९८४ में उनकी पार्टी लोक सभा चुनावों में बुरी तरह से हार गयी थी. २२९ उम्मीदवार खड़े किये गए थे और केवल दो सीटें ही हाथ आई थीं .उत्तर प्रदेश , बिहार , राजस्थान , मध्य  प्रदेश और महाराष्ट्र में पार्टी जीरो पर थी लेकिन  कार्यकर्ता कहीं भी हार  मानने को तैयार नहीं था  ,वह अगली लड़ाई के लिए तैयार था और हमने आगे चल  कर कुशल रणनीति से चुनावी सफलता हासिल की और सरकारें  बनाईं. 
इस के बाद लाल कृष्ण आडवानी ने पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष , नितिन गडकरी के काम की आलोचना शुरू कर दिया . उन्होंने लिखा है कि जिस तरह से उत्तरप्रदेश के एक  भ्रष्ट नेता को साथ लिया गया  उस से पार्टी को बहुत नुकसान हुआ है . झारखण्ड और कर्नाटक में भी पार्टी ने भारी गलती की. यह सारी गलतियाँ नितिन गडकरी ने ही की हैं .तीनों ही मामलों में भ्रष्ट लोगों को साथ लेकर पार्टी ने यू पी ए के भ्रष्टाचार के  खिलाफ खड़े होने का नैतिक अधिकार खो दिया है . इसी लेख में आडवाणी   जी ने अरुण  जेटली और सुषमा स्वराज के काम को एक्सीलेंट बताया  है . ज़ाहिर है कि वे  नितिन गडकरी के काम काज से संतुष्ट नहीं है  और वे उनको दूसरा टर्म देने की बात से खासे नाराज़ हैं .
लाल कृष्ण आडवाणी की नाराज़गी के कारण समझ में आने वाले हैं . लेकिन केवल गडकरी की  आलोचना करके आडवाणी  जी ने अपने आपको एक गुट का नेता सिद्ध कर दिया है .  इस सारे घटनाक्रम से साफ़ नज़र आ रहा है कि वे गडकरी  गुट के खिलाफ अपने लोगों की तारीफ़ कर  रहे हैं . सच्चाई यह है कि उनकी पार्टी जिसमें कभी ज़मीन से जुड़े नेता  राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय होते थे लेकिन अब नहीं हैं . अब बीजेपी का राष्ट्रीय नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में है जिनका अपनी ज़मीन पर कोई असर नहीं है . १९७५ में यही काम कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी ने शुरू किया था  और कांग्रेस जो बहुत बड़ी और मज़बूत पार्टी हुआ करती थी , वह रसातल पंहुंच गयी थी. १९७१ के लोक सभा चुनाव के बाद इंदिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी को अपने बेटे संजय  गांधी के हाथ में थमा दिया था . संजय गांधी भी ज़मीन से जुड़े हुए नेता नहीं थे. उन्होंने दिल्ली में रहने वाले कुछ अपने साथियों के साथ पार्टी को काबू में कर लिया और उसका नतीजा सबने देखा . कांग्रेस १९७७ में कहीं की नहीं रही, इंदिरा गाँधी और संजय गांधी खुद चुनाव हार गए. १९८० में इंदिरा गाँधी की वापसी हुई लेकिन वह जनता पार्टी की हर ज्यादा थी , कांग्रेस को तो नेगेटिव वोट ने सत्ता दिलवा दी थी. उसके बाद केंद्र के किसी भी नेता को बाहैसियत नहीं बनने  दिया गया .  वी पी सिंह ने जब कांग्रेस से बगावत की तो जनता ने उन्हें तख़्त सौंप दिया . लेकिन उनके साथ भी वही लोग जुड़ गए जो राजीव गांधी को  राजनीतिक रूप से तबाह कर  चुके थे. बाद में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का झगड़ा हुआ और बीजेपी को धार्मिक ध्रुवीकरण का  चुनावी लाभ मिला और बीजेपी वाले अपने आप को बड़ा नेता मानने लगे. 
आज देश का दुर्भाग्य है कि दोनों की बड़ी पार्टियों में ऐसे नेताओं का बोलबाला है जो  दिल्ली के लुटेंस बंगलो ज़ोन में ही सक्रिय हैं . कांग्रेस में भी जो लोग पार्टी के भाग्य का फैसला  कर रहे हैं उनमें से सोनिया गांधी और राहुल गांधी के अलावा किसी की हैसियत नहीं है कि वह लोक सभा का चुनाव जीत जाए. प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक उन्हीं लोगों की भरमार है जो राष्ट्रीय नेता हैं लेकिन राज्य सभा  के सदस्य हैं . यही हाल बीजेपी का है . अपने राज्य से चुनाव जीत कर आने वाला कोई भी नेता राष्ट्रीय नेता नहीं  है .जो लोग खुद ताक़तवर हैं उन्हें दरकिनार कर दिया गया है.  कुछ लोग जो लोक सभा में हैं  भी वे राज्यों के मुख्य मंत्रियों की कृपा से चुनाव जीतकर आये हैं . . दोनों ही पार्टियों में राज्य सभा के सदस्य राष्ट्रीय नेता मीडिया प्रबंधन में बहुत ही प्रवीण हैं और मीडिया के ज़रिये राष्ट्रीय नेता बने हुए हैं . जो लोग ज़मीन से जुड़े हैं .लोक सभा का चुनाव जीतकर आये हैं वे  टाप नेतृव नहीं  हैं . 
अगर अपने ब्लॉग  में आडवाणी जी ने दोनों की पार्टियों के इस मर्ज़  की तरफ संकेत किया होता तो यह माना जाता कि वे देश की राजनीति में कुछ शुचिता लाने की बात कर  रहे हैं . उनकी टिप्पणी से यही लगता है कि वे बीजेपी में अपने गुट के दबदबे के लिए कोशिश कर रहे हैं .मीडिया की कृपा से नेता बने लोगों से जब तक राष्ट्रीय राजनीति को मुक्त नहीं किया जाएगा , आम आदमी राजनीतिक रूप से सक्रिय  नहीं होगा.

संसद की स्थायी समिति ने रेलवे को खान पान व्यवस्था दुरुस्त करने का हुक्म दिया




शेष नारायण सिंह 

नई  दिल्ली ,२८ मई.  जुलाई २०१० में रेलवे बोर्ड ने नई कैटरिंग पालिसी की घोषणा की थी और २००५ की नीति को पलट दिया था . २००५ की नीति में ट्रेनोंमें खान पान की व्यवस्था का सारा ज़िम्मा सरकारी कंपनी आई आर टी सी के हवाले कर दिया था. लेकिन रेल विभाग ने २०१० में दावा किया कि आई आर टी सी ने ट्रेनों में खाने पीने की सही व्यवस्था नहीं की और हालात बहुत बिगड़ गए. नई कैटरिंग पालिसी में रेलवे बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष ने दावा किया था कि अब यह इंतज़ाम रेल विभाग खुद करेगा और सब ठीक हो  जाएगा . लेकिन रेलवे का काम काज देखने के लिए बनायी गयी संसद की स्टैंडिंग कमेटी की ताज़ा रिपोर्ट से पता चलता है कि करीब दो साल पहले बहुत ही ताम झाम के साथ नई नीति की घोषणा करने के बाद भी रेलवे बोर्ड ने अपना काम सही तरीके  से  नहीं किया है और ट्रेनों में खान पान का इंतज़ाम उसी  गैर ज़िम्मेदार आई आर टी सी और उसके ठेकेदारों के  रहमो करम पर चल रहा है.
संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में लिखा हैकि कमेटी को इस बात की बहुत तकलीफ है कि नई कैटरिंग पालिसी जुलाई  २०१० में जारी की गयी थी लेकिन उसको लागू करने का काम बहुत ही ढीला है . बजट सत्र के अंतिम दिन की पूर्व संध्या पर संसद के दोनों सदनों के पटल पर रखी गयी रिपोर्ट में साफ़ लिखा  है कि रेलवे बोर्ड को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए और अपनी ही घोषित नीति को लागू करने के लिए ईमानदारी से कोशिश करनी चाहिए .कैटरिंग के बारे में जानकारी लेने के लिए जब  कमेटी के सदस्यों ने मई २०११ में अहमदाबाद,बंगलोर,मैसूर और गोवा का दौरा किया तो उन्हें बताया गया कि नई नीति को लागू करने में बहुत दिक्क़तें हैं . आई आर सी टी सी से खान पान की सेवाओं को पूरी तरह से लेने में २२ समस्याएं  हैं . जिसमें स्टाफ की कमी, ठेकेदारों की मुक़दमे बाज़ी की आशंका और रेलवे के मौजूदा स्टाफ में कुशाल खान पान कारीगरों की कमी जैसे मुद्दे शामिल हैं. कमेटी ने   सुझाव दिया कि यह ऐसी समस्याएं नहीं हैं जिनका कोई हल न हो .कमेटी ने यह भी कहा है कि रेलवे को चाहिए आई एस ओ सर्टिफिकेट वाले किचेन की स्थापना ख़ास  रेलवे स्टेशनों के परिसर में ही करे.  जहां भोजन की क्वालिटी पर नज़र रखने वाला स्टाफ भी हो .इसका लाभ यह होगा कि खाना सही वक़्त पर सप्लाई किया जा सके.कमेटी ने सुझाव दिया है कि १६  घंटे से ज्यादा समय तक चलने वाली लम्बी दूरी की सभी ट्रेनों में पैंट्री कार की व्यवस्था की जानी चाहिए .
जुलाई २०१० से नई कैटरिंग पालिसी लागू है लेकिन अभी ज़मीन पर तो कहीं  कुछ नहीं दिख  रहा है . रेलवे के ज़िम्मेदार लोगों को उम्मीद है कि स्थायी समिति की रिपोर्ट के बाद शायद बड़े अधिकारियों को प्रेरणा मिले और ट्रेनोंमें ठेकेदारों और आई आर टी सी वालों की मनमानी का शिकार हो रहे यात्रियों को कुछ राहत मिले .




Tuesday, May 29, 2012

क्या सोनिया गाँधी पूर्वोत्तर क्षेत्र में आतंक का ख़ात्मा चाहती हैं ?




शेष नारायण  सिंह 

 कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने अपने असम के दौरे के दौरान दावा किया है कि केंद्र की यू पी ए और असम की कांग्रेसी सरकार की कोशिश से उस  इलाके में आतंकवाद कमज़ोर पड़ा  है . बातचीत के ज़रिये समस्या को हल करने की नीति की उन्होंने तारीफ़ की और कहा कि यू पी ए और कांग्रेस की इसी नीति के कारण  कई आतंकवादी सगठनों ने आतंकवाद को तिलांजलि देने का फैसला किया है . उन्होंने भरोसा जताया कि आतंकवादी संगठनों के लोगों को विश्वास हो जाएगा कि आतंक का रास्ता सही नहीं है .वे  आगे  आयेगें और  शान्ति की प्रक्रिया में शामिल हो जायेगें.सोनिया गाँधी असम की कांग्रेसी सरकार के एक साल पूरा होने की खुशी में आयोजित एक सभा में भाषण कर रही थीं. दिल्ली में भी कांग्रेसी  मीडिया विभाग अपनी  अध्यक्ष की सफल असम यात्रा की तारीफ़ करते नहीं अघा रहा है . उनके साहस को ख़ास तौर से बताया जा रहा है कि बम विस्फोट के बाद भी उन्होंने अपने कार्यक्रम  में कोई परिवर्तन नहीं किया .
सोनिया गांधी का यह दावा सही नहीं है कि यू पी ए की केंद्र सरकार भी उत्तर पूर्वी भारत में आतंकवाद को ख़त्म करने की कोशिश कर रही है . जब से पूर्वोत्तर भारत में आतंकवादी गतिविधियाँ शुरू हुई हैं , हर मंच पर सरकार और  राजनीतिक पार्टियों ने दावा किया है कि अगर  उस इलाके का सही विकास किया गया होता तो आतंकवादियों को मौक़ा ही न मिलता कि वे उस इलाके के नाराज़ लोगों को साथ ले सकें .  पूर्वोतर भारत  के  विकास के लिए बहुत सारी योजनायें चलायी गयीं लेकिन केंद्र सरकार की गैरजिम्मेदारी का नतीजा है कि कोई भी योजना सही तरीके से लागू नहीं की गयी.  यह भी तर्क बार बार दिया गया है कि  आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए विकास की योजनाओं  को  समयबद्ध तरीके से लागू किया जाना चाहिए .
 सच्चाई यह है कि केंद्र सरकार पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास के लिए गंभीर ही नहीं है. संसद के बजट सत्र में पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास मंत्रालय के काम काज के बारे में संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट आई है जिसमें साफ़ लिखा है कि   क्षेत्र के  विकास के लिए प्रकृति ने बहुत सारी सम्पदा उपलब्ध कराई है लेकिन सरकार उनका सही इस्तेमाल नहीं कर पा रही है .पूर्वोत्तर भारत के इलाकों  पानी से पैदा होने वाली बिजली के सबसे बड़े  स्रोत हैं. उसके  लिए केंद्र सरकार ने बहुत सारी योजनायें भी बनायी हैं लेकिन  केंद्र सरकार के अधिकारी इस इलाके की योजनाओं के  सन्दर्भ में पूरी तरह से लापरवाह हैं. और क्षमता  का सही विकास नहीं किया जा रहा है . जिन योजनाओं को पूरा किया जाना  है ,मार्च २०१२ तक उनकी क्षमता का ९३ प्रतिशत पूरी  तरह से अनछुआ था. यह रिपोर्ट मई में संसद में रखी गयी थी. 
अपने देश में संसद की स्थायी समितियां संसदीय लोकतंत्र की बहुत ही  ताक़तवर संस्थाएं हैं . लेकिन केंद्र सरकार के अफसर गृह मंत्रालय के काम काज के लिए बनी हुई संसद की स्थायी समिति केंद्र सरकार के अफसर गंभीरता से नहीं ले रहे हैं . इसी कमेटी के एक सदस्य ने कहा कि अगर  यू पी ए की अध्यक्ष  पूर्वोत्तर भारत की समस्याओं  को  वास्तव में हल  करने का माहौल  बनाना  चाहती हैं तो उन्हें चाहिए कि अपनी सरकार के मंत्रियों से कहें कि वे केंद्र सरकार के अफसरों को संसदीय समितियों को सम्मान देने का का तरीका सिखाएं . 
कमेटी की  रिपोर्ट में लिखा है कि पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास के लिए २०१२-१३ के लिए अनुदान की मांग को लेकर जब चर्चा हो रही थी केंद्र सरकार के अफसरों ने  सरकार की बात रखने के लिए  उपयुक्त और ज़िम्मेदार अफसर तक नहीं भेजा. ११  अप्रैल  २०१२ की  बैठक को रद्द करना पड़ा क्योंकि कुछ मंत्रालयों और विभागों ने अपने अफसर ही नहीं भेजे जबकि कुछ अन्य विभागों ने बहुत ही जूनियर अफसरों को भेज दिया जो सही जवाब नहीं दे सके.बैठक  में जो अफसर हाज़िर भी हुए वे बिना किसी तैयारी  के आये थे . कमेटी ने इस बात का बहुत बुरा माना और जब रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों के पटल पर रखी गयी तो इस बात को रिपोर्ट की प्रस्तावना में ही लिख दिया .कमेटी के अध्यक्ष ने कैबिनेट सेक्रेटरी को  चिट्ठी लख कर उनसे कहा कि केंद्र सरकार के इस गैरजिम्मेदार रवैये को ठीक करने के लिए उपाय करें.कमेटी  ने चेतावनी  दी है कि इस तरह की स्थिति दुबारा नहीं पैदा होनी चाहिए .
इस कमेटी के अध्यक्ष  राज्य सभा के सदस्य वेंकैया नायडू हैं जबकि इसके सदस्यों में लाल  कृष्ण आडवानी,बाबू लाल मरांडी,नीरज शेखर ,जनार्दन रेड्डी ,डी राजा और तारिक अनवर  आदि महत्वपूर्ण नेता शामिल हैं . ज़ाहिर है कि पूर्वोत्तर के विकास को अपनी प्राथमिकता बताने वाली यू पी ए को केंद्र सरकार के अफसरों पर भी ध्यान देना चाहिए .

Friday, May 25, 2012

वार्ताकारों का फरमान,"३७० की बहाली के बिना कश्मीर समस्या का हल नामुमकिन है "



 
शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,२४ मई . केंद्र सरकार ने जम्‍मू-कश्‍मीर में सभी वर्गों के लोगों के साथ बातचीत के लिये 13 अक्तूबर 2010 के को  वार्ताकारों का समूह नियुक्‍त किया था । इस समूह में राधा कुमार ,एम एम अंसारी और दिलीप पाडगांवकर को सदस्य बनाया  गया था.इस समूह ने राज्‍य तथा राष्‍ट्रीय स्‍तर पर जम्‍मू-कश्मीर की सरकार, राजनीतिक दलों तथा संबंधित नागरिक वर्ग के साथ व्‍यापक विचार विमर्श किया । उनकी रिपोर्ट 12 अक्तूबर 2011 को सौंप दी गयी थी. सरकार ने अभी रिपोर्ट पर कोई निर्णय नहीं लिया है. आज यह रिपोर्ट जारी कर दी गयी . गृह मंत्रालय ने दावा किया है कि अब इस रिपोर्ट पर पूरे देश में बहस होगी और उसके बाद ही कोई फैसला लिया जाएगा. हालांकि यह अजीब बात है पिछले कई महीनों से यह रिपोर्ट सरकार के पास थी लेकिन इसे संसद के सत्र के दौरान  जारी नहीं किया गया . अगर सरकार ने ऐसा किया होता तो इसपर बेहतर 
बहस  हो सकती थी.

वार्ताकारों के समूह  ने बहुत दिलचस्प सच्चाई को उजागर किया है . उनका कहना है कि कश्मीर में समस्या के हल के लिए एक संवैधानिक कमेटी का गतःन किया जाना चाहिए जिसमें कश्मीर के हवाले से केंद्र राज्य संबंधों पर फिर से नज़र डाला जाना चाहिए .. इस समूह का दावा है कि कुछ ऐसे बिंदु हैं जिनपर पूरी तरह से आम सहमति है . मसलन  जम्मू-कश्मीर का र्राज्नीतिक हल निकाला जाना चाहिए और उसके लिए केवल बात चीत का रास्ता ही अपनाया जाना चाहिए . समूह ने कहा है कि जो लोग मुख्य धारा में नहीं हैं उनसे भी बात चीत की जानी चाहिये . इस बात पर भी सहमति है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिना अंग है और उसको उसी तरह से बने रहना चाहिए लेकिन इस बात पर राज्य में चिंता जताई गयी कि संविधान के अनुच्छेद ३७० को धीरे धीरे ख़त्म कर दिया गया है और उसको अपनी सूरत में बहाल किया जाना चाहिए . इस समूह ने साफ़ कहा है कि जो लोग राज्य में व्याप्त हिंसा के कारण अपना घर बार छोड़ने के लिए मजबूर हो गए तह उनको हर हाल में अपने घरों के एसुरक्षा में  वापस भेजा जाना चाहिए और उनकी शिरकत के बिना कोई भी  हल टिकाऊ नहीं होगा.राज्य के आर्थिक विकास के लिए केंद्र सरकार को विशेष पैकेज देना चाहिए .नियन्त्र रेखा और उ सपार के लिए सामान और लोगों के एआअजाहे एको भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए .
समूह ने अपने सुझावों में कहा  है कि लोग पिछले २० साल से जारी आतंक से ऊब चुके हैं इसलिए प्रशासन और कानून के राज  की लालसा सब के मन में है. हालांकि आम तौर पर लोग मानते हैं कि सरकारें अपना काम ठीक से करने में नाकाम रही हैं. 

सरकारें गैर ज़िम्मेदारी से काम कर रही हैं . भरोसा स्थापित करने के तरीकों ( सी बी एम ) को  खूब लागू किया जा रहा है लेकिन समस्या के टिकाऊ हल के लिए कोई भी कोशिश नहीं की जा रही है.इसके लिए राजनीतिक स्तर पर बात चीत की ज़रुरत है और उसे फ़ौरन शुरू किया जाना चाहिए 

Saturday, May 19, 2012

भोपाल के दर्द को १९८९ में बेच लिया था दिल्ली दरबार के कारिंदों ने




शेष नारायण सिंह 

भारत के इतिहास  में अस्सी के दशक को एक ऐसे कालखंड के रूप में याद किया जाएगा जिसमें आजादी की लड़ाई के मुख्य मूल्यों और मान्यताओं को  तिलांजलि देने का काम शुरू हो गया था. धर्मनिरपेक्ष राजनीति और सामाजिक बराबरी का लक्ष्य हासिल करना  स्वतंत्रता संगाम का स्थायी भाव था .१९२० से १९४७ तक चली आज़ादी की लड़ाई में हर मोड़ पर इस बुनियादी समझदारी को देखा  सकता था. इस दौर में देश के आम आदमी को विदेशी सत्ता के खिलाफ उठ खड़े होने की प्रेरणा महात्मा गाँधी ने दी थी. भारत का आम आदमी महात्मा गांधी के साथ था .इस आन्दोलन की राजनीति के वाहक के रूप में कांग्रेस पार्टी ने इस देश की जनता को नेतृत्व दिया था. आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी तो चले गए थे लेकिन जवाहर लाल नेहरू ने पूंजी के सामाजिक  नियंत्रण और सोशलिस्टिक पैटर्न आफ सोसाइटी की राजनीति के ज़रिये धर्म निरपेक्षता और सामाजिक समरसता के सिद्धांत को जारी रखने का काम किया था. 
आज़ादी के बाद इस देश में ऐसी बहुत सारी राजनीतिक जमातें खडी हो गयी थीं जिनके नेता आजादी की लड़ाई के दौर में अंग्रेजों के साथ थे.  जवाहर लाल नेहरू के जाने के बाद कुछ चापलूस टाइप कांग्रेसियों ने उनकी बेटी को प्रधानमंत्री बनवा दिया और उसी के बाद देश की  राजनीति में सांप्रदायिक ताक़तों को इज्ज़त मिलनी शुरू हो गयी . १९७५ में जब इंदिरा गांधी ने अपने छोटे  बेटे को सरकार और कांग्रेस की सत्ता सौंपने की कोशिश शुरू की तब तक अपने देश की  राजनीति में राजनीतिक शुचिता को अलविदा कह दिया गया था . इंदिरा गाँधी ने साफ्ट हिन्दुत्व की राजनीति को बढ़ावा देने का  फैसला किया . उनके इस प्रोजेक्ट  का ही नतीजा था कि पंजाब में सिखों को अलग थलग करने की कोशिश  हुई.  उसी दौर में राजनीति में कमीशनखोरी को डंके की चोट पर प्रवेश दे दिया गया . इंदिरा जी के परिवार के ही एक  सदस्य को रायबरेली की उस सीट से सांसद  चुना गया जिसे उन्होंने खुद खाली किया था . इन महानुभाव ने पहले उनके बड़े छोटे  और उसकी अकाल मृत्यु के बाद इंदिरा जी के बड़े  बेटे के ज़रिये  राजनीतिक फैसलों को व्यापार से  जोड़  दिया. हर राजनीतिक फैसले से कमीशन को जोड़ दिया गया. इसी दौर में कुछ निहायत ही गैरराजनीतिक टाइप लोग दिल्ली दरबार के फैसले  लेने लगे.,इसी दौर में ६५ करोड़ की दलाली वाला बोफर्स हुआ  जो कि बाद के सत्ताधीशों के लिए घूसखोरी का व्याकरण बना . इसी दौर में अपने ही देश में दुनिया का सबसे बड़ा औद्योगिक  हादसा हुआ .अमरीकी कंपनी यूनियन  कार्बाइड की भोपाल यूनिट में ज़हरीली गैस लीक हुई जिसके कारण भोपाल शहर में हज़ारों  लोग मारे गए और लाखों लोग उसके शिकार हुए . भोपाल गैस काण्ड के बाद अपने  देश में अमरीका की तर्ज़ पर एन जी ओ वालों ने काम करना शुरू  किया  और उन्हीं एन जी ओ वालों के  कारण भोपाल  के पीड़ितों को न्याय नहीं मिल  सका.
भोपाल के पीड़ितों  की मदद करने  के नाम पर लोगों ने अपने कैरियर बनाए , भोपाल की पीड़ितों  के संघर्ष में भाग लेने के लिए विदेशों से सीधे या परोक्ष रूप से धन की वसूली की,,भोपाल के गैस पीड़ितों की बीमारियों तकलीफों ,उनके अनुभवों , उनकी उम्मीदों ,उनकी निराशाओं  तक को अंतरराष्ट्रीय मंचों और सेमिनारों में बाकायदा  ठेला लगाकर बेचा गया .सरकारी अफसरों ,राजनेताओं ,वकीलों , एन जी ओ  वाले लोगों यहाँ तक  कि अदालतों ने भी भोपाल के लोगों की  मुसीबतों की कीमत पर मालपुआ  उड़ाया . १९८९ में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में ४७ करोड़ डालर वाला सेटिलमेंट आया था. कुछ बहुत ही ईमानदार लोगों ने उस फैसले को चुनौती दी थी. लेकिन उनको पता भी नहीं चला और दिल्ली में आपरेट करने वाले कुछ अंतरराष्ट्रीय धंधेबाजों  ने यूनियन कार्बाइड के खिलाफ चल रहे संघर्ष को को-आप्ट कर लिया.  १९८९ में आये इस फैसले और उसके खिलाफ दिल्ली में चल रहे  संघर्ष में शामिल कुछ ईमानदार और कुछ बेईमान लोगों के काम के इर्द गिर्द लिखी गयी एक किताब बाज़ार में आई है . नामी पत्रकार अंजली देशपांडे ने बहुत ही कुशलता से  उस दौर में दिल्ली में सक्रिय कुछ युवतियों की ज़िंदगी के हवाले से उस वक़्त के राजनीतिक  के सन्दर्भ का इस्तेमाल करते हुए एक कहानी बयान की है . मूल रूप से भोपाल की त्रासदी के  बारे में लिखी गयी यह किताब उपन्यास है लेकिन इसे मैं उपन्यास नहीं कहूँगा . जिन लोगों ने उस दौर में भोपाल और उसके नागरिकों के दर्द को दिल्ली के सेमिनार सर्किट में देखा सुना है उनको इस किताब में लिखी गयी बातें एक रिपोर्ताज जैसी लगेगीं.  इस किताब के कुछ जुमले ऐसे हैं जो उन लोगों को सार्वकालीन सच्चाई लगेगें जिन्होंने दिल्ली  के दरबारों में भोपाल के गैस पीड़ितों के दर्द का सौदा होते देखा  है.इस किताब की ख़ास बात यह है कि हमारे समय की तेज़ तर्रार पत्रकार अंजली देशपांडे ने सच्चाई को बयान करने के लिए कई पात्रों को निमित्त बनाया है . हालांकि किताब का कथानक भोपाल के गैस पीड़ितों के दर्द को पायेदार चुनौती देने की कोशिश के बारे में है लेकिन साथ साथ  सरकार , न्यायपालिका , राजनेता, मौक़ापरस्त बुद्दिजीवियों और व्यापारियों को आइना दिखा रही औरतों की अपनी ज़िंदगी की दुविधाओं के ज़रिये मेरे जैसे कन्फ्यूज़ लोगों को औरत  की इज्ज़त करने की तमीज  सिखाने का प्रोजेक्ट भी इस किताब में मूल कथानक के समानांतर चलता  रहता है . नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों के पुरुष वर्चस्ववादी समाज में मौजूद उन लोगों को भी औकातबोध कराने का काम भी इस किताब में  बखूबी किया गया है जो औरत की शक्ति को कमतर करके देखते हैं . दिल्ली की भोगवादी संस्कृति में सत्तासीन अफसर की कामवासना का शिकार हो रही औरत भी अपनी पहचान के प्रति सजग रह सकती है और अपने फैसले खुद ले सकती है , यह बात अंजली ने बहुत ही साधारण तरीके से समझा दी है . अक्सर देखा गया है कि औरत के अधिकार की बात करते हुए  वैज्ञानिक समझ वाला पुरुष भी  गार्जियन बनने की कोशिश करने लगता है . इस किताब की औरतों को देख कर लगता है कि उन लोगों की सोच पर भी लगाम लगाने का काम अंजली देशपांडे ने बखूबी किया है .

भोपाल के बाद और पी वी नरसिंह राव के पहले भारतीय राजनीति पूंजीवादी  दर्शन की शरण में जाने के लिए जिस तरह की कशमकश  से गुज़र रही थी उसकी भी दस्तक , इम्पीचमेंट नाम की इस अंग्रेज़ी किताब में सुनी जा सकती है . आज एन जी ओ वाले इतने ताक़तवर हो गए हैं कि वे संसद को  भी चुनौती देने लगे हैं .लेकिन अस्सी के दशक  में वे ऐलानियाँ बाज़ार में आने में डरते थे और परदे के पीछे से काम करते थे .इस कथानक में जो आदमी शुरू से ही भोपाल के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए सक्रिय है वह दिल्ली में पाए जाने वाले दलाली संस्कृति का  ख़ास नमूना है . वह कुछ ईमानदार  लोगों को इकठ्ठा करता है , उनको बुनियादी समर्थन देता है लेकिन आखिर में पता लगता है कि बाकी लोग तो न्याय की लड़ाई लड़ रहे थे लेकिन वह न्याय की लड़ाई लड़ाने के धंधा कर रहा  था. आज तो ऐलानियाँ फोर्ड फाउंडेशन  से भारी रक़म लेकर एन जी ओ  वाले  संसद  को चुनौती देने के लिए चारों तरफ ताल ठोंकते नज़र आ जायेगें लेकिन  उन दिनों अमरीकी संस्थाओं से पैसा लेना और उसको स्वीकार करना बिलकुल असंभव था . खासकर अगर उस पैसे का इस्तेमाल  भोपाल जैसी त्रासदी के खिलाफ न्याय लेने के लिए किया जा रहा हो. लेकिन पैसा लिया गया और पवित्र अन्तः करण से लड़ाई लड़ रही औरतों को आखिर में साफ़ लग गया कि आन्दोलन वासत्व में शुरू से  ही सरकारी एजेंटों के हाथ में था और  ईमानदारी से न्याय की लड़ाई लड़ रही लडकियां केवल उसी पूंजीवादी लक्ष्य को हासिल करने के लिए औज़ार  बनायी गयी थीं . उनके कारण ही सुप्रीम  कोर्ट और सरकार की मिलीभगत को दी जा रही चुनौती को विश्वसनीय बनाया जा सका. भोपाल के हादसे से भी बड़ा हादसा दिल्ली के दरबारों में हुआ था जब सत्ता में शामिल सभी लोग मिल कर यूनियन कार्बाइड के कारिंदे बन गए थे . पूरी किताब पढ़ जाने के बाद यह बात बहुत ही साफ़  तरीके से सामने आ जाती है .

स्थापित सत्ता किस तरह  ईमानदार लोगों का शोषण  करती  है उसको भी समझा जा सकता है .दिल्ली में कुछ लोग ऐसे हैं जो हर सेमिनार में मिल जाते हैं . वे अपने आप को  सम्मानित व्यक्ति कहलवाते हैं . हर तरह के अन्याय के खिलाफ बयान देते है और  बाद में अन्यायी से मिल जाते हैं . १९८९ में सुप्रीम कोर्ट  की निगरानी में हुए सेटिलमेंट के बाद यह लोग भी सक्रिय हो गए थे और उनके खोखलेपन को भी समझने का मौक़ा यह किताब देती है .किसी भी न्याय की लड़ाई में किस तरह से अवसरवादियों की यह प्रजाति घुस लेती है ,उसका भी अंदाज़ १९८९ की इन  घटनाओं से साफ़ लग जाता है . सुप्रीम कोर्ट के फैसले से निराश दिल्ली में सक्रिय न्याय की योद्धा औरतों ने जब उन जजों के इम्पीचमेंट यानी महाभियोग की बात की .तो उसको खारिज  करवाने के लिए स्थापित  सत्ता ने जो  तर्क दिए वह भी पूंजीवादी संस्कृति में मौजूद दलाली के जीनोम को रेखांकित कर देती है  उन तर्कों को काट  पाना आसान नहीं है .किताब के एक चरित्र हैं कानून के शिक्षक ,प्रोफ़ेसर थापर . वे सवाल पूछते हैं कि  किस पर महाभियोग चलेगा उन नेताओं और अफसरों पर जिनको कार्बाइड ने भारी रक़म दी ? क्या आपको मालूम है कितने नेताओं की पत्नियां न्यू यार्क में खरीदारी करने गयी थीं और उनका सारा भुगतान कार्बाइड ने किया था ? क्या आप उन सभी अफसरों पर महाभियोग चलायेगें  जो भोपाल की कार्बाइड फैक्टरी में जांच करने गए थे और लौट कर बताया कि सब कुछ ठीक है  या उन डाक्टरों पर जिन्होंने सिद्धांत बघारा कि भोपाल में गैस से कोई  नहीं मरा था , बल्कि मरने वाले वे लोग हैं जो बीमार थे या वैसे भी मरने वाले थे.  या उन अर्थशास्त्रियों पर  अभियोग चलायेगें   जो  कहते हैं कि कार्बाइड जैसे उद्योगों की हमें बहुत ज़रुरत है क्योंकि उसी से तरक्की होती है . 
भोपाल के   हादसे के बाद उस सहारा पर मौत की छाया पड़ गयी  थी लेकिन जिस तरह से दिल्ली के गिद्धों ने  उस हादसे को अपनी आमदनी का साधन बनाया वह  अंजली देशपांडे की किताब में बहुत ही शानदार तरीके से सामने आया  है .

Tuesday, May 15, 2012

आतंकवादियों को निष्क्रिय करने के लिए सुरक्षा व्यवस्था को मज़बूत करना ज़रूरी



शेष  नारायण सिंह 

राष्ट्रीय आतंकरोधी केंद्र  यानी एन सी टी सी की स्थापना की कोशिश ठंडे बस्ते के हवाले हो गयी  है. इस तरह कारगिल पर पाकिस्तानी घुसपैठ के बाद शुरू हुई केंद्र सरकार की वह कोशिश भी अनिश्चय को समर्पित हो गयी है जिसमें दावा किया गया था कि अब आतंकवाद को रोकने के लिए प्रभावी कार्रवाई की जायेगी और इंटेलिजेंस की व्यवस्था इतनी मज़बूत कर दी जायेगी कि आतंकी वारदात के पहले ही उसकी जानकारी मिल जाया करेगी .इसी योजना के हिसाब से गृह मंत्रालय ने  हमले के बाद अमरीकी होमलैंड सेक्योरिटी  विभाग की तरह का आतंकवाद विरोधी संगठन बनाने  की योजना बनायी थी .इस साल की शुरुआत में  केंद्र सरकार ने गृह मंत्रालय के उस प्रस्ताव  को मंजूरी दे दी थी  जिसके  तहत  नैशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर ( एन सी टी सी ) की स्थापना होनी थी. मूल योजना के अनुसार यह संगठन १ मार्च २०१२ से अपना काम करना शुरू कर देता . इस के लिए जारी किये गए सरकारी नोटिफिकेशन में बताया गया था एन सी टी सी एक  बहुत ही शक्तिशाली पुलिस संगठन के रूप में काम करेगा .ऐसे प्रावधान किये गए थे आतंकवाद के मामलों की जांच एन सी टी सी के अफसर किसी भी राज्य  में कर सकेगें.इन अफसरों को संदिग्ध आतंकवादियों को गिरफ्तार करने के अधिकार दिए गए थे. यह  तलाशी भी ले सकेगें और इंटेलिजेंस इकठ्ठा करने के अधिकार भी इस संगठन के पास होगा.  एन सी टी सी  के पास  नैशनल सेक्योरिटी गार्ड को भी तलब करने का अधिकार है.
कारगिल में हुए संघर्ष में इंटेलिजेंस की नाकामी  के बाद केंद्र सरकार ने एक  ग्रुप आफ मिनिस्टर्स का गठन किया था जिसने  तय किया कि एक ऐसे संगठन की स्थापना की जानी चाहिए जो आतंरिक और वाह्य सुरक्षा के मामलों की पूरी तरह से ज़िम्मेदारी ले सके.मंत्रियों के ग्रुप ने कहा था कि एक स्थायी संयुक्त टास्क फ़ोर्स बनायी जानी चाहिए जिसके पास एक ऐसा संगठन भी हो जो अंतरराज्यीय  इंटेलिजेंस इकट्ठा  करने का काम भी करे. इसका काम  राज्यों से स्वतंत्र रखने का प्रस्ताव था .इस सन्दर्भ में ६ दिसंबर २००१ को एक आदेश जारी  कर दिया गया था .मुंबई  में २६ नवम्बर २००८ में हुए आतंकवादी हमलों के बाद इस संगठन की ज़रुरत  बहुत ही शिद्दत से महसूस  की गयी और ३१ दिसम्बर २००८ के दिन केंद्र सरकार ने एक पत्र जारी करके इस मल्टी एजेंसी सेंटर  के काम के बारे में विधिवत  आदेश जारी कर दिया था.इस तरह का एक सेंटर बनाने के बारे में प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी सुझाव दिया था.

देश की आतंरिक सुरक्षा को चाक चौबंद करने के लिए इस तरह के संगठन की ज़रुरत  चारों तरफ से महसूस की जा रही थी.अटल बिहारी वाजपेयी  और डॉ मनमोहन सिंह की सरकारें  इस के बारे में  विचार करती रही थीं .लगता है कि केंद्र सरकार से गलती वहीं हो गयी जब एन सी टी सी को इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधीन रख दिया गया . इसका मुखिया इंटेलिजेंस  ब्यूरो के अतिरिक्त निदेशक रैंक  का एक अधिकारी बनाना तय किया गया था. 
एन सी टी सी के गठन का नोटिफिकेशन ३ फरवरी को जारी किया गया था . उसके बाद से ही विरोध शुरू हो गया. सरकार को इस पर पुनर्विचार के लिए ५ मई को मुख्य मंत्रियों की एक बैठक बुलानी पड़ी. बैठक  के बाद जो बात सबसे ज्यादा बार चर्चा में आई वह एन सी टी सी  को इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधीन रखने को लेकर थी. लगता है कि एन सी टी सी को केंद्र सरकार को इंटेलिजेंस ब्यूरो से अलग करना ही पडेगा .एकाध को छोड़कर सभी मुख्य मंत्रियों ने इस बात पर सहमति जताई  कि आतंकवाद से लड़ना बहुत ज़रूरी है और मौजूदा तैयारी के आगे जाकर उस के बारे में कुछ किया जाना चाहिए .पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री, ममता बनर्जी , तमिल नाडू की मुख्य मानती जयललिता और गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी ने एन सी टी सी के गठन का ही  विरोध किया केंद्र सरकार ने इस बात पर जोर दिया कि आतंकवाद को रोकने के लिए सामान्य पुलिस की ज़रूरत नहीं होती . उसके लिए बहुत की  कुशल संगठन की ज़रुरत होती है और एन सी टी सी वही संगठन है 
मुख्यमंत्रियों के दबाव के बाद केंद्र सरकार को एन से टी सी के स्वरूप में कुछ परिवर्तन करने पड़ेगें .उसकी  कंट्रोल की व्यवस्था में तो कुछ ढील देने  को तैयार है .गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि आतंकवाद कोई सीमा नहीं मानता इसलिए  उसको किसी एक राज्य की सीमा में बांधने का  कोई मतलब नहीं है .आतंकवाद अब कई रास्तों से आता है . समुद्र , आसमान, ज़मीन और आर्थिक आतंकवाद के बारे में तो सबको मालूम है लेकिन अब साइबर स्पेस में भी आतंकवाद है . उसको रोकना  किसी भी देश की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए . . इसलिए  अब तो हर तरह की  टेक्नालोजी का इस्तेमाल करके हमें अपने सरकारी  दस्तावेजों, और बैंकिंग क्षेत्र की सुरक्षा का  बंदोबस्त करना चाहिये . उन्होंने कहा कि हमारे देश की समुद्री  सीमा साढ़े सात हज़ार  किलोमीटर है जबकि १५ हज़ार  किलोमीटर से भी ज्यादा अन्तर राष्ट्रीय बार्डर  है . आतंक का मुख्य श्रोत वही है .. उसको कंट्रोल करने में केंद्र सरकार की ही सबसे कारगर भूमिका हो सकती है उन्होंने कहा कि  इस बात की चिंता करने के ज़रुरत नहीं  कि केंद्र सरकार राज्यों के अधिकार छीन लेगी. बल्कि ज्यों ज्यों राज्यों के  आतंक से लड़ने का तंत्र मज़बूत होता  जायेगा . केंद्र सरकार अपने आपको  धीरे धीरे उस से अलग कर लेगी.


ज़ाहिर है कि मौजूदा पुलिस व्यवस्था से   आतंक को कंट्रोल करना नामुमकिन होगा , अब तक ज़्यादातर मामलों में  वारदात के बाद ही कार्रवाई होती रही है . लेकिन यह सच्चाई कि अगर अपनी  पुलिस को वारदात के  पहले इंटेलिजेंस की सही  जानकारी मिल जाए , पुलिस की सही  लीडरशिप  हो और राजनीतिक  सपोर्ट  हो तो आतंकवाद पर हर हाल में काबू पाया जा सकता है. सीधी पुलिस कार्रवाई में कई बार एक्शन में सफलता के बाद पुलिस को पापड़ बेलने पड़ते हैं  और मानवाधिकार आयोग वगैरह  के चक्कर लगाने पड़ते हैं . पंजाब में आतंकवाद के खात्मे में सीधी  पुलिस कार्रवाई का बड़ा योगदान है. लेकिन अब सुनने में आ रहा है कि राजनीतिक कारणों से उस दौर के आतंकवादी लोग  हीरो के  रूप में  समानित किये जा रहे हैं जबकि पुलिस वाले मानवाधिकार के चक्कर काट रहे हैं . इसी तरह की एक  घटना उत्तर प्रदेश की भी है. बिहार में पाँव जमा लेने के बाद  माओवादियों और अन्य नक्सलवादी  संगठनों ने उत्तर प्रदेश को निशाना बनाया तो  मिर्ज़ापुर से काम शुरू किया .. लेकिन वहां उन दिनों एक  ऐसा पुलिस अफसर था जिसने अपने मातहतों को प्रेरित किया और नक्सलवाद को शुरू होने से पहले ही दफ़न करने की योजना बनायी . बताते हैं कि राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री राज नाथ सिंह से जब आतंकवाद की दस्तक के बारे में बताया गया तो उन्होंने वाराणसी के आई जी से कहा कि आप संविधान के अनुसार अपना काम कीजिये , मैं आपको पूरी राजनीतिक बैकिंग दूंगा. नक्सल्वादियों के किसी ठिकाने का जब पुलिस को पता लगा तो उसने  इलाके के लोगों को भरोसे  में लेकर खुले आम हमला बोल दिया . दिन भर इनकाउंटर  चला ,कुछ लोग मारे गए  .इलाके के लोग सब कुछ देखते रहे लेकिन आतंकवादियों को सरकार की मंशा का पता चल गया और उतर प्रदेश में नक्सली आतंकवाद  की शुरुआत ही नहीं हो पायी.  हाँ यह भी सच है कि बाद में मिर्जापुर के मडिहान में हुई इस वारदात की हर तरह से जांच कराई गयी. आठ साल तक चली जांच के बाद एक्शन में  शामिल पुलिस वालों को  जाँच से निजात मिली लेकिन यह भी तय है कि सही  राजनीतिक और पुलिस  लीडरशिप के कारण दिग्भ्रमित नक्सली आतंकवादी  काबू में किये जा सके. 

लेकिनं इस तरह की मिसालें बहुत कम  हैं. कारगिल की  घुसपैठ और संसद पर आतंकवादी हमले के बाद यह तय है कि सामान्य पुलिस की व्यवस्था के  रास्ते आतंकवाद काक मुकाबला नहीं किया जा सकता . अगर राज्यों के मुख्य मंत्रियों को आई बी की दखलंदाजी नहीं मंज़ूर है तो सरकार को कोई और तरीका निकालना ही पडेगा लेकिन यह ज़रूरी है कि एक विशेषज्ञ पुलिस फ़ोर्स के बिना आधुनिकतम  टेक्नालोजी और हथियारों से लैस  आतंकवादियों को निष्क्रिय नहीं किया जा सकता .