Tuesday, February 7, 2017

आलू,गन्ना,जाट और मुसलमान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नतीजे तय करेगें



शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, ६ फरवरी . पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव बहुत ही दिलचस्प दौर में पंहुच गए हैं . पंजाब और गोवा में मतदान हो चुका है और वहां से से जो संकेत आ रहे हैं उनके कारण केंद्र की शासक पार्टी में गतिविधियाँ तेज़ हो गयी हैं . अब  बीजेपी नेताओं की कोशिश है कि उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में हर हाल में सरकार बनाने लायक या सबसे बड़े दल के रूप में स्थापित होने लायक सीटें जीती जाएँ . बीजेपी के वे नेता जो उत्तर प्रदेश का काम देख रहे हैं, और पार्टियों के प्रवक्ता बार बार दो बातें कहते हैं हैं  . उनका दावा होता है कि वे पिछली  बार से अच्छी संख्या में सीटें लायेगें . ऐसा दावा करते वक़्त उनका आग्रह होता है  कि २०१२  के विधान सभा चुनाव को बेंच मार्क  माना जाए २०१४ के लोकसभा चुनावों में  आये बम्पर बहुमत जो नहीं . दूसरी बात यह कि यह चुनाव प्रधानमंत्री के कामकाज या उनकी नोटबंदी वाली  नीति पर जनमत संग्रह नहीं है . इन बातों से साफ़ ज़ाहिर है कि केंद्र की सत्ताधारी पार्टी उत्तर प्रदेश में अनिष्ट की आशंका से ग्रस्त है .
प्रधानमंत्री की मेरठ और अलीगढ़ की चुनावी रैलियों में उनके भाषण को देखने के बाद ऐसा लगता कि वे उसी मनोदशा में हैं जिसमें उन्होंने पिछले दिनों जालंधर में एक चुनावी सभा को संबोधित किया था .अलीगढ में उन्होंने कहा कि ' पार्टियां उनसे नाराज़ इसलिए हैं किवे गलत काम करने वालों पर स्क्रू कस रहे हैं ' उन्होंने मुकामी ताला उद्योग की दुर्दशा के लिए भी समाजवादी पार्टी को ज़िम्मेदार ठहराया . विकास के अपने प्रिय मुद्दे पर उन्होंने बात नहीं की क्योंकि उसको समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव अपना चुके हैं . २०१४ का लोकसभा चुनाव प्रधानमंत्री ने विकास के वायदे पर जीता था . तीन साल में उनकी सरकार ने विकास के मुद्दे पर कोई ख़ास सफलता  नहीं पाई है . नोटबंदी जैसे विवादित फैसले लेकर कैश की अर्थव्यवस्था को जो नुक्सान पंहुचाया है उसके कारण उस पर निर्भर लोग बहुत परेशान हैं . उधर उनके विपक्ष में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबन्धन बन गया है  जिससे बीजेपी विरोधी वोट एकमुश्त होते नज़र आ रहे हैं.  अमित शाह यह बात कई बार कह चुके हैं कि अगर विपक्षी दल इकठ्ठा हो जाएँ तो उनके लिए मुश्किल तो हो ही जायेगी . उनके इस आकलन की हताशा प्रधानमंत्री के मेरठ के भाषण में भी नज़र आ रही थी  और अलीगढ के भाषण में भी . अलीगढ़ से लगा हुआ आलू के कारोबारियों और किसानों का इलाका है और वहां नोटबंदी के कारण बहुत लोगों के सामने मुसीबतें आई हैं . मेरठ में भी गन्ना किसानों का प्रधानमंत्री की नोटबंदी से बहुत नुक्सान हुआ है . बीजेपी को मालूम है की पश्चिमी  उत्तर प्रदेश का प्रभावशाली जाट समुदाय बीजेपी को हराने के लिए टैक्टिकल वोटिंग कर रहा है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों  के अलावा मुसलमानों का बहुत प्रभाव है. अब तक तो वह समाजवादी पार्टी से नाराज़ होकर मायावती की पार्टी की तरफ जा रहा था लेकिन कांग्रेस-सपा समझौते के बाद उसका रुझान गठबंधन की तरफ हो गया है . मुसलमानों के वोटों को बिखराने के लिए असदुद्दीन ओवैसी का इस्तेमाल भी करने की कोशिश हो रही है लेकिन अभी तक के संकेतों से लगता  है कि उनका  वही हश्र होने वाला  है जो बिहार विधानसभा चुनाव में हुआ था.
उत्तर प्रदेश में जो तीन पार्टियां मुकाबले में  हैं सभी मुसलमानों को अपने साथ लेने के चक्कर में हैं . मायावती  तो अपने दलित वोट में मुसलमानों  को शामिल करके जीत की योजना पर काम कर रही हैं . १०० से ऊपर टिकट देकर मायावती मुसलमानों को अपने साथ लेने का प्रयास बहुत गंभीरता से कर रही हैं .बीजेपी के बड़े नेता रविशंकर प्रसाद का बयान आया है  कि तीन तलाक़ के मुद्दे पर चुनाव बाद सरकार कुछ  करेगी . उनको मालूम है कि मुसलमान बीजेपी को वोट नहीं देगें लेकिन उनकी महिलाओं के वोट को आकर्षित करने की कोशिश जारी है . हालांकि उत्तर प्रदेश की राजनीति का हर जानकार बता देगा कि राज्य का मुसलमान उसी पार्टी को वोट देगा जो बीजेपी को हराने की स्थिति में हो. इसीलिये बीजेपी ने अब  योगी आदित्यनाथ ,विनय कटियार और वरुण गांधी जैसे  लोगों को प्रचार में लागाकर किसी तरह के ध्रुवीकरण की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है . क्योंकि उनको मालूम है कि अगर मुसलमान मायावती से छटकता है तो वह बीजेपी के पास नहीं जाएगा , वह सीधा अखिलेश-राहुल गठबंधन की तरफ जाएगा . और अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस और अखिलेश के ' काम बोलता है ' वाले वोट उत्तर प्रदेश में भी मोदी जी की पार्टी के लिए मुश्किल खड़ी कर सकते हैं  .प्रधानमंत्री के मेरठ और अलीगढ के भाषणों में  अति उत्सुकता का कारण  यही है 

Friday, April 29, 2016

फिल्म " निल बटे सन्नाटा " देखने के बाद

गरीब की माँ का सपना सबसे ताक़तवर होता है

शेष नारायण सिंह

फिल्म ' निल बटे सन्नाटा ' देख कर आया हूँ. स्वरा भास्कर, रिया शुक्ला और अश्विनी तिवारी का फैन हो गया हूँ. अब इनकी हर फिल्म देखूँगा. रत्ना पाठक के अभिनय का पहले से ही कायल हूँ. यह फिल्म  इस कायनात के सबसे बेहतरीन रिश्ते को समर्पित है .यह फिल्म माँ के लिए है .

असंभव सपनों को ज़मीन पर उतार लाने वाले जज्बे की फिल्म है यह . अभिनय वभिनय की परख मुझे नहीं है , फिल्म बनाने की कला का पारखी मैं बिलकुल नहीं हूँ. लेकिन इतना जानता हूँ कि स्वरा और रिया , इन दो लड़कियों ने फिल्म में जिस तरह से अपने अभिनय को प्रस्तुत किया है , वह कम से कम मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा . राजनीति और विचारधारा के धरातल पर सब कुछ बाजारू कर देने  पर आमादा शासक वर्गों के लिए इस फिल्म में एक ज़बरदस्त सन्देश है . गरीबों की मेहनत को चुराकर ऐश करने वाले और सम्पन्नता के आंकड़े पेश कर जनता को बेवकूफ बनाने वाले वर्गों और सपनों के सब्जबाग दिखा कर गरीब को और मजबूर बना देने वालों की साजिश का सही पर्दाफ़ाश है लेकिन यह भी तय है कि शासक वर्ग लामबंद हो चुके हैं , पूंजीवादी साम्राज्यवादी ताकतें उनको पूरी तरह से काबू  में कर चुकी हैं ,उनको हर तरह का समर्थन दे रही है .इसलिए जब एक पंद्रह साल की  दसवीं में पढने वाली लड़की सपनों के मकडजाल को समझती है और उससे बाहर निकलती है तो लगता है कि वह सारी दुनिया को बताकर मानेगी कि गरीब माँ का कोई सपना नहीं होता. सम्पन्न लोगों का सपना होता है और वह हासिल किया जाता है लेकिन गरीब के बेटी का कोई सपना नहीं होता. यह अलग बात है कि इस डायलाग की डिलीवरी के वक़्त भी सन्देश यही है कि गरीब माँ भी सपने देखेगी और उसको साकार भी करेगी .
विश्व बैंक और आई एम एफ के सामने गरीबी की तिजारत करने वालों की इसी मान्यता को चुनौती देने की कोशिश है यह फिल्म. यह सन्देश है कि अगर भाग्य को भूलकर मेहनत करने की ठान ले तो गरीब इंसान के बच्चे भी  सबसे अच्छे विकल्प  तलाश लेते हैं . कामवाली बाई की बेटी  इसलिए आई ए एस बनने को मजबूर हो जाती है क्योंकि वह कामवाली बाई नहीं बनना चाहती . हालांकि यह फिल्म भी एक सपना ही है लेकिन यह संकल्प भी है कि सपने देखना चाहिए क्योंकि सपने से ही गरीब का मुस्तकबिल भी बदल सकता है .
स्वरा भास्कर को हम जानते हैं , एक प्रबुद्ध इंसान है वह . लेकिन मुझसे ३५-४० साल छोटी लड़की इस पूरी फिल्म में  मुझे अपनी माँ की याद दिलाती रही. जिसने मेरे ज़मींदार बाप की जिद को ऐलानियाँ ललकारा और संकल्प लिया कि वह अपने बेटे को शिक्षा का हथियार देगी . हालांकि दसवीं तक तो बाबू भी पढ़ाना चाहते थे लेकिन माँ को मालूम था कि दसवीं के बाद तो बहुत मामूली नौकरी ही मिलेगी. उसने अपने बेटे को ऊंची तालीम देने का फैसला किया . तालीम तो बाद में मिली लेकिन इस फैसले  का नतीजा यह हुआ कि बाबू साहेब से स्थाई दुश्मनी मोल ले ली. हालांकि उनका तर्क भी उनके हिसाब से समझ में आता था कि इतनी खेती बारी छोड़कर दूर शहर में जाने  का क्या मतलब है लेकिन उस माँ ने पंगा लिया और १९६७ से १९७३ तक हर तरह के ताने और अपमान सहे . अपने बेटे के लिए पड़ोसियों से दो चार  रूपये तक उधार लिए लेकिन अपने बेटे को उसके सपनों से हिलने नहीं दिया . इस माँ की बेटियों ने उससे भी कहीं  ज्यादा मुश्किल हालात में अपने बच्चों के सपनों को संभाल कर रखा .इन सभी औरतों को मालूम था कि अगर उनको शिक्षा मिली होती तो  वे अपने  घर के पुरुषों पर निर्भर न होतीं.
एक और लड़की को मैं जानता हूँ . जिसकी माँ ने उसे १९७० में अपने पसंद के लड़के से शादी करने की अनुमति दे दी थी लेकिन उस लडकी के पिता ने उस लड़की का परित्याग कर दिया था . यह लड़की भी माँ  बनी और उसके तुरंत बाद उसके प्रेमी पति ने उसको अपमानित किया और दोनों अलग हो गए. अपने बच्चों के के लिए इस माँ के शेरनी  की तरह के स्वरुप को हमने देखा है ,  अपने दोनों ही बेटों के सपनों को  शक्ल देने के लिए ही सब कुछ किया और शान से जिंदा रहीं . आज भी हैं और उनके सामने बहुत सारे लोगों के सर सम्मान से झुकते हैं .
 एक और माँ . जिसने कोई शिक्षा नहीं पाई लेकिन अपने बच्चों को सबसे अच्छी शिक्षा देने का संकल्प  १९७५ में अपनी पहली औलाद के जन्म के साथ साथ ले लिया था. इस माँ को खुद नहीं मालूम था कि अच्छी शिक्षा क्या होती है . अभाव की ज़िंदगी जीते हुए उसने अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा दिलवाई कि उसके तीनों बच्चे आज अपने अपने क्षेत्रों में बुलंदी पर हैं . इस माँ का एडवांटेज यह था कि इसका पति उसकी हर बात मानता था . आज जब उस माँ के बच्चे उसके हर सुख का ख्याल रखते हैं तो लगता  है कि उसकी तपस्या का इसी जन्म में नतीजा मिल रहा  है .
सुल्तानपुर जिले के बहुत सारे गाँवों में ठाकुरों के परिवार में भी खेती लायक  बहुत कम ज़मीन होती है .मेरे गाँव में इसी तरह का एक परिवार था .मेरे गाँव की एक माँ ने  १९६० में तय किया कि उसके बेटे को गाँव में रहकर दूसरों के खेतों में मजदूरी नहीं करना है . उसे बम्बई जाना  है. उसे नहीं मालूम था कि बम्बई में क्या करना होगा लेकिन उसे इतना मालूम था कि जब लोग बम्बई से कमाकर लौटते हैं तो गांव में जो भी ज़मीन बिकाऊ होती है उसे खरीद सकते हैं. उसने अपने किसी रिश्तेदार से चिरौरी की और अपने २२ साल के बेटे को बम्बई के लिए तैयार कर दिया . मेरे गांव में उन दिनों  नौजवान लड़के  पटरा  का जांघिया  पहनते थे . लेकिन बंबई जाने के लिए तो बिना गोडंगा ( पायजामा ) के काम नहीं चलने वाला था. चार रूपये का महुआ बेचकर का गोडंगा सिलवाया और बेटे को मुंबई  उसके और अपने सपनों की तलाश में भेज दिया . काम लग गया और आज वह लड़का ७८ साल का बुज़ुर्ग है , उसके सारे  बच्चे आराम से हैं और उसकी वह माँ अपना फ़र्ज़ पूरा करके स्वर्ग में विराजती है .

ऐसी बहुत सारी यादें हैं और इन यादों  के साथ यह भरोसा भी है कि अगर माँ तय कर ले तो उसके बच्चे अपने सपनों को साकार कर  सकते हैं  क्योंकि हर माँ चम्पा होती है और हर बच्चा अप्पू होता है.

Wednesday, April 27, 2016

संविधान के हिसाब से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक अल्पसंख्यक संस्थान है


शेष नारायण सिंह


अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को दबोच लेने की केंद्र सरकार की तैयारी शुरू हो गयी है . जब भी बीजेपी वाले सरकार में आते हैं , शिक्षा संस्थानों को काबू  में करने की कोशिशों को तेज़ कर देते हैं .जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में डॉ मुरली मनोहर जोशी शिक्षामंत्री थे तो उन्होंने एक आई ए एस अफसर को फुलटाइम इसी काम पर लगा दिया था और उस अफसर ने  सबसे पहले भारतीय प्रबंध संस्थानों (आई आई एम ) को निशाना बनाया था. लेकिन सरकार को मुंह की खानी पड़ी थी . दो बातें थीं -- एक तो आई आई एम के पुराने छात्रों का दुनिया भर में दबदबा था उन्होंने हर तरफ से केंद्र सरकार पर दबाव डलवाया  . दूसरी बात यह थी कि वाजपेयी  सरकार को  जोड़गाँठ कार बनाया गया था . स्पष्ट बहुमत नहीं था.  उस  सरकार के पास मनमानी करने का अधिकार नहीं था. एक बात और थी कि उस समय  के मानव संसाधन विकास मंत्री  डॉ मुरली मनोहर जोशी ने देश की राजनीतिक सत्ता के प्रबंधन में छात्र राजनीति की ताकत को देखा था. जीवन भर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रहे थे और उनको मालूम था कि छात्र समुदाय को परेशान करने की राजनीति सरकार के खिलाफ बहुत बड़े वर्ग को लामबंद कर देती है .

मौजूदा बीजेपी सरकार बिलकुल अलग है .उसके पास ऐसा शिक्षामंत्री नहीं है जिसको अंदाज़ हो कि विश्वविद्यालय के अन्दर की राजनीति बाहर की दुनिया को कैसे प्रभावित करती है .इस सरकार को लोकसभा में भारी बहुमत है इसलिए किसी और राजनीतिक पार्टी की बात को स्वीकार करने की मजबूरी उसके पास नहीं है . शिक्षा संस्थानों को केंद्र सरकार के अफसरों और नेताओं की मर्जी से चलाने के एजेंडे पर बेख़ौफ़ काम किया जा सकता है . इसी योजना के तहत जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को काबू में किया जा रहा है . हालांकि उसमें भी उन्होंने एक शोधछात्र ,कन्हैया कुमार को विपक्षी राजनीति का हीरो बना दिया है . जिस तरह से बीजेपी की राज्य सरकारें और उनके छात्र संगठन  कन्हैया को घेर रहे हैं , ऐसा लगने लगा है कि वह विपक्षी एकता का सूत्र बन जाएगा  . इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.आजकल अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी  भी केंद्र सरकार की उस नीति के लपेटे में आ गयी है  जिसके तहत शिक्षा संस्थाओं में अपनी विचारधारा चलाने के लिए अपने बन्दों को स्थापित किया जाना है .केंद्र सरकार की कोशिश है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को माइनारिटी संस्थान होने का जो अवसर मिला है उसको ख़त्म कर दिया जाए. इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में डॉ मनमोहन सिंह सरकार के वक़्त दिए गए एक हलफनामे को वापस ले लिया गया है जिसमें कहा गया था कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक माइनारिटी संस्थान है. मामला कोर्ट में है और केंद्र सरकार और बीजेपी की प्रवक्ताओं ने बहस को शुद्ध रूप से  कानूनी दांव पेंच में उलझा दिया है . अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का दुर्भाग्य है कि उसके पुराने छात्रों में ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने अलीगढ के अल्पसंख्यक स्वरुप की राजनीति पर अपनी सियासत चमकाई लेकिन उन्होंने अपनी यूनिवर्सिटी के बारे में देश को सही राय कायम करने में मदद नहीं की, सही जानकारी का प्रचार नहीं कर पाए . यह काम कुछ ऐसे बुद्धिजीवियों के जिम्मे आ पड़ा है जो या तो अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र हैं या न्याय के पक्ष में कहीं भी खड़े होना जिनके मिजाज़ में शामिल है .

  अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के विवाद का जो पक्ष कोर्ट में हैं वह तो वहीं लड़ा जाएगा .लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि इस सन्दर्भ में भारत के संविधान की क्या  पोजीशन है .  १९८३ में सुप्रीम कोर्ट ने एस पी मित्तल बनाम केंद्र सरकार के केस में फैसला सुनाते हुए संविधान के आर्टिकिल ३०( १) के हिसाब से अल्पसंख्यक संस्थान की व्याख्या कर दी थी . इसी आर्टिकिल ३० के अनुसार ही अल्पसंख्यक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन होता है .. उस महत्वपूर्ण फैसले में तीन बातें कही गयी थीं . यह कि शिक्षा संस्थान की स्थापना किसी धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के एक सदस्य या बहुत सारे सदस्यों द्वारा  की गयी थी. दूसरी बात कि क्या शिक्षा संस्थान की स्थापना अल्पसंख्यक समुदाय के लाभ के लिए की गयी थी और तीसरा कि क्या शिक्षा संस्थान का संचालन अल्पसंख्यक समुदाय की तरफ से किया जा रहा  हैं . इन तीनों ही कसौटियों पर अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी  को जांच कर देखा जा सकता है  कि यह एक अल्पसंख्यक संस्थान है  और संविधान के आर्टिकिल ३०(१ ) को पूरी तरह से संतुष्ट करता है .
अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पर जो मौजूदा विवाद खड़ा किया गया है उसकी बुनियाद में १९२० का तत्कालीन ब्रिटिश भारत की संसद का वह एक्ट है जिसके तहत अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी   की स्थापना की गयी थी . यह समझ बिक्लुल बेकार है . गलत है . १९२० में जिस यूनिवर्सिटी  की स्थापना की गयी थी उसकी स्थापना में तत्कालीन सरकार ने एक पैसे का खर्च  नहीं किया , कोई इमारत नहीं  बनवाई , कोई कोर्स नहीं शुरू किया कोई कर्मचारी नहीं भरती किया , कुछ नहीं किया . भारत की उस वक़्त की  संसद ने केवल एक एक्ट पास कर दिया जिसके बाद  सर सैयद अहमद खां द्वारा १८७५ में मुसलमानों के बीच आधुनिक शिक्षा का प्रचार प्रसार करने के लिए स्थापित किया गया मदरसातुल उलूम जिसे बाद में एम ए ओ कालेज कहा गया ,का नाम अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी हो गया . इस बात की जानकारी १ दिसंबर १९२० को गजट आफ इण्डिया के पार्ट १, पेज २२१३ में प्रकाशित कर दी गयी. यह है अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी   की स्थापना की सच्चाई . यानी एक शिक्षा संस्थान पहले से चल रहा था , इसको  मुसलमानों ने मुसलामानों के बीच आधुनिक शिक्षा के लिए स्थापित किया था और उसका  संचालन और प्रबंधन मुसलमानों की  संस्था ही कर रही थी . वह जैसा भी था , जो भी था उसको १९२० की सरकार ने अपना लिया. एस पी मित्तल बनाम केंद्र सरकार के सुप्रीम कोर्ट के १९८३ के आदेश में जो भी बातें कही हाई हैं वे सब अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान साबित करने के लिए सही बैठती हैं  .इसलिए  केंद्र सरकार को अपना एजेंडा लागू करने के लिए अल्पसंख्यकों के अधिकारों से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए .

यहाँ यह भी   साफ़ कर देना ज़रूरी है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी   केवल एक शिक्षा संस्थान ही नहीं है .यह एक दूरद्रष्टा, सर सैयद अहमद खां के इस विज़न का नतीजा है जिसके अनुसार वे मुसलमानों के पिछड़ेपन के खिलाफ एक मुहिम चला रहे थे.  उसके लिए उनको क्या क्या नहीं झेलना पड़ा . दरअसल एक सरकारी प्रशासनिक अफसर के रूप में वे तैनात थे जब १८५७ के दौरान उनके शहर दिल्ली को अंग्रेजों ने तबाह कर दिया था. जब शान्ति  स्थापित होने के बाद वे बिजनौर से घर आये तो उन्होंने देखा कि क्या तबाही मची है . अंग्रेजों के गुस्से के शिकार १८५७ में सभी भारतीय हुए थे लेकिन मुसलमानों की  संख्या ज़्यादा थी . उनकी समझ में यह बात अच्छी तरह से आ गयी कि अगर मुसलमानों को अपनी सामाजिक और राजनीतिक पहचान बनाए रखना है तो उनको अंग्रेज़ी भाषा और साइंस की तालीम ज़रूरी तौर पर लेनी होगी .उन्होंने देखा कि ज़हालत से बाहर निकलने के लिए तालीम ज़रूरी है. इसी सोच के तहत गरीब और पिछड़े मुसलमानों  की शिक्षा के लिए उन्होंने १८५७ के बाद से ही काम शुरू कर दिया था. मुसलमानों के लिए बहुत सारे स्कूल खोले . १८६३ में साइंटिफिक सोसाइटी नाम की एक संस्था भी बना दी . १८६६ में अलीगढ इंस्टीटयूट गज़ट  छापना शुरू कर दिया . शिक्षा के बारे में दकियानूसी ख्यालात रखने वालों ने इसका खूब विरोध किया लेकिन वे डिगे नहीं , डटे रहे. तहजीबुल अखलाक नाम का एक और जर्नल निकाला जो मुसलमानों की आद्धुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा की शुरुआत के लिए एक दस्तावेज़ और मुकाम माना जाता है .
इसका मतलब यह है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी १९२० के एक एक्ट से नहीं स्थापित हुयी . उसकी स्थापना के लिए इस्लामी समझ की पुरानी  व्याख्या करने वालों से सर सैय्यद को पूरा युद्ध करना पडा था, बहुत सारे ऐसे लोगों को साथ लेना पड़ा था जो विरोध कर रहे थे और तब जाकर मुसलमानों के  शिक्षा केन्द्रों की  स्थापना हुयी थी. उनमें से एक एम ए ओ  कालेज को १९२० में एक्ट पास  करके अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी नाम दे दिया गया . बस.

 भारत सरकार का यह फ़र्ज़ है कि वह देश को और दुनिया को बताये  सर सैय्यद ने एक आन्दोलन के नतीजे के रूप में अलीगढ की स्थापना की थी. उनका सपना था कि उनका एम ए ओ कालेज एक यूनिवर्सिटी के रूप में जाना जाए . उनके इंतकाल के बाद भी लोग उनके सपनों को एक रूप देने में लगे रहे और १९२० क आयक्त केवल उन सपनों की तामीर  भर है , उससे ज़्यादा कुछ नहीं . शायद उन लोगों  को यह अंदाज़ भी नहीं रहा होगा कि सर सैय्यद के शिक्षा संस्थान को अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी नाम दिए जाने करीब एक सौ साल बाद राजनेताओं की एक ऐसी बिरादरी आयेगी जो उनके सपनों को अदालती और टीवी चैनलों के बहस मुबाहिसों में फंसा देगी . 

Monday, April 25, 2016

बुंदेलखंड को चुनावी मुद्दा बना सकते हैं अखिलेश यादव



शेष नारायण सिंह


पांच विधान सभाओं के चुनावों के नतीजे एक महीने के अन्दर आ जायेगें . असम, बंगाल , तमिलनाडु और केरल में सत्ताधारी  पार्टियों के चुनाव हार जाने की संभावना पर चर्चा शुरू हो गयी है . पश्चिम बंगाल के चुनावों के बारे में लेफ्ट फ्रंट-कांग्रेस जोत के आकार लेने के पहले ममता बनर्जी अजेय मानी जा रही थीं लेकिन अब उनकी कुर्सी भी डगमगा रही है , प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐलान कर दिया है कि जिस तरीके से  तीसरे दौर के मतदान के दिन पश्चिम बंगाल के चारों जिलों में हिंसा का आतंक छाया रहा वह इस बात का संकेत है कि दीदी हार मान चुकी हैं .१९ मई के नतीजों में अगर बीजेपी  असम में सरकार बना लेती है तो नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ेगी लेकिन अगर नहीं भी बनाती तो भी कोई फर्क नहीं पडेगा क्योंकि २०१६ के विधान सभा चुनाव वाले राज्यों में बीजेपी के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है.
लेकिन २०१७ के  विधान सभा चुनाव में बीजेपी की प्रतिष्ठा दांव पर होगी. पंजाब में उनकी सरकार है जो बहुत ही अलोकप्रिय हो गयी है . बीजेपी के पार्टनर ,अकाली दल वाले चारों तरफ आलोचना के शिकार हो रहे हैं . हालांकि इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव के पहले बीजेपी का राष्ट्रीय नेतृत्व अकाली दल से पल्ला झाड़ने का फैसला ले ले क्योंकि केंद्र की सरकार चलाने के लिए उनको  अकाली दल की कोई ज़रुरत नहीं है . चर्चा शुरू हो गयी है कि अगर पंजाब में गठबंधन से अलग हो जाएँ तो प्रकाश सिंह बादल परिवार के  भ्रष्टाचार और कथित ड्रग कारोबार के आरोपों से  किनारा किया जा सकता है . बहरहाल पंजाब की राजनीति का  स्वरुप मौजूदा चुनावों के बाद तय होना शुरू होगा .
२०१७ के विधानसभा चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तरप्रदेश होगा . हालांकि वहां बीजेपी की सरकार नहीं है लेकिन २०१४ के चुनावों में बीजेपी ने ७१ और उसकी सहयोगी पार्टी अपना दल ने २ सीट जीतकर यह साबित कर दिया था  कि उत्तर प्रदेश में वह बहुत मज़बूत है . उस जीत के बाद ,वर्तमान बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तरप्रदेश के इंचार्ज के रूप में बहुत नाम कमाया और आज पार्टी के राष्ट्रीय  अध्यक्ष हैं . उत्तर प्रदेश में उनकी रूचि होना स्वाभाविक भी है . अभी तक माना जा रहा था कि २०१७ में बीजेपी को राज्य में बड़ी जीत मिलेगी लेकिन अब बीजेपी वाले  कहने लगे हैं  कि राज्य में समाजवादी पार्टी की तो हार  होगी लेकिन सत्ता मायावती के हाथ चली जायेगी . मायावती को अगला मुख्यमंत्री  मानने वाले तो समाजवादी पार्टी में भी हैं . नई दिल्ली में पार्टी से  जुड़े कई लोगों ने इस बात को बहुत भरोसे के साथ बताया कि उनकी पार्टी हार रही  है . यह महत्वपूर्ण संकेत था लेकिन जब उनकी इस भविष्यवाणी को सच्चाई की  कसौटी पर जांचा गया तो पता लगा कि उनको गुस्सा अपनी पार्टी  से नहीं , उस मुख्यमंत्री से है जो आजकल उन लोगों के धंधे पानी की सिफारिशों को नज़रंदाज़ कर रहा है . लेकिन दिल्ली में रहने वालों को यह अक्सर सुनने को मिल जाता है कि उत्तर प्रदेश में  बहन जी की सरकार आ रही  है . ज़ाहिर है इन बयानों को ज़मीनी धरातल पर  जांच करने  की ज़रूरत थी. इसके लिए पिछले एक  महीने में इस संवाददाता ने उत्तर प्रदेश की तीन  यात्राएं कीं . क्योंकि राजनीति की रिपोर्टिंग करने वाला कोई भी पत्रकार बता देगा कि बिना गावों , शहरों और सडकों पर घूमे बिलकुल अंदाज़ नहीं लगता कि राज्य की राजनीतिक हवा किस तरफ को बह रही है .

उत्तर प्रदेश की इन तीन यात्राओं में एक  पूर्वी उत्तर प्रदेश, दूसरी, लखनऊ  अगर और तीसरी  बुंदेलखंड के सूखा प्रभावित  इलाकों की है . बुंदेलखंड में तो राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से बातचीत भी हुयी .  अखिलेश यादव ने दावा किया कि बुन्देलखंड में उन्होंने विकास को प्राथमिकता बनाया है लेकिन फिलहाल उनका मिशन अगले तीन महीने तक उन लोगों के घरों में राशन  पंहुचाना है जिनके यहाँ सूखे के कारण खाने के लिए कुछ भी नहीं है . यह सारा राशन मुफ्त में दिया जा रहा है . ललितपुर जिले के लोगों से बात हुयी तो पता चला कि वहां विकास की बहुत सारी योजनायें भी चल रही  हैं . बाँध,नहर, तालाब आदि पर काम इस सरकार के आने के पहले से भी हो रहा है लेकिन फिलहाल प्राथमिकता  लोगों को भूख से मरने से बचाना है और अखिलेश यादव की सरकार की हर घर में आटा ,दाल , चावल, नमक और तेल पंहुचाने की जो योजना है . वह साफ़ नज़र आती  है . मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से जब पूछा गया  कि बुंदेलखंड पर इतना ज्यादा ध्यान क्यों दे रहे हैं , क्या इस इलाके से २०१७ और २०१९ में चुनावी लाभ लेने की मंशा है तो उन्होंने कहा कि इस वक़्त जो हालात हैं , उसमें चुनाव की बात का कोई मतलब नहीं है . लोगों को अगले तीन महीने तक भूख से बचाना उनकी प्राथमिकता  है . चुनाव की बाद में देखी जायेगी . कोई भी नेता किसी भी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को चुनावी मुद्दा नहीं बनाता   लेकिन  साल भर के अन्दर होने वाले चुनावों पर इसका असर पड़ता ज़रूर है . बुंदेलखंड कांग्रेस , बीजेपी और बहुजन समाज पार्टी का प्रभाव क्षेत्र रहा है . लेकिन इस बार समाजवादी पार्टी की  तरफ से भी  बड़ा काम किया जा रहा है . मुख्यमंत्री से बातचीत करते समय ऐसा लगा कि वे यहाँ पर मुख्य चुनौती बीजेपी की तरफ से मान रहे हैं . उनको जब बताया गया कि बेतवा नदी पर एरच बाँध तैयार है  लेकिन उससे कोई फ़ायदा नहीं हो रहा है क्योंकि सिचाई विभाग पानी नहीं उपलब्ध करवा रहा है जबकि जल निगम वाले पानी के वितरण का इंतज़ाम  नहीं कर रहे हैं . अखिलेश यादव  इस सवाल से साफ़ निकल गए और केंद्र सरकार पर हमलावर हो गए. शायद उनको अंदाज़ लग गया था कि जल निगम और सिंचाई  विभाग के बहाने उनकी पार्टी के कुछ नेताओं का विवाद खड़ा करने की कोशिश हो रही है और वे पार्टी के बड़े नेताओं  के बारे में  टिप्पणी करने से बचते रहे  हैं . उन्होंने कहा  कि बुंदेलखंड का ललितपुर जिला तीन तरफ से मध्य प्रदेश के जिलों से घिरा  हुआ  है. वहां भी ऐसी ही स्थिति है , मध्यप्रदेश की सरकार क्यों कुछ नहीं कर  रही  सूखे का मुकाबला करने के लिए उत्तर प्रदेश की सरकार युद्ध स्तर पर काम कर रही है . झांसी, बांदा, महोबा, चित्रकूट,जालौन, हमीरपुर और ललितपुर जिलों में फौरी तौर पर भूख के खिलाफ और दूरगामी नतीजों  वाले बांधों. नहरों, पेयजल सुविधाओं आदि पर काम हो रहा है लेकिन इन्हीं जिलों के पड़ोसी मध्यप्रदेश में स्थित , पन्ना , दतिया, टीकमगढ़, सागर, दमोह और छतरपुर जिलों में कोई काम नहीं हो रहा है . ज़ाहिर है कि मुख्यमंत्री का यह हमला राजनीतिक है. ऐसा लगा कि वे बुंदेलखंड की स्थिति पर केंद्र सरकार को घेरना चाहते हैं . जब पूछा गया कि केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि केंद्र से आर्थिक सहायता भेजी जा रही है लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार उसका सही इस्तेमाल नहीं कर रही है तो जवाब बिकुल राजनीतिक मिला.  अखिलेश यादव ने कहा  कि बीजेपी खेल खेलने में उस्ताद है . बुन्देलखंड में समाजवादी पार्टी की सरकार दुर्भाग्यपूर्ण हालात से निपटने के लिए विकास का राठ माडल अपना रही है .जहां तक केंद्र सरकार की बात है , उसने राज्य सरकार को वह पैसा भी नहीं  भेजा है जो उसका  अधिकार है . अतिरिक्त धन की तो कोई बात हो ही नहीं रही है लेकिन उनकी सरकार अपने संसाधनों से ही काम करेगी और बुन्देलखंड में सूखे से परेशान लोगों को उबारने के लिए हर कोशिश की जायेगी

इस अवसर पर मीडिया के सहयोग से  सरकार को घेरने की कोशिश को भी  मुख्यमंत्री ने राजनीतिक स्वार्थ की बात बताई . घास की रोटी खाने की बात को मुद्दा बनाने की कोशिश भी की गयी. उन्होंने कहा कि जहां घास की रोटी खाने वाली  कहानी ने जन्म लिया , वह गाँव इसी जिले  में है और वे वहां जाकर सब खुद   देखेगें . हालांकि घास की रोटी वाली राजनीतिक मुहीम की हवा पहले ही निकल चुकी है क्योंकि कई अखबारों में इस ब्लफ का  जवाब मीडिया ने ही दे दिया है . घास देश के ग्रामीण इलाकों का एक पौष्टिक आहार है . और जो भी उत्तरप्रदेश को जानता है उसे मालूम है कि घास की रोटी उस घास की रोटी  नहीं है जिसे जानवर खाते हैं . यह बात वैज्ञानिक रूप से भी सिद्ध  हो चुकी है बुंदेलखंड के कई इलाकों में एक तरह की घास, फिकार की खेती की जाती है। इसका बाजार में बीज भी मिलता है। फिकार की खास बात ये है कि यह सालों तक रखे रहने के बाद भी खराब नहीं होता। इसमें घुन नहीं लगता है। इसका भात भी बनता है और रोटी भी . खेतों में फिकार के साथ ही पसईकुटकीकोदूसवा,बथुआग्वार की फलीपमरऊआचकुदिया और लठजीरा जैसी चीजें अपने आप उग आता है. और यह सब खाया जाता है . यह बकायद भोजन है .शहर के लोगों ने खाने की आदत में शामिल नहीं किया हैजबकि बुंदेलखंड के कई हिस्सों में इसकी खेती भी की जाती है। फिकार की जून में खेती होती है और यह भोजन है .
इस सारी जानकारी के  अखबारों के ज़रिये पब्लिक डोमेन में आ जाने के बाद भी अखिलेश यादव ने उस गाँव का दौरा किया जहां घास की रोटी को मुद्दा बनाने की कोशिश की गयी थी. ऐसा लगा कि वे इस मुद्दे को भी  विपक्ष को घेरने के काम में इस्तेमाल करने वाले हैं .बुंदेलखंड में उनकी सरकार की कोशिश  की अगर  व्याख्या की जाए तो तस्वीर साफ होने लगती  है . इस इलाके से कांग्रेस, बीजेपी और बहुजन समाज पार्टी ने राजनीतिक लाभ लिया है लेकिन सरकार की  कोशिश यह है कि वे यह बात साबित कर दें कि बीजेपी के असहयोग के बावजूद भी वे अपने हिस्से वाले बुंदेलखंड के लोगों के साथ खड़े हैं जबकि पड़ोस के मध्य प्रदेश वाले कुछ भी नहीं कर रहे हैं . मध्यप्रदेश की बीजेपी सरकार की कमी को केंद्र सरकार और राज्य बीजेपी को  घेरने के औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने की मुख्यमंत्री की कोशिश इस बात का साफ़ संकेत है कि २०१७ के चुनावों में वे बुंदेलखंड को मुख्य मुद्दों में शामिल करना चाहते हैं . बुंदेलखंड के अलावा  राज्य के बाकी इलाकों में अखिलेश यादव बिजली सड़क और स्वास्थय सेवाओं को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं .राज्य के तीन दौरों में यह साफ़ नज़र आ रहा था कि बिजली सड़क पानी की स्थिति भी मौजूदा सरकार के पक्ष में जाता है इसलिए अभी उन  विश्लेषकों को थोडा इंतज़ार करना पड़ेगा जिनके लेख और सर्वे उत्तर प्रदेश में  भांति  भांति के  भविष्यवाणी कर रहे हैं .

कश्मीर की हालात के लिए केवल राजनेता ज़िम्मेदार


शेष नारायण सिंह

कश्मीर एक बार फिर उबाल पर है. उत्तरी कश्मीर के हंदवारा कस्बे में मरने वालों की संख्या चार हो गयी  है .कश्मीर घाटी में चौतरफा विरोध प्रदर्शन हो रहा  है और हालत बहुत ही तनावपूर्ण है .सेना के आला अफसर हंदवारा हो आये हैं और सेना की तरफ से हुई गोलीबारी को अफसोसनाक बताकर अपनी ड्यूटी कर चुके हैं .आरोप तो यह भी लगा था कि एक लड़की के साथ बलात्कार भी हुआ है लेकिन अब उसका बयान आ गया है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ. कुछ मुकामी नौजवानों ने ही उसको परेशान किया था .लेकिन यह सच है कि अपने ही घर में काम कर रही एक अन्य महिला की गोलीबारी में मौत हो गयी है .  अलगाववादियों के साथ सहानुभूति रखने वाली और कुछ हलकों में उनकी समर्थक के रूप में नाम कमा चुकी महबूबा मुफ़्ती  और बीजेपी गठ्बंधन सरकार का बड़ा इम्तिहान हो रहा है .

पिछले कई दशकों से कश्मीर में होने वाली अशांति के कारणों में सरकारी कर्मचारियों की भूमिका को गैरजिम्मेदाराना बताकर राजनीतिक बिरादरी अपना पल्ला झाड़ लेती रही है . इस बार ही यह कार्य हो चुका है . एक मामूली पुलिस वाले को मुअत्तल कर दिया गया है क्योंकि बड़े अफसरों की नज़र में सारी गड़बड़ी के लिए वही ज़िम्मेदार है .

कश्मीर का दुर्भाग्य यह रहा है कि सरदार पटेल के अलावा हमारे सभी नेताओं ने भारत में कश्मीर के विलय को फाइनल कभी नहीं माना और उसको हमेशा  पाकिस्तान के संदर्भ में देखते रहे .कश्मीर में हमेशा से ही पाकिस्तान बदमाशी करता रहा है और स्व. शेख अब्दुल्ला के अलावा किसी नेता ने पाकिस्तान को औकात में रखने की कोशिश नहीं की. सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला की कोशिश का नतीजा था  कि पाकिस्तान समर्थक राजा हरि सिंह को मजबूर किया गया कि वह अपनी रियासत को भारत में विलय करने के दस्तावेज़ पर दस्तखत कर दे . उसके ऊपर जिन्ना ने  कबायली हमला करवा दिया था जिसमें पाकिस्तानी फौज भी शामिल थी . उसका प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास सैनिक मदद  मांगने दिल्ली आया था . लेकिन सरदार पटेल ने कहा कि जब तक कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं बन जाता हमारी  फौजें वहां नहीं जायेगीं .  इसी हालत में राजा ने दस्तखत किया और भारतीय सेना ने  कश्मीर घाटी से  कबायली पोशाक में घुस आयी पाकिस्तानी फौज को भगाया .उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरी अवाम के हीरो हुआ करते थे . हिन्दू मुस्लिम सब उनके साथ होते थे .

लड़ाई में पाकिस्तानी पराजय के बाद कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया .संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे उस दौर में पाकिस्तान कश्मीर में जनमतसंग्रह का विरोध करता था.शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयीऔर शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता थाने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसका ड्राफ्ट कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने तैयार किया था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थेजवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकंद में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. 
भारत में उसके बाद अदूरदर्शी शासक आते गए. हद तो तब हुए जब राजीव गांधी के प्रधान मंत्रित्व के दौरान अरुण नेहरू ने शेख साहेब के दामाद ,गुल शाह हो मुख्यमंत्री बनावाकर फारूक अब्दुल्ला से बदला ने की कोशिश की . एक बार फिर साफ़ हो गया कि दिल्ली वाले कश्मीरी अवाम के पक्षधर नहीं हैं वे तो कश्मीर पर हुकूमत करना चाहते हैं . उसके बाद एक से एक गलतियाँ होती गयीं. जगमोहन को राज्य का गवर्नर बनाकर भेजा गया . उन्होंने जो कुछ भी किया उसे कश्मीरी जनता ने पसंद नहीं किया. मौजूदा मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की बहन का अपहरण करके आतंकवादियों ने साबित कर दिया कि वे कश्मीरी जनता को भारत के खिलाफ कर चुके हैं . बाद में तो भारत की सेना ने ही कश्मीर को सम्भाला. और हालात बाद से बदतर होते गए . ज़रुरत इस बात की है कि कश्मीर में वही माहौल एक बार फिर पैदा हो जो १९५३ के पहले था. वरना पता नहीं कब तक कश्मीर का आम आदमी राजनीतिक स्वार्थों का शिकार होता रहेगा.

डॉ आंबेडकर का इस्तीफ़ा नेहरू के कारण नहीं हुआ था



शेष नारायण सिंह

दिसंबर का पहला हफ्ता डॉ भीमराव आंबेडकर के महापरिनिर्वाण का है और  अप्रैल का दूसरा हफ्ता उनके जन्मदिन का . यह दोनों ही अवसर इस देश के वोट के याचकों के लिए पिछले २० वर्षों से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है . डॉ आंबेडकर का महत्व भारत की अस्मिता में बहुत ज़्यादा है लेकिन उनको इस देश की जातिवादी राजनीति के शिखर पर बैठे लोगों ने आम तौर पर नज़र्नादाज़ ही किया . लेकिन जब  डॉ भीमराव आंबेडकर के नाम पर राजनीतिक अभियान चलाकर उत्तर प्रदेश में एक दलित महिला को मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला तब से डॉ  आंबेडकर के अनुयायियों को अपनी तरफ खींचने की होड़ लगी हुयी है . इसी होड़ में बहुत सारी भ्रांतियां भी फैलाई जा रही हैं . उन भ्रांतियों को दुरुस्त करने की ज़रुरत आज से ज़्यादा कभी नहीं रही थी.
डॉ बी आर आंबेडकर को संविधान सभा में महत्वपूर्ण काम मिला था. वे ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे. उनको भी उम्मीद नहीं थी कि उनको इतना महत्वपूर्ण कार्य मिलेगा लेकिन संविधान सभा के गठन के समय  महात्मा गांधी जिंदा थे और उनको मालूम था कि राजनीतिक आज़ादी के बाद आर्थिक आज़ादी और सामाजिक आज़ादी की लड़ाई को संविधान के दायरे में ही लड़ा जाना है और उसके लिए डॉ आंबेडकर से बेहतर कोई नहीं हो सकता .
संविधान सभा की इस महत्वपूर्ण कमेटी के अध्यक्ष के रूप में डा.अंबेडकर का काम भारत को बाकी दुनिया की नज़र में बहुत ऊपर उठा देता  है . यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि संविधान सभा कोई ऐसा मंच नहीं था जिसको सही अर्थों में लोकतान्त्रिक माना जा सके. उसमें १९४६ के चुनाव में जीतकर आये लोग शामिल थे. इस बात में शक नहीं है  कि कुछ तो स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी थे लेकिन एक बड़ी संख्या ज़मींदारों , राजाओं , बड़े सेठ साहूकारों और अंग्रेजों के चापलूसों की थी . १९४६ के चुनाव में वोट देने का अधिकार भी भारत के हर नागरिक के पास नहीं था. इनकम टैक्स, ज़मींदारी और ज़मीन की मिलकियत के आधार पर ही वोट देने का अधिकार  मिला हुआ था . इन लोगों से एक लोकतांत्रिक और जनपक्षधर संविधान पास करवा पाना बहुत आसान नहीं था . महात्मा गांधी का सपना यह भी था कि सामाजिक न्याय भी हो , छुआछूत भी खत्म हो . इस सारे काम को अंजाम दे सकने की क्षमता केवल डॉ आंबेडकर में थी और उनका चुनाव किया गया. कोई एहसान नहीं किया गया था .
 डॉ आंबेडकर ने आज से करीब सौ साल पहले कोलंबिया विश्वविद्यालय के अपने शोधपत्र में जो बातें कह दी थीं , उनका उस दौर में भी बहुत सम्मान किया गया था और वे सिद्धांत आज तक बदले नहीं हैं . उनकी सार्थकता कायम है .जिन लोगों नेडॉ भीमराव आंबेडकर को सम्मान दिया था उसमें जवाहरलाल नेहरू का नाम सरे-फेहरिस्त है लेकिन  आजकल एक फैशन चल पडा है कि नेहरू को हर गलत काम के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाय. कुछ लोग यह भी कहते पाए जा रहे हैं कि डॉ भीमराव आंबेडकर  ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा नेहरू से परेशान हो कर दिया था. यह सरासर गलत है . २९ सितम्बर १९५१ के अखबार हिन्दू में छपा है कि कानून मंत्री डॉ बी आर आंबेडकर ने २७ सितम्बर को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था . उनके इस्तीफे का कारण यह था कि संविधान के लागू हो जाने के बाद  तत्कालीन संसद में लगातार हिन्दू कोड बिल पर बहस को टाला जा रहा था और डॉ  बी आर आंबेडकर इससे बहुत निराश थे. उन दिनों कांग्रेस के अन्दर जो पोंगापंथियों का बहुमत था वह जवाहरलाल नेहरू और डॉ आंबेडकर की चलने नहीं  दे रहा था .  इस्तीफ़ा देने के कई दिन बाद तक जवाहरलाल ने मंज़ूर नहीं किया था लेकिन जब डॉ आंबेडकर ने बार बार आग्रह किया तो उन्होंने कहा कि ६ अक्टूबर को जब संसद का सत्रावसान हो जाएगा तब बात करेगें. तब तक इस बात को सार्वजनिक न किया जाए .
डॉ बी आर आंबेडकर की १२५वीं जयन्ती पर इस बात को साफ़ कर देना ज़रूरी है कि जिस तरह की विचारधारा के लोग आज बीजेपी में बड़ी  संख्या में मौजूद हैं , उस विचारधारा के बहुत सारे लोग उन दिनों कांग्रेस के संगठन और सरकार में भी थे. सरदार पटेल की मृत्यु हो चुकी थी और जवाहरलाल अकेले पड़ गए थे . प्रगतिशील और सामाजिक बराबारी की उनकी सोच को डॉ आंबेडकर का पूरा समर्थन मिलता था लेकिन डॉ आंबेडकर के इस्तीफे के बाद कम से कम हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में तो वे बिलकुल अकेले थे.  यह भी समझना ज़रूरी है कि हिन्दू कोड बिल इतना बड़ा मसला क्यों था कि देश के दो सबसे शक्तिशाली नेता, इसको पास कराने को लेकर अकेले  पड़ गए थे .
हिन्दू कोड बिल पास होने के पहले  महिलाओं के प्रति घोर अन्याय का माहौल था .  हिन्दू पुरुष जितनी महिलाओं से चाहे विवाह कर सकता था और यह महिलाओं को अपमानित करने या उनको अधीन बनाए रखने का सबसे बड़ा हथियार था. आजादी की लड़ाई के दौरान यह महसूस किया गया था कि इस प्रथा को खत्म करना है . कांग्रेस के १९४१ के एक दस्तावेज़ में इसके बारे में विस्तार से चर्चा भी हुयी थी.  कानून मंत्री के रूप में संविधान सभा  में डॉ आंबेडकर ने  हिन्दू कोड बिल का जो मसौदा रखा उसमें आठ सेक्शन थे . इसके  दो सेक्शनों पर सबसे ज़्यादा विवाद था. पहले तो दूसरा सेक्शन जहां विवाह के बारे में कानून बनाने का प्रस्ताव था. इसके अलावा पांचवें सेक्शन  पर भी भारी विरोध था. डॉ बी आर आंबेडकर ने महिलाओं और लड़कियों को साझा  संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार देने की बात की थी . इसके पहले विधवाओं को संपत्ति का कोई अधिकार नहीं होता था . डॉ आंबेडकर ने प्रस्ताव किया था कि उनको भी अधिकार दिया जाए. बेटी को वारिस   मानने को  भी पोंगापंथी राजनेता तैयार नहीं थे . यह कट्टर लोग तलाक को भी मानने को तैयार नहीं थे जबकि डॉ आंबेडकर तलाक को ज़रूरी बताकार उसको महिलाओं के निर्णय लेने की आजादी से जोड़ रहे थे .

आंबेडकर का ज़बरदस्त विरोध हुआ लेकिन जवाहरलाल नेहरू उनके साथ खड़े रहे . डॉ आंबेडकर ने हिन्दू की परिभाषा भी बहुत व्यापक बताई थी. उन्होंने कहा कि जो लोग मुस्लिम, ईसाई , यहूदी नहीं है वह हिन्दू है . कट्टरपंथियों ने इसका घोर विरोध किया .संविधान सभा में पचास घंटे तक बहस हुयी लेकिन  कट्टरपंथी भारी पड़े और  कानून पर आम राय नहीं बन सकी. नेहरू ने सलाह दी कि विवाह और तलाक़ के बारे में फैसला ले लिया जाए और बाकी वाले जो भी प्रावधान हैं उनको जब भारत की नए संविधान लागू होने के बाद जो संसद चुनकर आ जायेगी उसमें बात कर ली जायेगी लेकिन कांग्रेस में पुरातनपंथियों के बहुमत ने इनकी एक न चलने दी .बाद में डॉ आंबेडकर के इस्तीफे के बाद संसद ने हिन्दू कोड बिल में बताये गए कानूनों को पास तो किया लेकिन हिन्दू कोड बिल को नेहरू की सरकार ने कई हिस्सों में तोड़कर पास करवाया . उसी का नतीजा है कि हिन्दू मैरिज एक्ट, हिन्दू उत्तराधिकार एक्ट, हिन्दू गार्जियनशिप एक्ट, और हिन्दू एडापशन एक्ट बने . यह सारे कानून डॉ आंबेडकर की मूल भावना के हिसाब से नहीं थे लेकिन इतना तो सच है कि कम से कम कोई कानून तो बन पाया था.
इसलिए डॉ आंबेडकर के मंत्रिमंडल के इस्तीफे का कारण जवाहरलाल नेहरू को बताने  वाले बिकुल गलत हैं .उनको समकालीन इतिहास को सही तरीके से समझने की ज़रुरत है .

बंगाल की राजनीतिक हवा में परिवर्तन की खुशबू



शेष नारायण सिंह

पश्चिम बंगाल का विधान सभा चुनाव के पहले दौर का वोट पड़ चुका है . इसके साथ ही चुनाव अभियान और माहौल बहुत ही दिलचस्प हो गया है . अभी छः महीने पहले तक जो तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी अजेय मानी जा रही थींउनको कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट से ज़बरदस्त टक्कर मिल रही है . दिल्ली में बैठे ज्ञानी २०११ और २०१४ के चुनावी आंकड़ों के प्रतिशत को आधार बनाकर भांति भांति की भविष्यवाणियां कर रहे हैं. लेकिन इन आंकड़ों का कोई मतलब नहीं है . २०११ में कांग्रेस और ममता बनर्जी का गठ्बंधन था और २०१४ का लोकसभा चुनाव , मोदी लहर का चुनाव  था.  इस बार दोनों ही परिस्थितियाँ नहीं हैं . कांग्रेस लेफ्ट फ्रंट के साथ है लेफ्ट फ्रंट का पुराना अहंकारी नेतृव अब बदल गया है और कार्यकर्ता अब औकात बोध की  स्थिति में है . ममता बनर्जी के पक्ष में  २०११ जैसी लहर तो बिलकुल नहीं हैहाँ आम इंसान की बहुत सारी उम्मीदें जो  पिछले विधान सभा चुनाव में ममता बनर्जी के अभियान से जुड़ गयी थीं वे अब निराशा में बदल चुकी हैं . ग्रामीण बंगाल में समीकरणों के हालात बिलकुल  बदल चुके हैं . लेफ्ट फ्रंट के करीब ४३ साल के राज के बाद ग्रामीण इलाकों में पश्चिम बंगाल की वामपंथी राजनीति में एक शून्य उभर आया था. इस संवाददाता ने बंगाल के ग्रामीण इलाकों से लौटकर लिखा था कि " हो सकता है कार्यकर्ताओं के बीच फैला हुआ शून्य इतना व्यापक हो जाए कि वामपंथी राजनीति के गढ़ पश्चिम बंगाल में ही वामपंथ इतना कमजोर पड़ जाए कि लालिकले पर लाल निशान फहराने की तमन्ना पश्चिम बंगाल में ही हवा हो जाए. " इसका कारण यह था जब ज्योति बसु ने अपने आपको सत्ता से अलग कर लिया था तो उनके वारिसों ने ग्रामीण किसान और बटाईदारों में पक्ष में काम करने वाली सरकार और पार्टी को एक ऐसे संगठन के रूप में बदल दिया था जो अन्य राज्यों के मुकामी राजनीतिक गुंडों की जमात की तरह का आचरण करने लगा था . ग्रामीण स्तर पर पार्टी का इंचार्ज उस इलाके का नेता सबसे प्रभाव शाली  गुंडे के रूप में पहचाना जाने लगा था . उसी ग्रामीण बदमाशी तंत्र से जान छुडाने के  लिए जनता ने परिवर्तन की गुहार लगाई और तृणमूल कांग्रेस की सरकार बना दी.
ममता बनर्जी की अगुवाई में सरकार बन गयी और ग्रामीण क्षेत्रों में  लेफ्ट फ्रंट के गुंडों के स्थान पर तृणमूल के गुंडे काबिज़ हो गए और कम्युनिस्ट राज की  तरह का आतंक शुरू हो  गया. इसलिए ग्रामीण बंगाल में ममता बनर्जी के प्रति वह उत्साह नहीं है जो २०११ में देखा जा रहा था.
ममता बनर्जी को चुनौती और कई तरह से मिल रही है लेकिन उनसे जो  रणनीतिक चूक हुयी हैवह सबसे महत्वपूर्ण है . उन्होंने  सोच रखा था कि लेफ्ट फ्रंट से तो उनकी पार्टी मुकाबला करेगी लेकिन कांग्रेस और बीजेपी को आपस में लड़ा देगीं . अगर ऐसा  हुआ होता तो मध्यवर्ग का जो सेक्शन ममता बनर्जी की सरकार से नाराज़ है वह आपस में ही लड़ जाता और ममता की पार्टी के खिलाफ वोट    डाल पाता.  लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट में सहयोग की बात लगभग अकल्पनीय मानी जा रही थी लेकिन आज दोनों मिलकर  मैदान में हैं . इसका एक नतीजा  तो यह है कि बीजेपी  का अब पश्चिम बंगाल में केवल सांकेतिक हिस्सा ही रह गया है . चुनाव सीधे सीधे तृणमूल और लेफ्ट फ्रंट-कांग्रेस जोत के बीच हो  गया है .   ग्रामीण पश्चिम बंगाल की मुस्लिम आबादी इन चुनावों में बहुत ही महत्वपूर्ण हो गयी है . पिछले चुनावों में उसने काग्रेस को लगभग दरकिनार कर दिया था  लेकिन इस बार मुसलमान के दिमाग में एक बात बार बार घूम रही है और वह ज़मीनी स्तर पर नज़र भी आ रही है और वह यह कि जिस तरह से  केंद्र की बीजेपी सरकार ने मुस्लिम विरोधी अभियान चला रखा है उसको अगर कोई रोक सकता है  तो वह कांग्रेस ही है .  आम तौर पर माना जा रहा है कि लेफ्ट फ्रंट और ममता बनर्जी का पूरे देश के स्तर पर कोई प्रभाव नहीं है इसलिए उनको बीजेपी के चुनौती देने वाले के रूप में पेश  नहीं किया जा सकता. स्थानीय उर्दू और  बँगला अखबारों में जिस तरह से मौजूदा केंद्र सरकार के ममता बनर्जी के प्रति नरम  रुख की ख़बरें छप रही हैं ,उससे भी बहुत फर्क पड़ रहा  है . ममता बनर्जी के बारे में तो उनका  अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति सम्मान भी चर्चा में है . शारदा घोटाले में  ममता सरकार के मंत्रियों और नेताओं के प्रति केंन्द्र की नरमी भी तृणमूल और बीजेपी की चुनाव के बाद की संभावित दोस्ती भी हवा में है .शायद मुसलमानों की यह बेरुखी ममता बनर्जी की समझ में आ चुकी है इसीलिए उत्तर बंगाल की हर चुनावी सभा में वे पूर्व रेल मंत्री और कांग्रेस के बड़े नेता ए बी ए गनी खान चौधरी का नाम बार बार लेती रहती हैं  . वे दावा करती हैं कि बरकत दा उनके राजनीतिक गुरु वगैरह भी थे लेकिन इन बातों का ज़रूरी असर नहीं पड़ रहा है .
ममता बनर्जी की खिलाफ गरीबों को  मिलने वाले सस्ते राशन में कटौती का मामला भी भारी पड़ रहा है . ग्रामीण इलाकों में तृणमूल के मुकामी नेताओं के आतंक के कारण कोई खुल कर सामने  नहीं आ रहा है लेकिन बाहरी लोगों के  सामने लोग अपने गुस्से का इज़हार कर दे रहे हैं . ममता बनर्जी के साथ २०११ के चुनावों में बंगाली भद्रलोक लगभग पूरी तरह से था लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हैं. बुद्धिजीवी और कलाकार चुप हैं इसलिए चुनाव पर भी उसका असर पडेगा ऐसा माना जा रहा है .
 आम तौर पर माना जा रहा  है कि तृणमूल कांग्रेस के पास  अभी भी करीब ४० प्रतिशत वोट है . अगर कांग्रेस ,बीजेपी और लेफ्ट फ्रंट अलग अलग होते तो एक बार ममता बनर्जी की सरकार बनाना पक्का हो जाता लेकिन अब माहौल बदल चुका है . अगर करीब ३८ प्रतिशत लेफ्ट फ्रंट और ९ प्रतिशत कांग्रेस जोड़ दिया जाया तो यह ममता के खिलाफ चला जाएगा . सच्चाई यह  है कि ममता के वोट कम होंगें और जोत के वोट बढ़ेगें . ऐसी स्थिति में आज पश्चिम बंगाल की राजनीति में कुछ भी पक्का नहीं है .
२०१०-११ में जब ममता बनर्जी परिवर्तन वाला चुनाव अभियान चला रही थीं तो उन्होंने ऐलान किया था कि पूरे भारत में घरेलू नौकर के रूप में पहचान बना रही बंगाली आबादी को वहां से वापस बुलाकर अपने राज्य में ही सम्मान पूर्वक बसाया जाएगा लेकिन ऐसा  नहीं हुआ. देश के हर महानगर के आसपास के नए विकसित हो  रहे शहरों में बंगाली नौकरों की मौजूदगी ममता बनर्जी के चुनावी  वादों की नाकामी की कहानी बयान कर रहे हैं . राज्य में उनकी पहचान एक  दम्भी  इंसान की भी बन गयी है. मदन  मित्रा उनके  करीबी हैं  , तृणमूल के बड़े नेता हैं और  जेल में हैं . उनको भी महत्व देकर ममता बनर्जी ने साबित कर दिया है कि वे स्थानीय भावनाओं की परवाह नहीं करतीं , जो वे समझती हैं वही सही है . कोलकता के बीच में बन रहे भ्रष्टाचार के पुल की दुर्दशा भी सत्ताधारी पार्टी पर भारी पड़ने वाला है . ऐसी स्थिति में ममता बनर्जी की चुनावी स्स्थिति बहुत ही कमज़ोर  हो गयी है . इस बात की संभावना लगातार बनी हुयी है  कि  इस बार भी रायटर्स बिल्डिंग में परिवर्तन दोबारा न हो जाए . 

सेल्फ गोल की राजनीति और मौजूदा केंद्र सरकार


शेष नारायण सिंह

एक और सेल्फ गोल. उत्तराखंड की डगमगाती हरीश रावत सरकार को केंद्र सरकार ने बर्खास्त करके राज्य में कांग्रेस और हरीश रावत की राजनीति को जीवनदान दे दिया है . उत्तराखंड में चुनाव होने वाले हैं . पिछले चुनाव का दौरान २०१२ में ३ मार्च को नतीजे आ गए थे यानी पूरा जनवरी फरवरी चुनाव  होंगें. अभी २० मई को जब असम ,पश्चिम बंगालकेरल तमिलनाडु और पुद्दुचेरी के नतीजे आयेगें लगभग उसी दिन से उत्तर प्रदेश उत्तराखंडपंजाब आदि के चुनाव अभियान की शुरुआत हो जायेगी . २० मई से ही बीजेपी को मौक़ा मिल जाता कि वह हरीश रावतराहुल गांधी और  कांग्रेस के खिलाफ अभियान शुरू हो जाता . लेकिन उस सरकार को बर्खास्त करके केंद्र सरकार ने अमित शाह के हाथ से एक ज़बरदस्त हथियार छीन लिया है . अब चुनाव प्रचार में सरकार की कमियाँ चर्चा में होंगीं . बीजेपी के नेता कहेगें कि कांग्रेस ने पांच साल में तबाही ला दी और  तुरंत अगला सवाल आयेगा कि आपने केंद्र में क्या किया है . सबको मालूम है कि केंद्र सरकार ने ऐसा कोई काम अब तक नहीं किया है जिसका बहुत बखान किया जा सके. ऐसी स्थिति में उत्तराखंड के बर्खास्त मुख्यमंत्री को दया का पात्र बना दिया गया जिसका खामियाजा निश्चित रूप से बीजेपी को भोगना पड़ सकता है .
इसके पहले भी बीजेपी ने सेल्फ गोल किया है . हरियाणा में बीजेपी सरकार और नेताओं ने जिस तरह से जाट आन्दोलन को सम्भाला उससे बीजेपी का भारी राजनीतिक नुकसान हुआ  है . २०१४ के चुनावों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश हरियाणा और  पूर्वी राजस्थान में ताक़तवर जाट बिरादरी ने पूरी तरह से बीजेपी को वोट दिया था जिसके कारण इन इलाकों में बीजेपी की भारी जीत हुयी थी. सच्ची बात यह है कि  दिल्ली के चारों तरफ आबाद जाट बिरादरी के बीच चल रहा मोदी के पक्ष में समर्थन का तूफ़ान ही मोदी लहर बनाने में कामयाब हुआ था. दुनिया भर से आने वाले पत्रकारों को दिल्ली के आस पास चारों तरफ एक सौ किलोमीटर के दायरे में मोदी को जाटों का मुखर समर्थन मिलता नज़र आ रहा था हरियाणा में जाट आरक्षण आन्दोलन के समय सरकारी रुख और बीजेपी नेताओं का जाट बिरादरी का प्रति अपमानजनक भाषा का प्रयोग करना बीजेपी का बहुत भारी सेल्फ गोल है . आज से दो साल पहले जिन गावों में बीजेपी के कार्यकर्ताओं का स्वागत होता था उन्हीं गावों में आज बीजेपी का कार्यकर्ता  प्रवेश नहीं कर सकता .  इस का नमूना साल भर के अन्दर होने वाले उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनावों में साफ़ नज़र आने वाला है .
केंद्रीय विश्वविद्यालयों में छात्रों का दमन भी बीजेपी की अदूरदर्शी राजनीति का नतीजा है . नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने में छात्रों और नौजवानों का बड़ा योगदान रहा है . इन छात्रों में कांग्रेस के अलावा हरेक राजनीतिक पार्टी से  सम्बद्ध छात्र  संगठनों के लोग शामिल थे. लेकिन बीजेपी से समबद्ध छात्र संगठन एबीवीपी को मज़बूत करने के उद्देश्य से कुछ केंद्रीय मंत्रियों ने कुछ विश्वविद्यालयों के छात्रों को देशद्रोही आदि कहकर छात्रों में गुस्सा पैदा कर दिया है . आज आलम यह है कि देश के सभी हिस्सों में दलित और वामपंथी छात्र संगठन केंद्र सरकार और बीजेपी से नाराज़ हैं . ज़ाहिर है इसका भी नुकसान चुनावों में होने वाला है . इसी तरह से नौजवानों में भी गुस्सा है . हर साल एक करोड़ नौकरियों का वादा प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र मोदी  ने देश के हर कोने में किया था . वह भी कहीं नहीं है .इसकी वजह से भी भारी नाराजगी देखी जा रही है .
मोदी सरकार का वित्त मंत्रालय मध्यवर्ग को नाराज़ करने में पूरी तरह से जुट गया है. बहत सारे उदाहरण हैं लेकिन प्रोविडेंट फंड की ब्याज दर घटाने की बात जिस तरह से की जा रही है ,उससे नरेंद्र मोदी के कोर वोटर को नाराज़ करने की कोशिश हो रही है . इस ब्याज दर के घटने से सरकारी खजाने को कोई ख़ास फायदा भी नहीं होने वाला है . समझ में नहीं आता कि इन अलोकप्रिय योजनाओं को कौन आगे बढ़ा रहा है . लेकिन जो भी बढ़ा रहा  है वह निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी को कमज़ोर कर रहा है .
शहरी और ग्रामीण मध्यवर्ग को लुभाने के लिए चुनाव अभियान २०१४ के दौरान और भी बहुत सारे वायदे किये गए थे.  काले धन के बारे में नरेंद्र मोदी  ने लगभग हर सभा में बा आवाज़े बुलंद ऐलान किया था . उन्होंने कहा था कि विदेशों में जमा कालाधन वापस लाने से देश में हर व्यक्ति के हिस्से में करीब पंद्रह लाख रूपये आ जायेगें . जहां तक मुझे याद है उन्होंने यह  कहीं नहीं कहा था कि सबके बैंक खाते में पंद्रह लाख रूपये जमा हो जायेगें . लेकिन उनकी सरकार आने के बाद जिस तरह से ताबड़तोड़ सबके बैंक खाते खोले गए और जन धन योजना का जिस तरह उनके समर्थकों और कार्यकर्ताओं ने प्रचार किया ,उससे लगने लगा कि शायद वास्तव में  लोगों के बैंक में ही धन जमा होने वाला हो लेकिन बाद में बीजेपी के अध्यक्ष ने ही कालेधन के बारे में किये प्रचार को जुमला कह दिया और बात को मीडिया ने बहुत आगे बढ़ा दिया . बीजेपी के विरोधियों ने तो उसे बीजेपी यानी भारतीय  जुमला पार्टी कहना तक शुरू कर दिया . मध्य वर्ग और गरीब वर्ग में इस जुमलेबाजी का भी असर बहुत ही नकारात्मक रहा.

 सेल्फ गोल तो नहीं कहा जा सकता लेकिन मंहगाई कम करने के मामले में इस सरकार की जो असफलता है वह सारे देश में चर्चा का विषय है .  डॉ मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान जिस तरह से मंहगाई को मुद्दा बनाया गया था उसके सन्दर्भ में यह उम्मीद सबको थी कि मंहगाई कम करने के लिए मोदी सरकार कोई पायेदार क़दम उठायेगी . आज दो साल होने को आये लेकिन  ऐसा कुछ होता नज़र नहीं आ रहा है . देश में हर उस आदमी , जिसके हाथ में आधुनिक मोबाइल फोन या कम्यूटर है ,उसको मालूम है कि कच्चे तेल की कीमतें महंगाई का पैमाना तय करने में सबसे अहम् भूमिका निभाती हैं . उसको यह भी मालूम है कि पिछले दो वर्षों में कच्चे तेल की कीमतें लगातार घट रही हैं और अब २०१४ से आधे से भी कम पर पंहुंच गयी हैं . लेकिन मंहगाई कम होने की कौन कहे लगातार बढ़ रही है . उपभोक्ता सामान और भोजन की चीज़ें तो महंगी हो ही रही हैं पेट्रोल की कीमत में भी आम आदमी को अंतर्राष्ट्रीय  स्टार पर कम हुयी कीमतों का लाभ नहीं मिल रहा है . सोशल मीडिया पर चारों तरफ चर्चा है कि सरकार ने  कम दाम पर आयात होने होने वाले पेट्रोलियम उत्पादों का लाभ आम आदमी नहीं पूंजीपति वर्ग को दे दिया गया . कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन रहा है कि सरकार अपनी ज़्यादातर वायदों को पूरा नहीं कर पा रही है .
मोदी सरकार के बनने के बाद इस बात की ज़बरदस्त चर्चा थी कि विदेशनीति के बारे में भारी सफलता मिल रही है. लेकिन जब विदेशनीति की  सफलता को कूटनीति के पैमाने पर जांचा जाए तो साफ़ समझ में आ जाएगा कि मौजूदा सरकार की विदेशनीति में ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिए गौरव की अनुभूति हो. हाँ नकारात्मक कुछ ज़रूर नज़र आ जाएगा . वर्तमान विदेशनीति के प्रबंधकों को इस बात पर फिर से विचार करना होगा कि मास्को से भारत की जो मज़बूत दोस्ती थी , उसको  किस कारण से कमज़ोर किया गया . अमरीका से दोस्ती बढाने और चीन से रिश्ते सामान्य करने के चक्कर में रूस को नाराज़ कर दिया गया है . समय के  साथ साथ इस बात का अनुमान लगने लगा है कि  अमरीका की अविश्वसनीय कूटनीति और चीन की पाकिस्तान दोस्त विदेश नीति के  सामने भारत की हैसियत बहुत कम है  लेकिन इन दोनों से दोस्ती करने के चक्कर  में रूस को नाराज़ कर दिया गया है . रूस ने अपनी नाराजगी को व्यक्त भी कर दिया है . पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा कर रूस ने साफ़ कर दिया है कि उसके साथ दोस्ती रखना है तो अमरीका और चीन से उसी तरह का सम्बन्ध रखना पडेगा जिस तरह का अब तक के भारतीय विदेशमंत्री  रखते रहे हैं . पिछले दो वर्षों की विदेशनीति की व्याख्या करने पर साफ़ समझ में आ जाएगा कि  वहां भी बहुत जल्दी और अति उत्साह के चक्कर में सेल्फ गोल ही हो रहा है .
भारत की राजनीति में पिछले पचास साल की राजनीति पर गौर करें तो साफ़ समझ में आ जाएगा कि जिस भी प्रधानमंत्री ने भी सत्ता खोई है वह गलत नीतियों के कारण हुए सेल्फ गोल का ही नतीजा रहा है . जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री की बात अलग है . वे महान थे लेकिन उसके बाद के हर प्रधानमंत्री ने अपने लोगों की उल्टी सलाह के चलते ही सत्ता गंवाई है . १९७१ के बंगलादेश युद्ध और दो तिहाई बहुमत के सत्ता में आई इंदिरा गांधी ने अगर इमरजेंसी न लगाई होती तो क्या वे १०७७ में सत्ता से हाथ धोने के लिए मजबूर होतीं. इमरजेंसी एक सेल्फ गोल था और उससे बचा जा सकता था. इसी तरह की गाल्तियाँ हर शासक ने की . और दिल्ली की गलियों में पैदल नज़र आने लगे.
ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  भी उसी तरह के चक्रव्यूह में घिर गए हैं . लगता है कि कोई उनको सत्ता प्रतिष्ठान के अंदर से ही कमज़ोर कर रहा है . वरना एक एक करके अपने सभी समर्थक समूहों को नाराज़ करने वाली नीतियों को कभी न लागू करते. उनके दो साल पूरे होने वाले हैं . तीसरा साल बहुत ही अहम होगा क्योंकि अगर तीसरे साल में भी उनकी यही रफ़्तार रही तो २०१९ बहुत ही कठिन हो जाएगा . उससे बचने का यही तरीका है कि सही सलाहकारों की सलाह मानें और सेल्फ गोल से बचें.

आर एस एस की सोच में बदलाव की ज़रुरत है


शेष नारायण सिंह 




 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के यूनिफार्म में एक बार फिर बदलाव कर दिया गया है . १९२५  में जब आर एस एस की स्थापना हुयी थी तब से उनके कार्यकर्ताओं की यूनिफार्म का हिस्सा रहा खाकी निकर अब बदल दिया गया है . अब  आर एस एस के स्वयंसेवक फुल पैंट पहना करेगें . इसके  पहले भी दो एक बार  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  वालों ने अपने कार्यकर्ताओं की वर्दी में बदलाव  किया था. हालांकि खाकी निकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों की पहचान का हिस्सा शुरू से ही बना रहा था . दिलचस्प बात यह है कि कुछ टी वी चैनलों ने आर एस  एस की वर्दी में हुए बदलाव को  राष्ट्रीय महत्त्व की बात माना और निकर की फुल पैंट तक की  यात्रा को राष्ट्रीय बहस के मुद्दा बनाने की कोशिश की .  इस बात से इनकार नहीं किया जा  सकता कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में बड़े बदलाव की ज़रुरत है . उनके सदस्य अब पूरी तरह से सत्ता में हैं , कार्यपालिका,  विधायिका,  नौकरशाही, मीडिया हर जगह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  के स्वयंसेवक महत्वपूर्ण पदों पर बैठाए जा रहे हैं . मुझे निजी तौर पर इन नियुक्तियों के बारे में कोई एतराज़ नहीं है , बल्कि मैं मानता हूँ कि अपने बन्दों को अच्छे पदों पर नियुक्त करने की जो परम्परा १९७१ के बाद से कांग्रेस ने डाली थी उसकी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  वाले भी आगे बढ़ा रहे हैं .. उनको भी अपने चेलों को महत्वपूर्ण पदों पर भर्ती करने का उतना ही अधिकार है जितना कांग्रेसियों को था  या यू पी ए के पहले शासन काल में कम्युनिस्टों को था. बस मेरा सीमित तर्क यह है कि अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  देश की सत्ता का मालिक है , उसकी मातहत एक पार्टी केंद्र में स्पष्ट  बहुमत के साथ सत्ता में है और देश के हर विश्वविद्यालय में उनके सदस्य एबीवीपी की ज़रिये  कैम्पस की मुकामी राजनीति में सक्रिय हैं ,नौकरशाही में भी उनके सदस्यों की भरमार है इसलिए अब उनके किसी भी फैसले से देश की पूरी आबादी प्रभावित होगी . अभी पूरी दुनिया ने देखा कि किस तरह  से हैदराबाद और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में में कैम्पस में अपनी राजनीति चमकाने के  के लिए  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्यों ने देश की कैसी तस्वीर पेश कर दी . इस से बचना होगा . आर एस एस के नागपुर स्थित मालिकों और दिल्ली में उनके संगठन की तरफ से राज कर रहे लोगों को हमेशा याद रखना होगा कि १२५ करोड़ देशवासियों की जनसँख्या में उनको केवल १७ करोड़ (171,657,549 ) के आस पास वोट ही मिले हैं. हमारी संवैधानिक व्यवस्था है कि उनको पूरे देश का नेतृत्व करना है. जाहिर है कि आर एस एस को अपनी निकर के साथ साथ अपनी सोच को भी एक ऐसी राजनीतिक पार्टी के रूप में बदलना होगा जिसको अब सत्ता पाने के लिए संघर्ष नहीं  करना है , अब सत्ता मिल चुकी है . जिन लोगों पर हुकूमत करने का उनको अधिकार मिला है उनमें ऐसे भी लोग हैं जो आर एस  एस को किसी भी कीमत पर सत्ता नहीं देना चाहते थे लेकिन अब उनको भी मौजूदा स्थिति को स्वीकार करना पडेगा. ऐसी स्थिति में आर एस एस की राजनीतिक समझदारी को पूरे देश के  लिए इन्क्लूसिव बनाना पडेगा .



संतोष की बात यह है कि मौजूदा सरकार और आर एस एस के नेता अब महात्मा गांधी को  अपना हीरो मानते हैं . अगर महात्मा की नीतियों को भी देश के मौजूदा शासक सामाजिक समरसता के लिए अपना लें तो देश और समाज के लिए बहुत अच्छा होगा. हालांकि यह काम बहुत मुश्किल होगा क्योंकि आज की सत्ताधारी पार्टी और उसके साथियों में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो महात्मा गांधी के हत्यारों को महान  बताते पाए जाते हैं . आर  एस एस को ऐसे लोगों पर लगाम  लगानी पड़ेगी . 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में प्रार्थना के लिए जा रहे  महात्मा जी को एक हत्यारे ने गोली मार दिया था और पूरा देश सन्न रह गया था। आज़ादी की लड़ाई में शामिल सभी राजनीतिक जमातें दुःख में  डूब गयी थी। जो जमातें आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थीं, उन्होंने गांधी जी की शहादत पर कोई आंसू नहीं बहाए। ऐसी ही एक जमात हिन्दू महासभा थी . हिन्दू महासभा के कई सदस्यों की साज़िश का ही नतीजा था जिसके कारण महात्मा गांधी की मृत्यु हुयी थी।  हिन्दू महासभा के सदस्यों पर ही  महात्मा गांधी की हत्या का मुक़दमा चला और उनमें से कुछ लोगों को फांसी हुयी, कुछ को आजीवन कारावास हुआ और कुछ तकनीकी आधार पर बच गए। नाथूराम गोडसे ने गोलियां चलायी थीं , उसे फांसी हुयी, उसके भाई गोपाल गोडसे को साज़िश में शामिल पाया गया लेकिन उसे आजीवन कारावास की सज़ा हुयी।  उस वक़्त के आर एस एस के सरसंघचालक एम एस गोलवलकर को भी महात्मा गांधी की हत्या की साज़िश में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार  किया गया था  . सरदार पटेल उन दिनों देश के गृहमंत्री थे और उन्होंने  गोलवलकर से एक अंडरटेकिंग लेकर  कुछ शर्तें मनवा कर जेल से रिहा किया था . बाद के दिनों में आर एस एस ने हिन्दू महासभा से पूरी  तरह से किनारा  कर लिया था। बाद में जनसंघ की स्थापना हुयी और आर एस एस के प्रभाव वाली एक नयी राजनीतिक पार्टी की तैयार हो गयी। आर एस एस के प्रचारक दीन दयाल उपाध्याय  को नागपुर वालों ने जनसंघ का काम करने के लिए भेजा था। बाद में  वे जनसंघ के सबसे बड़े नेता हुए।  1977  तक आर एस एस और जनसंघ वालों ने महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की नीतियों की खूब जमकर आलोचना की और  गांधी-नेहरू की राजनीतिक  विरासत को ही देश में होने वाली हर परेशानी का कारण बताया . लेकिन 1980 में जब जनता पार्टी को तोड़कर जनसंघ वालों ने   भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की तो पता नहीं क्यों उन्होंने अपनी पार्टी के राजनीतिक उद्देश्यों में  गांधियन  सोशलिज्म को भी शामिल कर लिया। ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा कि आज़ादी की लड़ाई में आर एस एस  का कोई आदमी कभी शामिल नहीं हुआ था। नवगठित बीजेपी  को कम से कम  एक ऐसे महान व्यक्ति तलाश थी जिसने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया हो . हालांकि अपने पूरे जीवन भर महात्मा गांधी कांग्रेस के नेता रहे लेकिन बीजेपी ने उन्हें अपनाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया .और अब आर एस एस और बीजेपी के लोग महात्मा गांधी को अपना पूर्वज मानते हैं . हो सकता है कुछ वर्षों बाद वे इतिहास की किताबों में यह भी लिखवा दें कि महात्मा गांधी ने १९२५ में आर एस एस  की स्थापना में भी सहयोग दिया था.  

अंग्रेज़ी  राज  के  बारे में महात्मा गांधी और आर एस एस में बहुत भारी मतभेद था। महात्मा गांधी अंग्रेजों को हर कीमत पर हटाना चाहते थे  जबकि आर एस एस ने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे  अंग्रेजों को देश से भगाया अजा सके. 1925 से लेकर 1947 तक आर एस एस को अंग्रेजों के सहयोगी के रूप में देखा जाता है . शायद इसीलिये जब 1942 में भारत छोडो का नारा देने के बाद देश के सभी नेता जेलों में ठूंस दिए गए थे तो आर एस एस के सरसंघचालक एम एस गोलवलकर सहित उनके सभी नेता जेलों के बाहर थे और  अपना सांस्कृतिक काम चला रहे थे .

महात्मा जी की ह्त्या के 30 साल बाद जब आर एस एस वाले जनता पार्टी के सदस्य बने तो उन्हें ऐलानियाँ महात्मा गांधी का विरोध करना बंद किया .महात्मा गांधी से अपनी करीबी और नाथूराम गोडसे से अपनी दूरी साबित करने के लिए आर एस एस ,जनसंघ और बीजेपी के नेताओं ने हमेशा से ही भारी मशक्क़त की है .  आडवानी समेत सभी बड़े नेताओं ने बार बार यह कहा था कि जब महात्मा गांधी की हत्या हुयी तो नाथूराम गोडसे आर एस एस का सदस्य नहीं था .यह बात तकनीकी आधार पर सही हो सकती है लेकिन गांधी जी  की हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सज़ा  काट कर लौटे  नाथू राम गोडसे के भाई , गोपाल गोडसे ने सब गड़बड़ कर दी। उन्होंने अंग्रेज़ी पत्रिका " फ्रंटलाइन " को दिए गए एक इंटरव्यू में बताया कि आडवानी  और बीजेपी के अन्य नेता उनसे दूरी  नहीं  बना सकते। . उसने कहा कि " हम सभी भाई आर एस एस में थे। नाथूराम,दत्तात्रेय . मैं और गोविन्द सभी आर एस एस में थे। आप कह सकते हैं  की हमारा पालन पोषण अपने घर में न होकर आर एस एस में हुआ। . वह हमारे लिए एक परिवार जैसा था।  . नाथूराम आर एस एस के बौद्धिक कार्यवाह बन गए थे।। उन्होंने अपने बयान में यह कहा था कि  उन्होंने आर एस एस छोड़ दिया था . ऐसा उन्होंने  इसलिए कहा क्योंकि महात्मा गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आर एस एस वाले बहुत परेशानी  में पड़  गए थे। लेकिन उन्होंने कभी भी आर एस एस छोड़ा नहीं था "


महात्मा गांधी को तो मौजूदा शासक वर्ग अपना बता चुका है . अब उनको चाहिए कि वे करीब २० करोड़ उन भारतीयों को भी अपना बना लें जिनका धर्मं इस्लाम है . यह देश मुसलामानों का भी है और हिन्दुओं का भी . हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने यह बात बहुत साफ़ तौर पर कह दी है .  क्योंकि १७ करोड़ लोगों के वोट लेकर बनी सरकार २० करोड़ लोगों को नज़रन्दाज़ नहीं कर सकती.

Wednesday, March 2, 2016

उर्दू को विदेशी भाषा बताना अज्ञानता है



शेष नारायण सिंह­­­



पिछले दिनों एक खबर आई थी कि दिल्ली की मेट्रो ट्रेन में एक आदमी उर्दू किताब पढ़ रहा था। जिसे देखकर पास ही खड़े कुछ लोगों ने उससे बात करनी शुरू कर दी। इन लोगों की आँखों में उस व्यक्ति के लिए नफरत साफ दिखाई दे रही थी। इतना ही नहींये लोग उसे देखकर कह रहे थे कि उर्दू पढनेवाले सभी पाकिस्तानी है। इन लोगों को पकिस्तान भेज देना चाहिए।’   ज़माना बदल गया है . इतनी बड़ी बात पर कहीं कोई हंगामा नहीं हुआ . उर्दू अखबारों के अलावा कहीं ज़िक्र तक नहीं हुआ . लेकिन आज से करीब तीस साल पहले था तक होता था . १९७८ में देश के गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह ने कहीं कह दिया था कि उर्दू तो विदेशी भाषा है . उस वक़्त के अखबारों में इस बात की खूब चर्चा हुयी थी और कई सम्पादकीय लेखकों ने चौधरी साहेब को आगाह किया था कि उर्दू विदेशी तो कतई नहीं है , वह उनके अपने जन्मस्थान के आसपास के इलाकों  में ही पैदा हुयी और इसी खड़ी बोली के इलाके में परवान चढ़ी. उन दिनों राजनीति में  सरे फेहरिस्त ऐसे लोग होते थे जिनमें से ज़्यादातर आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो चुके थे . उन्होंने अपनी आँखों से देखा था कि उर्दू बोलने और लिखने वालों की भारत की जंगे- आज़ादी में कितनी बड़ी भूमिका हुआ करती थी . चौधरी चरण सिंह भी भले आदमी थे और उन्होंने अपनी  गलती को स्वीकार कर लिया और बात आई गयी हो गयी.

दिल्ली मेट्रो की घटना को अगर पैमाना माना जाए तो यह मानना पडेगा कि हालात बिगड़ चुके हैं , बहुत बिगड़ चुके हैं . दिल्ली के आसपास जन्मी  और पलीबढी उर्दू ज़बान को अब गैर ज़िम्मेदार लोगों की नज़र में खतरनाक  भाषा माना जाने लगा है . किसी भी  भाषा और उसमें लिखा साहित्य अगर खतरनाक माना जाने लगे तो यह समाज में मनमानी की ताकतों के बढ़ने का संकेत माना जाता है . इंदिरा गांधी ने जब इमरजेंसी लगाई थी तो किसी को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस वाले उसके घर से या झोले से मार्क्सवादी साहित्य की बरामदगी दिखा देते थे . बस उसको खूंखार आतंकवादी मान लिया जाता था. १९८६ में जब से बाबरी मस्जिद के खिलाफ आन्दोलन शुरू हुआ तब से उर्दू को भी खतरनाक  घोषित करने की साज़िश पर काम चल रहा है . हालांकि सरकारी तौर  पर तो ऐसा  नहीं हुआ है लेकिन सड़कों पर जो लोग किसी को भी अपमानित करने के लिए घूम रहे हैं , उन ठगों के लिए उर्दू पाकिस्तानी हो चुकी है जबकि सच्चाई यह है कि उर्दू भारतीय भाषा है और पाकिस्तान ने उसको अपनी सरकारी भाषा के तौर पर स्वीकार कर लिया है .  भारतीय के रूप में हमें इस पर गर्व होना चाहिए कि हमारी भाषा किसी और देश की राजभाषा है . तकलीफ तब होती है जब ऐसे कुछ नेता मिलते हैं जो हिंदुत्व की राजनीति के अलंबरदारों की बात को काटना तो चाहते हैं लेकिन उनको मालूम ही नहीं है कि देश के इतिहास में उर्दू का योगदान कितना है . वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था। इस लेख उन उर्दू प्रेमियों को संबोधित है जो इस ज़बान के खिलाफ हो रहे हमलों से तकलीफ महसूस  करते हैं .

आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। इसके विकास में दोस्ती का पैगाम लेकर आये सूफी फकीरों की खानकाहों का भी बहुत ज़्यादा  योगदान है .सूफियों के दरवाज़ों पर अमीर गरीब सभी आते थे .सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। उनके चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दूमुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थेआने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी।इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे।


हज़रत अमीर खुसरो की शायरी हमारी  बेहतरीन अदब और विरासत का हिस्सा है . उनसे महबूब-ए-इलाही, हज़रत निजामुद्दीन औलिया  ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।

जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीतसाहित्यवास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है। इस तरह दक्षिण में  भी उर्दू भाषा पूरी शान की भाषा बनी .  1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुग़ल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे।वहां अबुलफजल भी थेतो फैजी भी थेअब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेवबाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावत की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी ही है .


उर्दू भारत की आज़ादी की लडाई के भी भाषा  है .कांग्रेस के अधिवेशन में 1916 में लखनऊ में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है  लेकिन उम्मीद बनाए रखने की ज़रूरत है क्योंकि इतनी संपन्न भाषा को राजनीति का कोई भी कारिन्दा दफ़न नहीं का सकता ,चाहे जितना ताक़तवर हो जाए . उर्दू भारत की भाषा है और इसको विदेशी कहना अपनी जहालत का परिचय देना ही है